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आदि गुणों से उपलक्षित वह देव स्वर्ग से च्युत होकर रानी के उदर में उस प्रकार अवतीर्ण हुमा जिस प्रकार कि सद्वत्ततागोलाई आदि गुणों से उपलक्षित जल की बूद शुक्ति के उदर में अवतीर्ण होती है। देवों ने आकर बड़े प्रेम से प्रथम कल्याणक की पूजा की क्रम-क्रम से नव माह व्यतोत होने पर माघ कृष्ण द्वादशी के दिन विश्वयोग में पुत्र जन्म हुआ।
उसी समय बहुत भारी उत्सब से भरे देव लोग आकर उस बालक को सुमेरु पर्वत पर ले गये । वहां उन्होंने उसका महाभिषेक किया और शीतलनाथ नाम रक्खा । भगवान पुष्पदन्त के मोक्ष चले जाने के बाद नौ करोड़ सागर का अन्तर बीत जाने पर भगवान शीतलनाथ का जन्म हुआ था। उनकी आयु भी इसी में सम्मिलित थी। उनके जन्म लेने के पहले पल्य के चौथाई भाग तक धर्म कर्म का विच्छेद रहा था। भगवान् के शरीर की कान्ति सुवर्ण के समान थी, प्रायु एक लाख पुर्व की थो और शरीर नवे धनुष ऊंचा था। जब आयु के चतुर्थ-भाग के प्रमाण कुमारकाल व्यतीत हो गया तब उन्होंने अपने पिता का पद प्राप्त किया तथा प्रधान सिद्धि प्राप्त कर प्रजा का पालन किया । गति आदि शुभ नाम कर्म साता वेदनीय, उत्तम गोत्र और अपघात मरण से रहित तथा तीर्थकर नाम कम से सहित आयु-कर्म ये सभी मिलकर उत्कृष्ठ अनुभागवन्ध का उदय होने से उनके लिए सब प्रकार के सुख प्रदान करते थे अतः उनके सूख की उपमा किसके साथ दी जा सकती है ? इस प्रकार जब उनकी प्रायु का चतुर्थ भाग शेष रह गया, तथा संसार-भ्रमण अत्यन्त अल्प रह गया तब उनके प्रत्याख्यानावरण कषाय का अन्त हो गया। महातेजस्वी भगवान शीतलनाथ किसो समय विहार करने के लिए वन में गये । वहां उन्होंने देखा कि पाले का समूह जो क्षण भर पहले समस्त पदार्थों को ढके हुए था शोध ही नष्ट हो गया है ।
इस प्रकरण से उन्हें प्रात्म-ज्ञान उत्पन्न हो गया और वे इस प्रकार विचार करने लगे कि प्रत्येक पदार्थ क्षण-क्षण भर में बदलते रहते हैं उन्हीं से यह सारा संसार विनश्वर है। आज मैंने दु:ख, दुःखी और दु:ख के निमित्त इन तीनों का निश्चय कर लिया। मोह के अनुबन्ध से मैं इन तीनों को सुख, सुखी और सुख का निमित्त समझता रहा । मैं मुखी हूं, यह सुख है और सख पुण्योदय से फिर भी मुझे मिलेगा यह बड़ा भारी मोह है जोकि काललब्धि के बिना हो रहा है। कर्म पुण्य रूप हों अथवा न हों, यदि कर्म विद्यमान हैं तो उनम इस जीव को सख कैसे मिल सकता है ? क्योंकि यह जोब राग-द्वेष तथा अभिलाषा आदि अनेक दोषों से युक्त है। यदि विषयों से ही सुख प्राप्त होता है तो मैं विषयों के अन्त को प्राप्त हूँ अर्थात् मुझे सबसे अधिक सुख प्राप्त है फिर मुझ संतोप क्यों नहीं होता। इससे जान पड़ता है कि मिथ्या सुख है।
उदासीनता ही सच्चा सुख है और वह उदासीनता मोह के रहते हए कैसे हो सकती है? इसलिए मैं सर्व प्रथम इस मोह शत्रु को ही शीघ्रता के साथ जड़-मुल से नष्ट करता हैं। इस प्रकार पदार्थ के स्वरूप का विचार कर उन्होंने विवेकियों के द्वारा छोड़ने के योग्य और मोही जीवों के द्वारा प्रादर देने के योग्य अपना सारा साम्राज्य पुत्र के लिए दे दिया । उसी समयमाये हुए लौकान्तिकदेवों के द्वारा शुक्लप्रभा नाम को पालको पर सवार होकर सहेतुक वन में पहुंचे। वहां उन्होंने माघकृष्ण द्वादशी के दिन सायंकाल के समय पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में दो उपवास का नियम लेकर एक हजार राजाओं के साथ संयम धारण किया । तार ज्ञान के धारी भगवान् दूसरे दिन चर्या के लिए अरिष्ट मगर में प्रविष्ट हुए । वहां नवधा भक्ति करने वाले पुनबसु राजा ने बड़े हर्ष के साथ उन्हें खीर का आहार देकर संतुष्ट देवों के द्वारा प्रदत्त पंचाश्चर्य प्राप्त किये।
तदनन्तर छद्मस्थ अवस्था के तीन वर्ष बिताकर वे एक दिन बेल के वृक्ष के नीचे दो दिन के उपवास का नियम लेकर विराजमान हुए । जिससे पौषकृष्ण चतुर्दशी के दिन पूर्वाषाढा नक्षत्र में सायंकाल के समय सुवर्ण समान कान्तिवाले उन भगवान ने केवल ज्ञान प्राप्त किया। उसी समय देवों ने आकर उनके ज्ञान-कल्याणक की पूजा की । उनकी सभा में सप्त ऋद्धियों को धारण करने वाले अनागार प्रादि इक्यासी गणधर थे। चौदह सौ पूर्वधारी थे, उनसठ हजार दो सौ शिक्षक थे, सात हजार केवलज्ञानी थे, बारह हजार विक्रिया ऋद्धि के धारक मनि उनकी पूजा करते थे, सात हजार पाँच सौ मन पर्ययज्ञानी उनके चरणों की पूजा करते थे, इस तरह सब मुनियों की संख्या एक लाख थी, धारणा प्रादि तीन लाख