________________
-
...
वहाँ उन्होंने मुख पर स्थित किसी वस्तु को वैराग्य का कारण निश्चित किया था और इस प्रकार विचार करने लगे। देखो यह शरीर नश्वर है तथा इससे जो प्रीति की जाती है वह भी इति के समान दुःखदायी है। वह सुख हो क्या है जो चंचल हो, वह यौवन की क्याहै जो नष्ट हो जाने वाला हो, और वह आयु ही क्या है जो अवधि में सहित'-शान्त हो। जिसके प्रागे वियोग होने वाला है ऐसा बन्धुजनों के साथ समागम किस काम का? मैं वही हूं, पदार्थ बही हैं, इन्द्रियाँ भी बहो हैं, प्रीति और अनुभूति भी वही है, किन्तु इस संसार की भूमि में यह सब बार-बार बदलता रहता है। इस संसार में अब तक क्या हुआ है और आगे क्या होने वाला है । यह मैं जानता हूं, फिर भी बार-बार मोह को प्राप्त हो रहा हूं यह आश्चर्य है । मैं आज तक अनित्य पदार्थों को नित्य समझता रहा, दुःख को सुख स्मरण करता रहा, अपवित्र पदार्थों को पवित्र मानता रहा और पर को प्रात्मा जानता रहा । इस प्रकार प्रज्ञान से अक्रान्त हुया यह जीव, जिसका अन्त अत्यन्त कठिन है। ऐसे संसार रूपी सागर में चार प्रकार के विशाल दुःख तथा भयंकर रोगों के द्वारा चिरकाल से पीड़ित हो रहा है।
इस प्रकार काल-लब्धि को पाकर परामा टोदने की इच्छा से वे बड़े लम्ने पुण्यकर्म के द्वारा खिन्न हए के समान व्याकुल हो गये थे । आगे होने बाल केवलज्ञान गुणों से मुझे समृद्ध होना चाहिए-ऐसा स्मरण करते हुए वे दुती के समान सद्बुद्धि के साथ समागम को प्राप्त हए थे। आमे मुझे मोक्ष प्राप्त करने वालो उनको सद्बुद्धि अपने आप दीक्षा लक्ष्मी को प्राप्त हो गई थी। इस प्रकार जिन्होंने आत्म-तत्व को समझ लिया है ऐसे भगवान चन्दप्रभु के समीप लौकान्तिक देव' आये और यथायोग्य स्तुति कर ब्रह्म स्वर्ग को वापिस चले गये। तदनन्तर महाराज चन्दप्रभु भी वर चन्द नामक पुत्र को राज्याभिषेक कर देवों के द्वारा की हुई दीक्षा-कल्याणक की पूजा को प्राप्त हुए और देवों के द्वारा उठाई गई विमला नाम की पालकी में सवार होकर मर्वतुक नामक वन में गये। वहां उन्होंने दो दिन के उपवास का नियम लेकर पौष कृष्ण एकादशी के दिन अनुराधा नक्षत्र में एक हजार राजाओं के साथ निग्रंथ दीक्षा धारण कर ली। दीक्षा लेते ही उन्हें मनः पर्ययज्ञान प्राप्त हो गया। दूसरे दिन वे चर्या के लिए नलित नामक नगर में गये। वहां गौर वर्ण वाले सोमदत्त राजा उन्हें नवधा भक्ति पूर्वक उत्तम आहार देकर दान से संतुष्ट हुए देवों के द्वारा प्रगटित रत्नवृष्टि आदि पंचाश्चर्य प्राप्त किये । भगवान अहिंसा आदि पांच महाव्रतों को धारण करते थे। ईयां आदि पांच समितियों का पालन करते थे, मन, वचन, काय की निरर्थक प्रवत्ति रूप तीन दण्डों का त्याग करते थे।
उन्होंने कषायरूपी शत्रु का निग्रह कर दिया था, उनकी विशुद्धता निरन्तर बढ़ती रहती थी, वे तीन गुप्तियों से युक्त थे, शील सहित थे, गुणी थे, अन्तरंग और बहिरंग दोनों सपों को धारण करते थे, बस्तु वृत्ति और वचन के भेद से निरन्तर पदार्थ का चिन्तन करते थे, उत्तम क्षमा प्रादि दश धर्मों में स्थित रहते थे, समस्त परिषह सहन करते थे, यह शरीरादि पदार्थ अनित्य हैं, अशुचि हैं और दुःख रूप है, ऐसा बार-बार स्मरण रखते थे तथा समस्त पदार्थों में माध्यस्थ भाव रखकर परमयोग को प्राप्त हुए थे। इस प्रकार जिन-कल्प मुद्रा के द्वारा तोन माह बिता कर वे दीक्षावन में नागवृक्ष के नीचे वेला का नियम लेकर स्थित हुए। बह फाल्गुन कृष्ण मप्तमी के सायंकाल का समय था और उस दिन अनुराधा नक्षत्र का उदय था। सम्यग्दर्शन को पातने वाली प्रकृतियों का तो उन्होंने पहले ही क्षय कर दिया। अब अधःकरण, अपूर्वकरण घोर अनिवत्तिकरण रूप तीन परिणामों के संयोग के क्षपक श्रेणी को प्राप्त हए। वहां उनके द्रव्य तथा भाव दोनों ही रूप से चौथा सूक्ष्मसाम्पराय चारित्र प्रकट हो गया। वहां उन्होंने प्रथम शुक्ल ध्यान के प्रभाव में मोहरूपी शत्रु को नष्ट कर दिया जिससे उनका सम्यग्दर्शन अगाढ़ सम्यग्दर्शन हो गया। उस समय चार ज्ञानों से देदीप्यमान चन्दप्रभ भगवान अत्यन्त सुशोभित हो रहे थे। बारहवें गुणस्थान के अन्त में उन्होंने द्वितीय शुक्ल ध्यान के प्रभाव से मोहतारिक्त तीन घातिया कर्मों का क्षय कर दिया। उपयोग जीव का खास गुण है क्योंकि वह जीव के सिवाय अन्य द्रव्यों में नहीं पाया जाता। ज्ञानाबरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय कर्म जीव के उपयोग गुण का घात करते हैं इसलिए घानिया कहलाते हैं। उन भगवान के घातिया कर्मों का नाश हुआ था। और अघातिया कर्मों में से भी कितनी ही प्रकृतियों का नाश हुआ था।
२२७