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अनाज से परिपूर्ण रहते थे, राजाओं के भण्डार जिस प्रकार हमेशा सबको संतुष्ट करते हैं उसी प्रकार वहां के खेत भी हमेशा सबको संतुष्ट रखते थे, और राजाओं के भंडार जिस प्रकार सम्पन्न-सम्पति से युक्त रहते थे अथवा 'समन्तात् पन्नाः सम्पन्नाः' सब ओर से प्राप्त करने योग्य थे।
वहाँ के गाँव इतने समीप थे कि मुर्गा भी एक से उड़कर दूसरे पर जा सकता था, उत्तम थे, उनमें बहुत से किसान रहते थे, पशु धन धान्य आदि से परिपूर्ण थे। उनमें निरन्तर काम-काज होते रहते थे तथा सब प्रकार से निराकुल थ । वे गाँव दण्ड आदि की बाधा से रहित होने के कारण सर्व सम्पत्तियों से सुशोभित थे, वर्णाश्रम से भरपुर थे और वहीं रहने वाले लोगों का अनुकरण करने वाले थे। वह देश ऐसे भागों से सहित था जिनमें जगह-जगह कंधों पर्यन्त पानी भरा हुआ था, अथवा जो असंचारी दुर्गम' श्रे, अथवा जो असंवारि आने-जाने की स्कावट से रहित था। वहाँ के वृक्ष फलों से लदे हुए तथा कांटों मे रहित थे। पाठ प्रकार के भयों में से वहाँ एक भी भय दिखाई नहीं देता या और वहां के समीपवर्ती गलियों रूपो स्त्रियों के आश्रय थे। नीति शास्त्र के विद्वानों ने देश के जो जो लक्षण कहें हैं यह देश उन सबका लक्ष्य था अर्थात् वे सब लक्षण इनमें पाये जाते
थे।
उस देश में धन की हानि सत्पात्र को दान देते समय होती थी अन्य समय नहीं । समीचीन क्रिया की हानि फल प्राप्त होने पर ही होती थी अन्य समय नहीं उन्नति की हानि विनय के स्थान पर होती थी अन्य स्थान पर नहीं, और प्राणों की हानि प्राय समाप्त होने पर ही होती थी अन्य समय नहीं। ऊंचे उठे हुए पदार्थों में यदि कठोरता थी तो स्त्रियों के स्तनों में ही थो अन्यत्र नहीं थी। प्रताप यदि था तो हाथियों में ही था अति उन्हीं का मद करता था अन्य मनुष्यों में प्रताप अर्थात् पतन नहीं था । अथवा प्रताप था तो गुहा आदि निम्न स्थानवर्ती वृक्षों में हो था अन्यत्र नहीं। वहाँ यदि दण्ड था तो छत्र अथवा तराज में ही था वहाँ के मनुष्यों में दण्ड नहीं था अर्थात् उनका कभी जुर्माना नहीं होता था। तीक्ष्णता-लेजस्विता यदि थी तो कोतवाल आदि में ही, वहाँ के मनुष्या में तीक्ष्णता नहीं-क्रूरता नहीं थो । रुकावट केवल पुलों में हो थी वहाँ के मनुष्यों में किसी प्रकार की रुकावट नहीं थी। और अपवाद यदि था तो व्याकरण शास्त्र में ही था वहाँ के मनुष्यों में अपवाद-अपयश नहीं था।
निस्त्रिश शब्द कृपाण में ही आता था अर्थात् कृपाण ही त्रिशद्भ्योऽगुंलिम्यो निर्गत इति निस्त्रिंशः तीस अंगुल से बड़ी रहती थी, वहाँ के मतुष्यों में निस्त्रि'श-क्रूर शब्द का प्रयोग नहीं होता था। विश्वाशत्व' अर्थात् सब चीजें खा जाना यह शब्द अग्नि में ही था वहाँ के मनुष्यों में विश्वाशित्व-सर्वभक्षकपना नहीं था। दाहकत्व अर्थात संताप देना केवल सूर्य में था वहाँ के मनुप्यों में नहीं था, और मारकत्व केवल यमराज के नामों में था वहाँ के मनुष्यों में नहीं था।
जिस प्रकार सूर्य दिन में ही रहता है उसी प्रकार धर्म शब्द केवल जिनेन्द्र प्रणीत धर्म में ही रहता था। यही कारण था कि वहाँ पर उल्लयों के समान एकान्तवादों का उद्गम नहीं था। उस देश में सदा यथा स्थान रखे हए यन्त्र, शस्त्र, जल, जी. घोडे और रक्षकों से भरे हुए किले थे। जिस प्रकार ललाट के बीच में तिलक होता है उसी प्रकार अनेक शुभ स्थानों से युक्त उस देश के मध्य में श्रीपुर नाम का नगर है वह श्रीपुर नगर अपनी सब तरह की मनोहर वस्तुओं से देवनगर के समान जान पड़ता था। खिले हुए नीले तथा लाल कमलों के समुह ही जिनके नत्र हैं ऐसे स्वच्छ जल से भरे हुए सरोवर रूपी मुखों के द्वारा बह नगर शव नगरों की शोभा की मानों हंसी ही उड़ता था। उस देश में अनेक प्रकार के फलों के स्वादिष्ट केसर के रस को पीने वाले भोरे भ्रमरियों के समूह के साथ पान गोष्ठी का मानन्द प्राप्त करते थे। उस नगर में बड़े-बड़े ऊचे पक्के भवन बने हुए थे, उनमें मृदंगों का शब्द हो रहा था। जिससे ऐसा जान पड़ता था मानों 'आप लोग यहाँ विथाम कीजिये' इस प्रकार वह नगर मेघों को ही बुला रहा था और ऐसा मालूम होता था कि वह नगर सर्व वस्तुओं का मानों खान था। यदि ऐसा न होता तो निरन्तर उपभोग में प्राने पर वे समाप्त क्यों नहीं होती ?
उस नगर में जो जो वस्तु दिखाई देती थी वह अपने वर्ग में सर्वश्रेष्ठ रहती थी अतः देवों को भी भ्रम हो जाता था कि क्या यह स्वर्ग ही है? वहाँ के रहने वाले सभी लोग उत्तम कुलों में उत्पन्न हुए थे, व्रत सहित थे तथा सम्यग्दृष्टि थे अतः
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