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। ३. जम्बूद्वीप निर्देश . १. जम्बूद्वीप सामान्य निर्देश
त. सू./३/९-२३ तन्मध्ये मेरुनाभिवृत्तो योजनशतशहस्त्रविष्कम्भो जम्बूद्वीपः ।।। भरतहमवतरिविदेहरम्यकहरण्यवत्तै रावतवर्षाः क्षेत्राणि ।१०। तद्विभाजिनः पूर्वापरायता हिमवन्महाहिमबन्निषधनीलरूक्मिशिखरिणो वर्षधरपर्वताः । ।११॥ हेमानतपनीयबैडूर्यरजतहेममयाः ।१० मणिविचित्रमा उपरि मूले च तुल्यविस्ताराः ।१३। पद्ममहापद्मतिगिछकेसरिमहापुण्डरीकपुण्डरीका हृदास्तेषाभूपरि।१४। तनमध्ये योजनं पुष्करम्।१७। तद्विगणद्विगुणाहदा: पुष्कराणि च।१८। तन्निबासिन्यो देव्यः श्रीहीधुतिकोतिबुद्धिलक्ष्म्यः पल्योपमस्थितयः ससामानिकपरिषत्काः ।१९। गंगासिन्धरोहिद्रोहितास्याहरिदहरिकान्तासीतासीतो दानारीनरकान्तासुवर्णपकूलारक्तारक्तोदाः सरितस्तन्मध्यगाः ।२०। द्वयोद्वयोः पूर्वाः पूर्वगाः ।२१। शेषास्वपरगाः ।२२। चतुदर्शनदीसहस्त्रपरिवृता गंगासिन्ध्वादयो नद्यः ।२३।।। १. उन सब [पूर्वोक्त असंख्यात द्वीप समुद्रों-दे लोक/२/११] के बीच में गोल और १००,०० योजन विष्कम्भवाला जम्बुद्वीप है। जिसके मध्य में मेक पर्वत है [ति. प./४/११ व ५/-]; हि. प./५/२]; (ज.प./१/२०)। २. उसमें भरतवर्ष, हेमवतवर्ष, हरिवर्ष, विदेहवर्ष, रम्यकवर्ष, हैरण्यवतवर्ष और ऐरावतवर्ष ये सात क्षेत्र हैं उन क्षेत्रों को विभाजित करने वाले और पूर्व-पश्चिम लम्बे ऐसे हिमवान. महाहिमवान, निषध नील, रुक्मी और शिखरी ये छह वर्षधर या कुनालक पर्वत हैं ।११३ (ति.प./४/80-६४); (ह. पु./५/१३-१५); (ज. प. २२ व ३२); (त्रि, सा. ५६४) । ३. ये छहों पर्वत ऋम से सोना, चाँदी, तपाया हुआ सोना, बंडूर्यमणि, चाँदी और सोना इनके समान रंगवाले हैं।१२। इनके पाश्वभाग मणियों से चित्र विचित्र हैं तथा ये ऊपर, मध्य और मूल में समान विस्तार वाले हैं ।१३। (ति. प. ४६४-६५); (त्रि सा. ५६६) । ४. इन कुलाचल पर्वतों के ऊपर क्रम से पद्म, महापदम्, तिगिछ, केसरी महापूण्डरीक और पुण्डरीक, ये तालाब हैं ।१४। ह. पु./२/१२०-१२१); (ज. प./३/६६) 1५. पहिला जो पद्म नाम का तालाब है उसके मध्य एक योजन का कमल है (इसके चारों तरफ अन्य भी अनेकों कमल हैं-दे मागे लोक /३१) इससे आगे के हृदयों में कमल हैं। वे तालाब व कमल उत्तरोत्तर दूने विस्तार वाले हैं। १७-१८ । (ह.पु./५/१२६); (ज. प./३/६६)। ६. पद्म हुदको आदि लेकर इन कमलों पर क्रम से श्री, हो धृति, कीति, बुद्धि और लक्ष्मो ये देवियाँ, अपने-अपने सामानिक, परिषद् आदि परिवार देवों के साथ रहती हैं-(दे व्यंतर /-३) ।१९। (ह. पु. १५/१३०) । ७. (उपरोक्त पद्म प्रादि द्रहों में से निकलकर भरत प्रादि क्षेत्रों में से प्रत्येक में दो-दो करके क्रम से) गंगा-सिन्धु, रोहित-रोहितास्या, हरित-हरिकान्ता, सीता सीतोदा, नारी-नरकान्ता,
. .तिर्यकक्षेत्र के पाश्वं भाग में स्थित तीनों बायुओं के बाहत्य को मिलाकर जो योगफल प्राप्त हो, उसको सालवी पृथ्वी के पावं भाग में स्थित वायों के वाहल्य में से घटा कर शेष में छह प्रमाण राजुओं का भाग देने पर जो लब्ध आवे उतनी सातवीं पृथ्वी से लेकर मध्य लोक तक प्रत्येक प्रदेश-क्रम से एक राज़ पर वायु की हानि और वृद्धि होती है।
७वीं प० के पास वातवलयों का बाहल्य ७-:.-५ :- ४ १६, ५:४३-१२, १६-१२:-६ . प्रति प्रदेश कम से एक राजु पर होने वाली हानि वृद्धि का प्रमाण ।
अरतालीस, छयालीस, चालीस, अडतीस और छत्तीस में तीन का भाग देने पर जो लब्ध आवे, उतना कम से नीचे से लेकर सब पार्व -भागों में (सात पृथ्विपों के पा० भा० में) वातघलयों का बाहुल्य है।
सान पृध्वियों के पार्श्व भाग में स्थित वातवलयों का बाहल्यसप्तम पृ० ४ षठ पृ० स पं० पृ०१४ च० पृ० १३. तृ० पृ द्वि० पृ. प्र० पृ०. यो.
ऊर्व लोक में निश्चय से एक जग श्रेणी से भाजित आठ योजन-प्रमाण बृद्धि-प्रमाण को इच्छा से गुणा करने पर जो राशि उत्पन्न हो, उसको भूमि में से कम कर देना चाहिये और मुख में मिला देना चाहिये । (ऐसा करने से अचं लोक में अभीष्ट स्थान के वायु मण्डलों की
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