________________
जो शत्रु रूप राजाओं के लिए यमराज के दण्ड के समान अथवा हरि इन्द्र के समान पुण्डरीकिणी नगरी के राजा रतिषेण हुए, फिर वैजयन्त विमान में अहमिन्द्र हुए वे अपार लक्ष्मी के धारक, कृतकृत्य, सब गुणों के सम्पन्न भगवान् सुमतिनाथ तीर्थकर तुम सब की सिद्धि करें-तुम्हारे मनोरथ पूर्ण करे।
पूर्व भव परिचय दूसरे धातकी खुण्ड द्वीप में पूर्व की ओर विदेह क्षेत्र में सीता नदी के उत्तर तट पर पुष्कलावली नामक देश है। उसमें पुण्डरीकिणी नगरी है जो अपनी शोभा से पुरन्दरपुरी अमरावती को भी जीतती है। वहाँ राजा रतिषेण राज्य करते थे। जिस तरह बड़े बड़े शत्रुओं को जीत लिया था उसो तरह अनुपम मनोबल से काम क्रोध, लोभ, मद्, मात्सर्य और मोह इन छह अन्तरंग शत्रों को भी जीत लिया था। वे बड़े हो यशस्वी थे, दयालु थे, धर्मात्मा थे और थे सच्चे नोतिज्ञ । अनेक तरह के विषय भोगते हुए जब उनकी बायु का बहुभाग व्यतीत हो गया तब उन्हें एक दिन किसी कारणवश संसार से उदासीनता हो गई। ज्योंही उन्होंने विवेक रूपी नेत्र से अपनी प्रोर देखा त्योंही उन्हें अपने बीते हुए जीवन पर बहुत ही सन्ताप हुआ। वे सोचने लगे हाय मैंने अपनी बिशाल आयु इन विषय सुखों के भोगने में ही बिता दी पर विपय सुख भोगने से क्या सुख मिला है। इसका कोई उत्तर नहीं है। मैं आज तक भ्रमवश दुःख के कारणों को ही मुख का कारण मानता रहता हूँ। आह! इत्यादि विचार कर वे अतिरथ पुत्र के लिये राज्य दे बन में जाकर कठिन तपस्याए करने लगे। उन्होंने अहन्नन्दन गुरु के पास रहकर ग्यारह अगों का विधिपूर्वक अध्ययन किया तथा दर्शन विशुद्धि प्रादि सोलह भावनाओं का शुद्ध हृदय से चिन्तवन किया जिससे उन्हें तीर्थकर नामक महापुण्य प्रकृति का बन्द हो गया मुनिराज तिर्पण आयु के अन्त में सन्यास पूर्वक मर में अहमिन्द्र हा। वहाँ उनकी आयु तेतीस सागर वर्ष को थी, शरीर एक हाथ ऊंचा और रंग से सफेद था। वे तेतोस हजार वर्ष एक बार मानसिक आहार लेते और तेतीस पक्ष में सुरभित श्वास लेते थे। इस तरह वहां जिन अर्चा और तत्व चोसे हिमिन्द्र रतिषण के दिन सुख से बीतने लगे। यही अहमिन्द्र प्रागे के भव में कथानायक भगवान्
सर्वाणि मद्धिष्ण्यतया भवद्भिश्चराणि भूतानि सुता ध्रुवाणि ।
सम्भावित व्यानि पदे पदे वो विविक्तहम्भिस्तदु हाहण मे ।। पत्रो ! तभ सम्पूर्ण चराचर भूनों को मेरा ही शरीर समझ कर शुद्धि बुद्धि से पद-पद पर उनकी सेवा करो, यही मेरी सच्ची पूजा है।
मनोवचोककरणे हितस्य साक्षात्कृतं मे परिबहणं हि ।
बिना पुमान् येन महाविमोहात् कृतान्तमाशान्न विमोक्तुगीशेत् ।। मन, बचन, दष्टि तथा अन्य इन्द्रियों की चेष्टाओं का साक्षात् फल मेरा इस प्रकार का पूजन है। इसके बिना मनुष्य अपने को महामोहमय कालपास से छुड़ा नहीं सकता।
मनशापात्म जान स्वयमनुशिष्टायपि लोकानुशासनार्थ महानुभाव: परमसुहृद्भगवानषभोपदेश उपशमशीलानामुपरतकर्मणा महामु
जानवराग्यलक्षणं पारमहंस्यधर्ममुपशिक्षमाणः स्वतनयशतज्येष्ठं परमभागवत भगवाजनपरायणं भरतं धरणिपालनायाभिषिच्य' स्वयं भवन एबोवैरितशरीरमावपरिग्रह ।
श्री शुकदेव जी कहते हैं-राजन् ! ऋषभदेव जी के पुत्र यद्यपि स्वयं ही सब प्रकार सुशिक्षित थे, तो भी लोगों को शिक्षा देने के खाने महाप्रभावशाली परम सुहृदभगवान् ऋषभने उन्हें इस प्रकार उपदेश दिया। ऋषभदेव जी के सौ पुत्रों में भारत सबसे बड़े थे। वे भगवान के परम भक्त और भगवद्भक्तों के परायण थे। ऋषभदेव जी ने पृथ्वी का पालन करने के लिये उन्हें राजगद्दी पर बैश दिया और स्वयं उपशमनिवृत्तिारायण महामुनियों के भक्ति, ज्ञान और बैराग्यरूप परमहंसोचित धर्मों की शिक्षा देने के लिए बिल्कुल विरक्त हो गये । केवल शरीरमात्र का परिग्रह बया और सब कुछ घर पर रहते ही छोड़ दिया । अत्र बे वस्त्रों का भी त्याग करके सर्वथा दिगम्बर हो गये।