________________
होकर 'याम' कहलाये, दीक्षा-कल्याणक के समय 'अघोर' कहलाये, केवलज्ञान की प्राप्ति होने पर ईशान कहलाये पोर निवांग होने पर 'तत्पुरुष' कहलाये ऐसे रागद्वेष रहित अतिशय पूज्य भगवान सुमतिनाथ का शान्ति के लिए हे मध्य जोवों। प्राश्रय ग्रहण करो।
भगवान् पद्मप्रभु कमल दिन में ही फूलता है, रात में बन्द हो जाता है अतः उसमें स्थिर न रह सकने के कारण जिस प्रकार प्रभा को शोभा नहीं होती और इसलिए उसने कमल को छोड़कर जिनका आश्रय ग्रहण किया था उसी प्रकार लक्ष्मो ने भो कमल को छोड़कर जिनका ग्राश्रय लिया था वे पदमप्रभ स्वामी हम सबकी रक्षा करें दूसरे धातको खण्ड दोप के पूर्व विदेह क्षेत्र में सोता नदी के दक्षिण तट पर वत्स देश है। उसके सूसीमा नगर में महाराज अपराजित राज्य करते थे। महाराज अपराजित वास्तव में अपराजित थे क्योंकि उन्हें शत्रु कभी भी नहीं जीत सकते थे श्रीर उन्होंने अन्तरंग तथा बहिरंग के सभो शत्रुओं को जीत लिया था वह राजा कुटिल मनुष्यों को अपने पराक्रम से ही जोत लेता था अत: बाहुबल से सुशाभित उस राजा को सप्तांग सेना केवल बाह्य प्राडम्बर मात्र थी उसके सत्य से भेष किसानों की इच्छा अनुसार बरसते थे आर वर्ष के पादि, मध्य तथा अन्त में बोये जाने वाले सभी धान्य फसल प्रदान करते थे उसके दान के कारण दारिद शब्द आकाश के फल के समान हो रहा था और पृथ्वी पर पहले जिन मनुष्यों में दरिद्रता थी वे अब कुबेर के समान पाचरण करने लगे थे जिस प्रकार उत्तम खेत में बोये हुए वीज सजातीय अन्य बीजों को उत्पन्न करते हैं उसी प्रकार उस राजा के उक्त तानां महान् गुण सजातीय अन्य गुणों को उत्पन्न करते थे इस राजा को रुपादि सम्पत्ति अन्य मनुष्यों के समान इसे कुमार्ग में नहीं ले गई था सो ठीक ही है क्योंकि वृक्षों को उखाड़ने वाला क्या मेरु पर्वत को भी कम्पित करने में समर्थ है । वह राजा राजाना के योग्य सन्धि विग्रहादि छह गुणों से सुशोभित था और छह गुण उससे सुशोभित थे। उसका राज्य दूसरों के द्वारा घर्षणाय-तिरस्कार करने के योग्य नहीं था परव है स्वयं दूसरों का घर्षक-तिरस्कार करने वाला था। इस प्रकार अनेक भवों में उपार्जित पुण्य कर्म के उदय से प्राप्त तथा अनेक मित्रों में बटे हुए राज्य का उसने चिरकाल तक उपभोग किया तदनन्तर वह विचार करने लगा कि इस संसार में समस्त पीय क्षणभंगुर हैं, सुख पर्यायों के द्वारा भोगा जाता है और कारण का विनाश होने पर कार्य की स्थितो कैसे हो सकती है।
इस प्रकार ऋजुसूत्र नयसे सब पदार्थों को मंथन करते हुए उप राजा ने अपने आत्मा को वश में करने वाले सुमित्रपत्र के लिए राज्य दे दिया, वन में जाकर विसितानब जिनेन्द्र को दोक्षा-गुरु बनाया, ग्यारह प्रगा का अध्ययन कर र का बन्ध किया और प्रायू के अन्त में समाधिमरण के द्वारा शरीर छोड़कर अत्यन्त रमणीय ऊव-धेयक के प्रांतिकर विमान में अहमिन्द्र पद प्राप्त किया। इकतीस सागर उसकी प्रायु थो, दो हाथ उंचा शरीर था, शुक्ल लेश्या थो, चार सी पंसठ दिन में श्वासोच्छवास ग्रहण करता था,इकतीस हजार वर्ष बाद मानसिक पाहार से संतुष्ठ होता था, अपने तेज, बल तथा अवधि-ज्ञान से सप्तमी पृथ्वी को व्याप्त करता था और वहीं तक उसकी विक्रिया ऋद्धि थी। इस प्रकार महामिन्द्र सम्बंधी सुख प्राप्त थे।
आयु के अन्त में जब वह वहां से चय कर पृथवी पर अवतार लेने के लिए उद्यत हुा । तब इसी जम्बूद्वाप की कौशाम्बी नगरी में ईक्ष्वाकुवंशी काश्यपगोत्री धरण नाम का एक बड़ा राजा था । उसको सुसीमा नाम को रानी थी जो रत्तवृष्टि आदि अतिशयों से सम्मानित थी । माघ कृष्ण पष्ठी के दिन प्रात:काल के समय जब चित्रा नक्षत्र और चन्द्रमा का संयोग हो रहा था तब रानी सुसीमा ने हाथी प्रादि सोलह स्वप्न देखने के बाद मुख में प्रवेश करता हुमा एक हाथी देखा । पति से स्वप्नों का फल जानकर बहुत ही हपित हुई। कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी के दिन त्वष्ट्र योग में उसने लाल कमल को कलिका के समान कान्तिवाले अपराजित पुत्र को उत्पन्न किया । इस पुत्र को उत्पत्ति होते ही गुणों की उत्पत्ति हुई, दोष समूह का नाश हया और हर्ष से समस्त प्राणियों का शोक शान्त हो गया। स्वर्ग और मोक्ष का मार्ग चलाने वाले भगवान् के उत्पन्न होते ही मोहरूपी शत्र काँति रहित हो गया तथा अब मैं नष्ट हा यह सोचकर कांपने लगा। उस समय विद्वानों में निम्न प्रकार का वार्तालाप हो
२१३