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नष्ट हो जाने पर प्रात्मा के क्षायिक भाव ही शेष रह जाते हैं। उस समय यह मात्मा अपने आप में उन्हीं क्षायिक भावों के साथ बढ़ता रहता है। इस प्रकार जिनेन्द्र देव के द्वारा कहे हए तत्व को नहीं जानने वाला यह प्राणी, जिसका अन्त मिलना अत्यन्त कठिन है ऐसे संसाररूपी दुर्गम वन में अन्ध के समान चिरकाल से भटक रहा है। अब मैं असंयम आदि कर्म बन्ध के समस्त कामों को डोरगर हनुमानिनोक्ष के पांचों कारणों को प्राप्त होता हूँ-धारण करता है।
इस प्रकार अन्तरंग में हिताहित का यथार्थ स्वरूप जानकर पद्मनाभ ने बाह्य सम्प्रदायों को प्रभता सुवर्णनाम के लिए दे दी और वहत से राजानों के साथ दीक्षा धारण कर ली। अब वह मोक्ष के कारण भूत चारों पाराधनामों का आचरण करने लगा, सोलह कारण-भावनाओं का चिन्तन करने लगा तथा ग्यारह अंगों का पारगामी बनकर उसने तीर्थङ्कर नाम कर्म का बन्ध किया। जिसे अज्ञानी जीव नहीं कर सकते ऐसे सिंह निष्क्रीडित प्रादि कठिन तप उसने किये और प्रायु के अन्त में समाधिमरण-पूर्वक शरीर छोड़ा जिससे वैजयन्त विमान में तैतीस सागर की आयु का धारक अहमिन्द्र हमा । उसके शरीर का प्रमाण तथा लेश्यादिकी विशेषता पहले कहे अनुसार थी। इस तरह वह दिव्य सुख का उपभोग करता हुआ रहता था।
तदनन्तर जब उसकी आयु छह मास की बाकी रह गई तब इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में एक चन्द्रपुर नाम का नगर था। उगमें इक्ष्वाकुवंशी काश्यपगोत्री तथा आश्चर्यकारी वैभव को धारण करने वाला महासेन नाम का राजा राज्य करता था । उनकी महादेवी का नाम लक्ष्मणा था। लक्ष्मणा ने अपने घर के प्रांगन में देवों के द्वारा बरसाई हई रत्नों की धारा प्राप्त की थी। श्री ही ग्रादि देवियाँ सदा उसे घेरे रहती थीं। देवोपनीत वस्त्र, माला, लेप तथा शय्या प्रादि सूखों का समुचित उपभोग करने वाली रानी ने नेत्रकृष्ण पंचमी के दिन पिछली रात्रि में सोलह रवप्न देखकर संतोष लाभ किया। सूर्योदय के समय उसने उठकर अच्छे अच्छे वस्त्राभरण धारण किये तथा प्रसन्न मुख होकर सिंहासन पर बैठे हए पति से अपने सब स्वप्न निवेदन किये।
राजा महासेन ने भी अवधिज्ञान से उन स्वप्नों का फल जाकर रानी के लिए पृथक-पृथक बतलाया जिन्हें सुनकर वह बहत ही हषित हई। श्रोही आदि देवियां उसकी कान्ति, लज्जा, धैर्य, कोति, बुद्धि और सौभाग्य-सम्पत्ति को सदा बढ़ाती रहती थीं। इस प्रकार कितने ही दिन व्यतीत हो जाने पर उसने पौषकृष्ण एकादशी के दिन शुरुयोग में देव पूजित, अचिन्त्य प्रभा के धारक और तीन ज्ञान से सम्पन्न उस अहमिन्द्र पुत्र को उत्पन्न किया। उसी समय इन्द्र ने पाकर महामेर को शिखर पर विद्यमान सिंहासन पर उक्त जिन बालक को विराजमान किया, क्षीर सागर के जल से उनका अभिषेक किया के आभूषणों रो विभूपित किया, नीन लोक के राज्य की कण्ठी बांधी और फिर प्रसन्नता से हजार नेत्र बनाकर उन्हें देखा। उनके उत्पन्न होते ही यह कुवलय अर्थात पृथ्वी-मण्डल का समूह अथवा नील-कमलों का समूह अत्यन्त विकसित हो गया था इसलिये इन्द्र ने व्यवहार की प्रसिद्ध के लिए उनका चन्द्रप्रभ' यह सार्थक नाम रक्खा।
इन्द्र ने इन त्रिलोकीनाथ के आगे आनन्द नाम का नाटक किया। तदनन्तर उन्हें लाकर उनके माता-पिता के लिए सौंप दिया । 'तुम भोगोपभोग की योग्य वस्तुओं के द्वारा भगवान् की सेवा करो' इस प्रकार कुवेर के लिये संदेश देकर इन्द्र अपने स्थान पर चला गया। यद्यपि विद्वान लोग स्त्री-पर्याय को निन्द्य बतलाते हैं तथापि लोगों का कल्याण करने वाले जगत्पति भगवान को धारण करने से यह लक्ष्मणा बड़ी ही पुण्यवती है, बड़ी ही पवित्र है, इस प्रकार देव लोग उसकी स्तुति कर महान् फल को प्राप्त हुए थे तथा इस प्रकार की स्त्री पर्याय श्रेष्ठ है ऐसा देवियों ने भी स्वीकार किया था।
भगवान सुपार्श्वनाथ के मोक्ष जाने के बाद जब नौ सौ करोड़ सागर का अन्तर बीत चुका तब भगवान चन्द्रप्रभु उत्पन्न हुए थे। उनकी आयु भी इसी अत्तर में सम्मिलित थी। दश लाख पूर्व की उनकी प्रायु थी, एक सौ पचास धनुप ऊंचा शरीर था, द्वितीया के चन्द्रमा की तरह वे बढ़ रहे थे तथा समस्त संसार उनकी स्तुति करता था । हे स्वामिन ! आप इधर पाइये इस प्रकार कुतुहलवश कोई देवी उन्हें बुलाती थी। वे उसके फैलाये हुए हाथों पर कमलों के समान अपनी हथेलियों रख देते थे। उस समय कारण के बिना ही प्रकट हई मन्द मुसकान से उनका मुखकमल बहुत ही सुन्दर दिखता था। वे कभी मणिजटित पृथ्वी पर लड़खड़ाते हुए पैर रखते थे । इस प्रकार उस अवस्था के योग्य भोली-भाली शुद्ध चेष्टात्रों से बाल्यकाल
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