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मनुष्य के लिए यह संसार रुचता है-अच्छा मालूम होता है। जिस कार्य से पाप और पुण्य दोनों उपनेषों का नाश हो जाता है, विद्वानों को सदा उसी का ध्यान करना चाहिये, उसी का श्राचरण करना चाहिये और उसी का अध्ययन करना चाहिये ।
इस प्रकार संसार, शरीर और भोग इन तीनों के वैराग्य से जिन्हें श्रात्मज्ञान उत्पन्न हुआ है, लौकान्तिक देवों ने जिनका उत्साह बढ़ाया है और चतुनिक देवों ने जिनके दीक्षा कल्याणक का अभिषेकोत्सव किया है ऐसे भगवान् पद्मप्रभु निवृत्ति नाम की पालकी पर सवार होकर मनोहर नाम के वन में गये और वहाँ बेला का नियम लेकर कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी के दिन शाम के समय चित्रा नक्षत्र में एक हजार राजाओं के साथ पावर पूर्वक उन्होंने शिक्षा के समान दीक्षा धारण कर ली। जिन्हें मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न हो गया है ऐसे विद्वानों में श्रेष्ठ पद्मप्रभु स्वामी दूसरे दिन चर्या के लिए वर्धमान नामक नगर में प्रविष्ट हुए। शुक्ल कांति के धारक राजा सोमदत्त ने उन्हें आहार दान देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये सो ठीक ही है क्योंकि पात्रदान से नहीं होता है। शुभ आस्रवों से पुण्य का संचय, गुप्ति, समिति, धर्म अनुप्रेक्षा, परिषहज तथा चारित्र इन छह उपायों से कर्म 'समूह का संवर और तप के द्वारा निर्जरा करते हुए उन्होंने छद्यस्थ अवस्था के छह माह मौन से व्यतीत किये । तदनन्तर क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होकर उन्होंने चार घातिया कर्मों का नाश किया तथा चैत्र शुक्ल पूर्णमासी के दिन जब कि सूर्य मध्याह्न से कुछ नीचे हल चुका था तब चित्रा नक्षत्र में उन परकल्याणकारी भगवान ने केवल ज्ञान प्राप्त किया।
उसी समय इन्द्र ने श्राकर उनकी पूजा की। जगत् का हित करने वाले भगवान् वज्च चामर श्रादि एक सौ दस गणधरों से सहित थे, दो हजार तीन सौ पूर्वधारियों से युक्त थे, दो लाख उनहत्तर हजार शिक्षकों से उपलक्षित थे, दश हजार अभिज्ञानी मोर बारह हजार केवल ज्ञानी उनके साथ ये सोलह हजार आठ सो विक्रिया ऋद्धि के धारकों से समृद्ध थे, दस हजार तीन सौ मन:पर्ययज्ञानी उनकी सेवा करते थे, और नौ हजार छह सौ श्रेष्ठ वादियों से युक्त थे, इस प्रकार सब मिलाकर तीन लाख तीस हजार भुनि सदा उनकी स्तुति करते थे। रात्रिषेणा को आदि लेकर चार लाख बीस हजार प्रायिकाएं सब मोर से उनकी स्तुति करती थीं तीन लाख धावक, पांच लाख भाविकाए अदेव-देवियां और संस्था विच उनके साथ थे। इस प्रकार धर्मोपदेश के द्वारा भव्य जीवों को मोक्ष मार्ग में लगाते और पुण्यकर्म के उदय से धर्मात्मा जीवों को सुख प्राप्त करते हुए भगवान् पद्मप्रभु सम्मेद शिखर पर पहुंचे वहाँ उन्होंने एक माह तक ठहर कर योग-निशेष किया तया एक हजार राजाओं के साथ प्रतिमायोग धारण किया।
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तदनन्तर फाल्गुन कृष्ण चतुर्थी के दिन शाम के समय चित्रा नक्षत्र में उन्होंने समुच्छि किया प्रतिपाती नामक चतुर्थ सुनत ध्यान के द्वारा कर्मों का नाश कर निर्वाण प्राप्त किया उसी समय इन्द्र आदि देवों ने माकर उनके निर्वाण कल्याणक की पूजा की। सेवा करने योग्य क्या है ? कमलों को जीत लेने से लक्ष्मी ने भी जिन्हें अपना स्थान बनाया है ऐसे इन्हीं पद्मप्रभु भगवान के चरण युगल सेवन करने योग्य हैं। सुनने योग्य क्या है? सब लोगों को विश्वास उत्पन्न कराने वाले इन्ही पद्मप्रभु भगवान् के सत्य वचन सुनने के योग्य हैं, और ध्यान करने योग्य क्या है? अतिशय निर्मल इन्हीं पद्मप्रभु भगवान् के दिग्दिगन्त तक फैले हुए गुणों के समूह का ध्यान करना चाहिये इस प्रकार उक्त स्तुति के विश्वभूत भगवान पद्मप्रभु तुम सब की रक्षा करें। जो पहले सुसीमा नगरी के अधिपति, शत्रुयों के जीतने वाले अपराजित नाम के लक्ष्मी सम्पन्न राजा हुए, फिर तप धारण कर तीर्थकर नामकर्म का बन्ध करते हुए अन्तिम ग्रैवेयक में श्रहमिन्द्र हुए घोर तदनन्तर कौशाम्बी नगरी में अनन्तगुणों से सहित, इक्ष्वाकुवंश के अग्रणी, निज पर का कल्याण करने वाले छठवें तीर्थंकर हुए वे पद्मप्रभु स्वामी सब लोगों का कल्याण करे ।
भगवान सुपार्श्वनाथ
जिन्होंने जीवाजीवादि तत्वों को सत्व श्रसत्व श्रादि किसी एक रूप से निश्चित नहीं किया है फिर भी उनके जानकार वहीं हैं ऐसे सुपार्श्वनाथ भगवान् मेरे गुरु हों । धातकी खण्ड के पूर्व विदेह क्षेत्र में सीता नदी के उत्तर तट पर सुकच्छ नाम का देवा है। उसके क्षेमपुर नगर में नन्दिषेण नाम का राजा राज्य करता था। वह राजा बुद्धि और पराक्रम से युक्त था, उसके
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