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काल का बर्णन
अथ त्रिविधः कालः ॥१॥ अर्थ-इस प्रकार मंगल निमित्त विशेष इष्ट देवता को नमस्कार करने के बाद कहते हैं कि विविधः कालः अनन्तानन्तरूप अतीतकाल से भी अनन्त गुणित अनागत काल, समयादिक वर्तमान काल, प्रकार से काल तीन प्रकार के होते हैं ।
द्विविधः ॥२॥ __ अर्थ-पांच भरत और पांच ऐरावनों की अपेक्षा से शरीर को ऊंचाई बल और प्रायु आदि की हानि से युक्त दस कोड़ा-कोड़ी सागर प्रमाण वाला अवसिपणी काल तथा उत्घ आयु बलादि की वृद्धिवाला दशकौड़ाकोड़ी सागर प्रमाण उत्सर्पिणी काल है। इस प्रकार काल के दो भेद हो जाते हैं।
षड्विधोवा ॥३॥ अर्थ--सुषम सुषमा, १ सुषमा, २ सुषमा दुःषमा ३ दुषम सुषमा, ३ दुःपमा, ५ प्रतिदुःषमा ६ ऐसे अवसर्पिणी काल के छः भेद हैं । इस प्रकार इनसे उलटे अति दुःषमा १ दुषमा २ दुःषमसुषमा ३ सुषम दुःपमा ४ सुषमा ५ सुषम सुषमा ६ ये उत्सपिणी के छ: भेद हैं।
इस अवपिणो में सुषम सषमा नाम का जो प्रथम काल है वह चार कोडाकोड़ी सागर प्रमाण प्रवर्तता है, इसमें उत्तम भोग भूमि की सी प्रवृत्ति होती है। उस युग के स्त्री पुरुष ६००० धनुष की ऊंचाई वाले तथा तीन पल्योपम आयु वाले और तीन दिन के बाद बदरी फल के प्रमाण पाहार लेने वाले होते हैं। उन के शरीर को कांति बाल सूर्य के समान होती है। समचतु रस्र संस्थान, वजवृषभनाराच संहनन तथा ३२ शुभ लक्षणों से युक्त होते हैं । मार्दव और आर्जव गुण से युक्त वे सत्य सुकोमल सुभाषा भाषी होते हैं, उनकी बोली मृदु मधुर वीणा के बाद के समान होती है, वे ६००० हजार हाथियों के समान बल से युक्त होते है । क्रोध लोभ, मद मात्सर्य और मान से रहित होते हैं, सहज १, शारीरिक २ आगंतुक ३ दुःख से रहित होते हैं । संगीत यादि विद्यामों में प्रवीण होते हैं, सुन्दर रूप वाले होते हैं, सगंध निःस्वास बाले होते हैं तथा मिथ्यात्वादि चार गुणस्थान बाले होते हैं, उपशमादि सम्यक्त्व के धारक होते हैं, जघन्य कापोत पीत, पद्म और शुक्ल लेश्या रूप परिणाम बाले होते हैं, निहार रहित होते हैं, अनपवयं प्रायु वाले होते हैं, जन्म से हो बालक कुमार यौवन और मरण पर्याय से युक्त होते हैं, रोग शोक खेद और स्वेद आदि से रहित, भाई बहन के विकल्प से रहित, परस्पर प्रमवाले होते हैं। आपस में प्रेम पूर्वक दंपति भाव को लेकर अपने समय को बिताते हैं । अपने संकल्प मात्र से ही अपने को देने वाले दश प्रकार के कल्पवृक्षों से भोगोपभोग सामग्री प्राप्तकर भोगते हुए पाबु व्यतीत करते हैं जब अपनी आयु में नव महीने का समय शेष रह जाता है, तब वह युगल एक बार गर्भ धारण कर फिर अपनी प्रायु के छ महीने बाकी रहें उसमें देवायू को बांधकर मरण के समय दोनों दम्पत्ति स्वर्ग में देव होते हैं। जो सम्यग्दष्टि जीव होते हैं, वे सब तो सौधर्म प्रादि स्वर्ग में और मिथ्यादष्टि जीव भवनत्रिक में जाकर पैदा होते हैं, यहाँ पर छोड़ा हुया युगल का शरीर तुरन्त ही ओस के समान पिघल जाता है, उनके द्वारा उत्पन्न हुए स्त्रो पुरुष के जोड़े तीन दिन तक तो अंगुष्ठ को चूसते हैं, तीन दिन के बाद रेंगने लगते हैं फिर तीन दिन बाद उनका मन स्थिर हो जाता है फिर तीन दिनों बाद यौवन प्राप्त होता है फिर तीन दिन बाद कथा सुनने वाले होते हैं फिर तीन दिन बाद सम्यक्त्व ग्रहण करने योग्य होते है । इस प्रकार २१ दिन में संपूर्ण कला सम्पन्न हो जाते हैं।
अर्थ उस भूमि में रात और दिन का गरीब और अमीर आदि का भेद नहीं होता है । विष सर्प समूह अकाल वर्षा तुफान दावानल इत्यादि उस भूमि में नहीं होता है, पूनः पचेन्द्रिय सम्मुर्छन विकलेन्द्रिय असनी पद्रिय अपर्याप्त जीव तथा