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रहा था कि जब भगवान् सबको प्रबुद्ध करेंगे तब यहत से लोग मोह-निद्रा को छोड़ देवंगे, प्राणियों का जन्मजात विरोध नष्ट हो जावेगा, लक्ष्मी विकाश को प्राप्त होगी और कीति तीनों जगत् में फैल जावेगी। उसी समय इन्द्रों ने मेरु पर्वत पर, ले जाकर क्षीर सागर के जल से उनका अभिषेक किया, हर्ष से पद्म-प्रभु नाम रक्खा, स्तुति की, तदनन्तर महाकान्तिमान् जिन बालक को वापिस लाकर माता की गोद में रक्खा, हर्षित होकर नृत्य किया और फिर स्वर्ग की पोर प्रस्थान किया।
चन्द्रमा के समान उनके बल्यकाल की सब बड़े हर्ष से प्रशंसा करते थे सो ठीक ही है क्योंकि जो ग्रालादित कर वृद्धि को प्राप्त होता है उससे कौन पराङ मुख रहता है ? भगवान् पन प्रभु के शरीर की जैसी सुन्दरता थी वैसी सुन्दरता न तो शरीर रहित कामदेव में थी और न अन्य किसी मनुष्य में भी। यथार्थ में उनकी सुन्दरता को किसी से उपमा नहीं दी जा सकती थी। इसी प्रकार उनके रूप का भी पृथक-पृथक वर्णन नहीं करना चाहिये क्योंकि जो जो गुण उन में विद्यमान थे विद्वान उन गुणों की अन्य मनुष्यों में रहने वाले गुणों के साथ उपमा नहीं देते थे ।
स्त्रियाँ पुरुषों की इच्छा करती हैं और पुरुष स्त्रियों की इच्छा करते हैं परन्तु उन पद्य प्रभु को, स्त्रियां और पुरुष दोनों ही इच्छा करते थे सो ठीक ही है । क्योंकि जिनका भाग्य अल्प है इनके सौभाग्य को नहीं पा सकते हैं। जिस प्रकार मत्त भौरों की पंक्ति अाम्रमंजरी में परम संतोष को प्राप्त होती है उसी प्रकार सब मनुष्यों की दृष्टि उनके शरीर में ही परम संतोष को प्राप्त करती थी। हम तो ऐसा समझते हैं कि समस्त इन्द्रियों के सुख यदि उन पद्मप्रभु भगवान् में पूर्णता को प्राप्त नहीं थे तो फिर अन्य पुण्य के धारक दूसरे किन्हीं भी मनुष्यों में पूर्णता को प्राप्त नहीं हो सकते थे। जव सुमति नाथ भगवान की तीर्थ परम्परा के नब्बे हजार करोड़ सागर बीत गये तब भगवान 'पद्मप्रभु उत्पन्न हुए थे। तीस लाख पूर्व उनकी प्रायु थी, दो सौ पचास धनुष ऊंचा शरीर था और देव लोग उनको पूजा करते थे। उनको प्रायु का जब एक चौथाई भाग बीत चुका तब उन्होंने एक छत्र राज्य प्राप्त किया। उनका वह राज्य अम से प्राप्त होता था-बंश परम्परा से चला आ रहा था सो ठीक ही है क्योंकि सज्जन मनुष्य उस राज्य की इच्छा नहीं करते हैं जो अन्य रीति से प्राप्त होता है। जब भगवान् पद्मप्रभु को राज्यपट्ट बांधा गया तब सबको ऐसा हर्ष हुआ मानों मुझे ही राज्यपट्ट बांधा गया हो। उनके देश में पाठों महाभय समूल नष्ट हो गये थे। दरिद्रता दूर भाग गई, धन स्वच्छंदता से बढ़ने लगा, सब मंगल प्रकट हो गये और सब सम्पदायों का समागम हो गया । उस समय दाता लोग कहा करते थे कि किस मनुष्य को किस पदार्थ की इच्छा है और याचक लोग कहा करते थे कि किसी को किसी पदार्थ की इच्छा नहीं है।
इस प्रकार जब भगवान पद्मप्रभु को राज्य प्राप्त हया तव संसार मानों सोते से जाग पड़ा सो ठीक ही है क्योंकि राजानों का राज्य वही है जो प्रजा को सुख देने वाला हो । जब उनकी आयु सोलह पूर्वांग कम एक लाख पूर्व की रह गई तक किसी समय दरवाजे पर बंधे हुए हाथी की दशा सुनने से उन्हें अपने पूर्व भवों का ज्ञान हो गया और तत्वों के स्वरूप को जानने वाले बे संसार को इस प्रकार धिक्कार देने लगे । वे पाप तथा दुःस्त्रों को देने वाले काम-भोगों से विभक्त हो गये। वे विचारने लगे कि इस संसार में ऐसा कौन-सा पदार्थ है जिसे मैंने देखा न हो, छुपा न हो, सूंघा न हो, सुना न हो और खाया न हो जिससे वह नये के समान जान पड़ता है। यह जीव अपने पूर्व भवों में जिन पदार्थों का अनन्त बार उपभोग कर चुका है उन्हें ही बारबार भोगता है अतः अभिलाषा रूप सागर के बीच पड़े हुए इस जीव से क्या कहा जावे ?
घातिया कमी के नष्ट होने पर इसके केवल ज्ञानरूपी उपयोग में जब तक सारा संसार नहीं झलकने लगता तब तक मिथ्यात्व प्रादि से दूषित इन्द्रियों के विषयों से इसे तप्ति नहीं हो सकती । यह शरीर रोगरूपी सांपों की वामी है तथा यह जीव देख रहा है कि हमारे इष्टजन इन्हीं रोगरूपी सापों से काटे जाकर नष्ट हो रहे हैं फिर भी यह शरीर में अविनाशी मोह कर रहा है यह बड़ा प्राश्चर्य है । क्या आज तक कहीं किसी जीव ने प्रायू के साथ सहवास किया है ? अर्थात् नहीं किया। जो हिसादि पांच पापों को धर्म मानता है, और इन्द्रिय तथा पदार्थ के सम्बन्ध से होने वाले सुख को सुख समझता है उसी विपरीतदर्शी
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