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हृदय 'में और यापकी प्रकृति को अपने शरीर में धारण करता है वह ग्राप जैसा हो होकर परम आनन्द को प्राप्त होता है। हे नाथ! आप बले ने ही मुफ्त ध्यान रूपी तलवार के द्वारा तीनों लोकों से द्वेष रखने वाले कर्मरूपी दात्रुओं को नष्ट कर मुक्ति का साम्राज्य प्राप्त कर लिया है। हे प्रभो ! जो ग्रापके चरणरूपी वृक्ष से उत्पन्न हुई सघन छाया का आश्रय लेते हैं वे पापरूपी चाम के ती दुःखरूप संताप से दूर रहते हैं। देव! यह संसार समस्त जीवों के लिये या तो समुद्र है या अनन्य वन है परन्तु जो भव्य आपके मत का प्राश्रय देते हैं उनके लिये गाय का खुर है अथवा नन्दन वन है । हे भगवान् यद्यपि आपके चरणों का स्मरण करने से कुछ क्लेश अवश्य होता है परन्तु उसका फल तीनों लोकों का साम्राज्य है। आश्चर्य है कि ये संसार के प्राणी उस महान् फल में भी मन्द इच्छा रखते हैं इससे जान पड़ता है कि ये अपनी आत्मा का हित नहीं जानते ।
हे प्रभो ! आपका यह आधाराधेय भाव अनन्यसदृश है- सर्वथा अनुपम है क्योंकि नीचे रहने वाला यह संसार तो आधेय है और उसके ऊपर रहने वाले आप आधार हैं। भावार्थ - जो चोज नीचे रहती है वह ग्राचार कहलाती है और जो उसके ऊपर रहतो है वह प्राय कहलाती है परन्तु आपके साधाराधेव मनाव की व्यवस्था से भिन्न है अतः धनुषम है। दूसरे पक्ष में यह अर्थ है कि आप जगत् है रक्षक है अतः धाधार हैं और जयत् आपकी रक्षा का विषय है सबको जानते हैं परन्तु पाप किसी के द्वारा नहीं जाने जाते, आप सबके रक्षक है परन्तु बाप किसी के द्वारा रक्षा योग्य नहीं है, आप सबके जानने वाले हैं परन्तु आप किसी के द्वारा जानने के योग्य नहीं हैं और आप सबका पोषण करने वाले हैं परन्तु ग्राप किसी के द्वारा पोषण किये जाने के योग्य नहीं हैं जो आपको नमस्कार नहीं करता वह पापों से संत होता है और जो आपको स्तुति नहीं करता वह सदा निन्दा को प्राप्त होता है ।
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हे भगवान् ! इस संसार में कितनेो नास्तिक हैं--परलोक की सत्ता स्वीकृत नहीं करते हैं इसलिये स्वच्छन्द होकार तरह-तरह के पाप करते हैं और कितने हो लोग केवल भाग्यवादी है इसलिए महीन होकर यहां रहे हैं परन्तु आपके भक्त लोग आस्तिक की स्वीकृत करते हैं इसलिए परलोक बिगड़न जाने' इस भय से सदा धार्मिक क्रियाए' करते हैं और परलोक के सुधार के लिए सदा उद्यम करते हैं। सबका हित करने वाले और सबको जानने वाले श्राप सब जगह सब समय सत्र पदार्थों को प्रकाशित करते हैं। ऐसा प्रकाशन चन्द्रमा कर सकता है और न सूर्य हो, फिर अन्य पदार्थों की ता बात ही क्या ? हे भगवान! काई भी वस्तु न नित्य है, ज्ञानमात्र है और न अदृश्य होने से शून्य रूप है किन्तु आपके दर्शन से प्रत्येक वस्तु तत्व और तत्व रूप अस्ति रूप है ।
आत्मा है, क्योंकि उसमें ज्ञान का सद्भाव है, आत्मा दूसरा जन्म धारण करता है क्योंकि उसका स्मरण बना रहता है, और आत्मा सर्वज्ञ है क्योंकि ज्ञान में वृद्धि देखो जाती है। हे भगवान् ! ये तानों हो बुद्धिहीन मनुष्य कहते हैं परन्तु प्रापन कहा है कि द्रव्य का परिणमन गुणा से ही होता है अर्थात् द्रव्य से गुण सवथा जुदा पदाथ नहा है । इसलिय श्राप यथार्थद्रष्टा हैं--नाप पदार्थ के स्वरूप को ठीक-ठीक देखते हैं। हे नाथ ! चन्द्रमा की प्रभा तो यह से तिरोहित हो जाती है परन्तु आपके शरीर को प्रभाविना किसी प्रतिवन्य के रात-दिन प्रकाशित रही आाती है यतः इन्द्र ने जो माका 'चन्द्र चन्द्रमा जैसी प्रभावाला) नाम रक्खा है यह बिना परीक्षा किये ही रख दिया है। इस प्रकार जिसमें शब्द और अर्थ दोनों ही गंभीर हैं ऐसे स्तवन से प्रसन्न बुद्धि के धारक इन्द्र ने अपने व्यापको चिरकाल के लिए बहुत ही पुण्यवान् माना था ।
अथानन्तर चन्द्रप्रभ स्वामी समस्त आर्य देशों में विहार कर धर्म-तीर्थ की प्रवृत्ति करते हुए सम्मेद शिखर पर पहुंचे। वहां वे विहार वन्द कर हजार मुनियों के साथ प्रतिमायोग धारण कर एक मास तक सिद्धशिला पर आरूढ रहे । और फाल्गुन शुक्ल सप्तमी के दिन ज्येष्ठा नक्षत्र में सायंकाल के समय योग-निरोध कर चौदहवें गुण स्थान को प्राप्त हुए तथा चतुर्थ शुक्लध्यान के द्वारा शरीर को नष्ट कर सर्वोत्कृष्ट सिद्ध हो गये। उसी समय निर्वाण कल्याणक की पूजा की विधि को करने वाले देवाये और गुणी पण खरीदने योग्य पदार्थ को लेकर अपने-अपने स्थान पर चले गये।
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