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परमित रहती हैं उसी प्रकार उसके वचन भी परिमित थे और नई मेघमाला के शब्द के समान रुक-रुक कर बहुत देर बाद सुनाई देते थे । इस प्रकार उसके गर्भ के चिह्न निकटवर्ती मनुष्यों के लिए कुल उत्पन्न कर रहे थे। वे चिह्न कुछ अटथ । किसी एक दिन रानी की प्रधान दासियों ने हर्ष से राजा के पास जाकर और प्रणाम कर उनके कान में यह समाचार कहा । यद्यपि यह समाचार दासियों के मुख की प्रसन्नता से पहले ही सूचित हो गया था तो भी उन्होंने कहा था। गर्भ धारण का समाचार सुनकर राजा का मुख कमल ऐसा विकसित हो गया जैसा कि सूर्योदय से और चन्द्रोदय से कुमुद विकसित हो जाता है। जो वंशरूपी समुद्र को वृद्धिगंत करने के लिए तिलक के लिए चन्द्रोदय के समान है ऐसा पुत्र का प्रादुर्भाव किसके संतोष के लिए नहीं होता। जिसका मुखकमल अभी देखने को नहीं मिला है, केवल गर्भ में ही स्थित है और मुझे इस प्रकार संतुष्ट कर रहा है तब मुख दिखाने पर कितना संतुष्ट करेगा इस बात का क्या कहना है। ऐसा मानकर राजा ने उन दासियों के लिये इच्छित पुरस्कार दिया और द्विगुणित आनन्दित होता हुआ कुछ प्राप्त जनों के साथ वह रानी के घर गया । वहां उसने नेत्रों को सुख देने वाली रानो को ऐसा देखा मानो मैच से युक्त आकाया ही हो, अथवा रत्नगर्भा पृयो हो प्रच उदय होने के समीपवर्ती सूर्य से युक्त पूर्व दिशा ही हो राजा को देखकर रानी खड़ी होने की चेष्टा करने लगा परन्तु बैठी रहीं' इस प्रकार राजा के मना किये जाने पर बैठी रही। राजा एक ही शय्या पर चिरकाल तक रानी के साथ बैठा रहा और लज्जा सहित रानी के साथ योग्य वार्तालाप कर हर्षित होता हुआ वापिस चला गया।
तदनन्तर कितने ही दिन व्यतीत हो जाने पर पुण्य कर्म के उदय से अथवा गुरु शुक्र यादि ग्रहों के विद्यमान रहते हुए उसने जिस प्रकार इन्द्र की दिशा (प्राची) सूर्य को उत्पन्न करतो है, शरदऋतु पके हुए धान को उत्पन्न करती है और कोति महोदय को उत्पन्न करती है उसी प्रकार रानी ने उत्तम पुत्र उत्पन्न किया जिसका भाग्य बड़ रहा है और जो सम्पूर्ण लक्ष्मी को पाने के योग्य है ऐगे उस पुत्र का बन्धुजनों ने 'श्रीवर्मा' यह शुभ नाम रक्सा जिस प्रकार मूच्छित को सचेत होने से संतोष होता है, दरिद्र को खजाना मिलने से संतोष होता है, और थोड़ी सेना वाले राजा को विजय मिलने से संतोष होता है उसी प्रकार उस पुत्र जन्म से राजा को संतोष हुआ था। उस पुत्र के शरीर के तेज से जिनकी कान्ति नष्ट हो गई है ऐसे र दीपक रात्रि के समय सभा भवन में निरर्थक हो गये थे ।
उसके शरीर की वृद्धि वैद्यक शास्त्रों में कही हुई विधि के अनुसार होती थी और अच्छी क्रियाओं को करने वाली बुद्धि की वृद्धि व्याकरण आदि शास्त्रों के अनुसार हुई थी। जिस प्रकार यह जम्बूद्वीप ऊँचे मेरु पर्वत से सुशोभित होता है उसी प्रकार पृथ्वी-मंडल का पालन करने वाला यह लक्ष्मी-सम्पन्न राजा उस श्रेष्ठ पुत्र से सुशोभित हो रहा था किस एक दिन शिवकर वन के उद्यान में श्री पद्म नाम के जिनराज अपनी इच्छा से पधारे थे वनपाल से यह समाचार सुनकर राजा ने उस दिशा में सात कदम जाकर सिर से नमस्कार किया और बड़ी विनय के साथ उसी समय जिनराज के पास जाकर तीन प्रदक्षिणाएं दीं, नमस्कार किया, और यथास्थान घासन ग्रहण किया। राजा ने उनसे धर्म का स्वरूप पूछा, उनके कहे अनुसार वस्तु तत्य का ज्ञान प्राप्त किया, शीघ्र ही भोगों की तृष्णा छोड़ी, धर्म की तृष्णा में अपना मन लगाया, श्री वर्मा पुत्र के लिए राज्य दिया और उन्हीं श्रीपद्म जिनेन्द्र के समीप दीक्षा धारण कर ली।
जिनेन्द्र भगवान् के उपदेश से जिसका मिथ्यादर्जन रूपी महान्धकार नष्ट हो गया है। ऐसे श्री वर्मा ने भी बहु चतुर्थ गुणस्थान धारण किया जो कि मोक्ष की पहली सीढ़ी कहलाती है। चतुर्थ गुणस्थान के सन्निधान में जिस पुण्य कर्म का संचय होता है वह स्वयं ही इच्छानुसार रामस्त पदार्थों को सन्निहित निकटस्थ करता रहता है। उन पदार्थों से थो वर्मा ने इच्छित सुख प्राप्त किया था।
किसी समय राजा श्री वर्मा बासाड़ मास ही पूर्णिमा के दिन जिनेन्द्र भगवान् की उपासना और पूजा कर अपने साप्त जनों के साथ रात्रि में महल की छत पर बैठा था। वहां उल्कापात देखकर वह भोगों से विरक्त हो गया। उसने भी कान् नामक बड़े पुत्र के लिए राज्य दे दिया और श्री प्रभ जिनेन्द्र के समीप दीक्षा लेकर चिरकाल तक तप किया तथा अन्त में श्री
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