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धनों पृथ्वी के नारकी अत्यन्त तीखी और कड़वी कथरि (कचरी या अचार ?) की शक्ति ने अनन्तगुणी लोखी और कड़वी थोड़ी सी मट्टी को चिरकाल में खाते हैं।
नरकों में यकरी, हाथी, मन, बोड़ा, गधा, ऊंट, बिल्ली और मढे आदि के सड़े हुए शरीरों की गन्ध से अनन्तगुणी दुर्गन्धवाला अाहार होता है।
रत्नप्रभा से लेकर अन्तिम पृथ्वीपर्यन्त अत्यन्त सड़ा, अशुभ और उत्तरोत्तर असंख्यात-गुण ग्लानिकर अन्न आहार होता है।
धर्मा पृथ्वी में जो आहार है, उसकी गन्ध में वहाँ पर एक कोस के भीतर स्थित जीव मर सकते हैं, इसके आगे शेष द्वितीयादिक पुध्वियों में इसकी घातक शक्ति, आधा-आधा कोस और भी बढ़ती गई है ।
धर्मा १; वंशामेघा २, मज. अरि ३; मघ. माघ. ४ कोस ।
पूर्व में देवायुका बन्ध करने वाले कोई नर या तियेच अनन्तानुबन्धी में से किसी एक का उदध आजाने ले रत्नत्रय को नष्ट करके अगुर कुमार जाति के देव होते हैं।
सिकतानन, अमिपत्र, महायल, महाकाल, श्याम और शबल, रुद्र, अबरीष, विलसित नामक, महारुद्र, महावर नामक, काल, तथा अग्निरुद्ध नामक, कुम्भ और वैतरणि आदि असुर कुमार जाति के देव तीसरी बालुका प्रभा पृथ्वी तक जाकर नारकियों को कोधित कराते हैं।
इस क्षेत्र में जिस प्रकार मनुष्य मढ़े और भै से आदि के युद्ध को देखते हैं, उसी प्रकार नरक में असुर जाति के देव नारकियों के मुद्ध को देखते हैं और मन में सन्तुष्ट होते हैं।
रत्नप्रभादिक पुध्वियों में नारकी जीव, जब तक क्रमशः एक, तीन, सात, दश, सत्तरह, बाईस और तेतीस अर्गबोपम (सागरोपम) पूर्ण होते हैं, तब तक बहुत भारी दुम्स' को प्राप्त करते हैं।
नरकों में पचने वाला नारकियों को क्षणमात्र के लिये भी सुख नहीं हैं, किन्तु उन्हें सदैव दारुण दुःखों को अनुभव होता रहता है। नारकियों के शरीर कदलीघात (अकालमरण) के बिना आय के अन्त में वायु से ताड़ित मेघों के समान निःशेष विलीन हो जाते हैं।
इस प्रकार पूर्व में किये गये दोषों से जीव नरकों में जिस नाना प्रकार के दुख को प्राप्त करते हैं, उस दुःख के संपूर्ण स्वरूप का वर्णन करने के लिये भला कौन समर्थ है ?
सम्यक्त्वरूपी रलपर्वत के शिखर से मिण्यात्त भावरूपी पदी पर पतित हुआ प्राणी नरकादिक पर्यायों में अत्यन्त दुःख को प्राप्त कर निगोद में प्रवेश करता है।
सम्यक्त्व और देशचारित्र को प्राप्त कर यह जीव विषय सुख के निमित उसते (सम्यक्त्व और चारित्र से) चलायमान हो जाता है, और इसीलिये वह नरकों में अत्यन्त दुःख को भोगकर निमोद में प्रविष्ट होता है।
कभी सम्यक्त्व और सकल संयम को भी प्राप्त कर विषयों के कारण उनसे चलायमान होता हुआ नरकों में अत्यन्त दुःख को पाकर निगोद में प्रवेश करता है।
जिसका चित्त सम्यग्दर्शन से विमुख है तथा जो ज्योतिष और मंत्रादिकों से आजीवका (वृत्ति) करता है, ऐसा जीव नारकादिक में बहुत दुःख को पाकर निगोद में प्रवेश करता है।
. दुःख के स्वरूप का वर्णन समाप्त हुआ। धर्मा आदि तीन पश्विवों में मिथ्यात्व भाव से संयुक्त नारकियों में से कोई जाति स्मरमा से, कोई दुर्वार वेदना से व्यथित होकर, और धर्म से सम्बन्ध रखने वाली कथाओं को देवों से सुनकर अनन्त भावों के पूर्ण करने में निमित्त भूत ऐसे सम्यग्दर्शन को ग्रहण करते हैं।
काभादिकोष चार पुश्चियों के नारको जीव देवकृत प्रबोध के बिना जाति स्मरण और बेदना के अनुभवमात्र से ही सम्यग्दर्शन को ग्रहण करते हैं।
सम्यग्दर्शन के ग्रहण का कथन समाप्त हुआ। भीमा को पीते हैं, माँस की अभिलाषा करते हैं, जीवों की बात करते हैं, और मृगया में तृप्त होते हैं, वे क्षणमात्र के सुख के लिये पाप उत्पन्न करते हैं और नरक में अनन्त दुख को पाते हैं।
जो जीव लोभ, क्रोध, भय अथवा मोह के बल से असत्य बोलते हैं, वे निरंतर भय को उत्पन्न करने वाले, महान कप्टकारक, और अत्यन्त भयानक नरक में पड़ते हैं।
भीत को छेदकर, प्रिय जनको मारकर और पट्टादिक को ग्रहण करके धन को हरने तथा अन्य संकड़ों अन्यायों से मूर्ख लोग भयानक नरक में तीन दुख को भोगते हैं।
लज्जा से रहित, काम से उन्मत्त जवानी में मस्त, पर स्त्री में आसक्त, और रात-दिन मैथुन सेवन करने वाले प्रारणी नरकों में जाकर घोर दुख को प्राप्त करते हैं।
पुत्र, स्त्री, स्वजन और मित्र के जीवनाथं जो लोग दूसरों को ठगकर तृष्णा को बढ़ाते हैं, तथा पर के धन को हरते हैं, वे तीब दुखको उत्पन्न करने वाले नरक में जाते हैं ।
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