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को बिताकर वे सुखाभिलाषी मनुष्यों के द्वारा चाहने योग्य कौमार अवस्था को प्राप्त हुए। उस समय वहां के लोगों में कौतुकयश इस प्रकार की बातचीत होती थी कि हम ऐसा समझते हैं कि विधाता ने इनका शरीर अमृत से ही बनाया है ।
उनकी द्रव्य लेश्या अर्थात् शरीर की कान्ति पूर्ण चन्द्रमा को जीतकर ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो बाह्य वस्तुओं को देखने के लिये अधिक होने से भाव लेश्या ही वाहर निवाल प्राई हो तथा उनका शरीर शुक्ल था और भाव भी शुक्ल उज्ज्वल थे। उनके यश और लेश्या से ज्योतिषी देवों की कान्ति छिप गई थी इसलिये भोगभूमि लौट आई है यह समझ कर लोग संतष्ट होने लगे थे । (ये बाल्यावस्था से ही अमृत का भोजन करते हैं अत: इनके शरीर की कान्ति मनुष्यों से भिन्न है तथा अन्य सबकी कान्ति को पराजित करती है।) उनके शरीर की कान्ति ऐसी सुशोभित होती थी मानो सूर्य
और चन्द्रमा को मिली हुई कान्ति हो इसीलिये तो उनके समीप निरन्तर कमल और कुमुद दोनों ही खिले रहते थे। कुन्द के फूलों की हंसी उड़ाने वाले उनके गुण चन्द्रमा की किरणों के समान निर्मल थे। इसीलिये तो वे भव्य जीवों के मनरूपी नील कमलों के समूह को विकसित करते रहते थे। लक्ष्मी इन्हीं के साथ उत्पन्न हुई थी इसलिए वह इन्हीं की बहिन थी। लक्ष्मी चन्द्रमा की बहिन है यह जो लोक में प्रसिद्धि है वह प्रज्ञानी लोगों ने मिथ्या कल्पना कर ली है। जिस प्रकार चन्द्रमा के उदय होने पर यह लोक हर्षित हो उठता है, सुशोभित होने लगता है और निराकुल होकर बढ़ने लगता है उसी प्रकार सब प्रकार के संतोष को हरने वाले चन्द्रप्रभु भगवान का जन्म होने पर यह सारा संसार हषित हो रहा है, सुशोभित हो रहा है और निराकुल होकर बढ़ रहा है।
कारण के अनुकूल ही कार्य होता है यदि यह लोकोक्ति सत्य है तो मानना पड़ता है कि इनकी लक्ष्मी और कीति इन्हीं के गुणों से निर्मल हई थीं। भावार्थ-उनके गुण निर्मल थे अत: उनसे जो लक्ष्मी और जीति उत्पन्न हुई थी वह भी निर्मल ही थी। जो बहुत भारी विभूति से सम्पन्न हैं, जो स्नान आदि मांगलिक कार्यों से सजे रहते हैं और अलंकारों से सुशोभित ऐसे अतिशय कुशल भगवान कभी मनोहर वीणा बजाते थे, कभी मृदंग आदि बाजों के साथ गाना गाते थे, कभी कुबेर के द्वारा लाये हुए प्राभूपण तथा वस्त्र आदि देखते थे, कभी बादी-प्रतिवादियों के द्वारा उपस्थापित पक्ष आदि को परीक्षा करते थे और कभी कुतुहलवश अपना दर्शन करने के लिए आये हुए भव्य जीवों को दर्शन देते थे इस प्रकार अपना समय व्यतीत करते थे। जब भगवान कौमार अवस्था में ही ये तभी धर्म यादि गुणों की वद्धि हो गई थी और पाप आदि का क्षय हो गया था, फिर संयम धारण करने पर तो कहना ही क्या है ? इस प्रकार दो लाख पचास हजार पूर्व व्यतीत होने पर उन्हें राज्याभिषेक प्राप्त हुना था और उससे बे बहुत ही हर्षित तथा सुन्दर जान पड़ते थे। जो अपनी हथेली प्रमाण मण्डल की राहु से रक्षा नहीं कर सकता ऐसे सूर्य का तेज किस काम का? तेज तो इन भगवान चन्द्रप्रभ का था जो कि तीन लोक को रक्षा करते थे।
जिनके जन्म के पहले ही इन्द्र प्रादि देव किंकरता स्वीकृत कर लेते हैं ऐसे अन्य ऐश्वर्य आदि से घिरे हए इन चन्द्रप्रभ भगवान को किस की उपमा दी जावे ? वे स्त्रियों के कपोलतल में अथवा हाथी-दांत के टुकड़े में कामदेव से मुस्काता हुआ अपना मुख देखकर सुखी होते थे। जिस प्रकार कोई दानी पुरुष दान देकर सुखी होता है उसी प्रकार शृङ्गार चेष्टाओं को करने वाले भगवान, अपनी ओर देखने वाली उत्सुक स्त्रियों के लिए अपने मुख का रस समर्पण करने से सुखी होते थे। मुख में कमल की आशंका होने से जो पास ही में मंडरा रहे हैं ऐसे भ्रमरों को छोड़कर स्त्री का मुख-कमल देखने में उन्हें
और कुछ वाधक नहीं था। चंचल सतृरुण, योग्य अयोग्य का विचार नहीं करने वाले और मलिन मधुर-भ्रमर भी (पक्ष में मद्य-पायी लोग भी) जब प्रवेश पा सकते हैं तब संसार में ऐसा कार्य ही कौन है जो नहीं किया जा सकता हो। इस प्रकार साम्राज्य-सम्पदा का उपभोग करते हुए जब उनका छह लाख पचास हजार पूर्व तथा चौबीस सब का लम्बा समय मुख पूर्वक क्षण भर के समान बीत गया तब वे एक दिन आभूषण धारण करने वाले घर के दर्पण में अपना मुख-कमल देख रहे थे।
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