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अन्तराल ५३००० योजन बताया गया है । तथा सग्मायणी के अनुसार उन बेदियों से ५०० योजन हटकर स्थित हैं, क्योंकि वहां उनके मध्य का अन्तराल ५२००० योजन बताया है। (दे० लोक ६ में देवकुरू व उत्तरकुरू का विस्तार)। अपनी-अपनी मान्यता के अनुसार उन वायव्य आदि दिशाओं में जो जो भी नाम वाले पर्वत हैं, उन पर क्रम से ७, ६, ७, ६ कर हैं। मतान्तर से इन पर कम से ७, १०,७, ६, बूट हैं। .
ईशान व नैऋत्य दिशा वाले विद्युत्यप्रभ व माल्यवान गजदन्तों के मूल म सोता व सोतोदा नदियों के निकलने के लिए एक गुफा होती है।
३-देवकूह व उत्तरकूरू में सीतोदा व सीता नदी के दोनों तटों पर एक यमक पर्वत है। ये गोल आकार वाले हैं। इन पर इनके नाम वाले व्यन्तर देव सपरिवार रहते हैं। उनके प्रसादों का सर्व कथन पद्मद्रह के कमलोंवत है।
४-उन्हीं देवकरू व उत्तरकुरू में स्थित ग्रहों के दोनों पार्श्व भागों में कांचन शैल स्थित है। ये पर्वत गोल प्राकार वाले हैं। इनके ऊपर कांचन नामक व्यन्तर देव रहते हैं।
गजदन्त मोर दृष्टिनापी अपना ऊंचाई
दोनो तरफ 12 या है।
नील पर्वत
यमक व कांचन गिरि यमक देव जी
दाण्टिनं.२
कांचन देवजह
यो.
१००० यो.
५-देवकूरू व उत्तरकुरू के भीतर व बाहर भद्रशाल बन में सीतोदा व सीता नदी के दोनों तटों पर पाठ दिग्गजेन्द्र पर्वत है। ये गोल आकार वाले हैं। इन पर तम व वैश्रवण नामक बाहन देवों के भवन हैं। उनके नाम पर्वतों वाले ही हैं।
-पूर्व व पश्चिम विदेह में सीता व सीतोदा नदी के दोनों तरफ उत्तर दक्षिण लम्बायमान, ४,४ करके कूल १६ वक्षार पर्वत हैं। एक ओर ये निषध व नील पर्वतों को स्पर्श करते हैं और दूसरी ओर सीता व सीतोदा नदियों को।
उपवत इन दोनों क्षेत्रों के (वातावरुद्ध क्षेत्र और आय भूमियों के) घनफल को मिलाकर उसे सम्पूर्ण लोक में से घटा देने पर अपशिष्ट शुद्ध आकाश का प्रमाण होता है ।
केवल ज्ञान रूपी तीसरे नेत्र के धारक, चौतीस अशिवाय रूपी विभुलि से सम्पन्न, और तीनों लोकों द्वारा नमस्करणीय, ऐसे नाभेय जिन अति वृषभ जिनेन्द्र को मैं नमस्कार करता हूँ।
नारक लोक का निरूपण
ही घर में रहने वाल अर्थात नारकियों की निवास-भूमियों का वर्णन, परिमाण अर्थात नारकियों को संस्था, आय का .माण, शरीर चाईका प्रमाण, अवधिज्ञान का प्रमाण, गुण स्थानादिकों का निर्णय, नरकों में उत्पद्यमान जीवों की अवस्था, जम्म और मरण के अन्तर
एक समय में उत्पन्न होने वाले और मरने वाले जीवों का प्रमाण, नरक से निकलने वाले जीवों का वर्णन, नरक गति
के बंधक परिमारणों का विचार, जन्म स्थानों का कयन, नाला दुःखों का स्वरूप, सम्यग्दर्षान पहण के कारण, और नरक में उत्पन्न:: मेले के कारणों का कथन, इस प्रकार ये पन्द्रह अधिकार तीर्थङ्कर के वचन से निकले इस नारक प्रजस्तिनामक महाधिकार में संभोर में गये हैं।
जिस प्रकार वृक्ष के ठीक मध्य भाग में सार हुआ करता है, उसी प्रकार लोक के बहु मध्य भाग अर्थात बीच में एक