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अति लुभाने वाली सुगन्ध को देने वाले जाति नही, जम्पा, बोलशादिनाना प्रकार ने पत्री माला को मालाकार के समान समयानुसार सम्पन्न कर देने वाले मालांग जाति के कल्पवृक्ष होते हैं।
दशों दिशाओं में उद्योग करने वाले मणिमय नाना प्रकार के दीपकों को हर समय प्रदान करते हैं ऐसे दीपांग जाति के कल्पवृक्ष हैं।
भोग भूमियों के मन को प्रसन्न करने वाली ज्योति को निरंतर फैलाने वाले ज्योतिरांग जानि के कल्प वृक्ष हैं ।
अति समतुल आवाज करने वाले घन शुषिर तथा वितत जाति के अनेक प्रकार के बादित्रों को देने वाले, ध्वनि से : मन को उत्साह तथा दीरत्व पैदा करने वाले वाद्यांग जाति के कल्पवृक्ष हैं।।
भरत और ऐरावत इन दोनों प्रकार के क्षेत्रों में अरहट के घट के समान उत्सपिणी के वाद अवसर्पिणी तथा अवसपिणी के बाद फिर उत्सपिणी इस प्रकार निरंतर अनंतानंत काल हो गये हैं और आगे होते रहेंगे।
इस प्रकार प्रवसपिणी और उत्सपिणी काल असंख्यात वर्ष बीत जाने के बाद एक हुंडावसर्पिणी काल होता है। अब उसी के चिन्ह को बतलाते हैं ।
उसमें सुषम दुःषमा काल के समय में वर्षा होकर धूप पड़ती है जिससे विकलंद्रिय जीवों की उत्पत्ति होती है।
कल्प वृक्षों का विराम होते ही तत्काल प्रथम तीर्थकर और प्रथम चक्रवर्ती को विजय में भंग होता है। तथा उस चयवर्ती के निमित्त से ब्राह्मणों की उत्पत्ति होती है। फिर तीर्थकर तथा वह चक्रवतों निर्वाण को प्राप्त हो जाते हैं। एवं मागे भी तीर्थकर चक्री श्रादि होते रहते हैं।
दुःपमा सुषमा काल में क्रमशः (६३) शलाका पुरुषः उत्पन्न होते हैं। वहाँ नवम तीर्थकर के बाद सोलहवे तीर्थकर नक धर्म की हानि होती है। इन सात तीथंकरों के समय में क्रम से, माधा पल्य, का चतुर्थाश, पल्य का द्विभाग पल्य का विभाग पल्य का द्विभाग फिर पल्य का चतुर्थभाग में तो धर्म के पढ़ने वाले और सुनाने वाले होते हैं। इसके बाद पढ़ने वाले और सुनने तथा सुनाने वाले न होने के कारण धर्म विच्छिन्न होता है ।
___ इस काल में एकादश रुद्र होते हैं तथा कलह प्रिय वन नारद होते हैं, और सातवें तेईसवें तथा चौबीसवें तीर्थकर को उपसर्ग होता है।
ततीय चतुर्थ पंचभ काल में श्री जैन धर्म के नाशक कई प्रकार के फुदेव. कुलिंग दुष्ट पापिष्ट ऐसे चंडाल शबर पान नाहल चिलातादि कुल वाले खोटे जीव उत्पन्न होते हैं। तथा दुःखम काल में कल्कि और उप कल्कि ऐसे ४२ जीव उत्पन्न होते हैं। तथा प्रतिवृष्टि अनावृष्टि भूवृद्धि वनाग्नि इत्यादि अनेक प्रकार के दोष तथा विचित्र भेद उत्पन्न होते हैं। और इस भरत क्षेत्र के हंडावसपिणी के तृतीय काल के अन्त का पाठवा भाग बाकी रहने से कल्प वृक्ष के वीर्य की हानि रूप में भूमि की उत्पत्ति का चिन्ह प्रगट होने से उसकी सूचना को बतलाने वाले मनुरों के नाम बतलाते हैं।
कुलकर (मनु) चतुर्दश कुलकराः इति
इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र की अपेक्षा से प्रतिश्रुति १ सन्मति ३ क्षेमॅकर ३ क्षेमंधर ४ सीमकर ५ सीमंधर विमल वाहन ७ चक्षुष्मान ८ यशश्वी अभिचन्द्र १० चंद्राभ ११ मरुदेव १२ प्रसेनजित १३ नाभिराज १४ ऐसे चौदह कलकर अथवा मनने पर्वभव में विदेह क्षेत्र में सत्पात्र को विशेष रूप से माहार दान दिया। उसके फलस्वरूप मनुष्यायु को बांधकर तत्पश्चात क्षायिक सम्यक्त्व को प्राप्त करके बहाँ से पाकर इस भरत क्षेत्र के क्षत्रिय कुल में जन्म लेकर कुछ लोग अवधिज्ञान से वा कक जातिस्मरण से कल्प वृक्ष की सामर्थ्य में हानि उत्पन्न होती है उसके स्वरूप को समझते हैं। वे इस प्रकार हैं:
ये सभी कलकर पूर्व भव में विदेह क्षेत्र के क्षत्रिय राजकुमार थे, मिथ्यात्व दशा में इन्होंने मनुष्य प्राय का बंध कर लिया था। फिर इन्होंने मुनि प्रादिक सत्पात्रों को विधि सहित भक्ति पूर्वक आहार दान दिया, दुखी जीवों का दुख करुणा भाव से दर किया। तथा केवली श्रुतकेवली के पाद मूल में क्षायक सम्यक्त्व प्राप्त किया। विशिष्ट दान के प्रभाव से ये भोगमि में उत्पन्न हुए। इनमें से अनेक कलकर पूर्वभव में अवधिज्ञानी थे, इस भव में भी अवधिज्ञानी हुए। अतः अपने