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लक्ष्मी को हरण करने के लिए वीर लक्ष्मी ने ही अपनी भुजाएं फैलाई हों। उनके वक्षःस्थल की शोभा का पृथक-पृथक वर्णन कैसे किया जा सकता है जबकि उस पर मोश लक्ष्मी और प्रभ्युश्यलक्ष्मी साथ ही निवास करती थी उनका मध्य भाग कुश होने पर भी कृश नहीं था क्योंकि वह मोक्ष लक्ष्मी धीर अभ्युदय-लक्ष्मी से युक्त उनके भारी भारी शरीर को लोला पूर्वक धारण कर रहा था ।
उनकी आवर्त के समान गोल नाभि गहरी थी यह कहने की आवश्यकता नहीं क्योंकि यदि वह वैसी नहीं होती तो उनके शरीर में मच्छी ही नहीं जान पड़ती समस्त अच्छे परमाणुयों ने विचार किया हम किसी अच्छे साथय के विना रूप तथा घोभा को प्राप्त नहीं हो सकते ऐसा विचार कर ही समस्त अच्छे परमाणु उनकी कमर पर आकर स्थित हो गये थे और इसीलिये उनकी कमर अत्यन्त सुन्दर हो गई थी केके स्तम्भ आदि पदार्थ धन्य मनुष्यों की जांचों की उपमानता को भले ही प्राप्त हो जावें परन्तु भगवान सुमतिनाथ की जांघों के सामने ये गोलाई श्रादि गुणों में उपमेय ही बने रहते थे ।
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विधाता ने उनके सुन्दर घुटने किसलिये बनाये थे यह बात मैं ही जनता हूं अन्य लोग नहीं जानते और वह बात यह है कि इनकी ऊरु तथा जंत्रात्रों में शोभा सम्बन्ध ईर्ष्या न हो इस विचार से ही बीच में घुटने बनाये थे। विधाता ने उनको जंघाएं वज्र से बनाई थीं, यदि ऐसा न होता तो वे कृप होने पर भी त्रिभुवन के गुरु अथवा त्रिभुवन में सबसे भारी उनके शरीर के भार को कैसे धारण करतीं । यह पृथ्वी संपूर्णरूप से हमारे तलवों के नीचे आकर लग गई है यह सोचकर ही मानों उनके दोनों पैर हर्ष से कछुवे की पीठ के समान शुभ कान्ति के धारक हो गये थे ।
इन भगवान् सुमतिनाथ में कमों को नष्ट करने वाले इतने धर्म प्रकट होंगे यह कहने के लिये ही मानों विधाता में उनकी दश अगुलियां बनाई थीं। उनके चरणों के नख ऐसी शंका उत्पन्न करते थे कि मानो उनसे श्रेष्ठ कान्ति प्राप्त करने के लिए ही चन्द्रमा दश रूप बताकर उनके चरणों की सेवा करता था। इस प्रकार लक्षणों तथा व्यंजनों से सुशोभित उनके सर्व शरीर की शोभा मुक्ति रूपी स्त्री को स्वीकृत करेगी इसमें कुछ भी संशय नहीं था। इस प्रकार भगवान की कुमार अवस्था स्वभाव से ही सुन्दरता धारण कर रही पो. यद्यपि उस समय उन्हें यौवन नहीं प्राप्त हुआ था तो भी वे कामदेव के बिना ही अधिक गुन्दर थे। तदनन्तर यौवन प्राप्त कर कामदेव ने भी उनमें अपना स्थान बना लिया सो ठीक ही है क्योंकि ऐसे कौन सत्पुरुष हैं जो स्थान पाकर स्वयं नहीं ठहर जाते ।
इस प्रकार क्रम-क्रम से जब उनके कुमार-काल के दश लाख पूर्व बीत चुके तब उन्हें स्वर्ग योग के साम्राज्य का तिरस्कार करने वाला मनुष्यों का साम्राज्य प्राप्त हुआ शुक्ल लेक्ष्या को धारण करने वाले भगवान हिंसा करते थे, न झूठ बोलते थे और न छोरी तथा परियह सम्बन्धी धानन्द उन्हें स्वप्न में भी कभी प्राप्त होता था भावार्थ हिसानन्द स्तेयानन्द और परिग्रहानन्द इन चारों रौद्र ध्यान से रहित थे। उन्हें न कभी अनिष्टसंयोग होना था, न कभी इष्टवियोग होता था, न कभी वेदनाजन्य दुःख होता था और न वे कभी निदान ही करते थे। इस प्रकार के चारों मार्तध्यान सम्बन्धी संक्लेश से रहित थे। गुण, पुण्य और सुखों को धारण करने वाले भगवान अनेक गुणों की वृद्धि करते थे, नवीन पुण्य कर्म का संजय करते थे और पुरातन समस्त पुण्य कर्मों के विपाक का अनुभव करते थे। अनुराग से भरे हुए देव, विद्याधर और भूमि गोचरी मानव सदा उनकी सेवा किया करते थे, उन्होंने इस लोक सम्बन्धी समस्त आरम्भ दूर कर दिये थे और वे सर्व सम्प को दानों से परिपूर्ण थे। वे मनुष्यों तथा देवों में होने वाले काम भोगों में, न्यायपूर्ण सर्व में तथा हितकारी धर्म में श्रेष्ठ मुख प्राप्त हुए थे ये दिव्य अंगराग माला, वस्त्र और आभूषणों से सुशोभित, सुन्दर, समान अवस्थाबाली तथा स्वेच्छा से प्राप्त हुई स्त्रियों के साथ रमण करते थे। समान प्रेम से संतोषित दिव्य लक्ष्मी धीर मनुष्य लक्ष्मी दोनों हो उन्हें सुख पहुंचाती थी सो ठीक ही है क्योंकि मध्यस्थ मनुष्य किसे प्यारा नहीं होता ?
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संसार में सुख वही था जो इनके इन्द्रिय गोवर था क्योंकि स्वर्ग में भी जो सारभूत वस्तु थी उसे इन्द्र इन्हीं के लिए सुरक्षित रखता था। इस प्रकार दिव्य लक्ष्मी और राज्य लक्ष्मी इन दोनों में समय व्यतीत करते हुए भगवान सुमतिनाथ संसार
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