________________
अस्सी हजार प्रायिकायें उनके साथ थीं, दो लाख श्रावक और लीन लाख श्राविकायें उनकी अर्चा तथा स्तुति करती थीं, असंख्यात देव-देवियां उनका स्तवन करती थीं और संख्यात तिथंच उनकी सेवा करते थे।
प्रसंख्यात देशों में विहार कर धर्मोपदेश के द्वारा बहुत से भव्य मिथ्यादृष्टि जीवों को सम्यक्त्व आदि गुणस्थानप्राप्त कराते हए वे सम्मेदशिखर पर पहुंचे। वहां एक माह का योग-निरोध कर उन्होंने प्रतिमा योग धारण किया और एक हजार मुनियों के साथ पाश्विन शुक्ला अष्टमी के दिन सायंकाल के समय पूर्वाषाढा नक्षत्र में समस्त कर्म-शत्रुओं को नष्ट कर मोक्ष प्राप्त किया। अपने शरीर को कान्ति से सब पदार्थों को प्रकाशित करने वाले इन्द्र पंचम कल्याणक कर तथा शीतलनाथ जिनेन्द्र की स्तुति कर स्वर्ग को चले गये।
जिनका जन्म होते ही संसार इस प्रकार प्रसन्नता को प्राप्त हो गया। जिस प्रकार कि चन्द्रोदय से होता है। समस्त भाई-बन्धों के मुख इस प्रकार विकसित हो गये जिस प्रकार कि सूर्य से कमल विकसित हो जाते हैं और याचक लोग इच्छित पदार्थ पाकर बड़े हर्ष से कृतकृत्य हो गये उन देव पूजित, रात र.था तृष्णा को नष्ट करने वाले शीतलनाथ जिनेन्द्र की मैं वन्दना करता है- स्तुति करता हूं। दिग्गजों के कपोलमूल से गलते हुए तथा सबको सुगन्धित एवं हषित करने बाले मदजल से जिन्होंने ललाट पर अर्धचन्द्राकार तिलक दिया है, जिनके कण्ठ मधुर हैं ऐसी दिवकन्याए स्वरचित पद्यों के द्वारा जिनको अत्यन्त उदण्ड मोहरूपी शर-बीर को जीत लने के गीत गातो हैं उन शीतलनाथ जिनेन्द्र की 'मैं स्तुत करता हूं, जो पहले सब तरह के गुणों सं वागल्म नाम के राजा हए, फिर देवों के द्वारा पूजित पारण स्वर्ग के इन्द्र हा मीर तदन्तर दशम तीर्थकर हुए उन दयालु तथा सबको शान्त करने वाले थी शीतलनाथ जिनेन्द्र को हे शव्य जीयो ! नमस्कार मारो।
अथानन्तर श्री शीतलनाथ भगवान के तीर्थ के अन्तिम भाग में काल दोप रो वता, श्रोता और प्राचरण करने वाले धर्मात्मा लोगों का अभाव हो जाने से समीचीन जैन धर्म का नाश गया। उस समय भद्रिलपुर में मलय देश का स्वामी राजा। मेघरव रहता था, उसके मंत्री का नाम सत्यकोति था। किसी एक दिन राजा मंघस्थ सभा-भवन में सिंहासन पर बैठे हए थे उसी समय उन्होंने धर्म के लिए धन दान करने की इच्छा से सभा में बैठे हुए लोगों से कहा कि सब दानों में ऐसा कौन-सा दान है कि जिसके देने पर बहुत फल होता है। ? उसके उत्तर में दान के तत्व को जानने वाला मंत्री इस प्रकार कहने लगा कि धेष्ठ मुनियों ने शास्त्रदान, अभयदान और अन्नदान ये तीन प्रकार के दान कहे हैं।
ये दान वद्धिमानों के लिए पहले-पहले अधिक फल देने वाले हैं अर्थात् अन्नदान की अपेक्षा अभयदान का और अभय दान को अपेक्षा शास्त्रदान का बहुरा फल है। जो सर्वज्ञ-देव का बाहा हुआ हो, पूर्वापर बिरोध ग्रादि दोपा से रहित हो, हिसादि पापों को दूर करने वाला हो ओर प्रत्यक्ष परोक्ष दोनों प्रमाणों से सम्पन्न हो उस शास्त्र कहते हैं । संसार के दु:खां से डरे हुए। सत्पुरुषों का उपकार करने की इच्छा ने पूर्वोक्त शास्त्र की व्याख्यान करना शास्त्रदान कहलाता है। मोक्ष प्राप्त करने का इच्छुक तथा तत्वों के स्वरूप को जानने वाला मुनि कर्मबन्ध के कारणों को छोड़ने की इच्छा से जो प्राणि पीड़ा का त्याग करता है उसे अभयदान कहते हैं। हिंसादि दोषों से दूर रहने वाले मानी साधुओं के लिए शरीरादि बाह्य साधनों की रक्षा के अर्थ जो शुद्ध पाहार दिया जाता है : उसे ग्राहारदान वाहते हैं।
इन आदि और अन्त के दानों के देने तथा लेने वाले दोनों को ही कर्मों को निर्जरा एवं पुण्य कर्म का श्रास्रव होता है। इस संसार में ज्ञान से बढ़कर अन्य दान नहीं हो सकता । वास्तव में शास्त्र ही हेय और उपादेय तत्वों को प्रकाशित करने वाला श्रेष्ठ साधन है । शास्त्र का अच्छी तरह व्याख्यान करना, सुनना, चिन्तवन करना शृद्ध बुद्धि का कारण है। शुद्ध बुद्धि के होने पर भव्य जीव हेय पदार्थ को छोड़कर और हितकारी पदार्थ को ग्रहण कर व्रती बनते हैं, मोक्ष मार्ग का अवलम्बन लेकर क्रमकम से इन्द्रियों तथा मन को शान्त करते हैं और अन्त में शुक्ल-ध्यान का अवलम्बन लेकर अविनाशी मोक्ष पद प्राप्त करते हैं। इसलिए सब दानों में शास्त्रदान ही श्रेष्ठ है पाप-कार्यों से रहित है तथा देने और लेने वाले दोनों के लिए ही निजानन्द रूप मोक्ष-प्राप्ति का कारण है । अन्तिम आहारदान में थोड़ा प्रारम्भ-जन्य पाप करना पड़ता है इसलिए उसकी अपेक्षा अभयदान श्रेष्ठ है। यह जीव इन तीन महादानों के द्वारा परम पद को प्राप्त होता है । इस प्रकार कहे जाने पर भी राजा ने दान का यह
.२३५