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तीर्थकर प्रकृति का बंध करने वाले के विषय में गोम्मटसार कर्मकांड में बतलाया है।
पदगवर्माण सम्पे सेसानिगे पविरदादिचत्तारि ।
तित्थयरबंधपारंभया गरा केवलि दुर्गते ।। यानि प्रथम उपशम सम्यक्त्व अथवा द्वितीयोपशमसम्यक्तत्व, क्षयोपशम या क्षायिक सम्यक्त्व वाला पुरुष चोथे गुणस्थान से सातवें गुणस्थान तक के किसी श्री गुणस्थान में केवली या श्रुत केबली के निकट तीर्थकर प्रकृति के बंध का प्रारम्भ करता है।
जिस व्यक्ति को ऐसी प्रबल शुभ भावना हो कि (मैं समस्त जगवर्ती जीवों का उद्धार कर समस्त जीवों को संसार से छड़वाकर मुक्त कर दूं) उस किसी एक विरले मनुष्य के उपर्यक्त दशा में निम्नलिखित सोलह भावनाघों के निमित्त से तीर्थकर प्रकृति का बंध होता है।
१दर्शन विशुद्धि २ विनय संपन्नता ३ अतिचार रहित शीलवत ४ अभीक्षण ज्ञानोपयोग ४ संवेग ६ शक्ति अनुसार त्याग ७ शक्ति अनुसार तप ८ साधु समाधि वैय्याव्रत करण १० अरहत भक्ति ११ प्राचार्य भक्ति १२ बहु श्रुत भक्ति १३ प्रवचन भक्ति १४ आवश्यकापरिहारणि १५ मार्ग प्रभावना १६ प्रवचन वात्सल्य ।
विशेष विवेचन-शंका, काक्षा, चिकित्सा, मुढदृष्टि अनुपगहन, अस्थितिकरण, अप्रभावना, अवात्सल्य, ये प्राठदोष कुलमद जातिमद, बलभद, ज्ञानमद, तपमद, रूपमद, धनमद, अधिकारमद ये आठ मद देवमुढता, गुरुमूढता लोकमूटना ये मूढतायें हैं। तथा छ: अनायतन, कुगुरू, कुगुरू भक्ति, कुदेव, कुदेव भक्ति, कुधर्म धर्म सेवक, ऐसे सम्यक-ज्ञान के ये पच्चीस दोप हैं। इन दोषों से रहित शुद्ध सम्यकदर्शन का होना सो दर्शन विशुद्धि भावना हैं।
देव शास्त्र गुरू तथा रत्नत्रय का हृदय से सम्मान करना विनय करना बिनय संपन्नता है। व्रता तथा व्रतों के रक्षक नियमों (शीलों) में अतिचार रहित होना शीलन्नत भावना है।
सदा ज्ञान प्राभ्यास में लगे रहना अभीक्षण ज्ञानोपयोग है। धर्म और धर्म के फल में अनुराग होना संवेग भावना है।
अपनी शक्ति को न छिपा कर अन्तरंग बहिरंग तप करना शक्तितः त्याग है। अपनी शक्ति के अनुसार पाहार, अभय प्रौषध और ज्ञान दान करना शस्तितः त्याग है।
साधुओं वा उपसर्ग दूर करना अथवा समाधि सहित वीर मरण करना साधु समाधि है।
व्रती त्यागी सधर्मी की सेवा करना दुखी का दुख दूर करना वैय्यावत करण है अरहंत भगवान की भक्ति करना अरहत भक्ति है।
मूनि संघ के नायक प्राचार्य की भक्ति करना प्राचार्य भक्ति है। उपाध्याय परमेष्ठि की भक्ति करना बहथत भक्ति है। जिनवाणी की भक्ति करना प्रवचन भक्ति है। छै माबश्यक कर्मों को सावधानी से पालन करना प्रावश्यक परिहारिणी है। जैनधर्म का प्रभाव फैलाना मार्ग प्रभावना है। धर्म जन से अगाध प्रेम करना प्रवचन वात्सल्य है।
इन सोलह भावनाओं में दर्शनविशुद्धि भावना का होना परमावश्यक है। दर्शनविशुद्धि के साथ कोई भी एक दो तीन चार भावना हों या सभी भावना हों तो तीर्थकर प्रकृति का बंध हो सकता है। अब इस क्षेत्र के वर्तमान तीर्थकरों की भवावली यथाक्रम से कहते हैं
श्री आदिनाथ जी गर्भाकल्याणक-पाषात कृष्ण द्वितीया उत्तरापाढ़ा नक्षत्र में । जन्मकल्याणक-चैत्र कृष्ण नवमी को उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में। जन्मकाल-सुषमा दुषमा-काल में चौरासी लाख पूर्व तीन वर्ष पाठ मास एक पक्ष शेष रहने पर जन्म हत्या। दीक्षाकल्याणक-चैत्र सुदी नवमी को रोहिणी नक्षत्र के अपरान्ह काल में। दीक्षा लेने के बाद १००० वर्ष बाद केवलज्ञान प्राप्त हुआ।
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