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वहाँ के मरे हुए जीव स्वर्ग में ही उत्पन्न होते थे । स्वर्ग में क्या रखा ? वह तो ऐसा ही है, यह सोचकर वहां के सम्यग्दृष्टि मनुष्य मोक्ष के लिए ही धर्म करते थे, स्वर्ग की इच्छा से नहीं। उस नगर में विवेकी मनुष्य उत्सव के समय मंगल के लिये और शौक के समय उसे दूर करने के लिए जिनेन्द्र भगवान् की पूजा किया करते थे। वहां के जनवादी लोग अपरिमित सुख देने वाले धर्म-अर्थ और काम की साध्य पदार्थों के समान उन्ही से उत्पन्न हुए हेतुमा से सिद्ध करते थे ।
उस नगर को घेरे हुए जो कोट था वह ऐसा जान पड़ता था मानों पुष्करवर द्वीप के बीच में पड़ा हुआ मानुषोत्तर पर्वत ही हो । वह कोट अपने रत्नों की किरणों में ऐसा जान पड़ता था मानों सूर्य के संताप के भय से छिप हो गया हो । नमस्कार करने वाले शत्र राजाओं के मकुटों में लगे हुए रत्नों की किरणें रूपी जल में जिसके चरण, कमल के समान विकसित हो रहे हैं ऐसा, इन्द्र के समान कान्ति का धारक श्रीषेण नाम का राजा उस श्रीपुर नगर का स्वामी था। जिस प्रकार शक्तिशाली मन्त्र के समीप सर्प विकार रहित हो जाते हैं उसी प्रकार विजयी श्रीषेण का पालन करने पर सब दुष्ट लोग विकार रहित हो गये थे। जमो शाम, दान प्रादि नामों का ठीक-ठीक विचार कर यथास्थान प्रयोग किया था इसलिए वे दाता के समान बहत भारी इच्छित फल प्रदान करते थे।
उसकी विजय करने वाली श्रीकान्ता नाग की स्त्री थी । वह श्रीकान्ता किसी अच्छे कवि की वाणी के समान थी। क्योंकि जिस प्रकार अच्छे कवि की वाणी सती अर्थात् दुःश्रवत्व प्रादि दोषों से रहित होती है उसी प्रकार वह भी सती अर्थात् पतिव्रता थी और अच्छे कवि की वाणी जिस प्रकार मुदुपद न्यासा अर्थात् कोमलकान्त पद विन्यास से युक्त होती है उसी प्रकार वह भी मृदुपन्यासा सर्थात कोमल चरणों के निक्षेप सहित थी। स्त्रियों के रूप आदि जो गुण हैं वे सब उस में सुख देने वाले उत्पन्न हुए थे। वे गुण पुत्र के समान पालन करने योग्य थे और गुरुओं के समान सज्जनों के द्वारा वन्दनीय थे । जिस प्रकार स्यादेवकारस्याद एवं शब्द से (किसो अपेक्षा से ऐसा ही है) से युक्त नय किसी विद्वान के मन को प्रानन्दित करते हैं उसी प्रकार उसकी कान्ता के रूप प्रादि गुण पति के मन को मानन्दित करते थे । बह स्त्री अन्य स्त्रियों के लिए आदर्श के समान थी और ऐसी जान पड़ती थी मानों नाम कर्म रूपी विधाता ने अपनी बुद्धि की प्रकर्षता बतलाने के लिए गुणों की पेटी ही बनाई हो। वह दम्पती देवदम्पती के समान पाप रहित, अविनाशी, कभी नष्ट न होने वाले और समान तुप्ति को देने वाले उत्कृष्ट मुख को प्राप्त करता था।
वह राजा निष्पुत्र था अतः शोक से पीड़ित होकर पुत्र के लिए अकेला अपने मन में निम्न प्रकार विचार करने लगा। स्त्रियां संसार की लता के समान हैं और उत्तम पुत्र उनके फल के समान है। यदि मनुष्य के पुत्र नहीं हुए तो इस पापी मनुष्य के लिये पुत्रहीन पापिनी स्त्रियों से क्या प्रयोजन है ? जिसने दैवयोग से पुत्र का मुखकमल नहीं देखा है वह छह खण्ड की लक्ष्मी फा मुख भले ही देख ले पर उससे क्या लाभ है । उसने पुत्र प्राप्त करने के लिए पुरोहित के उपदेश से पांच वर्ण के अमूल्य रत्नों से मिले सुवर्ण की जिन-प्रितमाएं बनबाई। उन्हें पाठ प्रातिहार्यों तथा भंगार प्रादि आठ मंगल-द्रव्य से युक्त किया, प्रतिष्ठाशास्त्र में कही हुई क्रियाओं के क्रम से उनकी प्रतिष्ठा कराई, महाभिषेक किया, जिनेन्द्र भगवान के संसर्ग से मंगल रूप हुए गन्धोदक से रानी के साथ स्वयं स्नान किया, जिनेन्द्र भगवान को स्तुति की कथा इस लोक और परलोक सम्बन्धी अभ्युदय को देने वाली प्राष्टाहिकपर्व की पूजा की। इस प्रकार कुछ दिन व्यतीत होने पर कुछ-कुछ जागती हुई रानी से हाथी सिंह चन्द्रमा और लक्ष्मी का अभिषेक ये चार स्वप्न देख। उसी समय उसके गर्भ धारण हुमा तथा क्रम से पालस्य पाने लगा, अरुचि होने लगी, तद्रा पाने लगी और बिना कारण ही ग्लानि होने लगी। उसके दोनों स्तन चिरकाल व्यतीत हो जाने पर भी परस्पर एक दूसरे को जीतने में समर्थ नहीं हो सके थे अत: दोनों के मुखः प्रतिदिन कालिमा को धारण कर रहे थे। स्त्रियों के लिये लज्जा ही प्रशंसनीय आभूषण है अन्य ग्राभूषण नहीं यह स्पष्ट करने के लिये ही मानों उसकी समस्त चेष्टाएं लज्जा से सहित हो गई थी।
जिस प्रकार रात्रि के अन्त में प्राकाश के तारामों के समूह अल्प रह जाते हैं उसी प्रकार भार धारण करने में समर्थ नहीं होने से उसके योग्य प्राभूषण भी अल्पमात्र रह गये घे-विरल हो गये थे । जिस प्रकार अल्पधन वाले मनुष्य को विभूतियां
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