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गन्धों की श्रेष्ठ सेना को बुलाकर अनेक प्रकार के बिनोदों से भगवान् को सुख पहुंचाता था।
इसी प्रकार चक्ष और कर्ण के सिवाय शेष तीन इन्द्रियों के उत्कृष्ट विषयों से भी इन्द्र, भगबान को निरन्तर सुखी रखता था । यथार्थ संसार में सुख वही था जिसका कि भगवान सुपार्श्वनाथ उपभोग करते थे। प्रशस्त नामकर्म के उदय से उनके निःस्वेदत्व आदि गाठ अतिशय प्रकट हुए थे, वे सर्वनिय तथा सर्वहितकारी वचन बोलते थे, उनके व्यापार रहित अतुल्य बल था, वे सदा प्रसन्न रहते थे, उनको आयु अनपवयं थी-असमय में काटने वाली नहीं थी, गुण, पुण्य और सम्ख रूप थे, उनका शरीर कल्याणकारी था, वे मति, श्रुत और अवधि इन तीन ज्ञानों से सहित थे, प्रियंगु के पुष्प के समान कांति थी, उनके अशुभ कर्म का अनुभाग अत्यन्त मन्द था, नभ कर्म का अनुभाग अत्यन्त उकृष्ठ था, उनका कण्ठ मानो मोक्ष-स्वर्ग तथा मानवोचित ऐश्वर्य की कण्ठी रो हो सुशोभित था। उनके चरणों के नखों में समस्त इन्द्रों के मुख कमल प्रतिविम्बित हो रहे थे, इस लक्ष्मी को धारण करने वाले प्रकृष्टजानी भगवान सपाश्वनाथ अगाध संतोष सागर में वृद्धि को प्राप्त हो रहे थे। जिनके प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन सम्बन्धी क्रोध, मान माया, लोभ इन पाठ कषायों का ही केवल उदय रह जाता है ऐसे सभी तीर्थकरों के अपनी प्रा ने प्रारम्भिक आठ वर्ष के बाद देश-संयम हो जाता है। इसलिए यद्यपि उनके भोगोगभोग की वस्तुयोंकी प्रचरता थी तो भी वे अपनी यात्मा को अपने वश में रखते थे, उनको वृत्ति नियमित यो तथा असंख्यातगुणी निर्जरा का कारण थी ।
जा उनकी प्राय बीम पूर्वांग कम एक लाख पूर्व की रह गई तब किसी समय ऋतु का परिवर्तन देखकर वे 'समस्त पदार्थ नश्वर हैं', ऐसा चिन्तवन करने लगे। उनके निर्मल सम्यग्ज्ञान मपी दर्पण में काललब्धि के कारण समस्त राज्य लक्ष्मी की क्रीड़ा के समान नश्वर जान पड़ने लगी। मैं नहीं जान सका कि यह राज्य लक्ष्मी इसी प्रकार शीघ्र ही नष्ट हो जाने वाली माया से भरी हुई है। मुझे धिक्कार हो, धिक्कार हो! सचमूच ही जिनके चित भोगों के राग से अन्धे हो रहे हैं ऐसे कौन मनुष्य हैं जो मोहित न होते हों । इस प्रकार भगवान के मनरूपी सागर में चन्द्रमा के समान उत्कृष्ट प्रात्मज्ञान हुआ और उसी समय लोकान्तिक देवों ने आकर समयानुकूल पदार्थों से भगवान को स्तुति की। तदनन्तर भगवान सुपार्श्वनाथ, देवों के द्वारा उठाई हुई मनोगति नाम को पालका पर प्रारूढ़ होकर सहेतुक वन में गये और यहां ज्येष्ठ शुक्ल द्वादशी के दिन सांयकाल के समय, गर्भक विशाखा नक्षत्र में बेला का नियम लेकर हजार राजानों के साथ संयमो हो गये--दीक्षित हो गये। उसी समय उन्हें मनः पर्ययज्ञान उत्पन्न हो गया ।
दुसरे दिन वे चर्या के लिए सामनेट नामक नगर में गये। यहां सुवर्ण के समान कान्तिवाले महेन्द्रदत्त नाम के राजा ने पड़गाह कर देवों से पूजा प्राप्त की । सुपाश्र्वनाथ भगवान छदमस्थ अवस्था में नो वर्ष तक मान रहे । तदन्तर उसी सहेतुक वन में दो दिन के उपवास का नियम लेकर ने शिरीष वक्ष के नीचे ध्यानारूढ़ हुए। वहीं फालान कृष्ण पष्ठो के दिन सांयकाल के समय गर्भावतार के विशाखा नक्षत्र में उन्हें केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ जिसमें देवों ने उनकी पूजा की। वे बल कोआदि लेकर पंचानवे गणधरों से सदा घिरे रहते थे, दो हजार तीस पूर्वधारियों के अधिपति थे, दो लाख चवालीस हलार नौ सौ बीस शिक्षक उनके साथ रहते थे, नौ हजार अवधिज्ञानी उनकी सेवा करते थे, ग्यारह हजार केवलज्ञानी उनके सहगामी थे, पन्द्रह हजार तीन सौ विक्रिया ऋद्धि के धारक उनकी पूजा करते थे, नौ हजार एक सौ पचास मनःपर्ययज्ञानी उनके साथ रहते थे, और आठ हजार छह सौ वादी उनकी वन्दना करते थे। इस प्रकार सब मिलाकर तीन लाख मुनियों के स्वामी थे। मोनार्या प्रादि को लेकर तीन लाख तीस हजार आर्यिकाएं उनके साथ रहती थी, तीन लाख श्रावक और पांच लाख थाविकाएं उनकी पूजा करती थीं, असंख्यात देव-देवियां उनकी स्तुति करती थीं और संख्यात तिथंच उनकी बन्दना करते थे । इस प्रकार लोगों को धर्मामत रूपी वाणी ग्रहण कराते हए वे पृथ्वी पर बिहार करते थे। अन्त में जब आयु का एक माह रह गया तब विहार बन्द कर वे सम्मेद शिखर पर जा पहुंचे । यहां एक हजार मुनियों के साथ उन्होंने प्रतिमा-योग धारण किया और फाल्गुन कृष्ण सप्तमी के दिन विशाखा नक्षत्र में सूर्योदय के समय लोक का अग्रभाग प्राप्त किया-मोक्ष पधारे । तदनन्तर पुण्यवान कल्पवासी
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