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प्रत्येक वक्षार पर चार-चार कट हैं, नदी की तरफ सिद्धायतन है और शेष तटों पर व्यन्तर देव रहते हैं। इन कटों का सर्व कथन हिमवान पर्वत के कूटोंवत है।
७-भरत क्षेत्र पाँच म्लेच्छ खण्डों में से उत्तर वाले तीन के मध्यवर्ती खण्ड में बीचों बोच एक वृषभ गिरि है, जिस पर दिग्विजय के पश्चात् चक्रवर्ती अपना नाम अंकित करता है। इसी प्रकार विदेह के ३२ क्षेत्रों में से प्रत्येक क्षेत्र में भी जानना।
८-द्रह निर्देश
१-हिमवान पर्वत के शीष पर बीचों-बीच पद्म नाम का द्रह है इसके तट पर चारों कोनों पर तथा उत्तर दिशा में ५ कट हैं और जल में आठों दिशाओं में आठ कूट है। हृद के मध्य में एक बड़ा कमन है, जिसके ११००० पत्ते हैं इस कमल पर श्री देवी रहती है। इस प्रधान कमल की दिशा विदिशामों में उसके परिवार के अन्य भी अनेकों कमल हैं। कुल कमल १४०११६ हैं । तहां वायव्य उत्तर व ईशान दिशाओं में कुल ४००० कमल उसके सामानिक देवों के हैं। पूर्वादि चार दिशाओं में से प्रत्येक के ४००० (कुल १६०००) कमल आत्म रक्षकों के हैं । आग्नेय दिशा में ३२००० कमल आभ्यन्तरपारिषदों के, दक्षिण दिशा में ४०,००० कमल मध्यम परिषदों के नैऋत्य दिशा में ४८,००० कमल बाह्य पारिषदों के हैं। पश्चिम में ७ कमल सप्त अनीक महत्तरों के हैं । तथा दिशा व विदिशा के मध्य पाठ अन्तर दिशामों में १० बास्त्रिशों के हैं। इसके पूर्व पश्चिम ब उसरों द्वारों से क्रम से गंगा, सिन्ध व रोहितास्या नदी निकलती हैं।
२- महाहिमवान् आदि शेप पांच कुलाचलों पर स्थित महापद्म, तिगिछ, केसरी महापुण्डरीक और पुण्डरीक नाम के ये पांच द्रह हैं । इन हृदों का सर्व कथन कूट कमल आदि का उपरोक्त पद्मद्रवत् ही जानना । विशेषता यह कि तन्निवासिनी देबियों के नाम क्रम से ही, पति, कौति बुद्धि और लक्ष्मी है। तथा कमलों की संख्या तिगिछ तक उत्तरोत्तर दूनी है। केसरी की तिगिछवत्, महापुण्डरोक को महापद्मवत और पुण्डरीक को पद्मवत है। अन्तिम पुण्डरीक द्रह से पद्मद्रहवत् रक्ता रक्तोदा सुवर्णकला ये तीन नदियां निकलती हैं और शेष द्रहों से दो-दो नदियां केवल उत्तर व दक्षिण द्वारों से निकलती हैं। (ति, प, में महापुण्डरीक के स्थान पर रूक्मिपर्वत पर पुण्डरीक के स्थान पर शिखरी पर्वत पर महापुण्डरीक द्रह कहा है-)
राजु लम्बी-चौड़ी और कुछ कम तेरह राजु ऊंचो पसनाली (सजीयों का निवास क्षेत्र) है।
असनाली को जो तेरह राजु से कुछ कम ऊंचा बतलाया गया है, उस कमी का प्रमाण यहां तीन करोड़, इक्कीस लाख, बासठ हजार दो सौ इकतालीस धनुष और एक धनुष के तीन भागों में से दो भाग अर्थात है असनाली की ऊंचाई-३२१६२२४१३ धनुष कम १३ राजु.।
अयवा-उपपाद और मारणांतिक समुद्घात में परिणत त्रस तथा लोक पूरण समुद्रात को केबली का आश्रय करके सारा लोक ही असनाली है।
विशेषार्थ-विवक्षित भव के प्रथम समय में होने वाली पर्याय की प्राप्ति को उपपाद कहते हैं। वर्तमान पर्यायसम्बन्धी आयु के अन्तिम अन्म हत में जीव के प्रदेशों के आगामी पर्याय के उत्सत्ति स्थान तक फैल जाने को मारणान्तिक समुद्घात कहते हैं। जब आयु कर्म की स्थिति सिर्फ अन्तम हत ही बाकी हो, परन्तु नाम गोत्र और वेदनीय कर्म की स्थिति अधिक हो, तब सयोग केवली दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण , समदघात को करते हैं। ऐसा करने से उक्त तीनों को की स्थिति भी आयु कर्म के बराबर हो जाती है। इन तीनों अवस्थाओं में वस जीव सनाली के बाहर भी पाये जाते हैं ।
अधोलोक में सबसे पहिली रत्नप्रभा पृथ्वी है। उसके तीन भाग हैं-खरभाग, पंकभाग और अबहुल भाग 1 इन तीनों भागों का बाहल्य क्रमशः सोलह हजार, चौरासी हजार, और अस्सी हजार योजन प्रमाण है।
खरभाग १६०००, पंकभाग ८४००० अब्बहल भाग ८०००० योजन ।
- इनमें से खरभाग नियम से सोलह भेदों से सहित है । ये भेद चित्रादिक सोलह पृथ्वी रूपी है इनमें से चित्रा पृथ्वी अनेक प्रकार है।