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वहाँ को आयु जब सिर्फ छह मास को बाकी रह गई तब से राजा दृढ़ के घर पर प्रतिदिन असंख्य रत्नों को वर्षा होने लगी। रत्नों की वर्षा के सिवाय और भी अनेक शुभ शकुन प्रकट होने लगे थे जिससे राज दम्पत्ति आनन्द से फूने न समाते थे। एक दिन रात्रि के पिछले पहर में महारानी सुपंणा ने सोते समय ऐरावत हाथी को आदि लेकर सोलह स्वप्न देखे और स्वप्न देखने के बाद मुह में प्रवेश करते हुए एक गन्धसिन्दूर मत्त हाथी को देखा । सवेरा होते ही उसने पतिदेव से स्वप्नों का फल पूछा राजा दुहराज ने अवधिज्ञान से विचार कर कहा कि माज तेरे गर्भ में तीर्थकर पुत्र ने अवतार लिया है। पुथिवी तल में तीर्थकर का जैसा पुण्य किसो का नहीं होता है। देखो न ! वह तुम्हारे गर्भ में पाया भी नहीं था कि छह मास पहले से प्रति दिन प्ररांख्य रत्ल राशि बरस रही है। कुबेर ने इस नगरी को कितना सुन्दर बना दिया है। यहां की प्रत्येक वस्तु कितनी मोहक हो गई है कि उसे देखते जो नहीं अचाता। यहां राजा, रानो को स्वप्नों का फल बतला रहे थे। वहां भावो पुत्र के पुण्य प्रताप से देवों के अचल प्रासन भी हिल गये जिससे समस्त देव तीर्थकर का गर्भावतार समझ कर उत्सव मनाने के लिए श्रावस्ती पाये और क्रम-क्रम से राज मंदिर में पहुंच कर उन्होंने राजा-रानी की खुब स्तुति करके उनका स्वर्गीय वस्त्राभूषणों से खूब सत्कार किया। गर्भावतार का उत्सव मना कर देव अपने-अपने स्थानों पर बापिस चले गये और कुछ देवियों को जिन माता की सेवा के लिए वहीं पर नियुक्त कर गये । देवियों ने गर्भशुद्धि को आदि लेकर अनेक तरह से महाराना सुषेणा की सुश्रुपा करनी प्रारम्भ कर दी। राज दम्पत्ति भावी पुत्र के उत्कर्ष का ख्याल कर मन हा मन हर्षित होते थे। जिस दिन अहमिन्द्र (भगवान संभवनाथ के जीय) ने सुषेणा के गर्भ में अवतार लिया था। उस दिन फाल्गुन कृष्ण अष्टमी का दिन था, मृगशिर नक्षत्र का उदय था और प्राची दिशा में बाल सूर्य कमकुम रंग वर्षा रहा था। देव कुमारियों को सधपा और विनोद भरी वार्तामों से जब रानी के गर्भ के दिन सुख से बीत गये उन्हें गर्भ सम्बन्धो कोई कष्ट नहीं हया नत्र कार्तिक शुक्ला पूर्णमासी के दिन मृगशिर नक्षत्र में पुत्र रल उत्पन्न हुआ। पुत्र उत्पन्न होते हो आकाश से असंख्य देव सेनाएं श्रावस्ती नगरी के महाराज दृढ़राज्य के घर पाई। इन्द्र ने इन्द्राणी को भेजकर प्रसूति गृह से बालक को मंगवाया।
भगवान् ऋषभदेव, यद्यपि परम स्वतंत्र होने के कारण स्वयं सर्वदा ही सब प्रकार की अनर्थ परम्परा से रहित केवल आनंदानुभवस्वरूप और साक्षात ईश्वर ही थे, तो भी अज्ञानियों के समान कर्म करते हुए उन्होंने काल के अनुसार प्राप्त धर्म का आचरण करके उसका तत्व न जानने वाले लोगों को उस की शिक्षा दी। साथ ही मन, शांत, मुहृद् और बारुणिक रह कर धर्म, अर्थ, यश, संतान, भोग-सुख और मोक्ष का संग्रह करते हुए गृहस्थाश्रम में लोगों को नियमित किया ।
यद्यच्छीण्याचरितं ततदनुवर्तते लोकः । महापुरुष जरा-जैसा आचरण करते हैं, दूसरे लोग उसी का अनुकरण करने लगते हैं। पद्यपि स्वविदितं सकलवम श्राम गुह्य ब्राह्मणेदेशितमार्गरण सामादिशिल्पायर्जनतामनुशाशास ।
यद्यपि वे सभी धर्मों के साररूप बंद के गूक रहस्य को जानते थे, तो भी प्राहारणों की बतलायी हुई विधि से सामानादि भीति के अनुसार ही जनता का पालग करते थे।
ब्रम्पदेशकालवयात्विविविधिदेवोपचितः सर्वपि ऋतुभियंयोपदेशशतकुत्व हयान।
'उन्होंने शास्त्र और ब्राह्मणों के उपदेशानुसार भिन्न-भिन्न देवताओं के उद्देश्य से द्रव्य, देश, काल, आयु, श्रद्धा और ऋत्विज आदि से सुसम्पन्न सभी प्रकार के सौ-सौ यज्ञ किये।
भगवतपभेगा परिरक्ष्यमाण एतस्मिन् वर्ष न कश्च । पुरुको वाञ्छत्यविधमानमिवात्मनोऽन्यस्माकम्वन किमपि कहिचिदवेक्षते भत नुसेवन विम्भितस्नेहातिशयमनरेण ।
भगवान ऋषभदेव के शासन काल में इस देश का कोई भी पुरुष अपने लिये किसी से अपने प्रभु के प्रति दिन-दिन बढ़ने वाले अनुराग के सिवा और किसी वस्तु की कभी इच्छा नहीं करता था। यही नहीं, आकाशकुसुमादि अविद्यमान वस्तु की भांति कोई किसी की वस्तु
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