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रात्रि में बच्चों को चन्द्रमा दिखलाकर क्रीडा करने का उपदेश दिया तथा बच्चों को बोलने का अभ्यास भी अनुपम कराने को प्रेरणा की।
चन्द्राभ कुलकर दशव कुलकर के स्वर्ग जाने के बाद पाठ हजार करोड़वें भाग (5०००००००००) प्रमाण पल्य समय बीत जाने पर चन्द्राभ नामक ग्यारहवें कुलकर उत्पन्न हुये । उनका शरीर ६०० सौ धनुष ऊंचा था और आयू पल्य के (१०००००००००००) दश हजार करोड़वें भाग समान थी। उनकी पत्नी सुन्दरी प्रभावती थी।
इस मनु के समय बच्चे कुछ अधिक काल जीने लगे सो उनके जीवन के वर्षों की सीमा बतलाई और निराकुल किया।
मरुदेव कुलकर चन्द्राभ कुलकर के स्वर्ग जाने के पश्चात् अस्सी हजार करोड़ से भाजित (८०००००००००००) पत्य का समय बीत जाने पर मरुदेव नामव बारहवें कुलकर उत्पन्न हुये । उनकी आयु एक लाख करोड़ से भाजित पल्य के बराबर और शरीर (५७५) धनुप ऊंचा था। उनकी पत्नी का नाम सत्या था।
इनके समय में पानी व बरसने लगा जिससे ४० नदियां पैदा हो गई, उनको नाव आदि के द्वारा जलतर उपाय बतलाया।
प्रशेनजित कुलकर मरुदेव का निधन हो जाने पर (१०,००००००००००००) दस लाख करोड़ से भाजित पत्य प्रमाण समय बीत जाने पर प्रशेनजित नामक तेरहर कुलकर पंदा हुए । उनको आयु दशलाख करोड़ १०,०००००००००००० से भाजित पल्य के बराबर थी उनका शरीर ५५० धनुष ऊंचा था उनकी स्त्री का नाम अमृतमती था। इन्होंने प्रसूत बच्चे के ऊपर की जरायु को निकालने के उपाय का उपदेश दिया।
नाभिराय कुलकर प्रशेनजित के स्वर्ग चले जाने पर (८०,००००००००००००) भाग पल्य बीत जाने पर चौदहवें कुलकर नाभिराय उत्पन्न हुये । उनका शरीर ५२५ धनुष ऊंचा था और उनकी आयु एक करोड़ पूर्व (१,०००००००) की थी। उनकी महादेवी का नाम मरुदेवी था।
नाभिराय के समय उत्पन्न होने वाले बच्चों का नाभि में लगा हुआ नाल पाने लगा। इन्होंने उस माल को काटने की विधि बतलाई। उनके समय में भोजनांग कल्पवृक्ष नष्ट हो गये जिससे जनता भूख से व्याकुल हुई तब नाभिराय ने उनको उगे हये पेड़ों के स्वादिष्ट फल खाने तथा धान्य को पकाकर खाने की एवं ईख को कोल्हू में पेल कर उसका रस पीने का उपाय बताया। इसलिए उस समय के लोग उन्हें इक्ष्वाकु हंस सार्थक नाम से भी कहने लगे जिससे इक्ष्वाकु वंश चाल हा । इन्हीं के पुत्र प्रथम तीर्थकर श्री ऋषभनाथ हुए । जो कि १५वें कुलकर तथा ऋषभदेव के पुत्र भरत चक्रवर्ती सोलहवें मन हये।
प्रथम कलकर से लेकर पाठवें कुलकर तक प्रजा की रक्षार्थ 'हा' यह दंड नियत हुआ, इसके बाद के पांच मनुष्यों तक में यानी दशव कुल कर तक 'हा' और 'मा' ये दो दंड तथा इसके बाद पांच मनुष्यों तक यानी ऋषभदेव भगवान तक की प्रभा में हा, मा और धिक ये तीन दण्ड नले। फिर भरत चक्रवर्ती के समय में तनुदंड भी चालू हो गया था। इसी प्रकार १ कनक, २ कनकप्रभ, कनकराज '४ कनकध्वज ५ कनकपुगवा, ६ नलिन, ७ नलिनप्रभ, ८ नलिनराज, नलिनध्वज, १० नलिन पुगव ११पद्म, १२ पमप्रभ, १३ पम राज, १४ पद्मध्वज, १५ पद्मपुगव और सोलहवें महापद्म। यह सोलह कलकर भविष्य काल उत्सपिणी के दूसरे काल में जब हजार वर्ष बाकी रहेगा तब पैदा होंगे । अब आगे नो प्रकृतियों में राबसे अधिक पुण्य प्रकृति (तीर्थकरों) के बंध कराने के कारणरूप सोलह भावनायें हैं।
षोडश भावना कर्म प्रकृतियों में सबसे अधिक पुण्प प्रकृति तीर्थकर प्रकृति के बंध करने को कारण रूप सॉलह भावनाये हैं।
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