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विग्रह-युद्ध के रहस्य को जानने वाला था। उसका राज्य-रूपी वृक्ष बुद्धि-रूपी जल के सिंचन से खूब वृद्धि को प्राप्त हो रहा था, तथा स्वामी, मंत्री, किला, खजाना, मित्र, देश और सेना इन सात प्रकृति रूपी शास्त्राओं से विस्तार को प्राप्त होकर धर्म, अर्थ और कामरूपी तीन फलों से निरन्तर फलता रहा था।
वह प्रताप-रूपी बड़वानल की चचल ज्वालाओं के समह से अत्यन्त देदीप्यमान था तथा उसने अपने चन्द्रहास खड़ग को धारा जल के समुद्र में समरत शत्रु राजा रूप-पर्वतों को डुबा दिया था। उस गुणवान राजा ने देव, बुद्धि और उद्यम के द्वारा स्वयं लक्ष्मी का उपार्जन कर उसे सर्व साधारण के द्वारा उपभोग करने योग्य बना दिया था। साथ ही वह स्वयं भी उसका उपभोग करता था। न्यायोपार्जित धन के द्वारा याचकों के समूह को संतुष्ट करने वाला तथा समस्त ऋतुओं के सुख भोगने वाला राजा पद्मगुल्म जब इस घराचक्र का-पृथ्वीमण्डल का पालन करता था तब उसके समागम श्री उत्सुकता मे ही मानो वसन्त ऋतु प्रा गई थी। कोकिलायों और भ्रमरों के मनोहर सब्द ही उसके मनोहर शब्द थे, वृक्षों के लहलहाते हए पल्लव ही उसके ओंठ धं, सुगन्धि रो एकत्रित हुए मत्त भ्रमरों से सहित पृरुप ही उसके मंत्र थे, कुहरा से रहित निर्मल चांदनी ही उसका हास्य था, स्वच्छ आकाश ही उसका वस्त्र था, सम्पूर्ण चन्द्रमा का गण्डल ही उसका मुख था, मौलिश्री की सुगन्धि से सुवासित मलय समीर ही उसका श्वासोच्छ्वास था और कनेर के फल ही उसके शरीर की पीत कापति थी। कामदेव यद्यपि शरीर रहित था और उसके पास सिर्फ पांच ही वाण थे, तो भी वह राजा दागुल्म को इस प्रकार निष्ठुरता से पीड़ा पहुंचाने लगा जो कि अनेक वाणों सहित हो सो ठीक ही है क्योंकि समय का बल पाकर कौन नहीं बलवान हो जाता है ?
जिसका मन घरान्त-लक्ष्मी ने अपने अधीन कर लिया है नथा जो अनेक सुख प्राप्त करना चाहता है ऐसा वह राजा प्रीति को बहाता हा उस वसन्त लक्ष्मी के साथ निरन्तर कीड़ा करने लगा। परन्तु जिस प्रकार वायू से उड़ाई हई मेघमाला कहीं जा छिपती है उसी प्रकार कालरूपी वायु से उड़ाई बह वसन्त-ऋत कहीं जा छिपी-नष्ट हो गई और उसके नष्ट होने से उत्पन्न हा। दुःख के द्वारा उसका चिन बहुत ही व्याकुल हो गया। वह विचार करने लगा कि यह काम बड़ा दुष्ट है, यह पापी समस्त संसार को दुःखी करता है और विग्रह-शरीर रहित होने पर भी विग्रही-शरीर सहित (पक्षा में उपद्रव करने वाला है। मैं उस काम को आज ही ध्यान रूपी अग्नि के द्वारा भस्म करता हूं। इस प्रकार उसे वैराग्य उत्पन्न हुआ । वह चन्दन नामक पुत्र के लिए राज्य का भार सौंपकर प्रानन्द नामक मुनिराज के समीप पहुंचा और समस्त परिग्रह नथा शरीर से विमुख हो गया।
शान्न परिणामों को धारण करने वाले उसने विपाकसूत्र तक सब अंगों का अध्ययन किया, चिरकाल तक तपश्चरण किया, तीर्थकर नाम-कर्म का बन्ध किया, सम्यन्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीन आरावनाओं का साधन किया तथा प्राय के अन्त में वह समाधिमरण कर मारण नामक पन्द्रहवं स्वर्ग में विशाल वैभव को धारण करने वाला इन्द्र रक्षा वहां उसकी प्रायु बाईस सागर की थी, तीन हाथ ऊंचा उसका शरीर था, द्रव्य और भाव दोनों ही शुक्ललेश्याएं थी, ग्यारह माह में श्वास लेता, बाईस हजार वर्ष में मानसिक पाहार लेकर सन्तुष्ट रहता था, लक्ष्मीमान था, मानसिक प्रवीचार से युक्त था, प्राकाम्य आदि पाठ गुणों का घारक था, छठवं नरक के पहले-पटल तक व्याप्त रहने वाले अबधिज्ञान से देदीप्यमान था, उतनी ही दूर तक उसका बल तथा वित्रिया शक्ति थी और वाह्म-विकारों से रहित विशाल श्रेष्ठ सुखरूपी सागर का पारगामी था, इस प्रकार उसने अपनी असंख्यात वर्ष की प्रायु को काल की कला के समान -एक क्षण के समान बिता दिया।
जब उस इन्द्र की आयु छह मास की वाकी रह गई और बह पृथ्वी पर आने के लिए उद्यत हा तब जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र सम्बन्धी मलय नामक देश में भद्रपुर नगर का स्वामी इक्ष्वाकुवंशी राजा दशरथ राज्य करता था। उसकी महारानी का नाम सुनन्दा था। कुबेर की आज्ञा से यज्ञ जाति के देवों ने छह मास पहले से रत्नों के द्वारा सुनन्दा का घर भर दिया था। मानवती सुनन्दा ने भी रात्रि के अन्तिम भाग में सोलह स्वप्न देखवार अपने मुख में प्रवेश करता हुमा एक हाथी देखा। प्रातः काल राजा से उनका फल ज्ञात किया और उसी समय चैत्र कृष्ण अष्टमी के दिन पूर्वापाढा नक्षत्र में सदवत्तता-सदाचार
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