________________
ही खो दिया। अब ग्राज से मैं सर्वथा विरक्त होकर दिगम्बर मुद्रा को धारण कर वन में रहँगा। क्योंकि इन रंग बिरंगे महलों में रहने से चित्त को शांति नहीं मिल सकती। इधर इनके चित्त मैं ऐसा विचार हो रहा था उधर लौकान्तिक देवों के पासन काँपने लगे थे। आसन कांपने से उन्हें निश्चय हो गया था कि भगवान अजित नाथ का चित्त वैराग्य की पोर बढ़ रहा है। निश्चयानुसार वे शीघ्र ही इनके पास पाये और तरह-तरह के सुभाषितों से इनकी वैराग्य धारा को अत्यधिक प्रद्धित कर अपने-अपने स्थान पर चले गये। उसी समय तपः कल्याणक का उत्सव मनाने के लिए वहां समस्त देव पा उपस्थित हुए । सब से पहले भगवान् ने अभिषेक के पूर्व अजितसेन नाम के पुत्र के लिए राज्य का भार सौया और फिर अनाकुल हो वन में जाने के लिए तैयार हो गये । देवों ने उनका तीर्थ जल से अभिषेक किया और तरह-तरह के मनोहर आभूषण पहिनाये अवश्य पर उनकी इस रागवर्द्धक क्रिया में भगवान को कुछ भी मानन्द नहीं मिला। वे सुप्रभा नामक पालकी पर सवार हो गये। पालकी को मनुष्य, विद्याधर और देय लोग क्रम-क्रम से अयोध्या के सहेतुक वन में ले गये। वहाँ वे सप्तपर्ण वृक्ष के नीचे एक सुन्दर शिला पर पालकी से उतरे। जिस शिला पर वे उतरे थे उस पर देवांगनाओं ने रत्नों के चूर्ण से कई तरह के चौक पूरे थे। सप्तवर्ण वृक्ष के नीचे विराजमान द्वितीय जिनेन्द्र अजितनाथ ने पहले सबकी ओर विरक्त दृष्टि से देख कर दीक्षित होने के लिए सम्मति ली। फिर पूर्व की ओर मह कर "ॐनमः सिद्धेभ्यः" कहते हुए वस्त्राभूषण उतार कर फेंक दिये और पंच मुष्ठियों से केश उखाड़ डाले । इन्द्र ने केशों को उठाकर रत्नों के पिटारे में रख लिया और उत्सव समाप्त होने के बाद क्षीर सागर में क्षेपण कर पाया । दीक्षा लेते समय उन्होंने षष्ठोपवास धारण किया था। जिस दिन भगवान अजितनाथ ने दीक्षा धारण की थी उस दिन माघ मास के शुक्ल पक्ष की नवमी थी और रोहिणी नक्षत्र का उदय था । दीक्षा सायं काल के समय केले के वृक्ष के नीचे ली थी। उनके साथ में एक हजार राजाओं ने दीक्षा ग्रहण की थी। उस समय भगवान अजितनाथ की त्रिशुद्धता इतनी अधिक बढ़ गई थी कि उन्हें दीक्षा लेते समय ही मनःपर्यय ज्ञान प्राप्त हो गया था।
उस यज्ञ में महषियों द्वारा इस प्रकार प्रसन्न किये जाने पर श्री भगवान नाभि का प्रिय करने के लिये उनके रनिवास में महारानी मेरुदेवी के गर्भ से दिगम्बर संन्यासी और ऊर्वरेता मुनियों का धर्म प्रकट करने के लिये शुद्धसत्वमय विग्रह से प्रकट हुए।
अथ ह तमुत्पत्यवाभिव्यमानभगवल्लक्षणं साम्योपशमवैराग्यश्वर्य महाविभुतिभिरमुदिनमेधमानानुभावं प्रकृतयः प्रजा ब्रह्मणा देवताश्चावनितलसमवनायातितरां जगृधुः। तस्य ह वा इत्थं वर्मणा वरीपसा वृहच्छलोनान चौजसा बलन थिया यशसा बीर्यशौर्याभ्यां च पिता ऋषभ इतीदं नाम चकार।
श्री शुकदेवजी कहते हैं-राजन? नाभिनन्दन के अंग जन्म से ही भगवान विष्णु के वच अङ्ग कुश थादि चिन्हों से युक्त थे | समता, शान्ति बैराग्य और ऐश्वर्य आदि महाविभूतियों के कारण उनका प्रभाव दिनोंदिन बढ़ता जाता था। यह देखकर मन्त्री आदि प्रकृति वर्ग प्रजा ब्राह्मण और देवताओं की यह उत्कृष्ट अभिलाषा होने लगी कि ये पृथ्वी का शासन करें। उनके सुन्दर और सुडौल शारीर, विपुल कीति. तेज, बल ऐश्वर्व, यश, पराक्रम और शूरवीरता आदि गुणों के कारण महाराज नाभि ने उसका नाम 'ऋषम' (थेठ) रखा।
तस्य हीन्द्रः रपर्धमानो भगवान वर्षे न ववर्ष तदवबार्य भगवानृषभदेवोयोगेश्वरः प्रहखात्मयोगमायया स्ववर्षमजनाम नामाभ्यवर्षत् । नाभिस्तु यथाभिलषितं सुप्रजस्त्वमवरुव्यातिप्रमोदभरविह्वलो गद्गदाक्षरया गिरा बरं गहीतनरलोक संग्रम भगवन्तं पुराणपुरुष' माया विल सितमतिवरस तातेति सानुरागभुपलायन पर निबृतिमुपगतः ।
एक बार भगवान इन्द्र ने ईष्यावश उनके राज्य में वर्षा नहीं की। तब योगेश्वर भगवान ऋषभ ने इन्द्र की मूर्खता पर हंसते हुए अपनी योगमाया के प्रभाव से अपने वर्ष अजनाभखण्ड में खूब जल बरसाया । महाराज नाभि अपनी इच्छा के अनुसार श्रेष्ठ पुत्र पाकर अत्यन्त
१९४.