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से विरक्त हो गये सो ठीक ही है क्योंकि निकट भव्यपना इसी को कहते है । भगवान ने विचार किया कि प्रल्प सूख की इच्छा रखने वाले बुद्धिमान मानव, इस विषय रुपी मांस में क्यों लम्पट हो रहे हैं। यदि ये संसार के प्राणी मछली के समान आचरण न करें तो इन्हें पापरुपी वंसी का साक्षात्कार न करना पड़े। जो परम चातुर्य प्राप्त नहीं है ऐसा मूर्ख प्राणी भले ही अहितकारी कार्यों में लीन रहे परन्तु मैं तो तीन ज्ञानों से सहित हूं फिर भी अहितकारी कायों में कैसे लीन हो गया ? जब तक यथेष्ट वैराग्य नहीं होता और यथेष्ट सम्यग्ज्ञान नहीं होता तब तक आत्मा को स्वरूप में स्थिरता कैसे हो सकती है । और जिसके स्वस्वरूप में स्थिरता नहीं है उसके सुख कैसे हो सकता है। राज्य करते हुए जब उन्हें उन्तोस लाख पूर्व और बारह पूर्वांग बीत चके तब अपनी आत्मा में उन्होने पूर्वोक्त विचार किया।
उसी समय सारस्वत आदि समस्त लोकान्तिक देवों ने अच्छे-अच्छे स्तोत्रों द्वारा उनकी स्तुति की, देवों ने उनका अभिषेक किया और उन्होंने उनकी अभय पालकी उठाई । इस प्रकार भगवान सुमतिनाथ ने वैशाख सुदी नवमी के दिन मघा . नक्षत्र में प्रातःकाल के समय महेतुक या दहहार रजनों के साथ वेला का नियम लेकर दीक्षा धारण कर ली। संयम के प्रभाव से उसी समय मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न हो गया।
दसरे दिन वे भिक्षा के लिए सौमनस नामक नगर में गये वहां सुवर्ण के समान कान्ति के धारक पद्म राजा ने पडगाह कर माहार दिया तथा स्वयं प्रतिष्ठा प्राप्त की। उन्होंने सर्वपाप की निवृति रूप सामायिक संयम धारण किया था, वे मौन से रहते थे, उनके समस्त पाप शान्त हो चुके थे, वे अत्यन्त सहिष्णु-सहनशील थे और जिसे दूसरे लोग नहीं सह सकते ऐसे तपको बड़ी सावधानी के साथ तपते थे। उन्होंने छद्मस्थ रहकर वीस वर्ष बिताये। तदन्तर उसी सहेतुक वन में प्रियंगु वृक्ष के नीचे दो दिन का उपवास लेकर योग धारण किया। पोर चैत्र शुक्ल एकादशी के दिन जब सूर्य पश्चिम दिशा की ओर ढल रहा था तब केवल ज्ञान उत्पन्न किया।
देवों ने उनके ज्ञानकल्याणक की पूजा की । सप्त ऋद्धियों के धारक अमर प्रादि एक सौ सोलह गणधर निरन्तर सम्मूख रह कर उनकी पूजा करते थे, दो हजार चार सौ पूर्वधारो निरन्तर उनके साथ रहते थे, वे दो लाख चौग्रन हजार तीन सौ पचास शिक्षकों से सहित थे, ग्यारह हजार अवधिज्ञानी उनकी पूजा करते थे, तेरह हजार केवलज्ञानी उनकी स्तुति करते थे, पाठ हजार चार सौ विक्रिया ऋद्धि के धारण करने वाले उनका स्तवन करते थे, दश हजार चार सौ मनःपर्ययज्ञानी उन्हें घेरे रहते थे और दश हजार चार सौ पचास वादी उनकी वंदना करते थे, इस प्रकार सब मिलाकर तीन लाख तीस हजार मुनियों से वे सुशोभित हो रहे थे । अनन्तमता मादि तीन लाख तीस हजार प्रोयकाए उनका अनुगामिनो थों, तोन लाख श्रावक उनकी पजा करते थे. पाँच लाख श्राविकायें उनके साथ थीं । असंख्यात देव-देवियों और असंख्यात तिर्यचों से वे सदा घिरे रहते थे।
इस प्रकार देवों के द्वारा पूजित हुए भगवान सुमितनाथ ने अठारह क्षेत्रों में बिहार कर भव्य जीवों के लिये उपदेश दिया था। जिस प्रकार अच्छी भूमि में बीज बोया जाता है और उससे महान् फल की प्राप्ति होती है उसी प्रकार भगवान ने प्रशस्त प्रशस्त सभी भाषाओं में भव्य जीवों के लिए उपदेश दिया था। दिव्य-ध्वनि रूपो बोज बोया था प्रोमो जीवों को रत्नत्रयरूपी महान् फल की प्राप्ति हुई थी।
अन्त में जब उनकी प्रायू एक मास की रह गई तब उन्होंने विहार करना बन्द कर सम्मेद-गिरी पर एक हजार मनियों के साथ प्रतिमायोग धारण कर लिया और वहां से चैत्र शुक्ल एकादशी के दिन मघा नक्षत्र में शाम के समय निर्वाण प्राप्त किया देवों ने उनका निर्वाण कल्याणक किया। जो पहले शत्रु राजाओं को नष्ट करने के लिए यमराज के दण्ड के समान अथवा इन्द्र के समान पूण्डरीकिणी नगरी के अधिपति राजा रतिषेण थे, फिर वैजयन्त विमान में अहमिन्द्र हुए और फिर अनन्त लक्ष्मी के धारक, समस्त गुणों से सम्पन्न तथा कृतकृत्य सुमतिनाथ तीर्थकर हुए वे तुम सबको सिद्धि प्रदान करें जो भगवान स्वर्गावतरण
कल्याणक के उत्सव में 'सद्योजात" कहलाये, जन्माभिषेक के समय इन्द्रों के बया मे विरचित पाभपणों ये सुशोभित
समान अथ
तुम सबहामन्द्र हुए
'हलाये, जन्मा
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