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1. स्वयंभूरमण समुद्र
अन्तिम द्वीप स्वयंभूरमण है। इसके मध्य में कुण्डलाकार स्वयंप्रम पर्वत है। इस पर्वत के अन्तन्तर भागतक तिर्यंच नहीं होते, पर उसके परभाग से लेकर अन्तिम स्वयंभरमण सागर के अन्तिम किनारे तक सब प्रकार के तिर्यंच पाये जाते हैं।
५ द्वीप पर्वतों प्रादि के नाम रस मामि-. १द्वीप, समुत्रों के नाम
मध्य भाग से प्रारम्भ करने पर मध्य लोक में क्रम से १ जम्बूद्वीप, २ लवण सागर, धातकी खण्ड कालोद सागर, ३ पुष्करवर द्वीप पुष्करवर समुद्र, ४ वारुणीवर द्वीप, वारुणीवर समुद्र, ५क्षीरवर द्वीप-क्षीरवर समुद्र, ६ घतवरदीप, धृतवर समुद्र, क्षोद्रवर (इक्षुवर) द्वीप-क्षोदवर (इक्षवर) समुद्र, नन्दीश्वर द्वीप नन्दीश्वर समुद्र, ६ अरुणीवर द्वीप-अरूणीवर समुद्र १० अरुणाभास द्वीप, अरुणाभास समुद्र ११ कुण्डलवर द्वीप, कुण्डलबरसमुद्र, १२ शंखबर द्वीप-शंखबर समुद्र १३ रुचकवर द्वीप-रुचकवर समुद्र, १ भुजगवर द्वीप-भुजगवर समुद्र १५ कुशवर द्वीप-कुशवर समुद्र, १६ क्रौंचवर द्वीप-क्रोंचवर समुद्र ये १६ नाम मिलते हैं।
संख्यात द्वीप समुद्र आगे जाकर पुनः एक जम्बूद्वीप है। मध्यलोक के अन्त से प्रारम्भ करने पर--१. स्वम्भ रमण समुद्र स्वयंभूरमण द्वीप, २. अहीन्द्रबर सागर अहीन्द्रवर द्वीप, ३. देवबर समुद्र-देववर दोप, ४. यक्षवर समुद्र यक्षवर द्वीप, ५. भूतवर समुद्र-भूतवर द्वीप, ६. नागवर समुद्र-नागवर द्वीप, ७. बंड्र्य समुद्र-वड्य द्वीप, ६. वजवर समुद्र-वचवर द्वीप, ६. कांचन समुद्र-कांचन द्वीप, १०. रुप्यवर समुद्र-रुप्यवर द्वीप, ११. हिंगुल समुद्र-हिंगुल द्वीप, १२. अंजनवर समुद्र-अंजनवर द्वीप, १३, श्याम समुद्र-श्याम द्वीप, १४. सिन्दूर समुद्र-सिन्दूर द्वीप, १५. हरितास समुद्र-हरितास द्वीप, १६. मनः शिल समुद्र-मनःशिल द्वीप ।
२. सागरों के जल का स्वाद–चार समुद्र अपने नामों के अनुसार रसवाले, तोन उदक रस अर्थात् स्वाभाविक जल के स्वाद से संयुक्त, शेष समुद्र ईख समान रस से सहित हैं। तीसरे समुद्र में मधु जल है। वारुणीवर, लबणाधि, घृतवर और क्षीरवर ये चार समुद्र प्रत्येक रस, तथा कालोद, पुष्करवर और स्वयंम्भरमण, ये तीन समुद्र उदकरस हैं।
२. जम्ब द्वीप के क्षेत्रों के नाम१. जम्बू द्वीपादि महाक्षेत्रों के नाम-जम्बूद्वीप में ७ क्षेत्र है-भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत व ऐरा
वत ।
-- . --. . ---- . --.. तेरह, ग्यारह, नौ, सात, पांच और तीन, यह सब पुत्रियों के (पृथक्-पृथक) श्रेणी धन को निकालने के लिये गन्द्रका प्रमाण है। चय सब जगह आठ ही है।
पद के वर्ग को चप से गुणा करके उसमें दुगुरणे पद से मुरिगत मुख को जोड़ देने पर जो राशि उत्पन्न हो उसमें से चर से गुणित पद प्रमाण संकलित धन को जानना चाहिये ।
उदाहरण-(१३२४८)-- (१३४२४२६३१)-(८४१३)-८४०-४४२० प्रथम पृथ्वीगत श्रेणीबद्ध बिलों का कुल प्रमाण।
पहिली पृथ्वी में चार हजार बोरा, और दूसरी में दो हजार छह सौ चौरासी थेणीबद्ध विल हैं ४४२०, २६८४ ।
तृतीय पृथ्वी में चौदह सौ छयत्तर, चौथी में सात सौ और पांचवीं में दो सौ राष्ठ श्रेणीबद्ध बिल हैं, ऐसा जानना चाहिये । १४७६, ७००, २६०।
तमःप्रभा पृथ्वी में साठ और अतिम अर्थात् महातमः प्रभा पृथ्वी में चार घेणीबद्ध बिल हैं। इस प्रकार सात पश्वियों में से प्रत्येक घेणीबद्ध बिलों का प्रमाण समझना चाहिये । ६०४ ।
(रत्नप्रभादिक पध्वियों में संपूर्ण श्रेणीबद्ध बिलों का प्रमाण निकालने के लिये) आदि का प्रमाण चार चय का प्रमाण आठ और गच्छ का प्रमाण एक कम पचास होता है।
आदि ४ चय है. गच्छ ४६ ।
पद का वर्ग कर उसमें से पद के प्रमाण को कम कर करके अवशिष्ट राशि को चय के प्रमाण से गुणा करना चाहिये । पश्चत उसमें पद से मुरिणत आदि को मिलाकर और फिर उसका माधा कर प्राप्त राशि में मुख के अद्ध भाग से गुरिणत पद के मिला देने पर संकलित धन का