Book Title: Siddhantasara Dipak
Author(s): Bhattarak Sakalkirti, Chetanprakash Patni
Publisher: Ladmal Jain
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 श्री वीतरागाय नमः ॐ गोम्मटेश भगवान बाहुबलि सहस्राब्वि महोत्सव के उपलक्ष्य में प्रकाशित श्री शिवसागर ग्रन्थमाला : पुष्प - २७ भट्टारक सकल कोति विरचित सिद्धान्तसार दीपक अपर नाम त्रिलोकसार दीपक 呂 टीकाकर्त्री : विदुषीरत्न प्रायिका १०५ श्री विशुद्धमति माताजी सम्पादक : डॉ० चेतनप्रकाश पाटनी जोधपुर विश्वविद्यालय, जोधपुर 喆 प्रकाशक : ब्र० लाडमल जैन आचार्य श्री शिवसागर दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, शान्तिवीरनगर श्रीमहावीरजी ( राज० ) Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदन भट्टारक सकलकीर्ति विरचित जैन भूगोल के ग्रन्थ सिद्धान्तसार दीपक' पर नाम 'त्रिलोकसार दीपक' का प्रस्तुत संस्करण पाठकों के हाथों में पहुँचाते हुए अपार हर्ष का अनुभव हो रहा है | सतत स्वाध्याय शीला तथा श्रध्ययन-अध्यापन में ही अपने समय का सदुपयोग करने वाली पूज्य १०५ श्रर्यिका श्री विशुद्धमतिजी ने इसकी हिन्दी टीका की है। 'त्रिलोकसार' के प्रकाशन के कुछ समय बाद से ही पूज्य माताजी इस ग्रन्थ की टोका करने में प्रवृत्त हो गई थीं। कर्म विपाक से इन वर्षों में आपका स्वास्थ्य अनुकूल नहीं रहा है फिर भी आप अपने कर्तव्यों में सदैव संलग्न रद्दी हैं; इसी हढ़ता का परिणाम है कि आपने साढ़े चार हजार श्लोकों से भी अधिक संख्या वाले इस बृहत्काय ग्रन्थ की हिन्दी टीका तीन वर्ष में ही पूरी कर ली । यों यह ग्रन्थ भी शीघ्र ही प्रकाशित हो जाना चाहिए था परन्तु संशोधन परिमार्जन - प्रकाशन व्यवस्था सम्बन्धी कतिपय अपरिहार्य कारणों से इसमें विलम्ब होता ही गया, जिसका हमें बहुत खेद है । विभिन्न हस्तलिखित प्रतियों से मूल पाठ का मिलान करने के बाद विषय की जटिलता को सरल बनाने का काम स्वर्गीय पण्डित ब्रह्मचारी श्रीयुत् रतनचन्दजी सा० मुख्तार सहारनपुर वालों द्वारा सम्पन्न हुन था । खेद है कि आज इस ग्रन्थ के प्रकाशन अवसर पर जंन जगत् की वह श्रद्वितीय विभूति हमारे बीच नहीं रही, इसे प्रकाशित देखकर उन्हें परम सतोष की अनुभूति हुई होती । हम स्वर्गीय पण्डितजी के अत्यधिक ऋणी हैं। संस्कृत भाषाजन्य अस्पष्टताओं का स्पष्टीकरा व त्रुटियों का निराकरण समाज के वयोवृद्ध विद्वान श्रद्धेय पण्डितजी डा० पन्नालालजी सा० साहित्याचार्य, सागर ने किया है; साथ ही अपनी व्यस्त दिनचर्या में से समय निकालकर विस्तृत प्रस्तावना लिख कर हम पर जो अनुग्रह किया है, उसके लिए हम उनके चिर कृतज्ञ हैं । पूज्य पण्डितजी की निष्ठा, विद्वत्ता और सरलता के सम्बन्ध में क्या लिखू", प्रभिभूत है, उनका जीवन सबके लिए अनुकरणीय है । श्रीयुत् कजोड़ीमलजी कामदार, जोबनेर वालों ने टीकाकर्त्री पूज्य माताजी का संक्षिप्त परिचय लिखकर भेजा है। हम आपके आभारी हैं। आप कुछ वर्षों से पूज्य माताजी के पास ही रह कर अध्ययन करते हैं । व्रती हैं। आपकी भावना अधिकाधिक उज्ज्वल बनेगी, ऐसी प्राशा है। इस ग्रन्थ के प्रबन्ध सम्पादन में आपका सराहनीय सहयोग प्राप्त हुआ है । ग्रन्थ का मुद्रण-कार्य कमल प्रिण्टर्स, मदनगंज किशनगढ़ में सम्पन्न हुआ है । दूरस्थ होने के कारण प्रूफ भी मैं नहीं देख पाया है, संस्कृत में समस्त पदावली को शिरोरेखा कहीं-कहीं अलग Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४ ] अलग हो गई है और कहीं-कहीं अनावश्यक रूप से संयुक्त भी हो गई है। कुछ भूलें भी रह गई हैं। पाठकों से अनुरोध है कि वे स्वाध्याय से पूर्व शुद्धिपत्र के अनुसार आवश्यक संशोधन अवश्य कर लें । गणितीय ग्रन्थों का मुद्रण वस्तुतः जटिल कार्य है । अनेक तालिकायें, अनेक प्राकृतियां, अनेक चित्र, जोड़-बाको-गुणा-भाग, बटा-बटी प्रादि की विशिष्ट संख्या मादि सभी इस ग्रन्थ में हैं। विद्युत व्यवस्था की रुग्णता के बावजूद जिस धैर्य के साथ श्री पांचूलालजी ने इस ग्रन्थ का मुद्रण पूरा किया है, उसके लिए वे और उनके सुपुत्र श्री सुभाषजी अतिशय धन्यवाद के पात्र हैं। दातार महानुभावों ने आर्थिक सहयोग प्रदान कर इसके प्रकाशन में रुचि दिखाई है; ज्ञान के प्रचार-प्रसार में उनकी यह अभिरुचि उन्हें ज्ञान-लक्ष्मो से सम्पन्न करे; यही कामना है । वस्तुतः अपने वर्तमान रूप में जो कुछ उपलब्धि है, वह सब इन्हा पुण्यात्माओं की है । मैं आप सबका अत्यन्त आभारी हूँ । सुधी गुणग्राही विद्वानों से अपनी भूलों के लिए क्षमा चाहता हूँ। पूज्य माताजी का रत्नत्रय कुशल रहे और स्वास्थ्य भी अनुकूल बने ताकि वे जिनवाणी को अधिकाधिक सेवा कर सकें-यही कामना करता है। श्री पार्श्वनाथ जैन मन्दिर, शास्त्री नगर, जोधपुर विनोप्त : घेतन प्रकाश पाटनी all Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादन सामग्री प्रतियों का परिचय सिद्धान्तसार दीपक के प्रस्तुत संस्करण का सम्पादन विशेष अनुसन्धान पूर्वक निम्नलिखित प्रतियों के आधार पर किया गया है (१) मूल प्रति यह प्रति प्रामेर शास्त्र भण्डार, जयपुर (राजस्थान) की है । इसमें १२"५५३" के २४३ पत्र हैं । प्रत्येक पत्र में | पंक्तियां हैं और प्रति पंक्ति में ३५ से ३८ अक्षर हैं ! लाल और कालो स्याही का उपयोग किया गया है । बीच बीच में कहीं पर टिप्पण दिए गए हैं । पुस्तक का लेखन-काल वि. सम्वत् १७८८ प्राषाढ़ कृष्ण चतुर्दशी शनिवार है । प्रति की लिपि सुवाच्य है । पुस्तक दीमक का शिकार हुई है। परन्तु प्रसन्नता की बात है कि दीमक का प्रकोप प्राजू-बाजू में ही हुमा है। लिपि सुरक्षित है। प्राकृत संस्करण का सम्पादन इसी प्रति के प्राधार पर किया गया है। (२) 'अ' प्रति का परिचय इसमें ११"x४३' के १९२ पत्र हैं। प्रत्येक पत्र में ११ पंक्तियां हैं और प्रति पंक्ति में ३५ से ४० अक्षर हैं । काली स्याही का उपयोग किया गया है । प्रति का लेखन काल सम्बत् १५१६ थावरा सुदी पंचमी गुरुवार है ! अन्त में इसकी श्लोक संख्या ४५१६ दी हुई है । यह प्रति पड़ी मात्रामों से लिखी गई है। इसका पाठ उपलब्ध अन्य प्रतियों की तुलना में अधिक शुद्ध है । परम पूज्य अजितसागर महाराजजी से प्राप्त होने के कारण इसका सांकेतिक नाम "प्र' है। (३) 'स' प्रति का परिचय यह प्रति श्री दिगम्बर जैन सरस्वती भण्डार, बड़ा मन्दिर कैराना जिला मुजफ्फरनगर (यूपी०) से स्व० श्री रतनचन्दजी मु० के द्वारा प्राप्त हुई है। इसमें १०" x ४३" के २७५ पत्र हैं। प्रत्येक पत्र में ६ से ११ पंक्तियां हैं और प्रति पंक्ति में २८ से ३२ अक्षर हैं । लाल और काली स्याही का उपयोग किया गया है । बीच-बीच में कहीं पर हिन्दी भाषा में टिप्पण दिए गए हैं । प्रति का लेखन काल सम्बत् १८०४ चैत्र कृष्णा प्रतिपदा है। ___स्व० श्री रतनचन्दजी मु० ने यह प्रति सहारनपुर से भेजी थी, अतः इसका सांकेतिक नाम Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६] (४) 'न' प्रति का परिचय यह प्रति जयपुर से श्रीमान डा. करारमा एवं अगलालजी के द्वारा प्राप्त हुई है । इसमें १०"x ५३" के २२६ पत्र हैं प्रत्येक पत्र में ११ पंक्तियाँ हैं और प्रति पंक्ति में ३३ से ३६ अक्षर हैं। लाल और काली स्याही का उपयोग हुआ है । प्रति का लेखनकाल सम्बत् १७२६ माघ सुदी नवमी गुरुवार है । श्लोक संख्या ४५१६ दी हुई है। इस प्रति का सांकेतिक नाम 'न' है। (५) 'ज' प्रति का परिचय यह प्रति जयपुर से श्रीमान डा. कस्तूरचन्दजी एवं श्री अनूपलालजी के द्वारा प्राप्त हुई है। इसमें १२"४६" के २३४ पत्र हैं । प्रत्येक पत्र में १० से १२ पंक्तियाँ हैं । प्रारम्भ के १३६ पत्रों में १०, १० पंक्तियां हैं, शेष में १२, १२ पंक्तियाँ हैं, प्रत्येक पंक्ति में ३० से ३५ अक्षर हैं । लाल और काली स्याही का उपयोग किया गया है । प्रति का लेखनकाल सम्बत् १८२३ भाषाढ़ बदी एकम् है। श्लोक संख्या ४५१६ दी हुई है। जयपुर से प्राप्त होने के कारण इसका सांकेतिक नाम 'ज' है। Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राण महस श अ त्पान .. कापिष्ट ... तर का लो का REARRARIMARRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRIANRAIN का MART 470 11.3M 340. उमाका सिअलुका प्रभाव अक्षय मोकामा 1 लो का पाकाश नाममा लय रेलर श. प्र प्राको महासम 1000 * य । बनी F ar ३. -य २०००सी . घ३०००० व 2000 2. इ . 1 2 KHYAMANENERAYASAAMAK Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रामुख * अठारह दोषों से रहित, छयालोस गुणों से सहित, सर्वज्ञ और हितोपदेशी परहन्त-भगवन्तों के मुख-कमल से निर्गत दिव्य-वारणी का विभाजन चार अनुयोगों में हुआ है । प्रथमानुयोग, करणानुयोग. चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग इनके नाम हैं । जैनागम में करणानुयोग का बहुत विस्तार है। षट्खण्डागम आदि अनेक ग्रन्थ करणानुयोग के अन्तर्गत हैं । सिद्धान्त-चक्रवर्ती नेमिचन्द्राचार्य विरचित त्रिलोकसार करणानुयोग का प्रसिद्ध ग्रन्थ है. इस ग्रन्थ में तीनों लोकों का विस्तृत वर्णन है, इसना अवश्य है कि गणित सम्बन्धी वासना-सिद्धि प्रादि के कारण इसका प्रमेय अति कठिन हो गया है, इसीलिए सकलकीाचार्य ने सिद्धान्तसार दीपक के प्रारम्भ में कहा है कि पूर्व मुनिराजों के द्वारा जो त्रिलोकसार प्रादि ग्रन्थों की रचना की गई है, वह अति दुर्गम एवं गम्भीर ( तद्-दुगंमार्थगम्भीर ....."11४२।। श्लोक ) है, अतः मैं 'बालजनों को जो सुगम पड़े ऐसे त्रैलोक्य सार (सिद्धान्त सार ) दीपक की रचना करूंगा। सिद्धान्तसार दीपक ग्रन्थ यथा माम तथा गुण युक्त है. इसमें सीमा सोकों के किसान वर्णन के साथ साथ अन्य भी संद्धान्तिक विषयों का सांगोपांग वर्णन किया गया है । रचना अत्यन्त सरल और सरस है । छठे अधिकार में पाण्डकवन विवेचन के अन्तर्गत चतुनिकाय देवों का जो चित्रण किया है, उसे पढ़ते समय यह अनुभव होता है कि मानो जन्माभिषेक को जाते हुए 'देवों की विभूति मादि को प्रत्यक्ष देख कर लिखा हो । ग्रन्थ में दो विषय विचारणीय हैं-- १. पृष्ठ १५९ पर जिनेन्द्र जन्माभिषेक के लिए पाण्डुक आदि शिलानों पर स्थित तीनतीन सिंहासनों का वर्णन करते हुए लिखा है कि मध्य का सिंहासन जिनेन्द्र की स्थिति अर्थात् बैठने का है, दक्षिण दिशागत सिंहासन सौधर्मेन्द्र के ( उपवेशनाय ) बैठने का तथा उत्तर दिशागत सिंहासन ऐशानेन्द्र के ( संस्थितये ) बैठने का है। इस कथन से यह ज्ञात होता है कि जन्माभिषेक के समय सौधर्मशान-इन्द्र, भगवान का जन्माभिषेक बैठ कर करते हैं। २. पृष्ठ ५६० श्लोक ८ में सिद्धभगवान का प्राकार पूर्व शरीर के प्रायाम एवं विस्तार के प्रमाण से एक विभाग । भाग ) कम कहा गया है, जब कि सभी जैनागम पूर्व शरीर से किञ्चिद् कम (ऊन) कहते हैं। १. निज-शक्त्या मुदाभ्यस्य, लोक्यसार दीपकम् । सुगर्म बालबोधायान्यान् ग्रन्धानागमोद्भवात् ॥ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १० ] प्रेरणा-स्रोत सं० २०२६-३० में त्रिलोकसार ग्रन्थ की टीका की थी। टोका कार्य समाप्त होते ही सिद्धान्तभूषण स्व० रतनचंद्रजी मुख्तार एवं विद्वद् शिरोमणि पं० पन्नालालजी साहित्याचार्यने विचार विमर्श कर मुझसे कहा कि - सकलकीर्त्याचार्य विरचित सिद्धान्तसार दीपक ग्रन्थ अभी तक अप्रकाशित है. अतः आप इस ग्रन्थ की हिन्दी टीका करें, प० पू० भा० कल्प १०८ श्री श्रुतसागरजी महाराज ने भी इस अप्रकाशित ग्रन्थको टीका करने की प्रेरणा की, आपके शुभाशीर्वाद से ही यह बृहद कार्य करने का साहस किया । महाराज श्री का आशीर्वाद प्राप्त होते ही प्रतियों की खोज प्रारम्भ कर दी गई। परम पूज्य विद्यागुरु १०८ श्री अजित सागर म० के पास से एक प्रति प्राप्त हुई, जो प्रायः शुद्ध थी । श्रीमान् डा० कस्तुरचन्द्रजी कासलीवाल और श्री अनुपलालजी न्यायतीर्थं जयपुर वालों के सौजन्य से एक प्रति श्रामेर शास्त्र भण्डार जयपुर से प्राप्त हुई। टीका कार्य सम्पन्न करने में यही प्रति प्रमुख रही । श्रप दोनों के ही माध्यम से दो प्रतियां जयपुर के किसी शास्त्र भण्डार (शास्त्र भण्डार का नाम याद नहीं रहा) से और भी प्राप्त हुई । स्व० श्री रतनचन्दजी मुख्तार के प्रयास से एक प्रति कैराना ( यू०पी० ) शास्त्र भण्डार से प्राप्त हुई। इन प्रतियों को प्राप्त करने में बहुत कठिनाई हुई, तथा समय भी बहुत व्यय हुआ । ग्रन्थ मुद्रित न होने के कारण सर्व प्रथम इसके सम्पूर्ण मूल श्लोक मात्र लिखे, जिनका सवाई माधोपुर संशोधन श्रीम नृ पं० मूलचन्दजी शास्त्री महावीरजी वालों ने किया । सं० २०३२ वर्षायोग में प० पू० १०८ श्री प्रजितसागरजी महाराज के सानिध्य में वयोवृद्ध विद्वद्वर्ष पं० जगन्मोहनलालजी शास्त्री कटनी, डा० पं० पन्नालालजी सागर, स्व० पं० रतनचन्दजी मु० सहारनपुर एवं श्री नीरजजी सतना आदि ने उपलब्ध समस्त प्रतियों का मिलान कर अनेक पाठ भेद लिए जिससे अर्थ करने में सरलता प्राप्त हुई । चातुर्मास की समाप्ति के समय श्रीयुत पण्डित लाड़लीप्रसादजी 'नवीन' सवाई माधोपुर के सौजन्य से नथमल विलास नामक ग्रन्थ प्राप्त हुआ जिसमें सिद्धान्तसार दीपक का हिन्दी पद्यानुवाद था । अर्थ करने में यह प्रति भी सहायक हुई। सं० २०३४ द्वि० श्राषाढ़ शुक्ला ५ गुरुवार दि० २११७११६७७ को दिन के ११३ बजे श्री दि० जैन मन्दिर रेनवाल किशनगढ़ में कन्या लग्न के उदित रहते टोका समाप्त हुई । इसी वर्षायोग में श्रीमान् स्व० पं० रतन चन्दजी मु० ते विषय की दृष्टि से सम्पूर्ण टीका का अवलोकन किया । श्रीमान् विद्वद्वर्य पं० डॉ० पन्नालालजी साहित्याचार्य से ग्रन्थ संशोधन कराने का मेरा हार्दिक परिणाम था. Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१] आपका सहयोग एक वर्ष बाद अर्थात् सं० २०३५ के निवाई चातुर्मास में प्राप्त हुआ । संशोधन होने के तुरन्त बाद ग्रंथ प्रेस में दे दिया, किन्तु कुछ विशेष कारणों से श्री पांचूलालजी, मालिक कमल प्रिन्टर्स करीब एक सत्र वर्ष पर्यन्त ग्रन्थ का मुद्रण कार्य प्रारम्भ नहीं कर सके । गत वर्ष कार्य प्रारम्भ किया और अल्पकाल में ही उसे पूर्ण मनोयोग पूर्वक सम्पन्न किया । श्रीमान् डॉ० वेतनप्रकाशजी पाटनी विश्वविद्यालय जोधपुर ने बड़ी संलग्नता पूर्वक इसका सम्पादन किया। श्री ब्र० लाडमलजी बाबाजी ने प्रत्यन्त समतापूर्वक प्रकाशन कार्य सम्हाला । श्रीमान् पूनमचन्दजी गंगवाल पचार ( जिन्होंने श्रीयुत शान्तिकुमारजी कामदार शान्ति रोडवेज के साथ बाहुबलि सहस्राब्दि महामस्तकाभिषेक के शुभावसर पर एक सहस्र साधर्मी बन्धुयों को दो माह पर्यन्त अनेक पुण्य क्षेत्रों की यात्रा कराई ), श्रीमान् रामचन्द्रजी कोठारी जयपुर श्रीमान् माणिकचन्द्रजी पालीवाल कोटा श्रादि अनेक द्रव्य दाता महानुभावों ने अपनी चंचल लक्ष्मी का सदुपयोग कर अनुकरणीय सहयोग प्रदान किया । संघस्थ श्री कजोड़ीमलजी कामदार जोबनेर बालों का चार वर्ष से पूर्ण सहयोग प्राप्त होता रहा है। इस प्रकार जिन जिन भन्यात्मानों ने इस महान ज्ञानोपकरण में अपना सराहनीय सहयोग प्रदान किया है, उन्हें परम्परया केवलज्ञान की प्राप्ति श्रवश्यमेव होगी, तथा यह सिद्धान्त ग्रन्थ अनेक भव्यात्माओं के कर्मोपशमन एवं ज्ञानवृद्धि में कारण होगा ऐसा मेरा विश्वास है । ३०।३।१६८१ - भा० विशुद्धमति Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थाश्रम का नाम जन्म स्थान पिता माता भाई परम पूज्य, अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी, प्रवरवक्ता, परम विदुषी रत्न, मार्यिका १०५ श्री विशुद्धमति माताजी । जाति जन्म तिथि लौकिक शिक्षण धार्मिक शिक्षण धार्मिक शिक्षा गुरु कार्यकाल संक्षिप्त जीवन परिचय वैराग्य का कारण — — —— — 464 - श्री सुमित्राबाई रीटो ( जि० जबलपुर ) म०प्र० श्रीमान् सि० लक्ष्मणनालजी सी० मथुराबाई श्री नीरज जी जैन एम. ए. (गोमटेश गाथा के लेखक ) श्रीर श्री निर्मलकुमारजी जैन मु० सतना ( म०प्र० ) गोला पूर्व सं० १९८६ चैत्र शुक्ला तृतीया शुक्रवार दि० १२१४ / १६२६ ई० १. शिक्षकोय ट्रेनिंग ( दो वर्षीय ) २. साहित्य रत्न एवं विद्यालंकार । शास्त्री ( धर्म विषय में ) परम माननीय विद्वद्- शिरोमणि पं० डा० पन्नालालजी साहित्याचार्य सागर ( म०प्र०) श्री दि० जैन महिलाश्रम ( विधवाश्रम ) का सुचारु - रीत्या संचालन करते हुए प्रधानाध्यापिका पद पर करीब १२ वर्ष पर्यन्त कार्य किया एवं अपने सद् प्रयत्नों से संस्था में १००८ श्री पार्श्वनाथ चैत्यालय की स्थापना कराई । परम पूज्य परम श्रद्धेय प्राचार्य १०८ श्री धर्मसागरजी महाराज के सन् १९६२ सागर (म०प्र०) चातुर्मास में पू० १०८ श्री धर्मसागर महाराज जी की परम निरपेक्ष-वृत्ति और परम शान्तता का आकर्षण एवं संघस्थ प० पू० प्रदर वक्ता १०८ श्री सन्मतिसागरजो महाराज के मार्मिक सम्बोधन 1 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्या गुरु [१३] आयिका दीक्षा गुरु - परम पूण्य कर्मठ तपस्वी, अध्यात्मवेत्ता, चारित्र शिरोमणि, दिगम्ब राचार्य १०८ श्री शिवसागरजी महाराज। शिक्षा गुरु परम पूज्य सिद्धान्त वेत्ता प्राचार्यकल्प १०८ श्री श्रुतसागर जी महाराज। - परम पूज्य अभीक्षा शानोपयोगी श्री १०८ श्री अजितसागरजी - महाराज । दीक्षा स्थान श्री अतिशय क्षेत्र पपौराजी (म०प्र०) दीक्षा तिथि - सं० २०२१ श्रावण शुक्ला सप्तमी दि० १४ अगस्त १९६४ ई० वर्षा योग सं० २०२१ में पपौरा क्षेत्र पर दीक्षा हुई पश्चात् क्रमशः श्री अतिशय क्षेत्र महावीरजी, कोटा, उदयपुर, प्रतापगढ़, टोडारायसिंह, भिण्डर, उदयपुर, अजमेर, निवाई, रेनवाल (किशनगढ़), सवाई माधोपुर, सीकर, रेनवाल (किशनगढ़), निवाई, निवाई, टोडारायसिंह । जिनमुखोद्भव साहित्य-सृजन (टीकाएँ) १ श्रीमद् सिद्धान्त चक्रवर्ती ने मिचन्द्राचार्य विरचित त्रिलोकसार की सचित्र हिन्दी टीका । २ भट्टारक सकल कीाचार्य विरचित सिद्धान्तसारदोपक अपर नाम त्रैलोक्यसार दीपक की हिन्दो टीका । मौलिक रचनाए':-१ श्रुत निकुज के किचित् प्रसून । (व्यवहार रत्नत्रय की उपयोगिता)। २ गुरु गौरव । ३ श्रावक सोपान और बारह भावना । संकलन - १ शिवसागर स्मारिका २ प्रात्म-प्रसून । सम्पादन -- १ समाधि-दीपक २ श्रमाचर्या ३ दीपावली पूजन विधि ४ श्रावक सुमन संचय प्रादि । विशेष धर्म प्रभावना-पापकी प्रखर और मधुर वाणी से प्रभावित होकर श्री दि. जैन समाज जोबनेर जि. जयपुर ने श्री शान्तिवीर गुरुकुल को स्थायित्व प्रदान करने हेतु श्री दि. जैन महावीर चैत्यालय का नवीन निर्माण कराया एवं आपके सानिध्य में ही वेदी प्रतिष्ठा कराई। जम धन एवं पावागमन आदि अन्य साधन विहीन प्रलयारी ग्राम स्थित जिन Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १४ ] मन्दिरका जीर्णोद्धार, २३ फुट ऊंची १००८ श्री चन्द्रप्रभु भगवान को नवीन प्रतिमा तथा संगमरमर की नवीन वेदी की प्राप्ति एवं वेदो प्रतिष्ठा आपके ही सद्प्रयत्नों का फल है। इसीप्रकार अनेक स्थानों पर कलशारोहण महा महोत्सव हुए, जैन पाठशालाएं खोली गई, सो दि जैन सभा कोडागाह का नवीनीकरण भी प्रारकी ही सप्रेरणा का फल है । श्री श्र० सूरज बाई मु० ड्योढ़ी जि. जयपुर को क्षुल्लिका दीक्षा, श्री अ. मनफूल बाई मातेश्वरी श्री गुलाबचन्दजी कपूरचन्दजी सर्राफ टोडारायसिंह को अष्टम प्रतिमा एवं श्री कजोड़ीमलजी कामदार ( जोबनेर ) आदि को द्वितीय प्रतिमा के प्रत आपके कर कमलों से प्रदान किये गये। संयमदान दि. ३-४-८१ कजोड़ीमल कामदार (जोबनेर वाले) Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना सिद्धान्तसारदोषक अपर नाम त्रिलोकसार दीपक ग्रन्थ लोकानुयोग का वर्णन करने वाले संस्कृत ग्रन्थों में परवर्ती होने पर भी भाषा की सरलता और प्रमेय की बहुलता से श्रेष्ठतम ग्रन्थ माना जाता है । तिलोयपत्ति तथा त्रिलोकसार प्रादि प्राकृत भाषा के ग्रन्थ गणित की दुरूहता के कारण जब जनसाधारण के बुद्धिगम्य नहीं रहे तब भट्टारक श्री सकल कोति प्राचार्य ने इस ग्रन्थ की रचना कर जन साधारण के लिये लोक विषयक ग्रन्थ प्रस्तुत किया। इसमें गणित के दुरूह स्थलों को या तो छुपा नहीं गया है और छुपा गया है तो उन्हें सरलतम पद्धति से प्रस्तुत किया गया है। सिद्धान्तसारदीपक के अाधार का वर्णन करते हुए ग्रन्थान्त में लिखा है“एष ग्रन्थवरो जिनेन्द्र मखजः सिद्धान्त सारादिक-- दीपोऽनेकविधस्त्रिलोकसकलप्रद्योतने दीपकः । नानाशास्त्रपरान् विलोक्य रचितस्त्रलोक्यसारादिकान् भक्त्या श्रीसकलाविकीर्तिगणिना संघगुणनन्दतु ॥१०२।। यह सिद्धान्तसार दीपक नाम का ग्रन्थ अर्थ की अपेक्षा श्री जिनेन्द्र के मुख से समृद्भूत है, विविध प्रमेयों का वर्णन करने से अनेक प्रकार का है, तीन लोक की समस्त वस्तुओं को प्रकाशित करने के लिए दीपक के समान है तथा त्रिलोकसार प्रादि अनेक उत्तम शास्त्रों का अवलोकन कर श्री सकल कीति गएी के द्वारा भक्ति पूर्वक रचा गया है, अनेक गुण समूहों से यह ग्रन्थ समृद्धिमान हो। ग्रन्थ के पाशीर्वचन में ग्रन्थकर्ता ने लिखा है 'सिद्धान्तसारार्थ निरूपणाच्छोसिद्धान्तसारार्थभृतो हि सार्थः ।। सिद्धान्तसारादिक वीपकोऽयं प्रन्थो धरिभ्यां जयतात् स्वसई' ॥१०६॥ जिनागम के सारभूत अर्थ का निरूपण करने से यह ग्रन्थ सिद्धान्त के सारभूत अर्थों से भरा हुआ है तथा सिद्धान्तसार दीपक' इस सार्थक नाम को धारण करनेवाला है । अपने संघों के द्वारा यह ग्रन्थ पृथिवी पर जयवन्त प्रवर्ते । सिद्धान्तसार दीपक ग्रन्थ का परिमाण : इस ग्रन्थ का परिमारण ग्रन्थकर्ता ने स्वयं ४५१६ अनुष्टुप् श्लोक प्रमाण लिखा है। ग्रन्थ के १६ अधिकारों में ३१५८ पद्य हैं । इन पद्यों में कुछ पद्य शार्दूल विक्रीडित तथा इन्द्रवजा भादि विविध छन्दों में भी बिचित हैं । शेष प्रमाण की पूर्ति गद्यभाग से होती है। किसी वस्तु का सुविस्तृत और Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशद वर्णन करने के लिये ग्रन्थकर्ता ने गद्यभाग को स्वीकृत किया है। उनकी इस शैली से जिज्ञासुजन सरलता से प्रतिपाद्य वस्तु को हृदयंगत कर लेते हैं। ग्रन्थ का प्रतिपाद्य विषय यद्यपि विषय सूची के द्वारा स्पष्ट है तथापि अधिकार क्रमसे उसका संक्षिप्त दिग्दर्शन करना आवश्यक लगता है । यह ग्रन्थ १६ अधिकारों में पूर्ण हुअा है प्रथम अधिकार में ९५ श्लोक हैं जिनमें मङ्गलाचरण के अतिरिक्त लोक के प्राकार आदि का वर्णन है । द्वितीयाधिकार में १२५ दलोक हैं जिनमें अधोलोक के अन्तर्गत श्वभ्रलोक का वर्णन है । नरकों के प्रस्तार तथा उन में रहने वाले नारकियों को अवगाहना और प्रायुका वर्णन है । तृतीयाधिकार में १२३ श्लोक हैं जिनमें नारकियों के दु:म्वों का लोम हर्षक वर्णन है। पढ़ते पढ़ते पाठक का चित्त द्रवीभूत हो जाता है, शरीर रोमाञ्चित हो जाता है और नेत्रोंसे अश्र धारा प्रवाहित होने लगती है। चतुर्थाधिकार में ११६ पद्य हैं जिनमें मध्यलोक के अन्तर्गत जम्बूद्वीप के छह कुलाचलों, छह सरोवरों तथा उनमें रहनेवाली नी आदि देव कुमारियों की विभूति का वर्णन है। पञ्चमाधिकार में १४७ श्लोक हैं जिनमें चौदह महानदियों, विजयाओं, वृषभाचलों और नाभिगिरि पर्वतों का वर्णन है । षष्टाधिकार में ११० श्लोक हैं जिनमें सुदर्शनमेरु, भद्रशाल आदि बन और जिन चैत्यालयों का वर्णन है । सप्तमाधिकार में २६१ श्लोक हैं जिनमें मेज युद, उत्तर र कादिले, नकवी की दिग्विजय और विभूति का वर्णन है, अष्टमाधिकार में विदेह क्षेत्रस्थ समस्त देशों का वर्णन है। विदेह क्षेत्र में मोक्ष का द्वार सदा खुला रहता है अतः उसकी प्रशंसा करते हुए ग्रन्थकर्ता ने लिखा हैपत्रोच्चः पदसिद्धये सुकृतिनो जन्माश्रयन्तेऽमरा, ___ यस्मान्मुक्तिपदं प्रयान्ति तपसा केचिच्च नाकं अतः । तीर्थेशा गणनायकाश्च गणिनः श्री पाठकाः साधवः, सवाडया विहन्ति सोऽत्र जयतानित्यो विदेहो गुणैः ॥१९०॥ जहां पर पुण्यशाली देव मोक्षपद की प्राप्ति के लिये जन्म लेते हैं, जहां से कितने ही भन्यजन तपके द्वारा मुक्ति को प्राप्त करते हैं, कितने ही व्रतों के द्वारा स्वर्ग जाते हैं और जहां तीर्थकर, गणधर, प्राचार्य, उपाध्याय तथा साधु परमेष्ठी संघ सहित विहार करते हैं वह विदेह क्षेत्र इस जगत् में अपने गुणों के द्वारा निरन्तर जयवन्त रहे। नवमाधिकार में ३६७ श्लोक हैं जिनमें प्रवसर्पिणी तथा उत्सपिणी के छह कालों और उनमें होनेवाले कुलकरों, तीर्थंकरों, चक्रवतियों, बलभद्रों, नारायणों, प्रतिनारायणों, रुद्रों और नारदों का वर्णन किया गया है। दशमाधिकार में ४२५ श्लोक हैं जिनमें मध्यलोक का सुविस्तृत वर्णन है । एकादशाधिकार में २१६ श्लोक हैं जिनमें जीवों के कुल, काय, योनि, प्रायु संख्या तथा अल्पबहुत्व का वर्णन है। द्वादशा Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १७ ] धिकार में १७३ श्लोक हैं जिनमें भवनवासी देवों के प्रवान्तर भेदों, इन्द्रों, निवास तथा प्रायु आदि का वर्णन है। त्रयोदनाधिकार में १२२ श्लोक हैं जिनमें व्यन्तर देवों के पाठ मेदों उनके इन्द्रों तथा निवास प्रादि का वर्णन है। चतुर्दशाधिकार में १३५ श्लोक हैं जिनमें ज्योतिर्लोकका वर्णन है । उसके अन्तर्गत सूर्य चन्द्रमा गृह नक्षत्र आदि की संख्या तथा उनकी चाल आदि का निरूपण है। पञ्चदशाधिकार में ४०३ श्लोक हैं जिनमें वैमानिक देवों के अन्तर्गत सौधर्मादि स्वर्ग उनके पटल, इन्द्र, देवाङ्गना तथा वैभव नादि का वर्णन है। अन्तिम षोडशाधिकार में ११६ श्लोक हैं जिनमें पल्य आदि प्रमाणों का वर्णन है तथा प्रन्थ के समारोप आदि की चर्चा है। इसप्रकार हम देखते हैं कि सम्पूर्ण ग्रन्थ उत्तमोत्तम सामग्री से परिपूर्ण है। नरक गति के दुःखों का वर्णन कर वहां से निकलने वाले सम्यग्दृष्टि जीवों के कैसे विचार होते हैं इसका भी मार्मिक वर्णन है। ग्रन्थ के रचयिता--- ___ इस ग्रन्थ के रचयिता प्राचार्य सकलकीति हैं । प्राचार्य सकलकोति भट्टारक होते हुए भी नग्न मुद्रा में रहते थे। इनके द्वारा रचित ग्रन्थावली को देखते हुए लगता है कि इन्होंने अपना पूरा बीवन सरस्वती की प्राराधना में ही व्यतीत किया है। चारों अनुयोगों के पाप ज्ञाता थे । संस्कृत भाषा पर आपका पूर्ण अधिकार था। इन्हीं के द्वारा रचित और हमारे द्वारा संपादित तथा अनुदित पार्श्वनाथचरित की प्रस्तावना में माननीय डा. कस्तूरचन्द्रजी कासलीवाल जयपुर ने इनका जो जीवन परिचय दिया है उसे हम उन्हीं के शब्दों में यहां साभार समुद्धृत करते हैंजीवन परिचय--- __ भट्टारझ सकलकीति का जन्म संवत् १४४३ (सन् १३०६) में हुआ था। इनके पिता का नाम करमसिंह एवं माता का नाम शोभा था। ये प्रणहिलपुर पट्टण के रहनेवाले थे। इनकी जाति हूमरण थो "होनहार बिरवान के होत चीकने पात" कहावत के अनुसार गर्भ धारण करने के पश्चात् इनकी माता ने एक सुन्दर स्वप्न देखा और उसका फल पूछने पर करमसिंह ने इसप्रकार कहा १. हरषी सुणीय सुवाणि पालइ अन्य कमरि सुपर । चोऊद त्रिताल प्रमाणि पूरइ दिन पुत्र जनमीउ ।। ग्याति मांहि मुहतवंत हूंड हरषि मखाणिहये । करमसिंह वितपन उपयवंत इम जारणीए ॥३॥ वामित रस भरधागि, भूमि सरीस्य सुन्दरीय । सील स्पंगारित मगि पेस्तु प्रत्यक्ष पुरंदरीय ॥४॥ -सकसकीति रास Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१८] तजि वयण सुणीसार, कुमर तुम्ह होइसिदए । निर्मल गंगानीर, चन्दन नन्दन तुम्ह तणुए ॥९॥ जलनिधि गहिर गम्भीर खोरोपम सोहामणुए । ते जिहि तरण प्रकाश जग उद्योतन जस किरणि ।।१०॥ बालक का नाम पूनसिंह अथवा पूर्णसिंह रखा गया । एक पट्टाव लिमें इनका नाम पदर्थ भी दिया हुआ है । द्वितीया के चन्द्रमा के समान वह बालक दिन प्रतिदिन बढ़ने लगा। उसका वर्ण राजहंस के समान शुभ्र था तथा शरीर बत्तीस लक्षणों से युक्त था। पांच वर्ष के होने पर पूर्णसिंह को पढ़ने बैठा दिया गया । बालक कुशाग्र बुद्धि का था । इसलिये शीघ्र ही उसने सभी ग्रन्थों का अध्ययन कर लिया। विद्यार्थी अवस्था में भी इनका अहंद्-भक्ति की ओर अधिक ध्यान रहता था। तथा वे क्षमा, सत्य, शौच एवं ब्रह्मचर्य आदि धर्मों को जीवन में उतारने का प्रयास करते रहते थे । गार्हस्थ्य जीवन के प्रति विरक्ति देखकर माता-पिता ने उनका १४ वर्ष को अवस्था में हो विवाह कर दिया, लेकिन विवाह बन्धन में बांधने के पश्चात् भी उनका मन संसार में नहीं लगा और वे उदासीन रहने लगे : पुत्र की गतिविधियां देखकर माता-पिता ने उन्हें यहुत समझाया लेकिन उन्हें कोई सफलता नहीं मिली। पुत्र एवं माता-पिता के मध्य बहुत दिनों तक वाद-विवाद चलता रहा । पूर्णसिंह के समझ में कुछ नहीं प्राता और वे बार बार साधु-जीवन धारण करने की उनसे स्वीकृति मांगते रहते। अन्त में पुत्र की विजय हुई और पूर्णसिंह ने २६वें वर्ष में अपार सम्पत्ति को तिलांजलि देकर साधु-जीवन अपना लिया । वे आत्म-कल्याण के साथ साथ जगत्कल्याण की ओर चल पड़े । "भट्टारक सकलकोर्ति नु रास" के अनुसार उनकी इस समय केवल १८ वर्ष को प्रायु थी। उस समय भट्टारक पद्मनंदि का मुख्य केन्द्र नेमावां (उदयपुर) था और वे प्रागम ग्रन्थों के पारगामी विद्वान् माने जाते थे। इसलिये ये भी मेणवां चले गये और उनके शिष्य बनकर अध्ययन करने लगे । यह उनके साघु जीवन की प्रथम पद यात्रा थी । वहां ये आठ वर्ष रहे और प्राकृत एवं संस्कृत ग्रन्थों का गम्भीर अध्ययन किया। उनके मर्म को समझा और भविष्यमें सत्साहित्य का प्रचार प्रसार ही अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया। ३४ वें. वर्ष में उन्होंने प्राचार्य पदवी ग्रहण की मोर नाम सकलकीर्ति रखा गया। विहार-- सकलकीति का वास्तविक साधु-जीवन सम्बत् १४७७ से प्रारम्भ होकर सम्बत् १४६६ तक रहा । इन २२ वर्षों में इन्होंने मुख्य रूप से राजस्थान के उदयपुर, बांसवाड़ा, प्रतापगढ़ आदि राज्यों एवं गुजरात प्रान्त के राजस्थान के समीपस्थ प्रदेशों में खूब बिहार किया। ___ उस समय जन-साधारण के जीवन में धर्म के प्रति काफी शिथिलता आ गई थी। साधु-सन्तों के विहार का अभाव था । जन-साधारण को न तो स्वाध्याय के प्रति रुचि रही थी और न उन्हें सरल Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १६ भाषा में साहित्य ही उपलब्ध होता था। इसलिये सर्वप्रथम सकलकीति ने उन प्रदेशों में विद्यार किया पौर सारे समाज को एक सूत्र में बांधने का प्रयास किया। इसी उद्देश्य से उन्होंने कितने ही यात्रा संघों का नेतृत्व किया। इसके पश्चात् उन्होंने अन्य तीर्थों की वन्दना को जिससे देश में धार्मिक चेतना फिर से जागृत होने लगी। प्रतिष्ठानों का प्रायोजन-- तीर्थ-यात्रानों के पश्चात् सकलकोति ने नवीन मन्दिरों का निर्माण एवं प्रतिष्ठाएं करवाने का कार्य हाथ में लिया। उन्होंने अपने जीवन में १४ बिम्ब-प्रतिष्ठानों का संचालन किया । इस कार्य में योग देने वालों में संघपति नरपाल एवं उनकी पली बहुरानी का नाम विशेषतः उल्लेखनीय है। गलियाकोट में संघपति मूलराज ने इन्हीं के उपदेश से "चतुर्विशति-जिनबिम्ब" की स्थापना की थी। नागदा जाति के श्रावक संघपति ठाकुरसिंह ने भी कितनी ही बिम्ब प्रतिष्ठानों में योग दिया । भट्टारक सकलकीति द्वारा सम्बत् १४६०, १४९२, १४६७ आदि सम्वतों में प्रतिष्ठापित मूर्तियां उदयपुर, हूंगरपुर एवं सागवाड़ा आदि स्थानों के जैन मन्दिरों में मिलती है । प्रतिष्ठा महोत्सवों के इन प्रायोपनों से तत्कालीन समाज में जो जनजागृति उत्पन्न हुई थी, उसने देश में जैन-धर्म एवं संस्कृति के प्रचार प्रसार में अपना पूरा योग दिया। व्यक्तित्व एवं पाण्डित्य भट्टारक सकलकीति असाधारण व्यक्तित्व के धनी थे। इन्होंने जिन जिन परम्परागों की नींव रखी । उनका बादमें खूब विकास हुा । वे गम्भीर-अध्ययन-युक्त संत थे। प्राकृत एवं संस्कृत भाषामों पर इनका पूर्ण अधिकार था । ब्रह्म जिनदास एवं भ० मुवनकीति जैसे विद्वानों का इनका शिष्य होना ही इनके प्रवल पांडित्य का सूचक है। इनकी वाणी में जादू था इसलिये वहां भी इनका विहार हो जाता था, वहीं इनके सैकड़ों भक्त बन जाते थे। वे स्वयं तो योग्यतम विद्वान थे ही, किन्तु इन्होंने अपने शिष्यों को भी अपने ही समान विद्वान् बनाया । ब्रह्म जिनदास ने अपने ग्रन्थों में भट्टारक सकलकोति को महाकवि, निग्रन्थराज शुद्ध चरित्रधारी एवं तपोनिधि आदि उपाधियों से सम्बोषित किया है।' भट्टारक सकलभूषण ने अपनी उपदेश-रत्नमाल। को प्रशस्ति में कहा है कि सकलकोति जन १. ततोऽभक्तस्य जमत्प्रसिद्धः, पट्टे मनोज्ञे सकलादिकीतिः । महाकविः शुद्धचरित्रधारी, निम्रन्यराजो जगति प्रतापी ।। जम्बूस्वामी चरित्र Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२०] जन का चित्त स्वतः ही अपनी ओर आकृष्ट कर लेते थे। ये पुण्यमूर्ति स्वरूप थे तथा अनेक पुराण ग्रन्थों के रचयिता थे। ... इसी तरह भट्टारक शुभचन्द्र ने सकलकीति को पुराण एवं काव्यों का प्रसिद्ध प्रणेता कहा है। इनके अतिरिक्त इनके बाद होने वाले हामी भट्टारकों ने सकलकोलि के व्यक्तित्व एवं विद्वत्ता की भारी प्रशंसा की है । ये भट्टारक थे किन्तु मुनि नाम से भी अपने आपको सम्बोधित करते थे। धन्य. कुमार चरित्र ग्रन्थ की पुष्पिका में इन्होंने अपने पापका मुनि सकलकीति नाम से परिचय दिया है। .' ये स्वयं नाम अवस्था में रहते थे और इसलिये ये निग्रंथकार अथवा निग्रंथराज के नाम से भी अपने शिष्यों द्वारा संबोधित किये गये हैं। इन्होंने बागड़ प्रदेश में जहां भट्टारकों का कोई प्रभाव नहीं था । सम्बत् १४६२ में गलियाकोट में एक भट्टारक गादी की स्थापना की और अपने पापको सरस्वती-गच्छ एवं बलात्कारगरण की परम्परा का भट्टारक घोषित किया । ये उत्कृष्ट तपस्वी थे तथा अपने जीवन में इन्होंने कितने ही ब्रतों का पालन किया था। ____ सकलकीति ने जनता को जो कुछ चरित्र सम्बन्धी उपदेश दिया था, पहिले उसे अपने जीवन में उतारा । २२ वर्ष के एक छोटे समय में ३५ से अधिक ग्रन्थों को रचना, विविध ग्रामों एवं नगरों में बिहार, भारत के राजस्थान, उत्तरप्रदेश, गुजरात, मध्यप्रदेश आदि प्रदेशों के तीर्थों की पद यात्रा एवं विविध व्रतों का पालन केवल सकलकीति जैसे महा विद्वान् एवं प्रभावशाली व्यक्तित्व वाले साधु से ही सम्पन्न हो सकते थे। इस प्रकार ये श्रद्धा, ज्ञान एवं चारित्र से विभूषित उत्कृष्ट एवं प्राकर्षक ध्यक्तित्व वाले साधु थे। मृत्यु--- एक पट्टाल के अनुसार भट्टारक सकलकीति ५६ वर्ष तक जीवित रहे। सम्वत् १४६६ में महसाना नगर में उनका स्वर्गवास हुप्रा । पं० परमानन्दजी शास्त्री ने भी प्रशस्ति संग्रह में इनको मृत्यु सम्बत् १४६६ में महसाना (गुजरात) में होना लिखा है । डा० ज्योतिप्रसाद जंन एवं डा० प्रेमसागर भी इसी सम्बत् को सही मानते हैं। लेकिन डा. ज्योतिप्रसाद इनका पूरा जीवन ८१ वर्ष स्वीकार करते हैं। जो अब लेखक को प्राप्त विभिन्न पट्टावलियों के अनुसार वह सही नहीं जान पड़ता। १. तत्पट्ट पंकजविकासमास्वान् बभूव निर्मन्यवर: प्रतापी । महाकवित्वादिकला-प्रवीण: तपोनिधि: श्री सकलादिकोति ॥ हरिवंधा-पुराण। १. तत्पट्टधारी जनचित्तहारी पुराणमुख्योतम-शास्त्रकारी। भट्टारकः श्रीसकलादिकोतिः प्रसिद्धनाभाजनि पुग्यमूतिः ।। उपदेशरत्नमाला-सकलभूषण Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २१ ] सकलकीर्ति रास में उनको विस्तृत जीवन गाथा है, उसमें स्पष्ट रूप से सम्वत् १४४३ को जन्म एवं सम्वत् १४६९ में स्वर्गवास होने को स्वीकृत किया है। तत्कालीन सामाजिक अवस्था --- 1 1 भट्टारक सकलकीति के समय की सामाजिक स्थिति अच्छी नहीं थी । समाज में सामाजिक एवं धार्मिक चेतना का अभाव था । शिक्षा की बहुत कमी थी । साधुग्रों का प्रभाव था । भट्टारकों के नग्न रहने की प्रथा थी । स्वयं भट्टारक सकलकीर्ति भी नग्न रहते थे। लोगों में धार्मिक श्रद्धा बहुत थी । तीर्थ यात्रा बड़े बड़े संघों में होती थी । उनका नेतृत्व करने वाले साधु होते थे । तीर्थं यात्राएं बहुत लम्बी होती थीं तथा वहां से सकुशल लौटने पर बड़े-बड़े उत्सव एवं समारोह किये जाते थे । भट्टारकों ने पंच कल्याणक प्रतिष्ठाओं एवं अन्य धार्मिक समारोह करने की अच्छी प्रथा डाल दी थी । इनके संघ में मुनि प्राधिका, श्रावक आदि सभी होते थे । साधुयों में ज्ञान प्राप्ति की काफी अभिलाषा होती थी, तथा संघ के सभी साधुनों को पढ़ाया जाता था । ग्रन्थ रचना करने का भी खूब प्रचार हो गया था । भट्टारक गरण भी खूब ग्रन्थ रचना करते थे । वे प्रायः श्रपने ग्रन्थ भावकों के आग्रह से निबद्ध करते रहते थे । व्रत उपवास की समाप्तिपर श्रावकों द्वारा इन ग्रन्थों की प्रतियां विभिन्न ग्रन्थ भण्डारों को भेंट स्वरूप दे दी जाती थीं। भट्टारकों के साथ हस्तलिखित ग्रंथों के बस्ते के बस्ते होते थे । समाज स्त्रियों की स्थिति अच्छी नहीं थी और न उनके पढ़ने लिखने का साधन था | व्रतोद्यापन पर उनके आग्रह से ग्रंथों की स्वाध्यायार्थ प्रतिलिपि कराई जाती थी और उन्हें साधु सन्तों को पढ़ने के लिये दे दिया जाता था । साहित्य सेवा - साहित्य सेवा में सकलकीर्ति का जबरदस्त योग रहा। कभी कभी तो ऐसा मालूम होने लगता है जैसे उन्होंने अपने साधु जीवन के प्रत्येक क्षरणका उपयोग किया हो । संस्कृत, प्राकृत एवं राजस्थानी भाषा पर इनका पूर्ण अधिकार था। वे सहज रूप ही काव्य रचना करते थे, इसलिये उनके मुख से जो भी वाक्य निकलता था वही काव्य रूप में परिवर्तित हो जाता था । साहित्य रचना की परम्परा कलकीर्ति ने ऐसी डाली कि राजस्थान के बागड़ एवं गुजरात प्रदेश में होने वाले अनेक साधु-सन्तों साहित्य की खूब सेवा की तथा स्वाध्याय के प्रति जन साधारण की भावना को जागृत किया । इन्होंने पने अन्तिम २२ वर्ष के जीवन में २७ से अधिक संस्कृत रचनाएं एवं राजस्थानी रचनाए निबद्ध की थीं। 5 राजस्थान के ग्रन्थ भण्डारों की जो अभी खोज हुई है उनमें हमें अभी तक निम्न रचनाए उपलब्ध हो सकी हैं । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २२ ] संस्कृत की रचनाएं - १. मूलाचार प्रदीप २. प्रश्नोत्तरोपासकाचार ३. प्रादिपुराण ४. उत्तरपुराण ४. शांतिनाथ चरित्र ६. वर्द्धमान चरित्र ७. मल्लिनाथ चरित्र ८. यशोधर चरित्र - धन्यकुमार चरित्र १०सुकुमाल चरित्र ११. सुदर्शन चरित्र १२. सद्भाषितावलि १३. पार्श्वनाथ चरित्र १४. व्रतकथा कोष १५. नेमिजिन चरित्र १६. कर्मविपाक १७. तत्वार्थसार दीपक १८ सिद्धान्तसार दीपक १६. श्रागमसायं २०. परमात्मराज - स्तोत्र २१. सारचतुर्विंशतिका २२ श्रीपाल चरित्र २३. जम्बूस्वामी चरित्र २४. द्वादशानुप्रेक्षा । पूजा ग्रन्थ २५. श्रष्टाह्निका पूजा २६. सोलहकारण पूजा २७ गए घरवलय पूजा | राजस्थानी कृतियां -- १. आराधना प्रतिबोधसार २. नेमीश्वर गीत ३ मुक्तावलि गीत ४. रामोकार फल गीत ५. सोलहकारण रास ६. सारसिखामणि रास ७. शांतिनाथ फागु । उक्त कृतियों के अतिरिक्त अभी और भी रचनाएं हो सकती जिनकी श्रभी खोज होना बाकी है। भट्टारक सकलकीर्ति की संस्कृत भाषा के समान राजस्थानी भाषा में भी कोई बड़ी रचना मिलनी चाहिये, क्योंकि इनके प्रमुख शिष्य ब्र० जिनदास ने इन्हीं की प्रेरणा एवं उपदेशसे राजस्थानी भाषा में ५० से भी अधिक रचनाएं निबद्ध की हैं । उक्त संस्कृत कृतियों के अतिरिक्त पंचपरमेष्ठि पूजा, द्वादशानुप्रक्षा एवं सारचतुर्विंशतिका आदि और भी कृतियां हैं। जो राजस्थान के शास्त्र भण्डारों में उपलब्ध होती हैं । ये सभी कृतियां जैन समाज में लोकप्रिय रही हैं तथा उनका पठन-पाठन भी खूब रहा है । भट्टारक सकलकीति की उक्त संस्कृत रचनाओं में कवि का पाण्डित्य स्पष्ट रूप से झलकता है । उनके काव्यों में उसी तरह की शैली, अलंकार रस एवं छन्दों की परियोजना उपलब्ध होती है जो अन्य भारतीय संस्कृत काव्यों में मिलती है । उनके चरित काव्यों को पढ़ने से अच्छा रसास्वादन मिलता है । चरित काव्यों के नायक बैसठशलाका के लोकोत्तर महापुरुष हैं जो प्रतिशय पुण्यवान् हैं, जिनका सम्पूर्ण जीवन प्रत्यधिक पावन है । सभी काव्य शांतरस पर्यवसानी हैं । काव्य ज्ञान के समान भट्टारक सकलकीर्ति जैन सिद्धान्त के महान् बेत्ता थे । उनका मूलाचार प्रदीप, प्रश्नोत्तर श्रावकाचार सिद्धान्तसार- दीपक एवं तत्त्वार्थसार दीपक तथा कर्मविपाक जैसी रचनाएं उनके अगाध ज्ञानके परिचायक हैं। इसमें जैन सिद्धान्त, श्राचार-शास्त्र एवं तत्त्वचर्चा के उन गूढ़ रहस्यों का निचोड़ है जो एक महान् विद्वान् अपनी रचनाओं में भर सकता है । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२३] इसी तरह सद्भाषितावलि उनके सर्वागज्ञान का प्रतीक है । जिसमें सकलकीर्ति ने जगत के प्राणियों को सुन्दर शिक्षाएं भी प्रदान की हैं, जिससे वे अपना आत्म-कल्याण करने की थोर अग्रसर हो सके । वास्तव में वे सभी विषयों के पारगामी विद्वान थे। ऐसे सन्त विद्वान् को पाकर कौन देश गौरवान्वित नहीं होगा ? राजस्थानी रचनाएं - सकलकोति ने हिन्दी में बहुत ही कम रचना की है। प्रमुख कारण संभवतः इनका संस्कृत भाषा की और अत्यधिक प्रेम था। इसके अतिरिक्त जो भी इनकी हिन्दी रचनाएं मिली हैं वे सभी लघु रचनाएं हैं जो केवल श्रध्ययन को दृष्टि से ही उल्लेखनीय कही जा सकती हैं। सकलData का अधिकांश जीवन राजस्थान में व्यतीत हुआ था। इनकी रचनात्रों में राजस्थानी भाषा की स्पष्ट छाप दिखलाई देती है । इस प्रकार भट्टारक सकलकीर्ति ने संस्कृत भाषा में ३० ग्रन्थों की रचना करके मां भारती की पूर्व सेवा की और देश में संस्कृत के पठन-पाठन का जबरदस्त प्रचार किया । भाचार्य सकलकीति विरचित संस्कृत ग्रन्थावली में अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ अब भी अप्रकाशित हैं और मुलाचार प्रदीप जैसे कुछ महत्वपूर्ण ग्रन्थ प्रकाशित होनेपर भी इस समय अनुपलब्ध हो रहे हैं। अच्छा हो शांतिवीर प्रत्थमाला महावीरजी या अन्य कोई प्रकाशन संस्था इन सब ग्रंथों को सुसंपादित कराकर हिन्दी अनुवाद सहित प्रकाशित कराने को योजना बनावे । भाषाकी सरलता और प्रतिपाद्य विषयों की उपयोगिता को देखते हुए आशा है कि इनके ग्रंथ लोकप्रिय सिद्ध होंगे । सिद्धांतसार- दीपक का यह सटीक संस्करण- त्रिलोकसार की टीका करने के बाद पूज्य श्रार्थिका श्री १०५ विशुद्धमतिजी ने मुझसे पूछा कि अब मुझे बतलाइये किस ग्रन्थ पर काम करू ? क्योंकि टीका करने में स्वाध्याय और व्यान दोनों की सिद्धि होती है । विचार-विमर्श के बाद स्थिर हुआ कि सिद्धान्तसार दीपक' की टीका की जाय । इसका विषय त्रिलोकसार से मिलता जुलता है तथा जन साधारण के स्वाध्याय के योग्य है । फलतः हस्तलिखित प्रतियां एकत्र कर उनके पाठ भेद लेना शुरू किया गया। सवाई माधवपुर के चातुर्मास में इसके पाठभेद लेने का कार्य सम्पन्न हुआ था उसमें श्री पं० जगन्मोहनलालजी और मैंने भी सहयोग किया था। टीका के लिये जो मूल प्रति चुनी गई थी वह १७८९ विक्रम सम्वत् की लिखी हुई थी। जैसा कि उसकी अन्तिम प्रशस्ति से स्पष्ट है । ग्रन्थ पर्यायन्त्र समेत ४५१६, सम्वत् १७५ वर्षे श्राषाढ मासे कृष्णपक्षे तिथौ चतुर्दशी शनिवासरे, लिखितं मानमहात्मा चाटसु मध्ये श्री मूलसंघे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे कुन्दकुन्दाचार्यान्वये Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २४ ] भट्टारकजी श्री जगत्कोति तत्पट्र भट्टारक श्री...............--द्रकीतिजी प्राचार्यजी श्री कनककीतिजी तत् शिष्य पं० रायमल सत् शिष्य पं. ......"दजी तत् शिष्य पं० वृन्दावनेन सुपठनार्थ लिखापितम् । लिसि..... ........ । माताजी की अभीक्ष्ण ज्ञानाराधना और उसके फल स्वरूप प्रकट हुए क्षयोपशम के विषय में क्या लिखू? अल्पवय में प्राप्त वैधव्य का अपार दुःख सहन करते हुए भी इन्होंने जो वैदुष्य प्राप्त किया है वह साधारण महिला के साहस की बात नहीं है । वैधव्य प्राप्त होते ही तत्काल जो साधन जुटाये जा सके उनका इन्होंने पूर्ण उपयोग किया। ये सागर के महिलाश्रम में पढ़ती थीं मैं धर्म शास्त्र और संस्कृत का अध्ययन कराने प्रातःकाल ५ बजे जाता था। एक दिन गृह प्रबन्धिका ने मुझसे कहा कि रात में निश्चित समय के बाद आश्रम की ओर से मिलने वाली लाईट की सुविधा जब बन्द हो जाती है तब ये खाने के घृत का दीपक जलाकर चुपचाप पढ़ती रहती हैं और भोजन घृत हीन कर लेती हैं । गृह प्रबन्धिका के मुख से इनके अध्ययन शीलता की प्रशंसा सुन जहां प्रसन्नता हुई वहां अपार वेदना भो हुई । प्रस्तावना की यह पक्तियां लिखते समय वह प्रकरण स्मृति में आ गया प्रोर नेत्र सजल हो गये। सगा, कि जिसकी इतनी अभिरुचि है अध्ययन में, वह अवश्य ही होनहार है । पाश्रम में रहकर इन्होंने शास्त्री कक्षा तक पाठयक्रम पूरा किया और हिन्दी साहित्य सम्मेलन से साहित्य रत्न की उपाधि प्राप्त की। जबलपुर से प्रशिक्षित (ट्रेण्ड) होकर महिलाधम में अध्यापन शुरू किया तथा साधारण अध्यापिका के बाद प्रधानाध्यापिका और तदनन्तर कार्य छोड़कर अधिष्ठात्री पद को प्राप्त किया। संभवतः सन् १९६३ में सागर मैं प्राचार्य श्री धर्मसागरजी, सन्मतिसागरजी और पदमसागरजी का चातुर्मास हुा । श्री सन्मतिसागरजी के सम्बोधन से इनका हृदय विरक्ति की पोर आकृष्ट हुआ। फलस्वरूप इन्होंने सप्तम प्रतिमा धारण की और आगे चल कर पपौरा के चातुर्मास में प्राचार्य शिवसागरजी के पादमूल में प्रायिका दीक्षा ली। संघस्थ प्राचार्यकल्प श्रुतसागरजी ने इनका करणानुयोग में प्रवेश कराया और श्री अजितसागरजी महाराज ने संस्कृत भाषा का परिज्ञान कराया। निर्द्वन्द्व होकर इन्होंने धवलसिद्धान्त के सब भागों का स्वाध्याय कर जब मुझे कोटा के चातुर्मास में स्वनिर्मित अनेक संदृष्टियां और चार्ट दिखलाये तब मुझे इनके ज्ञान विकास पर बड़ा प्राश्चर्य हुआ । यही नहीं त्रिलोकसार की टीका लिखकर प्रस्तावना लेख के लिये जब मेरे पास मुद्रित फार्म भेजे तब मुझे लगा कि यह इनके तपश्चरण का ही प्रभाव है कि इनके ज्ञान में प्राश्चर्यजनक वृद्धि हो रही है । वस्तुतः परमार्थ भी यही है कि द्वादशाङ्ग का जितना विस्तार हम सुनते हैं वह सब गुरु मुख से नहीं पढ़ा जा सकता । तपश्चर्या के प्रभाव से स्वयं ही ज्ञानावरण का ऐसा विशाल क्षयोपशम हो जाता है कि जिससे प्रङ्ग पूर्व का भी विस्तृत ज्ञान अपने पाप प्रकट हो जाता है । श्रुतकेवली बनने के लिये निम्रन्थ मुद्रा के साथ विशिष्ट तपश्चरण का होना भी आवश्यक रहता है। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २५ ] त्रिलोकसारादि ग्रन्थों का गणित विधिवत् सम्पन्न कराने में इनके सहायक रहे श्री ब्र० रतन. चन्द्र जी मुख्त्यार सहारनपुर । ये पूर्वभव के संस्कारो जीव थे जिन्होंने किसी संस्था या व्यक्ति के पास संस्कृत प्राकृत तथा हिन्दी का विशिष्ट अध्ययन किये बिना ही स्वकीय पुरुषार्थ से करणानुयोग में प्रशंसनीय प्रवेश प्राप्त किया। प्राचार्य शिवसागरजी तथा प्राचार्यकल्प श्रुतसागरजी महाराज के कितने हो चातुर्मासों में मुझे इनके साथ जाने का अवसर मिला है उस समय इनकी ज्ञानाराधना और विषय को धाष्ट को की रीति देनमार बसी प्रास्ता होती थी। अब वे नहीं हैं उनकी स्मृति ही शेष है। सिद्धान्तसार दीपक का सम्पादन त्रिलोकसार की तरह सिद्धान्तसार दोपका का सम्पादन भो डा. श्री चेतनप्रकाशजी पाटनो प्राध्यापक, जोधपुर विश्वविद्यालय जोधपुर ने किया है। ये दिवंगत मुनि श्री १०८ समतासागरजी के सुपुत्र हैं । समता और भद्रता इन्हें पैतृक सम्पत्ति के रूप में मिली हुई है। संस्कृत के एम० ए० होने क साथ साथ ये जैनागम के भी पारगामी हैं, कटी छटी और विविध टिप्पणों से अलकृत पाण्डुलिपि को आप अपनी सम्पादन कला से व्यवस्थित करने में सिद्ध हस्त हैं । कार्य के बोझ से कभी कतराते नहीं हैं किन्तु समता भावसे उसे बहन करते हैं। सिद्धान्तसार दीपक के संपादन में इन्होंने पर्या श्रम किया है। विषय सूची प्रादि कष्टसाध्य परिशिष्टों से इन्होंने प्रस्तुत ग्रन्थ को सुशोभित किया है। शरीर के दुबले-पतले होने पर भी पाप विशिष्ट क्षमोपशम के धनी हैं। जैन भूगोल बारहवें दृष्टिबाद अङ्ग के पांच भेदों में पूर्वगत भेदोंके अन्तर्गत एक लोकनिन्दुसार पूर्व है । उस पूर्व में तीन लोक सम्बन्धी विस्तृत वर्णन है । वह इस समय उपलब्ध नहीं है किन्तु उसके आधार पर तीन लोक का वर्णन करने वाले अनेक शास्त्र-तिलोयपात्ति, जंबुदीवपत्ति , त्रिलोकसार लोकविभाग हरिवंशपुराण तथा सिद्धान्तसार दीपक अादि दिगम्ब र ग्रन्थ उपलब्ध हैं । पाजका प्रत्यक्षवादी मानव, इन ग्रन्थों में प्रतिपादित जैन भूगोल को सुनकर झट से बोल उठता है कि कहां हैं ये स्थान ? उपलब्ध दुनियां में जहां तक आज के मानव की गति है वहां तक इनका सद्भाव न देख वह इन्हें कल्पित मानने लगता है । मनुष्य अपनी हीन शक्ति का विचार किये बिना ही वीतराग सर्वज्ञदेव की वाणी को अपने ग्रन्थों के द्वारा प्रतिपादित करनेवाले निःस्पृह प्राचार्यों के वचनों को संशय की दृष्टि से देखने लगता है। मध्यलोक एक राजूप्रमाण क्षेत्र में विस्तृत है जिसमें असंख्यात द्वीप समुद्रों का समावेश है । अाजका मानव जम्बूद्वीप भरत क्षेत्र के संपूर्ण प्रार्य खण्ड में भी नहीं जा सका है। फिर संपूर्ण भरत क्षेत्र और जम्बूद्वीप की तो बात ही क्या है ? लोग पूछते हैं कि सुमेरु पर्वत कहाँ है ? मैं कह देता हूं कि जहां सूर्योदय और सूर्यास्त होता है उस निषध पर्वत के आगे विदेह क्षेत्र में सुमेरु पर्वत है ! जब सूर्य निषध पर्वत के पूर्व कोण और पश्चिम कोण पर प्रात: और सायंकाल पहुंचता है तब Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २६ ] उसकी किरणें संतप्त सुवर्णाभ निषध पर्वत पर पड़ने से प्रातः पूर्व में और सायं पश्चिम में लालिमा प्रकट होतो है ज्यों ही सूर्य निषध पर्वत से दूर हो जाता है त्यों ही लालिमा समाप्त हो जाती है । अतः इस निषध पर्वत का अस्तित्व सिद्ध है उसके आगे जाने पर सुमेरु पर्वत के दर्शन हो सकते हैं । जिस मनुष्य की शक्ति कूपमण्डक के समान अत्यन्त सीमित है वह अपनी गति से बाहर पाये जाने वाले पदार्थों के अस्तित्व के प्रति संशय का भाव रक्ले, यह पाश्चर्य की बात है । मेरा तो विश्वास है कि जिस प्रकार जैन शास्त्र में प्रतिपादित तत्त्व प्राज विज्ञान की कसौटी पर खरे उतर रहे हैं उसीप्रकार जैन भूगोल के सिद्धांत भी विज्ञान की कसौटी पर खरे उतरेंगे । असमञ्जसता वहां हो जाती है जहां जिन्हें जैन भूगोल का ज्ञान है उन्हें विज्ञान सिद्ध अाधुनिक भूगोल का ज्ञान नहीं है और जिन्हें आधुनिक भूगोल का ज्ञान है उन्हें जैन भूगोल का ज्ञान नहीं है। काश, कोई दोनों भूगोलों का ज्ञाता हो और वह पक्षपात रहित होकर अनुसन्धान करे तो यथार्थता का निर्णय हो सकता है। फिर एक बात यह भी है कि सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थों का निर्णय प्रागम प्रमाण से ही हो सकता है, प्रत्यक्षादि प्रमाणों से नहीं । जहाँ प्रत्यक्ष अनुमान और शाब्द प्रमाण की गति कुण्ठित हो जाती है वहां पागम प्रमाण का ही प्राश्रय लेना पड़ता है । आगम की प्रामाणिकता बक्ता की प्रामाणिकता पर निर्भर रहती है । जैन भूगोल के उपदेष्टा प्राचार्य विशिष्ट ज्ञानी तथा माया ममता से रहित थे अतः उनकी प्रामाणिकता में संशय का अवकाश नहीं है । कहने का तात्पर्य यह है कि प्राधुनिकता के परिप्रेक्ष्य में पड़कर 'पागम की श्रद्धा से विचलित नहीं होना चाहिये । सिद्धान्तसार दीपक का प्रकाशन--- मैंने देखा है कि प्राचार्यकल्प श्रुतसागरजी महाराज के हृदय में जिनवाणी प्रकाशन के प्रति अनुपम अभिरुचि है । उन्हीं की प्रेरणा से सम्बोधन पाकर भक्तजन जिनवाणी के प्रकाशन के लिये विशाल अर्थ राशि प्रदान करते हैं। उन्हीं का सम्बोधन पाकर शांतिवीर नगर महावीरजी में शिव• सागर ग्रन्थमाला से पं. लालारामजी कृत हिन्दी टीका सहित प्रादिपुराण, पं० गजाधरलाल जी कृत टीका सहित हरिवंशपुराण, पं० दौलतरामजी कृत टोका बाला पद्मपुराण और श्री १०५ प्रायिका आदिमतीजी द्वारा रचित विस्तृत हिन्दी टीका सहित कर्मकाण्ड का प्रकाशन हुना है। सम्प्रति, सिद्धांतसार दीपक का प्रकाशन भी उन्हीं का सम्बोधन प्राप्त कर श्रीमान् पूनमचन्दजी गंगवाल, श्रीमान् रामचन्द्रजी कोठारी जयपुर, श्रीमान् माणिकचन्दजी कोटा आदि दातागों के द्वारा प्रदत्त अर्थ राशि से हो रहा है । श्रुतसागरजी महाराज का कहना है कि समाज में सब प्रकार के श्रोता हैं, जो जिस प्रकार का श्रोता है उसके लिये उस प्रकार का ग्रन्थ स्वाध्याय के लिये अल्प मूल्य में मिलना चाहिए । त्रिलोकसार, सिद्धांतसार दीपक और कर्मकाण्ड आदि गहन ग्रन्थ विशिष्ट श्रोताओं के लिये हैं तो पादिपुराण, हरिवंशपुराण, पद्मपुराण तथा धन्यकुमार चरित आदि कथा ग्रन्थ साधारण श्रोताओं के लिये हैं। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २७ ] प्रायिका विशुद्धमतीजी के ऊपर उनका उतना ही स्नेह मैंने देखा है जितना कि एक पिता का पुत्री के ऊपर रहता है । जब वे उनके साथ संघ में रहती थीं तब पितृ स्नेह का प्रकट रूप दिखाई देता ही था पर अब कारण वश अलग रहने पर भी उनका स्नेह ज्यों का त्यों बना हुआ है। वे विशुद्धमति जी के द्वारा लिखित शास्त्रों को प्रकाशित करा कर उन्हें बराबर प्रोत्साहित करते रहते हैं। जब भी इनके पास जाता हूं तब बातत्रीत के प्रसंग में वे विशुद्धमतिजी की साहित्यिक पाराधना की प्रशंसा करते रहते हैं। न० लाडमल जी बाबाजो अधिकांश प्राचार्यकल्प श्रुतसागरजी के साथ रहते हैं वे ग्रथ प्रकाशन आदि में पूर्ण सहयोग किया करते हैं । तात्पर्य यह है कि इस ग्रन्थ के प्रकाशन में जिनका जिस प्रकार का सहयोग उपलब्ध हमा है वे सब धन्यवाद के पात्र हैं। उन सबके ज्ञानावरगा का क्षयोपशम वृद्धि को प्राम हो यह कामना है। यह संस्करण-- सिद्धान्तसार दीपक के मुद्रण का कार्य कमल प्रिन्टस मदनगंज (किशनगढ़) में सम्पन्न हुषा है। उसके संचालक श्रीमान् पाँचूलालजी ने छपाई सफाई का ध्यान रखते हुए इसे शुद्धता पूर्वक छापा है । चार्ट और चित्रों को यथास्थान लगाया है इसके लिये वे धन्यवाद के पात्र हैं । माताजी का मुझपर स्नेह है अत: वे अपनी छोटी-मोटी सभी रचनाओं पर कुछ पंक्तियां लिखने का आग्रह करती हैं उसी आग्रहवश इस संस्करण में प्रस्तावना लेख के रूप में मैंने कुछ लिखने का प्रयास किया है । इच्छा थी कि ग्रन्थ सम्बन्धी कुछ विषयों पर विशेष प्रकाश डाला जाय परन्तु माताजी के साथ रहने वाले ब० कजोड़ीमलजो का प्राग्रह रहा कि प्रस्तावना लेख शीघ्र ही लिखकर १.२ दिन में मुद्रित फार्म वापिस भेज दें। 'माताजी ने ग्रन्थ में विशेषार्थों के माध्यम से सब विषय स्पष्ट किये ही हैं। इसलिये इच्छाको सीमित कर एक दिन में ही प्रस्तावना लेख समाप्त कर वापिस भेज माताजी इसी तरह जिनवाणी की सेवा करती रहें इस भावना के साथ उनके प्रति आभार प्रकट करता हूं। सागर विनीत २४-३-८१ पन्नालाल साहित्याचार्य Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ सं० विषय सूची क्रम सं. पृष्ठ सं० | क्रम सं० प्रथम अधिकार लोकनाड़ी का स्वरूप ।२६ लोकाकाश और अलोकाकाश की स्थिति व लक्षण १ मङ्गलाचरण श्री प्ररहन्त स्तवन | २४ लोक के विषय में मतान्तरों का खण्डन १० २ थी ऋषभदेव भगवान का स्तवन २५ लोक का स्वरूप ३ श्री चन्द्रप्रभ भगवान का स्तवन २६ लोक के भेद एवं उनका प्रमाण ४ श्री शांतिनाथ भगवान का स्तवन | २७ अधोलोक का क्षेत्रफल एवं घनफल ५ श्री नेमिनाथ भगवान का स्तवन २८ ऊर्बलोक का क्षेत्रफल एवं घनफल ६ श्री पार्वजिनेन्द्र स्तवन २६ सम्पूर्ण लोक का घनफल ७ थी वर्धमानजिनेन्द्र स्तवन | ३० लोक की परिधि का निरूपण ८ शेष तीर्थंकरों का स्तवन ३१ तीन वातवलयों का स्वरूप ६ विदेहक्षेत्रस्थ विद्यमान सीमन्धर प्रादि | ३२ असनाली का स्वरूप तीर्थंकरों का स्तवन १० तीन काल संबंधी चौबीस तीर्थंकरों का |३३ अधिकारगत अन्तिम मंगलाचरण स्तवन द्वितीय अधिकार अधोलोक में श्वभ्र स्वरूप । ११ श्री सिद्ध परमेष्ठी का स्तवन १ मंगलाचरण १२ श्री प्राचार्य परमेष्ठी का स्तवन २ अधोलोक के वर्णन का हेतु और प्रतिज्ञा २१ १३ श्री उपाध्याय परमेष्ठी का स्तवन ३ अधोलोक की सात पृथ्वियों को स्थिति १४ श्री साधुपरमेष्ठी का स्तवन और नाम १५ श्री वृषभसेन प्रादि गणधरों का स्तवन ६ ४ सातों नरकों के नाम १६ श्री स्याद्वादवाणीरूप सरस्वती का स्तवन ६ | ५ निगोद स्थान का कथन १७ श्री कुन्दकुन्दादि प्राचार्यों का स्मरण ७ ६ प्रथम पृथ्वी के भेद-प्रभेद १८ त्रिलोकवर्ती कृत्रिम-अकृत्रिम त्यालयों ७ ख र प्रादि भागों में रहने वाले देवों का तथा उनमें विद्यमान जिनबिम्बों का स्तवन ७ विवेचन १६ ग्रन्थकर्ता द्वारा पन्थरचना की प्रतिज्ञा | प्रथम पृथ्वी के तीन भागों की मोटाई २० मिनागम-महिमा ८} १. शेष छह पृथ्वियों का निरूपण २१ ग्रंथकर्ता द्वारा लघुता-प्रदर्शन ८ | १० सातों पृथ्वियों में स्थित पटल २२ लोकस्वरूप-कथन की प्रतिज्ञा ६ | ११ सातों पृथ्वियों में बिलों की संख्या Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ....... . .. [२६] क्रम सं० पृष्ठ सं०] क्रम सं. पृष्ठ सं० १२ सातों नरक-पटलों को संख्या और ३१ नरकस्थ दुर्गन्धित मिट्टी की भीषणता ५३ उनके नाम २५.! ३६ : रशियों के अधिक्षेत्र का प्रमाण ५६ १३ सातों नरकों के इन्द्रादिक बिल २७ | ३३ प्रवियों में उत्कृष्ट रूप से जन्म-मरण का १४ पृथक्-पृथक् श्रेणीबद्ध बिलों की संख्या २८ | अन्तर १५ पृथक-पृथक् प्रकीर्णक बिलों की संख्या २६ | ३४ पृश्वियों में उरण और शीत बाधा १६ सम्पूर्ण बिलों का व्यास ३० ३५ नरक में भावी तीर्थकर जीवों की विशेष १७ प्रत्येक नरकके संख्यातयोजन विस्तारवाले व्यवस्था और असंख्यात योजन विस्तारवाले बिलों । ३६ रत्नत्रय धर्मके प्राचरण करने की प्रेरणा ५७ को संरूपा ३७ अन्त मङ्गल १८ इंद्रकादि तीनों प्रकारके बिलों का प्रमाण ३५ तृतीय अधिकार नरक दुःख वर्णन १६ सातों पृथ्वियों के बिल व्याप्त क्षेत्र का प्रमाए १ मंगलाचरण २० बिलों का तियंग अन्तर ........ २ वर्णन का हेतु और प्रतिज्ञा २१ प्रत्येक पटल की जघन्य और उत्कृष्ट प्रायु ४० ३ नरक-बिलों का स्वरूप २२ प्रत्येक पटल के नारकियों के शरीर का ४ नरक भुमियों के स्पर्श एवं दुर्गंध का कथन ६० उत्सेध ५ नरक स्थित नदी, वन, वृक्ष एवं पवन २३ मारकियों के उपपाद स्थानों का प्राकार, ६ विक्रियाजन्य पशुपक्षियों का स्वरूप । व्यास एवं दीर्घता ७ संवेगोत्पादक अन्य भयंकर स्वरूप का २४ नरकप्राप्ति के कारण भूत परिणाम एवं वर्णन पाचरण ८ नरकों में रोगजन्य वेदना २५ नारकियों की स्थिति, निपतन और ६ नरकों में शुधातृषाजन्य वेदना उत्पतन २६ नरकों में सम्भव लेश्याएं.............। १० नरक गत शीत-उष्ण वेदना २७ कितने संहननों से युक्त जीव किस पृथ्वी ११ नरक के अन्य दुःखों का विवेचन तक उत्पन्न होता है ? १२ पूर्वजन्मके पापोंका चितन एवं पश्चात्ताप ६५ २८ कौन जीव किस पृथ्वी तक जन्म ले सकते । १३ अभक्ष्यभक्षण और पांच पापों का चिंतन ६६ ५१ | १४ धर्माचरणरहित एवं कुधर्मसेवनपूर्वक २६ कौन जीव किस नरक में कितनी बार पूर्वभब व्यतीत करने का पश्चात्ताप ६६ उत्पन्न हो सकता है? हो सकता है? ५२ | १५ पश्चात्तापरूप भीषण संताप का विवेचन ६७ ३० नरक से निकलने वाले जीवों की उत्पत्ति १६ अन्य नारकियों द्वारा प्रदत्त भयंकर दुःखों का नियम ५३ का वर्णन Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ सं० ८४ [ ३.] क्रम सं० पृष्ठ सं० क्रम सं. १७ जीयों के नेत्र फोड़ने का और अंगोपांग- | ३ प्रादि के सोलह द्वीपों के नाम ५३ छेदने का फल ४ द्वीपसमुद्रों की स्थिति व प्राकृति १८ दूसरों के प्रति चित्त में उत्पन्न होने वाले ५ द्वीपसमुद्रों की संख्या का प्रमाण पाप का फल ६ द्वोपसमुद्रों का व्यास १६ मद्यादि अपेय पदार्थ पीने का फल ७ सूची व्यास का लक्षण २० परस्त्री सेशन का फल ५ अढाई द्वीप पयंत के द्वीपसमुद्रों का सूची २१ जीवों को छेदन भेदन मादि के दुःख देने व्यास का फल २२ मांसभक्षण का फल १० बादरसुक्ष्म क्षेत्रफल प्राप्त करने की विधि ८७ २३ भिन्न भिन्न दुःखों का कथन ११ वलयाकार क्षेत्र का स्थूल सूक्ष्म क्षेत्रफल ५७ २४ गवं करने का फल १२ जम्बूद्वीपस्थ क्षेत्रों एवं कुलाचलों के नाम ८८ २५ अयोग्य स्थान में शयन करने का फल १३ कुलाचलों का वर्ण २६ सप्त व्यसन सेवन का फल १४ भरतक्षेत्र के व्यास का प्रमाण २७ वैरविरोध रखने का फल २८ असुरकुमारों द्वारा दिये जाने वाले दुःख ७४ १५ क्षेत्र एवं कुलाचलों का विस्तार २६ दुःखों के प्रकार एवं उनकी अवधि | १६ कुलाचलों का व्यास १७ कुलाबलों की ऊंचाई का वर्णन ३० नारकियों द्वारा चिन्तित विषयों का वर्णन ७५ | १८ जीवा, धनुपुष्ठ, लिफा और पार्श्वभुजा ३१ नारकी-शरीरों के रस, गन्ध और स्पर्श के लक्षण का वर्णन १६ कुलाचलों के गाध का एवं उनपर स्थित ३२ अपृथक् विक्रिया का कथन कूटों का प्रमाण ३३ उपसंहार २० महाकूटों के नाम और स्वामी ३४ पापाचारी जीवों को शिक्षा २१ कूट स्थित जिनालयों का वर्णन १०० ३५ धर्म को महिमा २२ कुलाचलों के पाश्वं भागों में वन खंडों की स्थिति एवं प्रमाण ३६ चारित्र धारण करने की प्रेरणा २३ वन वेदियों को स्थिति एवं उनके प्रमाण १०१ ३७ अन्तिम मंगलाचरण २४ पनवेदिका एवं देवों के प्रासादों का चतुर्थ अधिकार/मध्यलोक वर्णन वर्णन १ मंगलाचरण ८१ | २५ कूटों का अन्तर एवं विस्तार २ मध्यलोक वर्णन की प्रतिज्ञा एवं उसका |२६ कुलाचलस्थ सरोवरों के नाम व उनका प्रमाण २२ विस्तार १०४ १०१ १०२ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३१ ] क्रम सं० पृष्ठ सं० क्रम सं० पृष्ठ सं० २७ सरोवरों में स्थित कमलों का विस्तार १०५ | १६ विजयापर्वत की स्थिति और व्यास १४२ २८ श्री प्रादिदेवियों के भवनों का प्रमाण १०७ | १७ विद्याधरों के नगरों के नाम व वर्णन १४४ २९ देवियों के निवास, प्राय और स्वामी १०८ | १८ विजया को द्वितीय श्रेणी का वर्णन १४८ ३० श्रीदेवी के परिवार कमलों का अवस्थान | १६ सिद्धायतन कूट का वर्णन १४६ व प्रमाण १०८ | २० अवशेष वटों के स्वामी १५० ३१ श्रीदेवी के सम्पूर्ण परिवार कमलों का २१ विजयाधं सम्बन्धी वनों का विवेचन १५० प्रमाण २२ भरतक्षेत्र के छह खण्ड और पायो का ३२ परिवार कमलों का और उनके भवनों स्वरूप का घास २३ म्लच्छ खडो को अवस्थिति एव म्लेच्छों ३३ सम्पूर्ण पद्मगृहों में जिनालय का स्वरूप १५१ ३४ सात प्रकार की सेनाएं ... ... ११४] २४ अयोध्यानगरी की स्थिति ३५ उत्तम चारित्र द्वारा पुण्यार्जनकी प्रेरणा ११५ | २५ वृषभाचल का स्वरूप निरूपण पंचम अधिकार/महानदी, गिरि वर्णन | २६ जघन्य भोगभूमि का स्वरूप १५२ २७ नाभिपर्वतों के नाम, प्रमाण, स्थान व १ मंगलाचरण एवं प्रतिज्ञा ११७ स्वामी २ चतुर्दश महानदियों के नाम २८ अधिकारान्त मंगलाचरण १५५ ३ नदियों के गिरने का स्थान ११७ ४ नदियों के निर्गमद्वार षष्ठ अधिकार/विदेह क्षेत्र वर्णन ५ गंगानदी की उत्पत्ति और उसका गमन ११६ | १ मंगलाचरण एवं प्रतिज्ञा ६ प्रणालिका की प्राकृति और प्रमाण १२० २ सुदर्शन मे वर्णन ७ गिरती हुई गंगानदी का विस्तार १२० ३ ऐरावत हाथी का वर्णन ८ उम्नगा और निम्नगा नदियों का वर्णन १२३ ४ ऐशान आदि अन्य इन्द्रों, अहमिन्द्रों की , मागधद्वार का व्यास, तोरण द्वार १२४ ___स्थिति १. निर्गमहार आदि का व्यास १२५ ५ तीर्थकर जन्माभिषेक क्रिया १७३ ११ तोरणद्वारों का विशेष वर्णन ६ भद्रशाल वनस्थित जिनालयों का प्रमाण १७४ १२ जम्बूद्वीपस्थ समस्त कुण्ड आदि का व्यास १२६ ! ७ त्रैलोक्य तिलक जिनालय का वर्णन १७४ १३ अवशेष नदियों के निर्गम ग्रादि का द्वार वर्णन कथन १२७ मालाओं, धूपघटों, स्वर्णघटों का १४ महानदियों की परिवारनदियां प्रमाण १७५ १५ समस्त नदियों को वेदिकाएं पीठ, सोपान, जिनप्रतिमा वर्णन १७६ १४२ । ११७ १७० १७२ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ सं० १६५ १६६ १६८ निर्देश १८३ [ ३२ ] क्रम सं० पृष्ठ सं० । क्रम सं० मङ्गलद्रव्यों का वर्णन १७८ । ५ भद्रशाल वनों एवं उत्तमभोगभूमियों गर्भगृह का वर्णन १७८ की अवस्थिति ध्वजारों, मुखमण्डपों और प्राकारों ६ उत्कृष्ट भोगभूमियों के धनुः पृष्ठ का का निर्धारण १७८ प्रमाण प्रेक्षागृहों एवं सभागृहों का वर्णन १७६ ७ देव कुरु उत्तरकुरु भोगभूमि की जोवा का प्रमाण १६६ नवस्तूप और मानस्तम्भ का वर्णन १८० ५ देवकुरु उत्तरकुरु भोगभूमियों के वारण चंत्यवृक्ष का वर्णन का प्रमाण 5वजापौठ, स्तम्भ, वापियों का | ६ भोगभूमि में उत्पन्न होने वाले जीवों का वर्णन १८१ वर्शन क्रीडाप्रासादों व तोरणों का वर्णन १५२ प्रासादों, ध्वजारों व वनखण्डों का १० जम्बूवृक्ष का स्यानादिक परिकर ११ परिवार वृक्षों की संख्या, प्रमाण एवं १५३ स्वामियों का निदर्शन ८ अन्य जिनालयों का वर्णन १२ शाल्मलि वृक्ष का बर्णन , देवों, विद्याधरों एवं अन्य भव्यों द्वारा १३ यमक गिरि का स्वरूप की जाने वाली भक्ति १४ विचित्र-चित्र नामक यमक पर्वतों का १० मध्यम जिनालयों का वर्णन १५५ विवेचन २०२ ११ जघन्यजिनालयों का वर्णन १५ सीता नदी स्थित पञ्चद्रहों का वर्णन २०२ १२ तीनों प्रकार के जिनालयों की अवस्थिति १६ सीतोदा नदी स्थित पंचद्रहों का वर्णन २०३ १३ अष्ट प्रातिहार्यो का कथन १८७ १७ अन्य दस ग्रहों को अवस्थिति २०४ १४ लोकस्थ समस्त प्रकृत्रिम चैत्यालयों १८ कमलों, उनके भवनों व नागकुमारियों को नमन । का वर्णन २०५ १५ अधिकारान्त मंगलाचरण १८८ | १६ काञ्चन पवंत का वर्णन २०६ सप्तम अधिकार । | २. दिग्गजपर्वतों का स्वरूप २०७ २०६ २१ विदेह नाम को सार्थकता देवकुरु, उत्तरकुरु, कच्छादेश तथा चक्रवर्ती की दिग्विजय एवं विभूति वर्णन १२२ भद्रशाल प्रादि की वेदियों का प्रमाण २०६ २३ विदेहस्थ कच्छा देश की अवस्थिति २०६ १ मंगलाचरण २४ विजया वर्णन २ गजदन्तों का प्रवस्थान एवं वर्ण १६० | २५ कूटोंके नाम, स्वामी, प्रमाण एवं परिधि २११ ३ गजदन्तों पर स्थित कुटों के नाम । २६ तमिस एवं प्रपात गुफा २१२ ४ कूटों के स्वामी एवं उदय २०१ १८४ २१० १२ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३३] क्रम सं० पृष्ठ सं० क्रम सं० २७ चौंसठ कुण्डों का वर्णन २१३ २८ विदेहस्थ रक्ता रक्तोदा का स्वरूप २१३ २६ सीता सीतोदा के तोरण द्वारों का वर्णन २१४ ३० श्रायंखण्ड और म्लेच्छ खण्ड ३१ क्षेमपुरी की प्रवस्थिति एवं प्रमाण ३२ राजाधिराजा के लक्षण ३३ चक्रवर्ती को दक्षिण दिग्विजय ३४ उत्तर दिग्विजय में विजयार्धकी गुफा से निस्तीर्ण होने का विधान ३७ वृषभाचल वर्णन ३८ चक्रवर्ती के नगर प्रवेश का क्रम ३५ मध्यम म्लेच्छखण्ड में चक्रवर्ती का प्रवेश एवं उस पर धाये हुए उपसर्ग २२३ ३६ चक्रवतीके मद एवं निमंद होनेका कारण २२४ २२४ २२५ ३६ चक्रवर्ती ग्राम पुर और मटम्बों आदि का वर्णन ४० चक्रवर्ती के बल, रूप और वैभव का वर्णन ४१ चक्रवर्ती को नवनिधियों के नाम, कार्य एवं उनके आकार का वर्णन ४२ चक्रवर्ती के चौदह रत्नों के नाम और उनके उत्पत्ति स्थान ४३ चक्रवर्ती के अन्य भोग्य पदार्थ ४४ चक्रवर्ती के हथियारों एवं चौदह रत्नों के नाम ४५ चक्रवर्ती के भोज्य एवं पेय पदार्थ ४६ धर्म का फल ४७ धर्म प्रशंसा २१५ २१६ २१८ २१६ अष्टम अधिकार (विदेह क्षेत्रस्थ देशों का वर्णन ) २२१ २२६ २२७ २२८ २३० २३१ २३२ २३४ २३५ २३६ १ मंगलाचरण २ चित्रकूट नाम के प्रथम वक्षार पर्वत का वर्णन ३ वक्षार पर्वतस्य कूटों के नाम, स्थान श्री स्वामी ४ सुकच्छादेश और क्षेमपुरी का वर्णन ५ विभंगा नदी का निर्गम स्थान, परिवार नदियां ६ महाकच्छदेश स्थित अरिष्टानगरी ७ पद्मकूट वक्षार पर्वत की अवस्थिति ८ कच्छुकावती देश, द्रवती विभङ्गा, आवर्तदेश और नलिनकूट वक्षार की अवस्थिति ६ श्रागे के देशों, विभंगा नदी और वक्षार पर्वतों का कथन १० देवारण्य वन का वर्णन ११ देवारण्यस्य प्रासादों का वर्णन १२ देवारण्य का विस्तार १३ अन्य वेदी, देश, वक्षार एवं विभंगा श्रादि की अवस्थिति १४ पूर्व विदेह क्षेत्र के अवशेष देशों, पर्वतों एवं विभंगानदियों की प्रवस्थिति १५ सुदर्शन मेरु पर्यंत देशों, वक्षारों एवं नदियों का अवस्थान पृष्ठ सं १६ पश्चिम विदेह गत देशों, वक्षारों एवं नदियों का अवस्थान १७ पद्मावती देश के श्रागे अन्य २ देशों, विभंगानदियों एवं पर्वतोंकी अवस्थिति १८ अवशेष देशों का प्रवस्थान १६ पूर्वविदेहगत वक्षार पर्वतों आदि की अवस्थिति २३७ २३७ २३८ २३८ २३६ २४० २४० २४१ २४१ २४३ २४३ २४४ २४४ २४६ २४७ २४८ २५० २५२ २५३ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ सं० २७६ [ ३४ ] क्रम सं० पृष्ठ सं०] क्रम सं० २० भद्रशाल की वेदी पर्यंत देशों, वक्षारों ११ कुलकरों का उत्पत्ति समय, प्रथम दो एवं विभंगा नदियों का अवस्थान २५५ | कुलकरों का वर्णन २७३ २१ वनों, वेदियों, वक्षार पर्वतों और देशों ( १२ क्षेमंकर आदि तीन कुलकरों का वर्णन २७४ का पायाम २५६ | १३ सोमंघर आदि चार कुलकों का स्वरूप २२ विभंगा नदियों का मायाम २५७ वर्णन २३ विदेहस्थ रक्तादि ६४ नदियोंका आयाम २५७ | १४ अभिचंद्र और चंद्राभ कुलकरों का वर्णन २७८ २४ विदेह का विस्तृत वर्णन २५८ | १५ मरुदेव, प्रसेनजित और नाभिराय कुल२५ जम्बूद्वीपस्थ समस्त पर्वतोंको एकत्र संख्या २६२ | करों का वर्णन २८० २६ अवशेष द्वीपों के पर्वतों की संख्या २६२ | १६ ऋषभदेव और भरत चक्रवर्ती की २७ जम्बूद्वीपस्थ वन, वृक्ष, सरोघर एवं । दण्डनीति, ऋषभदेव का मोक्ष गमन २८३ __ महादेशों की संख्या २६२ | १७ चतुर्थ काल का वर्णन २८ जम्बूद्वीपस्थ समस्त न दियों का विवेचन २६३ | १८ चौबीस तीर्थंकरों का वर्णन २८५ २६ कुण्डों का प्रमाण एवं शेष द्वीपों के | १६ तीर्थंकरों का अन्तरकाल २८६ ___ भद्रशाल मादि का प्रमाण २६४ | २० जिनधर्म का उच्छेदकाल ३० विदेहक्षेत्र के प्रति आशीर्वचन २६४ २१ हुण्डावसर्पिणी काल की विशेषताएं २९२ ३१ अधिकारान्त मंगलाचरण २२ बारह चक्रवतियों के नाम, उत्सेध व २६३ प्रायु नयम अधिकार २३ चक्रवतियों का वर्तनाकाल २६५ (छह कालों का प्ररूपण) २४ चक्रवतियों की गति विशेष २६५ १ मंगलाचरण २५ नव बलदेवों के नाम, उत्सेध और आयु २६६ २ छह कालों का सामान्य वर्णन २६७ २६ अन्य सम्पदा, शरीर वर्ण गति आदि ३ प्रथम काल का सामान्य वर्णन का कथन ४ दश प्रकार के कल्पवृक्षों का वर्णन २६६ २६७ २७ बलभद्रों का वर्तना काल २६५ ५ भोगभूमि का अवशिष्ट वर्णन २८ नव नारायण, नाम, स्वभाव, शरीर ६ भोगभूमिज जीवों की उत्पत्ति एवं वृद्धि वर्ण और उत्सेध २६९ ___ का वर्णन २६ नारायणों को प्राथु का कथन २६. ७ भोगभूमिज जीवों की अन्य विशेषताएँ २७० ३० नारायणों को विभूति का वर्णन ८ दाता और पात्रदान के भेदसे फल में भेद २७१ | | ३१ नारायणों की गति विशेष का वर्णन २६ ६ भोगभूमिज जीवोंकी मृत्यु का कारण और गतिबंध | ३२ प्रतिवासुदेवों के नाम, उत्सेध, वणं एव स्वभाव १० द्वितीय और तृतीय काल का वर्णन २७१ | २६४ २६६ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ 4 ३२१ ३२३ [ ३५ ] क्रम सं० पृष्ठ सं० | क्रम सं. ३३ प्रतिवासुदेवों की प्राय और गति प्रमाण व उन पर स्थित जिनप्रतिमानों ३४ रुद्रों के नाम, उत्सेध एवं प्रायु ३०१ का निरूपण ३२१ ३५ रुद्रों का वर्तनाकाल ५ गोपुरद्वारों के अधिनायक व नगरों का ३६ रुद्रों द्वारा प्राप्त नरकगतिके मूल कारण ३०४ वर्णन ३७ नव नारदों का वर्णन ६ चारों द्वारों का मन्तर व बाह्याभ्यन्तर ३०५ स्थित बनों का निरूपण ३८ पंचम काल का वर्णन ७ लबण समुद्र को अवस्थिति व स्वामी ३२३ ३६ शक राजा तथा अपय पाली ८ लवणसमुदान्तर्गत पातालों के नाम, ४० प्रथम कल्की एवं उसके पुत्र के कार्य ३०६ | । उनका प्रवस्थान व संख्या ४१ अंतिम कल्की का स्वरूप एवं कार्य ३०७ १ पातालों का अवगाह ४२ अतिदुःखमा काल का दिग्दर्शन १० पातालोंके अभ्यन्तरवर्ती जल और वायु ४३ दुर्वष्टियोंके नाम एवं फल ३१० __ के प्रवर्तन का क्रम ४४ उत्सपिणी कालके प्रथम कालका वर्णन ३११ | ११ अमावस्या एवं पूर्णिमा को हानिवृद्धि४५ ॥ ॥ द्वितीय दुखमा कालका रूप होनेवाले जल के भूव्यास प्रादि का ___ वर्णन प्रमाण ३२६ ४६ तृतीय कालकी स्थिति एवं २४ तीर्थकर ३१३ | १२ पातालोंके पारस्परिक अन्तरका प्रमाण ३२७ ४७ आगामी १२ चक्रवर्ती ३१४ | १३ लवणसमुद्र के प्रतिपालक नागकुमार ४८ भविष्यत् काल के बलभद्र, वासुदेव, | आदि देवों के विमानों की संख्या ३२६ प्रतिबासुदेव ३१५ | १४ बत्तीस पर्वतों के नाम, प्रमाण एवं ४६ अबशेष तीन कालोंमें भोगभूमिकी रचना ३१६] प्रकार का निरूपण ५० काल और अन्य क्षेत्र ३१६ | १५ पर्वतों पर स्थित द्वीपों का व पर्वत के ५१ कालचक्र के परिभ्रमण से टूटनेका उपाय ३१८ स्वामियों का कथन ३३१ ५२ अधिकारान्त मंगलाचरण | १६ वायव्य दिशा स्थित गोतम द्वीप का विस्तृत वर्णन दशम अधिकार १७ २४ अन्तरद्वीपों का विस्तृत वर्णन ३३२ (मध्यलोक वर्णन) १८ कुभोगभूमिज मनुष्यों की प्राकृति, प्रायु, १ मङ्गलाचरण एवं प्रतिज्ञा वर्ण, प्राहार व उनके रहने के स्थान २ जम्बुद्वीप की परिधि और प्राकार का प्रादि का वर्णन परिमाण ३२. | १६ कुभोगभूमिमें कौन जीव उत्पन्न होते हैं ? ३३५ ३ प्राकार स्थित वेदिका का निरूपण ३२० | २० लवण समुद्र के अन्य चौबीस द्वीप ४ चारों दिशानों में स्थित द्वारों के नाम, | २१ कालोदधि समुद्र के २४ द्वीप ३२६ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ सं० ३४१॥ [ ३६ ] क्रम सं० पृष्ट सं० ! क्रम सं० २२ लवरणसमुद्र का अवगाह और उसकी ४० पश्चिम धातकी खण्ड की व्यवस्था ३५३ सूक्ष्मपरिधि का प्रमाण ३३७ | ४१ धातकीखण्डस्थ यमगिरि आदि पवंतों २३ घातकोखण्डस्थ मेरुपर्वतों का प्रवस्थान ३३६ | की संख्या ३५३ २४ धातकी वण्डके पर्वत अवरुद्ध क्षेत्र का | ४२ धातकीखंडस्थ भोगभूमियों. कर्मभूमियों, प्रमाण पर्वतों, नदियों एवं ब्रहादिकों की संख्या २५ धातकी खण्डस्थित क्षेत्रों एवं पर्वतों का व अधिपति देव ३५४ विष्कम्भ ३४१ | ४३ कालोदधि समुद्रका विस्तृत वर्णन ३५५ २६ हृद, कुण्ठ और नदियोंके विस्तार का ४४ पुष्कर द्वीप का विस्तृत वर्णन निरूपण ४५ पुष्करार्धद्वीप का सूचो व्यास, परिधि २७ छातकी खण्डस्थ सरोवरों का व्यास ३४४ और पर्वत अवरुद्ध क्षेत्र का प्रमाण ३५७ २८ , , कुण्डों का व्यास ४६ पुष्कराधं स्थित १२ कुलाचलोंके व्यास २६ . गंगादि नदियों का प्रादि का प्रमाण ३५८ पर्वतों पर ऋजु प्रवाह का प्रमाण ४७ पुष्करार्ध स्थित क्षेत्रोंका प्राकार व व्यास ३५६ ३० गंगा, सिन्धु आदि नदियों के निर्गम ४१ पुरुक राधं स्थित सरोवरों, नदियों, कुण्डों, स्थानों का व्यास | वनों व गजदन्तों का व्यास ३६१ ३१ घातकीखण्डस्थ पूर्वविदेह के मेरुपर्वत ४६ देवकुरु-उत्तरकुरु के बाण तथा उभय का प्रमाण विदेह, वक्षार पर्वत, विभंगा नदी और ३२ विजयमेरु पर्वत के सम्पूर्ण विष्कम्भ एवं देवारण्य-भूतारण्य के व्यास का प्रमाण ३६३ परिधियों का प्रमाण ३४६ | ५० वक्षार, देश, देवारण्य प्रादि वन तथा ३३ भद्रशाल बन, गजदन्त और देवकूरु विभंगा नदियों के पायाम व उसमें उत्तरकुरु का प्राथाम ३४६ हानि वृद्धि का प्रमाण ३४ धातकी वृक्षों को अवस्थिति, विदेहक्षेत्र ५१ पुष्करार्धस्थ समस्त विजयाओं के व्यास के विभाग व नाम ६४६ मादि का प्रमाण ३५ देशों के खण्ड एवं कच्छादि देशों का ५२ गंगादि क्षुल्लक नदियों के और कुण्डों विस्तार के व्यास का प्रमाण ३६ धातकी खण्ड विदेहस्थ वक्षार पर्वतों ५३ पुष्कराचंद्वीपस्थ वृक्ष, पर्वत, वेदी कुण्ड का मायाम और द्वीप के रक्षकदेव ३७ देवारण्य-भूतारण्य वनों का आयाम ३५१ | ५४ अढ़ाई द्वीपस्थ पर्वातों और नदियों की ३८ विभंगा नदियों का प्रायाम ३५१ एकत्र संख्या ३६ कुण्डों, विजया पर्वतों, गंगादि ६४ ५५ सभी विदेहस्थ प्रार्य खंडोंको विशेषताएँ ३६८ नदियों का विस्तार ३५२ | ५६ मानुषोत्तर पर्वत का विस्तृत वर्णन ३७० ३६४ 3XR ३६३ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ सं० ३८६ --- ३७५ - - ३७६ - [ ३७ ] क्रम संग पृष्ठ सं० | श्रम सं० ५७ ढाई द्वीपके पागे मनुष्य नहीं; केवल ७४ अन्तिम द्वीप एवं समुद्र का नाम, अवतिर्यञ्च हैं। ३७१ स्थान तथा व्यास ५८ पुष्करवर द्वीप के आगे के द्वीप समुद्रों ७५ मागेन्द्र पर्वत, तिर्यग्लोकके अन्तमें प्रव__ के नाम व स्वामी स्थित कर्मभूमि और उसमें रहने वाले ५६ नन्दीश्वर नाम के अष्टम द्वीप की अव तिर्यचों का कथन ३८७ स्थिति ७६ बाह्य पुष्कराध रक्षकदेव और मानुषो६. अंजनगिरि पर्वत और वापिकाओं का तर पर्वत की परिधि का प्रमाण ३८८ अवस्थान ३७४ | ७७ महामत्स्यों का व्यास ६१ सोलह वापिकानों के नाम और उनके | ७८ एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीवों के स्वामी शरीर का प्रायाम ६२ दधिमुख पर्वतों की संख्या, अवस्थान, ७६ समुद्रों के जलों का स्वाद वर्ण और व्यास | ८० स्वयम्भूरमण समुद्र का व्यास ३६२ ६३ रतिकर पर्वतों एवं सब जिनालयों का ८१ उपसंहार वर्णन ८२ अधिकारान्त मंगलाचरण ६४ प्रशोक आदि बन एवं चैत्य वृक्ष ६५ वन स्थित प्रासादों व अष्टाह्निकी पूजा एकादश अधिकार __ का वर्णन (जीवों के भेद-प्रमेदों का वर्णन) ६६ इन्द्रों द्वारा एक ही दिन में चारों १ मंगलाचरण ३६४ दिशाओं की पूजन का विधान २ जीव के भेद और सिद्ध जीव का स्वरूप ३६४ ६७ नन्दीश्वर द्वीप के स्वामी ३६१ ३ स्थावर जीवों के भेद ३६४ ६८ नन्दीश्वर समुद्र की एवं दो द्वीपों की। ४ जीवों की कुल योनियां अवस्थिति ५ पृथ्वी के चार भेद' और उनके लक्षण ३६५ ६६ कुण्डलद्वीपस्थ कुण्डलगिरि के व्यास का ६ जल, अग्नि और वायु के चार-चार भेद ३६६ ३८२ प्रमाण ७० कुण्डल गिरिस्थ कूटोंका अवस्थान, संख्या ७ वनस्पति के भेद और लक्षण ३६७ व व्यास ३८२ | ८ पंच स्थावरों के चेतन/अचेतन भेद ३९७ ७१ शंखवरद्वीप और हमकद्वीपको अवस्थिति ३८३ ९ मृदु पृथ्वी का यिक जीधों के भेदों का ७२ रुचकगिरि पर स्थित कूटोंका प्रवस्थान, निरूपण संख्या और स्वामी ३८४ | १० खर पृथ्वी के भेदों का निरूपण ३९८ ७३ कुछ द्वीप समुद्रों के नाम एवं उनकी ११ पृथ्वोकायिक पृथ्वी से बने हुए पर्वत अकृत्रिमता ३.६ एवं प्रासादों का कथन ३६१ ३७E - - - ३७६ । - - --- - -- ३६६ - ----- Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ i- india.'... -. .-... ---. . . . ४३१ .. . .:- " |... --- [ ३८ ] क्रम सं० पृष्ठ सं० । क्रम सं. पृष्ठ सं० १२ जल कायिक जीवोंके भेदों का प्रतिपादन ३६६ ३८ जीवों की गति-प्रागति का प्रतिपादन ४२६ १३ अग्निकायिक जीवों का प्रतिपादन ४०० | ३६ धर्म प्राप्ति के लिये जीवरक्षा का उपदेश ४२८ १४ वायुकायिक जीवों के स्थानों का वर्णन ४०१ | ४० अधिकारान्त मंगल ४२८ १५ वनस्पतिकायिक जीवों के भेद द्वादश अधिकार/चतुर्निकाय के देवों १६ साधारण बनस्पतिकायिक जीवों के का वर्णन भवनवासी देव लक्षण ४०३ १ मगलाचरण १७ स्कन्ध, अण्डर आदि का प्रतिपादन २ देवों के मूल चार भेद और उनके स्थान ४३० १८ बादर अनन्तकाय जीव ३ भवनवासी देवों के स्थान १६ साधारण, प्रत्येक, सूक्ष्म एवं बादर ४ उनका प्रमाण ४३२ जीवोंके लक्षण और उनके निवास क्षेत्र ४०५ ५ उनकी दश जातियां और उनकी कुमार २० त्रस जीवों के भेद ४०६ संज्ञा की सार्थकता २१ जोवों की कुलकोटियां ६ असुरकुमारादि देवों के वर्ण और चिह्न ४३२ २२ योनियों के भेद-प्रभेद, आकार और ७ भवनबासी देवोंके भवनोंकी पृथक् पृथक स्वामी ४०८ संख्या २३ जीवों के शरीरों को अवगाहना ८ दस कुल सम्बन्धी २० इन्द्रों के नाम, २४ जीवों के संस्थानों का कथन ४११ उनका दिशागत अवस्थान और प्रतीन्द्रों २५ जीवों के संहननों का विवेचन ४११ की संख्या २६ जीवों के वेदों का कथन है दक्षिणेन्द्रों और उत्तरेन्द्रों के भवनों की २७ जीवों की उत्कृष्ट और जघन्य प्रायु ४१३ संस्था ४३५ २८ स्पर्शन आदि पांचों इन्द्रियों की प्राकृति ४१४ | १० भवनों का प्रमाण तथा कल्पवृक्षों का वर्णन २६ इन्द्रियों के भेद-प्रभेद ४१५ ३० पांचों इन्द्रियों के विषयों का स्पर्श ४१५ ११ मानस्तम्भों का वर्णन १२ इन्द्रादिक के भेद ४३७ ३१ एकेन्द्रियादि जीवोंकी संख्या का प्रमाण ४१७ १३ इन्द्रादिक पदवियों के दृष्टान्त ३२ जीवों के प्रमाण का अल्पबहुत्व ४१६ ३३ नरकति अपेक्षा अल्पबहृत्व १४ लोकपालों का अवस्थान ४२० ३४ तियंञ्चगति अपेक्षा अल्पबहुत्व १५ प्रत्येक इन्द्र के त्रायस्त्रिंश, सामानिक और अंगरक्षक देवों को संख्या ४३६ ३५ मनुष्यगति अपेक्षा अल्पबहुत्व | १६ पारिषद देवों की संख्या ३६ देवगति अपेक्षा अल्पबहुत्व ४२३ | १७ अनीक देवों के भेद और चमरेन्द्र के ३७ जीवों को पर्याप्ति और प्राणों का कथन ४२५ | का कथन ४२५ । महिषों की संख्या ४३६ ४३८ ४३८ ४२२ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भेद ४६० [ ३६ ] क्रम सं० पृष्ठ सं० । क्रम सं. पृष्ठ सं० १८ चमरेन्द्र के अनीकों को सम्पूर्ण संख्या ५ किन्नर और किम्पुरुष कुलों के अवान्तर - और वरोधन के महिषों की संख्या ४४३ । १६ भूतानन्द को सातों अनीकों व धरणा- ६ अन्य देवों के प्रवान्तर नाम नन्द' की प्रथम अनीक की संख्या ४४५ ७ प्रत्येक कुल के इन्द्र, प्रतीन्द्र और २० प्रत्येक इन्द्र की अनीकों का एकत्र योग ४४६ | बल्ल भिकाएँ ४५६ २१ असुरकुमारादि देवोंको देवांगनाओं का ८ व्यन्तर देवों के निवास स्थान और प्रमाण ४४६ __उनके पुर २२ चमरेन्द्रादि इन्द्रों के पारिषद, अंगरक्षक है प्राकार, द्वार, प्रासाद, सभामण्डप एवं और अनीक प्रादि देवांगनाओंका प्रमाण ४४७ चैत्य वृक्ष ४६२ २३ असुरेन्द्र प्रादि दसों इन्द्रों को प्रायु का १० चैत्य वृक्षों में स्थित प्रतिबिम्ब और कथन मानस्तम्भ ४६ २४ इन्द्रादिकों की और उत्तरेन्द्रों की आयु । ११ वनों एवं नगरों का कथन का निरूपण १२ किन्नर आदि सोलह इन्द्रों की ३२ २५ चमरेन्द्र आदि इन्द्रों की देवांगनाओं गरणका महत्तरों के नाम ४५० १३ ध्यन्तर देवोंके नगरों एवं कूटोंका प्रमाण ४६५ २६ चमरेन्द्र प्रादि' इन्द्रों के अंगरक्षकों, सेना १४ क्यन्तर देवोंके निवासस्थानों का विभाग ४६६ महत्तरों व अनीक देवों की प्रायु १५ व्यन्तरेन्द्रों के परिवार देवों का विवेचन ४६७ २७ चमरेन्द्र प्रादि इन्द्रों के पारिषद् देयों १६ नित्योपपादादि वानव्यन्तर देबों का निवास क्षेत्र २८ असुर कुमार आदि इन्द्रों के शरीर की १७ व्यन्तर देवों की जघन्योत्कृष्ट प्रायु. प्रवऊँचाई, उच्छ्वास एवं आहार का क्रम ४५२ गाहना, पाहार, श्वासोच्छ वास और २६ भवनवासी देवों के प्रवधिज्ञान का क्षेत्र ४५३ अवधिज्ञान के विषय का प्रमाण ३० इन्द्रों की परस्पर स्पर्धा ४५४ १८ करणानुयोग पठन की प्रेरणा ३१ सिद्धान्तसार रूप श्रुतको पढ़नेकी प्रेरणा ४५४ १६ अधिकारान्त मंगल ४७१ ३२ अधिकारान्त मंगल ४५४ चतुर्दश अधिकार ज्योतिषी देवों का वर्णन प्रयोदश अधिकार व्यन्तरदेवों का वर्णन १ मंगलाचरण १ मंगलाचरण एवं प्रतिज्ञा ४५६ २ ज्योतिषी देवों के भेदों का प्ररूपण २ व्यन्तर देवों के पाठ भेद ४५६ | ३ ज्योतिर्देवों के स्थान का निर्देश ३ व्यन्त र देवों के शरीर का वर्ण ४५७ ४ ज्योतिविमानों का स्वरूप ४७५ ४ उनके मुख्य पाठ कुलों के अवान्तर भेद ४५७ । ५ उनके व्यास का प्रमाण ४७५ की आयु की आयु ४७० Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम सं० ६ सूर्यचन्द्र ग्रादि ग्रहों की किरणों का प्रमाण [ ४० ] पृष्ठ सं० ४७७ ૪૨ ४८२ ७ तारागणों का ति मन्तर, चन्द्र सूर्य ग्रहण का कारण एवं चन्द्रकलायों में हानि - वृद्धि का कारण चन्द्रादिक ज्योतिषी देवों के विमान वाहक देवों का श्राकार और संख्या ६ मनुष्यलोक में स्थित चन्द्र-सूर्यो की संख्या ४८१ १० एक चन्द्र के परिवार का निरूपण ११ जम्बूद्वीपस्थ भरतादि क्षेत्रों और कुचलों की ताराओं का विभाजन १२ श्रढ़ाई द्वीपस्थ प्रत्येक द्वीप के ज्योतिविमानों की पृथक् पृथक् संख्या १३ चन्द्रमा के अवशेष परिवार देवोंके नाम नृलोक में ज्योतिर्देवोंका गमन क्रम और मानुषोत्तर के आगे ज्योतिर्देवों की श्रवस्थिति २१ प्रत्येक नक्षत्र के तारायों की संख्या तथा परिवार ताराओं का प्रमाण प्राप्त करने की विधि ४७८ ४८२ ४५४ ४८३ १४ मनुष्यलोक की ध्रुवताराओंका प्रमाण ४८६ १५ मेरुसे ज्योतिष्क देवोंकी दूरी का प्रभाररा उनके गमन का क्रम, एक सूर्य से दूसरे सूर्य का एवं सूर्य से वेदी के अन्तर का प्रभारण ४८६ ४९१ १६ मानुषोत्तर पर्वत के बाह्यभाग में सूर्यचंद्र प्रादि ग्रहों के अवस्थानका निर्धारण ४८८ १७ प्रत्येक द्वीप समुद्र में वलयों का प्रमाण १० सूर्यचन्द्रक चार क्षेत्रोंका प्रमाण, उनका विभाग एवं उनकी वोथियों का प्रमाण ४६१ १९ सूर्य चन्द्र के गमन का प्रकार ४६४ २० अट्ठाईस नक्षत्रों के नाम ४६५ ४६५ क्रम सं० २२ जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट नक्षत्रों के नाम व संख्या २३ ताराओं के प्राकार विशेष २४ ज्योतिषो देवों की उत्कृष्ट और जघन्य प्रायु २५ सूर्यचन्द्र को पट्ट देवियां, परिवार देवियां एवं उनकी श्रायु का प्रभारण पृष्ठ सं० २६ ज्योतिष्क देवोंके श्रवधिक्षेत्र और भवनत्रिक देवों के गमनक्षेत्र का कथन २७ ज्योतिष्क देवों के शरीर का उत्सेध, निःकृष्ट देवों की देवांगनाओं का प्रमाण प्रोर भवनत्रय में जन्म लेनेवाले जीवों का श्राचरण २८ करणानुयोग के शास्त्रों के अध्ययन की प्रेरणा २६ अधिकारान्त मंगलाचरण पञ्चदश अधिकार / ऊर्ध्वलोक वर्णन १ मंगलाचरण २ सोलह स्वर्गों के नाम और उनका श्रवस्थान ३ इन्द्रों का प्रमाण ४ इन्द्रों के नाम और उनकी दक्षिणेन्द्र संज्ञा का विवेचन ४६७ ૪૨૭ ૪£ ૪૨T ५०० ५०१ ५०१ ५०२ ५०३ ५०३ ५०४ ५०४ ५ कल्प-कल्पातीत विमानों का और सिद्धशिला का अवस्थान ६ मेरुतल से कल्प और कल्पातीत विमानों का प्रवस्थान ५०५ ७ पटलों का प्रमाण ५०६ ८ सौधर्मादि स्वर्गो के विमानों का प्रमाण ५०७ ६ सोलह स्वर्गी के इन्द्रक विमानों के नाम ५०८ ५०४ 1 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ सं० ५२१ [ ४१ ] क्रम सं० पृष्ठ सं० | क्रम सं० १० ऋतु इन्द्रक की अवस्थिति एवं इन्द्रों के |३१ दक्षिणेन्द्र और उत्तरेन्द्र के अनीक नायकों स्वामित्व की सीमा के नाम ५३५ ११ इन्द्रक विमानों का प्रमाण ५११ | ३२ नव स्थानों में तीनों परिषदों का पृथक १२ श्रेणीबद्ध विमानों के प्रवस्थान का पृथक् प्रमाए स्वरूप ५१३ | ३३ वनों के नाम तथा उनका प्रमाण, त्य१३ प्रकीरगंक विमानों का स्वरूप और स्वरूप ५४० अवस्थान ५१४ | ३४ लोकपालों के नाम, उनके नगरों का १४ इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक विमानों | स्वरूप एवं प्रमाण ५४० __ के प्रमाण का कथन ५१७ ३५ गणिका महत्तरियों के नाम एवं उनके १५ विमानों के प्राधार स्थान का निरूपण ५२० प्रावासों के प्रमाण ५४१ १६ स्वर्गस्थ विमानों का वर्ण । ५२० ३६ इन्द्रों की वल्लभानोंका प्रमाण एवं उनके १९७ प्रथम इन्द्र कके एक दिशा संबंधी श्रेणी प्रासादों की ऊँचाई आदि का प्रमाण ५४२ बद्ध विमानों का प्रवस्थान ३७ प्रत्येक इन्द्र की आठ-पाठ महादेवियां १८ दक्षिणेन्द्र और उत्तरेन्द्र के विमानों का उनकी बिक्रियागत देवांगनाएँ व विभाग ५४४ परिवार देवांगनाएँ ५२२ १६ इन्द्र स्थित थेगीबई विमानों का कथन ५२३ ! ३८ समस्त महादेवियोंके प्रासादों की ऊँचाई २० सौधर्मादि देवोंके मुकुट चिह्न आदि का प्रमाण ५४६ ३६ इन्द्र के पास्थान मण्डप का अबस्थान २१ इन्द्रों के वाहनों का निरूपरण एवं प्रमाण ५४७ २२ प्रमुख विमानों की चारों दिशाओं में स्थितविमानोंके नामों का निरूपण । ५२६ ४० प्रास्थान भण्डप के द्वार, उनका प्रमाण एवं इन्द्र के सिंहासन का अवस्थान ५४५ २३ विमानों के तल बाहुल्य का निरूपण ५२७ ४१ महादेवियों के, लोकपालों के और अन्य २४ सौधर्मादि इन्द्रों के नगरों का विस्तार ५२८ । देवों के सिंहासनों का अबस्थान ५४८ २५ नगरों के प्राकारों की ऊँचाई ५२६ | ४२ प्रास्थान मण्डप के पागे स्थित मान२६ प्राकारा का नाब भार व्यासका प्रमाण १२६ । स्तम्भ का स्वरूप व प्रमाण ५४६ २७ सौधर्मादि बारह स्थानों में ग्रहोंको स्थिति ५३१ | ४३ इन्द्रों की उत्पत्ति गृह का अवस्थान ५५२ २८ इन्द्र के नगर सम्बन्धी प्राकारों की संख्या ४४ कल्पवासी देवांगमानों के उत्पत्तिस्थान ५५२ और उनके पारस्परिक अंतरका प्रमाण ५३३ ४५ कल्पवासी देवों के प्रवीचार का कथन ५५३ २६ कोटों के अन्तरालोंमें स्थित देवों के भेद ५३४ | | ४६ वैमानिक देवों के अवधिज्ञान का विषय, ३० सामानिक, तनुरक्षक और अनीक देवों क्षेत्र एवं विक्रिया शक्ति में प्रमाण का का प्रमाण कथन ५२५ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६१ ५६४ [ ४२ ] क्रम सं. पृष्ठ सं० क्रम सं० ४७ वानिक देवों के जन्म मरण के अन्तर ६५ इन्द्रादि देवों द्वारा की जाने वाली का निरूपण ५५५ जिनेन्द्र पूजा ५७७ ४८ इन्द्रादिकोंके जन्ममरण का उत्कृष्ट अंतर ५५६ / ६६ मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि की पूजन के ४६ देव विशेषों के अन्तिम उत्पत्ति स्थानों ___अभिप्राय में अन्तर तथा सम्यक्त्व प्राप्ति का प्रतिपादन ५५७ का हेतु ५० प्रथमादि युगलों में स्थित देवों की ६७ अकृत्रिम-वात्रिम जिनबिम्बों के पूजनस्थिति विशेष ५५७ मर्चन का वर्णन ५७६ ५१ देबों में घायु की हानि एवं वृद्धि के |६८ इन्द्रादि देवोंके इन्द्रियजन्य सुखोंका वर्णन ५८० कारण तथा आयु का प्रमाण | ६६ किन क्रियानों द्वारा स्वर्गादि सुखों की ५२ कल्पवासो देवांगनाओं की उत्कृष्ट प्रायु प्राप्ति होती है ? का प्रमाण ७० कौन-कौन से जीव किन-किन स्वर्गों तक ५३ देवांगनाओं की (अन्य शास्त्रोक्त) उत्पन्न होते हैं ? ५८२ उत्कृष्ट प्रायु ७१ स्वर्गों से च्युत होने वाले देवों को प्राप्त ५४ देवों के शरीर का उत्सेध गति का निर्धारण ५८३ ५५ वैमानिक देवों के प्राहार एवं उच्छवास ७२ स्वर्गस्थित मिथ्यारष्टि देवोंके मरणचिह्नः के समय का निर्धारण । उन्हें देखकर होने वाला प्राध्यान और ५६ लौकान्तिक देवों के अवस्थान का स्थान उसका फल ५८४ एवं उनकी संख्या का प्रतिपादन ५६७/७३ मरणचिह्नों को देखकर सम्यग्दृष्टि देवों ५७ लोकान्तिक देवों के विशेष स्वरूप का | का चिन्तन ५८५ एवं उनकी आयु का प्रतिपादन ५६६ | ७४ धर्म के फल का कथन तथा व्रत-तप ५८ किस-किस संहनन वाले जीव कहाँ तक आदि करने की प्रेरणा ५८७ उत्पन्न होते हैं ? ५७१ | ७५ धर्म की महिमा ५८७ ५६ वैमानिक देवों की लेश्या का विभाग ५७१ | ७६ अधिकारान्त मंगलाचरण ५८७ ६० वैमानिक देवों के संस्थान एवं शरीर षोडश अधिकार/पन्यादि मान वर्णन को विशेषता ५७२ ६१ देवों की ऋद्धि प्रादि का वर्णन ५७३ १ मङ्गलाचरण ५५६ ६२ वैमानिक देवों का विशेष स्वरूप एवं २ अष्टम पृथ्वी की अवस्थिति और उसका उनके सुख का कथन ५७३ प्रमाण ६३ उत्पन्न होने के बाद देवगण क्या-क्या ३ सिद्ध शिला की अवस्थिति, प्राकार एवं विचार करते हैं, ५७४ प्रमाण ५८६ ६४ पूर्वभव में किये हुए धार्मिक अनुष्ठान ४ सिद्ध भगवान् का स्वरूप ५६० श्रादि का तथा धर्म के फल का चिंतन ५७५ । ५ सिद्धों के सुखों का वर्णन ५९० ५६५ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६ [ ४३ ] म सं. पृष्ठ सं० । क्रम सं० पृष्ठ संग अधोलोकजन्य प्रत्येक भूमिका भिन्न-भिन्न १६ काल मान के प्रमाण का दिग्दर्शन ६०५ घनसम ६६ २० व्यवहार काल के भेदों में से पूर्वाग ७ प्रत्येक स्वर्ग का भिन्न-भिन्न धनफल ५६२ यादि के लक्षगा ५ लोक और लोकोत्तर मानों का वर्णन ५६३ | २१ भाव मान का वर्णन ९ द्रव्यमान के भेद-प्रभेद ५९४ | २२ ग्रन्थ रचना का आधार १० उपमा मान के पाठ भेद ५६६ } २३ ग्रन्थ के प्रति आशीर्वचन ११ व्यवहार पल्य और उसके रोमों की २४ ग्रन्थ के स्वाध्याय से फल प्राप्ति सख्या २५ शास्त्र श्रवण करने का फल १२ उद्धार पल्य और द्वीप समुद्रोंका प्रमाण ६०० २६ शास्त्र लेखन का फल १३ प्राधार (अद्धा) पल्य एवं प्राधार सागर २७ शास्त्र लिखवाने का फल ६१२ का प्रमाण २८ शास्त्र अध्ययन कराने का फल ६१३ १४ सून्य मुलसे लेकर लोक पर्यंतका प्रमाण ६०२ २६ इस ग्रन्थ की रचना करक प्राचार्य श्री १५ अणु का लक्षण व अंगुल पर्यन्त मापों क्या चाहते हैं ? ६१३ का प्रमाण ६०३ ३० प्राचार्य श्री की मंगल याचना १६ अंगुलों के भेद और उनका प्रमाण ६०४ ३१ सिद्धान्तग्रन्थ की वृद्धि की वाञ्छा ६१४ १७ किन अंगुलों से किन-किन पदार्थों का ३२ कुल श्लोक संख्या को सूचना ___ माप होता है ? १८ क्षेत्रमान का ज्ञापन कराने के लिये मान का प्रमाण ६१२ ६०१ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धि-पत्र अशुद्ध सममघापि कारणों (पड़त) आत्मक प्राकार तमिधः पथ्वियों क्रोशार्धाधिक मघा व्यास क्षेत्र मघवी पृथ्वी वाला सममद्यापि करणों (पडतात्मक) पाकर तमिस्रः पृश्वियों क्रोशार्धाधिक मेघा व्यात क्षेत्र २०॥ वाली भवप्रत्यय स्तद्विहान्य शिवाय बह्वचः उद्यत होते भाड़ भर्त्सना स्वयमागत्य तीतोष्णा ...म्ब रात भवप्रयय स्तविहान्य शिवाप्त्य बह्वयः उद्धत हाते भार मत्स्ना स्वयमागत्यतीवोष्णा. --"5बरात् ततो २१०५२६३१ १४ ततो तालिका/भरत २१०५२६३ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ { ४५ ] पंक्ति अशुद्ध और १४४७१११ शुद्ध और पूर्व १४४७१ १८ यो० कोस ३ उत्तरभरत १हिमवन् तालिका, श्रीदेवी १७३ यो० व्याप्त १०४ ११२ १२५ १२६ १४७ १५१ कोस व्यास गंगानदियों शालामुलक पंक्त्यः विषयाशक्त बादियों २१ १७२ १७२ १७७ १७६ आदि को सद्धहस्ता छोटा चैत्यालयों कुटों का निहार बाह्य परिषद शोभायमान उन्नत चतुःषष्ठि गंगादिनदियों शालाढालकपंक्त्यः विषयासक्त वादित्रों २०००० को प्रादि सद्धस्ता छोटी चैत्यालयों को कट की नीहार बाह्यपारिषद शोभायमान चतुःषष्टि १६३ २०० २०२ नाम के नाम को २२१ २२२ २३१ २३५ प्रदेश परांति की क्रमशः ततोत्पर विरहन्ति विभाडाख्या के ज्ञान २४८ प्रबेश पराडिन की ऊंचाई क्रमशः ततोऽपर विहरन्ति विभङ्गाख्या को ज्ञान वृद्धि सहस्रसंख्यया २५२ बुद्धि २६६ २७५ सहस्रसंखयया Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४६ । पृष्ठ पंक्ति १३ २११ अशुद्ध किया गया था पद्यप वक्तृश्रोतृयत्पाद्य स्याज्जरासंघो विषयाशक्ति अर्थ:- xxx ३ ३०१ किया था पद्मप्रभु वक्तृश्रोतृयत्याद्य स्थाजरासिन्धो विषयासक्ति ऋषभनाथ के काल में पृथ्वीपर भीम और बलि ये दो रुद्र हुए नरवाङ्गिनाम् . m नराकाङ्गिनाम् २७ - vir or mrr दो ३४८ ३५२ ३८० ४०१ ४०३ ४१६ ४२३ O IN भोगक्रुभूमिज कुभोगभूमिज कहा गई कहा गया दो-दो ५२६६०६१ ५२६०६ENE पूर्वोक्तप्रमाण ( ) पूर्वोक्त प्रमाण (१० यो.) सहेरे सहस्र जिननिां जिना नां धत वारिधी घृतवारिधी तथा अपने मन वचनको गुद्ध करके पढ़े। अनिल योनियों अनल योनियों वल्जी बल्ली भवनवासियों देवगति देवगति की पर्यापपर्याप्त पर्याप्तापर्याप्त पर्यापापात पर्यापता विरच्यते विरचिते वेतयोवृक्षोऽग्निसङ गुः बेतसोवृक्षोऽप्रियङ गुः प्राधाश्च प्राद्याश्व कहते करते ar ४२८ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ପୃଥ ४६३ ४६३ YEL ५०१ ५०४ ५१७ ५२६ ५३१ ५३५ ५५४ ५६४ *૭૪ ५७६ ५८६ ६१३ पंक्ति ६ १६ २४ १,१४ २१ २५. १२ ७ ५ ६ ३ १७ १८ २२ १७ [ ४७ ] अशुद्ध १२३ योजन चौड़े अष्टांहिपा तिस्रस्त्रिस्त्रस्तु संशक्ता भवातारी राशि योजनां योजनां प्रादिचार विक्रिया शक्ति में मध्येऽनोय पूर्वोजित विभूति श्रष्ट किसी पुण्य रूप सते शुद्ध १२३ योजन लम्बे अष्टांघ्रिपा तिस्रस्तिस्रस्तु संसक्ता भवावतारी विमान राशि योजनानां योजनानां आदि के चार विक्रियाशक्ति के मध्येऽनये पूर्वार्जित विभूति सहित श्रष्ट पुण्यरूप किसरे ते सर्वे Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगलाचरण ॐ नमः सिद्ध भ्यः ! ॐ नमः सिद्ध भ्यः !! ॐ नमः सिद्ध भ्यः ! ! ! ॐ कारं बिन्दुसंयुक्त, नित्यं ध्यायन्ति योगिनः । कामदं मोक्षदं चैव, ओंकाराय नमो नमः ।। अविरलशब्दघनौघप्रक्षालितसकल भूतलमलकलंकाः । मुनिभिरुपासिततीर्था सरस्वती हरतु नो दुरितान् ।। अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानाजनशलाकया। चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः ।। श्री परमगुरवे नमः, परम्पराचार्य गुरवे नमः । सकलकलुषविध्वंसकं, श्रेयसां परिवर्द्ध' कं, धर्मसम्बन्धक, भव्यजीवमन: प्रतिबोधकारकमिदं शास्त्रं "श्री सिद्धान्तसार दीपक" नामधेयं, एतन्मूलग्रन्थकर्तारः थी सर्वज्ञदेवास्तदुत्तरग्रन्थकर्तारः श्रीगणवरदेवाः प्रतिगणधरदेवास्तेषां वचनानुसारतामासाद्य पूज्य भट्टारक श्री सकलकोतिविरचितम् इदं शास्त्र । वक्तारः श्रोतारश्च सावधानतया धृण्वन्तु । मङ्गलं भगवान् वीरो, मङ्गलं गौतमो गणी। मङ्गलं कुन्दकुन्दाद्यो, जैनधर्मोऽस्तु मङ्गलम् । सर्वमङ्गलमाङ्गल्यं, सर्वकल्याणकारकम् । प्रधानं सर्वधर्माणां, जैन जयतु शासनम् ।। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ नमः सिभ्यः भट्टारक सकलकीर्ति विरचित सिद्धान्तसार दीपक । अपर नाम-त्रिलोकसार दीपक ) सर्व प्रथम ग्रन्थ की प्रादि में भट्टारक सकलकीाचार्य मङ्गलाचरण करते हुये कहते हैं कि श्रीमन्तं त्रिजगन्नाथं सर्वशं सर्वदशिनम् । सर्वयोगीन्द्रबन्धाघ्रि वन्दे विश्वार्थदीपकम् ॥१॥ अर्थ:- जो अनन्तचतुष्टयरूप अन्तरङ्ग और अष्टप्रातिहार्यरूप बहिरंग लक्ष्मी से युक्त हैं, सर्वज्ञ हैं, सर्वदर्शी हैं, समस्त योगिराजों के द्वारा जिनके चरण बन्दनीय हैं तथा जो विश्व के पदार्थों को प्रकाशित करने के लिये दीपक हैं ऐसे तीन लोक के नाथ जिनेन्द्र भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ ॥शा अब आदि जिनेन्द्र श्री ऋषभदेव का स्तवन करते हैं विव्येन ध्वनिना पेन कालादौ धर्मवृत्तये । लोकालोकपदार्थोंघा विश्वत स्वादिभिः समम् ॥२॥ प्रोक्ता मार्यगणेशादीनग्न तं जिनेशिनाम् । विश्वार्य विश्वकर्तारं धर्मचक्राधिपं स्तुवे ॥३॥ अर्थ:-जिन्होंने युम के प्रारम्भ में ( तृतीयकाल के अन्त में ) धर्म की प्रवृत्ति चलाने के लिये दिव्यध्वनि के द्वारा आयंगराधरादिकों को समस्त तत्वों के साथ लोक अलोक के पदार्थ समूहका १ गणेशिनाम् अ. Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ ] सिद्धान्तसार दीपक उपदेश दिया था, जो अन्य तेईस जीर्थङ्करों के अग्रज थे, विश्व के द्वारा पूजनीय थे, कर्म भूमिकी व्यवस्था करने से विश्व के कर्ता और धर्म चक्रके अधिपति थे उन प्रथम तीर्थङ्घर भगवान ऋषभदेवकी स्तुति करता हूँ ।।२-३।। आगे अष्टम तीर्थंकर थी चन्द्रप्रभ भगवान की स्तुति करते हैं प्रोणयित्वा जगभव्यान् यो ज्ञानामतवर्षणः । विश्वमुद्योतयामास कृत्स्नापूर्वभाषणः ॥४॥ जगदानन्दकर्तारं धर्मामृतपयोधरम् । नौमि चन्द्रप्रभं तं च योगिज्योतिर्गरणावृतम् ।।५॥ अर्थ:- जिन्होंने ज्ञानरूप अमृतको वर्षासे जगत्के भन्यजीवोंको सन्तुष्ट किया, सम्पूर्ण अङ्ग और पूर्व के व्याख्यानों द्वारा जगत् को प्रकाशित किया, जो सर्व प्रकार से जगत् में प्रानन्दके कर्ता एवं धर्मामृत को बरसाने के लिये मेघ स्वरूप हैं, तथा जो योगिराजरूप ज्योतिष्क देवों से सदा घिरे रहते हैं ऐसे उन चन्द्रप्रभ भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ ।।४-५|| ___अब कामदेव-तीर्थकर और चक्रवर्ती पद के धारक श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्र की स्तुति करते हैं यो दिव्यध्वनिनोच्छिद्य मोहस्मराक्षतस्करान् । कषायशत्रुभिः साद्ध व्यधाच्छान्ति जगत्सताम् ॥६॥ तं कामचक्रितीर्थेश-पदत्रितयभागिनस् । अनन्तद्विगुणाम्भोधि स्तौमि कर्मारिशान्तये ।।७।। अर्थ:-जिन्होंने अपनी दिव्यध्वनि के द्वारा जगत् के भव्यजीवोंके कषायरूप शत्रुओंके साथ साथ काम, मोह और इन्द्रियरूप चोरोंका विनाश किया और उन्हें शान्ति प्रदान की, तथा जो कामदेव, चक्रवर्ती एवं तीर्थङ्कर इन तीन पदों के भोक्ता हुये हैं, जो अनन्तऋद्धियों एवं गुणों के समुद्र हैं ऐसे उन सोलहवें तीर्थङ्कर श्री शान्तिनाथ भगवान् को मैं अपने ज्ञानावरणादि रूप कर्मशत्रुओं का विनाश करने के लिये नमस्कार करता हूँ ॥६-७॥ अब मोह तथा कामादि शत्रुओं को जीतने वाले श्री नेमिनाथ भगवान को नमस्कार करते हैं मोहकामाक्षशत्रूणां भङ्क्त्वा बाल्पेऽपि यो मुखम् । वैराग्यज्ञानमुत्पाद्य दुर्लभ संयमश्रियम् ॥८॥ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अधिकार गृहीत्वाहत्य कर्मारोन शुक्लध्यानासिमाकरोत् । मुक्तिस्त्री स्ववशे नौमि नेमिनाथं तमूजितम् ।।६।। अर्थः---बाल्य अवस्था में ही जिन्होंने मोह, काम और इन्द्रिय रूप शत्रुनों का मुख तोड़ कर वराग्य और शान के बल पर दुर्लभसंयमरूपी लक्ष्मीको धारण किया, शुक्लध्यानरूप तलवार से जिन्होंने कर्म शत्रुओंका सर्वथा विनाश कर मुक्तिरूपी स्त्री को अपने स्वाधीन बना लिया है उन विशिष्ट बलशाली नेमिनाथ भगवान् को मैं नमस्कार हूँ - पागे सर्व विघ्नों को नष्ट करने वाले श्री पार्श्वजिनेन्द्र की स्तुति करते हैं जिस्वा यो ध्यानयोगेन वैरिक्षेवकृतान परान् । घोरोपसर्गजालांश्च महाबाताम्बुवर्षणः ।।१०॥ चकार केवलज्ञानं व्यक्त विश्वासदीपकम् । स विश्वविघ्नहन्ता मे पाश्र्थोऽस्तु विघ्नहानये ।।११।। अर्थ:-जिन्होंने अपने वैरी देव ( कमठ के जीव ) द्वारा प्रचण्डवायु और वर्षाजन्य किये गये भयङ्कर उपसर्गों को अपने ध्यान के प्रभाव से जीतकर तीनकाल की पर्यायों से युक्त समस्त द्रव्यों को प्रकाशित करने वाले केबलशान को व्यक्त प्राप्त किया है, जिनके प्रभाव से संसार के समस्त विघ्न नष्ट हो जाते हैं ऐसे पाश्वनाथ भगवान मेरे विघ्नों की शान्ति करने वाले हों अर्थात् इस ग्रंथके निर्माण { या टीका ) करने में आने वाले मेरे सम्पूर्ण विघ्नों को नष्ट करें॥१०-११।। अब धर्मतीर्थ नायक श्री वर्धमान जिनेन्द्र को नमस्कार करते हैं येनोदितो द्विधा धर्मो यतिश्रावकसज्जनः । विश्वतस्वार्थसिद्धान्तः सममघापि वर्तते ॥१२॥ स्थास्यत्यग्रे च कालान्तं स्वमुक्तिश्रीसुखप्रदम् । वर्धमानं तमोडेऽहं वर्धमानगुणार्णवम् ॥१३।। अर्थ:--जिन वर्धमान जिनेन्द्र ने श्रावक और मुनिधर्म के भेद' से दो प्रकार के धर्मों का प्रतिपादन किया था वह सात तत्त्व और नव पदार्थ रूप सिद्धान्त के साथ आज भी विद्यमान है और आगे भी इस काल के अन्त पर्यन्त विद्यमान रहेगा, ऐसे स्वर्ग और मोक्ष के सुख प्रदान करने वाले उन वर्धमान गुणशाली श्री वर्धमान प्रभु की मैं स्तुति करता हूँ ।।१२-१३॥ आगे अजितनाथ प्रादि शेष तीर्थंकरों की स्तुति करते हैं Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ ] सिद्धान्तसार दीपक शेषा ये तीर्थकर्तारो महान्तो धर्मचक्रिणः । विश्वाय धर्मराजा वा त्रिजगद्धितकारिणः || १४ || लोकोत्तमाः शरण्याश्व विश्वमाङ्गल्यदायिनः । तेषां पादाम्बुजानू' स्तौमि जगद्वन्द्यांस्तदृद्धये ॥ १५ ॥ अर्थ:- शेष जो और तीर्थंकर हैं वे भी थन्तरङ्ग बहिरङ्ग लक्ष्मी के अधिपति होने से महान् हैं, धर्मचक्र के प्रवर्तक हैं। विश्वपूज्य एवं धर्म के सञ्चालक हैं, जो लोक में उत्तम एवं शररणभूत हैं, विश्व के पापहर्ता और सुख के दाता हैं ऐसे तीन लोकों के हितकारक उन समस्त तीर्थंकरों के जगद्वन्द नीय चरणों की मैं उनकी ऋद्धि प्राप्ति के निमित्त स्तुति करता है ॥ १४-१५।। अब विदेह क्षेत्र के विद्यमान सीमन्धर आदि तीर्थंकरों का स्तवन करते हैंattoriतृतीयेषु ये श्रीसीमन्धरादयः । वृता जनाधीशा मुक्तिमार्गे च निस्तुषम् ॥ १६॥ प्रवर्तयन्ति सद्धमं सर्वाङ्गार्थादिभाषणैः । वर्तमानाः सुराच्यस्ति स्तुता मे सन्तु सिद्धये ॥ १७ ॥ अर्थ:र्थ:- इस समय अढाई द्वीप में गरणधरात्रिकों के द्वारा पूजनीय विद्यमान सोमन्धर आदि तीर्थंकर हैं जो कि निष्कलङ्क मुक्ति मार्ग का प्रवर्तन कर रहे हैं, सम्पूर्ण ( १२ ) अंगों एवं सात तत्व नो पदार्थ आदि के उपदेशों द्वारा सद्धर्म का प्रचार कर रहे हैं तथा देव जिनकी पूजा करते रहते हैं, मैं सिद्धि प्राप्ति की कामना से उनकी स्तुति करता है ।।१६-१७।। तीन काल सम्बन्धी चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति करते हैं प्रन्ये तीर्थकृतो वा ये कालत्रितय सम्भवाः । ते मया संस्तुता बन्धा मे प्रवद्युनिजान् गुणान् ॥ १८ ॥ श्रर्थ:- इसी प्रकार त्रिकालवर्ती और भी जो तीर्थंकर हैं मैं उन सबकी वन्दना करता हूँ । स्तुति करता हूँ । मुझे अपने सम्यग्दर्शनादि सद्गुणों को प्रदान करें । श्रर्थात् जो गुण उनमें प्रगट हो | वे चुके हैं बे गुण मेरे में भी प्रगट हो जावें ऐसी भावना से मैं उनकी बन्दना और स्तुति करता है || १८ || १. वन्दे अ० २. सीमंधरः, युग्मंधरा, बाहु: सुबाहूः जम्बूद्वीपे । सुजातः स्वयंप्रभः, वृषभाननः ग्रनन्तवीर्थः, सौरप्रभः सुविशाल:, वज्रधरः चन्द्राननः एवं घातको खपडे । चन्द्रवाह, भुजंगनाथ, ईश्वरः, नेमिप्रभः वीरमेन, महाभद्रा, देवयशा: प्रतिवीर्यः पुष्करार्धी एवं २० । " Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - : - . - . ... प्रथम अधिकार आगे सम्यक्त्व प्रादि पाठ गुणों के स्वामी सिद्ध परमेष्ठी वा स्तवन करते हैं अष्टकर्मारिकायादीन् ये महाध्यानयोगतः । त्यक्त्वानन्तसुखोपेतं त्रैलोक्यशिखरं ययुः ।।१६॥ ताला महासिद्ध-स्त्रिजगन्नाथवन्दितान् । ध्येयानष्टगुणाधीशान स्मरामि हृदि सिद्धये ।।२०।। अर्थः-जो परमशुक्लध्यान के प्रभाव से अष्टकर्मरूपी शत्रुनों का विनाश और परमौदारिक शरीर का परित्याग कर अनन्त सुख सम्पन्न त्रैलोक्य शिखर पर जाकर विराजमान हो गये हैं, जिन्हें त्रिकालवर्ती समस्त तीर्थंकर देव नमस्कार करते हैं एवं को ध्यान करने योग्य हैं, अष्टकर्मों के विनाशसे जिन्हें शायि क-सम्यक्त्वादि पाठ गुण प्राप्त हो चुके हैं ऐसे उन अनन्त और महान् सिद्ध परमेष्ठियों का सिद्धि प्राप्ति की भावना से मैं अपने हृदय में ध्यान करता हूँ ।।१६-२०।। ____ अब छत्तीस गुणों के धारक प्राचार्य परमेष्ठी की स्तुति करते हैं पञ्चाचाराजगतख्यातान स्वमुक्तिश्रीवशीकरान् । स्वयं चरन्ति ये मुक्त्ये चारयन्ति च योगिनः ॥२१।। 'षत्रिंशत्सवगुणः पूर्णाः सूरयो विश्वबान्धवाः । तेषां पादाम्बुजानौमि शिरसाचारसिद्धये ॥२२॥ अर्थः-मुक्ति प्राप्ति की कामना से जगत्प्रसिद्ध पांच प्रकार के (प्राचारों दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चरित्राचार, तप प्राचार, वीर्याचार) का जो स्वयं पालन करते हैं और अन्य मुनिजनों को पालन करवाते हैं, जो स्वर्ग एवं मोक्ष लक्ष्मी को अपने स्वाधीन करने वाले हैं तथा जो छत्तीस गुणों से परिपूर्ण हैं ऐसे विश्वबन्धु रूप उन प्राचार्यों के चरण कमलों को मैं पांच प्राचारों की प्राप्ति के लिये मस्तक झुकाकर नमस्कार करता हूँ ।।२१-२२।। प्रागे अंग और पूर्वो के ज्ञाता उपाध्याय परमेष्ठी को स्तुति करते हैं येशपूर्वप्रकीर्णाधीस्तरन्ति शिवसिद्धये । स्वयं सद्बुद्धिपोतेन सारयन्ति च सन्मुनीन् ।।२३। रत्नत्रयतपोभूषा अज्ञानध्वान्तनाशिनः । तेषां पाठकपूज्यानां स्तोमि क्रमाम्बुजांश्चिदे ॥२४।। १. बारह तप छावासा पंचाचारा तहेव दह धम्मो । गुसितिए संजुता छत्तीस गुणा मुणेयब्दा । २. ग्यारह अंग वियाणइ चउदह पुवाइ रिणरवसेसाई । परणवीसं गुरगजुत्ता णाणाए तस उबभाया । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ ] सिद्धान्तसार दीपक अर्थ:-मुक्ति प्राप्ति के उद्देश्य से अपनी सदबुद्धि रूपी जहाज के द्वारा जो स्वयं अंग, पूर्व और प्रकीर्णक रूप समुद्र को पार कर देते हैं तथा अन्य मुनिजनों को भी पार कराते हैं, जो रत्नत्रय से विभूषित और अज्ञानान्धकार के विनाशक हैं ऐसे उन पूज्य पाठकों (उपाध्यायों) के चरणकमलों को मैं ज्ञानप्राप्ति के निमित्त नमस्कार करता हूं. उनकी स्तुति करता हूं ।।२३-२४॥ __ अब अात्म साधना में लीन साधु परमेष्ठी का स्तवन करते हैं त्रिकाले दुष्करं योगं वृष्टिशीतोष्णसंकुले । 'साधयन्ति स्वसिद्धय ये महान्तं भीरुमोतिदम् ॥२५॥ साधयस्ते मया वन्द्या महाघोरतपोन्विताः । वनाचो ध्यानसंलीना मे भवन्तु स्वशक्तये ।।२६।। अर्थ:-जो वर्षा, शीत और ग्रीष्म इन तीन ऋतुओं में वर्षा, ठण्ड और गर्मी की बाधानों को सहन करते हुए निर्जन वनादि में स्थित होकर प्रात्मसिद्धि के उद्देश्य से दुष्कर योग की साधना करते हैं ऐसे उन घोर तपस्वी साधुओं को मैं नमस्कार करता हूँ, वे मुझे प्रात्मशक्ति की प्राप्ति में निमित्त कारण बनें ।।२५-२६॥ आगे चौबीस तीर्थंकरों के वृषभसेन आदि गणधरों की स्तुति करते हैं श्रीमवृषभसेनाधा गौतमप्रमुखाश्च ये। समस्तविचतुशान-भूषितागणनायकाः !॥२७॥ महाकविगुणः पूरः पूर्वागरचने क्षमाः। मया बन्धा स्तुता दद्युस्ते मे स्वगुणसन्मतीः ॥२८॥ अर्थ:--वृषभसेन प्रादि और गौतम आदि समस्त गणधर जो कि सब प्रकार की ऋषियों एवं चार ज्ञानों से विभूषित हुये हैं, महाकवियों के श्रेष्ठ गुण वाले एवं अंगों और पूर्वो-आगों की रचना करने में निपुण हुये हैं मैं उनकी बन्दना एवं स्तुति करता हूँ, वे मुझे प्रात्मगुणों की प्राप्ति में कारणभूत सन्मति-उत्तम बुद्धि प्रदान करें ।।२७-२८।। अब जिनमुखोद्भूत स्याद्वाद वाणी रूप सरस्वती का स्तवन करते हैं--- यस्याः प्रसादतो मेऽभूद् सख़ुद्धिः श्रुतभूषिता । रागासिगा पदार्थज्ञा सद्ग्रन्थकरणेक्षमा ।।२।। १. दह दंसरणस्स भेया पंचेव य हंति णाणस्स । तेरह विहस्स चरणं अहवीसा हुँति साहूणे ।। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अधिकार सा मया बिजगदभव्यन्यिा वन्द्या स्तुता सका। शारदाऽर्हन्मुखोत्पन्नात्रास्तु विश्वार्थदशिनी ॥३०॥ अर्थ:-जिसकी कृपा से मेरी बुद्धि व तज्ञान से विभूषित हुई, रामद्वष आदि से रहित हुई, पदार्थों के स्वरूप को जानने एवं समझने में समर्थ हुई और निर्दोष ग्रन्थों की रचना करने में पटु हुई तथा जिसकी प्रतिष्ठा नीटों जगत के भगामीनों ने की है ऐसो बह जिनेन्द्रमुख से निर्गत हुई भारतीशारदा मेरे द्वारा सदा वन्दनीय एवं स्तवनीय है । वह मुझे इस अन्य के निर्माण कार्य में एवं पूर्ण रूपसे अर्थ के प्रदर्शन करने में सहायक होवे ॥२६-३०|| आगे रत्नत्रय से विभूषित कुन्दकुन्दादि प्राचार्यों का स्मरण करते हैं--- अन्ये ये गुरवो ज्येष्ठा दृक्-चित्-वृत्तादिसद्गुणैः । सर्वसिद्धांतवेतारः कुदकुवादिसूरयः ॥३१॥ बाह्यान्तर्गन्थनिर्मुक्ता युक्ताः सद्गुणमूतिभिः । कवयो बन्दनीयाश्च सतां मे सन्तु शुद्धये ॥३२॥ अर्थ:-सर्व सिद्धांत के ज्ञाता, बाह्य और अंतरंग परिग्रह से सर्वथा रहित, उत्तम-क्षमा आदि सद्गुणों से विभूषित, उत्तमोत्तम निर्दोष काव्यों की रचना करने में समर्थ मति वाले एवं सज्जनों द्वारा वेदनीय ऐसे कुदकुदादि आचार्यवर्य तथा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र आदि सद्गुणों से विभूषित अन्य गुरूजन मुझे आत्मशुद्धि में निमित्त भूत बनें ॥३१-३२।।। __ अब त्रिलोकवी कृत्रिम-प्रकृत्रिम चैत्यालय तथा उनमें विद्यमान जिनप्रतिमानों की स्तुति करते हैं लोक्यसौधमध्ये ये कृत्रिमाः श्रीजिनालयाः। प्रकृत्रिमा जिनेन्द्राणां प्रतिमाः कृत्रिमेतराः ॥३३॥ या हेम-रत्न-धात्वश्मा-दि मया यानि सन्ति च । पुण्यनिर्धारणक्षेत्राणि तांस्तास्तानि स्तुवेऽर्चये ॥३४॥ अर्थः-तीन लोक रूपी भवन के बीच में जो कृत्रिम प्रकृत्रिम श्री जिनालय हैं तथा उनमें जो हेम, रत्न, धातु एवं पाषाण प्रादि को बनी हुई कृत्रिम अकृत्रिम प्रतिमाएँ हैं एवं जो पवित्र निर्वाण क्षेत्र हैं मैं उन सबकी स्तुति करता हूँ और पूजा करता हूं ।।३३-३४॥ इस प्रकार मंगलाचरण कर ग्रथकर्ता सिद्धान्तसार दीपक ग्रंथ के करने की प्रतिज्ञा करते हैं Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्तसार दीपक नस्वेति जिनतन्मूर्ति-सिद्धसिद्धान्तसद्गुरून् । विश्वविघ्नहरान् स्वेष्टान जगम्मांगल्यकारिणः ॥३५॥ सिहान्य स्यालय स्याम्यहितानद्धये । वक्ष्ये ग्रंथं जगन्नेत्रं सिद्धान्तसारदीपकम् ॥३६॥ अर्थ:-इस ग्रंथ निर्माण में आने वाले समस्त विघ्नों की शान्ति एवं जगत में मंगल प्रालि के उद्देश्य से मैं जिनेन्द्र, जिनेन्द्रप्रतिमा सिद्ध, सिद्धान्त एवं सद्गुरु इन सबको नमस्कार करके जगत् के नेत्र स्वरूप इस सिद्धांतसार दीपक ग्रंथ की स्वपर के उपकारार्थ रचना करूंगा ॥३५-३६।। प्रागे जिनागम की महिमा प्रकट करते हैं श्रुतेन येन भव्यानां करस्थामलकोपमम् । लोक्यं निस्तुषं भाति जानं च वर्धतेतराम् ॥३७॥ संवेगादिगुणः सार्धं रागोऽज्ञानं प्रणश्यति । तदागमं जगच्चा -यमत्रोवितं बुधैः ।।३।। यतः प्रोक्त सुसाधूनां जिनविश्वार्थदर्शने । सवागममहाचक्षु-धर्मतत्वार्थदीपकम् ॥३६॥ तेनागमसुनेत्रण विनान्धा इव देहिनः । सचक्षुषोऽपि जानन्ति न किञ्चिरच हिताहितम् ॥४०॥ अर्थः- इस सिद्धांतसार ग्रंथके सुनने-पढ़नेसे भव्यात्माओं को यह त्रिलोक हथेली में रखे हुये । प्रविले की तरह प्रतीत होने लगता है और उनके तत्सम्बन्धी ज्ञान की वृद्धि भी हो जाती है, तथा संबेगादिक गुणोंकी प्राप्ति हो जाने से उनके अज्ञान एवं रागद्वषादिरूप विकारों का भी विनाश हो जाता है, इसी कारण बुद्धिमानों ने प्रागम को "जगत्चक्षु" कहा है और इसीलिये जिनेन्द्र देवने साधुओं को ऐसा उपदेश दिया है कि यदि तुम्हें सम्पुर्ण पदार्थों को जानना है तो सर्व प्रथम जीवादिक तत्त्वों, छह द्रव्यों और नौ पदार्थों को प्रकाशित करने वाले इस निर्दोष पागम रूप महाचक्षु का अबलम्वन करो, क्योंकि यही एक अति उत्तम नेत्र है। जिन प्राणियों के पास यह आगम रूप चक्षु नहीं है वे उसके बिना नेत्रों के रहते हुए भी, अन्धे के समान हैं, क्योंकि इसके प्रभाव में हिताहित का थोड़ा सा भी ज्ञान नहीं हो सकता है ।।३७-४०।। मागे अथकर्ता अपनी लघुता प्रकट करते हैं Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अधिकार यत्प्राक पूर्वमुनीन्द्राधे-विश्व सिद्धान्तवेदिभिः । सद्धिभिर्जपत्सारं प्रोक्त सिद्धान्तमञ्जसा ॥४१॥ तदुर्गमार्थगम्भीर-मागमं विश्वगोचरम् । कथं स्वल्पधिया वक्तुं मया शक्यं मनोहरम् ॥४२॥ अथवा प्रारमुनीन्द्राणां प्रणामाजितपुण्यतः।। स्तोकं सारं प्रवक्ष्यामि सिद्धान्तं विश्वसूचकम् ।।४३।। निजशक्त्या मुवाभ्यस्य त्रैलोक्यसार बीपकम् । सुगर्म बालबोधायान्यान पन्थानागमोदभवान् ।।४४।। अर्थ:--समस्त सिद्धान्त शास्त्रों के ज्ञाता एवं विशिष्ट ज्ञानी पूर्व मुनिराजों ने पहिले त्रिलोकसार नामक सिद्धान्तग्रन्थ की रचना की है सो बह ग्रन्थ अति दुर्गम अर्थवाला एवं गम्भीर है अतः मुझ अल्पज्ञ द्वारा वह जैसे का तेसा कैसे जाना जा सकता है - कहा जा सकता है ? परन्तु फिर भी पूर्व मुनिराजों को किये गये नमस्कार जन्य पुण्य के प्रभाव से ( उसका ) थोड़ा सा सार लेकर विश्वसूचक सिद्धान्त का कथन करूंगा। पहिले मैं पागमों से जिनका सम्बन्ध है ऐसे उन ग्रंथों का अपनी शक्ति के अनुसार प्रफुल्लित मन से अभ्यास करूंगा बाद में जिस प्रकार बालजनों को सुगम पड़े उस रूप से "लोक्यसारदीपक" का कथन करूंगा ।।४१-४४।। अब लोक के स्वरूप को कहने की प्रतिज्ञा करते हैं तस्यादौ कीर्तयिष्यामि त्रैलोक्यस्थितिमूजिताम् । तदाकारं समासेन भव्याः ! शृणुत सिद्धये ।।४६।। अर्थ :- सर्व प्रथम अर्थात् सिद्धान्तसार दीपक की आदि में मैं तीनों लोकों को वास्तविक स्थिति का और किर संक्षेप से उनके प्राकारों का वर्णन करूंगा, अतः हे भव्य मनो! सिद्धि के लिये तुम पहिले उसे सावधान होकर सुनो ॥४५।। लोकाकाश और अलोकाकाश की स्थिति एवं लक्षरण कहते हैं : सर्वोऽनन्तप्रदेशोऽस्त्याकाशः सर्वज्ञगोचरः । नित्यस्तामध्यभागे स्याल्लोकाकाशस्त्रिधात्मकः ॥४६॥ 'प्रसंख्यातप्रदेशोऽसौ वातत्रितयवेष्टितः। उडुवभाति खे पूर्णः षड्ब्रयैश्चेतनेतरैः॥४७॥ १. 'सुहमेव होह कालो तत्तो सुहमो य होइ खित्तो य । अंगम सेकी मित्तोमपिणी प्रसंखिज्जा' । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० ] सिद्धान्तसार दीपक अर्थः- सर्वज्ञदेव के ज्ञान का विषयभूत सम्पूर्ण प्रकाश अनन्तप्रदेशी और शाश्वत है । उसके मध्यभाग में तीन प्रकार के भेदों से युक्त लोकाकाश है। जो असंख्यात प्रदेशी, तीन बात चलयों से वेष्टित और चेतन चेतन छह द्रव्यों से भरा हुआ है तथा अलोकाकाश में नक्षत्र के समान शोभायमान होता है ॥४६-४७॥ जीवाश्च पुद्गला धर्माधर्मकालाः स्थिताः सदा । खे यावति विलोक्यन्ते लोकाकाशः स कथ्यते ||४८ || एतस्माच्च बहिर्भागे शाश्वतो द्रव्यवर्जितः । सर्वज्ञगोचरोऽनन्तोऽलोकाकाशो जिनंर्मतः ॥४६॥ अर्थ : - याकाश के जितने भाग में जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल द्रव्य शाश्वत स्थित रहते हैं उसे लोकाकाश कहते हैं, और इसके ( लोकाकाश के ) बाह्य भाग में जिनेन्द्र के द्वारा कहा हुआ पांच द्रव्यों से रहित, सर्वज्ञगोचर, शाश्वत और अनन्त विस्तार वाला अलोकाकाश है ||४८-४६ लोक के विषय में मतान्तरों का खण्डन करते हैं : केनचित्र कृतो लोको ब्रह्मादिनाथवा धृतः । न च विष्ण्वादिना जातु न हृतश्चेश्वरादिना ॥५०॥ अर्थः- यह लोक न किन्हीं ब्रह्मा आदि के द्वारा बनाया हुआ है, न किन्हीं विष्णु आदि के द्वारा धारण- रक्षण किया हुआ है और न किन्हीं महादेव यादि के द्वारा विनाश को प्राप्त होता है ||५०|| विशेषार्थ:- यह लोक प्रकृत्रिम है, अतः ईश्वर आदि कोई इसके कर्ता नहीं हैं। अनादिनिधन है अतः कोई संहारक नहीं है और स्वभाव निर्वृत होने से इसका कोई रक्षक भी नहीं है । अव सात श्लोकों द्वारा लोक का स्वरूप यदि कहते हैं : :― किन्तु त्वचावृतो वृक्ष इव वातत्र्यावृतः । श्रनादिनिधनो लोको नानाकारस्त्रिषात्मकः ॥५१॥ अर्थ :--- किन्तु यह लोक त्वचा (छाल) से वेष्टित वृक्ष के सहश तीनवातवलयों से वेष्टित, अनादिनिधन अर्थात् श्रादि अन्त से रहित, अनेक संस्थानों ( आकारों ) से युक्त और ऊर्ध्व मध्य एवं प्रधोलोक के भेद से तीन भेद वाला है ॥ ५१ ॥ स्थापितस्याप्यधोभागे मुरजार्धस्य मस्तके | धृत्तेऽत्र मुरजे पूर्णे ह्याकारो यादृशो भवेत् ॥ ५२ ॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ११ प्रथम अधिकार ताशाकारलोकोऽयं साधैंकमुरजाकृतिः । किन्तु स्यान्सुरजो वृत्तो लोकः कोणचतुर्मयः ।।५३॥ अर्थः--अर्धमुरजाकार अधोलोक के मस्तक पर पूर्ण मुरज को स्थापित करने से जैसा प्राकार बनता है वैसा ही अर्थात् डेढ मुरज के प्राकार वाला यह लोक है। मुरज (मृदङ्ग) गोल होती है किन्तु लोक चार कोणों से युक्त है ।।५२-५३|| विशेषार्थ:-श्लोक में लोक का प्राकार डेढमृदङ्गाकार कहा है, उसका भाव यह है कि जैसे अर्घमुरज नीचे चौड़ी और ऊपर सकरी होती है, उसी प्रकार अधोलोक नीचे सात राजू चौड़ा और क्रम से घटसा हुमा मध्य लोक में एक राजू चौड़ा रह गया है। इसके ऊपर एक मुरजाकार ऊर्ध्वलोक कहा गया है, इसका भाव भी यह है कि जैसे मुरज नीचे ऊपर सकरी और बीच में चौड़ी होती है उसी प्रकार कलबोक भी नीचे मध्यलोक में एक राजू चौड़ा है इसके ऊपर क्रम से बढ़ता हुआ बीच में पांच राजू चौड़ा हो जाता है और पुनः क्रम से घटता हुआ अन्त में एक राजू चौड़ा रह जाता है । यहां लोक को मृदङ्गाकार कहा है उसका अर्थ यह नहीं है कि लोक मृदङ्ग के सदृश बीच में पोला भी है, किन्तु वह तो ध्वजामों के समूह सदृश भरा हुआ है। (त्रिलोकसार गा. ६) लोकाकाश मृदङ्ग के सदृश गोल नहीं है किन्तु नीचे सात राजू लम्बा और सात राजू चौड़ा है, तथा बीच में मध्यलोक पर पूर्व-पश्चिम एक राजू, उत्तर-दक्षिण सात राज है, ऊर्बलोक भी मध्य में पूर्व-पश्चिम पांच राजू, उत्तर-दक्षिण सात राजू तथा अन्त में एक राजू और सात राजू है। मृदंगाकार कहने का यह भी भाव नहीं है कि लोक मृदंग के सस्श गोल है। यदि लोक को मृदंग समान गोल माना जाय तो उसकी प्राकृति निम्न प्रकार होगो तथा उसका सम्पूर्ण धनफल ६.२६१ धनराजू अधोलोक का + ५८,६५० घनराजू ऊर्ध्वलोक का) - १६४४५, धनराजू प्रमाण प्रार होगा जो ३४३ घन राजू के संख्यास भाग प्रमाण होता है । (ध.पु. ४ पृ. १२-२२) ३२८ १३५६ _ जिनेन्द्र भगवान ने लोक का आकार चौकोर कहा है क्योंकि चौकोर लोक का घनफल ७ राजू ( श्रेणी ) के घनस्वरूप ३४३ घनराजू प्रमाण है। चतुरस्राकार लोक की आकृति : Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ 1 सिद्धान्तसार दीपक ७ - उपर्युक्त चित्रण में अघोलोक के अन्त में चार कोण, मध्य लोक के समीप चार कोण ब्रह्मलोक के समीप चार कोण और लोकान्त में चार कोण बनते हैं। 'या प्रसारितपादस्य कटीधतफरस्य च । स्थितस्य पुरुषस्यैवात्राकारो यादृशो भवेत् ॥५४।। लोकोऽयं ताशाकारः स्थित्युत्पत्तिव्ययात्मकः । अधोमध्योलभेदेन त्रिविषः शाश्वतः स्थितः ॥५५॥ १. विगय सिरो कडिहत्थो ताडियघोजुङ णरो उट्ठो । तेरणा बारेण विउ तिधिहो लोगो मुणेमच्चो । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अधिकार [ १३ अर्थः-अथवा पैर फैलाकर, कमर पर (दोनों) हाथ रखकर उत्तरमख स्थित पुरुष का जैसा आकार बनता है वैसे ही आकार को धारण करने वाला यह लोक ( षद्रव्यों की अपेक्षा ) उत्पाद, व्यय और ध्र व स्वभाव की विविधता से युक्त, अथवा ऊर्ध्व, मध्य और अधोलोक के भेद को त्रिविधता से युक्त नित्य ही स्थित है ।।५४-५५।। अधोवेत्रासनाकारो मध्येऽयं झल्लरीसमः । - मृदङ्गासवशश्चोर्वे विधेति तस्य संस्थितिः ।।५६।। अर्थः-अधोलोक का आकार वेत्रासन सदृश, मध्यलोक का झल्लरी सदृश और ऊर्ध्वलोक का प्राकार मृदंग के सदृश है, इस प्रकार लोक की संस्थिति (आकार) तीन प्रकार कहा गया है ।। ५६।। प्रामूलादूर्ध्वपर्यन्तं लोकोऽयमुन्नतो मतः । विचित्राकार प्राप्तः स्याच्चतुर्दशरज्जुभिः ॥५५॥ अर्थः-प्राप्त को जानने बालों के द्वारा नाना प्रकार के आकारों को धारण करने वाले इस लोक को नीचे से ऊर्ध्वलोक पर्यन्त की ऊँचाई चौदह राजू कही गई है ।।५७॥ अब सात श्लोकों द्वारा लोक के भेद एवं उनका प्रमाण कहा जाता है : मामलान्मध्यलोकान्तमाम्नाता योन्नतिजनः। सप्तरज्जुप्रमारणास्या धोलोकस्य जिनागमे ।।५।। अर्थ:-जिनेन्द्र भगवानके द्वारा जिनागम में प्रादि-मूल से मध्यलोक के अन्त तक की जो सात राजू प्रमाण अाकाशोन्नति कही गई है वही अधोलोक को ऊँचाई है। अर्थात् अधोलोक की ऊँचाई सात राजू प्रमारग है ।।५८।। मध्यलोकाद् बुधैर्जेया ब्रह्मकल्पान्तमुच्छ्रितिः । अस्योचलोकभागस्य सार्वरज्जुत्रयप्रमा ।।५।। अर्थ:--विद्वानों के द्वारा मध्यलोक से ब्रह्मकल्प के अन्त तक की जो साढे तीन राज प्रमाण ऊँचाई ज्ञात की गई है वही इस अवंलोक के एक भाग की ऊंचाई है । अर्थात् मध्य लोक से ब्रह्मलोक तक के ऊर्ध्वलोक की ऊंचाई ३३ राजू प्रमाण है ॥५६॥ ब्रह्मलोकासतोऽप्यूचं यावग्लोकानमस्तकम् । उत्सेधोऽस्यागमे प्रोक्तः सार्धविरज्जुसन्मितः ।।६०।। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ ] सिद्धान्तसार दीपक अर्थ:--ब्रह्मलोक से ऊपर लोक के मस्तक पर्यन्त जितना उत्सेध पागम में कहा है वह साहे. तीन राजू प्रमाण है। अर्थात् ब्रह्मलोक से लोक के अन्त पर्यन्त ऊवलोक की ऊँचाई ३३ राजु प्रमाण है ।।६०॥ अस्थायामोऽस्ति सर्वत्र दक्षिणोत्तरभागयो। सप्तरज्जुप्रमाणः किलामूलमस्तकान्तयोः ।।६१॥ अर्थ:-इस लोक के दक्षिणोत्तर भाग का प्रादि से अन्त पर्यन्त अर्थात् नीचे से ऊपर तक का | अायाम (दीर्घता) सर्वत्र सात राजू प्रमाण है। अर्थात् लोक दक्षिणोत्तर भाग में सर्वत्र सात राजू | प्रमाण है। ६१। पूर्वापरेण लोकस्य ह्रासवृद्धोस्मृते बुधः । मूलेऽस्य विस्तृति ज्ञेया सप्तरज्जुप्रमाखिला ॥६२।। क्रमहान्या सप्तोऽप्यस्य मध्यलोके जिनागमे । रज्ज्वेको व्यास आम्नातो गणाधीशंगणान् प्रति ॥६३।। ततश्च क्रमवृधास्य ब्रह्मलोकेऽस्ति विस्तृतिः । पञ्चरज्जुप्रमामूनि रज्ज्वेका कमहानितः ॥६४॥ अर्थः–ज्ञानियों के द्वारा लोक के पूर्व-पश्चिम भाग का विस्तार हानिवृद्धि रूप माना गया है। लोक के मूल में पूर्व पश्चिम विस्तार सात राजू प्रमाण है । इसके बाद क्रम से हानि होते होते मध्यलोक पर पूर्वपश्चिम विस्तार जिनागम में जिनेन्द्रों के द्वारा मुनिसमूह के लिए एक राजू प्रमारण कहा है । मध्यलोक के ऊपर कम से शुद्धि होते होते ब्रह्मलोक पर लोक का विस्तार पांच राजू और वहां से क्रमशः हानि होते होते लोक के मस्तक का विस्तार एक राजू प्रमाण है ।।६२, ६३, ६४॥ अब चार श्लोकों द्वारा अधोलोक का क्षेत्रफल एवं वनफल कहते हैं : अधोभागेऽस्य लोकस्य व्यासेन सप्तरज्जबः । रज्ज्वेकामध्यभागे च तयोः पिण्डीकृते सति ॥६५॥ जायन्ते रज्जवोऽप्यष्टौ तासामों कृते पुनः । चतस्रो रज्जवः स्युस्ता गुणिताः सप्तरज्जुभिः ॥६६॥ अष्टाविंशतिसंख्याश्वोत्पद्मन्से रज्जवः पुनः । अष्टाविंशतिसंख्यास्ता बगिताः सप्तरज्जुभिः ॥६७॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अधिकार वियन भवन्ति रज्जवोऽखिलाः । पिण्डीकृता घनाकारेणाधोलोकस्य निश्चितम् ॥६॥ अर्थ:-इस लोक के अधोभाग में ध्यास सात राजू और मध्यभाग ( मध्यलोक ) पर व्यास एक राजू प्रमाण है। इन दोनों को जोड़ देने से (७+१) पाठ राजू होता है और इसे आधा करने पर (८:२) चार राजू प्राप्त होते हैं। (अधोलोक से मध्यलोक तक की ऊँचाई सात राज है अतः) इन चार को सात से गुरिणत करने पर (४४७)=२८ वर्गराजू अधोलोक का क्षेत्रफल उत्पन्न हो जाता है और इस २८ वर्ग राजू क्षेत्रफल को ( दक्षिणोत्तर मोटाई ) सात राजू से मुरिणत कर देने पर सम्पूर्ण अधोलोक का धनफल (२०४७)== १६६ धनराजू प्रमाण प्राप्त होता है। अर्थात् अधोलोक का क्षेत्रफल २८ वर्ग राजू और धनफल १६६ घनराजू प्रमाण है ।। ६५-६८|| ऊ लोक का क्षेत्रफल एवं घनफल पाठ श्लोकों द्वारा कहते हैं : ब्रह्मकल्पेऽस्थ विस्तारः पञ्चरज्जप्रमाणकः । मध्यभागे च रज्ज्वेकस्तयोमलापके कृते ॥६६॥ षड्रज्जवो भवेयुश्च तासामों कृते सति । गृह्यन्ते रज्जवस्तिस्रः सप्तभिगुणिताश्च ताः ।।७।। एकविंशतिसंख्याता जायन्ते रज्जवः पुनः । ताः सर्वा वगिताः सार्वत्रिकर्भवन्ति पिण्डिताः ॥७१॥ रज्जयोऽप्ययभागेऽस्य ब्रह्मलोकान्तमञ्जसा । घनाकारेण सर्वत्र सार्वत्रिसप्तति प्रमाः ॥७२।। अर्थः--इस लोक का विस्तार ब्रह्मकल्प पर पांच राजू और मध्यलोक पर एक राजू प्रमित है । इन दोनों को जोड़ देने से (५+१)=६ राजू होते हैं और उन्हें प्राधा करने पर (६२)-३ राजू प्राप्त होते हैं । मध्यलोक से ब्रह्मलोक की ऊँचाई ३३ राजू है अतः तीन को ३३ राजू ऊँचाई से गुणित करने पर (२x६)=२. वर्गराजू मध्यलोक से ब्रह्मलोक पर्यन्त अर्थात् अर्घ ऊर्ध्वलोक का क्षेत्रफल प्राप्त हुना। इसके उत्तरदक्षिण सात राजू मोटाई से मुणित कर देने पर ब्रह्मलोक पर्यन्त ऊर्ध्व लोक का घनफल (३४६)="" अर्थात् ७३३ घनराजू प्रमाण प्राप्त होता है ॥६६-७२॥ नोट-लोक में तीन को पहिले सात से गुणित करके २१ प्राप्त किये गये हैं, फिर ३३ राज ऊंचाई से गुणित किया गया है, इस प्रक्रिया से धनफल तो प्राप्त हो जाता है किन्तु क्षेत्रफल प्राप्त नहीं होता क्योंकि क्षेत्रफल निकालने का नियम है "मुखभूमिजोगदलेपदहदे" अर्थात् मुख और भूमि के योगफल को प्राधा करके ऊँचाई से मुरिणत करने पर क्षेत्रफल प्राप्त होता है। इसी नियम को Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ ] सिद्धान्तसार दीपक दृष्टि में रखते हुए उपर्युक्त श्लोकों का अर्थ किया गया है और धागे श्लोक नं० ७४, ७५ का किया जायगा । व्यासोऽस्य ब्रह्मकल्पान्ते रज्जुपञ्चमः क्रमात् । होयमानश्च रज्ज्नेको यो प्रति ॥७३॥ पिण्डीकृते प्रजायन्ते षड्ज्जवोऽखिलास्ततः । द्विभागी संकृते तासां तिस्रः स्यू रज्जयश्च ताः ॥७४॥ सप्तभिर्गुणिता जायन्ते ह्यकविंश रज्जवः । पुनस्ता वगिताः सार्धत्रिभिः सार्धत्रिसप्ततिः ।। ७५ ।। पिण्डीकृता भवन्त्यूर्ध्वलोकस्य रज्जबोऽखिलाः । घनाकारेण लोकाग्रपर्यन्तं ब्रह्मकल्पतः ॥७६॥ अर्थ::-ब्रह्मकल्प पर लोक का व्यास पांच राजू प्रमारण है, और क्रम से हीन होते होते लोक अग्रभाग का व्यास एक राजू प्रमित रह जाता है। इन दोनों को जोड़ देने से (५ + १) = ६ राजू हो हैं। इन्हें आधा करने पर (६ : २ ) - ३ राजू प्राप्त होते हैं । इन तीन को ३३ ऊँचाई से गुरित कर पर अर्ध ऊर्ध्वलोकका क्षेत्रफल (३ x ३ ) = अर्थात् १०३ वर्ग राजू प्राप्त होता है। इसको सात रा मोटाई से गुणित कर देने पर (३' x ३ = ३७ अर्थात् ७३३ घनराजू प्रमाण घनफल अर्ध ऊबेल का अर्थात् ब्रह्मलोक से लोकाग्र पर्यन्त का जानना चाहिये । लोकके दोनों अ ऊ भागों का घन मिला देने से सम्पूर्ण ऊर्ध्वलोकका घनफल (७३३+७३३ ) = १४७ घन राजू प्रमाण होता है ॥७३-७६ अब सम्पूर्ण लोक का घनफल कहते हैं । -: इति लोकत्रयस्यास्य सघनाकारेण रज्जयः । शतश्रयत्रिचत्वारिंशदप्रमिता मताः ॥७७॥ अर्थ : - इस प्रकार तीनों लोकों का सम्पूर्ण घनफल ( अधोलोक का १६६ घनराजू श्री ऊर्ध्वलोक का १४७ घनराजू, १६६ + १४७ ) == ३४३ घनराजू प्रमारण जानना चाहिये । अर्था सम्पूर्ण लोकाकाश के यदि एक राजू लम्बे, एक राजू चौड़े और एक राजू मोटे टुकड़े किये जायें सम्पूर्ण टुकड़ों की संख्या ३४३ प्राप्त होगी ॥७७॥ अब दो श्लोकों द्वारा लोक की परिधि का निरूपण किया जाता है : लोकस्य परिधिर्ज्ञेया पूर्व पश्चिमभागयोः । रज्जून साधिककोनचत्वारिंशत्प्रभाखिलाः ॥७८॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अधिकार [ १७ अर्थः- लोक की पूर्व पश्चिम भाग की सम्पूर्ण परिधि कुछ अधिक ३६ राजू प्रमाण जानना चाहिये ||७८ ॥ विशेषार्थ :- लोक को पूर्व पश्चिम दिशा से देखने पर उसमें बस नाली के द्वारा बनाये गये दो त्रिभुज अधोलोक में और चार त्रिभुज ऊर्ध्व लोक में दिखाई देते हैं, जिनके कारणों को परिधि क्रमशः १५० राजू और १६ राजू है । लोक के ऊपर की चौड़ाई १ राजू और नीचे की चौड़ाई ७ राजू प्रमाण है, इस प्रकार पूर्व पश्चिम अपेक्षा लोक को सम्पूर्ण परिधि (१५०+१६+१+७) = ३६६६ राजू प्रमाण है । यह परिधि साधिक ३६ राजू कैसे है ? इसका उत्तर ज्ञात करने के लिये त्रिलोकसार की गा० १२२ दृष्टव्य है । ख्यातास्य परिधिर्षक्षैदं क्षिणोत्तर पार्श्वयोः । मूलाग्रयोश्च रज्जुद्विचत्वारिंशमिता स्मृता ॥७६॥ अर्थः- लोक की दक्षिणोत्तर दिशा में दोनों पार्श्वभागों की तथा मूल और अग्रभाग की सम्पूर्ण परिधि दक्ष - ज्ञानी जनों के द्वारा ४२ राजू प्रमाण कही गई है ॥७६॥ विशेषार्थ :- लोक को ऊँचाई वह राजू प्रमाण है और दक्षिणोत्तर लोक सर्वत्र सात राजु चौड़ा है, अतः लोक के ऊपर की ७ राजू चौड़ाई, नीचे की सात राजू चौड़ाई और दोनों पार्श्व भागों की १४, १४ राजू ऊँचाई जोड़ देने से (७+७+१४+ १४) = ४२ राजू दक्षिणोत्तर लोक की परिधि होती है | इसका चित्रण त्रिलोकसार गा० १२१ में देखना चाहिये । लोक को परिवेष्टित करने वाले तीन वातवलयों का निरूपण ग्यारह श्लोकों द्वारा करते हैं- घनोदधिर्धनाख्यश्च तनुवात हमे शयः । सर्वतो लोकमावेष्टय नित्यास्तिष्ठन्ति वायवः ||८०| श्रद्य गोमूत्रवर्णीयं मुद्गवर्णो द्वितीयकः । पञ्चवर्णस्तृतीयः स्याद् बहिर्वल मारुतः ||८१ ॥ अर्थः- सम्पूर्ण लोक को परिवेष्टित करते हुये घनोदधि, घन और तनु ये तीन पवन नित्य हो स्थित रहते हैं । इनमें ग्राद्य अर्थात् घनोदधि वातवलय का व गोमूत्र के सहश, दूसरे घनवातवलय का वर्णं मूंग (अन्न) के सदृश और तीसरे तनुवात वलय का वर्णं पञ्चवर्गों के सदृश है ।८०,८१ ।। विशेषार्थ :- जिस प्रकार वृक्ष छाल से वेष्टित रहता है उसी प्रकार यह लोक सर्वत्र तीन तहों या परतों के सदृश तीन पवनों से वेष्टित है। इसकी प्रथम तह लोक को स्पर्शित करने वाली एवं गोमूत्र वर्णं वाली घनोदधि नामक पवन की है। दूसरी तह मध्य में है, जिसका नाम घनवात है और वर्ण मूंग के सदृश है । तीसरी तह बाह्य में है जो पंच वर वाली है और तनुवात के नाम से विख्यात है । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ ] सिद्धान्तसार दीपक लोकस्याधस्तले भागे महातमःप्रभाक्षितेः। पाश्र्वयोरेकरज्ज्वन्तमन्तरेष्वपि सप्तसु ।।२।। सप्तनारक पृथ्वीनां स्थूलत्वं मरुतां मतम् । प्रत्येक योजनानां च सहस्रविशतिप्रमम् ॥५३॥ बण्डाकारा' भवन्त्येते लोकाधोभूतलान्तरे । दण्डाफारा घनीमूता लोकान्ते वाययस्त्रयः ।।८४॥ अर्थ:- लोका काश के अधोभाग में, सातवें नरक से नीचे नीचे अर्थात् दोनों पाश्र्व भागों में नीचे से ऊपर की ओर एक राज़ की ऊँचाई ( निगोद स्थान ) पर्यन्त, लोक के अभ्यन्तर भाग में सातों नरक पृथिवियों के नीचे सातों नरकों की जो सात पृथिवियां हैं ( और ८वीं ईषत्प्राग्भार पृथ्वी के नीचे ) उनमें दण्डाकार ( रज्जू आकार) प्रत्येक पवन बीस बीस हजार योजन की | मोटाई को लिये हुए हैं। इस प्रकार ये तीनों पवन अधोलोक में सातों पृथिवियों के नीचे, लोक के अन्त में अर्थात् लोक के ऊपर प्राग्भार पृथ्वी के नीचे अर्थात् पाठों पृथिवियों के नीचे सघन और दण्ड के आकार को धारण करने वाली हैं ।। ८२-८४ ॥ महातमः प्रभापार्वे वातानां स्थौल्यमञ्जसा । सप्तव पञ्चचत्वारि प्रत्येक योजनान्यपि ॥५॥ नृलोके क्रमहापात्र पञ्चचत्वारि त्रीणि च । स्थौल्यं वातत्रयाणां हि योजनानि पृथक पृथक् ॥८६॥ बाहल्यं ब्रह्मलोकान्ते वायूनां योजनानि च । सप्तपञ्चैव चस्वारि प्रत्येक क्रमवृद्धितः ॥८७॥ क्रमहान्यो लोकान्तेऽमोषां स्थूलत्वमञ्जसा । प्रत्येकं पञ्च चत्वारि श्रोणि सयोजनानि च ।।८।। अर्थ:- सप्तम नरक के दोनों पाश्र्व भागों में घनोदधिवातवलय सात योजन, घनवातवलय पांच योजन और तनुवात वलय चार योजन मोटाई वाले हैं । इसके ऊपर क्रम से घटते हुये मनुष्य (मध्य) लोक के समीप तीनों वातबलय क्रम से पृथक् पृथक पांच योजन चार योजन और तीन योजन बाहुल्य वावै प्राप्त होते हैं, तथा यहाँ से ब्रह्मलोक पर्यन्त क्रमश: बढ़ते हुये सात योजन, पांच योजन और चार योजन मोटाई बाले हो जाते हैं और ब्रह्मलोक से क्रमानुसार हीन होते हुये तीनों पवन लोक के अन्त में अर्थात् ऊर्ध्वलोक के निकट क्रमशः पांच योजन, चार योजन और तीन योजन बाहुल्य वाले हो जाते हैं ।। ८५-८८ ॥ १ एष श्लोकः अ० ज० न० प्रतिषु नास्ति । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अधिकार घनोवधौ च लोकाने स्थौल्यं क्रोशद्वयं मतम् । क्रोशक घनवाते च तनुवाले घनषि वै ॥८६।। पञ्चसप्तति युक्तानि शतपञ्चदशेत्ययम् । सर्वतोप्यावृतो लोकः सर्वो वातत्रयभवेत् ।।१०।। अर्थः- लोक के अग्रभाग पर घनोदधिवातवलय की मोटाई २ कोश, घनवातबलय की एक कोश और तनुवातवलय की मोटाई १५७५ धनुष प्रमाण है। इस प्रकार यह लोक सभी ओर से तीन वातबलयों के द्वारा बेष्ठित है ॥८६-६०॥ अब चार श्लोकों द्वारा वसनाली के स्वरूप आदि का विवेचन करते हैं: उदखलस्य मध्याधोमागे छिद्रे कृते यथा। वंशादिनालिका क्षिप्ता चतुष्कोणा तथास्य च ॥१॥ अर्थः-ऊखली के मध्य बीचों बीच अधोभाग पर्यन्द छिद्र करके उसमें वांस आदि की चतुष्कोण नाली डाल देने पर जैसा श्राकार बनता है वैसा ही आकार लोक नाली का है ||११|| लोकस्य मध्य मागेऽस्ति सनाडी त्रसान्विता । चतुर्दशमहारज्जूत्सेधा रज्ज्वेक विस्तृता ॥१२॥ असनाड्या बहिर्भागे त्रसाः सन्ति न जातचित् । समुद्घातौ विना केबलिमारणान्तिकात्मनौ ॥१३॥ अर्थ:-लोक के मध्यभाग में त्रस जोबों से समन्वित, चौवह राज़ ऊँची और एक राज चौड़ी असनाड़ी (नाली) है । इस त्रस नाड़ी के बाह्य भाग में केवलि समुद्घात, मारणान्तिक समुद्घात (और उपपाद) के बिना कभी भी अर्थात् अन्य किसी भी अवस्थाओं में त्रस जीव नहीं पाये जाते ॥६२,६३।। विशेषार्थः-लोक ३४३ धनराजू प्रमाण है। उसमें बसनाड़ी का धन फल (१४४१४ १) १४ घनराजू प्रमाण है और इतने ही क्षेत्र में त्रसजीवोंका सद्भाव पाया जाता है, शेष (३४३-१४ धनराजू) - ३२६ घनराजू क्षेत्र सनाड़ी से बाहर क्षेत्र कहलाता है। इस बाय क्षेत्र में मात्र स्थावर जीव ही पाये जाते हैं, बस नहीं । अर्थात् असपर्याय समन्वित जीव नहीं पाये जाते किन्तु उपपाद, मारणान्तिक और केबलिसमुद्धात वाले त्रस जीवों के प्रात्मप्रदेशों का सत्त्व वहाँ अवश्य पाया जाता है। जीव का अपनी पूर्व पर्याय को छोड़ने पर नवीन आयु के प्रथम समय को उपपाद कहते हैं । पर्याय के अन्त में मरण के निकट होने पर बद्धायु के अनुसार जहाँ पर उत्पन्न होना है, वहाँ के क्षेत्र Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० ] सिद्धान्तसार दीपक को स्पर्श करने के लिए जो श्रात्मप्रदेशों का शरीर से बाहर निकलना है वह मारणान्तिक समुद्घात है। १३ वे गुणस्थान के अन्त में श्रायु कर्म के अतिरिक्त शेष तीन श्रघातिया कर्मों की स्थिति क्षय के लिए केवली के ( दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूर्ण श्राकार से ) श्रात्म प्रदेशों का शरीर से बाहर निकलना केवली समुद्घात है । इति बहुविधरूपां लोकनाड समग्रां, जिनगणधर देव: प्रोवितामङ्गपूर्वे । शिवगतिसुखकामादचावबुद्धद्याश्रयध्वं सकलचररणयोर्ग र्लोक मूर्ध्वस्थमोक्षम् ॥ ९४ ॥ अर्थ :- हे मोक्ष सुख के इच्छुक ! श्रेष्ठ गणधरदेवों के द्वारा श्रङ्गपूर्व में कही गई अनेक स्वरूप वाली सम्पूर्ण लोकनाड़ी को जान कर सकल चारित्र के योग द्वारा लोक के अग्रभाग में स्थित मोक्ष का आश्रय करो ||४|| अधिकार मत अन्तिम मङ्गलाचरण : निर्वाणमनन्तसौख्यजनकं ये सिद्धनाथाः श्रितास्तीर्थेशाश्च तपोवरैः सुचरन्तु द्र तं प्रोद्यताः । पञ्चाचार परायणाश्च गणिनो ये पाठकाः साधवस्तेषां पादसरोरुहान् स्वशिरसा तद्भूतये नौम्यहम् ॥६५॥ अर्थ :- जो सिद्ध परमेष्ठी और तीर्थङ्कर देव अनन्त सुख को उत्पन्न करने वाले निर्वाण का आश्रय ले चुके हैं, तथा उत्कट तप और सम्यक् चारित्र के द्वारा पञ्चाचार परायण आचार्य परमेष्ठी, उपाध्याय एवं साधुगरण शीघ्र हो मोक्ष में जाने के लिये उद्यमवान् हो रहे हैं ऐसे उन पञ्चपरमेष्ठियों के चरण कमलों को मैं मोक्ष की विभूति के लिये शिर से नमस्कार करता हूँ ||५|| इस प्रकार श्री सकल कीर्ति भट्टारक द्वारा विरचित महाग्रन्थ सिद्धान्तसारदीपक में लोकनाडी का वर्णन करने वाला प्रथम अधिकार सम्पूर्ण हुआ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा अधिकार अधिकार की आदि में मङ्गलाचरण करते हैं : लोकनाडिगतान पञ्च महतः परमेष्ठिनः । स्वगंमुक्तिकरान् वन्दे सतां श्वभ्रनिवारकान् ॥१॥ अर्थ:-लोकनाही में स्थित, स्वर्ग और मुक्ति सुखों को करने-देने वाले तथा सज्जन पुरुषों का नरकगति से निवारण करने वाले परमोत्कृष्ट पञ्चपरमेष्ठियों को मैं नमस्कार करता हूँ ।।१।। वक्ष्यमाण अधोलोक के वर्णन का हेतु और प्रतिज्ञा : अथ वैराग्यसंसिद्धयं पाप्यङ्गिभीतिहेतवे। अधोलोकं प्रवक्ष्येऽहं लोकस्य श्वभ्रवर्णनेः ॥२॥ अर्थ:--वैराग्य की प्राप्ति के लिए और लोकके पापी जीवों को भय उत्पन्न कराने के लिए अब मैं नरकों के वर्णन द्वारा अधोलोक को कहूँगा । अर्थात् नरकों के दुःखों को सुनकर-पढ़कर वैराग्य की प्राप्ति हो और पापों से भय हो इसलिये नरकों के कथन द्वारा प्राचार्य अधोलोक का विस्तृत वर्णन करेंगे। अधोलोक में सातों पृथिवियों की स्थिति एवं नाम तीन इलोकों द्वारा कहते हैं: महामेरोरधोभागे रज्ज्वैकान्तरस्थिताः । स्पृशन्स्यः सर्वलोकान्तं सप्लेमाः श्यभ्रभूमयः ।।३।। प्राधा रत्नप्रभाशर्कराप्रभाबालुकाप्रभा। पङ्कधूमप्रभाभिख्ये तमोमहातमःप्रभे ।।४।। इतिप्रभोस्थनामानि पृथ्वीनां श्रीजिना विदुः । तथा पर्यायनामानीमानि ज्ञेयानि कोविवेः॥।॥ अर्थ:-सुदर्शन मेरु के अधोभाग में सात नरक भूमियाँ लोक के अन्त को स्पर्श करती हुई एक एक राजू के अन्तराल से स्थित हैं। इनमें १ रत्नप्रभा, २ शर्कराप्रभा, ३ बालुका प्रभा, ४ पङ्कप्रभा ५ धूमप्रभा, ६ तमःप्रभा और ७ महातमःप्रभा नाम वाली पृथिवियाँ हैं, अपनी अपनी प्रभा से Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ ] सिद्धान्तसार दीपक उत्पन्न होने वाले ये पृथिवियों के नाम जिनेन्द्र भगवान ने कहे हैं। तथा विद्वानों के द्वारा जाने के इन्हीं पृथिवियों के पर्यायवाची नाम धागे कहे जावेंगे ॥ ३-५ ।। विशेषार्थ:-अधोभाग में स्थित सात नरक भूमियों में से रत्नप्रभा और शर्कराप्रभा ये दोनों । मेरु के नीचे एक राजू में हैं और शेष पांच भूमियां एक एक राजू के अन्तर से हैं, इस प्रकार छह राजा में सात नरक हैं और इनके नीचे एक राजू में मात्र पंचस्थावर स्थान है। ये रत्नप्रभा प्रादि सार्यो । पृथिवियाँ सार्थक नाम बालो हैं क्योंकि इनमें क्रम से रत्न, शक्कर, रेत, कीचड़, घुग्रा, अन्धकार और महा अन्धकार के सदृश प्रभा पाई जाती है। अब सातों नरसों के नाम कहते हैं:-- धर्मावंशाह्वयामेघाजनारिष्टाभिधाततः । मघवीमाघवी चैता अधोऽधः सप्तभूमयः ।।६।। अर्थः--(१) घर्मा, (२) वंगा, (३) मेघा, (४) अञ्जना, (५) अरिष्टा, (६) मघवो और | (७) माधवी ये सात पृश्धियाँ नीचे नीचे अर्थात् कमशः एक के नीचे एक हैं ।।६।। सात नरक के बीचे निगोद स्थान का कथन करते हैं: सप्तानां श्वभ्रपश्वीनामधो भागेऽस्ति केवलम् । एक रज्जुप्रभं क्षेत्रं पृथिवीरहितं भृतम् ॥७॥ नानाभेदैनिकोतादिपञ्चस्थावरवेहिभिः । रत्नप्रभाधरायाश्च त्रयो भेदा इमे स्मृताः ।। अर्थ:-सातों नरक पृध्वियों के नीचे एक राजू प्रमाण क्षेत्र नरक पृथ्वी से रहित है, उसमें केवल पञ्चस्थावरों के शरीर को धारण करने वाले नाना प्रकार के निगोद आदि स्थावर जीव रहते हैं। रत्नप्रभा पृथिवी के प्रामे कहे जाने वाले तीन भेद जानना चाहिये ।। ७-८ ।। चार श्लोकों द्वारा प्रथम पृथिवी के भेद प्रभेदों को कहते हैं: खरभागोऽथ पांशस्ततोऽध्यब्बहलांशकः । खरभागे भवन्त्यस्याः इमे षोडशभूमयः ।।६।। चित्रावनाथ वैडूर्या लोहिता च मसारिका । गोमेदा हि प्रवालास्याः ज्योतिरसाजनाह्वया ॥१०॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अधिकार श्रञ्जनाभाभिधा मूला स्फटिकाख्याथ चन्दना । सपर्वाकुलाला खरे पृथ्व्यो हि षोडश ।। ११ । एकैकस्याः' सुबाहुल्यं सहस्रगुरणयोजनम् । भूमेश्चैव तदात्मासौ खरभागो मतो बुधैः ||१२|| [ २३ अर्थ :-- प्रथम रत्नप्रभा पृथिवी खरभाग, पङ्कभाग और प्रभ्वहुल भाग के भेद से तीन प्रकार की है, जिसमें खरभाग में नीचे कही जाने वाली सोलह भूमि पडत हैं । १ चित्रा, २ वा ३ बेडूर्या, ४ लोहिता, ५ मसारिका ६ गोमेदा, ७ प्रवाला, ६ ज्योतिरसा, १ जना, १० अञ्जनाभा, ११ मूला, I १२ स्फटिका, १३ चन्दना, १४ संपर्क. १५ वकुला और १६ शैला ये खर भाग में सोलह पृथ्वियों के पत हैं । इनमें प्रत्येक पृथिवी ( पडत) का बाहुल्य (मोटाई) एक एक हजार योजन प्रमाण है। इन सोलह पृथिवी पडतात्मक भूमि ही विद्वानों के द्वारा खरभाग माना गया है। अर्थात् खरभाग सोलह हजार योजन मोटा है जिसमें एक एक हजार योजन मोटी सोलह पृथ्वियाँ ( पडत ) हैं अतः सोलह पृथिवी (प) प्रात्मक ही खर भाग है ऐसा कहा गया है ।।६, १२ ।। नोट: - त्रि० स० गा० १४८ में ११ वीं पृथिवी का नाम अङ्का और १४ वीं का सर्वार्धिका कहा गया है। खर आदि भागों में रहने वाले देवों का विवेचन दो श्लोकों द्वारा करते हैं: खरभागे वसन्त्यत्र सप्तधा व्यन्तरामराः । राक्षसानां कुलं मुक्त्वा नवभेदारच भावनाः ॥ १३॥ असुराणां कुलं त्यक्त्वा पङ्कभागेऽसुरव्रजाः । राक्षसाश्च वसन्त्येव तृतीयांशे च नारकाः ।। १४॥ अर्थ :- राक्षस कुलको छोड़कर शेष सात प्रकार के व्यन्तर देव और असुरकुमार देवों को छोड़ कर शेष नौ प्रकार के भवनवासी देव हरभाग में व राक्षस और असुरकुमार पक भाग में रहते हैं, तथा तृतीय बहुल भाग में नारकी जीवों का वास है ।। १३, १४ ।। 1 विशेषार्थ:-- व्यन्तर देवों के प्राठ कुल हैं किन्नर, किम्पुरुष, महोरग, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच । इनमें से राक्षस कुल को छोड़कर शेष सात कुलों के व्यन्तरवासी देव खरभाग में रहते हैं । इसीप्रकार भवनवासी देवों के ददश कुल हैं - प्रसुर कुमार, नागकुमार, सुपर्णकुमार, द्वीपकुमार, उदधिकुमार, विद्यत्कुमार, स्तनितकुमार, दिवकुमार, अग्निकुमार और बायुकुमार । इनमें से असुरकुमार के कुलको छोड़कर शेष कुलों के भवनवासी देव भी खर भाग में रहते हैं, तथा राक्षस और असुरकुमार (द्वितीय) पक भाग में रहते हैं और तृतीय अश्वहुल भाग में प्रथम नरकके नारकी रहते हैं । १ एम श्लोक ० प्रतो नास्ति । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ] सिद्धान्तसार दीपक प्रथम पृथिवी के तीन भागों की मोटाई तीन श्लोकों द्वारा कहते हैं:-- रत्नप्रभात्रिपृथिवीनामिवं स्थौल्यं त्रिषा मतम् । योजनानि खरांशस्य स्युः सहस्राणि षोडश ॥१५॥ योजनानां सहस्राणि ह्यशोसिश्चतुरत्तरा । स्थूलत्वं पङ्कभागस्य तृतीयांशस्य निश्चितम् ।।१६।। प्रशीतिसहस्त्राणि त्रिभूमीना पिण्डितानि च । लक्षाशीतिसहस्राणि सर्वाणि योजनान्यपि ।।१७।। अर्थ:--इस (कहे जाने वाले) रत्नप्रभा पृथिवी के तीनों भेदों का बाहुल्य भी तीन प्रकार का माना गया है। यथा-प्रथम खरभाग को मोटाई १६००० योजन, द्वितीय पङ्क भागकी मोटाई ८४००० योजन और तृतीय प्रबहुल भाग की मोटाई ८०००० योजन की है । इन तोनों पृथ्वियों के बाहुल्य को ।। जोड़ने से ( १६००० + ८४००० + ८०००० )= १५०००० एक लाख अस्सी हजार योजन प्राप्त होते हैं । अतः रत्नप्रभा पृथिवी की मोटाई १८०००० मानी गई है ।।१५-१७॥ अब शेष छह पृथिवियों का पिश चार इलोलों द्वारा निता जाता: शेषषट् श्वनभूमीना बाहुल्यं कथ्यतेऽधुना। स्यु त्रिशत्सहस्राणि स्थलत्वं शर्कराक्षिते ॥१॥ अष्टाविंशतिमानानि सहस्रयोजनानि च । बाहुल्यं वालुका पृथ्व्याः सन्ति पङ्कप्रभावनेः ।।१९।। योजनानां चतुविशति सहस्राणि शाश्वतम् । स्थौल्यं घूमक्षितविंशति सहस्राणि सम्मतम् ॥२०॥ तमःप्रभावनेः स्थौल्यं सहस्राणि च षोडश । योजनाष्टसहस्राणि महातमः प्रभाक्षितेः ॥२१॥ अर्थः- अब अवशेष छह नरक पृथिवियों का बाहुल्य ( मोटाई ) कहते हैं । शर्करा पृथिवी की मोटाई ३२००० योजन, वालुका प्रभा पृथिवी की २८००० योजन, पङ्कप्रभा की २४००० योजन, धूमप्रभा पृथिवी की २०००० योजन, तमः प्रभा पृथिवी को १६००० योजन और महातमः पृथिवी को मोटाई ८००० योजन है ॥१५-२११॥ दो श्लोकों द्वारा उन सातों पृध्वियों में स्थित पटलों के स्थान का निरूपण करते हैं:-- धर्मादिषड्धराणां प्रत्येक मूर्खेऽप्यधस्तले ॥ सहस्रयोजनान्मुक्त्वा भवेयुः पटलानि च ।२२।। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वितीय अधिकार [ २५ पटलं मध्यभागेऽस्ति महातमः प्रभाक्षिते । इवानी सप्तभूमोना विलसंख्योच्यते क्रमात् ॥२३॥ अर्थः-प्रथम पृथिवी के अम्बहुल भाग में और वंशा प्रादि शेष पांच अर्थात् घर्मा आदि छह पृथ्विनों में ऊपर नीचे एक एक हजार योजन को मोटाई छोड़ कर पटलों की स्थिति है और सातची महातमः प्रभा पृथिवी के मध्य भाग में एक ही पटल है। अब सातों पृथ्वियों के बिलों की संख्या क्रम से कहते हैं ।।२२-२३॥ प्रथमादि पश्वियों में बिलों का निरूपण: पादिमे नरके त्रिशल्लक्षाणि स्युबिलानि च । पञ्चविंशतिलक्षाणि द्वितीये दुष्कराण्यपि ॥२४॥ तृतीये नरके पञ्चदशलक्ष बिलानि च । चतुर्थे दशलक्षाणि लक्षत्रयाणि पञ्चमे ।।२५॥ अष्ठे जिलानि होलेक लशासितानि च । सप्तमे नरके सन्ति बिलानि पञ्च केवलम् ॥२६॥ पिण्डीकृतानि सर्वाणि बिलानि सप्तभूमिछु । लक्षाश्चतुरशीतिः स्युविश्वदुःखाकराण्यपि ॥२७॥ अर्थ:-प्रथम नरक में ३०००००० ( तीस लाख ) बिल हैं। दूसरे नरक में २५००००० (पच्चीस लाख ), तीसरे में १५००००० (पन्द्रह लाख ), चौथे में १०००००० ( दश लाख ), पांचवें में ३००००० (तीन लाख ), छठवें में पांच कम एक लाख ( REEE५ ) और सातवें नरक में मात्र ५ ( पांच ) बिल हैं । सम्पूर्ण दुःखों के आकार ( खामि ) स्वरूप इन सातों नरकों के सम्पूर्ण विलों को जोड़ देने से योगफल (३० लाख+ २५ लाख + १५ लाख +१० लाख + ३ लाख + REET५+५ )-८४००००० ( चौरासी लाख ) प्रमाण होता है । अर्थात् सातों नरकों में ८४ लाख बिल हैं ॥२४-२७॥ अब ग्यारह श्लोकों द्वारा सातों नरक पटलों की संख्या एवं उनके नामों का दिग्दर्शन कराते हैं: आदिमे नरके सन्ति प्रतराणि त्रयोदश । एकादश द्वितीये तृतीये नव चतुर्थ के ॥२८॥ सप्ताथ पञ्चमे पञ्च षष्ठे त्रीणि च सप्तमे । एकमेकोन पञ्चाशत्सर्वाणि प्रतराणि च ॥२६॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ ] सिद्धान्तसार दीपक श्राद्यः सीमन्तकाभिख्यो नारकाख्यश्च रौरवः । भ्रान्तोभ्रान्ती हि सम्भ्रांतोऽथासम्भ्रान्तश्च सप्तमः ॥३०॥ विभत्ताख्योऽष्टमो ज्ञेयस्वसत्रसित संज्ञकः । वक्रान्तः स्यादवक्रान्तो विक्रान्तः प्रथमावनौ ॥३१॥ ततस्तवको नाम्ना वनको मनकाह्वयः । खटकः खटिकाभित्यो जिह्वाख्यो जिह्निकाभिषः ||३२|| लोलो लोलुपसंशोऽय तनलोलुपनामकः । श्रमी एकादश प्रोक्ता वंशायां प्रतरा जिनैः ||३३|| तप्ताख्यस्त पिताभिख्यस्तपनस्तपनाह्वयः । निदाघसंज्ञकोऽथोज्वलितः प्रज्वलिताख्यकः || ३४ || ततः संज्वलितः संप्रज्वलितो वालुकाक्षितौ । धारस्ताराभिघो मारवञ्चाख्यस्तपनीयकः ||३५|| घटः संघटनामते चतुर्थ्यां प्रतरा मताः । तमो भूमः शङ्खाख्योऽन्यस्तमिश्रः पञ्चमोक्षितो ॥३६॥ हिमाख्यो मर्दलो लल्लकः षष्ठयां प्रतरास्त्रयः । अवधिस्थाननामको महातमः प्रभावनी ||३७|| सर्वेष्वेकोनपञ्चाशत्प्रतरेषु भवन्ति च । तत्समा इन्द्रकाः श्रेणीबद्धा प्रकीर्णका बिलाः ||३८|| अर्थ:: - प्रथम नरक में तेरह (१३) पटल हैं । दूसरे में ग्यारह (११), तीसरे में नव ( ६ ), चौथे में सात (७), पांचवें में पांच (५) छठवें में तीन और सातवें नरक में एक पटल है। इस प्रकार सातों नरकों के सम्पूर्ण पटल ४६ हैं । पटलों के नाम -- सीमन्त, २ नारक, ३ रौरव, ४ भ्रान्त, ५ उद्भ्रान्त, ६ सम्भ्रान्त, ७ असम्भ्रान्त विभ्रान्त स १० त्रसित ११ वक्रान्त, १२ प्रवक्रान्त श्रीर १३ विक्रांत, ये तेरह पटल प्रथम पृथिवी अर्थात् प्रब्बहुल भाग में हैं । १ ततक, २ स्तवक, ३ वनक, ४ मनक, ५ खटक, ६ खटिका ७ जिल्ला, ८ जिह्विका ६ लोलो, १० लोलुप और ११ लोलुप नाम के ये ११ पटल द्वितीय शर्करा प्रभा पृथ्वी में हैं । १ तप्त २ तर्पित ३ तपन, ४ तापन, ५ निदात्र, ६ उज्ज्वलित, ७ प्रज्वलित सञ्ज्वलित र सम्प्रज्वलित नाम के पटल तृतीय वालुका प्रभा पृथिवी में हैं । १ चार, २ तार, ३ मार, ४ चवा, ५ तपनीय, ६ घट और ७ सङ्घाटन नाम वाले ये सात पटल चतुर्थ पङ्कप्रभा पृथिवी में हैं। १ तम, २ भ्रम ३ शङ्ख, ४ अन्ध Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अधिकार [२७ पौर ५ तमिश्र नामक ये पांच पटल पञ्चम धूमप्रभा पृथियो में हैं। (१) हिम, (२) मदंक और (३) लल्लक ये तीन पटल तमः प्रभा पृथिवी में हैं तथा अवधिस्थान नाम का एक पटल सप्तम महातमः पृथिवी में है। ये सम्पूर्ण पटल ४६ हैं और इनसे सम्बन्धित इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकोणक बिल भी होते हैं ।।२८-३८॥ अब सात श्लोकों द्वारा सातों नरकों के इन्द्रादिक बिलों का निरूपण करते हैं: सर्वेषां प्रतराणां स्युमध्यभागेषु चेन्द्रकाः । श्रेणीबद्धाः क्रमात पडत्याकारणव दिगष्टसू ॥३६।। श्रेणीबद्धाश्चतुदिक्षु प्रथमे पटले पृथक् । भवन्त्येकोनपञ्चाशत् प्रत्येकं चतुरस्रकाः ।।४०॥ अस्यादि पटलस्यापि चतुर्विदिक्षुसंस्थिताः । श्रेणीबद्धाश्च सन्स्पष्टचत्वारिंशत् पृयक् पृथक् ॥४१॥ ततः क्रमाद् द्वितीयादि पटलानां दिगष्टम् । अष्टावकैक रूपेण श्रेणीबद्धाः पृथक् पृथक् ।।४२॥ हीयन्ते तावदेवान्तिमे यावत् पटले स्फुटम् । श्रेणीबद्धा हि चत्वारस्तिष्ठन्ति तुर्यदिग्गताः ॥४३॥ सन्ति प्रकीर्णकाः सर्वे श्रेणीबद्धान्तराष्टसु । इन्द्रकश्रेणिसम्बन्धहीनाः पृथक् पृथक् स्थिताः ॥४४॥ प्रकीर्णका न सप्तभ्यां श्रेणीबद्धा महत्तराः। स्युश्चतुर्दिा चत्वारो मध्ये केन्द्रको भवेत् ॥४५॥ अर्थ:--सम्पुर्ण पटलों के मध्यभाग में एक एक इन्द्रक बिल होता है, और इस इन्द्रक की आठों दिशाओं में क्रम से पंक्ति के प्राकार श्रेणीबद्ध बिल होते हैं। प्रथम पृथ्वी के प्रथम पटल ( सीमन्त नामक इन्द्रक बिल ) की चारों दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में चतुष्कोण प्राकार को धारण करने वाले ४६, ४६ श्रेणीबद्ध बिल हैं और इसी पटल' के इसी इन्द्रक को चारों विदिशाओं में से प्रत्येक विदिशा में पृथक् पृथक ४८, ४८ श्रेणीबद्ध बिल हैं। इसी प्रकार कम से द्वितीयादि पटलों की आठों दिशा विदिशाओं में से प्रत्येक दिशा विदिशा में ये एक एक कम होते हुए एक पटल में एक साथ पाठ श्रेणीबद्ध घट जाते हैं, और ये इस प्रकार तब तक घटते जाते हैं जब तक कि अवधिस्थान नाम के अन्तिम इन्द्रक की चारों दिशाओं में चार श्रेणीबद्ध बिल रह जाते हैं। [ छह नरकों में ] श्रेणीबद्ध बिलों के ग्राउ अन्तरालों में इन्द्रक और श्रेणीबद्ध बिलों के सम्बन्ध से रहित Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ ] सिद्धान्तसार दीपक प्रकीर्णक बिल पृथक् पृथक् अर्थात् पुष्पों की भाँति यत्र तत्र स्थित हैं । सातवें नरक में चार दिशा में चार महान श्रेणीबद्ध बिल हैं और इनके मध्य में एक इन्द्रक है। यहां प्रकीर्णक नहीं होते। ॥३६-४५॥ अथ रत्नप्रभादिसप्तपृथ्वीनाम् विस्तारेण पृथक् पृथक् श्रेणीबद्धानां संख्या प्रोच्यते : रत्नप्रभायाः प्रथमे पटले श्रीबद्धा अष्टाशीत्यधिक त्रिशतानि । द्वितीये अशीत्यधिक त्रिशतानि 1 तृतीये द्वासप्तत्यधिक त्रिशतानि । चतुर्थे चतुःषष्टयधिक त्रिशतानि । पञ्चमे षट्पञ्चाशवधिक त्रिता । ५ प्रविमा शिवधिक त्रिशतानि । सप्तमे चत्वारिंशदधिक त्रिशतानि । अष्टमे द्वात्रिंशदधिक त्रिशतानि | नवमे चतुविशत्यधिक त्रिशतानि । दशमे षोडशाधिक त्रिशतानि ।। एकादशे अष्टाधिक त्रिशतानि । द्वादशे त्रिशतानि । त्रयोदशे पटले श्रेणीबद्धा द्विनबत्यधिकशतद्वय प्रमाणा भवन्ति । शर्करा प्रभेति-शर्करायां प्रथमे पटले श्रेणीबद्धाः चतुरशीत्यधिक शतद्वयं । द्वितीये षट्सप्तत्यधिकशतद्वयं । तृतीये अष्टषष्टयधिकशतद्वयं । चतुर्थे षष्ट्यधिकशतद्वयं । पञ्चमे द्विपञ्चाशदधिकशतद्वयं । षष्ठे चतुश्चत्वारिंशदधिकशतद्वयं । सप्तमे षट्त्रिंशदधिकशतद्वयं । अष्टमे अष्टाविंशत्यधिकशतद्वयं । नवमे विंशत्यधिकशतद्वयं । दशमे द्वादशाधिकशतद्वयं । एकादशे प्रतरे श्रेणीबद्धाः चतुरधिक द्विशतप्रमा भवेयुः । वालुकाप्रभेति वालुकायां आदिमे प्रतरे श्रेणीबद्धाः षण्णवत्यधिकशत प्रमाः। द्वितीये अष्टाशीत्यधिकशतप्रमाः । तृतीये' अशीत्यधिक शतप्रमाः। चतुर्थे द्वासप्तत्यधिकशतप्रमाः । पञ्चमे चतुःषष्टयधिकशतप्रमाः। षष्ठे घट्पञ्चाशदधिकशतप्रमाः । सप्तमे अष्टचत्वारिंशदधिक शतप्रमाः। अष्टमे चत्वारिंशदधिकशतप्रमाः । नवमे प्रतरे सर्वे च थेणीबद्धाः द्वात्रिंशदधिकशतप्रमाणा विज्ञेयाः । पङ्कप्रभेति - पङ्कप्रभायां प्रथमे पटले श्रेणीबद्ध विलानि चतुर्विशत्यधिकशतसंख्यानि । द्वितीये षोडशाधिकशतसंख्यानि । तृतीये अष्टाधिकशतसंख्यानि । चतुर्थे शतसंख्यानि । पञ्चमे द्विनवतिसंख्यानि । षष्ठे चतुरशीति संख्यानि। सप्तमे श्रेणीबद्धबिलानि षट्सप्तति संख्यानि स्युः । धूमप्रभेति-धूमनभाया प्राद्य पटले अष्टषष्टिः श्रेणीबद्धाः। द्वितीये षष्टिश्च । तृतीये द्विपञ्चाशत् । चतुर्थे चतुश्चत्वारिंशत् । पञ्चमे षड्त्रिंशत् श्रेणीबद्धा ज्ञातव्याः। तमःप्रभेति-तमः प्रभायां श्रेणीबद्धविलानि प्रथमे प्रतरे अष्टाविंशतिः। द्वितीये विशतिः । तृतीये द्वादश। महातमःप्रभेतिमहातमः प्रभायां पटले चत्वारः श्रेणीबद्धाः स्युः । अर्थ:-उपर्युक्त मद्य में सातों नरकों में स्थित ४६ पटलों में से प्रत्येक पटल के श्रेणीबद्ध बिलों की संख्या पृथक पृथक् दर्शाई गई है, जिसका अर्थ निम्नांकित लालिका के माध्यम से स्पष्ट किया गया है। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अधिकार [ २६ रत्नादि सातों पथ्वियों के प्रत्येक पटलों में श्रेणीबद्ध बिलों की संख्या: रत्नप्रभा शर्कराप्रभा । वालुकाप्रमा | पत्रप्रभा | धूमप्रभा तमः प्रभा श्रीगी प्र .पटल थिगी. पटल पटल महातम: प्रभा श्रेणी. की | संख्या पटल संख्या की श्रेणी संख्या संख्या संख्या पटम . श्रेणी, पटल की | संख्या संध्या संख्या संख्या ३८८ ३८० तर ३/१०८ ३६४ - ३५६ १२ ८४ २१२ २६५४ ३०. ४४२० अथ सप्तमहीनां प्रत्येक इन्द्रकश्रेणीबद्धप्रकीर्णकानां गणना कथ्यते : धर्मायामिन्द्रकास्त्रयोदश, थेणीबद्धा विशत्यधिक चतुश्चत्वारिंशच्छतानि, प्रकोर्णकाः एकोन विशल्लक्ष-पञ्चनवतिसहस्र-पञ्चात-सप्तषष्टिसंख्याश्च भवन्ति । वंशायां एकादशेन्द्रकाः। चतुर शीत्यधिकषड्विंशतिशतप्रमाः श्रेणीबद्धाः । चतुविशतिलक्ष-सप्तनवतिसहस्र-त्रिशतपञ्चोत्तर प्रमाणा: प्रकोर्णकाः । मेघामां नवेन्द्रकाः। षट्सप्तत्यधिकचतुर्दशशतसंख्याः श्रेणीबद्धाः। चतुर्दशलक्षाष्टनदति सहस्रपञ्चशतपञ्चदशप्रमाः । प्रकीर्णकाः । अञ्जनायां इन्द्रकाः सप्त । सप्तशत श्रेणीबद्धाः । नवलक्ष Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० सिद्धान्तसार दोपक नवनवतिसहस्र-द्विशत-त्रिनबति प्रमाणाः प्रकीर्णकाः । अरिष्टायां इन्द्रकाः पञ्च । श्रेणीबा षष्ट्यधिकद्विशतप्रमाः प्रकीर्णकाः द्विलक्ष-नवनवतिसहस्र-सप्तशत-पञ्चविंशत्यसंख्याः स्युः । भव इन्द्रकाः श्रयः । श्रेणीबद्धाः षष्टिश्च । प्रकीर्णकाः नवनवतिसहस्रनवशतद्वात्रिंशत्प्रमाः भवन्ति ।। माधव्यां इन्द्रकः एकोऽस्मि । अर्थः- सातों पृध्वियों में से प्रत्येक पृथ्वी के इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक बिलों को पृषा | पृथक् सस्था : क्रमांक नाम पृथिवी | इन्द्रक बिल श्रेणीबद्ध बिल | प्रकोणक दिख घर्मा २९९५५६७ ४४२. २६८४ वंशा २४९७३०५ मेघा १४७६ १४९८५१५ अञ्जना ९९९२९३ प्रतिष्ठा २१९७३५ मघवी माधवी प्रब आठ श्लोकों द्वारा सम्पूर्ण विलों के व्यास का विवेचन करते हैं : बिलानि सप्तभूमीनां चतुर्भागाश्रितानि च । असंख्पयोजन व्यासानि प्रोक्तानि जिनागमे ।।४६।। तेषां पञ्चमभागस्थ-बिलानि दुष्कराणि च । संख्ययोजनविस्ताराणि बोभत्साशुभान्यपि ।।४७।। अर्थ:-जिनागम में सातों नरकों में से अपने अपने नरक बिलों को संख्या का भाग असंख्यात योजन विस्तार वाले बिलों का प्रमाण कहा गया है, और उन्हीं अपने सम्पूर्ण बिलों का भाग वीभत्स, अशुभ और दुःखोत्पादक संख्यात योजन विस्तार वाले बिलों का प्रमाण कहा है ।।४६-४७॥ विशेषार्थ:-न्यथा-प्रथम पृथ्वी के कुल बिलों की संख्या तीस बाख है, इसका भाग अर्थात् ३००००००x=२४००००० ( चौबीस लाख } बिल असंख्यात योजन विस्तार वाले हैं और Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अधिकार ३००००००x=६००००० (छह लाख) बिल संख्यात योजन व्यास वाले हैं। ( २४ लाख+६ लाख-३० लाख ) । इसी प्रकार द्वितीयादि पृथ्वियों में भी जानना चाहिए । योजनानां च संख्यातविस्तारा इन्द्रका मताः। धेरणीबद्धा असंख्यातविस्तृता बुखमाजनाः ॥४८॥ केचित् प्रकीर्णका ज्ञेयाः संख्ययोजनविस्तराः। असंख्ययोजनध्यासाः केचित्पुष्पप्रकोएंकाः ।।४६।। अर्थः-दुःख के भाजनस्वरूप सम्पूर्ण इन्द्रक बिल संख्यात योजन विस्तार वाले और सम्पूर्ण श्रेणीबद्ध असंख्यात योजन विस्तार वाले हैं। पुरुषों के सदृश यत्र तत्र स्थित प्रकोणक त्रिलों में कुछ प्रकीर्णक बिल संस्थात योजन विस्तार बाले और कुछ असंख्यात योजन विस्तार वाले जानना चाहिये ॥४८-४६।। योजनः पञ्च चत्वारिशल्लविस्तरान्वितः । सोभन्तकेन्द्रकश्चाद्यः प्रथमे पटलेमतः ।।५।। वृत्ताकारोऽन्तिमेश्वभ्रऽवधिस्थानेन्द्रकोऽन्तिमः । लक्षेकपोजनव्यासो निष्कृष्टो दुःखपूरितः ॥५१॥ अर्थः-प्रथम पुथिवी के प्रथम पटल में स्थित सीमन्त नामक प्रथम इन्द्रक बिल (गोलाकार) ४५००००० ( ४५ लाख ) योजन विस्तार वाला है और अन्तिम ( सप्तम ) नरक का गोलाकार, निकृष्ट और जीवों को दुःखों से पूरित करने वाला प्रबधिस्थान नाम का अन्तिम इन्द्र क बिल १००००० योजन विस्तार वाला है ।।५०-५१॥ सहस्र कानवत्याषट्शतः षट्षष्टि संयुतः । योजनानां द्वित्रिभागाभ्यां शेषाः सर्वेन्द्रका मताः ॥१२॥ व्यासेन क्रमतो हीयमानाश्च पटलं प्रति । जम्बूद्वीपप्रमो यावत् स्यादेकश्चरमेन्द्रकः ॥५३॥ अर्थ:- भाग से संयुक्त ६१६६६ योजन व्यास प्रत्येक पटल के प्रत्येक इन्दक के व्यास में से तब तक हीन करते जाना चाहिये जब तक कि अन्तिम इन्द्रक का व्यास जम्बूदीप अर्थात् १००००० योजन का प्राप्त होता है ।।५२-५३।। विशेषार्थः...-प्रथम इन्द्रत्र बिल के विस्तार में से अन्तिम इन्द्रक का विस्तार घटा कर अवशेष में एक कम इन्द्रकों के प्रमाण का भाग देने पर हानि चय का प्रमाण प्राप्त होता है। यथा-प्रथम Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ ] सिद्धान्तसार दीपक इन्द्रक का विस्तार मनुष्य क्षेत्र सहश ( ४५००००० योजन ) है और अन्तिम इन्द्रक का विस्तार जम्बूद्वीप सदश ( एक लाख योजन ) है । इन दोनों का शोधन ( घटाने ) करने पर ( ४५०००००१०००००)=४४००००० योजन अवशेष रहते हैं. इनको एक क्रम (४६-१-४८ ) इन्द्रकों के प्रमाण से भाजित करने पर (४४००००० ४८ )=६१६६६ योजन प्रत्येक इन्द्रक का हानि चय होता है। इस हानि चय को उत्तरोत्तर घटाते हुए भिन्न भिन्न इन्द्रक बिलों का विस्तार प्राप्त कर लेना चाहिए। अथ सप्तनरकेषु संख्यातासंख्यातयोजन विस्तृतबिलानां पृथग रूपेण संख्या प्रोच्यते : रलप्रभायां बिलानि षट् लक्षाणि संख्येययोजन विस्ताराणि, चतुविशतिलक्षारिण असंख्येययोजन विस्ताराणि । शर्करापृथिव्यां पञ्चलक्षाणि संख्या व्यासानि, विशतिलक्षाणि असंख्यात विस्ताराणि च । बालुकायां त्रिलक्षारिश संख्ययोजन विस्ताराणि, द्वादशलक्षाणि असंख्ययोजनविस्तारारिण। पङ्कप्रभायां द्विलक्षसंख्य व्यासानि, अष्टलक्षाण्यसंख्यातयोजन ग्यासानि। धूमप्रभायां षष्टि सहस्राणि संख्य विस्तृतविलानि, द्विलक्षचत्वारिंशत्सहस्राणि असंख्य विस्तृतविलानि । तमःप्रभायां एकोनविंशतिसहस्रनवशतनवनवति प्रमाणानि संख्य व्यासविलानि, एकोनाशीतिसहस्रनवशत षण्णवति प्रमारिए असंख्यव्यासविलानि । महातमः प्रभायां एक बिलं संस्येय योजनविस्तृतं, चत्वारि बिलानि असंख्ययोजन विस्तृतानि । एवं सर्वारण्येकत्रीकृतानि बिलानि सप्तभूमिषु षोडशलक्षशीति सहस्रारिए संख्यात विस्ताराणि भवन्ति, सप्तषष्टिलक्षविशतिसहस्राणि-असंख्यातविस्तराणि भवन्ति च । विशेषा-उपयुक्त गद्य भाग में प्रत्येक नरक के संख्यात योजन विस्तार वाले और असंख्यात योजन विस्तार वाले बिलों की संख्या भिन्न भिन्न दर्शाई गई है, जिसका सम्पूर्ण अर्थ निम्नाङ्कित तालिका में निहित किया जा रहा है। इन संख्यात असंख्यात योजन विस्तार वाले विलों की संख्या प्राप्त करने का विधान इसी अध्याय के ४६-४७ श्लोक में बतलाया गया है । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अधिकार [ ३३ सातों नरकों के संख्यात असंख्यात योजन विस्तार वाले विलों का भिन्न भिन्न दिग्दर्शन: क्रमांक पृथिवी-नाम संख्यात यो. वि० बाले विलों की संख्या | | प्रसंख्यात यो वि० वाले दिलों की संख्या रत्नप्रभा ६०००००( छह लाख) सराप्रमा ५.०... (५ लाव) ३००००० ( ३ लाख) वालुका २४..... ( २४ लाख ) २०००००० ( २० लाख) १२००००० ( १२ लाख) ५००००० ( ८ लाख) २४०००० ( २ लाख ४० हजार) | पतप्रभा २०००००( २ लाख) धूमप्रभा ६०००० (६० हजार) १९९९९ ६ तम:प्रभा ७९९९६ महासमःप्रभा योग १६८०००० ( १६ लाख ५० हजार) ६७२०००० (६७ लाख २० हजार) इस प्रकार सातों नरकों के एकत्र किये हुये संख्यात योजन विस्तार वाले बिलों का प्रमाण सोलह लाख अस्सी हजार और प्रसंख्यात योजन विस्तार वाले बिलों का प्रमाण ६७ लाख बीस हजार है. इन दोनों को एकत्रित कर देने पर सातों नरकों के सम्पुर्ण बिलों का प्रमाण (१६८०००.+६७ २०.००)=८४.०००० अर्थात् चौरासी लाख होता है। इदानी सप्तपृथ्वीषु एकोनपञ्चाश दिन्द्रकाणां पृथक् पृथक् विस्तार: कथ्यतेः धर्मायां प्रथमे इन्द्र के व्यासः योजनानां पञ्चचत्वारिंशल्लक्षाणि । ततः एक नबति सहस्र-षट्शत-षट्पष्टि योजनर्योजनस्य द्विभागाभ्यां प्रत्येक हीयमान क्रमेण व्यासो। द्वितीये चतुश्चत्वारिंशल्लक्षाष्टसहस्र त्रिशतत्रर्यास्त्रशद्योजनानि योजनस्य विभागानामेको भागः। तृतीये त्रिचत्वारिंशल्लक्ष षोडशसहस्र षट्शत षष्ठिप्रमः द्वौ भागौ । चतुर्थे द्विचत्वारिशल्लक्ष पञ्चविंशति सहस्राणि । पञ्चमे एक चत्वारिंशल्लक्षत्रयस्त्रिशत् सहस्र त्रिशतत्रयस्त्रिशच्च एको भागः । षष्ठे चत्वारिंशल्लकचत्वारिशत्सहस्र षट्शतषट्पष्टिश्च द्वौ भागौ । सप्तमे एकोन चत्वारिंशल्लक्षपञ्चाशत्सहस्राणि प्रष्टमें अष्टत्रिंशल्लक्षाष्ट पञ्चाशत्सहस्र त्रिशतत्रयस्त्रिशत् एको भागः । नवमे सप्तत्रिशल्लक्षषष्टिसहस्रषट्पष्टिश्च हो भागो । दश मे षट्त्रिंशल्लक्षपञ्चसप्ततिसहस्राणि । एकादशे पञ्चत्रिशल्लक्षन्यशीतिसहस्रत्रिंशत Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ ] सिद्धान्तसार दीपक स्त्रिशच्चैको भागः । द्वादशे चतुस्त्रिशलक्षेकानवतिसहस्रषट्शत षट्पष्टिश्च द्वौ भागो। त्रयोदशे पटले इन्द्र कस्य विस्तारः चतुस्त्रिशल्लक्षारिए । वंशायां अग्नी इन्द्र के विस्तारः अर्यास्त्रशल्लक्षाष्टसहस्रविशात्रयस्त्रिशच्चैको भागः । द्वितीये द्वात्रिंशल्लक्ष षोडशसहस्र षट्शतषट्पटिट्टी भागौ । तृतीये एकत्रिशल्लक्ष पञ्चविंशतिसहस्राणि चतुर्थे त्रिशल्लक्ष त्रयस्त्रिशत्सहस्र त्रिशतत्रयस्त्रिशदेको भागः । पञ्चमे एकोन त्रिगल्लक्षकचत्वारिंशत्सहस्र षट्शतषट्पष्टिौँ भागौ। षष्ठे अष्टाविंशतिलक्षपञ्चाशत्सहस्राणि । सप्तम सप्तविंशति लक्षाष्टपञ्चाशत्सहस्र त्रिशतत्रयस्त्रिशच्चको भागः। अष्टमे षड्विंशतिलक्षषट्पष्टिसहन पशतषट्षष्टिनी भागौ । नवमे पञ्चविंशतिलक्षपञ्चसप्ततिसहस्राणि । दश मे चतुविशतिलक्षत्यशीतिसहस्रतिशतत्रयस्त्रिशदेको भाग: । एकादशे इन्द्र के विस्तार: योजनानां त्रयोविंशतिलकनवति सहस्रपद शतषट्षष्टिश्च त्रिभागीकृते योजनस्य द्वौ भागी । मेघायामादिमे इन्द्र के व्यास: योजनानां प्रयोविंशतिलक्षाणि । द्वितीये द्वात्रिंश निलक्षाष्टसहस्रतिशत त्रयस्त्रिशदेको भागः । तृतीये एकविंशतिलक्षपोडशसहस्रषट्शतषट्पष्टिी भागौ। चतुर्थेविंशतिलक्षपञ्चविंशतिराहस्राणि । पञ्चमे एकोनविंशतिलक्ष त्रयस्त्रियत् सहस्रविशतत्रयस्त्रिाच्चको भागः । षष्ठे अष्टादशलक्षेकचत्वारिंशत् सहस्रषट्शतपट - ष्टिी भागीः 1 सप्तमे सप्तदशलक्षपरचारात्सहस्राणि । अष्टम षोडशलक्षाष्टपञ्चाशत् सहस्रविशतत्रयस्त्रिशदेवो भागः । नवमे इन्द्रके पञ्चदशलक्षषट षष्टिसहस्रषट् शत पट षष्टिर्योजनविभागोकृतस्य द्वौ भागौ । अञ्जनायां प्रथमे इन्द्र के विस्तृतिः योजनानां चतुर्दशलक्ष पञ्चसप्ततिसहस्रारिए । द्वितीय त्रयोदशलक्षल्यशीतिसहस्त्रविशतत्रयस्त्रिश देको भागः। तृतीये द्वादशलक्षेकनत्र तिसहस्रषद शतषट बधिद्वीभागो। चतुर्थे द्वादशलक्षाः । पञ्चमे एकादशलक्षायसहसतिशत त्रयस्त्रिादेको भागः। षष्ठे दशलक्षषोडशसहस्रषट शतषट पष्टिटा भागौ। सप्तमे नवलक्षपञ्चविंशति सहस्राणि । अरिष्टायां प्रादिमे इन्द्र के अश्लक्ष त्रयस्त्रिशत्सहस्रत्रिशतत्रयस्त्रिसच्चको भागः। द्वितीये सप्तलक्ष कचत्वारिंशत्सहस्रघट गतषट्पष्टिही भागौ। तृतीये षट् लक्षपञ्चाशत्सहस्रारिए । चतुर्थे पञ्चलक्षाष्टपञ्चाशत् सहस्रविशतत्रस्त्रिगदेको भागः । पञ्चमे इन्द्रके व्यासो योजनानां चतुर्लक्षषट षष्टिसहस्रषट शत षटषष्टिद्वी भागौ । मघव्यां प्रथमे इन्द्रके विस्तृतिः योजनानां त्रिलक्षपञ्चसप्ततिसहस्राशि । द्वितीये द्विलक्षत्यशीतिसहस्र त्रिशतत्रयस्त्रिशत् योजनस्य विभागानां मध्ये चैको भागः । तृतीये एकलक्षेकनवतिसहस्रपट शत षट षष्टिही भागौ । माषव्यां इन्द्र के विस्तार: लक्षयोजन प्रमाणः । अर्थ:-- घर्मा पृथ्वी के प्रथम सीमन्त नामक इन्द्र क बिल का व्यास ४५ लाख योजन है, इसमें से ६१६६६३ योजन घटाते जाने पर उसी पृथ्वी के द्वितीयादि इन्द्रकों का विस्तार प्राप्त होता जाता है क्योंकि हानि चय का प्रमाण सर्वत्र ६१६६६० योजन ही है। इस हानि चय आदि के निकालने की विधि इसी अधिकार के नं० ५२-५३ श्लोकों के विशेषार्थ में देखना चाहिये । ___ उपयुक्त सम्पूर्ण गद्यभाग का अर्थ निम्नांकित तालिका में अन्तनिहित कर दिया गया है। [ उपयुक्त गद्य भाग को तालिका पृष्ट सं० ३६-३७ पर देखें ] Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वितीय अधिकार [ ३५ इन्द्रकादि तीनों प्रकार के बिलों का प्रमाण चार श्लोकों द्वारा कहते हैं: पाखवन्द्रकाणांस्यात्स्यौल्यं क्रोशेकसम्मितम् । शेषश्यन्त्रकाणां च क्रोशाधिधिक क्रमात् ॥५४।। अर्थः-प्रथम पृथिवी के इन्द्रक बिलों का बाहुल्य एक कोश प्रमाण है और अन्य शेष पवियों के बिलों का बाहुल्य क्रमशः प्राधा आधा कोश अधिक अधिक है । अर्थात् प्रत्येक पृथ्वियों के इन्द्रकों का बाहुल्य क्रमशः १ कोश, १३, २, २३, ३, ३३ और ४ कोश प्रमाण है ॥५४॥ स्थूलत्वं प्रथमे श्व श्रेणीबद्ध षुकीर्तितम् । कोशेक शानिभिः क्रोशतृतीयभागसंयुतम् ॥५५॥ ततः षट्श्वभ्रभूमीनां श्रेणीबद्ध निश्चितम् । स्थौल्यं क्रोशद्विभागाभ्यां प्रत्येकमधिकं क्रमात् ॥५६॥ अर्थः-प्रथम पृथिवी के श्रेणीबद्ध बिलों का बाहुल्य ज्ञानियों के द्वारा ११ कोश माना गया है, और शेष छह पृथ्षियों में से प्रत्येक भूमि के श्रेणीबद्धों का प्रमाण भाग अधिक अधिक माना गया है । अर्थात् प्रत्येक पृथिवी के श्रेणीबद्ध बिलों का प्रमाण क्रमशः १९ कोश, २ को०, २३ कोश, ३७ कोश, ४ कोश, ४३ कोश और ५७ कोश है ॥५५-५६।। पिण्डितं यच्च बाहल्यमिन्द्रकश्रेणिबद्धयोः । पृथक् षट्पृथिवीनां तत् प्रकोणकेषु सम्मतम् ॥५७॥ अर्थः-प्रथम आदि छह पश्चियों के इन्द्रक और श्रेणीबद्ध बिलों के बाहल्य का जो प्रमाण है उसे पृथक् पृथक् पृथ्वी का जोड़ने पर जो प्रमाण प्राप्त होता है वही उस पृथ्वी के प्रकीर्णक बिलों के बाहुल्य का प्रमाण माना गया है । अर्थात् १ (१+t) =२९ कोश, २ (१३१२)=३३ कोश । ३ (२+२)=४३ कोश 1 ४ (२३+३)=५ कोश । ५ (३+ ४)=७ कोश । ६ (३३ + ४)= कोश, सातवीं पृथ्वी में प्रकीर्णक बिलों का प्रभाव है ।।५७।। प्रतोऽमीषां सुख बोधाय पृथग व्याख्यानं क्रियतेः रत्नप्रभायामिन्द्रकाणां स्थूलत्वं क्रोशः स्यात् । श्रेणीबद्धानां क्रोशत्रिभागीकृतस्यैकभागाधिकक्रोशः । प्रकीर्णकानां कोशतृतीयभागाधिको द्वौ कोशी । शर्करायां चेन्द्रकानां स्थौल्यं सार्धक्रोशः । श्रेणीबद्धानां द्वौ कोशौ । प्रकीर्णकानां साधंत्रिकोशाः । बालुकायां इन्द्रकाणां बाहुल्यं द्वौ कोशी । श्रेणीबद्धानां द्वो कोशौ कोशत्रिभागानां द्वौ भागो। प्रकोणकानां चत्वारः क्रोशाः क्रोश विभागानां द्वौ भागा । पङ्कप्रभायां इन्द्रकायां सार्धद्विक्रोशौ । श्रेणीबद्धानां क्रोशास्त्रयः क्रोशतृतीयभागः । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्तसार दीपक सातों नरकों में स्थित १६ इन्द्रा धर्मा पृथिवी वंशा पृथिवी मेघा पृथिवी नाम इन्द्रक स्तार योजनों क्रमांक नाम इन्द्रक: विस्तार योजनों में | नाम इन्द्रक | विस्तार मोजना सीमन्त ३३०८३३३३ ३२१६६६६३ नारक स्तव तपित २३००.०० २२०८३३३३ २११६६६६३ ४४०८३३३३ ४३१६६६६३ । ३ ४२२५००० रौरव ३ वनक ३१२५००० सपन भ्रान्त मनक ३७३३३३३३ ४ तापन २०२५००० उद्भ्रान्त ५ | खटक ५ , विदाघ १९३३३३३१ सम्भ्रान्त ४.४१६६६३ खटिका २६५०००० उज्य असम्भ्रा . ३९५०००. जिल्ला २७५८३३३३ २६६६६६६३ १७५०००० १६५८३३२४ वित्रान्त ३८५८३३३३ | जिहिका J८ संज्वल ३७६६६६६३ लोलो २५७५००० असित ३६७५००० | १० | लोलुप । २४८३३३३३ | ११ तनलोलुप | २३९१६६६, वक्रान्त ३५८३३३३३ | अवक्रान्त १३ विक्रान्ता ३४००००० Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'द्वितीय अधिकार विलों का पृथक् पृथक् विस्तार पञ्जना पृथिवी परिष्टा पृथ्वी मघवी पृथ्वी माधवी पृथ्वी क्रमांक विस्तार योजनों में क्रमांक नाम इन्द्रक योजनों में कमांक नाम इन्द्रक विस्तार योजनों में क्रमांक नाम इन्द्रक विस्तार योजनों में १००००० अवधि स्थान १ पारा १४७५००० ८३३३३३३१ हिम १३८३३३३१२ । श्रम ! ७४१६६६३२ २८३३३३३ १२९१६६६१३ | शंख । ६५०.०० ३ | लल्लक | बचा १२००००० ६४ | अन्ध । ५५८३३३३ .५ | तपनीय ११०८३३३१४/५ , तमिश्र | ४६६६६६६ । घटमीय । ९२५०.. Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८] सिद्धान्तसार दीपक प्रकीर्णकानां स्थौल्यं क्रोशाः पञ्च, क्रोशषड्भागानां मध्ये पञ्चभागाः। धूमप्रभायां स्थूलत्वमिन्द्रकाणां त्रयः कोशाः । श्रेणीबद्धानां चत्वारः क्रोशाः। प्रकीर्णकानां च सप्तकोशाः । तमः प्रभायां इन्द्रकारणां बाहुल्यं सार्घत्रयः क्रोशाः । श्रेणीबद्धानां चत्वारः क्रोशाः क्रोत्रिभागानां द्वौ भागी। प्रकीर्णकानां प्रष्टोक्रोशाः क्रोशस्य षड्भागानाम को भागः । महातमः प्रभायां इन्द्रकस्य चत्वारः कोशाः । श्रेणीबद्धानां पञ्चक्रोशाः कोशस्यतृतीयो भागः । सप्तमे प्रकोर्णका न सन्ति । उपर्युक्त गद्य में सातों पृथ्वियों के इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक बिलों का पृथक् पृथक् बाहुल्य बताया गया है जिसका सम्पूर्ण अर्थ निम्नांकित तालिका के माध्यम से दर्शाया जा रहा है। सातों नरकों के इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक बिलों को मोटाई: | क्रमांक नाम पृथिवी इन्द्रक बिलों का बाहुल्य थेणीबद्धों का बाहुल्य प्रकाणंकों का बाहुल्य - १६ कोश बाहुल्य २१ कोश बाहुस्य रत्नप्रभा | कोश नाहुल्य शकरा । १६ , , वालुका पप्रभा धूमप्रभा तम:प्रभा ७ महातम:प्रभा पृथ्वीनां पटलच्याप्तक्षेनं प्रतरसंख्यको। समभागविभक्त' युक्त्योवधिश्चान्तरं मतम् ॥५॥ अर्थ:-पृथिवी के पटल व्याप्त क्षेत्र को एक कम प्रतर संख्या से (श्लोक में समभागः पद है इससे ज्ञात होता है कि पटलों के अन्तरालों का ग्रहण किया है क्योंकि सभी नरकों में पटलों को संख्या विषम और अन्तरालों की संख्या पटल संख्या से एक कम अर्थात् सम रूप है ) भाग देने पर ऊपर के पटल से उसके नीचे के पटल का अन्तर प्राप्त होता है । जैसे प्रथम पृथिवी में पटल व्याप्त क्षेत्र ७८००० योजन है। पटल संख्या १३ है, १३ पटलों में (१३-१) बारह अन्तराल हुए, अतः ७८००० Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अधिकार [ ३६ योजन को १२ से भाग वेने पर (७५०००१२)६५०० योजन प्रति पटल अत्तर का प्रमाण प्राप्त होता है । इसी प्रकार द्वितीया आदि पृथिवियों में जानना चाहिये ।।५८।। सातों पृष्टिवयों के बिल व्याप्त क्षेत्र का प्रमाग: धर्मायां बिलव्याप्तक्षेत्रं योजनानामष्टसप्ततिमहाणि । वंगायां च विशत्सहस्राणि । मेघायां पविशतिसहस्राणि । प्रजानायां द्वाविंगतिसहस्रागि। अरिष्टायां अष्टादशसहस्राणि । मघयां चतुर्दशमहस्राणि । माघध्यां बिलव्याप्तक्षेत्र पञ्चक्रोशाः क्रोग त्रिभागानामे को भागः। ___ अर्थ:-धर्मा पृथ्वी में बिल व्याप्त क्षेत्र का प्रमाण ७८००० योजन, वंशा में ३०००० योजन, मघा में २६१० : पोजन, गन्जता में २००० योजन, अरिष्टा में १८००० योजन, मघवी में १४००० योजन और माघबी पृथ्वी में विन व्यास क्षेत्र का प्रमाण ५३ कोग (महाकोग) है । विशेषार्थ:- रत्नप्रभा आदि छह पृथ्थियों में नीचे ऊपर की एक एक हजार योजन भूमि छोड़ कर विल स्थित हैं अतः अपनी अपनी पृथ्वी की मोटाई में से दो हजार कम कर देने पर बिल व्या भूमि का प्रमाण प्राप्त हो जाता है। जैसे:-अब्बहुल भाग ८००००० (अस्सी हजार ) मोटाई वाला है उसमें से ऊपर नीचे के दो हजार घटा देने पर बिल व्याप्त क्षेत्र का प्रमाण ७८ हजार योजन प्राप्त हो जाता है । ऐसा ही अन्यत्र जानना । केवल ७ वी माधवी पृथ्वी के ठीक मध्य भाग में एक इन्द्रक और चार श्रेणीबद्ध घिल हैं जिनसे व्यास क्षेत्र का प्रमागा ५२ कोश मात्र है। अब बिलों का रि.थंग अन्तर चार श्लोकों द्वारा निरूपित किया जाता है : क्रमेणवेन्द्रकरणी-बद्धप्रकीर्णकेष्वपि । संख्यातयोजनव्यास, बिलानामन्तरं स्मृतम् ।।५।। तिर्यगन्तं जघन्येन, सार्धयोजनमागमे । योजनत्रिकमुत्कृष्ट, मध्यमं बहुधा च तव ।।६०।। प्रसंख्ययोजनव्यास, बिलानां तिर्यगन्तरम् । जघन्यं योजनानां स्यात्, सप्तसहस्त्र सम्मितम् ॥६१॥ सर्वोत्कृष्टमसंख्यातयोजनान्यन्तरं स्मृतम् । जघन्योत्कृष्टयोर्मध्ये मध्यमं बहुभेदभाक् ॥६२।। अर्थ:-जिनागम में इन्द्रक श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक बिलों में से संख्यात योजन विस्तार वाले बिलों का तिर्थम् अन्तर जपन्य १३ योजन, उत्कृष्ट ३ योजन और मध्यम अन्तर अनेक भेद वाला कहा Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० ] सिद्धान्तसार दीपक गया है, तथा असंख्यात योजन व्यास वाले बिलों का तिर्यग् अन्तर जघन्य सात हजार योजन, उस्कृष्ट असंख्यात योजन और जघन्य उत्कृष्ट के मध्य में रहने वाले मध्यम भेदों का तिर्यग् अन्तर अनेक प्रकार का कहा गया है ।।५६-६२।। विशेषार्थः–इन्द्रक बिल संख्यात योजन और श्रेणीबद्ध असंख्यात योजन विस्तार वाले ही होते हैं। प्रकीर्णक में दोनों प्रकार के हैं । अब प्रत्येक पटल को जघन्य और उत्कृष्ट आयु का दिग्दर्शन कराते हैं : प्रथमे पटले सोमन्तके चायुलघुस्थितिः । दशवर्ष सहस्त्राणि, प्रोत्कृष्ट नायुरूजितम् ।।६३॥ नवतिश्च सहस्राणि, द्वितीये स्थितरुसमा । लक्षारच नवतिश्चासंख्य पूर्वकोटि सम्मिता ॥६४।। तृतीयेऽन्येषु सर्वेषु, पटलं प्रतिवर्धते ।। समुद्रदशभागाना-मेको भागोऽप्यनुक्रमात् ।।६।। अर्थः- प्रथम पृथ्वी के प्रथम सीमन्त पटल के नारकी जीवों की जघन्य प्रायु दश हजार (१००००) वर्ष और उत्कृष्ट आयु नब्बे हजार (६००००) वर्ष है । दूसरे पटल को उत्कृष्ट प्रायु नब्बे लाख वर्ष, तीसरे पटल की असंख्यात पूर्वकोटि और चौथे पटल की उत्कृष्ट प्रायु एक सागर के दशवें भाग अर्थात् सागर प्रमाण है । इसके प्रागे सम्पूर्ण पटलों की उत्कृष्ट प्रायु का वृद्धि चय सागर है अर्थात् पुर्व पूर्व पटलों की उत्कृष्ट प्रायु में सागर जोड़ने से प्रागे पागे के पटबों की उत्कृष्ट प्रायु प्राप्त होती जाती है ॥६३-६५।। प्रथमे पटले ज्येष्ठं, यश्चायुस्तद्वितीयके । जघन्यं समयेनाधि-कं सर्वत्रेसि संस्थितिः ॥६६॥ अन्तिमे प्रतरेऽस्यायु-रुत्कृष्ट सागरोपमम् । द्वितीयादिष्यितिज्येष्ट-माय: स्यात्पटलेऽन्तिमे ॥६७॥ सागराश्च त्रयः सप्त-दशसप्तदशकमात् । वाविशतिस्त्रयस्त्रिश-दित्युत्कृष्टायुषः स्थितिः ।।६।। विभक्त समभागेना-मुर्भाग: प्रतरप्रमैः । श्वभ्राणां पटलेषु स्थात् क्रमवृद्धघा पृथक् पृथक् ॥६६॥ अर्थ:-प्रथम (ऊपर के) पहल की जो उत्कृष्ट प्रायु है उसमें एक समय अधिक कर देने पर वही द्वितीय (नीचे के ) पटल की जनन्य आयु बन जाती है यह विधि सर्वत्र जानना चाहिये ॥६६॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अधिकार प्रथम पृथिवो के प्रतिमा की जामा एक हजार प्रमाणा है । इसी प्रकार द्वितीयादि पृध्वियों के अन्तिम पटलों की उत्कृष्ट प्रायु क्रमशः ३, ७, १०, १७, २२. और ३३ सागरोपम प्रमाण है ॥६७-६८।। प्रत्येक नरक को उत्कृष्ट आयु में से जघन्य प्राय को घटाकर शेष को पटल संख्या से भाग देने पर नरकों के प्रत्येक पटल की आयु वृद्धि का प्रमाण प्राप्त होता है। जैसे द्वितीय नरक की अधन्यायु एक सागर, उत्कृष्टायु तीन सागर है, अतः वृद्धि का प्रमाण (३-१) -२ सागर है, पटल संख्या ११ से दो सागर वृद्धि को भाग देने पर कर सागर प्रति पटल वृद्धि का प्रमाण प्राप्त होता है ।। ६६॥ अथ सर्वनरकपटलानां प्रत्येकं जघन्योत्कृष्ट भेदाभ्यामायुरुच्यते: रत्नप्रभायां प्रथमे पटले जघन्यायुर्दशसहसवर्षारिग । उत्कृष्पायुवतिसहस्रवरिश। द्वितीये च जघन्यायुर्वर्षाणां नवतिसहस्राणि ज्यष्टायुवति लक्षाश्च । तृतीये निःकृष्टायुवतिलक्षा । उत्कृष्टायुरसंख्यकोटि पूर्वाणि । चतुर्थे जघन्यायुरसंख्यकोटि पूर्वाणि । ज्येष्टायुरेककोटोकोटि पल्यानि । पञ्चमे जघन्यायुरेककोटीकोटि पल्यानि। उत्कृष्टायुद्धिकोटीकोटि पल्यानि । षष्ठे निकृष्टायुद्धिकोटोकोटि पल्याश्च । ज्येष्टायुस्त्रि कोटीकोटिपल्यानि । सप्तमे जघन्यायुः स्थितिः त्रिकोटीकोटि पल्योपमानि । ज्येष्टायुश्च तुः कोटीकोटि पल्यानि । अष्टमे जवन्यायुश्चतुःकोटीकोटि पल्योपमानि । उत्कृष्टादूरधसागरः । नवमे निःकृष्टायुरर्धसागरः । ज्येष्टायुः षट्कोटोकोटि पल्यानि । दशमे जघन्यायुःस्थितिः षट्-कोटोकोटि पल्यानि । उत्कृष्टा च सप्तकोटोकोटि पल्यानि । एकादशे निःकृष्टायः सप्तकोटीकोटि पल्यानि ज्येष्टायुरष्टकोटीकोटि पल्यानि। द्वादशे जघन्यायुरष्टकोटीकोटि पल्यानि | ज्येष्टायुर्नवकोटी. कोटि पल्या नि । त्रयोदशेपटले नारकाणां जघन्याय नवकोटीकोटि पल्यानि । परमास्थितिः एक: सागरः ।। शर्कराप्रभाया आदिमे प्रतरे जघन्यायुरेकसागरः। उत्कृष्टायु रेकसागरः सागरकादश भागानां वो भागो। द्वितीये जघन्यायुरेकसागरः द्वौ भागौ। ज्येष्टायु रेकोऽधिश्चत्वारो भागाः। तृतीये निःकृष्टायु रेक सागरः भागाश्चत्वारः । ज्येष्टायुरेकसमुद्रः भागा: षट् च । चतुर्थे निःकृष्टास्थितिरेकोऽब्धिः षड् भागाः । उत्तमा स्थितिरेकोऽब्धिरष्टौ भागाः । पञ्चमे जघन्यायुरेकोजलधिरष्टी भागा। । उत्कृष्टा युरेक सागरः भागादश षष्ठे निःकृष्टायुरेकोऽनिधर्भागादश । ज्येष्ठायु द्वौं सागरी सागरकादशभागानां एकोभाग.। सप्तमे जघन्यास्थितिः द्वौ सागरी एकोभागश्च । उत्तमा स्थितिः द्वौ सागरी भागास्त्रयः । अष्टमे जघन्यायो समुद्रौ भागास्त्रयः । उत्कृष्टायुर्ती सागरौ भागाः पञ्च ॥ नवमे नि:कृष्टायुडीं सागरौ 'भागा: पंच । ज्येष्टायुहीं सागरी भागाः सम । दशमे जघन्यायु: जनधिभामा: सप्त । उत्कृष्टायु: समुद्रौ सागरकादशभागानां नवभागा। एकादशे नारकाणां जघन्यायुी सागरी नवभागाः। उत्कृष्टायुस्त्रयः सागरः । बालुकायाः प्रथमे प्रतरे जघन्या स्त्रयः सागराः । उत्कृष्टायुस्त्रयः सागरा: सागरनवभागानां चत्वारोभागा: । द्वितीये नि:कृष्टायुस्त्रयः समुद्रा: भागाश्चत्वारश्च । ज्येष्ठायः सागरास्त्रयः भागा अष्टौ। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ ] सिद्धान्तसार दोपक I तृतीये जघन्यायुः समुद्रास्त्रयभागा धष्टौ । उत्कृष्टायुः सागराश्चत्वारः सागरस्यनवभागानां त्रयोभागाः । चतुर्थे जघन्यायुः समुद्राश्चत्वारः भागास्त्रयश्च । ज्येष्ठाय : सागराश्चत्वारः भागाः सप्त । पञ्चमे जघन्या स्थितिञ्चत्वारोऽम्बुधयः भागाः सह । उत्तमा स्थितिः समुद्राः पञ्च भागो द्वौ । षष्ठे जघन्यायुः सागराः पञ्च भागी द्वौ द्रौ । उत्कृष्टायुः पञ्चान्धयः भागाः यट् । सप्तमे निःकृष्टायुः पञ्च समुद्राः भागाः षट् ज्येष्ठायुः सागराः षट् भाग एक: । भ्रष्टमे जघन्यायुः समुद्राः षट् भाग एकः । उत्कृष्टायुः सागराः षट् । सागरस्य नवभागानां पञ्च भागाः । नवमे पहले नारकाणां जघन्यायुः षट् समुद्राः भागाः पञ्च । उत्कृष्टायुः सप्त सागराः ॥ पद्मप्रभायाः आदिमे प्रतरे जघन्यायुः सप्ताम्बुधयः । उत्कृष्टभ्यः सप्तसागराः सागरसहभागानां त्रयो भागाः । द्वितीये निकृष्टाय साम्बुश्रयः त्रयोभागाः । ज्येष्ठायुः सप्तसागराः भागाः षद् | तृतीये लघुस्थितिः समुद्राः सप्त भागाः षट् । बृहत्स्थतिः श्रष्टौसागराः द्वौ भागौ । चतुर्थे जघन्या रौ समुद्रा द्वी भागी । उत्कृष्टाय र सागराः पञ्चभागाश्च । पञ्चमे निकृष्टाय रष्टी जलधयः भागाः पञ्च । ज्येष्ठाबु सागरा नव एको भागः । षष्ठे जघन्यायुर्नवसागराः एको भागः । ज्येष्ठः युनंव समुद्राश्चत्वारो भागाः । सप्तमे नारकारणां जघन्या स्थितिर्नवाम्बुधयः भागाश्चत्वारः । परमा स्थितिः सागराः दा । धूमप्रभायाः प्रथमे प्रतरे जघन्यायुर्दशसागराः । उत्कृष्टायुरेकादश समुद्राः सागर पञ्च भागानां द्वौ भागौ । द्वितीये निकृष्टायुरेकादशाब्धय हो भागौ च । ज्येष्ठायुर्द्वादशस गराभागाश्चत्वारः । तृतीये जघन्या स्थितिदिशस मुद्राश्चत्वारो भागाः । ज्येष्ठायु चतुर्दशसागराः एको भागः । चतुर्थे निःकृष्टायुचतुर्दश समुद्राः एको भागः । उत्कृष्टायुः पञ्चदशाब्धयस्त्रयो भागाः । पञ्चमे जघन्या स्थितिः पञ्चदशाब्धयः त्रयो भागाः । परमायुः सप्तददा सागराः । तमः भाया आदिमे पटले जघन्यायुः सप्तदश जलवयः । 'उत्कृष्टायुरष्ट्रादश सागराः सागरस्य त्रिभागानां द्वौ भागौ । द्वितीये निःकृष्टाय रष्ट्रादशाब्धयः द्वौ भागौ । ज्येष्ठाय विशति सागरः सागरस्य तृतीयो भागः । तृतीये जघन्याय विशति सागराः सागरस्य तृतीयो भागः । परमाय ु द्वाविंशतिसागरोपमम् । महातमः प्रभायाः पटले नारकाणां जघन्यायः सागराः द्वाविंशतिः । उत्कृष्टाय स्त्रयस्त्रिशत्साग रोपमम् । विशेष गद्य भाग में सातों दृथ्वियों के ४६ पटलों की जघन्य उत्कृष्ट आयु का भिन्न भिन्न विवेचन किया गया है जिसका सम्पूर अर्थ तालिका के माध्यम से दर्शाया गया है। [ तालिका पृष्ठ ४४ व ४५ पर देखें ] :― अब प्रत्येक पटल के नारकियों के शरीर का उत्सेध कहते हैं। सप्तदण्डास्त्रयो हस्ताः षडंगुलास्तनुमतिः । उत्कृष्टानारकाणां व घर्मायाः पटलेऽन्तिमे ॥७०॥ जघन्येन यो हस्ताः श्रादिमे प्रतरे ततः । शेषषनरकेषु स्याद् द्विगुणा हिगुणोच्छ्रितः ॥७१॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अधिकार [ ४३ भागः पटलसंख्यानः भूमीना पटलेषु च । पृथग् विभक्त उत्सेधः क्रमाद् वृद्धियुतो मतः ।।७२।। अर्थी-धर्मा नामक प्रथम पृथ्वी के अन्तिम पटल में स्थित नारकियों के शरीर का उत्कृष्ट नत्सेध ७ धनुष, ३ हाथ और छह अगुल है ।।७०।। शेष छह नरकों के अन्तिम परलों में स्थित नारकियों के शरीर का उत्कृष्ट उत्सेध इससे दूना दूना होता गया है। प्रथम नरक के प्रथम पटल का जघन्य उत्सेध तीन हाथ प्रमाण है ॥७१।। वृद्धि के प्रमाण को पटल संख्या से विभाजित करने पर जो प्रति पटल वृद्धि का प्रमाण ग्रावे, उसको जोड़ देने से प्रत्येक पटल में शरीर का उत्सेध प्राप्त होता है ॥७२॥ विशेपार्थ:-प्रथम नरक के प्रथम पटल में शारीर का उत्सेध ३ हाथ है तथा अन्तिम पटल में उत्सेध ७ धनुष, ३ हाथ ६ अंगुल है 1 ७ ध. ३ हाथ ६ अंगुल में से ३ हाथ घटा देने पर ७ धनुष ६ अंगुल शेष रहे । यह वृद्धि १२ पटलों में हुई है, अत: सात धनुष ६ अंगुल को १२ से विभाजित करने पर दो हाथ , अंगुल प्राप्त होते हैं । यह प्रथम नरक के प्रत्येक पटल में वृद्धि का प्रमाण है । दूसरे नरक के अन्तिम पटल में शरीर उत्सेध ७ ध. ३ हाथ ६ अं का दूना है। अर्थात् ७ घ. ३ हाथ ६ अं० की वृद्धि हुई। पटल संख्या ११ है, अतः ७५० ३ हाथ ६ अं को ११ से विभक्त करने पर २ हाथ २०॥ अंगुल प्राप्त होते हैं। यही दूसरे नरक में प्रति पटल वृद्धि का प्रमाण है । इसी प्रकार तीसरे नरक के अन्तिम पटल में शरीर उत्सेध १५ ध. २ हा. १२ अं. का दुगना है; अर्थात् १५ ध. २ हा. १२ अं० की वृद्धि है । पटल संख्या ६ है, अतः १५ ध. २ हा. १२ अं. को 6 से भाजित करने पर एक ध. २ हा. २२ अं. प्राप्त होता है। यहीं तीसरे नरक के प्रत्येक पटल में शरीर उत्सेधकी वृद्धि का प्रमाण है । इसी प्रकार प्रागे भी जानना चाहिये। अथ विस्तरेण सर्वनरक प्रतरेणु नारकाणां देहोत्सेधः पृथक् पृथक् निगद्यते ... घाया. प्रथमे पटले नारकाणां कायोत्सेघस्त्रयो हस्ताः ततः क्रमाद् द्विहस्तसार्धाष्टांगुलवद्वया । द्वितीये च धनुरेक एको हस्तः सार्धाष्टांगुलाः । तृतीये एकं धनुः हस्तास्त्रय अंगुलाः सप्तदश । चतुर्थे द्वे धनुशो द्वौ करो सार्धागुलः । पञ्चमे धनुषि त्रीणि गुलादश । षष्ठे त्रीणि धषि द्वौ करौ साष्टिा दशांगुलाः सप्तमे चत्वारि चापानि एको हस्तः त्रयोंऽगुलाः । अष्टमे चत्वारि धनुषि त्रयो हस्ताः सार्धे का दशांगुला: 1 नवमे पञ्च दडा एको हस्तः विंशतिरंगुलाः । दशमे षट् चापानिसाधंचत्वारोंऽगुलाः । एकादशे षड्धनुषि द्वौ करो त्रयोदशांगुलाः । द्वादशे सप्त धषि साकविंशति रंगुलाः । त्रयोदशे पटले नारकारणां देहोत्सेधः सप्त चापानि यो हस्ताः षडंगुलाश्च | बंशायां आदिमे पटले नारकशरीरोच्छ्रितिः अष्टौदण्डाः द्वौ करौ द्वौ अंगुली; अमुलैकादश भागानां द्वौ भागौ। ततो द्विकरविशत्यंगुलै रंगुर्लकादश भागानां द्विभागाभ्यां क्रमबुद्धया ॥ द्वितीये नव चापानि द्वाविंशत्यं Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्तसार दोपक . सातों नरकों के प्रत्येक पटल की धर्मा पृथियो मा पृथिबो पटल संख्या जपन्य प्रायु उत्कृष्ट मायु पटल संख्या जघन्यायु | उत्कृष्ट १ सागर : ११ सागर १३२ सायर ११ सागर ३ | १ सागर | १०००० (दश ह.) वर्ष । ९०००० (९० हजार) वर्ष | २ | ९०००० (९० इ०) वर्ष ९०००००० (९० लाभ) वर्ष | ९००००.० (९० लाख) वर्ष । असंख्यात पूर्व कोटियाँ असंख्यात पूर्व कोटियाँ एक कोटाकोटी पल्प (सागर) एक कोटाकोटी पल्य दो कोटाकोटी पल्य (सागर) दो कोटाकोटी पल्य तीन कोटाकोटी पत्य (१३. सागर) तीन कोटाकोटी पत्य चार कोटाकोटी पल्य (१ सानर) चार कोटाकोटी पल्य बाधा (1) सागर प्राधा सागर श्रा कोटा कोटी पल्य (सा) छह कोटाकोटी पल्य सात कोटाकोटो पस्य (सा०) सात कोटाकोटी पल्य पाठ कोटाकोटी पल्य (३ सा०) ग्राठ कोटाकोटी पल्प नौ कोटाकोटी पल्प ( मात) १३ । नौ कोठाकोटी पत्य एक गागरोपम २१ सागर २३९ सागर सागर २१ सागर ९ । २१ सागर २ सागर १० | २१ सागर २१ सागर | ११ | २५१ सामर ३ सागर Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अधिकार [ ४५ जघन्य उत्कृष्ट आयु का विवरण मेघा पृथिवी प्रचना पृथिवी अरिया पृथ्वी मघदी पृथ्वी | माघदो पृथ्वी | | | पटल पंख्या | जघन्यायु . पंटल सं० जघन्यायु Fe उत्कृष्टायु अधन्यायु उत्कृष्टायु पटल सं० । जवन्यायु उत्कृत्यु पटल सं० जघन्यायु उत्कृष्टायु ३४ सागर १ । ७ साग१ १० सागर ११३ साग १ १७ सागर १५६ साग१ २२ सा३३ सा ,, १४५ .. ३ १८३ .. २२ सागर "७ | १९१० सागर ७ सागर नोट:-यह जघन्य उत्कृष्ट प्रायु का प्रमाणा सातों पृस्चियों के इन्द्रक बिसों का कहा गया है, यही प्रमाण प्रत्येक प्रवियों के धेणीबद्ध और प्रकीर्णक बिलों में रहने वाले नारकियों का जानना चाहिये। (ति०५० २१ २१५) Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्तसार दीपक गुलाश्चत्वारो भागाः । तृतीये नवधन षि त्रयो हस्ता अष्टादशांगुलाः षड्भागाः । चतुर्थे दशचापानि द्वौ हस्तौ चतुर्दशा गुलाः भागा अष्टौ । पञ्चमे एकादश दण्डाः एकोहस्त दशांगुलाः दशभागाः । षष्ठे द्वादश चापानि अंगुलाः सप्त भाग एकः । सप्तमे द्वादश धनूषि त्रयः कराः त्रयों गुलास्त्रयोभागाः । अष्टमे त्रयोदश चापानि एक: करः त्रयोविंशतिरंगुलाः भागाः पञ्च । नबमे चतुर्दशदण्डाः एकोनविंशतिरंगुला: सप्तभागाः। दशमे चतुर्दश चापानि प्रयोहस्ताः पञ्चदशांगुलाः भागा नत्र । एकादशे प्रतरे नारकाकायोन्नतिः पञ्चदश दण्डाः द्वौ करो द्वादशांगुलाः ॥ मेघायाः प्रथमे पटले नारकाणां देहोत्सेधः सप्तदश धनू पि एको हस्तः दशांगुलाः अंगुल:त्रिभागानां द्वौ भागौ । ततः एक धनुः द्विकर द्वाविंशत्यंगुलश्शांगुलत्रिभागाना, द्विभागाभ्यां क्रमवृद्धया । द्वितीये पटले एकोनविंशति धषि नांगुला: अंगुलतृतीयभागः । तृतीये विशति चापानि त्रयो हस्ताः अष्टांगुलाः । चतुर्थे द्वाविंशति दण्डा द्वौ करौ षडंगुलाः द्वौ भागौ। पत्रमे चतुर्विंशति चापानि एकः कर: पञ्चांगुला अंगुल तृतीयभागः 1 षष्ठे षड्विंशति धनुषि चत्वारों गुलाः । सप्तमे सप्तविंशति चापानि यो हस्ताः द्रावंगुलो अंगुलस्य द्वौ भागौ । अष्टमे एकोनत्रिशद्धषि द्वौ करो एकांगुल: अंगुलतृतीय भागः । नत्रमे एकत्रिंशद्धनू षि एको हस्तः । अञ्जनाया अादिमे प्रतरे नारकाङ्गोत्सेधः पञ्चविंशाचापानि हो करो विशतिरंगुलाः अंगुलसप्तभागानां चत्वारो भागाः । ततश्चतुद्धं नुरेक हस्तविंशत्यंगुलश्चागुलसप्तभागानां चतुर्भागः बामद्धितः । द्वितोये चत्वारिंशद्धनुषि सप्तदशांगुलाः एको भागः । तृतीये चतुश्चत्वारिंशद्धनू षि द्वौ करो त्रयोदशांगुला: अंगुलसप्तभागाः पञ्चगृहयन्ते । चतुर्थे एकोनपञ्चाशदण्डाः दशांगुला : द्वौ भागो । पञ्चमे त्रिपञ्चाशच्चापानि द्वौ हस्ती षडंगुलाः भागाः षट् । षष्ठे अष्टाञ्चाशच्चापानि त्रयोऽगुलाः अंगुलसप्तभागानां त्योभागाः । सप्तमे द्विषष्टि चारानि द्वौ करो। अरिष्टायाः प्रथमे पटले नारकांगोछितिः पञ्चसप्तति धनूषि तत: द्वादशधनूद्धि करः क्रमवद्ध्या। द्वितीये च सप्ताशीति चापानि द्वौ करी । तृतोये शतधनुषि । चतुर्थे द्वादशाधिकशतदण्डाः द्वौ हस्तौ । पञ्चमे पञ्चविंशत्यधिकशत धनूषि । मघव्या प्रादिमे प्रतरे नारकदेहोत्सेधः षष्टयाधिकशत चापानि द्वौ हस्तौ पोशांगुला. । ततः एकचत्वारिंशद्धनु: द्विकर पोडशांगुलैः क्रमवृद्धया। द्वितीये अष्टाधिकहिदात चागानि एक हस्तः अष्टांगुनाः । तृतीये सार्धद्विशतचापानि । माघव्याः प्रतरे नारकाणां देहोत्सेधः पञ्चशतचारानि । प्रय विस्तार से सातों नरकों के सम्पूर्ण पटलों में स्थित मारकी जीवों के शरीरका उत्सेध पृथक पृथक् कहते हैं : घर्मा पृथ्वी के प्रथम पटल में स्थित नारकी जीव के शरीरका उत्सेध ३ हस्त प्रमाण है और इस पृथ्वी के वृद्धि का प्रमाण २ हाथ, ८ अंगुल है । अर्थात् प्रथम पटल के उत्सेध में इस वृद्धि चयको जोड़ देने से आगे आगे के पटलों के नारकियों के शरीरों का उसेध प्राप्त होता जाता है । जैसे:- ३६०+२१० ५१०=१ धनुष १ हाथ ८३ अं० दूसरे पटल का उत्सेध होता है। इसी प्रकार (३) १५० ३६० १७ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अधिकार श्रं० । (४) २६० २६० १३ अं० । (५) ३६० १० अं० । (६) ३ १ ह० ३ अं० 1 ( ८ ) ४ ० ३ ० ११६ अं० (६) ५ ० १ (११) ६६० २६० १३ अं० । (१२) ७ १०३ और उत्सेध ७ ध० ह० ६ अं. होता है । ० २ ० १५३ ० २० ० । (१०) ६१० ४३ अं० । कारीर का ० करते हैं : [ ४७ । ( ७ ) ४ ६० वंशा पृथ्वी के प्रथम पटल में नारकी जीवों के शरीर का उत्सेधमध० २ ० २६६ ० है । यहाँ क्रम वृद्धि का प्रमाण २ ० २०३५ ० है । उत्तरोत्तर इसी को जोड़ते हुये (२) ६६० २२, अ. (३) ६६० ३ ० १८६५ ॐ० । (४) १० ६० २ ० १४६ ० (५) ११ ० १ ० १०१ अं० (६) १२.७६ अं० (७) १२ ३०३५. । (८) १३ १० २३६ अं० । (६) १४ . १६ प्र. (१०) १४ ध. ३६० १५६० और (११) १५ ६० २ ० १२ अं. प्रमाण उत्सेध है । मेषा पृथ्वी के प्रथम पटल में नारकियों के शरीर का उत्सेध १७६ १६० १०३ अं० है । और यहाँ क्रम वृद्धि का प्रमाण १ ध. २६० २२३ अं० है । उत्तरोत्तर इसो चय को जोड़ते जाने से शरीर उत्सेध (२) १६ ध. ६६ अं (३) २० ध. ३ ० ८ अं० । (४) २२. २ ० ६३ अं. । (५) २४ ध. १ ० ५ अं. । (६) २६६.४ अं० । (७) २७ ध. ३६० २३ श्रं । (८) २६ २ ० १ ० प्रमाण है । (९) ३१ ध. १ हाथ अंजना पृथ्वी के प्रथम पटल में नारकियों के शरीर का उत्सेध ३५ . २ ह २० अं प्रमाण है और वहां के क्रम वृद्धिचय का प्रमाण ४ ध. १ ह. २०४ अंगुल है । (२) ४० ध १७७ अं. । (३) ४४ घ २ ६. १३७ अं. । (४) ४६ ध. १० . । (५) ५३ . २. ६७ अं (६) ५८. ३३ श्रं. और (७६२ ध २ हस्त प्रमाण उत्सेध है । अरिष्टा पृथ्वी के प्रथम पटल में नारकियों के शरीर की ऊँचाई ७५ ध० है और यहां क्रमशः वृद्धिचय का प्रमाण १२ ० २ हस्त है, अतः (२) ८७ ० २ ह. (३) १०० ध. (४) ११२६० २० और (५) १२५ धनुष प्रमाण उत्सेध होगा । मघवी पृथ्वी के प्रथम पटल में नारकी जीवों के शरीर का उत्सेध १६६ ध० २ ० १६ ० है और यहां क्रमश: वृद्धिचय का प्रसारण ४१ ६० २६० १६___ अंगुल है, अतः (२) २०८ ६० १६० ८ प्र. और ( ३ ) २५० धनुष प्रमाण उत्सेध है माघवी पृथ्वी के अवधि स्थान नामक अन्तिम पटल में नारकी जीवों के शरीर का उत्सेध ५०० धनुष प्रमाण है । ६ लोकों द्वारा नारकियों के उपपाद स्थानों के श्राकार, व्यास एवं दीर्घता का निरूपण खरशूकर मार्जार- कपिश्वानावि गोमुखाः । मधुकृतजाल सादृश्या घण्टाघोमुखसन्निभाः ॥ ७३ ॥ वृत्तास्त्र्याश्चतुः कोणा दुःस्पर्शा दुःखखानयः । दाभा प्रति बीभत्सा दुर्गन्धाश्च घृणास्पदाः ॥७४॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ ] सिद्धारास दी तमचयावृता निन्द्याः समस्त श्वभ्रभूमिषु । इन्द्राद्यषु कुत्स्नेषु योनयः सन्ति दुष्कराः ॥७५॥ क्रोको द्वौ त्रयः क्रोशाः योजनकं द्वयं त्रयम् । योजनानां शतं चेति व्यासः प्रोक्तोऽप्यनुक्रमात् ॥७६॥ सप्तानां योनीनां क्रोशाः पञ्चततो दशतथा पञ्चदश क्रोशाः पञ्चैव योजनानि च ।।७७ ॥ दश पञ्चदशां ते योजनानां शतपञ्चकम् । इति ध्यं क्रमात्प्रोक्तं सर्वासु श्वयोनिषु ॥७६॥ अर्थः- सातों नरक भूमियों में इन्द्रक श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक बिलों से सम्बन्धित योनियाँजन्म भूमियाँ गधा, सुकर, बिल्ली, बन्दर, कुत्ता और गाय आदि के मुख सदृश ( ऊपर सकरीं भीतर चौड़ी ). मधुकृत जाल सहश, घण्टाकार और अधोमुख हैं, उनके आकार गोल, त्रिकोण और चतुष्कोण हैं; तथा वे जन्मभूमियाँ दुःस्पर्श अर्थात् तीक्ष्ण, रूक्ष एवं घन स्पर्श से सहित दुःखों को खान ( आकर ) वज्राभा अर्थात् वज्र सटश कठोर तलभाग एवं दीवालों से युक्त, अत्यन्त ग्लानि एवं दुर्गन्ध उत्पादक, घृणास्पद, अन्धकार से व्याप्त निन्द्यनीय और दुष्कर अर्थात् भयङ्कर हैं । उन सातों नरक भूमियों से सम्बंधित सम्पूर्ण जन्म घोनियों का व्यास क्रमशः १ कोश, २ कोश, ३ कोश, १ योजन, २ योजन, ३ योजन, और १०० योजन प्रमाण कहा गया है। इसी प्रकार उनकी दीर्घता भी क्रमशः ५ कोश, १० कोश, १५ कोश, ५ योजन, १० योजन, १५ योजन श्रौर ५०० योजन प्रमाण कही गई है ।।७३-७८|| अब नरक प्राप्ति के कारणभूत परिणामों एवं श्राचरणों का दिग्दर्शन & श्लोकों द्वारा किया जा रहा है: ये सप्तयसनासक्ता बारम्भकुतोद्यमाः । श्रत्य सन्तोषिणो नोच-सङ्गश्री संग्रहोद्यताः ॥७६॥ प्रतृप्ताः कामसेवाद्य विषयाभिषलम्पटाः । खाद्यवादका निन्द्या अपेयपानपायिनः ||८०|| प्रत्यन्तनिर्दधाः क्रूराः क्रूरकर्मविधापिनः । ध्यानरता रौद्राः कृष्णलेश्या मदोद्धृताः ॥८१॥ जिनमार्ग बहिर्भू तांस्तीच मिथ्यात्व वासिताः । कुशास्त्राध्ययनोद्युक्का मिथ्यैकान्तमताश्रिताः ॥८३॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अधिकार [ ४६ पापकर्मरतानिय धर्मकर्मातिगाः पाठाः । पानवानजिनेन्द्रार्चा प्रतशोलाविदूरगाः ।।१३॥ हिसाविपञ्चपापापा नास्तिका धर्मदूषकाः । धर्मविघ्नकरा मिथ्या पापमार्गप्रवर्तकाः ।।४।। जिनशासनजनानां श्रावकारणां च पर्मिणाम् । मुनीना तोकटोणा शास्त्राणां मिवकाः खलाः ॥५॥ इत्यावि निन्यदुष्कर्म कारिणः पापपण्डिताः । नरा याश्चस्त्रियो दुटा-स्तिर्यञ्चो ऐनमानसाः ॥६॥ रौद्रध्यानेन मृस्थान्ते से ता यान्ति च पापिमः । समायोजन सायोगमाः सप्तेमाः इषभदुर्गसीः ॥७॥ .. अर्थः-दुष्ट चित्त वाले जो स्त्री और पुरुष निरन्तर सप्तव्यसनों में पासक्त, बहु प्रारम्भ परिग्रह में उद्यमशील, अत्यन्त असन्तोषी, नीच लक्ष्मो के संग्रह में सदा प्रयत्नशील, प्रतृप्त, कामसेवन प्रादि विषयों के मोर मांस भक्षण के लम्पटी, अभक्षभक्षण में रत, निन्ध कार्य करने वाले, अपेय अर्थात् शराब आदि का सेवन करने वाले, अत्यन्त निर्दय, क्रूर परिणामी, क रकर्म करने में संलग्न, रौद्रध्यान रत, रौद्रता एवं कृष्णलेश्या से अनुरजित, मद से उद्धत, जिनमार्ग से बहिर्भूत, तीव्र मिथ्यात्व से युक्तकुशास्त्रों के अध्ययन में उद्यत, एकान्त आदि मिथ्यारव को माश्रयदाता, पापकर्म रत, धर्म कर्म से निरन्तर दूर रहने वाले, पाठ, पात्रदान जिनेन्द्र पूजन और व्रतशील प्रादि सत्कर्मों से प्रति दूर, हिंसादि पाच पापों से युक्त, नास्तिक, समीचीन धर्म को दूषण लगाने वाले, धार्मिक कार्यों में विध्न मलने वाले. मिथ्या और पापमार्ग के प्रवर्तक, जिनशासन, जैनधर्मानुयायो, श्रावक श्राविकाओं, धर्मात्मानों मनिराजों, तीर्थंकरों और शास्त्रों को निन्दा करने वाले, दुष्ट स्वभावी निन्य और दुष्कर्म करने वाले तथा मओ पाप के पण्डित हैं वे मनुष्य एवं स्त्री तथा रोद्र परिणाम वाले दुष्ट पशु (तियंञ्च) अपनी पायु के अन्त में रौद्रध्यान से मरकर वे पापी पापोदय से अपने अपने परिणामों की योग्यतानुसार रत्नप्रभा मादि सातों नरक भूमियों में दुर्गति को प्राप्त होते हैं ॥७६-६७।। चार श्लोकों द्वारा वहां उत्पन्न होने वाले नारकियों की स्थिति एवं उनके निपतन भौर उत्प. तन का निर्देश करते हैं : प्रन्समुहूर्त कालेन ते तासु स्वधयोमिषु । षट् पर्याप्तोरघात्प्राप्प स्वोध्यपावाहपषोमुखाः ॥८॥ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० सिद्धान्तसार दीपक परं रावं प्रकुर्वाणाः पतन्त्यधोमहीतले । वज्रकण्टकशस्त्राने ततोऽतिदुःखविह्वलाः ।।६।। इव सूत्रावृताः पिण्डाः स्वयमेवोत्पतन्ति च । क्रोशत्रयं चतुर्भागाधिक योजनसप्तकम् ॥१०॥ घर्मायां शेष पृथ्वीष द्विगुणं विगुणं ततः । क्रमादुरपतनं ज्ञेयं नारकाणां सुदुष्करम् ॥१॥ अर्थः-उन नारक भूमियों में अन्तर्मुहूर्त काल द्वारा छह पर्याप्तिया पूर्ण कर ऊपर पर श्रीय नीचे है मुख जिनके तथा जो भयङ्कर शब्द कर रहे हैं ऐसे वे नारकी नीचे भूमितल पर गिरते हैं, और बज एवं कण्टक के सरश कठोर तथा शस्त्रों के अग्रभाग के सहश तीक्षण भूमिके स्पर्श जन्य अत्यन्त दुःख से विह्वल होते हुये गेंद के समान स्वयं ऊपर उछलते हैं। उन नारको जीवों का अत्यन्त दुष्कर उत्पतन धर्मापृथ्वी में सात योजन, तीन कोश और एक कोश का चतुर्थ भाग ( ५०० धनुष )(कोस अधिक ३ कोस ) प्रमाण और अन्य शेष छह पृध्वियों में इससे दूना दूना जानना चाहिये ॥१८-६१॥ ( सातवौं पृथ्वो में ५०० योजन प्रमाण ऊपर उछलते हैं ) प्रथामीषामुत्पतनं प्रत्येक सप्तनरकेषु प्रोच्यते :-- धर्मायां नारकाः घरायो निपत्य तत्क्षण ततः सपादत्रिक्रोशाधिक सप्तयोजनानि उत्पतन्ति । वंशायां साद्विकोषाधिक पञ्चदश योजनानि । मेघायां क्रोशाधिकैक त्रिशद्योजनानि । अञ्जनायां साहिष्टि योजनानि च । अरिष्टायां पञ्चविंशत्यधिक शत योजनानि । मघव्यां साधं द्विशतयोजनानि । माधव्या नारकाः भूमेः पंचशतयोजनानि चोत्पतन्ति । अब प्रत्येक नरकों में नारकियों का उस्पतन कहते हैं : अर्थः-धर्मा पृथ्वी के नारको भूमिपर गिरने के तत्क्षण हो पृथ्वी से सात योजन ३१ कोश ऊपर उछलते हैं । वंशा पृथ्वी के १५ योजन २३ कोश, मेघा पृथ्वी के ३१ योजन एक कोश, प्रजना पृथ्वी के ६२ योजन २ कोश, अरिष्टा पृथ्वी के १२५ योजन, मघवी पृथ्वी के २५० योजन और माघवी पृथ्वी के नारको जीव ५०० योजन ऊपर उछलते हैं। प्रब चार एलोकों द्वारा नारक पृध्वियों में सम्भव लेश्या का निरूपण करते हैं : धर्मायां स्पाजघन्या दु-लेश्या फापोतसंहिका । वंशापो मध्यमा कापो-ताल्पा नारकजन्मिनाम् ।।१२।। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अधिकार मेघायां सा खिलोकहा, जघन्या नोलनामिका । अजनायां च लेश्यास्ति, नीलारुपामधमाशुभा ॥१३॥ अरिष्टायां भवेत्रीलोत्कृष्टा कृष्णा जघन्यका । गाव मध्यमा कृष्णा, केला त्यामुष्टु निजिता ॥१४॥ माघठयां सकलोत्कृष्टा, कृष्णलेश्याऽशुमाकरा । इमास्त्रिस्रोऽशुभालेश्या दुःखाद्याक्लेशमातरः ॥६५॥ अर्थ:-जो दुःखों को देने वाली हैं और क्लेश को माता हैं नरकों में ऐसो तीन प्रशुभ लेश्याएं होती हैं। उनमें से धर्मा पृथ्वी में स्थित नारको जोबों के परिणाम जघन्य कापोत लेण्या से युक्त, वंशा में मध्यम कापोत, मेघा में उत्कृष्ट कापोत और जघन्य नौल, प्रजना में मध्यम नोल, अरिष्टा में उत्कृष्ट नील और जघन्य कृष्ण, मघवो में मध्यम कृष्ण और माधवी पृथ्वी में उत्पन्न नारको जीवों के परिणाम निन्दनीय उत्कृष्ट कृष्णलेश्या से अनुरस्जित होते हैं ।।६२-६५।। कितने संहननों से युक्त जीव किस पृथ्वी तक उत्पन्न होता है इसका निर्देश : प्राद्यान श्वभ्रत्रवान् यान्ति, षट्संहनन संयुताः। पञ्चमश्वभ्रपर्यन्तं, पञ्चसंहमनान्विताः ।।६६॥ षट् पृथ्व्यन्तं च गच्छन्ति, चतुः संहननाङ्किताः। पापिनः सप्तपृथ्व्यम्तमादि संहननानिमः ॥६७॥ अर्थ:--प्रादि के तीन नरकों तक छह संहननों से युक्त जीव जन्म लेते हैं, पाचवें नरक पर्यन्त सुपाटिका को छोड़ कर शेष पांघ संहनन वाले, छठवें नरक पर्यन्त सृपाटिका और कोलक को छोड़कर शेष चार संहनन वाले तथा सातवें नरक में ( ७ वें नरक पर्यन्त ) एक वजवृषभनाराचसंहनन से यक्त पापी जीव ही जन्म लेते हैं ॥६६-६७।। कौन जीव किस किस पृथ्वी तक जन्म ले सकते हैं ? इसका निदर्शन करते हैं : असंजिनोऽति पापेन बजन्ति प्रथमा क्षितिम् । सरीस द्वितीयान्तं यान्त्युत्कृष्ट कुपापतः ॥९॥ मांसाशिपक्षिणः क रास्तृतीमान्तं व्रजस्ति च । भुजङ्गमाश्चतुर्यन्तमत्यन्तक रकर्मभिः ।। वंष्ट्रियः सिंहन्याघ्राद्याः पञ्चम्यन्तं प्रयान्ति च । निःशीला प्रतिपापाठयाः षष्टयन्तं योषिताः' क्रमात् ॥१०॥ १: योषितोऽशुभात् प०। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ ] सिद्धान्तसार दीपक सप्तमोक्षितिपर्यन्तं महामरस्याश्चिरायुषः । महापापभराक्रान्ता नराइच यान्ति दुधियः ||१०१ ॥ अर्थ :-- प्रत्यन्त पाप के कारण असंज्ञी जोव प्रथम पृथ्वी तक ही जाते हैं । उत्कृष्ट पाप प्रवृत्ति सरिसर्प दूसरी पृथ्वी ( १ ली + २ री ) पर्यन्त जाते हैं। मांसभक्षी पक्षी क्रूर परिणामों के कारण तीसरी पृथ्वी पर्यन्त ( १ ली से ३ तक) जन्म हैं। अत्यन्त क्रूर कर्म रत होने से सपं चौथी पृथ्वी (१ ली से ४ यी ) पर्यन्त जन्म लेते हैं। दाढ वाले सिंहव्याघ्र आदि पाँचवीं पृथ्वी पर्यन्त हो जाते हैं। शील रहित एवं बहुत पाप से युक्त स्त्री छठवीं पृथ्वी पर्यन्त तथा दीर्घ श्रायु को धारण करने वाले महामत्स्य और महापाप के भार से प्राक्रान्त और खोटी बुद्धि को धारण करने वाले मनुष्य सातवीं पृथ्वी ( १ ली ते ७ वीं ) पर्यन्त जाते हैं ।। ६८-१०१ ॥ विशेषः – कर्मभूमि के मनुष्य एवं पञ्चेन्द्रिय तियंन्च ही नरकों में उत्पन्न होते हैं । कौन जीव किस नरक में कितनी बार उत्पन्न हो सकता है, इसका विवेचन तीन श्लोकों द्वारा करते हैं : उत्कृष्ट ेन स्वसन्तत्या सोऽसंज्ञो प्रथमावनों । अष्टवान् क्रमाद् गच्छेत् सरिसर्पोऽति पापतः ।। १०२ ।। सप्तवारान् द्वितीयायां तृतीयायां खगो व्रजेत् । षड् वाश्चि चतुर्थ्यां हि पचवारान् भुजङ्गमाः ।। १०३॥ पवम्यां च चतुर्वारान याति सिंहो निरन्तरम् । esort योषित् त्रिवारं सप्तम्यां वारद्वयं पुमान् ॥ १०४ ॥ अर्थ :- पाप के कारण यदि कोई असंज्ञो जीव उत्कृष्ट रूप से प्रथम पृथ्वी में उत्पन्न हो तो आठ बार, सरीसर्प यदि वंशा में निरन्तर उत्पन्न हो तो सात बार, पक्षी यदि मेघा में निरन्तर उत्पन्न हो तो छह बार सर्प यदि अञ्जना में निरन्तर उत्पन्न हो तो पांच बार, सिंह यदि प्ररिष्टा में निरन्तर हो तो बार बार, स्त्री यदि मघवी पृथ्वी में निरन्तर उत्पन्न हो तो तीन बार और यदि कोई मरस्य एवं मनुष्य मात्रवी पृथ्वी में उत्पन्न हो तो दो बार उत्पन्न हो सकते हैं ।। १०२-१०४ ।। विशेष ::-नरक से निकला हुआ कोई भी जीव प्रसंज्ञी और सम्मूर्च्छन जन्म वाला नहीं होता तथा सातवें नरक से निकला हुआ कोई भी जीव मनुष्य नहीं होता । वहां से निकले हुये जीव को श्रसंजो, मत्स्य और मानव पर्याय के पूर्व एक बार बीच में क्रमशः संज्ञी तथा गर्भज तिर्यश्व पर्याय धारण करनी ही पड़ती है। इसी कारण इन जीवों के बीच में एक एक पर्याय का अन्तर होता है, Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठितीय अधिकार [ ५३ किन्तु सरीसृप, पक्षी, सर्प, सिंह और स्त्री के लिये ऐसा नियम नहीं है, वे बीच में अन्य किसी पर्याय का अन्तर डाले बिना ही उत्पन्न हो सकते हैं । नरक से निकलने बाले जीवों की उत्पत्ति का नियम कहते हैं : पवन यो निर्गता ये ते तिर्यग नरगतितये । कर्मभूमिषु जायन्ते गर्भजाः संशिनः स्फुटम् ।।१०५॥ अवश्यं नारकाः करा निर्गताः सप्तमोक्षिते। करजातिषु तिर्यस्त्वं लभन्ते श्वसाधकम् ।।१०।। निर्गस्य नरकाज्जीवाश्चक्र शक्लकेशवाः। सच्छत्रयो न जायन्ते पायान्स्येते चपुता दिवः ॥१०॥ चतर्थनरकादेस्य न स्युस्तीर्षकरा भुवि । निर्गत्य पञ्चमश्वभ्रामचरमाङ्गा भवन्ति न ॥१०८।। जोवाः षष्ठात किलागस्य जायते यतयो न च । सप्तमश्वभ्रतः सासादना मिश्राङ्किताः ।।१०।। अर्थः-प्रथम पृथ्वी से षष्ठ पृथ्वी तक के मारको जोव नरक से निकलकर मनुष्य और तियश्च इन दो गतियों में कर्मभूमिज, गर्भज (पर्याप्तक ) और संज्ञो होते हैं, तथा सातौं पृथ्वी से निकले हुये क्रूर स्वभावी नारकी जीव पुनः नरक के साधन भूत क्रूर स्वभाव वाला जाति में तिर्यञ्चपने को प्राप्त करते हैं अर्थात् सातवीं पृथ्वी से निकले हुये नारकी जीव नियम से कर्मभूमिज, गर्भज, पर्याप्तक और संजी तिर्यच होते हैं ।।१०५-१०६।। विशेषः नरकों से निकले हुये जीव देव, नारकी, भोगभूमिज, असंजी, लक्ष्यपर्याप्तक और सम्मूच्छंन नहीं होते। नरक से निकले हुये जीव चक्रवर्ती, बलदेव, नारायण और प्रतिनारायण नहीं होते । ये उपयुक्त पदवीधारी जीव तो स्वर्ग से च्युत होकर ही आते हैं । चतुर्थ नरक से निकला हुमा जीव तीर्थदूर नहीं होता । पञ्चम नरक से निकले हुये चरमशरोरी नहीं होते। षष्ठ पृथ्वी से निकले हये सकलसंयमी नहीं होते और सप्तम पृथ्वी से निकले हुये नारको जीव सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि नहीं होते ।।१०७-१०६।। नरकस्य दुर्गन्धित मिट्टी को भीषणता का विवेचन करते हैं: प्रथमे पटले निन्ध पूतिगन्धोऽति दुस्सहः । मृत्तिकाया भमेव च्यापन कोशाचं प्राणदुःखदः ॥११०॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततोऽधोधः समस्तान्य पटलेष्वप्यनुक्रमात् । अन्तिम पटलं यावत् कोशाधू स प्रवर्धते ।।१११॥ अर्थ:-प्रथम पटल में निन्दनीय, खोटी दुर्गन्ध युक्त, अति दुरसह और घ्राण इन्द्रिय को दुःख देने वाली मिट्टी अर्ध कोश पर्यन्त फैलती है, और उससे नीचे नीचे के सम्पूर्ण अन्य पटलों में अनुक्रम से अर्ध अर्ध कोश वृद्धिङ्गत होते हुये अन्तिम पटल में उसका फैलाव २४३ कोस हो जाता है ॥११०-१११।। अस्यैव विस्तरं बेः घायाः प्रथमे प्रतरे मृत्तिकादुर्गन्धः कोशा प्रसरति । द्वितोये क्रोश च । तृतीये साधनो। चतुर्थे तो कोशौ । पञ्चमे सार्धक्रोशायं । षष्ठे कोश त्रयं । सप्तमे साधं क्रोमात्रयं । अष्टमे चतु:क्रोश्चि। नवमे सार्ध चतुःक्रोशान् । दशमे पञ्च क्रोशान । एकादशे साधं पञ्च क्रोशान् । द्वादशे षट् क्रोशान् । प्रयोदशे मृतिका दुर्गन्धः सार्घषब्रोशान व्याप्नोति ।। बंगाया आदिमे प्रतरे मृतिका दुर्गन्धः सप्त क्रोशान प्रसरेन् । द्वितीय साधंसप्तकोशांश्च । तृतोये अष्टक्रोशांश्च । चतुर्थे सार्धाष्टकोशान् । पञ्चमे नवक्रोशान् । षष्ठे सार्ध नवक्रोशान् । सप्तमे दशक्रोशान् । अष्टमे सार्धदशक्रोशान् । नवमे एकादशकोशान् । दशमे सार्ध कादशक्रोशान् । एकादशे द्वादश कोशात् मृतिकादुर्गन्धो भ्रमेत् । मेधायाः प्रथमे पटले मृत्तिकादुर्गन्धः सार्धद्वादशकोशान् व्रजति । द्वितीये त्रयोदशक्रोशांश्च । तृतीये सार्धत्रयोदशक्रोशान् । चतुर्थे चतुर्दशक्रोशान् । पञ्च मे सार्धचतुदंशक्रोशान् । षष्ठे पञ्चदश क्रोशान् । सप्तमे सार्धपञ्च दशकोशान् । अष्टमे षोडशक्रोशान् । नवझे सार्धषोडशक्रोशांश्च । अञ्जनाया आदिमे प्रतरे मृत्तिकादुर्गन्धः सप्तदशक्रोवान् गच्छेत् । द्वितीये सार्धसप्तदशकोशान् । तृतीये अष्टादशक्रोशान् । चतुर्थे साष्टिादशकोशान्। पन्चमे एकोनविंशति क्रोशान् । षष्ठे मार्द्ध कोन विंशतिक्रोशान् । सप्तमे विंशति क्रोशांश्च । अरिष्टायाः प्रथमे पटले मृत्तिकादुर्गन्धः सार्धविंशतिक्रोशान् भ्रमति । द्वितीये एकविपातिक्रोशांश्च । तृतीये सार्धेकविंशतिनोशान् । चतुर्थे द्वाविंशतिक्रोशान् पञ्चमे सार्धवाविंशतिक्रोशांश्च । मघव्या आदिम प्रतरे मृनिकादुर्गन्धः अयोविंशतिक्रोशान् गच्छे । । द्वितीये माधत्रयोविंशति क्रोशान् । तृतीये चतुविशति कोशांश्च । माघव्याः पटले मृतिकादुर्गन्धः सार्धचतुर्विशति क्रोशान् प्रसरति । नारको जीव मिट्टी का पाहार करते हैं । प्रथम पृथ्वी के प्रथम पटल के प्राहार की वह मिट्टी यदि मनुष्य लोक में प्रा जावे तो वह अपनी दुर्गन्ध के द्वारा प्रर्ध कोस के भीतर स्थित प्राणियों का संहार कर सकती है । आगे वह पटल क्रम से उत्तरोत्तर पर्व अर्ध कोस अधिक क्षेत्र में स्थित जीवों का विघात कर सकती है । उपर्युक्त गध में उस मिट्टी को दुर्गन्ध के इसी प्रसार कम का वर्णन किया है जिसका सम्पूर्ण अथं निम्नांकित तालिका मैं निहित है। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The H पटल १ २ ३ ४ U S ११ १२ घर्मा प्रसार का प्रमाण १ २ ३ Y M ५ F w १३ ૬ FIN कोस " 1 = 11 17 11 17 " 77 संख्या पटल १ २ ३ Y ५ ७ ८ ९ १० प्रत्येक पटल गत ६. " ११ वंशा प्रमाण ७ कोस * ७३ ८ ८ ९ ܀ܐ ११ ११३ १२ ני 21 17 17 FL 13 35 " पटल संख्या १ २ Mir १२३ १३ १३३ r ५ १४३ ६ १५ ७ १५३ १६ ९ १६३ ३ Y मेघा 5 मिट्टी की दुर्गन्धता के प्रसार का प्रमाण प्रमाण 11 12 " " 23 Ji 13 " पटल स० २ 후 Y ५. ६ ७ अञ्जना प्रमास १७ कोस १७३ JJ - 11 후 १५३ Y १९ १९३ 77 " पटल स० " १ २ ५ अरिष्टा प्रमाण २० कोस १ २१ २१३ २२ " Fr זי पटल सं० 23 २ لله मघवी प्रमाण २३ कोस २३३ २४ 12 " पटल सं० माधवो प्रमाण २४ कोस 1 द्वितीय अधिकार [ ५५ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ ] सिद्धान्तसार दीपक नारकियों के अवधि क्षेत्र का प्रमाण कहते हैं : एक योजनपर्यन्तं धर्मायामवधिर्मतः । सार्धक्रोशत्रयं स्माच्च वंशायां नारकांगिनां ॥ ११२ ॥ मेघायां च त्रिगव्यूतिरञ्जनायां भवोद्भवः । सायान्तं चारिष्टायाँ कोशयुग्मकम् ॥ ११३॥ मघष्यां सार्धगव्यतिरवधिर सूचकः । मनप्रयय एवाहो माघयां कौशसम्मितः ॥ ११४ ॥ । श्रर्थः - धर्मा पृथ्वी के नारकी जीव वैर भाव का सूचक अपने भवप्रत्यय श्रवविज्ञान से एक योजन पर्यन्त, वंशा पृथ्वी के नारकी जीव ३३ कोश, मेघा के ३ कोश, अञ्जना के २३ कोस, अरिष्टा के २ कोस, मघवी के १३ कोस और माधवी पृथ्वी के नारकी जीव मात्र १ कोस पर्यन्त जान सकते हैं, ( इसके आगे नहीं ) ।। ११२-११४॥ प्रथमादि पृथ्वियों में उत्कृष्ट रूप से जन्म मरण का अन्तर कहते हैं :प्रथमे नरके ज्येष्ठ- मुत्पत्तौ मरणेऽन्तरम् । चतुविशतिसंख्याता मुहूर्ता द्वितीयेंगिनाम् ।।११५ ॥ -: 1 विनानि सप्त च श्वभ्र े, तृतीये पक्ष संख्यकम् | चतुर्थे चैक मासो हि पञ्चमे मास युग्मकम् ॥ ११६॥ षष्ठे मास चतुष्कं च सप्तमे नरकात्मनाम् । षण्मासान्तरं निःसरण प्रवेशयोर्महत् ॥११७॥ अर्थः- यदि कोई भी जीव प्रथम पृथ्वी में जन्म या मरण न करे तो अधिक से अधिक २४ मुहूर्त तक, द्वितीय में ७ दिन तक, तृतीय में १ पक्ष तक, चतुर्थ में १ माह तक, पञ्चम में २ माह तक, ४ माह तक और सप्तम पृथ्वी में उत्कृष्टतः ६ माह तक न करे ।११५-११७।। a नारक पुत्रियों में प्रति उष्ण और अति शीत का विभाग करते हैं : पृथिवीषु चतुराधासु तीव्रमुष्णं च केवलं । पञ्चां हि चतुर्भागानां त्रिभागेषु दुस्सहम् ॥ ११६॥ पञ्चम्याश्च चतुर्थे हि भागे षष्ठयां दुराश्रयम् । सप्तम्यां शैत्यमत्यन्तं सर्वागवाहकं महत् ॥ ११९ ॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अधिकार [ ५७ द्वपशीतिलक्ष्यसंख्यानि, विलान्युष्णानि केवलम् । पञ्चविंशसहस्राधिकानि दुःखाकराणि च ।।१२०॥ लक्षकाणि भवेयः सह-त्राणि पञ्चसप्ततिः । विश्वदुःख निधानामि, यतिशयविलाधि ॥१२३।। अर्थ:--रत्नप्रभा प्रादि चार पृध्वियों में और पञ्चम पृथ्वी के भाग पर्यन्त स्थित बिलों में अत्यन्त उष्ण वेदना है, तथा पञ्चम पृथ्वी के अवशेष भाम से सप्तम पृथ्वी पर्यन्त स्थित बिलों में सम्पूर्ण मङ्गों को दाह करने वाली अत्यन्त शीत वेदना है । इस प्रकार ३००००००+२५००००० +१५०००००+१००००००+ (202422५३) २२५००० - ८२२५००० (ब्यासी लाख पच्चीसहजार) विलों में भयङ्कर दुःख उत्पन्न करने वाली मात्र उष्ण वेदना है और (३00829x!) =७५०० + ESELE+५= १७५००० (एक लाख पचहत्तर हजार ) विलों में सम्पूर्ण दुःखों के स्थान स्वरूप शीत वेदना है ।।११८-१२१।।।। नरक वेदना का वेदन करने वाले भावी तीर्थकर जीवों को विशेष व्यवस्था का वर्णन करते हैं: प्रागामितीयंकणा तारकासातभागिनाम् । शेषोतरित षण्मासि' चापि दु:कर्मभोगिनाम् ॥१२२॥ पवा तदासुरा एत्य नरकनयभूमिषु । निधारयन्ति तद् भक्त्योपसर्गाश्च कवर्थनाम् ॥१२३॥ अर्थ:-जो भविष्य में तोर्थर होने वाले हैं, नरक जन्य असाता और दुःखों का वेदन कर रहे हैं ऐसे रत्नप्रभा से तृतीय पृथ्वी पर्यन्त स्थित तीर्थङ्कर प्रकृति के बन्ध व सत्त्व वाले नारकी जीवों की प्रायु में जब ६ माह अवशेष रहते हैं तब असुर कुमार जाति के देव (भावी तीर्थंकर की) भक्ति से प्रेरित होकर उनके उपसर्ग एवं पीड़ानों का निवारण कर देते हैं ।।१२२-१२३|| रत्नत्रय धर्म के प्राचरण करने की प्रेरणा :-- इति बहुविधरूपाऽ-धःस्थ लोकं विदित्वा, जिनवरगणिनोक्त विश्वदुःखंकवाद्धिम् । हगवगमचरित्र-स्तविहान्य शिवाप्स्य, चरत कुन रकघ्नं दुःखभोताः सुधर्मम् ।।१२४॥ अर्थ:--इस प्रकार जिनेन्द्र एवं गणधर देवों द्वारा नाना प्रकार से कथित, सम्पूर्ण दुःखों का समुद्र ऐसे अधोलोक का स्वरूप जानकर सम्यग्दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यक् चारित्र के द्वारा उन १ षण्मासायुषि प्र. ज. न. Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ । सिद्धान्तसार दीपक दुःखों के निवारण ( विनाश ) हेतु पोर मोक्ष सुख की प्राप्ति हेतु दुःखों से भयभीत भव्यजन कुगति को माश करने वाले रत्नत्रय स्वरूप धर्म का प्राचरण करें॥१२४।। अधिकारान्त मङ्गल । धर्मः स्वर्गगहाङ्गणः सुखनिधि-'धर्मोथकर्मोघहा, धर्मः श्वभ्र निवारकोऽसुखहरो, धर्मोगुणकाणंवः । धर्मोमुक्ति निबम्पनो निरुपमः, सर्वार्थसिद्धिप्रदो, यः सोऽत्राचरितो मया सुचरण-मेंऽस्तु स्तुतः सिद्धये ॥१२॥ इति श्री सिद्धान्तसारदीपके महाग्रन्थे भट्टारक श्री सकलकीति विरचिते अधोलोके श्वभ्रस्वरूप वर्णनोनाम द्वितीयोधिकारः॥२॥ अर्थः-सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र है लक्षण जिसका ऐसा धर्म स्वर्गरूप मृह का प्रांगन है, सुख का खजानारे कर्म समूह को जमा करनाला है, नरकों का निवारक है। ऐसा धर्म ही गुणों का अद्वितीय समुद्र है, मुक्ति का निबन्धक है, उपमातीत है, सर्व अर्थों (प्रयोजनों) की सिद्धि करने वाला है, तथा जो चारित्रवानों के द्वारा प्राचरित और मेरे द्वारा स्तुत्य है ऐसा वह रत्नत्रय धर्म मेरी सिद्धि अर्थात् मोक्ष प्राप्ति के लिये हो ॥१२।। __इस प्रकार भट्टारक सकलकीति द्वारा रचित सिद्धान्तसार दीपक नाम महाग्रन्थ के अन्तर्गत अधोलोक में श्वभ्रस्वरूप का वर्णन करने वाला दूसरा अधिकार समाप्त हुआ। 1. मबस प्रती धर्मोघहन्तामहान् । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयोधिकारः अधोगत्येनसां हंतीन स्वर्भुक्तिमुक्तिकारकात् । जगद्धितान् जिनान् वन्वे तद्गश्यं धर्मचक्रिणः ॥ ११ ॥ मङ्गलाचरण :— श्रर्थः - अधोगति के जनक पापाचरणों को नाश करने वाले, स्वर्ग एवं मोक्ष सम्पदा प्राप्त कराने वाले, जगत् हितकारक, धर्मचक्रवर्ती जिनेन्द्र भगवान् को मैं उनकी गति - मोक्ष की प्राप्ति के लिए नमस्कार करता है | ११ अधिकार लिखने की प्रतिज्ञा एवं उसका कारण : अथ वक्ष्ये स्वरूपादीन दुःखौघाम्यशुभानि च । श्वस्त्रेषु नारकाणां कुरापिनां भीतिहेतवे ॥२॥ अर्थ ::- अब मैं पापी जीवों को भय उत्पत्ति के हेतु नरक बिलों में रहने वाले नारकी जीवों का दुःखसमूह से युक्त और महा अशुभ स्वरूप आदि कहूँगा ||२|| वहाँ के बिलों का स्वरूप : घनवाऽशुभा भित्तिभागा व्ररणसमानकाः । वृत्त त्रिचतुरस्त्राविनानाकाराः शुभातियाः ||३|| बन्दोगेहाविकाती बीभत्सास्तासु भूमिषु । farayatnagar बिलौघाः सन्ति भीतिदाः ||४|| :स्व अर्थ:- शरीर में उत्पन्न हुये धरण ( घाव या फोड़े ) के सदृश (मुख सकरा भीतर चौड़ा) वहां के बिलों की भूमियां एवं दीवालें वस्त्र के समान कठोर और अशुभ हैं, जो गोल त्रिकोण एवं चतुष्कोण आदि नाना प्रकार के श्राकार वाली हैं। तथा वहां के विल यहां के कारागृहों से भी अति अधिक ग्लानि युक्त सम्पूर्ण दुःखों के स्थान और भय उत्पन्न कराने वाले हैं ।। ३-४ ॥ नरक भूमियों का स्पर्श एवं दुर्गन्ध का कथन : Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्तसार दीपक सहस्रांचकेभ्योऽपि दष्टे योधिक वेदना । वजफण्टकसोर्ण श्वभ्रभूस्पर्शनाद् भवेत् ॥५॥ मार्जारश्वानगोमायु दष्ट्रि खगादिदेहिनाम् । तत्रात्यऽशुभदुर्गन्धाः स्युः कलेवरराशयः ॥६॥ अर्थ:-एक साथ हजारों बिच्छों के काटने पर जो वेदना होती है उससे भी अधिक वेदना बचमय कांटों से व्याप्त नरक भूमि के स्पर्श मात्र से होती है। बिल्ली, कुत्ता, शृगाल, व्याघ्र, हाथी और पक्षियों के मृतक शरीरों की राशि समूह से जो दुर्गन्ध निकलती है उससे भी अति प्रशुभ और भयङ्कर दुर्गन्ध वहां निरन्तर व्याप्त रहती है ॥५-६।। नरक स्थित नदी, वन, वृक्ष एवं पवन का विवेचन : भारश्रोणिस दुर्गन्धयारि वीचिधयाफुलाः। वहन्ति वैतरण्याख्या नद्योऽत्र मासकर्दमाः ॥७॥ प्रसिपत्रनिभैः पौराकीर्णानि हपनेकशः । दुराश्रयाणि सन्न्यासु चासिपत्रवनानि ये ।।८।। अधोमध्यानभागेष सर्वत्र तीक्षणकण्टकः । चिताः शाल्मलिवृक्षौघाः भवन्ति ते दुःखस्पृशाः ॥९॥ किरन्तोऽग्निकरणाभानि रजांसि वाययोऽशुभाः । तेषु वान्त्यतिकुःस्पर्शाः सर्वाङ्गदुःखहेतवः ॥१०॥ अर्थ:---उन नरक भूमियों में मांगरूप कीचड़ और क्षार एवं दुर्गन्धित रक्त रूप जल की कल्लोलों से व्याप्त वैतरणी नाम की नदियाँ बहतीं हैं । उन नरकों में प्रसिपत्र के सदृश हैं पत्ते जिनमें ऐसे वृक्षों से युक्त अनेक असिपत्र नाम के वन हैं जो नारकी जीवों को दुःखसमूह की उत्पत्ति के कारणभूत हैं जिनका स्पर्श अति दुःखद है और जो जड़ भाग से मस्तक पयन्त तीक्ष्य कांटो से युक्त है ऐसे शाल्मलि नाम के वृक्ष समूहों से वे नरकभूमियाँ व्याप्त हैं । जिसका स्पर्श सम्पूर्ण शरीर को भयङ्कर दुःख का कारण है, जो असुहावनी है और जिसमें खिरने वाले अग्नि करणों के सदृश रज का मिश्रण है ऐसो वायु वहाँ नित्य ही बहतो रहती है ।।७-१०।। विक्रियाजन्य पशुपक्षियों का स्वरूप :-- भीमा गिरिगुहा बह्वयः सिंहध्याघ्रादिभिताः । करैमासाशिभिर्मागर्भवन्ति नरकेषु च ॥११॥ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अधिकार बनचञ्चुपुटाः क्रूराः पक्षिणोऽतिभयङ्कराः । उत्पतन्ति बनेश्वत्र मारकाङ्गादिभक्षकाः ॥१२॥ अर्थः-नरकों में पर्वतों की भयङ्कर गुफाएं हैं, जो सदा नागों, सिंहों और व्याघ्र आदि मांसभक्षी एवं दूर परिणामी पशुओं से व्याप्त रहती हैं, तथा वहाँ के वनों में वज्र के सदृश कठोर चोंच माले दुष्ट और भगक पक्षी करते रहते हैं जो नारकियों के शरीर का भक्षरण करके उन्हें दुःख पहुँचाते हैं ।।११-१२।। विशेषः-नारको जीवों के वैक्रियक शरीर होता है जो सप्तधातुओं से रहित होता है और अपृथक् विक्रिया के प्रभाव से नारकी जीव स्वयं पशु पक्षियों का रूप धारण कर लेते हैं अतः वहाँ मांस भक्षण आदि की मात्र क्रिया ही होती है अर्थात् उस प्रकार की क्रियानों के द्वारा वे एक दूसरों को दुःख देते हैं 1 यथार्थ में मांस भक्षण आदि नहीं करते। संवेग उत्पादक अन्य भयङ्कर स्वरूप का वर्णन :-- करपत्रसमातीय कर्कशाङ्गाः कुरूपिणः । कुत्सिता हुण्डसंस्थाना रक्तनेत्र भयानकाः ॥१३॥ रौद्ररूपाश्च दुःप्रेक्षा दुःखदानक पण्डिताः । विकरालमुखाः करा रौनध्यानपरायणा: ॥१४॥ प्रचण्डा कालरूपाढपा-स्तीबरोषाः कषायणः । निरंया नारका निन्द्या निन्धकर्मकरा: खलाः॥१|| संख्याप्तिगा वसन्त्येषु, नपुसकाः कलिप्रियाः । विश्वदुःखाब्धि मध्यस्था-निकारणरणोद्धता ॥१६॥ च्याघ्रसिंहादिरूपाय नाना प्रहरणादिभिः । स्वेच्छया विक्रियन्ते ते, रणायविक्रियांगताः ॥१७॥ विभङ्गावधि कुज्ञानं, प्राग्वैरभवसूचकम् । सहजं नारकाणां स्या-स्थान्येषां कुखिकारणम् ॥१८॥ अर्थ:-नरक भूमियों में जो नारकी जोब रहते हैं, उनके शरीर असिपत्र के सदृश प्रत्यन्त कठोर और तीक्ष्ण होते हैं। उनका रूप ग्लानि उत्पादक, रौद्र, कुत्सित और दुष्प्रेक्ष्य (अदर्शनीय) होता है । भयानक और लाल लाल नेत्रों वाले उन जीवों का संस्थान हुण्डक, मुख विकराल और परिणाम प्रति रोद्र एवं क्रूर होता है । वे एक दूसरे को दुःख देने में अत्यन्त चतुर होते हैं । प्रचण्ड काल Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ ] सिद्धान्तसार दीपक के सश वर्ण वाले, तीन क्रोध के साथ साथ सम्पूर्ण कषायों के वशीभूत, निर्दय निन्ध तथा निरन्तर निन्ध कार्यों में ही रत, दुष्ट स्वभावी, कलह प्रिय, नपुसक वेद से युक्त और सम्पूर्ण दुःखों के समुद्र वे नारकी जीव निष्काण शुद्ध करने के लिए लजत रहते हैं। युक्त के लिये भयंकर सिंह व्याघ्र प्रादि के रूप एवं नाना प्रकार के शस्त्र आदि बना लेने में वे स्वच्छन्दता पूर्वक विक्रिया करते रहते हैं उन नारको जीवों को पूर्व भव के बैर को सूचना प्रादि देने की शक्ति से समर्थ विभङ्गावधि खोदा ज्ञान सहज हो होता है जिससे वे परस्पर में एक दूसरे को दुःख देते हुये स्वयं भो दुःखी होते हैं ।।१३-१८॥ नरकों में रोग जन्य वेदना का कथन : कुष्ठोदरव्यथाशूलावयो ये वुस्सहा भुवि । रोगास्ते नारकाङ्गषु सर्वे सन्ति निसर्गतः ॥१९।। अर्थः - भूवि-मध्यलोक में कृष्ट एवं उदरशूल आदि जितने भी दुस्सह दुःख देने वाले रोग हैं ये सम्पूर्ण रोम स्वभाव से ही नारकियों के शरीर में एक साथ होते हैं ॥१६॥ विशेषार्थ:-नरकों में होने वाली रोग जनित पीड़ा का दिग्दर्शन मध्यलोक के कुष्टादि रोगों से कराया गया है । मूल प्रति के टिप्पण में मध्यलोक के ३३ हाथ की ऊँचाई वाले शरीर के रोगों का प्रमाण निकाल कर उसे समम नरक के रोगों का प्रमाण बनाया है और शेष नरकों में उसका अर्ध अर्घ प्रमाण ग्रहण किया है। यथाः-शरीर के उत्सेध का प्रमाण ३ हाथ १२ अंगुल है । इसके सम्पूर्ण अंगुल { (३ ४२४) +१२} = ८४ होते हैं। इन ८४ अंगुलों के (८४४८४४२४) :- ५६२७०४ घनांगुल हुये। जबकि एक (१४१४१) घनांगुल में ६६ रोग हाते हैं तब ५९२७०४ घनांगुलों में कितने रोग होंगे? ऐसा राशिक करने पर सम्पूर्ण रोगों की संख्या का प्रमाण (५६२७०४४६६) ५६८६६५८४ प्राप्त होती है और टिप्पणकार के द्वारा सप्तम नरक के रोगों का यहो प्रमाण माना गया है । इसका अर्धभाग अर्थात् (५१४१५५४) =२८४४६७६२ छठवें नरक के रोगों का प्रमाण है। इसका अर्धभाग अर्थात् २६४४१५.९२ = १४२२४८६६ पांचवें नरक के, ७११२४४८ चौथे नरक के, ३५५६२२४ तीसरे नरक के, १७७८११२ दूसरे नरक के और ८८६०५६ प्रथम नरक के रोगों का प्रमाण है । इन सबका योग करने पर ५६८६९५८४+२८४४६७६२ + १४२२४८६६+७११२४४८+ ३५५६२२४+ १७७८११२-८८६५.०५६ =११२६१०११२ अर्थात् ११ करोड २६ लाख १० हजार एक सौ बारह प्रकार के रोग (नरकों में) प्राम होते हैं । नरकों की क्षुत्रातृषाजन्य वेदना का वर्णन : Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अधिकार [ ६३ कृत्स्नान भक्षणासाध्या, सर्वाङ्गो गकारिणी। मारकाणां क्षुधातीब्रा, जायतेऽन्तःप्रदाहिनी ॥२०॥ तया बाह्यान्तरलेषु, तरां सन्तापिताश्च ते । अशितु तिलतुल्यान्न, लभन्ते जात नाशुभात् ॥२१॥ समुद्रनीरपानाही-रशाम्या तृट् कुवेदना । विश्वाङ्गशोषिका तीवो-स्पद्यते श्वभ्रजन्मिनाम् ॥२२॥ सयातिदग्धकायास्ते, नारका दुःखविह्वलाः । बिन्दुमान जलं पात, प्राप्नुवन्ति न पापतः ॥२३॥ अर्थ :-नारको जीवों के हृदय को दग्ध कर देने वाली, सम्पूर्ण अङ्गों में उद्वेग उत्पन्न करने वाली तथा ( तीन लोक के) सम्पूर्ण अन्न का भक्षण करने पर भी जो शमन को प्राप्त न हो ऐसी तीन क्षुधा वेदना उत्पन्न होती है। उससे बाह्य और अतरंग में अत्यन्त सन्ताप उत्पन्न होता है किन्तु अशुभ कर्म के योग से उन्हें तिल के बराबर भी अन्न कभी खाने को नहीं मिलता ॥२०-२|| समुद्र के सम्पूर्ण जलपान द्वारा भी जो शमन को प्राप्त न हो ऐसी सर्वाङ्गों को शोषित करने वाली तीन तृषा वेदना उन नारकी जीवों के उत्पन्न होती है, जिससे शरीर मति दग्ध हो जाता है और वे नारकी जीव निरन्तर अति विह्वल होते रहते हैं, फिर भी पाप कर्म के उदय से उन्हें कभी बिन्दु मात्र भी जल पौने को प्राप्त नहीं होता ।।२२-२३।। नरक गत शीत उष्ण वेदना का कथन : ज्वलन्ति नारकावासाः सदान्तद्स्सहोष्मभिः । अन्धकाराकुला सिन्धाः पूर्णा नारकपापिभिः ॥२४॥ लक्षयोजनमानोऽयः पिण्ड क्षिप्तोघ तत्क्षणम् । बहूष्मानलतापायः शतखण्डं प्रयाति भोः ॥२५॥ शीतश्वभ्रषु निक्षिप्तोऽयः पिण्डो मेरुमानकः । सद्यो विलीयते तीव्रतुषाराद्यैनं संशयः ॥२६॥ अर्थ:-निरन्तर दुस्सह अन्ताह में जलने वाले पापी जीवों से जो परिपूर्ण है, अन्धकार से व्याप्त हैं और निन्द्यनीय हैं, ऐसे नारकावास सतत् उष्ण रहते हैं । भो भव्यजनो ! ऐसे उन गरम नारकावासों में यदि एक लाख योजन का (सुमेरु सदृश ) गोला भी डाल दिया जाय तो वह भी वहाँ की भयङ्कर अग्निताप के द्वारा सैकड़ों खण्डों को प्राप्त हो जाता है । शीत बिलों में यदि मेरुपर्वत के Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ ] सिद्धान्तसार दोपक समान लोह का पिण्ड डाल दिया जाय तो वह तीव्र तुषार के कारण शीघ्र ही विलीन हो जाता है इसमें संशय नहीं है ॥२४-२६॥ विभिन्न प्रकार के दुःखों का विवेचनः यत् किश्चिद दुःखवं द्रव्यं पञ्चाक्षाङ्गमनोऽप्रियम् । तत् सर्व तेषु तेषां स्यात् पिण्डितं पापकर्मभिः ॥२७॥ अर्थः-पञ्चेन्द्रियों के विषय सम्बन्धी जितने भी दुःख उत्पादक, अप्रिय एवं प्रभोग्य पदार्थ हैं, वे सब पापकर्म के उदय से नरकों में उन नारको जीवों के लिये एकत्रित हैं ।।२७।। इत्यशर्मनिधानेष पापिनः पापपाकतः । अधोमुखाः पतास्येषु पापिनामुन्नतिः कुतः ॥३८।। अर्थ:-इस प्रकार दुःखों के निदान स्वरूप इन नरकों में पापी जीव पापोदय से अघोमुख गिरते हैं, क्योंकि पापियों की ऊर्ध्वगति कहाँ ? अर्थात् पाप के भारसे युक्त जीब ऊपर कसे जा सकते हैं ॥२८॥ तत्रात्युष्णाग्निसन्तप्ता बराकाः पतिताश्च से। निपतन्युत्पतन्त्याशु तप्तनाष्ट्रतिला इव ॥२६॥ अर्थः-जिस प्रकार तप्त भार में डाले गये तिल (या चना आदि अन्य धान्य) तुरन्त ही ऊपर उचट कर फिर नीचे गिरते हैं, उसी प्रकार वे बेचारे दीन नारको जीव अग्नि से सन्ता अति उष्ण भूमि में पड़ने के बाद शीघ्र ही (अनेकों बार) ऊपर उछल उछल कर नीचे गिरते हैं ॥२६॥ ततोऽति वेदनाकान्तास्ते तत्क्षेत्रं भयानकम् । प्रचण्डाम्नारकान वीक्ष्येतिचित्ते चिन्तयन्ति च ॥३०॥ महो ! निन्धमिवं क्षेत्रं किमापदां किलाकरम् । केऽमी व नारका रौद्रा मारणकपरायणाः ॥३१॥ नचात्र स्वजनः स्वामी मृत्यो या जात दृश्यते । निमेषाधं सुखं सारं सुखकृत् वस्त नो परम ॥३२॥ अर्थः- इस प्रकार उस क्षेत्र सम्बन्धी भयङ्कर वेदना से भाक्रान्त जब वे नारकी जीव अन्य भयावह नारकियों को देखते हैं, तब विचार करते हैं कि हाय ! आपदामों की खान स्वरूप यह निन्य क्षेत्र कौन है ? मारकाट में परायण ये दुष्ट नारकी कौन हैं ? यहाँ कहीं भी मेरे कोई कुटुम्बी Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अधिकार [६५ जन, स्वामी और नौकर प्रादि दिखाई नहीं देते, तथा न अर्धनिमेष मात्र सुख और न सुख उत्पन्न करने वाली अन्य कोई वस्तुएँ हो दिखाई देती हैं ॥३०-३२।३ वयं केन विहानीता रौवस्थाने कुकर्मणा । कृत्स्न दु:खाकरीभूते पापारिकवलीकृताः ॥३३॥ अर्थः-खोटे कर्मों में रत और पापी शत्रुओं द्वारा भक्षण किये जाने वाले हम सब इस सम्पूर्ण दुःखों के खान स्वरूप रौद्र स्थान में किस पापकर्म के द्वारा लाये गये हैं ॥३३॥ पूर्व जन्म में किये हुये पापों का चिन्तन एवं पश्चाताप: इत्यादि चिन्तनातेषां प्रादुर्भवति दुःखदः । विभङ्गाधिरेव स्व प्राग्जन्म वैरसूचकः ॥३४॥ तेन विज्ञायते सर्व' भवानाचारमजसा । पश्चात्तापाग्नि सन्तप्ताः शोचन्तोति स्वदुविधीन् ॥३५॥ अहो ! दुष्कर्मकोटोभिरस्मामिः स्वात्मनाशकम् । यन्निन्द्यमजितं पापं महत् पञ्चाक्षञ्चितः ॥३६॥ तेनास्माकं निरौपम्या दुःखक्लेशादि कोटयः । प्रादुरासन् जगन्निन्द्या अस्मिन् क्षेत्र सुखालिगे ।१३७।। अर्थ:-इस प्रकार के चिन्तन मात्र से उन नारकी जोबों को अपने पूर्व जन्म के वर का सूचक और दुःख उत्पत्ति का कारण कुपवधिज्ञान ( जातिस्मरणज्ञान ) स्वयं प्रगट हो जाता है । जिसके द्वारा बे अपने पूर्व भव के अनाचारों को और अपनो सम्पूर्ण दुष्ट क्रियाओं को शीघ्र ही जान लेते हैं, प्रतः पश्चाताप की अग्नि से सन्तप्त होते हुये इस प्रकार विचार करते हैं कि अहो ! पञ्चेन्द्रियों के विषयों से ठगे हुये एवं करोड़ों दुकर्मों के द्वारा हमने अपनी आत्मा के नाशक अत्यन्त निन्ध जो महान पाप अजित किये हैं, उनके द्वारा ही इस दुःखदाई क्षेत्र में निन्दनीय और उपमा रहित करोड़ों दुःख एवं कलेश प्रगट हो रहे हैं ।।३४-३७।। हा ! सर्षपाक्षसौख्याथ लम्पटेस्तवघं कृतम् । प्रस्माभिः प्राग भवे येनाभूत् दुःख मेरुसम्मितम् ॥३८॥ अर्थ:-हा ! पुर्व जन्म में इन्द्रिय लम्पट होकर मैंने सरसों बराबर इन्द्रिय सुखों के लिये जो पाप किये थे उनमे ये मेरु सदृश दुःस्त्र मुझे प्राप्त हो रहे हैं ।।३८॥ १ पूर्व प्र० Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ ] सिद्धान्तसार दीपक प्रभक्ष भक्षण और पांच पापों का चिन्तन :-- यतोऽति विषयासक्त्या, खादितानि बहूनि छ । अखाधान्यशुभाश्या-मि पीतानि स्वशर्मणे ॥३६॥ अस्माभिनियः पूर्व, जीवराशिहतो बलात् । असत्यकटकादीनि, दुर्वचास्युदितानि च ॥४०॥ हतानि परवस्तुनि, मायाकौटिल्यकोटिभिः । सेविताः पररामाद्या दौष्टया रागान्धमानसः ॥४१॥ भूयान् परिग्रहो लोभान, मेलितः स्वाक्षशर्मणे । बह्वारम्भः कृतो नित्यम् श्रीस्त्रीकुटम्बहेतवे ॥४२॥ अर्थः-अपने इन्द्रिय सुख के लिये विषयासक्त मेरे द्वारा बहुत से अखाद्य ( मांस, अण्डा, मालू मूली आदि कन्दमूल एवं अभक्ष) पदार्थ खाये गये हैं और अपेय ( शराब एवं बाजार की चाय दूध आदि ) पदार्थ पिये गये हैं ।। ३६॥ पूर्व भव में मुझ निर्दयी ने जबरदस्तो ( संकल्प पूर्वक ) अनन्त जीव राशि मारी है । असत्य, कटुक एवं निन्दा आदि के दुर्वचन कहे हैं । करोड़ों प्रकार को वञ्चना एवं कुटिलता द्वारा पर वस्तुओं का हरण किया है । सग से अन्धे होते हुये मैंने दुष्टता पूर्वक परस्त्री का सेवन किया है। अपने इन्द्रिय सुखों के लिये लोभ से ग्रसित होकर मैंने महान् परिग्रह एकत्रित किया है, और लक्ष्मी (धन संचय ), स्त्री एवं कुटुम्ब आदि के लिये नित्य ही बहुत भारी प्रारम्भ किया है ॥४०-४२।। धर्माचरण रहित एवं कुधर्म सेवन पूर्वक पूर्व भव व्यतीत करने का पश्चात्तापः निःशीलविषयान्धेच, पञ्चाक्षाणि निरन्तरम् । सेषितानि पुरास्माभिः सौख्याय नष्टबुद्धिभिः ॥४३॥ श्रेयसेऽनुष्ठितं मौढयान मिथ्यात्वं केवल महत् । कुवेव'कुगुरुशास्त्र-कुत्सिताचार कोटिभिः ॥४४॥ प्रतीवग्यसनासक्तं: पालितं न मनाग्वतम् । शोलं वा न कृतं पुण्यं दानपूजार्चनादिभिः ॥४५॥ धर्मिणो धर्ममत्यर्थ, दिशंतोपि पुरा मुहुः । श्वभ्रगामिभिरस्माभिः कटुवाक्यैरमानिसाः ॥४६॥ १. कुदेवकुगुरुकुशान ज. न. Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय श्रधिकार इत्याद्यन्यदु राचारं - दुष्कर्माण्यजितानि च । तानि पूर्वमिहापसानों दुःखादिराशयः ।।४७ || अर्थः :-नष्ट बुद्धि, विषयान्ध और व्रतशील यादि से रहित मैंने पूर्व भव में अल्प सुख के लिये निरन्तर पंचेन्द्रियों के विषयों का सेवन किया है ||४३|| मैंने अज्ञानता से पुण्यार्जन के लिये करोड़ों खोटे श्राचरणों ( ३ मूढता, ६ अनायतनों के द्वारा एवं बलि आदि के ) द्वारा महान् मिथ्यात्व और मिध्या देव, शास्त्र, गुरुयों का सेवन किया है ॥ ४४ ॥ सप्त व्यसनों में अत्यन्त आसक्ति होने के कारण मैंने किञ्चित् भी व्रतों का पालन नहीं किया, और न शील, दान, पूजा एवं अर्चना आदि के द्वारा किञ्चित् भी पुण्य उपार्जन किया। पूर्व भव में धर्मात्मा पुरुषों ने धर्म धारण करने के लिये मुझे बार बार उपदेश दिया किन्तु कठोर और कटु वचन खोलने वाले मुझ नरक गामी ने उनके उपदेश नहीं माने। इस प्रकार के तथा और भी अन्य प्रकार के दुराचारों द्वारा जो दुष्कर्म उत्पन्न किये थे वही पाप यहाँ पर दुःख की राशि रूप से उपस्थित हुये हैं ।।४५-४७।। पश्चाताप श्रीषा का विदेश : कैश्चित्पुण्यजनंः शवस्या नभये साधितो महान् । स्वर्गो मोक्षोविचारज्ञः सत्तपश्चरणादिभिः ॥ ४८ ॥ [ ६७ दुर्लभ भवे प्राप्ते धर्मस्वर्मुक्तिसाधके । + अस्माभिरर्जितं श्वभ्रं दुराचारः स्वघातकम् ||४| J अर्थ :- मनुष्य भव में समीचीन तपश्चरण श्रादि को धारण करने वाले विचारवान् पुण्य पुरुषों के द्वारा मपनी शक्ति के अनुरूप स्वर्ग मोक्ष का महान साधन किया जाता है, किन्तु स्वर्गमुक्ति का साधक दुर्लभ मनुष्य भव प्राप्त होने पर भी मैंने धर्म पालन तो नहीं किया परन्तु दुराचारों के सेवन द्वारा स्व श्रात्मा का घात करने वाले नरक का अर्जन किया है, अर्थात् इतना घोर पाप उपार्जन किया जिससे नरक भाना पड़ा ।४५-४६ ।। ये स्त्रीपुत्रबधूनां भृत्यर्थं पापमञ्जसा । कृतं ते तत्फलं भोक्त नात्रामास्माभिरागताः ॥ ५० ॥ पोषिता येङ्गपञ्चाक्षा नानाभोगः पुराः खलाः । तेष्वस्मान्' पातयित्वात्र इव गता इवारयः ॥ ५१॥ १. तेऽप्यस्मात् ज० न० । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ ] सिद्धान्तसार दीपक प्रतो मन्यामहेऽत्रैवं स्वजनाः पापहेतवः । शत्रवः स्युश्च पञ्चाक्षाः काला नागा न चापरे ।।५२।। अर्थ:-जिन स्त्री, पुत्र, बन्धु बान्धवों के वैभव या उन्नति के लिये यथार्थ में मैंने बहुत पाप किये थे वे कुटुम्बी जन उस पाप का फल भोगने के लिये मेरे साथ अभी यहां नहीं आये । पूर्व भव में नाना प्रकार के भोग्य पदार्थों द्वारा मैंने जिनके शरीर और पञ्चेन्द्रियों का पोषण किया था, वे दुष्ट शत्र, सदृश बन्धुजन मुझको यहाँ नरक में पटककर चले गये, इसलिये मैं ऐसा मानता हूँ कि पाप के कारणभूत स्वजन तो शत्रु हैं और पञ्चेन्द्रियों के विषय काले नाग हैं, इससे अधिक कुछ नहीं 11५०-५२।। यवक्तं सूरिभिः पूर्व, सहगामि शुभाशुभम् । प्रत्यक्षतामगानोऽद्य, तवत्र पाकसूचकम् ॥५३॥ पुराकृतानि पापानि मनसापि स्मृतानि च । अन्तर्मर्माणि कृतन्त्यधुना नः क्रकचानि वा ॥५४॥ अर्थः—पूर्व में प्राचार्यों के द्वारा जो कुछ कहा गया था वह पापोदय का सूचक सहगामी शुभाशुभ आज यहाँ मेरी प्रत्यक्षता को प्राप्त हो रहा है ॥५३॥ पूर्व जन्म में किये गये पाप प्राज मन से स्मृति करने पर मेरे अन्तःस्थल के मर्म को करोंत के समान छेद रहे हैं ॥५४॥ अत्र प्राकृत पापोत्थ-वःखौघग्रसिता वयम् । क्व यामः कं च पृच्छामः, कि कुर्भाव म एव किम् ॥५५॥ बजामः शरणं कस्या-त्रास्मावदःखौघ सन्सतेः। सोढव्याः कथमस्माभि-महत्यः श्वनवेदनाः ।।५६॥ पूर्वदुष्कर्मपाकोत्थ-मिमं दुःखार्णवं परम् । दुस्तरं चोत्तरिष्यामः, कपमायुः भयं विना ।।५७॥ यतोऽत्र मरणं न स्यान् नारकारणां कदाचन । सत्यायुषिनिजेऽल्पेऽपि, तिलतुल्याङ्ग खण्डनः ।।५।। इति प्रावकृत दुष्कर्मम पश्चात्तापवह्निभिः । दहघमामान्तरङ्गाणां, नारकाणां दुरात्मनाम् ।।५९॥ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अधिकार [ ६६ अर्थः- पूर्व जन्म में किये हुये पापों से उत्पन्न होने वाला यह दुःखों का समूह यहाँ हमें खा रहा है ! अब हम कहाँ जाएँ ? किससे पूछे ? क्या करें ? और क्या कहें ? किसकी शरण जाएँ ? यहाँ दुःख समूह से निरन्तर होने वाली यह महान् नरक वेदना सहन करने में हम कैसे समर्थ होवें ॥५५-५६॥ पूर्व दुष्कर्मों के पाक से उत्पन्न होने वाला यह दुस्तर महान् दुःस्वरूपी समुद्र आयु क्षय निना कैसे पार करें, क्योंकि अपनी भुज्यमान प्रायु के पूर्ण हुये विना शरीर के तिल बराबर खण्ड खण्ड कर देने पर भी यहां नारकी जीवों का असमय में मरण नहीं होता ॥५७-५८।। इस प्रकार दुरात्मा नारको जीवों के अन्त.करण पूर्व जन्म में किये गये पापों से उत्पन्न होने वाली पश्चाताप रूपी अग्नि से निरन्तर जलते रहते हैं ।।५।। अन्य नारकी जीवों द्वारा दिये हुये भयङ्कर दुःखों का दिग्दर्शन: शतची प्रकुर्वन्ति, सर्वगात्राणि नारकाः । मुद्गरादिप्रहारौघे निभस्य कटुकाक्षरः ॥६॥ अर्थः-नारकी जीव भत्स्ना पूर्वक कटुक वचनों द्वारा एवं मुद्गर आदि प्रहार समूहों द्वारा सम्पूर्ण शरीर के सैकड़ों टुकड़े कर देते हैं ॥६०॥ जीवों के नेत्र फोडने का और अङ्गोपाङ्ग छेदन का फलः उत्पाटयन्ति नेत्राणि चक्षुविकारजाशुभैः । अङ्गोपाङ्गानिकृन्तन्ति चाङ्गोपाङ्गकृताधतः ॥६१॥ अर्थः-पूर्व जन्म में अन्य जीवों के नेत्र फोड़ देने से एवं अङ्गोंपाङ्गों का छेदन भेदन प्रादि कर देने से जो पाप एवं अशुभ कर्म संचय हुआ है उसोके कारण नारकी नेत्र उखाड़ लेते हैं, और अङ्गोपाङ्ग काट लेते हैं ॥६१शा दूसरों के प्रति चित्त में उत्पन्न होने वाले पाप का फल: चित्तोत्थपापपाकेन विदार्य जठरं बलात् । केचित् कुवाश्च केषाञ्चित् त्रोटयन्यन्त्रमालिकाम् ॥१२॥ अर्थ:--अन्य जीवों के बुरे चिन्तन प्रादि से चित्त में जो विकार उत्पन्न होता है उस पापोदय के फल स्वरूप कोई नारकी क्रोधित होते हुये बल पूर्वक पेट विदीर्ण कर देते हैं और कोई यन्त्रादिकों में पीस देते हैं ।।६।। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० ] सिद्धान्तसार दीपक मद्य आदि पेय पदार्थ पीने का फलः मुखं विदार्य संवंशैर्वलत्तास्ररसं बलात् । क्षिप्यते नारकस्तेषां मद्यपानोत्य पापतः ||६३ ॥ अर्थ::-मद्य आदि अनेक प्रकार के अपेय पदार्थ पीने से जो पाप संचय हुआ था उससे ये नारकी जीव सन्धासी से मुख फाड़ कर बलपूर्वक उसमें जलता हुआ ताम्ररस डाल रहे हैं ।। ६३|| परस्त्री सेवन का फलः दृढमालिङ्गनं केचित् कारयन्ति बलाद् गले । तप्तलोहांगनाभिश्च परस्त्रीसंगजाघतः ॥ ६४ ॥ अर्थ :- परस्त्री सेवन से उत्पन्न पाप के फल स्वरूप वे नारकी जीव बल पूर्वक गले में तप्त लोहे की स्त्री से श्रालिङ्गन करा रहे हैं ॥ ६४॥ जीवों को छेदन भेदन आदि के दुःख देने का फलः विधाय नारकांगानां सूक्ष्मखण्डानि कर्त्तनः । निः पीडयन्ति यन्त्रेषु बलन्त्यश्मपुटादिभिः ॥ ६५|| क्वाथयन्ति च कुम्भीषु, निर्दयाः नारकाः परे । चूर्णयन्त्यस्थिजालं च, ताडयन्तिपरस्परम् ॥६६॥ गृध्रास्ताम्रमयास्तत्र, लोहतुण्डाश्च वायसाः । मर्माणि दारयन्त्येषां चञ्चुभिनंखरैः खरः ॥६७॥ छिन्नभिनानि गात्राणि, सम्बन्धं यान्ति तत्क्षणम् । दण्डाहतानि वारीखी-व तेषां दुविधेवंशात् ॥ ६८ ॥ अर्थ : - [ मनुष्य पर्याय में जो धनान्ध तेल श्रादि के मील खोल कर और बड़ी बड़ी चक्कियां लगा कर बिना शोधन किये अनाज आदि पिसवा कर महान पाप संचय करते हैं ] उन नारकी जीवों के शरीरों के कंची द्वारा छोटे छोटे टुकड़े करके यन्त्रों में (घानी में ) पेलते हैं और पत्थर की चक्कियों द्वारा उन्हें पीसते हैं ॥ ६५ ॥ वे दुष्ट और निर्दयी नारकी दूसरों को हाण्डियों में पकाते हैं, हड्डियों का चूर कर देते हैं और आपस में एक दूसरे को मारते हैं ।। ६६ ।। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अधिकार [ ७१ नहीं (नरकों में ) ताम्रमय गृद्धपक्षो और लोहे के मुख वाले कौए अपनी तीक्ष्ण चोंचों एवं नखों से ( मनुष्य पर्याय में जो पशुओं के मर्म स्थानों का छेदन भेदन करते हैं तथा उनके शरीर में हो जाने वाले घावों की पक्षियों से रक्षा नहीं करते ) उन नारकियों के मर्म स्थानों का छेदन करते हैं 11६७॥ खोटे कर्मोदय के वशसे उन नारकी जीवों के छिन्न भिन्न किये हुये शरीर डण्डे से ताडित जल के समान तत्क्षण सम्बन्ध को प्राप्त हो जाते हैं ।।६८।। मांस भक्षण का फल : खादन्ति नारकास्तेषां मांस भक्षणापतः। शूलपक्वानि मांसानि पुरा ये मांसभक्षिणः ।।६९।। अर्थ:--जिन्होंने पहिले मांस भक्षण किया था, पाप से उन मांस भक्षो जोवों के मांस को अन्य नारको शूलसे ( मांस पकाने का कांटा ) पका कर खाते हैं ॥६६॥ भिन्न भिन्न प्रकार के दुःखों का कथन : काञ्चिल्लोहाङ्गनालिङ्गनाच्च मूर्छामुपागतान् । लोहारवण्डकरन्यः खलास्तुबम्ति मर्मसु ॥७॥ अर्थ:--लोहे की (तप्त ) स्त्री के आलिङ्गन से मूर्छा को प्राप्त होने वाले नारको के मर्म स्थानों पर अन्य दुष्ट नारकी लोह दण्ड के द्वारा चोटें मारते हैं ।।७०।। सर्वाङ्गकण्टकाकीर्णेषु शाल्मलिद्र मेषु च ।। भस्त्राग्निदोपितेष्वन्यानारोपयन्ति नारकाः ॥७१।। अर्थः-सर्वाङ्ग में तीक्ष्ण कांटों से व्याप्त शाल्मलि वृक्षों पर और अग्नि से दैदीप्यमान भट्टों पर उन नारको जीवों को चढ़ाते हैं ॥७१।। निघर्षन्त्यपरे तेषु सर्वाङ्गष द्र मेष तान् । गृहोस्वान्ये च पाक्षेषु घ्नन्त्याहत्य धरातते ॥७२॥ अर्थः-अन्य कोई नारकी उन कण्टकाको सम्पूर्ण वृक्षों पर उन्हें घसीटते हैं, और अन्य कोई उन बेचारों को जमीन पर पटककर तथा पैरों में फंसा कर मारते हैं ॥७२11 नित्यस्नानोत्थ पापेन, वैतरण्यम्बु बोचिषु । यान्त्यस्यन्ताकुलीमावं, केचिरकश्चित्प्रमज्जिताः ।।७।। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ ] सिद्धान्तसार दीपक केचिच्च स्वयमागत्यतीबोष्णाग्निकरालिताः । क्षारपूतिजलेतस्या, मज्जन्ति तापशान्तये ।।७४।। तेन दुःस्पर्शनीरेण, नितरां ते कथिताः। असिपत्रवनान्याशु, विश्रामाय श्रयन्ति भोः ॥७५।। तेषु तीवो मरवाति, विस्फुलिङ्गकणान् किरन् । तेन पत्राणि पात्यन्ते, खड्गधारासमानि च ।।७६॥ तेषां गात्राणि छिद्मन्से, भियन्ते चाखिलानि तैः । ततस्ते बनान्ताः, पापुर्वन्ति यमरः ।।७ तस्मात्ते च गलद्रक्त-धारातीष कुरूपिणः । प्रविशन्ति स्वयं स्थित्य, गत्वाश्रु पर्वतान्तरम् ।।७।। तत्रापि नारका एतान खादन्ति दारयन्ति च ।। व्याघ्रसिंहाहि पक्ष्याविरूपैः स्वविकियोद्भवः ।।७।। केचित्तान नारफान दीनान् धृत्वा पादेष्वधो मुखान् । पर्वताग्रावधो भागं पातयन्ति महीतलम् ।।१०।। सद् घातात् खण्डखण्डाङ्ग-भूतांस्तान् शरणार्थिनः । यत्रमुष्टिप्रहारायनन्त्यन्ये रौद्ररूपिणः ॥८॥ व्रणजजरितान् कांश्चिदतीबवेदनाकुलान् । भद्रं कुर्वेवमित्युक्ता सिंचन्ति क्षारवारिभिः ॥१२॥ अर्थ:--नित्य ही अगालित एवं अप्रमाण जल से स्नान करने के कारण जो पाप उत्पन्न हये थे उन्हींके फल स्वरूप कोई जीव वैतरणी नदी को कल्लोल मालानों के बीच पाकुलीभाव को प्राप्त होते हैं, कोई जी व अन्य नारकियों द्वारा उसमें डुबोये जाते हैं और कोई असह्य तीव्र उष्ण अग्नि की ताप के कारमा अाक्रन्दन करते हुये उस नदो पर आकर ताप शान्ति के लिये नदी के क्षार एवं दुर्गन्धित जल में स्वयं डूब जाते हैं । किन्तु भो भव्य जनो ! उस जल के दुःस्पर्श से अत्यन्त पीडित होते हुये वे नारकी विश्रान्ति के लिये शीघ्न हो. असिपत्र वनों का प्राश्रय लेते हैं । जिनमें ( अग्नि के ) विस्फुलिंग कणों को फैलाती हुई वायु वहतो है जिससे असिधारा के समान पत्ते नीचे गिरते हैं, जो उन नारकियों के सम्पूर्ण शरीर को छेद देते हैं और भेद देते हैं, इसलिये वे बेचारे असहाय वेदना से प्राक्रान्त होते हुये चीत्कार ( हा हा कार ) करते हैं । शरीर भेदन के कारण बहतो हुई रक्त धारा से जो अत्यन्त कुरूप हो रहे हैं ऐसे वे नारको सुख से स्थित होने के लिये शीघ्न ही पर्वत के ऊपर जाकर स्वयं ही Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. तृतीय अधिकार [ ७३ उनकी गुफाओं में प्रवेश करते हैं, किन्तु वहां भी अपनी विक्रिया ( प्रपृथक विक्रिया ) से उत्पन्न हुये व्यान, सिंह, सर्प प्रावि हिंसक पशु अपने शरीरों के द्वारा उन नारकियों को विदारण कर देते हैं और खाते हैं ।।७३-७६॥ कोई दुष्ट नारको अधोमुख उन बेचारे दोन नारकियों को अपने पैरों पर रख कर पर्वत के ऊपर से नीचे पृथ्वी पर पटक देते हैं, जिसके धात से खण्ड खण्ड हो गये हैं शरीर जिनके ऐसे शरण के इच्छुक उन नारक्रियों को अन्य कोई दुष्ट नारकी व मुष्टियों के प्रहारों से मारते हैं। तुम्हारे इन गहरे घावों से होने वाली तीव्र वेदना को मैं शीघ्र ही ठीक करता हूँ ऐसा कहकर अन्य कोई नारकी उन घावों को क्षार जल से सींचते हैं 11८०-१२।। गर्व करने का फल : पुरागिणागि पापनि गरजांचनमः। तप्तलोहासनेष्यत्र तानासयन्ति नारकाः ॥३॥ अर्थः-पूर्व जन्म में नाना प्रकार के बढ़ते हुये मद समूह से सञ्चित पाप के फल स्वरूप उन नारको जीवों को अन्य नारकी तप्तायमान लोहे के आसनों पर बैठाते हैं ।।८३॥ अयोग्य स्थान में शयन करने का फलः परस्त्रीनिकटातीवमृदुशय्योत्यपापतः। शायन्ति परे कांनिच्छितायःकण्टकारतरे ॥४॥ अर्थः-पूर्व भव में परस्त्री के साथ प्रति मृदुल शय्या पर सोने से जो पाप बंध किया था उससे अन्य कोई नारकी उन्हें लोहे के तोक्षण कांटो के ऊपर सुलाते हैं ||८४॥ सप्त व्यसन सेवन का फल:-- सप्तध्यसन सेवोत्था-घोक्याविह नारकान् । केचित् निशात शूला-वारोपयन्स्यशर्मणे ॥५॥ बध्वा शृङलया स्तम्भे, कांश्चिच्च क्रकच खलाः । वारयन्त्यखिलांगेषु, स्वाक्रन्दं कुर्वतो बलात् ।।६।। अर्थः -पूर्व भव में सप्त व्यसनों का सेवन करके जो पाप उपार्जन किया, उसके उदय से नरक में उन नारकी जीवों को कोई नारकी भयङ्कर दुःख देने के लिये तीक्ष्ण शूल के अग्रभाग पर चढ़ा देते हैं और कोई दुष्ट प्राक्रन्दन करते ( दुःख से चिल्लाते) हुये उन जीवों के सम्पूर्ण शरीर को जबरदस्ती सांकल द्वारा स्वम्भे पर बांधकर करोंत से चीरते हैं ॥८५-८६॥ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ ] सिद्धान्तसार दीपक - रविरोध रखने का फलः - केचित् प्राग्जन्मवैरादीन, स्मारयित्वा निरूप्य छ । मुहुनिभर्त्य दुर्वाक्यः, स्थित्वारणांगणे क्रुधा ।।७।। स्वविक्रियांग सज्ञात- नाशितायुषव्रजः । छेदयन्त्यखिलांगानि, नन्ति क्रुद्धाः परस्परम् ।।८।। अर्थः-कोई कोई नारको जोव पूर्व भव के वैर का स्मरण करके और बार बार भत्सना युक्त खोटे नाक्यों द्वारा उस वैर भाव को कह कर क्रोधित होबे हुये रणाङ्गण में स्थित होकर अपने शरीर को अपृथक् विक्रिया से उत्पन्न हुये । उ प्रकार के लोग शाह के द्वारा उनके सम्पूर्ण शरीर को छेद देते हैं तथा क्रोधित होते हुये परस्पर में एक दूसरे को मारते हैं ।।८७-८८।। असुरकुमारों द्वारा दिये जाने वाले दुःखों का कथनः उद्विग्नास्तान क्वचिद्दीनान पद्धादेनारकान स्थितान् । रौद्राशयाः सुरा एस्य स्मारयित्वा पुरातनम् ।।८।। प्रागतं वैरमन्योन्यं योधयन्ति रणांगणे। स्थित्वा स्वशर्मणे हिसानन्वं कुर्वन्त उल्वणम् ।।६011 विस्फुलिंगमयों शय्यां ज्वलन्ती शायिताः परे । शेरते शुष्कसर्वांगा बोधनिबासुखाप्तये ।।६१॥ अर्थः-युद्ध प्रादि से हतोत्साह होकर खड़े हुये किन्हीं दोन नारकियों को दुष्ट अभिप्राय वाले असुरकुमार देव आकर पूर्व भव को याद दिलाते हुये उसी पूर्व वैर के कारण आपस में एक दूसरे नारकियों को युद्ध में लड़ाते हैं और स्वयं की सुम्न प्राप्ति के लिये महा हिंसानन्दी रौद्रध्यान करते हैं । अन्य कोई अग्निक रिणकामय जलती हुई शय्या पर उन्हें सुला देते हैं, तथा शुष्क हो गया है शरीर जिनका ऐसे कोई नारको मृत्यु द्वारा मुख प्राप्त करने की इच्छा से उस पर स्वयं सो जाते हैं ।।८६-६१॥ दुःखों के प्रकार एवं उनकी अवधि का वर्णनः-- - :: ... ... .. शारीरं मानसं क्षेत्रोद्भवं परस्परप्रजम् । मसुरोदीरितं पञ्चप्रकारमिति, दुस्सहम् ।।६२॥ क्षणक्षणमचं तोष, कविवाचामगोचरम् । . . सहन्ते मारकानिस्पं, महदुःखं व्युतोपमम् ॥१३॥ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय श्रधिकार चतुर्थश्वभ्रतः पूर्व, हसुरोदोरितासुखम् । भवेच्छेष चतुःश्व-षु च दुःखं प्रवद्धितम् ॥६४॥ एषां दुःखाग्धिमग्नानां पापारिप्रसितात्मनाम् । चक्षुरुन्मेषमात्रं न सुखं श्वभ्रषु जातुचित् ॥ ६५॥ इत्यसा तरां तीव्र वेदनां प्राप्य नारकोस् । उद्विग्नानां मनस्येषां विलेज प्रदा प्रर्थः - नरकों में शारीरिक, मानसिक, क्षेत्र जन्य, परस्पर एक दूसरे के द्वारा उत्पन्न और असुर कुमारों द्वारा दिया हुआ ये पांच प्रकार के दुस्सह दुःख होते हैं ||१२| क्षणक्षण में उत्पन्न होने वाले तीव्र प्रसाता के तीव्र अनुभाग से युक्त, कवियों के वचन अगोचर अर्थात् कवि जिसका वर्णन करने में असमर्थ, उपमारहित महान दुःखों को नारकी जीव नित्य ही सहन करते हैं ॥६३॥ [ ७५ चतुषं पृथिवी से पूर्व अर्थात् तृतीय मेघा पृथिवो पर्यन्त ही असुर कुमारों द्वारा दिया हुआ दुःख है । शेष धार नरक भूमियों में शेष चार प्रकार के ही दुःख होते हैं । पाप रूपी शत्रुओं से ग्रसित है श्रात्मा जिनकी ऐसे दुःवरूपी समुद्र में डूबे हुये नारकियों को नरकों में कदाचित् भी नेत्रके उन्मेष मात्र सुख नहीं है । इस प्रकार प्रसह्य तीव्र वेदना को प्राप्त कर उद्विग्न मन वाले इन नारकियों के हृदय में यह बहुत भारी चिन्ता उत्पन्न हो रही है ।।६४-६६॥ नारकियों द्वारा चिन्तित विषयों का वर्णन : अहो ! दुराश्रया भूमिः प्रज्वलन्ती - यमस्पृशा । स्पर्शा महतो यान्ति स्फुलिङ्गकण वाहिनः ॥ ६७॥ एता दोषता विशोऽप्रक्ष्या एतत् क्षेत्रं भयास्पदम् । सन्तप्तांशु दुई वर्षयम्बुमुखोऽबरात् ||१६| विचारण्यमिवं विष्वग् विषवल्लो मंश्वितम् । प्रसिपत्रवनं चैतदसिपत्रैर्भयङ्करम् ॥६६॥ उद्दीपयन्ति कामाग्नि वृथेमा लोहपुत्रिकाः । योधयति बलादस्मान् केचित्कूराः इमे खलाः ॥१००॥ खरोष्ट्रमन लोद्गारि ज्वलज्वालाकरालितम् । खरा - रटितमुत्प्रभं गिलितु नोऽभिधावति ॥ १०१ ॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ____७६ ] सिद्धान्तसार दीपक नारका भीषणा एते कृपारणकृतपाणयः । निष्ठुरास्तजयन्स्यस्मान् निष्कारणरणोतहाः ।।१०२॥ पक्षिणः परुषापाता इते नोऽभिद्रवन्त्यलम् । सारमेयाश्च खायही भौषयासोऽधीताम् ।।६०३। इतः स्फरन्ति दुानान् नारकाणां प्रधावताम् । इतश्च करुणाकन्दस्वराः कथितात्मनाम् ॥१०४॥ अन्धकूपसमा एते प्रज्वलन्स्यन्तामणा । दुर्गन्धा नारकावासा विश्वक्क्लेशाशुभाकराः ॥१०॥ दस्सहा वेदनाहषा बनिवाराश्च नारकाः। प्रकाले दुस्त्यजाः प्रारणाः कृत्स्नमनासुखायहम् ॥१०६॥ प्रतः प्रागजिता श्रेयसा वयं कवलीकृताः । क्व यामः क्व च तिष्ठामः कोऽपि त्राता न जातु नः ॥१०७॥ तरिष्यामः वामम-पारं वःखवारिधिम् । नो यास्थति कथं कालो बहुसागर-जीवितम् ॥१०॥ इत्थं चिन्तयतां तेषां शोकिना क्लेश भोगिनाम् । अन्तहियाङ्गदाहिन्यो जायन्ते व्याधयस्त्रयः ॥१०६॥ महत्यः शोकसन्तापवुःखक्लेशादिखानयः । ताः को वर्णयितुं शक्तो विद्वांस्तेषां च्युतोपमाः ॥११०।। अर्थ:-अहो ! मृत्यु से स्पर्शित दुःखों के प्राचयभूत यह भूमि जल रही है । दुखद है स्पर्श जिसका गेसी अग्नि करणों को फैलाने वालो वायु बह रही है । दिशाओं का आभोग दीप्त हो रहा है, यह क्षेत्र अति भयास्पद है और यहाँ मेषों से नित्य ही सन्तप्त रेत को दुर्वृष्टि हो रही है ।।६७-६८॥ ये विष वन चारों ओर विष लताओं से युक्त वृक्षों द्वारा व्याप्त हैं । ये भयङ्कर प्रसिपत्र वन मसिपत्रों द्वारा व्याप्त हैं ।।६६ ये लोहमय स्त्रियाँ वृथा हो कामाग्नि को बढ़ा रही हैं । ये क्रूर और दुष्ट असुर कुमार देव हम लोगों को जबरदस्ती लड़ा रहे हैं ।।१०।। ऊपर उठाये हैं श्रुथने ( मुख का अग्रभाग ) जिनने और जो जलती हुई ज्वाला से युक्त आग उगल रहे हैं ऐसे ये गधे और ऊँट हमें निगलने के लिये पीछे पीछे दौड़ रहे हैं। हाथ में है तलवार Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अधिकाय [७७ जिनके ऐसे ये निष्कारण युद्ध करने वाले निर्दय और भयङ्कर नारकी हम लोगों को साइना दे रहे हैं ।।१०१-१०२॥ पक्षियों के कठोर याक्रमण से हम लोग अत्यन्त दुखी किये जा रहे हैं, और कुत्ते हम लोगों मोसा रहे हैं लपायउता हे हैं। प्रातरौद्र प्रादि दुर्यान से युक्त यहां वहाँ दौड़ने वाले दुस्खी नारकियों के करुणा उत्पादक स्वर व्याप्त रहे हैं। अन्धकूप के समान दुर्गन्धित, सम्पूर्ण क्लेशों और अशुभ सामग्रियों की खान तथा अन्तःस्थल में अति उष्ण ये नरक के प्रावास जला रहे हैं । १०४-१०५ ।। यह दुस्सह वेदना, ये दुनिवार नारको और अकाल में प्राणों का नहीं छूटना इस प्रकार यहां दुःख देने वाले सम्पूर्ण साधन हैं । ये पूर्व जन्म में उपाजित पाप ही हमें खा रहे हैं। हम कहां जायें ? कहाँ बैठे ? यहां कोई भी हमारा रक्षक नहीं है । हम यहाँ यह दुःख रूपी समुद्र कैसे पार करें तथा बहुत सागर जीवित रहने का यह काल कैसे पूरा करें ।।१०६-१०८॥ इस प्रकार की चिन्ता करने बाले शोकाकुल और क्लेश भोगी उन नारको जीवों के अन्तरङ्ग और बाह्य अङ्गों में मानसिक, वाचनिक और कायिक ये तीन पौड़ाएं दाह उत्पन्न करती हैं। उपमा रहित, महान शोक, सन्ताप, दुःख एवं क्लेश आदि के खान स्वरूप उन नारकी जीवों का वर्णन करने के लिये कौन विद्वान समर्थ हो सकता है ? अर्थात् कोई नहीं ।।१०६-११०॥ नारको शरीरों के रस, गन्ध और स्पर्श आदि का वर्णन :--- कयुकालाबुकाजोराणां यादृशो रसः कटुः । अनिष्टश्चाधिकस्तस्मात् तद्गानेषु रसोऽशुभः ॥१११॥ श्वमार्जारखरोष्ट्रादि कुणयेभ्योतिःसहः । भारकाङ्गेषु दुर्गन्धः सविशेषो घृणाकरः ।।११२॥ यादृशः करपत्रषु गोक्षुरेषु च दुःस्पृशः । तादृशः कर्कशस्पर्शस्तेषां गात्रषु विद्यते ।।११।। अर्थ:-उन नारकी जीवों के शरीरों में कड़वी तूमड़ी और काजोर ( कटु अशुभ और अनिष्ट कारक रस होता है ॥११॥ ) से भी अधिक Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ ] सिद्धान्तसार दोपक ___ कुना, बिल्ली, गधा, ऊँट और सर्प आदि जानवरों के मरे हुये शारीरों में जो दुर्गन्ध माती है, उससे भी कहीं अधिक, दुःसह और घृणास्पद दुर्गन्ध उन नारको जीवों के शरीरों में पाती है ।।११२॥ करीत और गोखरू प्रादि पदार्थों में जैसा दुःस्पर्श होता है, वैसा ही स्पर्ध उन नारको जीवों के शरीरों में होता है ।।११३॥ मना विकिगः वा वा--. अपृथग्विक्रियास्स्येषां परपीड़ाविधायिनी । निन्धाशुभतराङ्ग भ्यः स्ववधिषुरितोदयात् ॥११४॥ अर्थः-उन नारकी जीवों के पाप कर्म के उदय से अपृथक् विक्रिया होती है और पर पीड़ा का सम्पादन करने वाला, निन्ध कुअवधिज्ञान प्रशुभतर प्रङ्गों से उत्पन्न होता है ।।११४।। उपसंहार : इत्याग्रन्यजगन्निध-मनिष्ट दुःखकारणम् । यदव्यं तत्समस्तं स्यात्, नारकाङ्गषु पिण्डितम् ॥११५।। किमत्र बहुनोक्तन, विविधा दुःखसन्ततीः । अधोषः सप्तपृथ्वीष्व-संख्यातगुण धिता ॥११६॥ महत्तोश्च निरौपम्या मुक्त्वा केवलिनं जिनम् । नान्यो वर्णयितुं शक्तो, मन्येऽहमिति निश्चितम् ॥११७।। अर्थ:---इस प्रकार और भी जो अन्य द्रव्य जगत् निन्ध, अनिष्ट और दु.ख कारक हैं, वे सब नारकियों के शरीरों में एकत्रित होते हैं। यहां अधिक कहने से क्या ? नाना प्रकार के दुःखोंको परम्परा नीचे नीचे सातों नरकों में असंख्यात गुण, असंख्यात गुण वृद्धि को लिये हुये हैं । निश्चय से मैं ऐसा मानता है कि केबली और जिन के द्वारा कही हुई उस महान् और उपमा रहित वेदना का वर्णन करने के लिये अन्य कोई समर्थ नहीं है ।। ११५-११७ ।। पापाचारी जीवों को शिक्षा : एतन्नरकदुःखादि भीरूणां सुखकांक्षिणाम् । पापारि सर्वथा हत्वा कार्यों धर्मः प्रयत्नतः ॥११॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सृती अभिः अर्थः- इस प्रकार उन नरकों के दुःखों से भयभीत और सुख की इच्छा करने वाले जीवों का कर्तव्य है कि ये पाप रूप शत्रु को सर्वथा नष्ट करके प्रयत्न पूर्वक धर्म कार्य करें ।।११८।। धर्म की महिमा : यतो नरक पाताला धर्म उद्धतु मङ्गिमः । .. क्षमः स्थापयितुं मोमे कन्पे बानुत्तरादिषु ॥११९॥ .धर्मावूध्वंगतीः साराः पापानिन्द्या अधोगतोः । समन्ते प्राणिनो लोके याश्च मध्यमा गतीः ॥१२०॥ पापं शत्रु रिहामुन धर्मो पन्धुर्न चापरः । सहगामी जिनेन्द्रोक्तो मुक्तिमार्गप्रसाधकः ॥१२१॥ अर्थः–जोवों को नरक रूप गड्ढे से निकालने में और मोक्ष, काल्पवासी एवं अनुत्तर आदि उत्तम स्थानोंमें पहुँचाने के लिये एक धर्म ही समर्थ है। ___ इस लोक में जीव धर्म से सारभूत ऊध्वं गति, पाप से निन्द्यनीय अधोगति और पाप पुण्य दोनों से मध्यम गति { मनुष्य, तिर्यञ्च गति ) प्राप्त करते हैं । इस लोक और पर लोक में जीवों को जिनेन्द्र भगवान द्वारा कहे हुये मोक्षमार्ग का साधनभूत धर्म के समान अन्य कोई बन्धु नहीं है और पाप के समान कोई शत्र नहीं है ।।११६-१२१॥ चारित्र धारण करने को प्रेरणा :-- मत्वेति भो । बुधजनाः सकलं निहत्य, पापारिमा नरकादिकुखुःखमूलम् । स्वमुक्तिशर्मजन परमार्षभूतम् धर्म कुरुध्वमनिशं व्रतसंयमाद्यः ॥१२२॥ अर्थः-ऐसा मारकर हे भव्यजनो ! नरकादि गतियों में होने वाले भयङ्कर दुःखों का जो मूल है ऐसे पाप रूप शत्रु को शीघ्र ही नष्ट करके व्रत. संयम आदि चारित्र के द्वारा स्वर्ग और मोक्ष सुख का जनक परमार्थभूत धर्म करो ॥१२२।। अन्तिम मङ्गलाचरण :-- धर्मः श्वभ्रगृहागलोऽसुखहरो, धर्मः शिवश्रीप्रवो, धर्मो नाकनरामरेन्द्रपददो धर्मो गुणानां निषिः। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० सिद्धान्तसार दीपक धर्मस्तोर्थकृतादि वैभव पिता सर्वार्थसिद्धि करो, धर्मो मेseg शिवाय संस्तुत इहाल सेवितस्तद्गुणैः ॥ १२३ ॥ इति श्री सिद्धान्तसार दीपक महाग्रन्थे भट्टारक श्रीसकलकीर्ति विरचिते नरक दुःख वनो नाम तृतीयोऽधिकारः ॥३॥ अर्थ :- धर्म ही नरकरूपगृह का आगल है, सुख देने वाला है, धर्म ही मोक्ष लक्ष्मी का प्रदाता है, धर्म हो इन्द्र, धरणेन्द्र एवं चक्रवर्ती श्रादि पदों पर प्रतिष्ठित करने वाला है, धर्म ही गुणों का खजा ना है, धर्म ही तीर्थंकर आदि संभव की उत्पन्न करने वाला पिता है और धर्म ही सर्व प्रयोजनों को सिद्धि करने वाला है, प्रतः यह तद् तद् गुणों के द्वारा पूर्णरूप से सेवन किया गया तथा स्तवन किया धर्म मुझे मोक्ष के लिये हो । इस प्रकार भट्टारकसकलकीति विरचित सिद्धान्तसार दीपक नाम के महाग्रन्थ में नरकों के दुःखों का वर्णन करने वाला तीसरा अधिकार समाप्त || Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थोधिकारः मङ्गलाचरण: नमामि मध्यलोकस्थान सर्वाश्च परमेष्ठिनः । जिनालयान् जिनार्चावीन् मोक्षाय कृत्रिमतरान् ॥१॥ अर्थ:--मध्यलोक में स्थित सम्पूर्ण पञ्चपरमेष्ठियों को, कृत्रिम प्रकृत्रिम जिनमन्दिरों को और कृत्रिम अकृत्रिम जिन प्रतिमाओं को मैं मोक्ष की प्राप्ति के लिये नमस्कार करता हूँ ॥१॥ विशेषार्थः--मध्यलोक में स्थित प्रकृत्रिम जिन चैत्यालय ४५८ हैं । जिनका विवरण:नन्दीश्वर द्वीप के ५२ चैत्यालय, कुण्डल गिरि के ४, रुचकांगार के ४ इस प्रकार ( ५२+४+४) -६० चैत्यालय तिर्यग्लोक में हैं, और पांच मेरु के ८०, वीस गजदन्तों के २०, अस्सी वक्षार पर्वतों के ८०, तीस कुलाचलों के ३०, चार इष्वाकार पर्वतों के ४, एक मानुषोत्तर पर्वत के ४, एक सौ सत्तर विजयाओं के १७०, और दश जम्बू शाल्मलि वृक्षों के १० अकृत्रिम चैत्यालय हैं । इस प्रकार मनुष्य लोक में कुल (८०+२०+५० +३+४+४+१७०+१०)=३९८ अकृत्रिम जिनमन्दिर हैं । तिर्यग्लोक के ६० और मनुष्य लोक के ३९८ इन दोनों को जोड़ देने से मध्यलोक में कुल प्रकृत्रिम चैत्यालय ( ३६+६०)-४५८ होते हैं । इन एक एक चैत्यालय में एक सौ पाठ, एक सौ आठ प्रतिमाएँ हैं अतः ४५८ को १०८ से गुरिणत कर देने पर (४५८x१.८)=४६४६४ मध्यलोक के अकृत्रिम जिन प्रतिमानों का प्रमारा प्राप्त हो जाता है । अर्थात् मङ्गलाचरण में ४५८ अकृत्रिम चैत्यालय और ४६४६४ अकृत्रिम प्रतिमाओं को नमस्कार किया है। टिप्पण कर्ता ने इसका गुणा निम्न प्रकार से किया है: गुरगन प्रक्रिया-जितने अंकों में गुणा करना हो चौड़ाई (प्राई ) में उतने खण्ड बनाना और जितने अंकों का गृणा करना हो लम्बाई ( खड़े ) में उतने खण्ड बना कर दहाई और इकाई के अंक रखने के लिये प्रत्येक खण्ड के दो दो खण्ड करना चाहिये । यहाँ तीन अंकों (४५८ ) में तीन हो अंकों (१०८) का गुणा करना है अतः लम्बाई और चौड़ाई में तीन तीन खण्ड करके पीछे दहाई और इकाई के लिये प्रत्येक खण्ड के दो दो भाग किये । सर्व प्रथम ४५८ को १ से गुणा करने पर दहाई में ० पौर इकाई स्थान में ४, ५, और पाठ ही लिखे नावेंगे। ४५८ को • से गुणा करने पर दहाई और इकाई दोनों स्थानों पर शून्य शून्य ही पागे, इसी प्रकार ४५८ के पाठ के अंकों को १०८ के पाठ से गुणा Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ ] सिद्धान्तसार दोपक द करने पर ६४ प्राप्त हुए जो दहाई में ६ ओर इकाई में ४ रखे गये आगे ४० और ३२ को भी इसी प्रकार रख कर चक्र के दाहिने भाग में नीचे से जोड़ना जैसे प्रथम पंक्ति में मात्र ४ हैं अतः सर्व प्रथम ४ का अंक रखना, दूसरी पंक्ति में शून्य छह और शुन्य है अतः ६ का अंक रखना, तीसरी पंक्ति २,४०० और हैं इनका योग १४ होता है अतः तृतीय स्थान में ४ लिखना और दहाई का एक अंक अगली (चौथी) पंक्ति में जोड़ना, इस प्रकार अगली (चौथी ) पंक्ति में ( १ ) ३०,०, ५ और ० हुए, इनका योग ६ प्रायः जो चतुर्थ स्थान में रखना । पञ्चम पंक्ति में ०४ और ० है इनका योग ४ हुआ अतः अन्तिम स्थान में ४ रख देना । छठवीं पंक्ति में मात्र है, अतः कुछ नहीं रखा जायगा । इस प्रकार योग को कुल संख्याएँ ४१ हजार ४ सौ १४ प्राप्त हुई जो ४५८ x १०८ के गुणन फल स्वरूप हैं । मध्यलोक के वर्णन करने की प्रतिज्ञा एवं उसका प्रमाण:-- अथ वक्ष्ये समासेन मध्यलोकं जिनागमात् । एकरज्जुप्रमव्यासासंख्यद्वीपान्धपूरितम् ॥२॥ लक्षैकयोजनोत्सेधो मध्यलोकोऽभिधीयते । चित्राभूमितलात्मेरुशिरःपर्यन्त ऊर्जितः || ३|| अर्थः- अब मैं जिनागम से श्रर्थात् जिनागम के अनुसार संक्षेप से मध्यलोक का वर्णन करूँगा । इस मध्यलोक का व्यास एक राजू प्रमाण है, जो प्रसंख्यात द्वीप समुद्रों से व्याप्त है । चित्रा पृथ्वी के तलभाग से लेकर सुमेरुपर्वत के शिखर पर्यन्त अर्थात् एक लाख योजन इस लोक की ऊँचाई है ।।२-३।। विशेषार्थ :- मध्यलोक का व्यास एक राजू और ऊंचाई एक लाख योजन अर्थात् ४०००००००० चालीस करोड़ मील है । शंका- राजु वि.से कहते हैं ? समाधान—जगच्छ्रेणी के सातवें भाग को राजू कहते हैं । जैसे जगच्छ्रेणी का प्रमाण बादल से गुणित एकट्ठी (६५५३६४ ६५५३६२ ) है । इसमें सात का भाग ६५५३६४ x ६५५३६ * ६५४३६९) ७ देने पर जो एक भाग प्राप्त हो वही राजू का प्रमाण है । श्रादि के सोलह द्वीपों के नाम:-- Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थाधिकार प्रार्थी द्वीप मध्य धातकीखण्डसंशकः । पुरुकराविवरश्वान्यस्तृतीयो वारुणीवरः ||४|| ततः क्षीरवशे द्वोपो नाम्ना धृतवरो परः । द्वीप भद्रवरो नन्दीश्वरोऽष्टमोऽरुणाभिधः ||५|| द्वीपोऽथारुणभासाख्यः कुण्डलादिवरस्ततः । द्वीपः शङ्खवराभिरुयो रुचकादिवराह्वयः ॥ ६ ॥ भुजगाविचरो द्वीपस्तथा कुशवराख्यकः । द्वीपः क्रौञ्चवरो नामेत्याद्यन्यैर्नामभिर्युताः ||७| अर्थः- मध्यलोक में सर्व प्रथम द्वीप का नाम जम्बूद्वीप ( २ ) धातकी खण्ड (३) पुष्करवर (४) वारुणीवर (५) क्षीरवर (६) घृतवर (७) क्षीद्रवर (८) नन्दीश्वर ( ९ ) प्रणवर (१०) महाभासर (११) कुण्डलवर (१२) शङ्खवर (१३) रुचकवर (१४) भुजगवर (१५) कुशवर और (१६) क्रौञ्चवर है ये श्रादि के १६ द्वीप हैं। इसके बाद प्रसंख्यात द्वीप समुद्रों को छोड़कर अन्त के १६ द्वीपों के नाम भी हैं ||५-७॥ [ ८३ विशेषार्थः - ऊपर तीन श्लोकों में मध्यलोक के अभ्यन्तर १६ द्वीपों के नाम कहे हैं, इनके आगे प्रसंख्यात द्वीप समुद्रों को छोड़कर अन्त के सोलह द्वीपों के नाम निम्नप्रकार हैं: - ( १ ) मनःशिला द्वीप (२) हरितालवर (३) सिन्दूरवर (४) श्यामवर (५) अनवर (६) हिंगुलवर (७) रूप्यवर (८) सुवर्णवर (8) वज्रवर (१०) वेडूयंवर (११) नागवर (१२) भूतवर (१३) यक्षवर (१४) देववर (१५) हीन्द्रवर और (१६) स्वयम्भूरमण द्वीप है । इस प्रकार ये आदि अन्त के ३२ द्वीप और ३२ ही समुद्र हैं, इनके बीच प्रसंख्यात द्वीप समुद्र हैं। ये सब एक राजू के मध्य में ही स्थित हैं । नोट: - यह विशेषार्थ टिप्परग के आधार पर लिखा है । द्वीप समुद्रों की स्थिति एवं प्राकृतिः शुभैः संख्यातिगा द्वीपसमुद्राः परिवेष्टय च । परस्परं हि तिष्ठन्ति बलयाकृतिधारिणः ||८|| अर्थ :- शुभ नाम वाले असंख्यात द्वीप समुद्र बलयाकृति और परस्पर में एक दूसरे को परिवेष्टित करते हुये (घेरे हुये ) स्थित हैं ||८|| समुद्रों की स्थिति एवं नामों का कथन करते हैं: Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ ] सिद्धान्तसार दोपक जम्बूद्वीपे समुद्रः स्यात्, लवणाभिध श्रादिमः । द्वीपे च धातकीखण्डे, कालोदधिवाह्वयः ॥ शेषासंख्य समुद्राणां नामानि विविधानि च । स्वस्वद्वीपसमानामि, ज्ञातव्यानि शुभान्यपि ॥ १०॥ अर्थः- जम्बूद्वीप में अर्थात् जम्बूद्वीप को वेष्टित किये हुये लवणसमुद्र नाम का प्रथम समुद्र है, अपने पान अनेकों शुभ नामों को धारण करने वाले प्रसंख्यात समुद्र जानना चाहिये । ये सब भी बलयाकृति और अपने अपने द्वीपों को वेष्टित किये हुये हैं ॥६- १०।। द्वीपसमुद्रों की संख्या का प्रमाण:-- मह प्रर्धाधिकद्वयोधाराब्धीनां रोमाणि सन्ति यं । यावन्ति तत्प्रमा ज्ञेया, श्रसंख्यद्वीप वार्द्धयः ||११|| अर्थः-- अढ़ाई प्राधार-उद्धार सागर के रोमों का जितना प्रमाण होता है, उतना ही प्रमाण असंख्यात द्वीप समुद्रों का जानना चाहिये ||११|| विशेषार्थ :- व्यवहार पल्य के रोमों का जो प्रमाण है उनमें से प्रत्येक रोम के उतने खण्ड करना चाहिये जितने कि असंख्यात वर्षों के समयों का प्रमाण है। इन समस्त रोमखण्डों को एकत्रित करने पर जो प्रमारा प्राप्त हो वही एक उद्धार पल्य के समयों का प्रमाण है, और इसी प्रमाण वाले पच्चीस कोडाकोडी उद्धार पत्यों के समयों का जितना प्रमाण है उतना ही प्रमारण सम्पूर्ण द्वोप समुद्रों का है । २५ कोटाकोटि उद्धार पल्यों का ढाई उद्धार सागर होता है । अब द्वीप समुद्रों का व्यास (विस्तार) कहते हैं: श्रमीषां मध्यभागेऽस्ति, जम्बूद्वीपोऽखिलादिमः । लक्षयोजनविस्तीर्णो, वृत्तो जम्बूद्र माङ्कितः ॥ १२ ॥ ततो द्विगुणविस्तारी, लवरगाव शाश्वतः । अस्माच्च द्विगुणन्यासो, धातकीखण्डइत्यपि ॥१३॥ द्विगुणद्विगुणण्यासाः सर्वे ते द्वीपसागराः । स्वयम्भूरमणाध्यन्ता, प्रकृत्रिमाः क्षयोज्झिताः ।। १४ ।। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थाधिकार अर्थ:-सम्पूर्ण द्वीप समुद्रों के मध्यभाग में जम्बूद्वीप नाम का प्रथम द्वीप है, जो गोल है, एक लाख योजन व्यास वाला और जम्बू वृक्ष से अलंकृत है । जम्बूद्वीप से दूने विस्तार वाला लवण समुद्र है, जो शाश्वत है और लवण समुद्र से भी दूने विस्तार वाला घातको खण्ड है । इसो प्रकार अन्तिम स्वयम्भूरमण समुद्र पर्यन्त सर्व द्वीप समुद्र दूने दुने विस्तार वाले, अकृत्रिम और क्षय से रहित हैं ॥१२-१४।। अब सूची व्यास का लक्षण कहते हैं: द्वीपाब्धीनां हि संलग्ना गणनायोजनश्च या । ऋज्वोतव यान्ता सा सूची बुनिगद्यते ॥१५॥ अर्थः-योजनों द्वारा द्वीप या समुद्र के मध्य के माप का अथवा द्वीप या समुद्र के एक तट से दूसरे तट पर्यन्त तक के सोधे माप का जो प्रमाण है वह विद्वानों के द्वारा सूची नाम से कहा गया है ॥१५॥ विशेषार्थ:-सीधी रेखा द्वारा द्वीप समुद्र या समुद्र के एक तट से दूसरे तट पर्यन्त तक जो माप किया जाता है, उसे सूची कहते हैं ! अढ़ाई द्वीप पर्यन्त के द्वीप समुद्रों की सूची का प्रमाण कहते हैं: योजनानां च लक्षक, सूचीद्वीपादिमस्य वै । लवरणाब्धेभवेत्पञ्च, लक्षयोजनसम्मिता ॥१६॥ सूची च धातकोखण्ड-स्य लक्षारिणत्रयोदश । योजनानां तथैकोनत्रिंशत्कालोदधेस्ततः ॥१७॥ सुची स्यात्पञ्चचत्वारि-शल्लक्षयोजनप्रमा। पुष्करार्थस्यसाज्ञेया-न्येषामेवं श्रुते बुधः ॥१८॥ अर्थ--प्रागम में जम्बुद्वीप के सूची व्यास का प्रमाण एकलाख योजन, लवण समुद्र के सूची व्यास का प्रमाण पांच लाख योजन, धातकी खण्ड के तेरह लाख योजन, कालोदधि समुद्र के उन्तीस लाख योजन और पुष्कराध द्वीप के सूची व्यास का प्रमाण गणधरा दि ज्ञानियों के द्वारा ४५ लाख योजन कहा गया है ॥१६-१८।। विशेषार्थ:-अभ्यन्तर सूची, मध्य सूची और बाह्य सूची के भेद से सूची व्यास तीन प्रकार का होता है, किन्तु यहाँ केवल बाह्य सूची व्यास का ही प्रमाण दर्शाया गया है । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्तसार दीपक यथा: सवमा समुद्र का बाहर सूची व्यास / ५ लाख योजन और पुष्करा द्वीप का बाहय सूची व्यास/. mater ४५ लाख योजन प्रमाण है। Pa! अब स्थूल और सूक्ष्म परिधि का विवेचन करते हैं: घ्यासास्त्रिगुणः स्थूलः परिधिः प्रोच्यते जिनः । वशघ्नध्यासवर्गस्य मूलं सूक्ष्मश्च वर्ण्यते ॥१६॥ अर्थः-बादर परिधि, व्यास की तिगुनी होती है, और व्यास का वर्ग कर दश से गुणित करना, तथा गुणनफल का वर्गमूल निकालना जो लब्ध प्राप्त हो वही सूक्ष्म परिधि का प्रमाण होता है । ऐसा जिनेन्द्र देव ने कहा है ॥१६।। अस्य बिस्तरः कथ्यतेः-जम्बूद्वीपस्य स्थूलपरिधिः त्रिलक्षयोजनानि । सूक्ष्मपरिधिः त्रिलक्षषोउशसहस्रतिशतसप्तविंशतियोजनानि, त्रिगव्य तानि, अष्टाविंशत्यधिकशतधषि त्रयोदशांगुलाः साधिका(गुलः । लवणाब्धेः स्थूलपरिधिः योजनानां पञ्चदशलक्षाणि । धातकीखण्वस्य चकोनश्चत्वारिंशलक्षाणि । कालोदधेः सप्ताशीतिलक्षागि 1 पुष्करार्धस्य द्वीपस्य स्थूनपरिधिः एकाकोटीपञ्चत्रिशल्लक्षाणि । अब इसी का सविस्तर कथन करते हैं: जम्बूद्वीप की स्थूल परिधि का प्रमारग ३ लाख योजन और सूक्ष्मपरिधि का प्रमाण ३१६२२७ योजन, ३ कोस १२८ धनुष और साधिक १३३ अंगुल है । लवणसमुद्र की स्थूल परिधि का प्रमाण १५ लाख योजन है (और सूक्ष्मपरिधि का प्रमाण १५८११३८ योजन, ३ कोश, ६४० Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थाधिकार [ ८७ धनुष, २ हाथ और १६३ अंगुल है)। धातको खण्ड को स्थूल परिधि ३६ लाख योजन (और सूक्ष्म परिधि का प्रमाण ४११०९६० योजन, ३ कोस, १६६५ धनुष, ३ हाथ, ७६ अंगुल) है । कालोदधि समुद्र की स्थूल परिधि का प्रमाण ८७ लाख योजन और पुष्करार्धद्वीप की स्थूल परिधि का प्रमाण १३५००००० एक करोड ३५ लाख योजन है । जम्बूद्वीप का बादर सूक्ष्म क्षेत्रफल प्राप्त करने के लिये नियम निर्धारित करते हैं: परिवेषहताद व्यासाच्चतुभि- जिताफलम् । स्थूल सूक्ष्मं तदेवोक्त घृतक्षेत्रफलं पुरम ॥१०i अर्थः - स्थूलपरिधि को व्यास से गुणित कर चार से भाजित करने पर गोलक्षेत्र का स्थलक्षेत्रफल प्राप्त होता है और मुक्ष्म परिधि को व्यास से गुणित कर ४ से भाजित करने पर सूक्ष्मक्षेत्रफल प्रार होता है ।।२०।। विशेषार्थ:-जम्बू द्वीप थाली के सदृश गोल है, इसका व्यास एक लाख योजन और स्थूल परिधि ३ लाख योजन है, अतः इसका स्थूल क्षेत्र फल स्यूल १०४ पास और सूक्ष्म क्षेत्रफल सूक्ष्मपरिधि x व्यास के नियमानुसार निकलेगा। बलयाकार क्षेत्र का स्थूल सूक्ष्म क्षेत्रफल प्राप्त करने का नियमः-- सूच्योर्योगस्य विस्तारदलघ्नस्य कृतिद्विधा । विघ्नदशघ्नयोर्मूले स्थूलान्ये घलये फले ॥२१॥ अर्थः- अन्तसूची और आदि सूची को जोड़ कर अर्ध विस्तार (अर्धरुन्द्रव्यास) से गुणित करने पर जो लब्ध प्राप्त हो उसे दो जगह स्थापित कर एक स्थान के प्रमाण को तिगुना करने से वादरक्षेत्रफल और दूसरे स्थान के प्रमाण का वर्ग कर जो लब्ध प्राप्त हो उसको दश से गुणित कर गुणनफल का बर्गमूल निकालने पर जो लब्ध प्राप्त होता है वह वलयाकार क्षेत्र के सूक्ष्मक्षेत्रफल का प्रमाण होता है ।२१।। विशेषार्थः-लवणसमुद्र चूड़ी के सदृश वलयाकार है। इसका अन्त अर्थात् बाह्यसूची व्यास ५ लाख योजन और आदि अर्थात् अभ्यन्तर सूची व्यास एक लाख योजन है । इन दोनों का योग (५-- १) = ६ लाख योजन हुआ ! लवण समुद्र का अर्धविस्तार १ लाख योजन है अतः ६ ला.४१ ला = ६ लाख ४ लाख प्राप्त हुये । इसे ६ ला ला, ६ ला ला इस प्रकार दो जगह स्थापित कर एक जगह के प्रमाण को तिगुना करने से (६ ला ला४३) = १८ ला ला अर्थात् १८ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ ] सिद्धान्तसार दोपक हजार करोड़ योजन लवण समुद्र का बादर क्षेत्रफल हुआ, और दूसरी जगह स्थापित ६ ला ला का वर्ग करने पर ६ ला ला - ६ ला ला हुये । इनको दश से गुणित करने पर ६ ला ला ४६ ला लाx १० अर्थात् ३६ कोड़ाकोड़ी करोड़ योजन प्राप्त हुये । इनका वर्गमूल निकालने पर १८९७३६६५६६१० योजन अर्थात् अठारह हजार नौ सौ तिहत्तर करोड़ छयासठ लाख, उनसठ हजार छह सौ दश योजन लवणसमुद्र के सूक्ष्मक्षेत्रफल का प्रमाण प्राप्त होता है। अस्थार्थः प्रोच्यतेः-जम्बूद्वीपस्य स्यूलं वृत्तक्षेत्रफलं सप्तशतपञ्चाशत् कोटि योजनानि । सूक्ष्म च सप्तशतनवतिकोटिषट्पञ्चाशल्लक्षचतुर्नवतिसहस्र कशतपञ्चाशद्योजनानि । पादाधिकक्रोशश्च । इसी प्रथं को कहते हैं.--जम्बूद्वीप के स्थुनक्षेत्रफल का प्रमाण ३ ला०४१ वा = सात सौ पचास करोड़ अर्थात् सात अरब पचास करोड़ वर्ग योजन है, और सूक्ष्म क्षेत्रफल का प्रमाण सूक्ष्मपरिधि ४१ ला० " -७६०५६६४१५० योजन, १ कोस, १५१५ धनुष, २ हाथ और १२ अंगुल है। जम्बूद्वीपस्थ क्षेत्र एवं कुलाचलों के नाम: अथ जम्बूमतिम तने महारो सुदर्शन । दक्षिणं भागमारभ्येमानि क्षेत्राणि सप्तवं ॥२२॥ प्रादिमं भारतं क्षेत्र ततो हमवताह्वयम् । हरिसंज्ञं विवेहाल्यं जम्बूद्वीपे च रम्यकम् ॥२३॥ हरण्यवसनामार्थ-रावतं क्षेत्रमन्तिमम् । सप्ततानि सुवर्षाण्यन्तरितानि कलाचलः ॥२४॥ प्रथमो हिमवच्छलस्ततोमहाहिमाचलः । निषधः पर्वतो नीलो रुक्मी च शिखरीति षट् ॥२५॥ अर्थ:-जम्बूद्वीप के मध्य भागमें सुदर्शन नाम का महामेरु है, इस सुदर्शन मेरु के दक्षिणभाग से प्रारम्भ कर सात क्षेत्र हैं ।। सर्व प्रथम भरत क्षेत्र, (२) हैमवत, (३) हरिक्षेत्र, (४) विदेह, (५) रम्यकक्षेत्र, (६) हैरण्यवत क्षेत्र और अन्तिम (७) ऐरावत नाम का क्षेत्र है । इन सातों क्षेत्रों को अन्तरित करने बाने छह कुलाचल पर्वत हैं, जिसमें प्रथमादि कुलाचलों के नाम हिमवन्, (२) महाहिमवन्, (३) निषध, (४) नील पर्वत, (५) रुक्मो और (६) गिरिन् हैं ॥२२-२५।। अब कुलाचलों का वर्ण कहते हैं: Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थाधिकार [८१ कनकार्जुनहेमाभास्त्रयो दक्षिण भूधराः । वैडूर्यरजतस्वर्ण-मयाः कुलाद्रयस्त्रयः ॥२६॥ अर्थः-- दक्षिण दिशा के तीन कुलाचलों का वर्ण क्रमशः कनक, अर्जुन और हेम के सदृश है तथा उत्तर दिशा के तीन कुलाचलों का वर्ण क्रमशः वैडूर्य, रजत और स्वर्णमय है ।।२६।। विशेषार्थः-हिमवन पर्वत का वर्ण स्वर्ण सत्श, महाहिमवन् का अर्जन अर्थात् चाँदी सदृश, निषधपर्वत का हेम अर्थात् तपाये हुये स्वर्ण सहश, नील पर्वत का वैडूर्य (पन्ना) अर्थात् मयूर खण्ड सश, रुक्मी पर्वत का रजत अर्थात् चाँदो सहश और शिखरिन् पवंत का स्वर्ण सदृश वर्ग है। भरतक्षेत्र के व्यास का प्रमाण कहते हैं: नवत्यप्रशतंर्भाग-जम्बूद्वीपस्य विस्तरः। विभक्तो भरतस्यको मागो ध्यासोमतोजिनः ॥२७॥ अर्थः जम्बूद्वीप के विस्तार (१ लाख यो०) को १६० भागों से भाजित करने पर जो एक भाग प्राप्त होता है वही भरत क्षेत्र का व्यास जिनेन्द्र भगवान् द्वारा माना गया है ॥२७॥ विशेषार्थ:- जम्बूद्वीप का विस्तार एक लाख योजन है । इसको १६० से भाजित करने पर (29820) =५२६१ योजन प्राप्त होता है यही एक भाग भरतक्षेत्र का विस्तार माना गया है । ७ क्षेत्र और ६ पर्वतों की १६० शलाका होती है, अतः १६० से भाजित किया है । शलाका का प्रमाण १+२+४+८+१६+३२+६४+३२+१६+६+४+२+१= १६० है । अस्यव्याख्यानमिदम्:-जम्बूद्वीपस्य नवत्यधिकशतभागकृतानामेको भागो भरतस्य विष्कम्भः । हिमवतो द्वौभागौ च । हैमवतस्य चत्वारो भागाः । महाहिमवतोऽष्टी भागाः। हरिक्षेत्रस्य षोडशभागाः । निषधाद्रे त्रिशत्भागाः ।। विदेहस्य चतुःषष्टिभागाः । नीलस्य द्वात्रिंशत् भागाः। रम्यकस्य षोडशभागाः । रुक्मिणोऽष्टी भागाः । हैरण्यवतस्य चत्वारो भागाः। शिखरिणो द्वौ भागो । ऐरावतस्यैको भागः । इत्यमी स पिण्डीकृताः कृत्स्नक्षेत्राद्रीणां नवतिशतभागाः भवन्ति । इसोका विशेष विवेचन करते हैं:--जम्बूद्वीप के (१००००० योजन विस्तार के) १६० भाग करने पर १ भाग प्रमाण भरत का विस्तार, २ भाग हिमवन्, ४ भाग हैमवत, ८ भाग महाहिमवन, १६ भाग हरिक्षेत्र, ३२ भाग निषधपर्वत, ६४ भाग विदेह, ३२ भाग नील पर्वत, १६ भाग रम्यक क्षेत्र, भाग रुक्मी पर्वत, ४ भाग हैरण्यवत क्षेत्र, २ भाग शिखरिन् पर्वत और १ भाग प्रमाण ऐरावत क्षेत्र Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० ] सिद्धान्तसार दीपक का विस्तार है । इन सबको जोड़ लेने पर सम्पूर्ण क्षेत्र और सम्पूर्ण कुलाघलों को सम्पूर्ण शलाकाओं का प्रमाण (१+२+४+++१६+३२+ ६४+३२ + १६+६+४+२+१) = १६० होता है। अब क्षेत्र एवं कुलाचलों का विस्तार कहते हैं: योजनानां च षड्विशत्यग्रपञ्चशतान्यपि । एकोनविंशभागानां कृतानां योजनस्य वै ।।२८॥ षटमामा इति विष्कम्भो भरतस्य भवेत्ततः । द्विगुणः पर्वतस्येति द्विगुणो द्विगुणोऽपरः ।।२६।। व्यासो विवेहपर्यन्तं ततो नीलादिषु क्रमात् । पूर्वोक्त विधि हान्यरावतान्तं विस्तरो मतः ॥३०॥ क्षेत्राच्चतुर्गुणं क्षेत्रमदरद्रिश्चतुर्गुणम् । भरतादि विदेहान्तं नीलादौ चतुराहृतम् ॥३१॥ अर्थः-भरतक्षेत्र का विष्कम्भ ५२६ योजन प्रमाण है । हिमवन् पर्वत का इससे दुगुणा है, इस प्रकार विदेह क्षेत्र पर्यन्त प्रत्येक क्षेत्र एवं पर्वत का विष्कम्भ क्रमशः दुगुणा दुगुणा होता गया है, और नील पर्वत से ऐराबत क्षेत्र पर्यन्त इसी क्रम से हानि होती गई है। भरतक्षेत्र से विदेह क्षेत्र पर्यन्त प्रत्येक क्षेत्र से क्षेत्र का विष्कम्भ चौगुना है और प्रत्येक पर्वत से पर्वत का चौगुना है । इसके प्रागे नीलादि पर्वतों एवं रम्यक प्रादि क्षेत्रों का पूर्वोक्त क्रम से ही चौगुना चौगुना होन होता गया है ।।२८-३१।। __ अस्य विशेषव्याख्यान मुच्यते:-भरतस्य विष्कम्भः योजनानां षड्विशत्यग्रपञ्चशतानि योजनस्यत्रोनविंशतिभागीकृतस्य कला: पट् । हिमवतश्च द्विपञ्चाशदधिकदशशतानि कला द्वादश । हैमवतस्य पञ्चाधिककविंशतिशतानि कलाः पञ्च । महाहिमवतः दशाधिकद्विचत्वारिंशच्छतानि कला दश । हरिवर्षस्याष्टसहरावतुःशकविंशतिरेका कला । निषधस्य प्रोडशसहस्राष्टशतद्विचत्वारिंशद् द्वे कले । विदेहस्य व्यासः त्रयस्त्रिंशत्सहस्रषट्शतचतुरशीति योजनानि चतस्रः कलाः। नीलस्य पोडशसहस्राष्टशतद्विचत्वारिंशत् द्वे कले । रम्यकस्वाष्टसहस्रचतुःशतकविशतिरेका कला । रुक्मिणः चतुःसहस्र द्विशतदशयोजनानि कला दश । हरण्यवतस्य पञ्चाकविंशतिशतानि कलाः पञ्च । शिखरिणः द्विपञ्चाशदधिकदशशतानि कला द्वादश । ऐरावतस्य विस्तारः षद्विशत्यधिकपञ्चशतयोजनानि, योजनकोनविशतिभागानां षट्कलाश्च । एवमेकत्रीकृते जम्बूद्वीपस्य व्यासः योजनानां लक्षकं स्यात् । उपर्युक्त गद्य भाग का सम्पूर्ण अर्थ निम्नाङ्कित तालिका में निहित है । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक २ ३ ४ ५. ६ ७ चतुर्थाधिकार समस्त क्षेत्र एवं कुलाचलों के विस्तार का प्रमाण : नाम भरत हैमवत हरि विदेह रम्यक हैरण्यवत ऐरावत क्षेत्रों का विस्तार योजनों में मीलों में क्रमांक १ ३३६८४१| १३४७३६८४२४४ कुलाचलों के व्यास आदि का वर्णन: ५२६५ २१०५२६३६ हिमवन् १०५२६३ २१०१ -४२१०५२३३ २ महाहिमवन ४२१० ८४२११४३३६८४२१०१४ | ३ निषध १६८४२ नील १६८४२ हे रुक्मी ४२१०३० शिखरी १०५२१ ४२१६३३६८४२१०५ २१०५ ८४२१०५२६ ५२६१६ | २१०५२६३ नाम ६ कुलाचलों का विस्तार योजनों में [ et मीलों में ४२१०५२६६ है १६८४२१०५६ ६७३६८४२११४ ६७३६८४२१६४ १६८४२१०५ को ४२१०५२६६ एते कुलायो रम्याः क्षेत्ररन्तरिता हि षट् । पूर्वापराधिसंलग्ना वनवेद्याद्यलंकृताः ॥३२॥ मूलोपरिसमव्यासाः शाश्वतास्तुङ्गमूर्तयः । नानामणिविचित्रोभयपार्थ्याः श्रीजिनंर्मताः ॥३३॥ अर्थः- क्षेत्रों के द्वारा अन्तरित ये रमणीक छह कुलाचल पर्वत पूर्व पश्चिम समुद्र को स्पर्श करने वाले, वनवेदी यादि से अलंकृत, मूल से अग्रभाग पर्यन्त समव्यास वाले, शाश्वत, दीवाल के सरग ऊँचे और नाना प्रकार की मरियों से खचित दोनों पार्श्व भागों से युक्त हैं ऐसा श्री जिनेन्द्र देव पू कहा है ।।३२-३३|| विशेषार्थ:-- इन कुलाचलों के दोनों पार्श्वभाग नाना प्रकार की मणियों से खचित हैं और वं पश्चिम समुद्रों को स्पर्श करने वाले हैं। इनमें जम्बूद्वीपस्थ कुलाचलों के दोनों पार्श्वभाग लवण समुद्र को स्पर्श करते हैं । घातकी खण्डस्य कुलाचल लबरगोदधि और कालोदधि को स्पर्श करते हैं, तथा पुष्करार्धद्वीपस्थ कुलाचल कालोदधि और मानुषोत्तर पर्वत को स्पर्श करते हैं । Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२] निहारानी कुलाचलों की ऊँचाई का वर्णन: शतक योजनोत्तुङ्गो हिमयान निशातप्रमः । महादिहिमवांस्तुङ्गो योजनश्चचतुःशतः ॥३४।। निषधस्तत्समो नौलो रुक्मी शतद्वयोन्नतः । योजनानां शतोच्छ्रायः शिखरीति जिनोदितः ॥३५।। अर्थः-हिमवान् पर्वत की ऊँचाई १०० योजन (४००००० मील), महाहिमवान् की २०० योजन (८००००० मील), निषध पर्वत की ४०० योजन (१६००००० मील) नील पर्वत की ४०० योजन, रुक्मी की २०० योजन और शिखरिन् पर्वत की ऊँचाई १०० योजन प्रमाण है ।।३४-३५।। अब जीवा, अनुपृष्ठ, चूलिका और पार्श्वभुजा के लक्षण कहते हैं:-- नबस्यग्रशतांशेन वृत्तद्वीपस्य विस्तृतिः । वाणस्तद् द्विगुणाः शेषास्तेषां जीवा धनुः प्रथम् ॥३६॥ पूर्वापराधिपर्यन्तं दक्षिणोत्तरभागयोः।। क्षेत्राद्रीणां य आयामः सा जीवा कथ्यते बुधः ॥३७।। यच्चापाकारवर्षाद्रीणां पृष्ठभागमञ्जसा । पृष्ठं शरासनस्येव तद् धनुः पृष्ठमुच्यते ॥३८॥ लव्या गुश्चि जीवा या पायामस्य यदन्तरम् । वर्षाद्रीणां च तस्या यत् सोक्ता चूलिकागमे ॥३६॥ लघुज्येष्ठधनुः पृष्ठयोःर्घस्य यदन्तरम् । क्षेत्राद्रीणां च तस्याधं यत् सा पार्श्वभुजा मता ॥४०॥ अर्थ:--गोलाकार जम्बूद्वीप के विस्तार (१ ला० योजन) का एक सौ नब्बे वा भाग भरतक्षेत्र का वारण है । उससे आगे के पर्वतों तथा क्षेत्रों का वाण उससे दुगुणा दुगुणा होता गया है । उनके जीवा एवं धनुपृष्ठ पृथक् पृथक हैं ।।३६।। क्षेत्र या पर्वत के दक्षिण की ओर या उत्तर की पोर जो समुद्र पर्यन्त क्षेत्र या पर्वत की पूर्व-पश्चिम लम्बाई है, वह दक्षिण जीवा व उत्तर जीवा है, ऐसा ज्ञानियों ने कहा है ॥३७३ क्षेत्र या पर्वत का जो चाप के प्राकार पृष्ठभाग है, तथा जो पृष्ठ तौर के प्रासन के समान है, वह धनुः पृष्ठ कहलाता है ।।३८।। क्षेत्र व पर्वतों को लघु जीवा की लम्बाई मौर गुरु (बड़ी) जीवा की लम्बाई का जो अन्तर है, उसका प्राधा चुलिका है ॥३९॥ क्षेत्र एवं पर्वतों के Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थाधिकार [६३ छोटे धनुपृष्ठ व बड़े धनुपृष्ठ का जो अन्तर है, उसका अर्धप्रमाण पाश्र्व भुजा कहलाती है, ऐसा जानना चाहिए ॥४०॥ प्रमोषां विस्तरख्याख्यानमुच्यते:-विजयाधस्याभ्यन्तरबारणः योजनानां अष्टत्रिंशदधिकशतवयं तिस्रः कलाः । विजयार्धस्य बाहयोबाणः अष्टाशोत्यधिकशतद्वयं कलास्तिस्रश्न । समस्तभरतस्य बाए: षड्विंशत्यधिकपञ्चशतानिषट्कलाश्च । हिमवतोबाणः योजनानां अष्टसात्यधिकपञ्चदशशतानि कला अष्टादश । हमवतक्षेत्रस्य बाणः त्रिसहस्ररशतचतुरशीति योजनानि कलाश्चतस्त्रः। महाहिमवतोबाण: सप्तसहस्राष्टात-चतुर्नवति योजनानि कलाश्चतुर्दश ! हरिवर्षस्य वाण: षोडश सहस्रत्रिशतपञ्चदश योजनानि कलाः पञ्चदश । निषधपर्वतस्य वायाः प्रयस्त्रिशत्सहस्र कशत-सप्तपञ्चाशधोजनानि कला: सप्तदश । विदेहस्य मध्यस्थवाणः योजनानां पञ्चाशत्सहस्राणि । इति यथा दक्षिण विग्भागे क्षेत्रकुलाद्रोणां वाणो व्याख्यातः, तथोत्तरदिग्भागेऽपि ज्ञातव्य।। बाग, जीवा, धनुः और चूलिका आदि का सविस्तार वर्णन करते हुये सर्व प्रथम बाण का प्रमाण कहते हैं: विजयाध पर्वत के प्रभ्यन्सर वारण का प्रमाण २३८१ योजन है । , ,,, बाह्य , , , २८८ ॥ है । सम्पूर्ण भरतक्षेत्र के , का , ५२६१ , ,1 हिमवन् पर्वत " " ॥ ॥ १५७८ , । हैमवत क्षेत्र ., ३६८४ । । महाहिमवन् पर्वत , 1, , ७८६४ , । हरिवर्ष क्षेत्र , . , . १६३१५ । । निषध पर्वत विदेहक्षेत्र के मध्य , , , , ५०००० योजन है । जैसे जम्बुद्वीप के दक्षिणभागस्थ क्षेत्र और कुलाचलों के वाण का प्रमाण कहा है, उसी प्रकार उत्तर भाग में स्थित ऐरावत आदि क्षेत्र एवं नील आदि पर्वतों के बारण का प्रमाण भी जानना चाहिये । भरत रावतविजयायोरभ्यन्तरजीवा नबसहस्र-सप्तशताष्टचत्वारिंशद्योजनानि, सविशेषा द्वादशकलाः । बाह्यजीवादशसहस्र-सप्तशत विशति योजनानि किञ्चिदूनाद्वादशकलाः । चूलिका षडशीत्यधिक चतुःशल योजनानि ! Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ ] सिद्धान्तसार दीपक लधुधनुः पृष्ठं नवसहस्र-सप्तशत-षट्षष्टियोजनानि साधिक कलेका । वृहद्धनुःपृष्ठं दशसहस्रसप्तरात-त्रिचत्वारिंशद्योजनानि । योजनं कोनविंशतिकृतभागानां माधिकाः पञ्चदशभागाः । पार्श्वभुजाः चतुःशताष्टाशीतियोजनानि सार्धषोडशकलाश्च । हिमवतो दक्षिण दिशिलघुजोबाचतुर्दशसहस्रचतुःशतकसप्ततियोजनानि कलाः पञ्च । उत्तरभागे वृहज्जीवा चतुर्विंशतिसहस्र-नवशत-द्वात्रिंशद्योजनानि । चूलिका च पञ्चसहस्र-द्विशतत्रिशद्योजनानि कलाः सप्त । कनिष्ठधनुः पृष्ठं चतुर्दश सहस्रपञ्चशताष्टाविंशति योजनानि, कला एकादश । ज्येष्ठधनुः पृष्ठं पञ्चविंशतिसहस्र द्विशत-त्रिशत्योजनानि चतस्रः कलाः । पार्श्वभुजा पञ्चसहस्र--त्रिशतपञ्चाशद्योजनानि साधं पञ्चदशकलाः । हिमवतो दक्षिण भागे यो जोबाधनुः पृष्ठौ याख्यातो तावेवोत्तरे भरतक्षेत्रस्य विशेयो । यथा भरतहिमवतो र्जीवाधनुः पृष्ठ-चूनिकापार्श्वभुजा निर्दिष्टा: तथाऽन्यस्मिन् भागे ऐरावतशिखरिणोतिब्या। __ महाहिमवत: कनिष्ठपाश्र्थे पुर्वापरायामः सप्तत्रिंशत्सहस्र-षट्शत - चतुःसप्तति योजनानि कलाः षोडश । ज्येष्ठमावेचायाम: त्रिपञ्चाशत्सहस्रनवशतकत्रिशद्योजनानि कलाः षट् । चूलिका अष्टसहस्रकशताष्टाविंशतियोजनानि भागाः सार्ध चत्वारः। महाहिमवतो लघुधनुः पृष्ठं योजनानामष्टत्रिंशत्सहस्रसप्तरातचत्वारिंशत् कला दा । बृहद्धनुः पृष्ठं सप्त।ञ्चाशतसहस्र-द्विशत-त्रिनवति योजनानि कला दश । पार्श्वभुजा नवसहस्र-द्विशत-पट्सप्ततियोजनानि कलाः साधं नव । महाहिमवतो लघुजीवा धनुः पृष्ठी यो प्रोक्तो तावेव हेमवतस्य ज्येष्ठी मन्तव्यो यथा हैमवतक्षेत्रमहा हिमबतोः जीवाचूलिकाधनुः पृष्ठपार्श्वभुजा उक्ताः तथा हरण्यवतरुक्मिणोरपि विजेवाः । निषधपर्वतस्य जघन्यायामो योजनानां त्रिराप्तसहस्र-नवशतकोत्तरारिण योजनस्यैकोनविंशतिभागानां सप्तदश भागाः । उत्कृष्टायामः चतुर्नवतिसहस्र कशतषट्पञ्चाशद्योजनानि द्वे कले । चूलिका च दशसहस्र कशतसप्तविंशति योजनानि भागो द्वौ । कनिष्ठधनुःपृष्ठं योजनानि षोडशाधिकचतुरशीतिसहस्राणिकलाश्चतसः । ज्येष्ठधनुःपृष्ठं एकलक्ष-चतुर्विशतिसहस्र-त्रिशत-षट्चत्वारिंशत् नवकलाः । पार्श्वभुजा विशतिसहसं कशत-पञ्चषष्टिः सार्धे द्वे कले च । निषधाद्रे-योजघन्यायाम धनुः पृष्ठी कथिती तावेव हरिवर्षस्योत्कृष्टौ भवतः । हरिनिषधयोरायाम चूलिकाधनुः पृष्ठपार्श्वभुजा ये वणिताः ते सर्वेरम्यकनीलयार्भवन्ति । विदेहस्य मध्यजीवा योजनानां लक्षकं स्यात् धनुः पृष्ठं एकलक्षाष्टपञ्चाशत्सहस्र कशतत्रयोदशयोजनानि कलाः षोडश । * विदेहस्य' अर्धचूलिका एकोनत्रिंशत्शतानि एकविंशत्यधिकानि अष्टादश कलाः । पार्श्वभुजा षोडशसहस्राष्टशतत्र्यशीतिः कला, अष्टाविंशतिः कला इति हरिवंशोक्तिः । * १ तारका मध्यमता: पढक्तप. प्र प्रतौ न शन्ति । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थाधिकार [ ६५ सम्पूर्ण क्षेत्र एवं कुलाचलों को जीवा, चूलिका, धनुष और पार्श्वभुजा का वर्णन: भरतक्षेत्र, ऐरावत क्षेत्र के दो विजया? को अभ्यन्तर जीवा का प्रमाण ९७४८५१ योजन (१२ काला से कुछ अधिक) है । बाह्य जीवा अर्थात् विजयाचं को बाहर जीवा का प्रमाण १७७२० योजन (१२ कला में कुछ कम) है । इसो विजयाध को लिका ४८६ योजन है । इसो का लघुधनुपृष्ठ ६७६६४० योजन है। विजयाध का वृहद् धनुःपृष्ठ १०७४३२५ योजन और पाश्वभुजा ४८८१६३ योजन है। हिमवन् पर्वत की दक्षिण दिशा वाली लघुजीया अर्थात् भरत को उत्तर जीवा का प्रमाण १४४७१५ योजन है । इसो हिमवन् के उत्तर भाग में वृहद जीवा अर्थात् हैमवत क्षेत्र की दक्षिरण जीवा का प्रमाण २४६३२ योजन है। हिमवन् पर्वत की चूलिका ५२३० योजन प्रमाण है । इसी पर्वत का लघुप्रनु पृष्ठ अर्थात् भारत का उत्तर धनुपृष्ठ १४५२८१४ योजन और ज्येष्ठ धनुःपृष्ठ या हमजत क्षेत्र का लघुपनुः १९५२३०१६ योजन है। हिमवन् पर्वत की पात्रं भुमा ५३५० १५३ योजन प्रमाण है। हिमवन् पर्वत के दक्षिण भागमें जो जीवा और धनुपृष्ट का प्रमाण कहा है वही प्रमाण भरत क्षेत्र के उत्तर का जानना चाहिये । जिस प्रकार भरत क्षेत्र और हिमवाम् पर्वत को जीवा, धनुपृष्ठ, चूलिका और पार्श्वभुजा के प्रमाण का व्याख्यान किया है, उसी प्रकार जम्बूद्वीप के उत्तर भाग में ऐरावत क्षेत्र और शिस्त्ररिन् पर्वत का जानना चाहिये। महाहिमवन पर्बत से कनिष्ट (छोटे) पाश्र्वभाग का पूर्व पश्चिम मायाम अर्थात हैमवत क्षेत्र की उत्तरी जीवा का प्रमाण ३७६९४५ योजन है, और ज्येष्ठ (बड़े) पाव भाग का आयाम अर्थात् महाहिमवन् पर्वत की ज्येष्ठ जीवा अर्थात् हरिक्षेत्र की दक्षिरण जीवा का प्रमाण ५३६३१६ योजन है। इसकी चूलिका का प्रमाण ८१२८४३ योजन है । महाहिमवन के लघुधनु:पृष्ठ अर्थात् हेमवतक्षेत्र के ज्येष्ठ धनुष का प्रमाण ३८७४०३९ योजन, इसके वृहद् धनुपृष्ठ अर्थात् महाहिमवन् पर्वत के वृहद धनुष का अर्थात् हरिक्षेत्र के लघु धनुपृष्ठ का प्रमाण ५७२६३२९ योजन और इसी पर्वत की पार्श्व भुजा का प्रमाण ६२७६. योजन है । महाहिमवन् पर्वत की लघु जीवा और लघुधनुः पृष्ठ का जो प्रमाण कहा गया है वही प्रमाण हैमवत क्षेत्र की उत्तरी जीवा एवं धनुष का जानना चाहिये । [ हेमवत क्षेत्र की चूलिका ६३७१६ योजन तथा पाश्व भुजा का प्रमाण ६७५५ योजन है ] Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ ] सिद्धान्तसार दीपक जिस प्रकार हैमवत क्षेत्र और महाहिमवन् पर्वत को जीवा, चूलिका धनुष और पाच भुजा के प्रमाण का कथन किया है हैरण्यवत क्षेत्र और रुक्मी पर्वत के जीवा धनुष आदि का प्रमाण भी उसी प्रकार जानना चाहिये । निषधपर्वत का जघन्य आयाम अर्थात् हरिक्षेत्र की उत्तरी जोवा का प्रमाण ७३९०१२५ योजन है। इसी पर्वत का उत्कृष्ट पायाम अर्थात् जीवा का अथवा विदेह क्षेत्र की दक्षिण जीवा का प्रमाण ६४१५६६० योजन और चूलिका का प्रमाण १०१२७३. योजन है । निषध के कनिष्ट धनुः पृष्ट अर्थात् हरिक्षेत्र के ज्येष्ठ धनुष का प्रमाण ८४०१६२. योजन और ज्येष्ठ धनुः पृष्ठ अर्थात् निषधके धनुष का प्रमाण १२४३४६ ,, योजन है. उषा निषध पी पागा ना प्रमाण १९५१६ योजन है। निषध पर्वत का जो जघन्य पायाम एवं लघुधनुः पृष्ठ के प्रमाण का कथन किया है वही हरि क्षेत्र को उत्तरी जीवा एव ज्येष्ठ धनुष का प्रमाण होता है । हरिक्षेत्र और निषध पर्वत के प्रायाम, चूलिका, धनुष और पाव भाग आदि के प्रमाण का जो निदर्शन किया है वही प्रमाण रम्य कक्षेत्र और नील पर्वत की जीवा आदि का जानना चाहिये । विदेह को मध्य जीवा का प्रमाण एक लाख योजन, धनुः पृष्ठ का प्रमाण १५८११३१६ योजन है । विदेह को अर्धचूलिका का प्रमास २९२१६६ योजन और पाश्वभुजा का प्रमाण १६८५३३६ योजन है। ( यह सब बर्णन हरिव स पुराण के अनुसार किया है ) दक्षिण भरत से उत्तर ऐरावत क्षेत्र पर्यन्त सम्पूर्ण क्षेत्र एवं कुलाचलों का ब्यास, बाण, जीवा, चूलिका, धनुष और पार्श्वभुजा का एकत्रित प्रमाण ( योजनों में ) निम्न प्रकार है: [ तालिका अगले पृष्ठ पर देखिये ] Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थाधिकार [ ६७ नाम | ध्यास बारा जीवा | पूमिका । धनुष पार्वभुमा १ | दक्षिण भरत २ | विजया ४८ ३. उत्तर भरत १८९२१६ ५३५०३५ ४ हिमवान् पर्वत हैमवत ६७५५२ ९२७६३ महा हि हरिक्षेत्र । ८४२१॥ १३३६१३३ जिपध १. दक्षिण विदेह उत्तर वि २३८ । २३८,३ | ९७६६३ १. योजन | २८८ १०७२०१६ २३८ । १०५२१३ | १५७८३६ २४९३२१ ५२३.४३ | २५२३० २१०५ | ३६८४३. ३७६७४ ६३७१३४ | ३८७४.१५ ४२१०१७ | ७८९४२४ ५३९३१ १ २८ | ५७२९३२९ १६३१५३६/ ७३९०१२५ '९९८५१६ | ८४०१६ १६८४२६३ ३३१५७२६ ९४१५६२२ । १०१२०१०, १२४३४६१२ १६८४२ | ५००.. १००००० २९२१६६ | १५८११४ १६८४२. ५०... | १०... | २९२१३६ | १५८११४ १६८४२१/ ३३१५७३०/ ९४१५६६३ । १०१२७३, १२४३४६२२ ५४२१११ १६३१५३ ७३९०१२५ । ९९८५११ ८४०१९५३ ४२१०३६ | ७८९४५६ ५३९३१॥ ८१२८४ | ५७२९३३१ २१७५५ । ३६८४१३५ ३७६७४१ । ६३७१४५ | ३८७४०१६ १०५२१३ | १५७ २४९३२१२ । ५२३.१५ | | २५२३०३३ २३८३१ | ५२६११ । १४४७१५ | १८७५३६ | १४५२११ । ५. यो. २८८६६ | १०७४३२५ २३८३३ ९७४८३१ २०१६५१३ १६८८३३६ १६८५३३६ २०१६५४३ १३३६१३१ रम्यक १३. कमी १४| हैरण्यवत ९२७६३ १५ शिरिन् ६७५५६३३ ५३५० १८९२१५ ४८८४ १६ द० ऐरावत १७ बिजबाधं १०ऐराबत २३८२ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ ] सिहाला दीपक कुलाचलों के गाध (नींब) का एवं उनके ऊपर स्थितकूटों का प्रमाण एकादशमहाकूटः शिखरेऽलंकृतो महान् । हिमवान् राजतेऽगाधः पञ्चविंशतियोजनः ॥४१॥ अटकूटर्युतो मूनि पञ्चाशयोजनैर्वरः । भूमध्ये भाति तेजोभिर्महादि हिमवान गिरिः ॥४२॥ नवटाश्रितो मूनि शतयोजनकन्दयुक् । निषधश्न तथा नीलः कन्दकूटहि तत्समः ॥४३॥ पञ्चाशयोजनागाधो रुक्मी कटाष्टभूषितः । शिखरोकन्दकूटाभ्यां भवेद् हिमवता समः ।।४४।। अर्थः-हिमवान् पर्वत की गाध (नीव) २५ योजन प्रमाण है, और इसका शिखर ग्यारह महावटों द्वारा अलंकृत है । महाहिमवान् पर्वत को नीव ५० योजन प्रमाण है और इसका कवभाग (शिखर) दैदीप्यमान प्राः कूटों से शोभायमान है । निषध और नील पर्वतों को नीच समान अर्थात् सौ सौ (१००) योजन प्रमाण है, और इनके अग्रभाग भी 8-६ महाकुटों से अलंकृत हैं । रुक्मी कुलानुल की नीव ५० योजन है, और उसका शिखर पाठ कूटों से सुशोभित है। इसी प्रकार शिस्त्ररिन् कुलाचल की नीव २५ योजन प्रमाण है, और उसका ऊर्ध्व भाग ११ महाकूटों से अलंकृत है ।।४१-४४॥ छह कुलाचलस्थ ५६ महाकुटों के नाम और स्वामी: सिद्धायतननामाढय हिमवत्कूटमूजितम् । अपरं भरसाभिस्यमिलाकूट चतुर्थकम् ॥४५॥ गङ्गाक्टं श्रियःकूटं रोहितासिन्घुसंज्ञके । सुराहमवते फूटे फूटं चैश्रवणान्तिमम् ॥४६॥ इत्येकाशकूटानि मूनि स्यु हिमगिरेः । सिद्धायतन कूटाख्यं महाहिमवताह्वयम् ।।४७।। फूट हैमवतं रोहित्कूटहीकूटनामकं । फूटं च हरिकान्ताख्यं हरिवर्षाभिधं ततः ॥४८॥ बैडूर्यमष्टकूटानोति स्युमहाहिमाचले । सिद्धाख्यं निषधाभिल्यं हरिकूटं विदेहरुम् ॥४६॥ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थाधिकार [ ६६ ह्रीकूट धृतिकूटाल्यं सोतोदाकूटसंजकं । विदेहं भुजगाल्यं स्युः फूटानि निषधे नव ॥५०॥ सिद्ध नीलाह्वयं कूटं विदेह कूटनामकं । सोताख्यं कौतिकूटं च नरकान्तासमाह्वयम् ।।५१॥ ततोऽपरविदेहास्यं कूटरम्यक संज्ञकं । प्रादर्शकमिमानि स्यु ले कूटानि वै नव ॥५२॥ सिद्धाख्यं रुक्मि कूटं च कूटं रम्यकनामकं । नारीफट हि बुध्याख्यं रुप्यकलाभिधं ततः ॥५३॥ हरण्यवतकूटाख्यं माणिभद्रसमाह्वयं । ट्यरेतान्यासदानि गनिमगाः शिखरे अरे ।।५४॥ सिद्ध शिखरि कूटाख्यं हरण्यवतसंज्ञकं । सुरवेथाख्यकं कूटं ततो रक्ताभिधानकम् ॥५५॥ लक्ष्मीकूटं सुवर्णाख्यं रक्तवत्याख्यकं ततः । कट गन्धवती संजं कटमरावताभिषम् ॥५६॥ मणिकाञ्चनकट स्युरिमान्येकादश स्फुटं । कटानिशिखरे रम्याण्यद्रः शिखरिणः क्रमात् ॥५७।। सिद्धायतनक टेषु सर्वेषु श्री जिनालयाः' । खगेशदेववन्द्याच्या राजन्ते रत्नरश्मिभिः ।।५।। अर्थ:-१ सिद्धायतन, २ हिमवत् कूट, ३ भरत, ४ इला, ५ गङ्गाकूट, ६ श्रीकूट, ७ रोहिता. स्या, ८ सिन्धु, ६ सुराकट, १० हैमवत, और ११ वैश्रवण ये ११ कूट हिमवान् कुलाचल के शिखर पर क्रम से स्थित हैं। १ सिद्धायतन कूट, २ महाहिमवन्, ३ हैमवत, ४ रोहिता, ५ ह्रो कर, ६ हरिकान्ता, ७ हरिवर्ष और 5 वैडूर्य नाम के ये ८ कूट महाहिमवन् पर्वत के शिखर पर हैं । १ सिद्ध कूट, २ निषध, १. प्रत्र विशेषाः ये थाम्वता जिनालया वर्तन्ते । अथवा विमानेषु ये देवप्रासादा वर्तन्ते ते सर्वपि पद्यपि प्रवृत्रिमा वर्तन्ते तथापि तेषां मान मानवयोजन कोशावि कृतं ज्ञातम्यं । प्रन्यानि शाश्वतानि प्रमाणयोजनादिभिज्ञातव्यानि इति । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० ] सिद्धान्तसार दीपक ३ हरि (वर्ष) कूट, ४ ( पूर्व ) विदेह कूट, ५ ह्री (हरि) कूट, ६ धृति कूट, ७ सीतोदा, ८ (पर) विदेह कूट, और ६ भुजग नामक कूट है। ये ही कूट क्रमशः निषध कुलाचल के ऊपर हैं ।। ४५-५०॥ १ सिद्धकूट, २ नील कूट, ३ (पूर्व) विदेह ४ सीता कूट, विदेह = रम्यक और आदर्शक नाम के ये स्थित हैं ।। ५१-५२ । कीर्ति कूट, ६ नरकान्ता, ७ (प्रपर) कूट नील कुलाचल के अग्रभाग पर १ सिद्ध कूट, २ रुक्मी ३ रम्यक, ४ नारी कूट, ५ बुद्धि कूट, ६ रूप्यकूला, ७ हैरण्यवत और ८ माणिभद्र नाम के ये कूट रुक्मी कुलाचल पर स्थित हैं ।। ५३-५४ ॥ १ सिद्ध कूट, २ शिखरी, ३ हैरण्यवत ४ सुरदेव, ५ रक्ता, ६ लक्ष्मी कूट, ७ सुवर्ण, रक्तवती, ६ गन्धवती, १० ऐरावत और ११ मणिकाञ्चन नाम के ११ रमणीक कूट क्रमशः शिखरिन् पर्वत के ऊपर स्थित हैं ।। ५५-५७ सम्पूर्ण सिद्धायतन कूटों के ऊपर खगेन्द्र और देवसमूह से अर्चनीय श्री जिनमन्दिर विद्यमान हैं, जो रत्न किरणों से सुशोभित होते हैं ॥ ५८ ॥ नोट: :- इन उपयुक्त ५६ कूटों का पारस्परिक अन्तर, प्रत्येक कूट के उत्सेध एवं विस्तार आदि का वर्णन आगे ७३ आदि श्लोकों में किया जायगा । अब कूटों के ऊपर स्थित जिनालय आदि का विस्तारादि कहते हैं :--- योजनानां च साद्विकोशपञ्चदशप्रमैः । समानायामविस्तारा रत्नस्वरमया गृहाः ||५ तुङ्गाः क्रोशाधिकैक त्रिंशद्योजन मनोहराः । कूदानां शिखरेषु स्युः क्रोशागाधाः स्फुरद्र चः ||६० ॥ अर्थः- कुलाचलस्य कूटों के शिखरों पर पन्द्रह योजन अढ़ाई कोस लम्बे, १५ योजन २३ कोस चौड़े इकतीस (३१) योजन एक कोस ऊंचे और एक कोस गाध (नींव) से युक्त, फैल रहीं हैं किरणें जिनमें से ऐसे रत्न और स्वर्ण मय मनोहर गृह (भवन) बने हैं ||५६ - ६० ।। विशेषार्थ : - - टिप्पणकार ने यहाँ एक विशेष दात दर्शाई है कि कूटोंके ऊपर स्थित ये जिनालय एवं देवप्रासाद यद्यपि प्रकृत्रिम हैं तथापि इनका माप मानव योजन ( लघु योजन, धौर क्रोश श्रादि से ही किया गया है, ऐसा जानना चाहिये । अन्य मोर जो शाश्वत वस्तुएं हैं उनका माप अलौकिक प्रमाण से है । ve भवनस्थ तोरणद्वारों का विस्तार प्रादि कहते हैं : - Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थाधिकार [ १०१ योजनाष्टसमुत्तुनाश्चतुर्योजन विस्तृताः । गृहेषु तोरणद्वारा राजन्ते मरिणतेजसा ।।६१।। अर्थः--उन भवनों में मरिणयों की दीप्ति से शोभायमान पाठ योजन ऊँचे और चार योजन विस्तार वाले तोरणद्वार हैं ॥६१।। कूटस्थ भवनों में निवास करने वालों का दिग्दर्शन कराते हैं : शैलेषु यानि फूटानि नदीनामयुतान्यपि देव्यो गङ्गाश्यस्तेषां वसन्ति मरिणसम्मसु ॥६२॥ शेषकूटेषु रम्येषु यानि नामानि धामसु । सर्नामभिर्युताः पुण्याद वसन्ति व्यन्तरामराः ॥६३॥ अर्थः-६ कुलाचलों पर जैसे ये ५६ कूट हैं वैसे नदियों (की वेदियों) पर भी कूट हैं । इन कूटों में से [ स्त्री लिग (इला, गंगा, रोहितास्या सुरा प्रादि ) नामधारी ] कुछ कूटों पर स्थित मरिणमय गृहों में व्यन्तर देवाङ्गनाएँ निवास करतो हैं । अवशेष कूटस्थ रमणीक भवनों में पूर्व पुण्य वशात् अपने अपने कूटनामधारी व्यन्तरदेव निवास करते हैं ॥६२-६३।। कुलाचलों के पार्श्वभागों में वनखण्डों की स्थिति एवं प्रमाण : अनपायामसमायाम क्रोशायसुविस्तते । भवतोदू बने रम्ये शैलानामुमयोविंशोः ॥६४॥ अर्थः-कुलाचलों के दोनों पाश्र्वभागों में पर्वतों की लम्बाई बराबर लम्बे और दो कोस घोड़े मस्वन्त रमणीक दो दो बन है ॥६४॥ वन वेदियों की स्थिति एवं उनके प्रमाण प्रादि का कयन करते हैं : वनपर्यन्त भागेषु सर्वतो वनवेदिका । हेमरत्नमया रम्याकृत्रिमास्ति मनोहरा ॥६५॥ क्रोशद्वयसमुत्सेधा कोशस्य पादविस्तृता । चतुर्दिक्षु महादीप्ता द्वारतोरणभूषिता ॥६६॥ अर्थः--बनको सब ओर से वेष्टित किये हुये, स्वर्ण एवं रत्नमय, अत्यन्त रमणीक, मनको हरसा करने वाली और अकृत्रिम वेदियाँ हैं । जो दो कोस ऊँची, पाव कोस चौड़ी और चारों दिशामों में महादैदीप्यमान तोरण द्वारों से विभूषित हैं ॥६५-६६।। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ ] सिद्धान्तसार दीपक पद्मवेदिका एवं देवों के प्रासादों का वर्णन करते हैं : :― पर्वतोपरि सर्वत्र विज्ञेया पद्मवेदिका । नानारत्नमया दिव्या चतुर्गापुर शोभिता ||६७॥ सप्ताष्टदशभूम्याद्यनेक भूमण्डितः । नानारत्नमर्यदिव्यैः सहस्रस्तम्भ शोभितः ||६६ ॥ चतुरस्राद्यनेकाकार संस्थानंमनोहरैः । प्रासादं में वितान्पुच्चैजिन सिद्धालयोजितैः ॥ ६६ ॥ वनोपवनवापीभिः प्राकारगोपुराविभिः । अलङ्कृतानि देवानां पुराणि सन्त्यनेकशः ॥७०॥ गिरिकूटेषु सर्वेषु तथाद्रि शिखरेषु च । शैलपार्श्व बनेपूच्चे भसमानानि सर्वदा ॥७१॥ श्रर्थः-पर्वतों के ऊपर अनेक प्रकार के रत्नमय, दिव्य और चार गोपुर द्वारों से युक्त, पद्म वेदिकाएँ स्थित हैं ॥६७॥ श्लोक ७० में कहे गये के नगर नाना प्रकार के रत्नमय, दिव्य, हजार खम्भों से सुशोभित, कोई सात, कोई आठ, कोई दश और कोई अनेक भूमियों अर्थात् तल या खण्डों से भूषित, उन्नत, मनोहर, जिन भवनों एवं सिद्धभवनों के समूह से युक्त, चतुष्कोण और कोई अनेक आकारों से परिगत ऐसे अनुपम प्रासादों अर्थात् भवनवासी देवों के भवनों से अत्यन्त शोभायमान हैं ।। ६५-६६।। सम्पूर्ण पर्वतों के कूटों पर पर्वत शिखरों पर तथा पर्वतों के पार्श्वभागों में स्थित वनों में भी देवों के वनों, उपवनों, वापियों, प्राकारों (कोट) एवं गोपुर द्वारों से अलंकृत प्रत्यन्त प्रकाशमान अनेक नगर हैं ।। ७०-७१ ।। अब कूटों का पारस्परिक अन्तर कहते हैं। कूटव्यासोनितं वैध्यं निजाद्र: कूटसंख्यया । विभक्तमन्तरं ज्ञेय कूटानां श्रीजिनागमे ॥७२॥ अर्थ :- अपनी अपनी लम्बाई में से कूटों के व्यासों को घटाकर शेष को कूट संख्या से विभाजित करने पर कूटों का अन्तर प्राप्त होता है, ऐसा जिनागम में कहा गया है ॥७२॥ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १०३ चतुर्थाधिकार अब कूटों के विस्तार प्रादि का वर्णन करते हैं : पर्वतस्य चतुर्थांशः कूटानामुत्यो भवेत् । तत्समो विस्तरो मले मलाचं शिखरे तथा ॥७३॥ मलमस्तकयोसियोरेकन्त्री कृतस्य च । अध मध्येऽस्ति विष्कम्भोऽत्रास्य व विस्तरं अणु ॥७४॥ अर्थः-सर्व बाटों की ऊँचाई अपने अपने पर्वतों की ऊँचाई का चतुर्थ भाग है । मूल में अर्थात् भू व्यास का प्रमाण भी ऊँचाई के प्रमाण सरश ही है । शिखर पर अर्थात् मुखव्यास, भून्यास के अर्ध भाग प्रमाण है और मूल एवं मस्तक ( भूठयास+मुखव्यास) के विस्तार को जोड़ कर आधा करने पर कूट के मध्यभाग के विस्तार का प्रमाण प्राप्त होता है । इसोको विस्तार पूर्वक कहते हैं, सुनो ! ।।७३-७४। हिमच्छिखरिणोः कूटानामुत्सेधः पञ्चविंशतियोजनानि । मूले विस्तारः पञ्चविंशतियोजनानि मध्ये च त्रिक्रोशाधिकाष्टादशयोजनानि शिखरे च सार्घद्वादशयोजनानि । महाहिमवद्र क्मिणोः कूटानामुदयो योजनानि पञ्चाशत् । मूले व्यासश्च पञ्चाशत् । मध्ये साधंसप्तत्रिंशद्योजनानि । मस्तके पञ्चविंशतिश्च । निषधनील यो: कूटानामुन्नतिर्योजनानां शतं स्यात् । मूले विस्तृतिश्च शतं भवेत् । मध्ये च पञ्चसप्ततिः शिखरे पञ्चाशदेव । अर्थः-हिमवन् और शिनरिन् कुलाचलों पर स्थित कूटों की ऊँचाई २५ योजन मूल का विस्तार २५ योजन, मध्यविस्तार १५३ योजन और शिखर पर अर्थात् मुखव्यास १२३ योजन प्रमाण है। महाहिमवन और रुक्मो पर्व तस्य कूटों की ऊँचाई ५० योजन, मूल में विस्तार ५० योजन, मध्यविस्तार ३७३ योजन और शिखर पर २५ योजन विस्तार है। इसो प्रकार निषध और नील पर्वतस्थ कूटी की ऊँचाई १०० योजन, मूल में विस्तार १०० योजन, मध्यविस्तार ७५ योजन पौर शिखर का विस्तार ५० योजन प्रमाण है। विशेषार्थ:-(श्लोक ७३-७४ से सम्बन्धित) कूटों को ऊँचाई अपने अपने पर्वतों का चतुर्थाश कहा है । जैसे हिमवन् पर्वत १०० योजन ऊँचा है अतः इसके ऊपर स्थित कूटों की ऊंचाई (2) =२५ योजन होगी । जमीन पर चौड़ाई २५ योजन, ऊपर को चौड़ाई भूव्यास का अधंभाग (२५)= १२३ योजन होगी और मध्य विस्तार, मूलमस्तक की चौड़ाई के योग का अर्थ भाग अर्थात् २५ + १२३ --३७९२ = १५० योजन होगा । इसो प्रकार प्रत्यत्र जानना । यथाः Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' १०४ ] क्रमांक १ २ 1 Y ५ ६ कुलाचल हिमवन् महाहिमवन निवध नील रुक्मी शिखरिन् मुख व्यास १२३ मो० २५ यो० ५० वी० ५० यो २५ यो० १२३ यो० सिद्धान्तसार दीपक मध्य व्यास १७३. मो० ३७ यो० ७५ यो० *५ यो० ३७३ यो० १८४ यो० भू व्यास २५ यो० ५० यो० १०० मो० १०० यो० ५० यो० २५ मो० अब कुलाचलस्थ सरोवरों के नाम एवं उनका विस्तार आदि कहते हैं: श्राद्यः पद्मो महापद्मस्तिगिञ्छः केसरी ततः । महादिपुण्डरीकः पुण्डरीकः षडिमे ह्रदाः ॥७५॥ सहस्रयोजनायामौ तदर्धविस्तरान्वितौ । स्तः पद्मपुण्डरीको द्वौ गावौ दशयोजनैः ॥ ७६ ॥ योजन द्विसहस्रायामी सहस्रक विस्तृतौ । योजनानां च विशत्यागाधौ स्यातां हवो सभी ॥७७॥ महापद्म महापुण्डरोकायको ततो परौ । प्रायामौ योजन ज्ञेयो चतुःसहस्रसम्मितौ ||७८ ॥ द्विसहस्रप्रमे सौ चत्वारिंशत्प्रमाणकः । गाही तिगिच्छामिसरिसमायौ ॥७६॥ एसे निस्या हदा षट्स्युः पूर्वापरसमायताः । शैलानां मध्यभागेषु तोयास्वादु जलभृताः ||८०|t ऊंचाई २५ योο ५० मो० १०. मो० १०० यो० ५० पो० २५ यो० - पूर्व कहे हुये छह कुलाचलों के ऊपर, मध्य भाग में क्रम से पद्म, महापद्म, तिगिन्छ, केसरी, महापुण्डरोक और पुण्डरीक नाम के छह सरोवर हैं। इनमें से पद्म और पुण्डरीक ये दो Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थाधिकार [ १०५ सरोवर १००० योजन लम्बे. ५०० योजन चौड़े और १० योजन गहरे हैं । महापन और महापुण्डरोक नाम के सरोवर २.०० योजन लम्बे, १००० योजन चौड़े और २० योजन गहरे हैं तथा तिगिञ्छ और केसरी नाम के दो सरोवर ४००० योजन लम्बे, २००० योजन चौड़े और ४० योजन प्रमाण गहरे हैं । इस प्रकार ये छह सरोवर पूर्व-पश्चिम लम्बे, जल के स्वाद के सदृश जल से भरे हुये और शाश्वत हैं ।।७५-८०॥ विशेषार्थः--कुलाबलों का उदय एवं सरोवरों के ध्यास आदि का प्रमाणः ऊचाई लम्बाई । चौड़ाई गहराई क्रमांक कुलाचल कुलाचन - सरोवर योजन मौलों में यो में | मौलों में योजनों में | मीलों में योजनोंमें | मोलों में । 1०० | पदम १०००४०००००० ८००००० महापद्म २००००००००० 00000 ८०००० २०००। ८०० १६०००० १६०००० १६००००० तिगिञ्छ |४०००१६०००००० १६००००० केशरी ४००० १६०००००० ५/ रुक्मी २०. महा-२०००.८०००००० । पुण्डरीक (शिखरिन् १०० ४०.००० पुण्डरीक १०००/४००० 1००० ४०० ८०००० | २०००००० सरोवरों में स्थित कमलों के विस्तार आदि का प्रमाण कहते हैं: पभहदान्तरे नित्योऽम्बुजो योजनविस्तृतः । कोशेकणिकायुक्तः प्रफुल्ल स्यात् सुगन्धवान् ।।५१॥ सार्धक्रोशायतान्याये परे पत्राणि सर्वतः । एकादशसहस्राणि शाश्वतामि भवन्ति च ॥२॥ सर्वत्र क्रोशमाहुल्यं जलात् क्रोशद्वयोन्छुितम् । अम्बुजेऽम्बुजं नालं स्यात् वैडूर्यरत्नतन्मयम् ।।३।। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ ] सिद्धान्तसार दीपक ततः शादिविस्तारो द्विगुणद्विगुणो मतः । वृद्धो हदद्वये ह्रासः क्रमाच्चान्यहदत्रिषु ।।४।। अर्थ:--पश्न सरोवर के मध्य में एक योजन विस्तार (चौड़ा) वाला, एक कोस की करिणका से युक्त, नवविकसित सुगन्धवान् और शाश्वत कमल है। इस कमल के एक पत्ते को लम्बाई १: कोस है ऐसे इसमें ११००० पत्तं शाश्वत होते हैं । कमल में कमल की नाल नीचे से ऊपर तक एक कोस मोटी है, और जल से दो कोस ( योजन) पर रहती है तथा वैडूर्य मरिण यों से निर्मित है । पद्म आदि सरोवरों का विस्तार पूर्व की अपेक्षा दूना दूना है, अतः कमल आदि का विस्तार ग्रादि भी तोन सरोवरों तक जिस क्रम से वृद्धिङ्गत होगा आगे के तीन सरोवरों में उसी क्रम से दुगुण हानि को प्राप्त होगा ।।८१-८४॥ ' : विशेष:-(१) पद्मद्रह की गहराई १० योजन (४० कोस) कही है, और यहाँ कमल नाल जल से २ कोस ऊपर है ऐसा कहा है। इससे यह सिद्ध होता है कि कमल नाल की कुल लम्बाई ४२ कोस (१०३ योजन) है। (२) कमल एवं कमलनाल प्रादि यद्यपि अकृत्रिम हैं और शाश्वत हैं किन्तु इनका माप मानवयोजन (लघु योजन) से ही जानना चाहिये और अन्य शाश्वत पदार्थों का माप प्रमाण (बड़े) योजन से जानना चाहिये। तदेवाहः--पग्रहृदे कमलस्य व्यासः एकयोजन, कणिका न्यासः एकः क्रोशः पत्रदीर्घता सार्धक्रोशः । महापद्म कमलस्य विस्तृति · योजने करिगका विस्तारः द्वौ कौशी पत्रायामस्त्रय क्रोशाः । तिगिन्छे केसरिरिण च पद्मस्य व्यासः चत्वारियोजनानि करिणका व्यासः योजमैकं स्यात् 1 पायामः सार्द्ध योजनं च । महापुण्डरीकेऽम्बुजस्य विस्तारः द्वे योजने करिएकाविस्तारः द्वौ क्रोशो पत्रायामस्त्रयः क्रोशाः ! पुण्डरीके पद्मस्य विष्कम्भः योजनेक स्यात् । करिण काविष्कम्भः एककोशः पत्रायामः सार्धक्रोशः । विशेषार्थः-३लोक नं. ८१ से ८४ तक का विशेषाधं और उपर्युक्त गद्यभाग का सर्व अर्थ निम्नाङ्कित तालिका में मभित है। [ तालिका अगले पृष्ठ पर देखिये ] Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १०७ चतुर्थाधिकार कमल, कमल नाल, कमल कणिका का उत्सेधादि एवं कमल पत्र की लम्बाई: कमलों का नाल । करिणका का क्रमांक सरोवरों के कमल कमल पत्र की लम्बाई उत्सेध | व्यास | जलमग्न ऊपर । - उत्सेध | ग्यास १ योजन | १० यो० ३ मो० ।। कोश १ कोच्च १ पद्म द्रह का कमल २) महा पदम द्रह ३/ तिगिञ्छ ,, , ४ केसरी । ५महापुण्डरीक, , . ६/ पुण्डरीक , , . --- २० , १ , | २ कोश २ श्री प्रादि देवियों के भवनों का प्रमाण कहते हैं। प्राद्याअणिकायां स्यात् वैडूर्य रत्नभास्वरम् । श्रीगृहं सन्मणिद्वारतोरणादिविभूषितम् ।।८५॥ मुक्तालम्बूषभूषाढय क्रोशापाममनोहर । कोशाधविस्तरं पावोनं क्रोशकोन्नतं शुभम् ।।१६।। ततोऽम्बुजद्वये सन्ति द्विगुणद्विगुणाः क्रमात् । गेहव्यासादयोऽन्येषु त्रिषु पाषु हानितः ।।८।। अर्थः-प्रथम सरोवर को पद्यकरिणका पर वैडूर्य मणियों की दीप्ति से दीपमान, उत्तम मरिणयों के तोरणद्वार प्रादि से विभूषित, लटकती हुई मुक्ता मालानों (मोतियों के फानूसों) से अलंकृत और मन को हरण करने वाला एक कोश लम्बा, प्राधा कोस चौड़ा एवं पौन कोस ऊँचा श्री देवी का भवन है । इसके प्रागे दो कमलों पर कम से दूने दुने विस्तार वाले और उससे मागे तीन कमलों पर क्रम से दुगनी हानि को लिये हुये व्यास प्रादि से युक्त भवन हैं ।।८५-८७।। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ ] सिद्धान्तसार दोपक __ अस्य व्याख्यान:-श्रीलक्ष्मीगृहयोरायामः कोशकोऽस्ति, व्यासः अधंक्रोशाच, उत्सेधः पादोनक्रोशः स्यात् । ही बुद्धि प्रासादयोर्दैर्घ्य द्वौ कोशो, विस्तृतिरेकक्रोश, उन्नतिः सार्धक्रोशः । धृतिकीर्ति सौधयोर्दीर्घता चत्वारः कोशाः, विस्तारः द्वौ कोशी, उच्छ्राय: त्रयः क्रोशाः । इसी का विशेष व्याख्यान करते हैं:--श्री और लक्ष्मी के भवनों को लम्बाई एककोस, चौड़ाई प्राधा कोस और ऊँचाई पौन कोस है। हो और बुद्धि के भवनों की लम्बाई दो कोस, चौड़ाई एक गोस पर ऊँचाई के कोस ई। तथा धृति और कीति के भवनों की लम्बाई चार कोस, चौड़ाई दो कोस और ऊँचाई तोन कोस प्रमाण है। नोट:- यहाँ एक कोस २००० धनुए प्रमाण है। - अब श्री प्रादि देवियों के निवास, प्रायु और स्वामी का विवेचन करते हैं: श्रीझै तिश्च कीर्तिश्च बुद्धिलक्ष्मीरिमा हि षट् । घसन्ति क्रमतो देध्यः प्रासु षद्रह पंक्तिषु ॥८८।। स्थादासां सर्वदेवीनामायुः पत्यकसम्मितम् । परिवारामराः सन्ति नानापरिषदादयः ।।६।। श्री ही धृत्याख्यदेवीनां स्वामीसौधर्मनायकः । ऐशानश्चोत्तरस्त्रीणां सर्वत्र व्यवस्थितिः ॥१०॥ अर्थ:-श्री, हो, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी ये छह देवियों कम से पंक्तिबद्ध छह सरोवरों में रहती हैं। इन सर्व देवियों की प्रायु एक पल्य की होती है, तथा इनके पारिषद् प्रादि नाना प्रकार के परिवार देव १४०११५ हैं । श्री, ह्री और धृति देवियों का नायक (स्वामी ) सौधर्मेन्द्र है, और कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी ये लोन देवियां ऐशानेन्द्र के प्राधीन हैं। सर्वत्र अर्थात् अन्य सरोवरों में स्थित देवियों की भी ऐसी ही व्यवस्था है ।।८-६०।। अब श्री देवी के परिवार कमलों का प्रवस्थान एवं प्रमाण कहते हैं: स्पानिशसहस्राण्यन्ता परिषत्सुधाभुजाम् । श्री गेहादब्जगेहानि हयाग्नेदिशि निश्चितम् ।।।। चत्वारिंशत्सहस्राणि दक्षिणाख्यविशिस्फुटम् । स्युमध्य परिषदेवानां पद्मस्थ महाणि च ॥१२॥ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १०६ चतुर्थाधिकार भवेयुरष्टचत्वारिंशसहस्राजसद्गही । नैऋत्यदिग्धिभागे बाहयपरिषत्सुधाशिनाम् ।।१३।। प्राधायाः पतिरेव स्यारसूर्य : परिषदोऽमरः । चन्द्रमा मध्यमायास्तु बाहयाया यदुपो महान ।।४।। चतुःसहस्रपद्मा वायुकोणेशान कोणयोः । सामान्यकाख्य देवानां सन्तिपमालयाः शुभाः ॥६५॥ सप्तानीकामराणां स्युः पश्चिमायांदिशि स्थिताः । प्रत्येक सप्तमेदानां सप्ताम्भोजराहाः शुभाः ॥१६॥ कमलान्यङ्गरक्षारणां सहस्राणि तु षोडश । श्रियो मोजसमीयानि पूर्वादिदिक्चतुष्टये ।।९७।। श्रीपदमपरितोऽष्टासु दिग्विविक्षवम्बुजालयाः । प्रतीहारोत्तमानां स्पुरष्टोत्तरशतप्रमाः ॥ ६॥ अर्थः-श्री देवो के मूल कमल की प्राग्नेय दिशा में प्राभ्यन्तर परिषद् देवों के ३२००० भवन ३२०४० कमलों पर स्थित हैं इनके प्रमुख देव ( स्वाभी) का नाम सूर्य है इसी प्रकार चन्द्र नाम का देव है स्वामी जिनका ऐसे मध्यपरिषद् के ४०००० कमलस्थ भवन (मूल कमल को दक्षिण दिशा में स्थित हैं, तथा यदुप नाम का देव है स्वामी जिनका ऐसे बाहय परिषद् देवोंके ४८००० भवन ४००० कमलों पर ( श्री देवी के मल कमल को ) नेऋत्य दिशा में स्थित हैं। श्री देवी के मूल कमल को ऐशान और वायव्य दिशामें ४००० भवन ४००० कमलों पर स्थित हैं। __ मल कमल को पश्चिम दिशा में सात प्रकार के अनोक देवों के सात भवन सात कमलों पर स्थित हैं। ये प्रत्येक अनीक सात सात कक्षाओं से युक्त हैं श्री देवी के मूल कमल को चारों दिशानों में चार चार हजार अर्थात् १६००० तनुरक्षक देवों के कमलस्थ भवन हैं । इसी प्रकार श्री देवी के मूल कमल के चारों ओर अर्थात् चार दिशाओं में ( १४, १४) और चारों विदिशानों में (१३-१३) प्रतिहार महत्तरों के कमलस्थ भवन १०८ हैं ।।६१-६८।। विशेषार्थः श्री देवी के और उनके परिवार कमलों के प्रवस्थान का चित्रण निम्नप्रकार है: Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० ] सिद्धान्तसार दीपक :—— अब श्रीदेवी के सम्पूर्ण परिवार कमलों का प्रमाण कहते हैं। लक्षकाप्रसहस्राणि चत्वारिंशतथाशतम् । एक पञ्चदशत्येषां सर्वान्जगणना मताः ॥ श्रर्थः - श्री देवी के सूर्य परिविरकों का प्रभार एक लास चालीस हजार एक सौ पन्द्रह है ||६|| विशेषार्थः - श्री देवी के सम्पूर्ण परिवार कमलों का प्रमाण निम्न प्रकार है--प्रङ्गरक्षक १६०००+ सामानिक ४०००+ श्रभ्यन्तर पारिषद् ३२०००+ मध्यम पारिषद् ४०००० + बाह्य पारिषद् ४८०००+ प्रतिहार १०८ और+७अनीक - १४० ११५ परिवार कमल हैं। हिमवान् से लेकर निषत्र पर्वत पर्यन्त कमलों का विष्कम्भ और उत्सेध भादि दूने दूने प्रमाण वाला है । परिवार कमलों का प्रमाण भी दूना दूना है। इसके प्रागे क्रमश: हीन होन है । देवकुमारियों के भवनों का व्यास प्रादि एवं परिवार कमलों का प्रमाण : [ तालिका अगले पृष्ठ पर देखिये ] Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थाधिकार [ १११ भवनों की वायच्य । क्रमांक कोण में' चदिशा--- देवकुमारियां लम्बाई - फुल योग आठों दिशाओं में प्रतिहार पश्चिम में अनीक देव सामानिक तनु रक्षक शामिकतनु रक्षक, आग्नेय में दक्षिण में नैऋत्य में मध्य | बाह्य प्रभ्यन्तर पारिषद पारिष चौड़ाई TM १४०११५ २८०२३० | ९६०० - | | - ००२E४३२ ५६०४६० - १ श्री ५ को. १ को. को. ४००० | १६०००/ ३२०००, ४०००० ४८०.. २ ही २ को, १ को १३को.' ८००० - ३२०००, ६४०७० ८००० ३. धति ४ को. २ को ३ को १६०००. ६४०००१२०००० १६०००० १९२००० ४ कोति। ४ । २ । ३ । १६००० ६४०००१२८००० १६०००० १९२०० ५ बुद्धि | २ | १ | | ८००० / ३२०० ६४२७० ८०००० ९६७००, १४ | २१६ बातमी ! | ४... | १६०... ३२०... ४०... ४५०.....। ५६०४६० २००२३० अब परिवार कमलों का और उनके भवनों का व्यास आदि कहते हैं : जसान्ते समनालानि नानामणिमयानि च । परिवारामराब्जानि याविषदेव योषिताम् ॥१००। कमलेन्योर्धमानानि व्यासायामादिभिस्तथा । गृहेभ्यः परिवाराणां गृहाण्यर्धमितानि च ॥१०१॥ अर्थ:-श्री आदि छह देवकुमारियों के परिवार कमल जल के मध्यमें नाना प्रकार की मरिणयों से रचित और समान ऊँचाई पर ( अर्थात् जल के बाहर जिनकी नाल समान निकली हुई है) स्थित हैं। श्री श्रादि देवी के मूल कमलों से परिवार कमलों का व्यास यादि अर्घ प्रमाण है, इसीप्रकार उनके मूल भवन से परिवार देवों के भवनों का व्यास प्रादि भी अर्ध प्रमाग है ।।१००-१०१।। अमीषा पद्मगेहानां प्रत्येक व्यासादीन्युच्यन्ते :--श्रीलक्ष्मी परिवार देव कमलानां व्यासः द्वी क्रोशौ । कणिका व्यासः अर्थक्रोशः स्यात् । पत्रायामः पादोनक्रोशश्च । ह्रीबुद्धिपरिवारामर पद्मानां विष्कम्भः योजन भवेत् । कणिका विष्कम्भः एकक्रोशः पत्रदीर्घतासार्धक्रोशश्च । धृतिकीर्तिपरिवारदेवाम्भोजानां बिस्तारो दू' योजने ! कणिका विस्तारः द्वौ कोशौ । पत्रायामस्त्रयः क्रोशाः। श्री Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक ४ ११२ ] सिद्धान्तसार दीपक लक्ष्मो परिवारसुरसद्मस्थगृहाणां प्रयामीऽर्वक्रोशोऽस्ति । व्यासः क्रोशचतुर्थांशः । उत्सेधः क्रोशाष्ट भागानां श्रयभागाः। ही बुद्धि परिवारदेवाजस्थगृहाणां दीर्घता एकक्रोशः । विष्कम्भोऽक्रोशश्च । उन्नतिः पादोनक्रोशः स्यात् । वृति की तिपरिवारा मराम्बुजस्थसौधानामायामः द्वो कोशी, विस्तारः एकः क्रोशः, उत्सेधः सार्ध कोशश्च ॥ ६' विशेषार्थ:- उपर्युक्त गद्यभाग में श्री आदि छह देवकुमारियों के परिवार देवों के कमल, करिका और कमल पत्रों का तथा उन कमलों पर स्थित उनके भवनों के व्यास श्रादि का प्रमाण दर्शाया गया है, जिसके सम्पूर्ण अर्थ का समावेश निम्नांकित तालिका में है परिवार कमल यादि के एवं भवनों के व्यास आदि का प्रमाण : --→ श्री देवी हो देवी ३ वृति देवी कीति देवी बुद्धि देवी लक्ष्मी देवी देव कुमारियों के नाम i कमन का व्यास दो कोस १ योजन २ योजन २ १ , IT करिंका का कमल पत्र का व्यास आयाम ३ कोस | है कोस १ २ २ १ ri 17 ३ ३ 11 PA " 33 पीन दीर्घ एवं लघु भवनों की मुखदिशा का वर्णन : r सम्बाई १ २ २ १ कोस " 12 12 21 परिवार भवनों की १ चौड़ाई कोस एते महागृहारम्या उक्तसंख्या बुधैः स्मृताः । एतेभ्यो बहवोऽन्येऽत्र ज्ञातव्याः क्षुल्लकालयाः ।। १०२ ।। सर्वे स्युरुत्तमा मेहाः पूर्वाभिमुख शाश्वताः । तेषामभिमुखा मन्ये सन्ति जघन्य सद्गृहाः ॥ १०३॥ Ir " " " ऊंचाई १३ હૈ कोस 37 カ "J Jt " : - इस प्रकार विद्वानों के द्वारा श्री देवी के परिवार महागृहों की संख्या १४०११५ कही अर्थ:गई है। इन महागृहों से भिन्न और लघुग्रह भी अनेक हैं, ऐसा जानना चाहिये। ये सर्व महागृह शाश्वत Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थाधिकार । ११३ और पूर्वाभिमुख हैं अर्थात् सम्पूर्ण महागृहों का मुख पूर्व दिशा की ओर है, तथा अन्य सभी लघु गृहों के मुख महागृहों की ओर हैं । अर्थात् पश्चिम दिशा की ओर हैं ।।१०२-१०३॥ सम्पूर्ण पद्मगृहों में जिनालयों का व्याख्यान करते हैं : विश्वेषु पद्मगेहेषु शाश्वताः श्रीजिनालयाः । अब्जालय प्रमा ज्ञेया देववेयोगणाषिताः ॥१०४।। दिव्याष्ट मङ्गलद्रव्यः प्रातिहार्याष्टभूतिभिः। भासमानाः स्वतेजोभिरत्नास्प्रितिमाभृताः ॥१०॥ अर्थः-सम्पूर्ण पद्म भवनों में देव देवियों के समूह से अचित, दिव्य अष्टमङ्गलद्रव्यों (भृङ्गार, ताल, कलश, ध्वज, सुप्रतीक, श्वेतातपत्र, दर्पण और चामर) और अष्टप्रातिहार्यों से युक्त एवं अपने तेज से देदीप्यमान ऐसे रत्नमय अर्हन्त प्रतिमाओं से समन्वित शाश्वत श्री जिन मन्दिर हैं । इनका प्रमाण पद्यालयों के प्रमाण बराबर ही है। अर्थात् कमलों की जितनी संख्या है, उतने ही (कमलों के ऊपर) भवन हैं और प्रत्येक भवन में एक एक प्रकृत्रिम श्रीजिनालय है अतः कमल भवनों के प्रमाण ही जिनमन्दिरों का प्रमाण है ॥१०४-१०५।। अब उन्हीं कमल भवनों का विशेष व्याख्यान करते हैं: उपपावगृहा रम्या अभिषेकगृहाः शुभाः। मण्डनाल्यगृहा दीप्ताः सभास्थानगृहा बराः ।।१०।। रम्याः क्रीडनसोहा विचित्रा नाटकालयाः । रतिगेहाः परेवोलागृहाः सङ्गीतसद्गृहाः ॥१०७।। विस्फुरन्तो भवन्त्यत्र विचित्रमणिवीप्तिभिः । मृबङ्गतूर्यनादाधै धूपामोदैश्च घासिताः ॥१०८।। न वनस्पतयोनसे निर्मिता व्यन्तरामरैः । पृथ्वी सारमयाः किन्तु नित्याः पद्मावयोऽखिलाः ॥१०॥ सर्वेषां कमलानां चोपरिज्येष्टालयोनताः । स्फुरन्मारिणमया भान्ति प्राकारद्वारतोरणः ॥११०।। अर्थ:--उन उपर्युक्त पद्मभवनों में नाना मणियों के प्रकाशमान किरणों से युक्त दोलागृह, मृदङ्ग एवं नूयं के शब्दों से गम्भीर उत्तम सङ्गीतगृह, धूप को सुगन्ध से वासित सम्भोगग्रह, रमणीक Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ ] सिद्धान्तसार दीपक उपपाद (जन्म) गृह, शुभ अभिषेक गृह प्रकाशमान मण्डनगृह, उत्कृष्ट सभास्थान शोभनीक क्रीड़ागृह और नाना प्रकार के नाटकगृह आदि होते हैं । १०६ - १०८ ।। ये पद्य, पद्मभवन एवं जिनमन्दिर यादि न तो वनस्पतिकाय हैं और न किन्हीं व्यन्तर देवों के द्वारा रचित हैं, किन्तु ये सभी पृथिवी के विकार स्वरूप हैं । अर्थात् पृथ्वीका और प्रकृत्रिम हैं |१०|| इस प्रकार सम्पूर्ण कमलों के ऊपर नाना प्रकार के तोरा द्वारों आदि से युक्त, मरिणमय श्रीर उन्नत उत्तम गृह हैं ॥११०॥ अब सात प्रकारकी धनीकों के नाम कहते हैं: - गजा अश्वारयातुंगा वृषागन्धवं निर्जराः । नर्त्तक्यो भूत्यपादातयोऽमुनिप्रस्फुरन्ति च ॥ १११ ॥ सप्तानीकानि युक्तानि कक्षाभिः सप्तसप्तभिः । प्रत्येकं श्रीगृहद्वारे मूत्येवं श्रधादियोषिताम् ॥ ११२ ॥ अर्थ :- श्रीदेवी के गृह द्वार पर गज, अश्व, ऊंचे ऊंचे रथ, बैल, गन्धर्वदेव, नृत्यकी और दास अर्थात् पदातिये सात-सात कक्षाओं से युक्त सप्त सेनाएँ शोभायमान होती हैं, इसी प्रकार ह्री आदि प्रत्येक देवकुमारियों के भी जानना चाहिये ।।१११-११२।० अब प्रत्येक कक्षा की संख्या का प्रथमे या गजानीके गजसंख्या च सा ततः । द्वितीये द्विगुरगाव सप्तसु द्विगुणोत्तराः ॥११३॥ तयान्याश्वाद्यनोकानां गणनाश्वादिसंख्यया । प्रत्येकं सप्तकक्षासु द्विगुरणा द्विगुणा मता ।। ११४।। धारण करते हैं: - अर्थः- गज अनीक की प्रथम कक्षा में गजों की जो संख्या है द्वितीय कक्षा में वह संख्या दुगुरणी है । इस प्रकार गज अनीक की सालों कक्षाओं में क्रम से दुगुणी दुगुगो संख्या है। इसी प्रकार श्रश्व आदि सातों अनीकों को प्रथम कक्षा की प्रव आदि को संस्था से द्वितीय कक्षा की अश्व श्रादि की संख्या उत्तरोत्तर दुगुणी मानी गई है ।। ११३-११४।। विशेषार्थ::- गज, अश्व आदि सात अनीकें ( सेनाएँ ) हैं । प्रत्येक सेना में सात सात कक्ष हैं । प्रथम कक्ष के हाथी, घोड़े, रथ आदि की संख्या ( त्रिलोकसार गा० ५७४ को टोकानुसार ) सामानिक देवों की संख्या के प्रमाण (४०००) मानी गई है, भागे श्रागे की कक्षाओं में यह संख्या Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थाधिकारः [ ११५ उत्तरोत्तर दूनी दूनी होती गई है। इस प्रकार ही देवी की प्रथम अनीक की प्रथम कक्षा की संख्या ८००० से प्रारम्भ होकर दुगुणी होगी और धृति देवो की १६००० से प्रारम्भ होकर उत्तरोत्तर सातों कक्षात्रों में दूनी दूनी होगी । श्रीदेवी की ७ अनीकों की सात कक्षों का सम्पूर्ण प्रभास कक्ष प्रजानीक प्रश्वानीक रथानीक १ला कक्ष ४००० रेरा कक्ष ३ रा कक्ष १६००० ४था कक्ष ३२००० पूर्वी कक्ष ६४००० ६ कक्ष | १२५००० ७वीं कक्ष २५६००० योग ८००० ४००० सम्पूर्ण योग 〇〇〇 १६००० ३२००० ६४००० ४००० 1 ८००० वृषभानीक १६००० ३२००० ६४००० १२८००० १२८००० २५६००० २५६००० ५०८००० ५०८००० ५०८००० ५०८००० ४००० ८००० १६००० ३२००० ६४००० १२८००० २५६००० गन्धर्वानीक उत्तम चारित्र के द्वारा पुण्यार्जन करने की प्रेरणाः 1 ४००० ८००० १६००० ३२००० ६४००० १२५००० २५६००० ५०८००० नृत्यानीक ४००० 5000 १६००० ३२००० ६४००० १२८००० ५०८००० एता विव्यविभूतयः सुखकराः, सरसौध संन्यादिकाः । प्राप्ताः श्रावि सुदेवताभिरखिला मान्यप्रभुत्वादयः । पदाति धन्ये चाधि विक्रियधि सुगुरणाः, प्रागजित श्रेयसा । मस्तीह जनाः कुरुध्वमनिशं श्रेयोऽर्जुनं सव्रतः ।। ११५॥ Yoo ८००० २५६००० २५६००० १६००० ३२००० ६४००० १२८००० ५०८००० ३५५६००० श्रर्थ:- :- इस प्रकार श्री ह्री प्रादि देव कुमारियों को जो दिव्य विभूतियाँ, सुखों का समूह, उत्तम भवन, उत्तम सैन्य आदि का वैभव तथा प्रभुत्व आदि का ऐश्वयं एवं और भी जो अवधिज्ञान, Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्तसार दोपक विक्रिया प्रादि ऋद्धियाँ एवं अन्य उत्तमगुण प्राप्त हुये हैं, वे सन पूर्व उपाजित पुण्य कर्म से ही प्राप्त हुये हैं ऐसा मान कर हे भव्यजनो ! इस लोक में अर्थात् मनुष्यपर्याय में उत्तम चारित्र के द्वारा निरन्तर पुण्य उपार्जन करो ।।११।। अधिकार के अन्त में प्राचार्यवर्य रत्नत्रय धारण करने का प्रोत्साहन देते हैं:श्रेयः' श्रेयनिबन्धनोऽसुखहरः श्रेयं श्रयन्त्युत्तमाः श्रेयेनात्र च लभ्यतेऽखिलसुखं अं याय शुद्धा क्रियाः । । श्रेयाच्छु यकरोऽपरो न च महान श्रेयस्य मूलं सुदृक् श्रेये यत्नमनारतं बुधमना कुर्वन्तु चिच्यतः ॥११६।। इति श्री सिद्धान्तसारदीपकमहाग्रन्थे भट्टारक श्रीसकलकीति विरचिते कुलाचल, ह्रद श्रयादिदेवी विभूति वर्णनो नाम चतुर्थोधिकार ॥४॥ अर्थः-पुण्य कल्याण का निबन्धक अर्थात् कल्याण प्राप्त कराने वाला और दुःखों का हरण करने वाला है, इसलिये सज्जन पुरुष पुण्य का आश्रय लेते हैं अर्थात् पुण्य अर्जन करते हैं । पुण्य से ही सम्पूर्ण सुखों की प्राप्ति होती है, अतः पुण्य अर्जन के लिये शुद्ध क्रियाएँ (कुल एवं पद के योग्य क्रियाएं) करना चाहिये । पुण्य से अधिक कल्याणकारी और कोई महान् नहीं है । पुण्य को जड़ सम्यग्दर्शन है इसलिये बुद्धिमानों को रत्नत्रय धर्म के द्वारा पुण्य में अर्थात् पुण्यार्जन के लिये अनवरत प्रयत्न करना चाहिये ||११६॥ इस प्रकार भट्टारक सकल कीति विरचित सिद्धान्तसार दीपक नाम के महाग्रन्थ में छह कुलाचल, छह सरोबर एवं श्री प्रादि देवकुमारियों को विभूति का वर्णन करने वाला चतुर्थ अधिकार समाप्त । १ अमितु योग्यः श्रेय: सेवनीयः धर्मः इत्यर्थः । नार्य श्रेयस् शब्दः । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमोऽधिकारः मङ्गलाचरण एवं प्रतिज्ञा : प्रथ नत्वा जिनेन्द्रावोंस्तवचर्चाश्च जिनालयान् । नदीगङ्गादिका वक्ष्ये निर्गमस्थानविस्तरः ॥१॥ अर्थ:--अब मैं जिनेन्द्र प्रादि पञ्च परमेष्ठियों को, जिन प्रतिमाओं को और जिनालयों को नमस्कार करके गङ्गा आदि नदियों के निर्गम स्थान प्रादि का विस्तार पूर्वक वर्णन करूंगा ॥१॥ चतुर्दश महाशियों के नाम :---- गङ्गासिन्धुनबौरोहिद्रोहितास्या हरित्सरित् । हरिकान्ता च सीताख्या सीतोदरावाहिनी ततः ॥२॥ नारी च नरकान्ता सुवर्णकूलाया नदी । रूप्यकूलाभिधा रक्ता रक्तोदेताश्चतुर्दश ॥३॥ अर्थ:-गङ्गा, सिन्धु, रोहित, रोहितास्या, हरित, हरिकान्ता, सीता, सीतोदा, नारी, नरकान्ता, सुवर्णकूला, रूप्यक्ला, रक्ता और रक्तोदा ये चौदह नदियाँ हैं ॥२-३॥ इन नदियों के गिरने का स्थान कहते हैं : पूर्वोक्ताः सप्तगङ्गाद्या नद्यः पूर्वाब्धिगा मताः । शेषाः सिन्ध्यादयः सप्त चापराम्बुधि मध्यगाः ॥४॥ अर्थः-उपर्युक्त १४ नदियों में से पूर्व कथित गङ्गा प्रादि सात नदियां पूर्व समुद्र में और शेष सिन्धु आदि सात नदियाँ पश्चिम समुद्र में गिरतीं हैं 11 ४ 11 - विशेषार्थः- उपर्युक्त १४ महा नदियाँ लवण समुद्र में गिरती हैं। इनमें से गङ्गा, रोहित, हरित, सीता, नारी, सुवर्णवाला और रक्ता ये सात नदियां पूर्व लवण समुद्र में और सिन्धु, रोहितास्या, Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ ] सिद्धान्तसार दीपक हरिकान्ता, सोतोदा, नरकान्ता, रूप्यकृला और रक्तोदा ये सात नदियां पश्चिम लवण समुद्र गिरती हैं । हों की वेदिकाओं का प्रमाण कहते हैं : तेषां च षड्द्रहाणां स्यात् सर्वत्र रत्नवेदिका । तटे क्रोशद्वयोसुङ्गा क्रोशंकपादविस्तृता ||५|| अर्थः- - उन पद्म श्रादि छह द्रहों के तट पर चारों ओर रत्नवेदिका है, जो दो कोस ऊँची और सवा कोस चौड़ी है || ४ || अब गङ्गा प्रादि के निर्गमद्वारों का सविशेष वर्णन करते हैं : पद्महस्य पूर्वस्मिन् दिग्भागे तोरणान्वितम् वज्रद्वारं भवेत्क्रोशाग्रषड्योजन बिस्तृतम् ॥६॥ उनतं साधेगव्यूति संयुक्तनव योजनैः । द्वारस्य तोरणं ज्ञेयं जिनबिम्बाधऽलङ्कृतम् ॥७॥ पूर्ववत्पश्चिमद्वारं ह्रवस्यास्य समानकम् । शेषद्विद्विमदीनां सोतोदान्तानां भवन्ति च ॥८॥ हरस्थनिर्गमद्वार व्यासार्थं द्विगुणोत्तराः । नार्यादिवाहिनीनां स्युः क्रमह्रासास्ततोऽखिलाः ॥६॥ अर्थः-- पद्मसरोवर की पूर्व दिशा में गङ्गा नदी को निकलने के लिये तोरण से संयुक्त एक मय द्वार है, जो ६ योजन एक कोश अर्थात् सवा छह (६३) योजन चौड़ा और १ योजन १३ कोस ऊँचा है । इस द्वार का तोरण जिनबिम्ब और दिक्कन्याओं के श्रावासों से अलंकृत है ॥६-७॥ पद्मसरोवर की पूर्व दिशा के समान पश्चिम दिशा में भी एक निर्गमद्वार है जिससे सिन्धु नदी निकलती है । इसप्रकार अन्य सरोवरों में भी सीतोदा नदी पर्यन्त दो दो निर्गम द्वार हैं, जिनका sure आदि उत्तरोत्तर दूना दूना होता गया है। इसके प्रागे अवशेष तीन सरोवरों से निकलने वाली नारी नरकान्ता आदि नदियों के निगम द्वारों का व्यास आदि क्रम से दुगुरण हीन होता गया है || || Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमोऽधिकारः [ ११६ विशेषार्थ :- छह सरोवरों से १४ महानदियां निकली हैं- पद्मद्रह से गङ्गा, सिन्धु और रोहितास्या, महापदुम से रोहित और हरिकान्ना, तिमिञ्छ सरोवर से हरित् और सीतोदा केसरी हद से सीता और नरकान्ता महापुण्डरीक से नारी और रूप्यकूला तथा पुण्डरोक सरोवर से सुवर्णकुला, रक्ता और रक्तोदा नदियां निकलीं हैं । गङ्गा नदी की उत्पत्ति और उसके गमन का प्रकार ४ श्लोकों द्वारा कहते हैं :-- तस्मात्पदमब्रहद्वाराद्गङ्गा निर्गत्य विस्तृता । क्रोशाग्रयोजनैः षड्भिहिमवद्विगरि मस्तके ॥ १० ॥ अर्धक्रोशावगाहादया याता पञ्च शतानि च । योजनानि चलद्वेगा गङ्गाकूटस्य सन्मुखा ॥११॥ गङ्गाकूटं ततस्त्यक्त्वा योजनार्थेन दूरतः । दक्षिणाभिमुखीभूय शतपञ्चक योजनात् ॥ १२॥ संयुतान् साधिका कोश त्रयोविंशयोजनः । सा गिरेस्तटमायाता तत्रास्ति गोमुखाकृतिः ॥ १३ ॥ अर्थः-- ६१ योजन चौड़ी और ई कोस गहरी गङ्गा नदी पद्मसरोवर की पूर्व दिशा में स्थित वज्रद्वार से निकलकर हिमवान् पर्वत के ऊपर ५०० योजन ( हिमवान् पर्वत पर स्थित ) गङ्गाकूट के सम्मुख अर्थात् पूर्व दिशा की ओर जाकर गङ्गाकूट को अर्धयोजन दूर से ही छोड़ती हुई दक्षिण दिशा में मुड़ जाती है, तथा उसी दक्षिण दिशा की ओर साधिक कोस से अधिक ५२३ योजन श्रागे जाकर वह गङ्गा हिमवान् पर्वत के तटभाग पर स्थित गोमुखाकृति प्रणालिका ( नाली ) को प्राप्त हो जाती है ।। १०-१३।। विशेषार्थ :- हिमवान् पर्वत के ऊपर गङ्गा नदी का दक्षिण दिशा में साधिक अर्धकोस से अधिक ५२३ योजन जाने का कारण यह है कि गङ्गा नदी हिमवान् पर्वत के ठीक मध्य में से बहती है क्योंकि पर्वत के ठीक मध्य में पद्म सरोवर है और सरोवर के ठीक मध्य से ६ योजन की चौड़ाई को लिये हुये गंगा निकली है, अतः पर्वत के व्यास (१०५२३३ में से नदी का व्यास ( ६४ योजन ) घटाकर १०५२६३-६५–१०४६ ) अवशेष भाग का श्राधा (१०४६२३÷२ ) करने पर प्राधा भाग उत्तर भाग को पार करने के और आधा ( ५२३३योजन ) दक्षिण में रहा, श्रतः दक्षिण के उस बाद ही गंगा को हिमवान् पर्वत का तद प्राप्त हो जाता है । अव प्रणालिका की प्राकृति और उसके प्रमाण आदि का निर्धारण तीन इलोकों द्वारा करते हैं: Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० ] सिद्धान्तसार दीपक द्विकोशदीर्घता युक्ता द्वि कोशस्थूलता युता । प्रणालीयोजनः षड्भि क्रोशानं विस्तरान्विता ॥१४॥ नित्यात जलाधा मिहना तिलिसिक जेयास्या दीर्घ विस्तारः सभासिन्धुप्रणालिका ॥१५॥ शेषाः प्रणालिका व्यासाय विदेहान्त मजसा । द्विगुणाद्विगुणाः स्युश्च तथालध्यास्ततोऽपराः ॥१६॥ अर्थः-[ हिमवान् पर्वत के तट पर स्थित वह ] जिबिका नाम को प्रणालिका ( नाली) दो कोस लम्बी, दो कोस मोटो और ६ योजन एक कोश अर्थात् ६३ योजन चौड़ी है । यह प्रणालिका शाश्वत और जल से अभेद्य अर्थात् नष्ट भ्रष्ट होने के स्वभाव से रहित है । इसकी मुखाकृति गाय के सहश है । किन्तु इसके कान सिंह के कान सदृश हैं । [ गंगा नदी इसो नाली में जाकर हिमवान् पर्वत से नीचे गिरती है । ] सिन्धु नदी को प्रणालिका की लम्बाई चौड़ाई भी इसी के समान है। इसके बाद विदेह पर्यन्त की शेष प्रणालिकाओं का व्यास आदि उत्तरोत्तर दूना दूना और उसके आगे क्रमशः होन हीन होता गया है ।।१४-१६॥ गिरती हुई गंगा नदी के विस्तार आदि का वर्णन :-- काहलाकारमाश्रित्य पतिता भरतावनौ । दशयोजनविस्तीर्णा धारा तस्या अखण्डिता ।।१७॥ धारापर्वतयोमध्ये ह्यन्तरं पञ्चविंशतिः । योजनानि ततोऽन्येषां द्वि गुणविगुणं क्रमात् ॥१८॥ धाराया उन्नतिश्चात्र शतकयोजनप्रमा। द्विगुणा द्विगुणान्याद्रिद्वयेऽर्धाऽर्धाऽचलत्रये ॥१९॥ अर्थ:-( हिमवान् पर्वत को छोड़कर ) काहला (एक प्रकार के बाजा ) के आकार को घारण करने वाली, दश योजन विस्तार वाली तथा प्रखण्ड धारा से युक्त गंगा नदी भरत भूमि पर गिरती है । जहाँ धारा गिरती है उस स्थान के और पर्वत के मध्य में पच्चीस योजनों का अन्तराल है। अर्थात् गंगा नदी हिमवान् पर्वत से पच्चीस योजन दूरी पर गिरती है। विदेह पर्यन्त यह अन्तर क्रमशः दूना और उससे पागे क्रमशः हीन होता गया है । इस स्थान पर गंगा की धारा की ऊँचाई सी योजन प्रमाण है। विदेह पर्यन्त धारा की ऊँचाई क्रम से दूनी दूनो प्राप्त होती है और उसके आगे तीन कुलाचलों पर यह ऊंचाई क्रमशः अर्ध अर्ध प्राप्त होती है ।।१७-१६॥ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमोऽधिकार -- अब गिरी हुई नदी और उसके गिरने का स्वरूप ११ श्लोकों द्वारा कहते हैं तत्रादि पार्श्वभूभागे कुण्डवज्रमयं भवेत् । वृत्तं नित्यं सुविस्तीर्ण सार्धं द्विषष्टियोजनः ||२०| वेष्टितं रत्नवेद्या चावगाहं दशयोजनः । तस्य मध्य प्रदेशेऽस्ति सद्वीपः सलदाह्वया ॥२१॥ योजन विस्तीर्णो जन्नाम कोशद्वयोच्छ्रितः । तन्मध्ये स्यादगिरिर्वज्ामयस्तुङ्गश्वयोजनः ॥ २२ ॥ दशभिविस्तृतो मूले चतुभिर्मध्य विस्तरः । द्वाभ्यां च योजनाभ्यां सूयेक योजन विस्तृतः ||२३|| तस्या: श्रीगृहं मूति दिव्यं क्रोश समुझतम् । भूतले सार्धगव्यूति दीर्घमायाम संयुतम् ||२४|| क्रोशेनकेन मध्ये क्रोशार्ध दीर्घताश्रितम् । स्फुरत्नमयं साधं शतद्विचाप विस्तृतम् ||२५|| चतुर्गापुरयुतस्य वेदिका वेष्टितस्य च । गङ्गा कूटाभिचस्यास्य द्वारं मणिमयं भवेत् ||२६|| चत्वारिंशद्धनु चापाशीत्युछतं शुभं || गंगादेवीवसेदत्र प्रासावे वनभूषिते ||२७| प्रासादमस्तकेऽत्रास्ति शाश्वतं कमलोजितं । तत्कणिको परिस्फीतं रत्नसिंहासनोज्ञतम् ॥२८॥ तस्योपरिस्फुरत्नमयी नित्या मनोहरा । जिनेन्द्र प्रतिमा तुङ्गा तेजो मूर्ति रियास्ति च ॥ २६ ॥ तस्याः शिरसि सर्वाङ्गः पतन्त्यचलमस्तकात् । महाभिषेक धारेबगङ्गासरिद्रवाकुला ||३०|| [ १२१ अर्थ :- हिमवान् पर्वत के पार्श्व भाग ( मूल ) में पृथ्वी पर एक वामय प्रकृत्रिम गोल कुण्ड है, जो ६२३ योजन व्यास अर्थात् चौड़ा और १० योजन गहरा तथा रत्नों को वेदों से वेष्टित है। इस कुण्ड के मध्य में सलद ( जलद ) नाम का एक उत्तम द्वीप ( टापू ) है, जो ग्राठ योजन विस्तृत और जल से दो कोस (योजन ) ऊँवा है । उस द्वीप के मध्य में वज्रमय दशयोजन ऊँत्रा एक पर्वत है। उस Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ ] सिद्धान्तसार दीपक पर्वत का व्यास मूल में चार योजन, मध्य में दो योजन और शिखर पर एक योजन प्रमाण हैं । उस पर्वत के शिखर पर शोभायुक्त गृह है जो एक कोस ऊँचा, रत्नमय दिव्य भवन है, जो भूतल पर १३ कोस ( ३००० धनुष ) लम्बा ( व्यास ) मध्य में एक कोस ( २००० धनुष ) तथा अग्रभाग में ३ कोस ( १००० धनुष ) लम्बा ( व्यास ) है । इस गृह (गंगा कूट ) का अभ्यन्तर व्यास २५० धनुष है। गंगा कूट है नाम जिसका ऐसा यह गंगा देवी का गृह चार गोपुरों से युक्त और बेदिका से वेष्टित है। इसके द्वार अर्थात् दोनों किवाड़ अत्यन्त शुभ और रत्नमत्र हैं, जिनकी चौड़ाई ४० धनुष और ऊँचाई ८० नुष है। वन से विभूषित इस महल में गंगा नाम की देवी रहतो है इस महल के मस्तक - प्रग्रभाग पर एक शाश्वत और उन्नत कमल है, जिसकी कर्रिएका के ऊपर देदीप्यमान रत्नमय उन्नत - विशाल सिंहासन है | उस सिंहासन पर तेजकी मूर्ति ही हो मानो इस प्रकार की अत्यन्त भास्वर, मनोहर और अकृत्रिम, रत्नमय उत्तुंग जिनेन्द्र प्रतिमा अवस्थित है नदी के कल कल शब्दों से युक्त, महा अभिषेक की धारा के समान गंगा नदी हिमवान् पर्वत के मस्तक से उन प्रतिमा के सिर पर से सम्पूर्ण शरीर पर गिरती है || २०-३०॥ गंगा गिरने का सामान्य चित्रण निम्नप्रकार है : '— कुण्ड से निकल कर जाती हुई गंगा का एवं उसके स्थान का स्वरूप चार श्लोकों द्वारा निरूपित करते हैं:-- तत् कुण्ड देहली द्वारानिर्गत्य सा सतोरणात् । ततः खण्डप्रपाताच्या गुहासन्मुख भागता ||३१|| रूपयाचल तले तस्था गुहाया योजनानि च । द्वादशव्यामप्रायामः पञ्चाशद्योजनान्यपि ॥३२॥ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमोऽधिकार [ १२३ उन्नतिर्योजनान्यष्टौ द्वौ स्तो बञकपाटको । षट्पडयोजनविस्तारौ ह्यष्टाष्टयोजनोन्नती ॥३३॥ बेहल्या विजयार्धस्य प्रविष्टषाप्यधस्तले । प्रष्टयोजनविस्तीर्णा सर्वत्रात्र गुहान्तरे ॥३४॥ अर्थः-गंगा नदी का मत के गोरश सहित भिरमार से निकालकर [ दक्षिण को ओर बहती हुई विजयापर्वत की ] खण्डप्रपात नाम की गुफा की ओर जातो है और गुफा के तोरण सहित (दक्षिण) द्वार की देहली के नीचे से निकलकर [ गुफा की ५० योजन लम्बाई को पार करती हुई ] अाठ योजन विस्तार वाली गंगा उसी गुफा के उत्तर द्वार की देहली के नीचे से निकल जातो है विजयापवंत के नीचे स्थित गुफा और गुफा द्वार दोनों बारह बारह योजन चौड़े और पाठ आठ योजन ऊँचे हैं । गुफा की लम्बाई ५० योजन है (क्योंकि विजया ५० यो० ही चौड़ा है) । गुफा के (दक्षिण उत्तर ) दोनों द्वारों पर प्रत्येक छह छह योजन चौड़े और पाठ आठ योजन ऊँचे वचमय काट लगे हैं ॥३१-३४॥ विशेषार्थ:-एक कपाट की चौड़ाई ६ योजन है. नतः दोनों कपाट १२ योजन चौड़े हये क्योंकि गुफा का द्वार भी १२ योजन चौड़ा है । जब कपाटों की चौड़ाई १२ योजन है तब देहली की लम्बाई भी १२ योजन होगी, अतः उसके नीचे से पाठ योजन चौड़ी गङ्गा का निकल जाना स्वाभाविक ही है। जम्नगा और निम्नगा नदियों का वर्णन:--- उम्नगानिम्नमा संने द्विद्वियोजन विस्तृते । द्विद्विर्योजन दोघे वे नौ विनिर्गते घने ॥३५।। पूर्वापरगुहाभित्ति भूकुण्ठाभ्यां क्षयोज्झिते । गुहामध्ये प्रविष्टे स्तःप्रवाहेस्याद्विपार्वयोः ॥३६।। अर्थ:--[ विजया को खण्डप्रपात गुफा ५० योजन लम्बी है । २५ योजन पर अर्थात् ] गुफा के ठीक मध्य में पूर्व पश्चिम दोनों दीवालों के निकट भूमि पर दो कुण्ड हैं इन कुण्डों से दो दो योजन चौड़ी और दो दो योजन सम्बो उम्नगा और निम्नगा नाम की दो नदियाँ निकलती हैं, तथा विनाश रहित और मेघसदृश ये दोनों नदियाँ दोनों पार्श्वभागों से गङ्गा के प्रवाह में प्रविष्ट हो जाती हैं ॥३५-३६।। विशेषार्थ:-मण्डप्रपात गुफा की चौड़ाई १२ योजन प्रमाण है । इस गुफा के ठीक मध्य में से ८ योजन चौड़ी गङ्गा बहती है, प्रतः दोनों पार्श्वभागों में गुफा को भित्ति से गङ्गा नदी तक मात्र Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ ] सिद्धान्तसार दोपक दो दो योजन ही अवशेष रहते हैं, इसीलिये उम्नगा और निम्नगा नदियों की लम्बाई दो दो योजन कही गई है। __ गङ्गा के पतन का और पतन समय उसके व्यास ग्रादि का वर्णन: ततस्त्यक्त्वादिमागस्य दक्षिणानिमुखा सरित् । दक्षिणभरतस्या भूतलं प्रारमुखी ततः ॥३७॥ वलित्वा विस्तता साद्विषष्टियोजनःपरा। पञ्चक्रोशावगाहा सा प्रविष्टा पूर्वसागरम् ।।३।। अर्थः--इस प्रकार विजयाध पर्वत को छोड़ कर दक्षिणाभिमुख बहती हुई गंगा दक्षिण भारत के अर्धभाग (११६ योजन) पर्यन्त सोधो पातो है । पश्चात् पूर्व दिशा के सम्मुख मुड़ती हुई, ६२१ योजन चौड़ी और ५ कोस गहरी वह गंगा महानदो अन्ततः ( मागध द्वार से ) पूर्व समुद्र में प्रवेश कर जाती है ॥३७-३८॥ विशेषार्थ:- ११९३५ योजन अर्थात् अर्धदक्षिण भारत को पार करती हुई गंगा जब पूर्वाभिमुख होती है तब वह ढाई म्लेच्छ खण्डों को प्राप्त करतो है और वहां से १४००० प्रमाण परिवार नदियों को लेकर लवण समुद्र में प्रवेश कर जाती है । इससे यह सिद्ध होता है कि प्रकृत्रिम वस्तुओं की अवस्थिति म्नेच्छ खण्ड पर्यन्त ही प्राप्त हो सकती है आर्य खण्ड में नहीं क्योंकि प्रापंखण्डों में प्रलय पड़ता है। अब मागधद्वार के व्यास आदि का वर्णन करते हैं : तन्मागधामरद्वारं गङ्गाप्रवेश कारणम् । क्रोशयावगाहं द्विकोशबाहुल्य संयुतम् ॥३६॥ गङ्गान्याससमन्यासं रलतोरण मूषितम् । योजन त्रिनयत्यामा त्रिकोशेनोछुितं भवेत् ॥४०॥ अर्थः-पूर्व लवण समुद्र में गङ्गा के प्रवेश का कारणभूत मागघ नामका द्वार है । अर्थात् मागधद्वार से भीतर जाकर गंगा समुद्र में प्रवेश करती है । इस द्वार के रक्षक देव का नाम मागध है। यह द्वार रत्नों के तोरण से विभूषित है द्वार को नींव दो कोस, मोटाई दो कोस, ऊचाई तीन कोस अधिक ६३ योजन और चौड़ाई गङ्गा के व्यास सदृश अर्थात् ६२३ योजन. प्रमाण है ॥३९-४०॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमोऽधिकार [ १२५ मागध द्वार के ऊपर स्थित तोरण द्वार का बर्णन करते हैं :-- स्युस्ततोरणाद्वारे जिनविम्बान्यनेकशः । मङ्गलदव्यभूषाणि दीप्तरत्नमयानि च ।।४१।। तोरणोपरिचीत्त ङ्गा मणिप्रासादपंक्तयः । दिक्कुमारीवजापूर्णा निस्याः सन्ति मनोहराः ॥४२॥ अर्थः-मागधद्वार के ऊपर जो तोरणद्वार है. उसके ऊपर दिक्कुमारियों के समूह से व्यास, मन को हरण करने वाले, अनादिनिधन, उत्तन और पंक्तिबद्ध मणिमय भवन हैं । और इन भवनों के ऊपर मङ्गल द्रव्यों से विभूषित, दं दीप्यमान रत्नमय अनेक जिनबिम्ब अवस्थित हैं ।।४१-४२॥ निर्गमद्वार आदि के व्यास का कथन :-- हृदस्य निर्गमद्वारं कुण्डस्य च महाम्बुधः । प्रवेशद्वारमस्त्येव व्यासेन समविस्तृतम् ॥४३॥ अर्थः- पद्मसरोबर गङ्गा के मिर्गम द्वार की चौड़ाई गङ्गा के निर्गम व्यास के सध्या अर्थात् ६३ योजन है। कुण्ड का व्यास और लवण समुद्र के गङ्गा प्रवेश द्वार का व्यास गङ्गा के प्रवेश व्यास के सदृश अर्थात् ६२३ योजन प्रमाण है ।।४३।। गङ्गाया द्वारविस्तारात्सर्वे ते द्वारतोरणाः । अर्धाषिकेन तव्यासेनोन्नता निखिला मताः ॥४४॥ हवकण्डसमुद्राणां निर्गमद्वारपंक्तिषु । प्रवेशद्वारसर्वेषु गंगाविसरितां भवेत् ॥४५॥ __ अर्थः -गंगा के समस्त तोरणद्वारों का जितना जितना विस्तार है, अपने अपने उन व्यासों (विस्तारों) का डेढ़ गुणा उन तोरण द्वारों की ऊँचाई है ॥४४॥ गंगा आदि सभी नदियों के तालाब, कुण्क: पोर समुद्र सम्बन्धी निर्गम द्वार व प्रवेश द्वार होते हैं ॥४५॥ तोरणद्वारों का विशेष वर्णन : क्रोशद्वयावगाहत्वं तोरणानि महान्ति च । तोरणेषु जिनेन्द्राणां प्रतिमा दिव्यमूर्तयः ।।४६॥ तोरणोपरिमागेषु विषकन्यावास पंक्तयः । भवन्ति शाश्वता रम्या विश्वेषु मरिणतेजसः ॥४७॥ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ ] सिद्धान्तसार दीपक अर्थ:-दो कोस है नींव जिनकी ऐसे महान तोरण द्वारों के उपरिम भाग में दिक्कन्याओं के अकृत्रिम, रमणीक और पंक्तिबद्ध प्रावास भवन हैं, और उन समस्त तोरणभवनों पर जिनेन्द्र भगवान की दैदीप्यमान् मणिमय दिव्य प्रतिमाएँ हैं ॥४६-४७।। जम्बूद्वीपस्थ समस्त कुण्ड प्रादि के व्यास आदि का वर्णन : कुण्डतद्वीपशैलानां तद्गृहाणां च वारिधेः । गंगादिक प्रवेशद्वाराणां व्यासादयोऽखिलाः ।।४।। द्विगुण द्विगुणा ज्ञेयाः सोतोकान्तास्ततोऽपरे । अर्धार्धाश्च भवेयुस्त्रि क्षेत्रेषु रम्यकादिषु ।।४।। अर्थ:--सीतोदा नदी अर्थात् विदेह पर्यन्त स्थित नदी पतन के कुण्ड, कुण्ड सम्बन्धी उपद्वीप (टापू), इनके ऊपर स्थित पर्वत और पर्वतों के ऊपर स्थित गृह तथा समुद्र में गंगानदियों के प्रवेश द्वारों की चौड़ाई एवं ऊँचाई का प्रमाण उत्तरोत्तर दूना दूना और इसके आगे रम्यक प्रादि तीन क्षेत्र सम्बन्धी नारी नरकान्ता आदि नदियों के पतन सम्बन्धी कुण्ड प्रादि का प्रमाण प्रामशः प्रधं प्रधं होन जानना चाहिये ।।४८-४६॥ अब पद्म आदि सरोवरों से निकलने वाली नदियों के प्रवेश व्यास प्रादि को प्राप्त करने के लिये नियम निर्धारित करते हैं :-- गंगादिसरितामादौ स्वाहवानिगमे च यः । स्वव्यासो योऽवगाहः स भवेद् दशगुरगो हि सः ॥५०॥ अर्थः-अपने अपने सरोवरों से निकलने वाली गंगा प्रादि नदियों के अपने अपने निर्मम व्यास और अबगाह से अपना अपना प्रवेश व्यास और अवगाह दश गुरिणत होता है ॥५०॥ विशेषार्थः-जैसे पद्म सरोवर से निकलने वाली गंगा सिन्धु का निर्गम व्यास , योजन (२५ कोस), और निर्गम गहराई । कोस है, अतः इन नदियों का समुद्र में प्रवेश करते समय ध्यास (12x१०)- ६२३ योजन और अवगाह (३ कोसx१.) =५ कोस प्रमाण होगा। यही नियम सर्वत्र जानना चाहिये। गंगा के सस्श सिन्धु का कथनः अब्धेः प्रवेशसद्वारेषु गंगायाः समानका । जुव्यासावगाहायः सिन्धुगतापराणवम् ॥५१॥ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमोऽधिकार अर्थ:-पश्चिम समुद्र में जाने वाली सिन्धु नदी के समुद्र प्रवेश द्वार प्रादि में व्यास, अबगाह एवं सोधे प्रवाह आदि का प्रमास गंगा के सदृश है ॥५१॥ प्रय पातशेष नदियों के निगमानना संक्षि गायन करते हैं: रोहिन्महादिपास्य दक्षिणद्वार निर्गता। क्षेत्र हैमवतं प्राप्य गता पूर्वाल्यसागरम् ॥५२।। पद्मस्यास्योत्तरद्वाराद्रोहिताख्या विनिर्गता । जघन्यभोगभूमध्येन पश्चिमाम्बुधिं गता ॥५३।। इत्येवं सरितस्तिस्रः पद्यद्रहाद् विनिर्गताः । पुण्डरीकह्रदात्तिस्रो नद्यः शेषेभ्य एव च ॥५४।। ह्रदेभ्यो निर्गते द्वे व नद्यौ ह्यन्योन्य मिश्रिते । विस्तरं सुखबोधाय संवक्ष्येऽतः पृथक् पृथक् ॥५५॥ अर्थः-रोहित् नदी महापद्म सरोवर के दक्षिणद्वार से निकलकर हैमवत क्षेत्र अर्थात् जघन्य भोगभूमि को प्राप्त करती हुई पूर्व समृद्र में गिरी है। रोहितास्या नदी पनसरोवर के उत्तर द्वार से निकलकर जघन्य भोगभूमि अर्थात् हैमवत क्षेत्र के मध्य में से बहती हुई पश्चिम समुद्र को प्राप्त हुई है। इस प्रकार पद्मद्रह से गंगा, सिन्धु और रोहितास्या ये तीन नदियाँ निकली हैं, और पुण्डरीक सरोवर से सुवर्ण कूला, रक्ता और रक्तोदा ये तीन नदियाँ निकली हैं शेष सरोवरों से एक दूसरे से मिश्रित होती हुई दो दो नदियां निकली हैं । अर्थात् महापध से रोहित और हरिकान्ता, तिगिञ्छ से हरित् और सीतोदा, केसरी से सीता और नरकान्ता तथा महापुण्डरीक से नारी और रूप्यकुला ये दो दो नदियां निकली हैं । (महापद्म से रोहित और हरिकान्ता तथा तिगिच्छ से हरित और सोतोदा आदि का निकलना ही अन्योन्य मिथण है) । सरलता पूर्वक ज्ञान प्राप्त कराने के अभिप्राय से अब इन नदियों का पृथक पृथक् वर्णन किया जा रहा है ॥५२-५शा अथ पद्मद्रहस्य पश्चिम दिग्भागे द्वि क्रोशावगाहं क्रोशाधिक षट्योजन विस्तृत सार्धक्रोशाधिक नव योजनोन्नतं जिनेन्द्रबिम्नदिक्कन्यावासाद्यऽलं कृतं तोरणद्वारमस्ति । तस्मात्तोरणद्वारात् सिन्धुनदी अर्धक्रोशावगाहा, क्रोशाग्रपड्योजनध्यामा निर्मात्य पर्वतस्योपरि ऋज्वी पश्चिम दिशि पञ्चशतयोजनानि गत्वा गव्यूतिद्वयेन सिन्धुकूट विहाय दक्षिणाभिमुखी भूय किञ्चिदधिकार्यक्रोशाग्रपञ्चशत त्रयोविंशतियो- . जनान्येत्यनोशाधिकषयोजनप्यासया द्वि क्रोशाय तया द्वि क्रोशस्थूलया बचप्रणाल्या गिरेस्तटाभूमी पतति । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ ] सिद्धान्तसार दीपक तत्र सार्वद्विषष्ट्रियोजनविस्तीर्ण, दशयोजनावगाहं, रत्नवेदीद्वारतोरणद्यलंकृतं, शादवतं कुण्ड विद्यते । कुण्डमध्ये जलाई द्विक्रोशोच्छ्रितोष्ट्रयोजन विस्तीगंः सलदाख्यो द्वीपोऽस्ति । द्वीपो मध्ये दशयोजनोत्तुंग : मूले चतुर्योजन विस्तृतो, मध्ये द्वियोजनव्यासः, शिखरे योजनैक विस्तारः वज्रमयो गिरिरस्ति । तस्याद्रे निक्रोशकोशतं भूतले, सार्धक्रोशदीर्घ मध्ये, कोशकायत शिखरे श्रर्धक्रोशायामं साद्विशतचनुर्व्यासं । पद्मकरिंणका सिहासनस्थ जिनबिम्बालकृतं । चत्वारिंशद्धनुर्थ्यासाशीति, चापोन्नतद्वाराङ्कितं, चतुर्गीपुरवेदिका बनखण्डादिवेष्टितं दिव्यं गृहमस्ति । दशयोजनविस्तीर्णा सा सिन्धुधारा शतयोजनोसेधा । पञ्चविंशतियोजनान्यचलं मुक्त्वा स्नानधारचतदग्रस्थश्रो जिनबिम्बांग वहति । ततः कुण्डस्थदक्षिणद्वारे निर्गत्य विजयार्थस्य तिमिश्रगुहाद्वारे देहलीतलं प्रविश्याष्ट्रयोजनविस्तीर्खा दक्षिणभरतार्थ भूतलमागस्य पश्चिमाभिमुखीभूय सार्धंद्विषष्टि योजन विस्तृत त्रिकोशाधिक निदतियोंजनोत्तुङ्ग तोरणस्थश्रीजिनबिम्ब, दिक्कन्यावासाद्यलंकृत प्रभासामरद्वारेण सार्द्धं द्विषष्टि योजनविस्तारा पचकोशाहा सिन्धुनदी पश्चिमाम्बुधि प्रविष्टा । महापद्महस्य दक्षिणदिग्भागे सार्घद्वादशयोजन विस्तार, त्रिकोशाधिकाष्टादशयोजनोछतं । द्विक्रोशावगाहं जिनबिम्बदिक्कन्याप्रासादादिभूषितं सतोरणं वज्रद्वारं स्यात् । तद् द्वारात्सार्थद्वादशयोजनविस्तीर्णा क्रोशैकावगाहा रोह्रिन्नदी निर्गत्य दक्षिण दिशिद्रव्यासोना चलव्यासार्धं भूतलमागत्य गिरेस्तटात्सार्धं द्वादशयोजनविस्तृता योजनकस्थूला योजनकदीर्घा गोमुखाकृति वज्रप्रणाल्याचो भूतले पतति । तत्रपञ्चविंशस्यवशतयोजनविस्तृतं वियातियोजनावगाहं मणिवेदिका द्वारतोरणादि मण्डितं कुण्डं स्यात् । तन्मध्ये जलाद्वियति षोडश योजन विस्तीर्णो द्वीपोस्ति । तस्य मध्ये विशतियोजनोत्तगो मूलेऽयोजन व्यासो मध्ये चतुर्योजन विस्तारो, मस्तके द्वियोजन विस्तृतो वज्रमयोऽचलोऽस्ति । तस्य मूर्ध्नि द्विक्रोशोच्छ्रितं, भूतले त्रिकोशापामं मध्ये द्विक्रोशायतं, शिखरे क्रोशैकदीर्घं पञ्चशतचापत्र्यासं कमल कणिकासिंहासनस्थ जिन प्रतिमाद्यलंकृतं । अशीतिचापविस्तृतं षष्ट्यधिकशतशरासनोत्मेघद्वारान्वितं चतुर्गोपुरवन - वैदिकादि भूषितं दिव्यं प्रासादं भवति । विशतियोजनविस्तृता द्विशतयोजनदीर्घा पञ्चनद् योजनान्यत्रिं विहाय जितमभिषेक्तु कामे गृहाग्रस्थ जिनप्रतिमांगे बहति सा रोहितु नदी । ततः कुण्डस्य दक्षिणाद्वारान्निर्गत्य हैमवत क्षेत्रमध्ये समागत्य तत्रस्थ नाभि गिरि योजनार्थेनापती तस्यैवार्ध प्रदक्षिणां कृत्वा पञ्चविंशतियुतशतयोजनविस्तारासाद्वियोजनावगाहा पञ्चविंशत्यग्रशतयोजन विस्तृता सासप्ताशीतियुतशतयोजनोसंग विक्रोशावगाहार्धयोजन बाहुल्य तोरणस्यात्प्रतिमादिककन्यादासाद्यलंकृत रोहित्प्रवेशद्वारेण रोहित्सरित् पूर्वसमुद्रं प्रविष्टा । हिमवत्पवंते पद्महृदस्य व्यासोत्सेधाद्यं महापद्महस्य दक्षिणद्वार सममुत्तरदिशि द्वारमस्ति । तद्द्वाराद् विस्तारावगाहादिभिः रोहिFeat रोहितास्या निर्गत्योत्तराभिमुखा वह व्यासोना चलतटमागत्य प्रागुक्त व्यासादि सम प्रणालिकया विदावियोजन व्यासा शतयोजन दीर्घा आगमोक्त योजनैरद्रि मुक्त्वाधो भूतलं पतति । तत्र Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमोऽधिकारः [ १२६ ध्यासाद्य : रोहित्समाः कुण्डद्वीपाचलगृहादयो विज्ञेयाः । ततः कुण्डस्थोत्तर द्वारेण निर्गत्य हैमवत् क्षे. अमध्यस्य नाभिगिरि योजनार्धन विहाय तस्यार्धे प्रदक्षिणां कृत्वा व्यासाद्य : रोहितसमानारोहितास्या प्रामुक्त विस्तारादिभिः पूर्वद्वारसमापरद्वारेण पश्चिमार्णवं प्रविष्टा । निषधपर्वतस्थ तिगिञ्छाख्य ह्रद. स्य दक्षिणदिग्भागे पञ्चविंशति योजन विस्तृतं साधंसप्तत्रिंशद्योजनोन्नतं द्वि क्रोशावगाहं तोरणात्प्रतिमा दिक्कन्यावासाचलंकृतं वजद्वारमस्ति । तदारात्पञ्चविंशति योजन विस्तारा द्वि क्रोशावगाहा हरिन्नदो निर्गत्य दहण्यासोनाद्रि व्यासार्धमागत्य शैलस्य तटात् पञ्चविंशति योजन व्यास द्वि योजन बाहुल्य द्वि योजनायत गोमुखप्रणालिकया चत्वारिंशद्योजन विस्तीर्णा चतुःशतयोजन दोर्घा, शतयोजनादि मुक्त्वाधो भू भागे पततिस्म । तत्रसार्ध द्विशतयोजन विस्तीर्णं चत्वारिंशद्योजनावगाहं रनवेदीद्वारतोरणाचलंकृतं कुण्डं विद्यते । तन्मध्ये जलादाकाशे द्वात्रिंशद्योजनव्यासो द्वीप: स्यात् । द्वीपमध्ये चस्वारिंशद्योजनोन्नतः, मूलेषोडशयोजनविष्कम्भः, मध्येऽश्योजन विस्तारोऽने चतुर्योजनव्यासोऽनलोऽस्ति तस्य शिरसि योजनोच्छ्रितं, भूतले सार्धयोजनदीर्घ मध्ये योजनायतं, मूनि क्रिोशायाम, अर्धक्रोश व्यास षष्टयनशतधनुः विस्तीर्ण विशत्यधिक त्रिशतचापोच्च द्वाराङ्कित, चतुगोपुर बनवेदिकादि शोभितं, पद्मकरिणका सिंह विष्टरार्हद् विम्बाद्यलंकृतं, दिव्यं भवनं स्यात् । तज्जिनबिम्बाङ्ग प्रवहन्ती सा हरित्कुण्डस्थ दक्षिणद्वारेण निर्गत्य हरिक्षेत्र मध्य भूभागमागत्य तत्रस्य नाभिगिरि योजनार्धन मुक्त्वा तस्याध प्रदक्षिणां कृत्वा सार्ध द्विशत योजन व्यासा पञ्चयोजनावगाहा स्वप्रवेशद्वारेण पूर्वाब्धि गता। सार्धद्विशतयोजन विस्तीर्ण पञ्चसप्तत्यधिकत्रिशतधोजनोत्त ङ्ग विकोशावगाह अर्धयोजनस्थूलं, तोरणाईन्भूति दिक्कन्यावासादि भूषितं तद्धरित् नदी प्रवेशद्वारं ज्ञातथ्यं । महा हिमवत्पर्वतस्थं महापद्मद्रहस्योत्तरदिशि व्यासाद्य प्रागुक्त तिगिच्छदक्षिणद्वारप्रमं द्वारमस्ति । तदुत्तरद्वाराम्निगत्य हरित्समध्यासावगाहा हरिकान्ता सरित् हुदबिस्तारोनाचलव्यासार्धमेत्य ध्यासाय हरिप्रणालीसमप्रणालि कया चत्वारिंशद्योजन विस्तीर्णा द्विशतयोजनोत्सेधा श्र तोक्तयोजनैरचलान्तरं कृत्वाने मस्तकाद्भूतलं पतति । तत्र बिस्ताराद्य : प्रागुक्तहरित्पात समाना: कुण्ड द्वोपादिगृहादयः सन्ति । ततः कुण्डोत्तर द्वारा निर्गत्य हरिक्षेत्रमध्यभागं गत्वा तत्रस्थ नाभिगिरि योजनार्धन विमुच्य तम्या प्रदक्षिणां कृत्वा हरित्सम बिस्तारावगाहा हरिकान्ता नदी व्यासादिभिः प्रागुक्तपूर्वाधिद्वारप्रम स्वप्रवेशद्वारेण पश्चिम समुद्र प्रविष्टा । अथ नीलपर्वतस्थित केसरिद्रहस्य दक्षिणदिग्भागे पञ्चाशद्योजन विस्तीर्ण पञ्चसप्तति योजनोत्सेधं द्विकोशावगाहं तोरणाहंबिम्ब दिक्कन्यावासादि मण्डित बजद्वारं स्यात् । तद् द्वारात्पञ्चाशद्योजनव्यासा योजनावगाहा सीतानदी निर्गत्य गिरिशिरसि द्रहव्यासोना चल य्यासाधू शेलतटं चागता तस्मिन्नद्रौपञ्चाशद्योजन विस्तारा चतुर्योजनायता चतुर्योजनस्थुला गोमुखाकारा प्रणाली भवति । अचलाधो भूतले Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० ] सिद्धान्तसार दीपक पञ्चशतयोजन विस्तीर्ण प्रशीतियोजनावगाहं रत्नवेदीद्वारतोरणादि मण्डितं कुण्डं स्यात् । तन्मध्ये तोयात् से चतुःषष्टियोजन विष्कम्भो द्वीपोऽस्ति । तन्मध्यभागे प्रशीति योजनोच्छितः, मूले द्वात्रिंशद्योजन विस्तारः, मध्ये षोडशयोजन विष्कम्भः, शिखरे प्रष्टयोजनव्यासः गिरिरस्ति । तस्य मूर्धिन द्वियोजनोन्मतं, महीतले त्रियोजन दीर्घ मध्ये द्वियोजनायाम, मस्तके योजनायतं, क्रोशव्यासं, विशत्यधिक त्रिशतविस्तृत, चत्वारिंशदधिक षट्शतचापोत्त ङ्ग द्वारान्वितं, चतुर्गापुर वेदी बनाद्यलंकृतं दिव्यं गृहं स्यात् । तन्मूनि पद्मणिकान्तः सिंहासनस्थ शाश्वतं जिनबिम्ब विद्यते । सा सीता जिनबिम्बमस्तके प्रवहन्ती अशीति योजन' विस्तीगी, चतुःशतयोजनोत्सेधा, विशतयोजन रद्रिमस्पर्शन्ती कुण्डद्वारेग निर्गस्योत्तरकुरुसंज्ञोत्कृष्ट भोग भूमध्येन गत्वा मेरुसमीपे माल्यवन्तं गजदन्तपर्वतं भित्वा प्रदक्षिणेन योजनार्धन महामेरु विहाय पूर्वभद्रशालब नपूर्व विदेहक्षेत्रमध्येन, पञ्चशतयोजनविष्कम्भा, दशयोजनाबगाहा स्वप्रवेश द्वारेग पूर्वाब्धि प्रविष्टा । पञ्चशतयोजन व्यासं सार्धसरशतयोजनोन्नतं द्वि कोशावगाहं अर्घयोजनस्थल तोरणाहदिम्ब दिक्कन्यावासादि संयुतं तत्प्रवेशद्वार विज्ञेयं । निषधाद्रिस्थ तिगिछद्र हस्य व्यासादिभिः सीतानिर्गम द्वारसमोत्तरद्वारेण सीतातुल्यव्यासावगाहा सोतोदा निर्गत्याचलतटमागत्य विस्ताराद्यैर्नीलगिरिप्रणालीसमप्रणालिकयाधो भूभागे पतति । तत्र विष्कम्भाद्यैः सीतापातसमाना: कुण्डद्वोपादिगेहादयः स्युः । अशीतियोजन विस्तारा, चतु: शतयोजन दीर्घा, द्विशतयोजनैः शैलं मुक्त्या जिनार्चागे प्रवहन्ती सोतोदा नदी कुण्डस्योत्तर द्वारेण निर्गत्य देवकुरुनामोत्तमभोगभूमिक्षेत्रमध्येन गत्वा मेरुसमीपे गजदत्ताचलं भित्त्वा प्रदक्षिणेन क्रोशद्वयेन मेरु विमुच्य पश्चिम भद्रशाल नस्य मध्ये नापरविदेहान्तर्भागनेत्य सीतानिभ, व्यासावगाहा, व्यासाद्यः सीताप्रवेश पूर्वाब्धिद्वारसमपश्चिमद्वारेणापराम्बुधिं गता। __ रुक्मिपर्वतस्थमहापुण्डरीकद्रहस्य दक्षिणाद्वारेण निर्गत्य नारो सरित् शैलतटप्रणाल्या द्विशतयोजनोत्सेधाधोभूस्थ कुण्डमध्ये पनित्वा तद्दक्षिण द्वारेण निर्गत्य रम्यकक्षेत्रमध्ये गत्वा तत्रस्थ नाभिगिरि क्रोशद्रयेन विहाय तस्यैवार्धप्रदक्षिणां कृत्वा पूर्वसमुद्रं प्रविष्टा । नीलपर्वतस्थ केसरीलदस्योत्तरद्वारेण नरकान्तानदी निर्गत्याद्रि तटमागत्य तत्प्रणालिकया चतुः शतयोजनोच्छिनाधोघरातले पतित्वा तत् कुण्डद्वारेण चलित्वा रम्यकक्षेत्रमध्य भूतलमभ्येत्य तत्रस्थं माभिगिरि योजनार्थेन त्यक्त्वा तस्यार्घ प्रदक्षिणा विधाय पश्चिमार्गवं गता अस्मिन् रम्यकाख्य मध्यमभोगभूमिक्षेत्रे हृदद्वयनिर्गमद्वार ध्यासोन्नति नार्यादि द्वि नदी व्यासावगाहप्रणालीद्वयविस्तारादि. पर्वतनद्यन्तरधाराविस्तारकुण्डद्वीपाचल हादिपुर्वापराविधद्वारन्यासोच्छित्यादि सरिदन्तविष्कम्भादयो:खिलाः योजनाद्यैः हरिक्षेत्र समाना मंतन्या: । शिखरिस्यपुण्डरीकद्रहस्यदक्षिणाद्वारेण निर्गत्य स्वर्णकूलाख्यानदी पर्वतान्त प्रणालिकया Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१३१ पञ्चमोऽधिकारः शतयोजनदीर्घधारा कुण्डे निपत्य तद्दक्षिणद्वारेण चलित्वा हैरण्यवतक्षेत्र मध्ये गत्वा तत्रस्थ नाभिगिरि गव्यूतिद्वयेन मुक्त्वा तस्यार्थ प्रदक्षिणां कृत्वा पूर्व समुद्रं गता। रदिपालमियत नागरीक हद पोरर द्वारेण निर्गस्य रूप्यकलाह्वया सरित् द्विशतयोजनोसेघा गिरिः प्रणाल्या कुण्डेऽवतीर्य-तदुत्तर द्वारेण निर्गत्य हैरण्यबताख्य जघन्यभोगभूमिक्षेत्रमध्ये गत्वा तत्रस्थ नाभिगिरि योजनार्धन विहाय तस्याप्रदक्षिणां विधाय' पश्चिमाब्धि प्रविष्टा । अस्मिन् हरण्यवतक्षेत्र प्रागक्ता दहनदीनिर्गमद्वाराद्याः सरित्प्रवेशाब्धिद्वारान्ताः सर्वे व्यासादिभिः हैमवतक्षेत्रसादृश्या ज्ञातव्याः। शिखरिशलस्थपुर हरीकह्लदस्य पूर्व हारेरा निर्गत्य पञ्चशतयोजनानि गत्वा योजनार्धन रक्ताटं विहायदक्षिणाभिमुनी भूग्य किञ्चिदधिकार्धक्रोशाग्रपञ्चशतयोजनानि गत्वाञ्चल प्रणालिकया कुण्ड मध्ये पतित्वा तदुनर द्वारेण निर्गत्य विजया गुहा देहली तले प्रविश्योत्तररावत क्षेत्रार्घभूभागं गत्वा प्रारमुखीभूय रक्तानदी स्वप्रवेशद्वारेण पूर्व समुद्रं गता । तस्येव पुण्डरीकद्रहस्य पश्चिमद्वारेण निर्गत्य रक्तोदा सरित् पञ्चशतयोजनानि गत्वा क्रोश द्वयेन रक्तोदा कुटं त्यक्त्वा गिरेस्तटमागत्य तत्प्रणाल्याधोभूस्थ कुण्डे निपत्य तदुत्तरद्वारेण चलित्वा विजया गुहाद्वार देहलोतले प्रविश्योत्तरंरावतार्धभूतलं गत्वा पश्चिमाभिमुखी भूयापर सागरं प्रविष्टा । अनयोनंद्योह्रद निगमद्वारव्यासादिप्रणालो बिस्तरादिनदीपर्वतान्तरधारोच्छितिविस्तृतिकुण्ड द्वीपादि गृहादिसमुद्र प्रवेशद्वार विष्कम्भादयः समस्ताः गङ्गासिन्धुनदी समानाः ज्ञातव्या । सिन्धु नदो का सविस्तार वर्णनः पद्मसरोवर की पश्चिम दिशा में दो कोस नींव वाला, ६ योजन चौड़ा और ६ योजन १६ कोस ऊँचा जिन बिम्ब एवं दिक्कन्याघों के प्रावासों (भवनों) से अलंकृत एक तोरणद्वार है । अर्ध कोस गहरी और ६१ योजन चौड़ो सिन्धुनदी उस तोरण द्वार से निकल कर हिमवान् पर्वत के ऊपर पश्चिम दिशा में अर्थात् सिन्धु कूट के सम्मुख सीधी ५०० योजन जाकर सिन्धु कूट को दो कोस (यो०) दूर से ही छोड़तो हुई दक्षिणाभिमुख होती है, और साधिक अर्ध कोस से अधिक ५२३ योजन आगे जाकर हिमवान् पर्वत के तट पर स्थित ६ योजन चौड़ो, दो कोस लम्बी और दो कोस मोटी वनमय प्रणाली से (पर्वत के तट से) भरत भूमि पर गिरती है। वहाँ ६२३ योजन चौड़ा और दश योजन गहरा, रत्तवेदी से वेष्टित तया तोरणद्वार मादि से अलंकृत एक शाश्वत कुण्ड है । उस कुण्ड के मध्य में जल से दो कोस ऊँचा और पाठ योजन चौड़ा एक सलद नाम का द्वीप (टापू) है। उस द्वीप के मध्य में दश योजन ऊँचा, मल में चार योजन चौड़ा, मध्य में दो योजन और शिखर पर Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ ] सिद्धान्तसार दीपक एक योजन चौड़ा वज़मय एक पर्वत है। उस पर्वत के शिखर पर एक कोस ऊँचा, भूतलपर १३ कोस लम्बा. मध्य में एक कोस लम्बा और शिखर पर अधंकोस लम्बा गृह है । इस गृह ( सिन्धुकूट ) का अभ्यन्तर व्यास २५० धनुप है । इसके द्वार अर्थात् दोनों किवाड़ ४० धनुष चौड़े और ८० धनुष ऊँचे हैं । यह सिन्धु देवी का गृह चार गोपुर द्वारों से युक्त और वेदिका एवं वन खण्ड आदि से वेष्टित है । इस महल के अग्रभाग पर पद्माणकास्थ सिंहासन जिनबिम्ब से अलंकृत है । दश योजन चौड़ी और (१००) सौ योजन ऊँची सिन्धुन दो की यह जलधारा हिमवान् पर्वत को छोड़ कर अभिषेक की धारा के समान हिमवान् पर्वत से पच्चीस योजन दूरी पर भवन के अग्र भाग पर स्थित जिनदेब के शरीर पर गिरती है । इसके बाद उस कुण्ड के दक्षिणा द्वार से निकलकर [दक्षिण की ओर बहती हुई] विजयाध की तिमिधगुफा के द्वार की देहली के नीचे प्रवेश करती हुई पाठ योजन विस्तृत (सिन्धुनदी) अर्धदक्षिण भरतक्षेत्र की भूमि पर पाकर पश्चिमाभिमुख होती हुई ६२३ योजन चौड़ी और पाँच कोस गहरी बह सिन्धुनदी ६२३ योजन चौड़े, ६३ योजन ३ कोस ऊँचे तोरणस्थ जिनबिम्ब और दिक्कुमारियों के भवनों से अलंकृत, तथा प्रभास देव है अधिपति जिसका ऐसे प्रभास द्वार से पश्चिम समद्र में प्रविष्ट हो जाती है। रोहित् नदी का विवेचनः महापद्म सरोवर की दक्षिण दिशा में १२३ योजन चौड़ा, १८ योजन ३ कोश ऊँचा, दो कोस नींव वाला, जिन बिम्ब एवं दिक्कन्यानों के भवनों से विभूषित तथा तोरण सहित वज़मय एक द्वार है। १२३ योजन चौड़ी और एक कोश गहरी रोहित् नदी उस द्वार से निकल कर द्रह व्यास से कम कुलाचल के अर्थ व्यास प्रमाण अर्थात् {४२१०११-१००० = ३२१०११-२) १६०५५ योजन भूतलपर (महाहिमवान् पर्वत पर) प्रागे अाकर कुलाचल के तट से १२३ योजन चौड़ी, एक योजन मोटी और एक योजन लम्बी गोमुखाकृति वज़मय प्रणाली से नीचे भूतल पर (हैमवत क्षेत्र में) गिरती है। जहाँ यह रोहित् नदी गिरती है वहां १२५ योजन चौड़ा और २० योजन गहरा, मरिगमय वेदिका, द्वार एवं तोरणादि से मण्डित एक कुण्ड है । उस कुण्ड के मध्य में जलसे आकाश में [एक योजन ऊंचा और] सोलह योजन चौड़ा द्वीप है । उस द्वीप के मध्य में बोस योजन ऊंचा मुलमें आठ योजन नौड़ा, मध्य में चार योजन और शिखर पर दो योजन चौड़ा वजमय एक पर्वत है । उस पर्वत के शिखर पर दो कोस ऊंचा, भूतल पर तीन कोस लम्बा, मध्य में दो कोस लम्बा और मस्तक पर एक कोस लम्बा. ५०० घनुष चौड़ा, कमलकणिका के ऊपर स्थित सिंहासनस्थ जिन प्रतिमा प्रादि से अलंकृत, ८० धनुष चौड़े और १६० धनुष ऊंचे द्वार से युक्त, चार गोपुर, बन एवं वेदिका कादि से विभूषित एक दिव्य महल (रोहित यूट) है । बीस योजन चौड़ी बह रोहिन् नदी २०० योजन ऊँची जलधारा के साथ महाहिमवान् पर्वत को छोड़ कर ५० योजन दूरी पर जिनेन्द्र Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमोऽधिकारः [१३३ भगवान् का अभिषेक करने की इच्छा से ही मानो भवन के प्रश्न भाग पर स्थित जिनेन्द्र प्रतिमा के पारीर पर गिरती है । इसके बाद उस कुण्ड के दक्षिणद्वार से निकलकर हैमवत क्षेत्र (जघन्य भोगभूमि) को प्राप्तकर वहाँ स्थित (श्रद्धावान्) नाभिगिरि को अर्धयोजन दूर से हो छोड़ती हुई तथा उसी नाभिगिरि की अर्धप्रदक्षिणा करती हुई अर्थात् पूर्वाभिमुख होकर पश्चात् फिर दक्षिणाभिमुख होती हुई १२५ योजन चौड़ी और २३ योजन गहरी वह रोहित नदो १२५ योजन चौड़े, १८७२ योजन ऊँचे, ३ (अर्ध) योजन मोटे, दो कोस अवगाह (नीव) वाबै, तोरणस्थ प्रहन्त प्रतिमानों एवं दिक्कन्यानों के आवासों से अलंकृत रोहित् देव है अधिपति जहां का ऐसे रोहित द्वार से पूर्व समुद्र में प्रविष्ट करती है। रोहितास्या नदी का वर्णन: हिमवान् पर्वतस्थ पद्मसरोवर को उतर दिशा में ल द्वार है. जिसका प्रालिका प्रमाण महापद्मसरोवर की दक्षिण दिशा में स्थित द्वार के समान है। रोहित नदी के व्यास और अवगाह के समान जिसका व्यास और अवगाह है ऐसी रोहितास्या नदी उस पद्मसरोवर के उत्तर द्वार से निकल कर उत्तराभिमुख होती हुई ग्रह के व्यास से हीन हिमवान् पर्वत के अधंयास प्रमाण अर्थात् (१०५२३१-५००-५५२:२) =२७६५: योजन आगे तट पर पाकर पहिले कही हुई रोहित् को प्रणालिका के व्यासादि के सदृश प्रणालिका से बीस योजन चौड़ी और १०० योजन ऊँची रोहितास्या नदी प्रागमोक्त योजनों द्वारा पर्वत को छोड़ती हुई हैमवत क्षेत्र के भूतल पर गिरती है। जहां यह नदो मिरती है वहां स्थित कुण्ड, द्वाप, पर्वत और गृह आदि के व्यास आदि का प्रमाण रोहित नदी सम्बन्धी कुण्ड प्रादि के व्यासादि के समान जानना चाहिये । उस कुण्ड के उत्तर द्वार से निकलकर हैमवत क्षेत्र के मध्य में स्थित (श्रद्धावान्) नाभिगिरि को अर्धयोजन दूर से छोड़कर उसको अर्ध प्रदक्षिणा करतो हुई अर्थात् पश्चिम दिशा में जाकर पश्चात् उत्तराभिमुख होती हुई रोहित् नदी के समान व्यास और अवगाह से युक्त रोहितास्या नदी पूर्वोक्त पूर्वद्वार के व्यासादि के सदृश व्यास वाले पश्चिमद्वार से पश्चिम समुद्र में प्रविष्ट होती है । हरित नदी का सविस्तार वर्णनः-- निषध पर्वत के ऊपर स्थित तिगिञ्छ नाम के सरोवर की दक्षिण दिशा में २५ योजन चौड़ा, ३७३ योजन ऊँचा, दो कोस गहरा (नींब), तोरणस्थ जिनप्रतिमा और दिक्कन्यानों के प्रावास (भवनों) प्रादि से मण्डित एक वजमय द्वार है । २५ योजन चौड़ो और दो कोस गहरी हरित नदी उस द्वार से निकल कर सरोवर के व्यास से हीन पर्वत के अर्धव्यास प्रमाण अर्थात् (१६८४२१२०००-१४८४२:२) - ७४२१० योजन आगे जाकर निषधकुलाचल के तट से २५ योजन चौड़ो, दो योजन मोटी और दो योजन लम्बी गोमुखप्रणालिका द्वारा ४० योजन चौड़ी और ४०० Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ ] सिद्धान्तसार दीपक योजन ऊँची धारा वाली वह हरित् नदी निषध कुलाचल को छोड़कर १०० योजन दूरी पर (हरिक्षेत्र-मध्यभोगभूमि) को पृथ्वी पर गिरती है । जहाँ यह नदी गिरती है वहाँ २५० योजन चौड़ा और ४० योजन गहरा, रत्नों की वेदी, रत्नों का द्वार और रत्नमय तोरण प्रादि से अल कृत एक कुण्ड है । उस कुण्ड के मध्य में जलसे नाकाश में [दो योजन ऊँचा और] ३२ योजन चौड़ा एक द्वीप (टापू) है । उस द्वीप के मध्य में ४० योजन ऊँचा, मूल में १६ योजन चौड़ा, मध्य में पाठ योजन चौड़ा और शिखर पर ४ योजन चौड़ा एक पर्वत है। उस पर्वत के शिखर पर एक योजन ऊँचा, भूतलपर १३ योजन लम्बा, मध्य में एक योजन और प्रग्नभाग पर अर्ध योजन लम्बा, अर्ध कोस अभ्यन्तर ध्यास,१६० धनुष चौड़े और ३२० धनुष ऊचे द्वार से युक्त, चार गोपुर, वन एवं वेदिका से सुशोभित्त तथा पद्मकणिका पर स्थित सिंहासनस्य अर्हन्त प्रतिमानों एवं दिक्कन्नात्रों के भवनों आदि से पल कुत एक दिव्य भवन है । उस भवन के अग्रभाग पर स्थित जिनबिम्ब के शरीर पर से बहती हुई वह हरित् नदो कुण्ड के दक्षिणद्वार से निकल कर तथा हरिक्षेत्र (मध्यम भोगभूमि) के मध्य भूभाग में पाकर वहां स्थित (विजयवान्) नाभिगिरि को अर्घयोजन दूर से ही छोड़कर उसकी अर्धप्रदक्षिणा करती हुई अर्थात् पूर्वाभिमुख जाकर पश्चात् दक्षिणाभिमुख होती हुई २५० योजन चौड़ी और पांच योजन गहरी वह नदी अपने प्रवेशद्वारसे पूर्वसमुद्र में प्रविष्ट करती है । उस हरित् नदी का समुद्र प्रवेश द्वार २५० योजन चौड़ा, ३७५ योजन ऊचा, दो कोस गहरा (नीव), अर्ध योजन (दो कोस) मोटा तथा प्रहन्त प्रतिमानों एवं दिक्कन्याओं के भवनों आदि से अलंकृत तोरणों से युक्त जानना चाहिये । हरिकान्ता नदी का वर्णन: महाहिमवान् पर्वतस्थ महापद्म मरोवर की उत्तर दिशा में पूर्व कहे हुये तिगिर सरोवर के दक्षिणद्वार के व्यास आदि के समान प्रमाण वाला एक द्वार है । हरित नदी समान व्यास और अवगाह से युक्त हरिकान्ता नदी उस उत्तर द्वार से निकल कर सरोवर के विस्तार से हीन पर्वत के अर्ध व्यास प्रमाग अर्थात् (१०५२-५००=५५२१३:२) -२७६६४ योजन प्रमाण - हिमवान् पर्वत के तट पर्यन्त उत्तर दिशा में जाकर हरित् नदी की प्रणालिका के व्यास आदि के प्रमाण समान प्रणालिका से ४० योजन चौड़ो और २०० योजन ऊंची हरिकान्ता नदी श्रुत (शास्त्र) में कहे हुये योजनों प्रमाण अर्थात् १०० योजनों के द्वारा पर्वत को अन्तरित करती हुई पर्वत के मस्तक से हरिक्षेत्र के भूतल पर गिरती है । जहां यह नदो मिरती है वहां हरित् नदो के पतन योग्य कुण्ड आदि । के विस्तार आदि के समान कुगड, द्वीप, पर्वत और गृह प्रादि हैं। इस प्रकार उस कुण्ड के उत्तर द्वार से निकलकर हरिक्षेत्र-मध्यम भोगभूमि के मध्यभाग पर्यन्त जाकर वहां स्थित ( विजटा(विजय) वान् ) नाभिगिरि को प्रयोजन दूर से छोड़ती हुई उसकी अर्धप्रदक्षिणा करके अर्थात् पश्चिमाभिमुख होकर पश्चात् उत्तर दिशा में जाती हुई हरिल नदो के समान विस्तार और प्रवगाह के प्रमाण वाली Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमोऽधिकार : [ १३५ हरिकान्ता नदी पूर्व कहे हुये पूर्व समुद्र के द्वार के व्यासादिक के प्रमाण के समान प्रमाण वाले अपने प्रवेश द्वार से पश्चिम समुद्र में प्रविष्ट कर जाती है : सीता नदी का वर्णनः- नील पर्वत पर स्थित केसरी सरोवर की दक्षिण दिशा में ५० योजन चौड़ा श्रौर ७५ योजन ऊँचा तथा तोरणस्थ अर्हन्त प्रतिमा और दिक् कन्याओं के भवनों से मण्डित एक वज्रमय द्वार है 1५० योजन चौड़ी और एक योजन गहरी सीता नदी उस द्वार से निकलकर पर्वत के शिखर पर द्रह व्यास से हीन पर्वत के अर्ध व्यास प्रमाण अर्थात् (१६८४२१४ - २०००=१४८४२÷२ = ७४२११हे योजन आगे कुलाचल तट पर्यन्त प्राती है। उस पर्वत पर ५० योजन चौड़ी, चार योजन लम्बी और चार योजन मोटी एक गोमुखाकार प्रणाली स्थित है । पर्वत के नीचे जमीन पर ५० योजन चौड़ा, ८० योजन गहरा तथा रत्नवेदी, रत्नद्वार एवं रत्नों के तोरणों आदि से मण्डित एक कुण्ड है । उस कुण्ड के मध्य • जल से [ चार योजन ऊंचा और ] ६४ योजन चौड़ा द्वीप है । उस द्वीप के मध्यभाग में ८० योजन ऊंचा, मूल में ३२ योजन चौड़ा, मध्य में १६ योजन और शिखर पर आठ योजन चौड़ा एक पर्वत है । उस पर्वत के अग्र भागपर दो योजन ऊंचा, पृथ्वीतल पर तीन योजन लम्बा, मध्य में दो योजन लम्बा और शिखर पर एक योजन लम्बा तथा एक कोस चौड़े अभ्यन्तर व्यास वाला एक दिव्य गृह है । जिसका द्वार ३२० योजन चौड़ा और ६४० योजन ऊंचा है, तथा जो चार गोपुर, वेदी एवं वन आदि से अल ंकृत है । उस गृह के ऊर्ध्वभाग में पद्मकणिका पर सिंहासन स्थित है जिसमें शाश्वत जिनप्रतिना विद्यमान रहती है । ८० योजन चौड़ी और ४०० योजन ऊंची वह सीता नदी जिनबिम्ब के मस्तक पर से बहती हुई २०० योजनों द्वारा पर्वत को अन्तरित करती है । अर्थात् पर्वत के तट पर स्थित उपर्युक्त प्रणालिका द्वारा नील पर्वत से २०० योजन दूरी पर नीचे गिरती है । इसके बाद सीता कुण्ड के दक्षिण द्वार से निकल कर दक्षिणाभिमुख होती हुई उत्तरकुरु है नाम जिसका ऐसी उत्तमभोगभूमि के मध्य से श्राकर मेरु पर्वत के समीप माल्यवान गजदन्त पर्वत को भेद कर अर्थात् माल्यवान् गजदन्त पर्वत की दक्षिण दिशा सम्बन्धी गुफा में प्रवेश कर प्रदक्षिणा रूप से सुमेरु पर्वतको अर्ध योजन दूर से ही छोड़कर पूर्व भद्रशालवन एवं पूर्व विदेह क्षेत्र के मध्य से बहती हुई ५०० योजन चौड़ी और १० योजन हो सीता नदी अपने प्रवेश द्वार से पूर्व समुद्र में प्रविष्ट होती है । वह समुद्र प्रवेश द्वार ५०० योजन चौड़ा, ७५० योजन ऊंचा, दो कोस गहरा (नींव ) और अर्धयोजन मोटा तथा तोरणस्थ ग्रहन्त बिम्ब एवं दिक्कन्याओं के श्रावासों से मण्डित जानना चाहिये । सोतोवा नदी का विवेचनः निषपर्व तस्थ तिमिञ्छ सरोवर के उत्तरद्वार का व्यास आदि सीता निर्गम द्वार के व्यासादि के समान है । सोता सदृश व्यास और ग्रवगाह वाली सीतोदा नदी तिगिन्छ सरोवर के उस उत्तर द्वार Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ ] सिद्धान्तसार दीपक से निकल कर तथा पर्वत के तट पर पहुँच कर नील पर्वतस्थ प्रणाली के व्यास प्रादि के समान प्रमाणवाली प्रणालिका द्वारा नीचे पृथ्वी तल पर (विदेह क्षेत्रस्य सोतोदा कुण्ड में) गिरतो है । जहाँ सीतोदा गिरतो है वहाँ सीतापतन कुण्ड के व्यासादि के सदश व्यास प्रादि से युक्त कुण्ड, द्वीप, पर्वत, और गृह आदि हैं। ८० योजन चौड़ो और ४०० योजन ऊंची धारा वाली सीतोदा नदी २०० योजनों द्वारा पर्वत को अन्तरित करती हुई जिनेन्द्र भगवान के शरीर पर से बहती है । पश्चात् मोतोदा कुराष्ट्र के उत्तर द्वार मे निकल कर देवकुह ना वी उत्तर मोनिक्षेत्र के नय से जाकर मेरु पर्वत के समीप (विद्युतप्रभ) गजदन्त पर्वत को भेदकर अर्थात् विद्युतप्रभ गजदन्त पर्वत की उत्तर दिशा सम्बन्धी गुफा में प्रवेश कर प्रदक्षिणा रूप से सुमेरु पर्वत को दो कोस (अर्ध यो०) दूर से हो छोड़ कर पश्चिमभद्रशाल वन एवं पश्चिम विदेह क्षेत्र के मध्य से बहती हुई सीता के समान व्यास और अवगाह से युक्त सीतोदा नदी अपने पश्चिम प्रवेश द्वार से पश्चिम समुद्र में प्रवेश करती है । इसके समुद्र द्वार के व्यास प्रादि का प्रमाण पूर्व समुद्र के सोता प्रवेशद्वार के व्यास आदि के सदृश हो है। नारी नदी का वर्णनः-- नारी नदी झवमी पर्वतस्थ महापुण्डरीक सरोवर के दक्षिणद्वार से निकल कर १६०५ योजन आगे बहती हुई रुक्मी पर्वत के तट भाग पर स्थित प्ररपालिका द्वारा २०० योजन ऊपर से नीचे {भूमि पर) स्थित नारो कुण्ड में गिरती है । पश्चात् झुण्ड के दक्षिरण द्वार से निकल कर रम्यक क्षेत्र के मध्यभाग तक बहती हुई वहाँ स्थित ( पद्मवान् ) नाभि गिरि को अर्ध योजन दूर से हो छोटकर उसी नाभिगिरि को अर्धप्रदक्षिणा करती हुई पूर्व समुद्र में प्रविष्ट हो जाती है । नरकान्ता नदी का विवेचनः नरकान्ता नदी नीलपर्वतस्थ केसरी सरोवर के उत्तर द्वार से निकल कर नील पर्वत के तट पर्यन्त पाकर उम्र को प्रणालिका द्वारा ४०० योजन ऊचे से रम्यकक्षेत्र में स्थित नरकान्त कुण्ड में गिरती है । पश्चात् उस कुण्ड के उत्तर द्वार से निकल कर रम्यकक्षेत्र के मध्यभाग तक प्राकर वहाँ स्थित ( पद्मवान् ) नाभिगिरि को अर्ध योजन दूर से हो छोड़कर उसकी अर्ध प्रदक्षिणा करती हुई पश्चिम समुद्र को प्राप्त हो जाती है। . इस रम्यक क्षेत्र नाम वाली मध्यमभोगभूमि क्षेत्र सम्बन्धी सरोवर के दोनों निर्गम द्वारों का व्यास एवं उदय, नारो-नरकान्ता दोनों नदियों का निर्गम व्यास एवं अवगाहना, दोनों प्रणालियों का व्यास प्रादि, पर्वत और नदी पतन का अन्तर, धारा का विस्तार. कुण्ड, द्वीप, पर्वत और गृह आदि तथा पूर्व समुद्र और पश्चिम समुद्र के प्रवेश द्वारों के न्यास एवं उदय आदि तथा समुद्र प्रवेश के समय नदियों के व्यास प्रादि का समस्त प्रमाण हरिक्षेत्र के समान जानना चाहिये । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमोऽधिकारः [ १३७ सुवर्णकूला नदी का वर्णन : सुवर्णकूला नाम की नदी शिखिरिन् पर्वतस्थ पुण्डरीक सरोवर के दक्षिण द्वार से निकल कर पति के तट पर स्थित प्रणालिका द्वारा १०० योजम मोटी पारा से दुग्ध में गिरती है. मरचात् उस कुण्ड के दक्षिणद्वार से निकल कर हैरण्यवत् क्षेत्र के मध्य में जाकर वहाँ स्थित (गन्धवान् ) नाभि गिरि को अयोजन दूर से ही छोड़ती हुई उसकी अर्थ प्रदक्षिणा करके पूर्णसमुद्र में प्रविष्ट हो जाती है। रूप्यकूला नदी : रूप्यकूला नाम की नदी रुक्मि पर्वतस्थ महापुण्डरीक सरोवर के उत्तरद्वार से निकलकर २०० योजन ऊँची पत के तट पर स्थित प्रणालिका द्वारा रूप्य कुराड में गिरती है। पश्चात् उस कुण्ड के उत्तर द्वार से निकल कर हैरण्यवत नाम की जघन्य भोगभूमि क्षेत्र के मध्य में जाकर वहां स्थित (विजया) नाभि गिरि को प्रयोजन दूर से ही छोड़कर उसकी अर्धप्रदक्षिणा करती हुई पश्चिम समुद्र में प्रवेश करती है । इस हैरण्यवत् क्षेत्र में पूर्व में कहे हुये सरोवर के नदी निर्गमद्वार को भादि लेकर समुद्र के नदी प्रवेशद्वार पर्यन्त समस्त व्यास श्रादि हैमवतु क्षेत्र के समान जानना चाहिये । एका नवी : शिखरिन् पर्वतस्य पुण्डरीक सरोवर के पूर्वद्वार से निकल कर शिखरी पर्वत पर पूर्वाभिमुख ५०० योजन जाकर रक्ता कूट को अर्थ योजन दूर से ही छोड़कर दक्षिण दिशा में उसी पर्वत पर अकोस अधिक ५०० योजन आगे जाकर पर्वत के तट पर स्थित प्रणालिका द्वारा रक्ता कुण्ड में गिरती है | पश्चात् उस कुण्ड के दक्षिण द्वार से निकल कर बिजया के गुफा द्वार के देहली के नीचे प्रवेश करती हुई दक्षिण ऐरावत क्षेत्र के प्रभाग पर्यन्त दक्षिण में हो जाती है, पश्चात् पूर्व की ओर मुड़ कर अपने प्रवेश द्वार से पूर्व समुद्र में प्रवेश कर जाती है। रक्तोदा नदी : रक्तोदा नदी उसी शिखरिन् पतस्थ पुण्डरीक सरोवर के पश्चिम द्वार से निकल कर उसी पर्वत पर पश्चिमाभिमुख ५०० योजन जाकर रक्तोदा कूट को श्रर्व योजन दूर से ही छोड़ती हुई तट के ऊपर स्थित प्रणाली द्वारा भूमि पर स्थित रक्तोदा नामक कुण्ड में गिरती है । पश्चात् उस कुण्ड के उत्तर द्वार से निकल कर विजयार्ध के गुफा द्वार की देहली के नीचे प्रवेश करती हुई उत्तर ऐरावत क्षेत्र के मध्यभाग पर्यन्त उत्तराभिमुख हो जाती हुई पुनः पश्चिमाभिमुख होकर अपने प्रवेश द्वार से पश्चिम समुद्र में प्रवेश कर जाती है । Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ ] सिद्धान्तसार दीपक __इन दोनों (रक्ता-रक्तोदा) नदियों के सरोवर के निर्गमद्वार का व्यास प्रादि, प्रणालियों का विस्तार आदि, नदी पतन कुण्ड से पर्वत तट का अन्तर, धारा की चौड़ाई एवं ऊंचाई, कुण्ड द्वीप, पर्वत और गृह आदि का तथा समुद्र प्रवेश द्वार प्रादि के विष्कम्भ आदि का समस्त प्रमाण पूर्वोक्त गङ्गा सिन्धु के सदृश ही जानना चाहिये । उपर्युक्त चौदह महानदियों के निर्गमद्वार के ध्यासादि से लेकर उनके समुद्र प्रवेशद्वार के व्यास आदि पर्यन्त समस्त प्रमाण निम्नाङ्कित तालिका द्वारा दर्शाया जा रहा है । नबियों के निर्गम-प्रवेश प्राधि से सम्बन्धित । निर्गम पर्वर्ती के ऊपर नदी निर्गम स्थान पर | पर्वतस्थ | स्थित गंगा प्रादि द्वारों की नदियों को प्रणालिकामों देवियों के गृहों की । योजनों में पोजनों में | योजनों में व्यास पर्वतों के मूल में स्थित कुण्डों की कुण्डों के मध्य हा नदियों के नाम योजन क्रमांक चौडाई चौड़ाई मोटाई लम्बाई चौड़ाई गहराई चौड़ाई SHEE मध्य ऊपर गङ्गा-सिन्धु (७५० २] रोहित्-रोहिनास्मा | ११२३ १८३ | १.१२३ | १११२६ २०१२५ | १ १६ । २ ३ २: ३) हरित-हरिकान्ता |२२५ ३७३ | २. २५ | २ २ २५ ४०२३०२: ३२६४ २१६ ४ सौता-सीतोदा ५ नारी-नरकाता २ २५ ३७३ | २. २५ / २ २ २५. ४०२५० २, ३२ | ४६ ४२ सुवर्ण रूप्यकूला | ११२३ १८१ | ११२३ | १ ११२३ |२० १२५ | १| १६ | २| ३, २) १ । ७ रक्ता-रक्तोदा Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ स्थानों के व्यास प्रावि को एकत्रित तालिका पर्वतों से नीचे गिरते समय की गृह द्वारों की धनुषों में ८० १६० ३२० ६४० १६० ८० ૪. १० ८० १६० ३२० १६० ३२० धारा योजनों में * २० ४० ८० Yo ८० २० १० ऊँचाई १०० २०० ४०० ८०० a २०० १०० पर्वतों के तटों से भूस्थित कुण्डों का धमतर योजनों में २५ ५० १०० २०० १०० ਸੀ ਇਲਾ ५० २५ समुद्र प्रवेश समय नदियों की योजनों में चौड़ाई ६२३ १४ १२५ २५० ५०० २५० १२५ ६२३ 1 ५ २३ १८७३ १० समुद्र में नदियों के प्रवेश द्वार की योजनों में ९३३६२३ ** ३७५४ ७५० ५. ३७५ १२५ २४० ५०० २५० २३ | १८७३ | १२५ २३ ૬૨૨ मोटाई [ १३६ p 1 नींव Me Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० ] सिद्धान्तसार दीपक प्रथ महानदीनां परिवारनदीसंख्या प्रोच्यते : गङ्गासिन्ध्वोः प्रत्येक परिवार नद्यश्च चतुर्दशसहस्रागि भवन्ति। रोहित रोहितास्थयोरष्टाविंशतिसहस्राणि च । हरितरिकान्तयो। पृथक् पृथक् परिवारनद्यः षट् पञ्चाश सहस्राणि भवेयुः । सीतायाः परिवारनाश्चतुरशीतिसहस्राणि, तथासीतोदायाश्च । नारोनरकान्तयोः प्रत्येक परिवारनद्यः षट्पञ्चाशत्सहस्राणि । स्वर्णरूप्यालयोरष्टाविंशति सहस्राणि । रक्तायाः परिवारनद्यः चतुर्दशसहस्रारिण, रक्तोदायाश्च । पूर्वापर विदेहस्थ द्वादश विभङ्गानदो रहित चतुःषष्टि मूलनदीनां प्रत्येक प्रत्येक चतुर्दश चतुर्दश सहस्र परिवारनद्यो भवन्ति । सर्वा मेलिताः परिवार नद्योऽष्टलक्षषण्णवतिसहस्राणि भवन्ति । द्वादश विभङ्गानाम् एका एका नदी प्रति अष्टाविंशति-अष्टाविंशति सहस्रारण परिवारनद्यो भवन्ति । सः परिवारनद्यः पिण्डीकृताः त्रिलक्ष षट् विशःसहस्राः । समस्त विदेहस्थ सोतादि सर्वनदीनां परिवारनद्यः चतुर्दशलक्षाणि । गङ्गादि षण्णां नदीनां एकत्रीकृताः सर्वाः परिवारनद्यः एकलक्षषण्णवति सहस्राणि । नार्यादिशेषनदीनां चैकलक्ष षण्णवति सहस्राणि भवन्ति । चतुर्दशगङ्गावयः, द्वादशविभङ्गानद्यः, चतुःषष्टि विदेहजा गङ्गादयः समस्तक्षेत्राणां नवनिर्मूलनद्यः । एताः एकत्रापरा डोकृताः समस्तानद्यः जम्बूद्वीपे सप्तदशलक्ष-द्विनवतिसहस्रनबति प्रमा: ज्ञातव्या । एतत्पञ्चभिर्गुणिताः नरलोके सर्वा नद्यः ८६६०४५० भवन्ति ।। अव महानदियों के परिवार नदियों को संख्या कहते हैं : गङ्गा नदी को (पूर्व दिशा सम्बन्धी ढाई म्लेच्छ खण्डों से ग्रहण की हुई) १४००० परिवार नदियां और सिन्धुनदी की (पश्चिम हाई म्लेच्छ खण्डों की) १४००७ परिवार नदियां हैं। रोहित नदी की (पूर्व जघन्यभोगभूमि सम्बन्धी) २८००० और रोहितास्या की (पश्चिम जघन्यभोगभूमि सम्बन्धी) २८.०० परिवार नदियों हैं । हरित् नदी की (पूर्व मध्यम भोग भूमि सम्बन्धी) ५६००० परिवार नदियां और हरिकान्ता नदी की (पश्चिम मध्यम भोग भूमि सम्बन्धी) ५६००० परिवार नदियां हैं। सीता महानदी की (उत्तर कुरु अर्थात् पूर्व उत्तम भोग भूमि सम्बन्धी ८४००० और सीतोदा महानदी की (देवकुरु अर्थात् पश्चिम उत्तम भोग भूमि सम्बाधी) ८४००० परिवार नदियां है । नारी नदी की ५६००० और नरकान्ता को ५६००० परिवार नदियां हैं। सुवर्णकूला की २८००० और रूप्यकला की २८००० परिवार नदियां हैं। इसी प्रकार रक्ता नदी की १४००० हजार और रक्तोदा नदी की भी १४.०० परिवार नदियां हैं। पूर्व पश्चिम विदेह में १२ विभङ्गा नदियां और (३२ क्षेत्र सम्बन्धी) ६४ गङ्गा-सिन्धु नदियां हैं । इनमें से १२ विभङ्गा को छोड़कर ६४ गङ्गा-सिन्धु नदियों में प्रत्येक को परिवार नदियां चौदहचौदह हजार हैं, तथा इन सब का एकत्रित योग कर लेने पर ६४ मूल नदियों की परिवार संख्या (१४०००४ ६४)=८६६७०० अर्थात् पाठ लाख ६६ हजार होती है। १२ विभङ्गा नदियों में से Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमोऽधिकार: [ १४१ प्रत्येक को अट्ठाईस-अट्ठाईस हजार परिवार नदियां हैं। इन सब का एकत्रित योग करने पर (२८०००४१२)=३३६००० अर्यात् तीन लाख ३६ हजार होता है । इस प्रकार पूर्वा पर विदेहस्थ सोता-सीतोदा की समस्त परिवार नदियां (८४०००+८४००० +९६००० + ३३६०००)= १४००००० प्रमाण होती हैं । अर्थात् सोता नदी की उत्तर कुरु की ८४००० + (६ विभङ्गा की १६८०००+ (पूर्व विदेह सम्बन्धो ३२ गंगासिन्धु की) ४४८०००+६ विभङ्गा+३२ गंगा + सिन्ध= ७७००३८ परिवार नदियां सीता नदी की हैं और इसी प्रकार की ७०००३८ सहायक सीतोदा की हैं। जम्बुद्वीपस्थ ६० प्रमुख नदियों का चित्रण निम्नप्रकार है मरहम बन - इनमें से (३८+३८)-७६ तो मल नदियां हैं और १४००००० सहायक हैं। गंगा, सिन्धु, रोहित, रोहितास्या, हरित् और हरिकान्ता इन ६ मूल नदियों की परिवार नदियों का एकत्रित योग (१४००० +१४००० + २८००० + २८००० + ५६००० ५ ५६०००)=१६६००० अर्थात् एक लाख ६६ हजार होता है । इसी प्रकार नारी, मरकान्ता, सुवर्णकूला, रूप्यकूला, रक्ता और रक्तोदा इन ६ मूल नदियों के परिवार का योग भी एक लाख ६६ हजार होता है। जम्बूद्वीप के समस्त क्षेत्रों Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ ] सिद्धान्तसार दीपक की मूल नदियां ० हैं । यथा - गंगादि महानदियां १४+ विभंगा नदियां १२ + विदेहजगंगादि ६४=६० | जम्बूद्वीपस्थ उपर्युक्त समस्त मूल और परिवार नदियों का एकत्रित योग करने पर १७९२०९० प्राप्त होता है। इसका विवरण निम्न प्रकार है जम्बूद्वीपस्थ भरत रेगवत श्री हरि क्षेत्र गपदियों का परिवार ९६६००० है | विदेहज सौता - सीतोवा का परिवार १६८०००, १२ विभंगा का ३३६०००, विदेह के ३२ क्षेत्र सम्बन्धी ३२ गंगासिन्धु और ३२ रक्ता रक्तोदा इस प्रकार ६४ की ६६६००० परिवार नदियां तथा रम्यक, हैरण्यवत् और ऐरावत क्षेत्र सम्बन्धी नारी नरकान्ता आदि ६ की परिवार नदियाँ १९६००० है । इन सब का कौर मूल नदियों का समस्त योग (१६६००० + १६८०००+ ३३६०००+ ८१६०००+१६६०००+ ६० ) = १७६२०६० होता है । भढ़ाई द्वीप में पांच मेरु पर्वत हैं, इसलिये इस योग को ५ से गुणित करने पर ढ़ाई द्वीपस्थ समस्त नदियों का (१७६२०६०४५) - ८६६०४५० प्रमाण प्राप्त होता है । समस्त नदियों की वेदिका आदि का वर्णन : सर्वासां सरितां सन्ति रत्नसोपानपंक्तयः । उभयोः पार्श्वयोर्नानाद्र ुमवल्लीवनानि च ॥ ५६ ॥ जिनेन्द्रप्रतिमारनद्वारतोरण भूषिताः । द्विक्रोशप्रोन्नता दिव्या कोशांहि व्यास वेदिका ॥ ५७ ॥ अर्थ :- समस्त नदियों में पंक्तिबद्ध रत्नों की सीढ़ियां हैं तथा सरिताओं के दोनों पार्श्वभागों में नाना प्रकार के वृक्षों एवं वल्लियों से युक्त वन हैं। इनके तोरणद्वार रत्नमय प्रतिमाओं से विभूषित हैं, और इनके दोनों पार्श्वभागों में दो कोस ऊँची और सवा कोस चौड़ी बेदिकाएँ हैं ।।५६ – ५७ ॥ भव विजयार्थं पर्वत की स्थिति और उसके व्यास श्रादि का निर्धारण सात श्लोकों द्वारा करते हैं : प्रथास्ति विजयार्धाद्रिमध्येऽस्य भरतस्य च । श्वतरत्नमयस्तुङ्गः पञ्चविशतियोजनः ॥ ४८ ॥ पञ्चाशद्योमनरेष विस्तृतो भूतले ततः । उभयोः पादयोर्मु वरचा दशास्य योजनानि च ॥५६॥ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमोऽधिकारः [ १४३ दशयोजन विस्तीर्णे दक्षिणोत्तरसंझिके । पूर्वापराब्धि संलग्ने द्वे श्रेण्यौ भवतः शुभे ॥६०॥ पूर्वागराब्धिदीर्घोऽयं विद्येशपुर सौधभत् । त्रिंशद्योजन विस्तीर्णो ह्यत्र स्यात् सुन्दराकृतिः ॥६१।। दशयोजन संख्यं शं त्यक्त्वा तोऽस्यद्वि पार्वयोः । प्रागुक्तायाम विस्तारे श्रेण्यौवस्तोऽपरे शुभे । ६२॥ दशयोजन विस्तीर्णोऽत्रंषोऽभर पुराङ्कितः । नवकूटाङ्कितोमूनि त्यक्त्वानुपञ्चयोजनात् ।।६३॥ निजोदय चतुर्थांशावगाहो राजतेऽचलः । खगेशचारण : श्वेतमणिभिः शुक्लपुजवत् ।।६४।। प्रथं :-भरत क्षेत्र के ठीक मध्य में विजया नाम का एक श्वेतरत्नमय पर्वत है । जो पच्चीस योजन ऊँचा और भूतल पर ५० योजन चौड़ा है । यह ५० योजन की चौड़ाई १० योजन की ऊंचाई तक जाती है । इसके ऊपर (दक्षिणोत्तर) दोनों पार्श्वभागों में दश दश योजन (की कटनी) छोड़ कर १० योजन को ऊँचाई पर्यन्त ३० योजन चौड़ा है । इसी प्रथम कटनी पर १० योजन चौड़ी, पूर्व-पश्चिम समुद्र को स्पर्श करने वाली और दक्षिण-उत्तर नाम वाली दो शुभ श्रेणियां हैं। इन पूर्व समुद्र से पश्चिम समुद्र पर्यन्त लम्बी उत्तर-दक्षिग दोनों श्रेणियों पर विद्याधरों के सुन्दर आकृति को धारण करने वाले महलों से युक्त नगर हैं । ३० योजन चौड़ाई में भी दोनों पार्श्वभागों में १०-१० योजन (की कटनी) छोड़कर पांच योजन की ऊँचाई पर्यन्त केबल १० योजन चौड़ा जाता है । इस दूसरी कटनी पर पूर्वोक्त पायाम और विस्तार (१० योजन चौड़ी और पूर्व समुद्र से पश्चिम समुद्र तक लम्बी) वाली अन्य दो श्रेणियां हैं, जो व्यन्तर देवों के नगरों से अलंकृत हैं। इन श्रेणियों से पांच योजन ऊपर अर्थात् विजयाय का अग्रभाग नक्कूटों से संयुक्त है । इस विजयाध पर्वत को नींव अपनो ऊँचाई (२५ योजन) का चतुर्थभाग मर्थात् ६२ योजन प्रमाण है । श्वेत मरिणयों के साथ साथ चारण ऋद्धि धारी मुनीश्वरों और विद्याधरों से ब्याप्त यह विजया ऐसा शोभायमान होता है मानो शुक्लता का पुन ही हो ॥५८-६४॥ विशेषार्थ : विजयाध की दक्षिणोत्तर दोनों तटों को प्रथम श्रेणी पर विद्याधर और द्वितीय श्रेणी पय व्यन्तर जाति के देव निवास करते हैं, तथा शिखर पर नवकट हैं, जिसका चित्रण निम्न प्रकार है : Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ ] सिद्धान्तसार दीपक विजयाद्य- पर्वत X hta विज friririntrumITTE R TOPLINETI अब दक्षिणोत्तर दोनों थेरिणयों पर स्थित विद्याधरों के नगरों की संख्या और उनके नाम कहते हैं संत्यस्य दक्षिणण्यां पञ्चाशनगराणि च । पष्टिरेवोसरण्यां रम्यागि व्योमगामिनाम ॥६५॥ किन्नामनगरं किन्नरगीतं नरगीतकम् । बहुकेतपुरं पुण्डरीक सिंहध्वजाह्वयम् ।।६६।। पुरं श्वेतध्वजाभिख्यं गहउध्वज संज्ञकम् । श्रीप्रभं श्रीधराख्यं च लोहार्गलमरिजयम् ॥६७।। वैरार्गलं हि राख्यं विगतोजपुरं जयम् । शकटास्यं चतुर्वक्र पुरं बहुमुखाभिधम् ॥६॥ अरजं विरजाभिस्य रथनूपुरनामकम् । मेखलानपुर क्षेमवयं ततोऽपराजितम् ॥६६॥ पुरं कामपुराभिख्यं वियच्चर समाह्वयम् । विजयादि चराख्यं च शक्ताभिधानकं पुरम् ॥७॥ सञ्जयन्तं जयन्ताख्यं विजयं वैजयन्तकम् । क्षेमाकरं सुचन्द्राभं सूर्याभासं पुरोत्तमम् ।।७१।। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमोऽधिकार : चित्रकूटं महाकूट हैमकूटं त्रिफूटकम् । मेघकूट विचित्रादिकूटं वैश्ववरणाभिधम् ॥७२॥ सूर्यप्रभाह्वयं चन्द्रप्रभाभिधानकं पुरम् ।। नित्य प्रद्योतसंसं च नित्यामाख्यं पुरं ततः ॥७३॥ विमुखाख्य पुरं नित्यवाहिसंज्ञमिमान्यपि । स्युः श्रेण्या दक्षिणाल्पायर्या पञ्चाशत्सत् पुराणि च ॥७॥ पुरं बसुपुरामिण्यमर्जुनं चारुणाभिधम् । कैलासं वारुणं विद्युत्भं किलिकिलित्पुरम् ॥७५।। चूडामणिपुरं नामशशिप्रभपुरं ततः । विशाल पुष्पचूलाख्यं हंसगर्भ बलाहकम् ।।७६॥ शिवंकरं च श्री सौधं चमरं शिवमन्दिरम् । वसुमत्तापुरी नाम्नी ततो वसुमतीपुरी ॥७७॥ सिद्धार्थनगरी शत्रुजयाभिधानिकापुरी । केतुमालेन्द्रकान्ता गगनानन्दिन्यशोकिका ।।७।। विशोकावीतशोकाख्या चालका तिलकापुरी । अपूर्वतिलका नाम्नी पुरी मन्दिरसंज्ञिका 11७६।। कुमुदायपुरं कुन्दपुरं गगनवल्लभम् । दिव्यादि तिलकं पृथ्वी तिलकाल्यं पुरं ततः ॥८॥ गन्धर्वात्य पुरंमुक्ताहारं च नमिषाह्वयम् । अग्निजालं महाजालं श्रीनिकेतं जयाह्वयम् ॥१॥ श्रीगृहं मरिणयन्त्राख्यं भद्राश्वं च धनञ्जयम् । गोक्षीरफेनमक्षोभं रोलशेखरसंज्ञकम् ॥२॥ पृथ्वोधरं पुरं दुर्ग दुर्धराख्यं सुदर्शनम् । पुरं महेन्द्रसंशं विजयं सुगन्धिनामकम् ॥८३।। १. प्रद्योति प्र. ज. २. वसुमुखाभिख्य अ. ज. ३. मन्दर अ. ज. Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ ] सिद्धान्तसार दीपक पुरं वैराधनामाथरत्नाकराह्वयम् पुरम् । ततो रत्नपुरम् चेमानि पुराणि खगामिनाम् ॥४॥ पोष्टः स्युरुत्तरश्रेण्या शाश्वतानि शुभानि च । पश्चिमां दिशमारभ्य स्वःपुरा भान्यनुक्रमात् ॥६५॥ पुराणिवक्षिणश्रेण्यां'प्रागुक्तानि भवन्ति । पञ्चाशत् पूर्वदिग्भागमावि कृत्वा क्रमेण च ॥८६॥ अर्थ-( भरतरावत सम्बन्धी विजयाओं की पूर्व पश्चिम लम्बाई में ) दक्षिग श्रेणी पर विद्याघरों के रमणीक ५० नगर और उत्तर श्रेणी पर ६० नगर हैं । पूर्व दिशा से प्रारम्भ कर दक्षिण श्रेणीगत ५० नगरों के नाम क्रमश: इसप्रकार हैं: - १ किलाम, २ किन्नरगति, ३ नरगीत, ४ बहुकेतपुर, ५ पुण्डरीक, ६ सिंहध्वज, ७ श्वेतत्रज, ८ गरुडध्वज, ६ श्रीप्रभ, १० श्रीधर, ११ लोहार्गल, १२ अरिजय, १३ वैरागल, ५४ वैराख्य, १५ वियतोजपुर, १६ जय, १७ शकट, १८ चतुर्वक्र, १६ बहुमुख, २० अरजा, २१ बिरजा, २२ रथ नूपुर, २३ मेखलाग्रपुर, २४ श्रेमवयं, २५ अपराजित, २६ कामपुर, २७ वियच्चर (गगनचर), २८ विजयचर, २६ शक्तपुर, ३० सञ्जयन्त, ३१ जयन्तपुर, ३२ विजय, ३३ वैजयन्त, ३४ क्षेमकर, ३५ चन्द्राभ ३६ सूर्याभा, ३७ पुरोत्तम, ३८ चित्रकूट, ३६ महाकूट, ४० हैमट, ४१ त्रिकूट, ४२ मेघकूट, ४३ विचित्रकूट, ४४ वैश्रवणकूट, ४५ सूर्यप्रभ, ४६ चन्द्रप्रभ, ४७ नित्यप्रद्योत, ४८ नित्याभा, ४६ विमुख और अन्तिम ५० नित्यवाहनी नाम वाले ५० नगर दक्षिण श्रेणी पर हैं। उत्तर दिशा में पश्चिम श्रेणी से प्रारम्भ कर क्रमशः १ वसुपुर, २ अर्जुन, ३ अरुण, ४ कैलाश, ५ वाहरगपुर, ६ विद्युत्प्रभ, ७ किलिकिलित्पुर, ८ चूड़ामणि, ६ शशिप्रभ, १० विशालपुर, ११ पुष्पचूल, १२ हंसगर्भपुर, १३ बलाहकपुर, १४ शिबङ्कर, १५ श्री सोधपुर, १६ चमरपुर, १७ शिव मन्दिर, १८ वसुमत्ता, १६ वसुमति, २० सिद्धार्थनगरी, २१ शत्रुजयपुरी, २२ केतुमाल, २३ इन्द्रकान्तपुर. २४ गगननन्दिनी, २५ अशोकापुर, २६ विशोकापुर, २७ वोतशोकापुरी, २८ अलकापुरी, २६ तिलकापुरो, ३० अपूर्वतिलकापुरी, ३१ मन्दरपुरी, ३२ कुमुदपुर, ३३ कुन्दपुर, ३४ गगनवल्लभ, ३५ दिन्यतिलक, ३६ पृथ्वी तिलक, ३७ गन्धर्वपुर, ३५ मुक्ताहारपुर, ३६ नैमिषपुर, ४० अग्निजालपुर, ४१ महाजालपुर, ४२ श्रीनिकेतनपुर, ४३ जयावहपुर, ४४ श्रीवासपुर, ४५ मरिगवन्नपुर, ४६ भद्राश्वपुर, ४७ धनञ्जयपुर, ४८ गोक्षीरफेनपुर, ४६ अक्षोभपुर, ५० शैलशेखरपुर, ५१ पृथ्वीधरपुर, ५२ दुर्गपुर, ५३ दुर्धरनगर, ५४ सुदर्शननगर, ५५ महेन्द्रपुर, ५६ विजयपुर, ५७ सुगन्धिनीनगर, ५८ वैराध ४. शाश्वतानि अ. ज. Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमोऽधिकारः [ १४७ पुर, ५६ रत्नाकरपुर और अन्तिम ६० रत्नाकर नाम वाले ६० नगर हैं। ये विद्याधरों के समस्त नगर रत्लमय हैं । पश्चिम दिशा से प्रारम्भ कर क्रमशः श्रेणीबद्ध उत्तर अंगी के ये ६० नगर शाश्वत, शुभ नाम वाले और स्वर्गपुरी की शोभा को धारण करने वाले हैं, इसी प्रकार पूर्व दिशा से प्रारम्भ कर क्रमशः पूर्व कहे हुये दक्षिण श्रेणी के ५० नगर हैं ।।६५-८६।। अब विनाधरों के नगरों का सविस्तार वर्णन करते हैं: दण्डकैकान्तरास्तिस्रो जलान्ताः खातिकाः शुभाः । प्रत्येक नगराणां स्युर्मणिस्वर्गाष्टकाचिताः ॥७॥ स्याच्चतुरस्रखाताना तासामन्तर्महीतले । चतुर्दण्डान्तरो रम्यो हेमरत्नेष्टकामयः ।।८॥ मुरजैः कपिशीर्षश्च रचितामः पुराणि च । परितः शाश्वतस्तुनः प्राकारो हि पृथक् पृथक् ॥८६॥ विष्कम्भचतुरस्त्राः स्युः शालााट्टलक पक्त्यः । निराच्चापान्तरास्तुङ्गा नानारत्नावि चित्रिताः ।।६।। उत्सेधसदृशारोहसोपानाश्चारुमूर्तयः । द्वयोरट्टालयोर्मध्ये रत्नतोरणभूषितम् ।।११।। पश्चाशद्धनुरुत्सेधं गोपुरं विस्तृतं महत् । पञ्चविंशति दण्डेश्च कपाटयुगलाङ्कितम् 18२।। इत्यादि रचनाढ्यानि पूर्वमुखस्थितानि च । दक्षिणोत्तर दीर्घाणि योजनैदिश प्रमैः ।।३।। पूर्वापरेण विस्ताराधितानि नवयोजनः । स्वः पुराणीव राजन्तेऽत्राखिलानि पुराण्यपि ।।६४॥ सहस्रगोपुरैः मार्गः सहसवावशप्रमैः । शतपश्चलघुद्वारः सहस्र कचतुःपथः ॥६५॥ कोटिग्रामाभवन्त्यत्रनगरं प्रतिशाश्वताः । बहुखेटमदंबाधा निवेशापच मनोहराः ॥६६॥ नगरादिषु सर्वेषु जिनसिद्धालयाः शुभाः। वनोपवन वाप्याद्याः स्युस्तुमसौषपंवत्यः ॥१७॥ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ ] सिद्धान्तसार दीपक प्रागजितमहापुण्याविधेशाश्चारुलक्षणाः । धर्मार्थादि विधातारो वसन्ति रत्नधामसु ||९८॥ अर्थ:--[विजयाध पर्वत की प्रथम श्रेणी विद्याधरों के (६० + ५०)=११० नगरों से व्याप्त है] प्रत्येक नगर के चारों ओर मरिगयों से खचित स्वर्ण की ईंटों से बनी हुई तथा जल से भरी हुई, एक एक धनुष के अन्तराल से तीन शुभ परि खाएं (खाई) हैं । उन चारों परिवारों के अन्दर भूमितल पर चार धनुष के अन्तर से जिनके शीर्ष पर बुरज व कंगूरे हैं ऐसे स्वर्ण व रत्नमयी ईटों से बने हुए पुर हैं। जिनके चारों ओर शाश्वत उत्त ङ्ग, मेडियों की पंक्तियों सहित चार धनुष चौड़े पृथक् पृथक प्राकार हैं । तीस धनुप अन्तराल से उन ङ्ग, नाना रस्तों से खचित उत्सेध के सदृश चढ़ने के लिए सुन्दर ग्राकार बालो ( सोपान ) सोदियां हैं। दो दो छज्जों के बीच में रत्ल के नोरणों से विभूषित, कपाट युगलों से अलंकृत, ५० धनुष ऊँचे और २५ धनुष विस्तृत गोपुरद्वार हैं। इन सब को प्रादि लेकर और अनेक प्रकार की रचनाओं से युक्त तथा पूर्व दिशा को प्रोर हैं मुख जिनके ऐसे दक्षिणोत्तर बारह योजन लम्बे और पूर्व पश्चिम ६ योजन चौडे. समस्त नगर स्त्रगंपुरी के सदृश शोभायमान होते हैं ॥८७-६४।। यहाँ के प्रत्येक नगर एक हजार गोपुर द्वारों से. पांच सौ लघुद्वारों से, एक हजार चतुःपथों, बारह हजार मार्गी, करोड़ों ग्राम, बहुखेट एवं मटंब आदि को रचनाओं से मनोहर हैं ।।६५-६६॥ यहां के समस्त नगरों में जिनेन्द्र भगवान् एवं सिद्ध भगवान के शुभ मन्दिर हैं तथा वन, उपवन, वापी आदि एवं ऊँचे ऊँचे महलों की पंक्तियाँ हैं। पूर्वोपार्जित महान् पुण्योदय से सुन्दर लक्षणों से युक्त विद्याधर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पुरुषार्थों को करते हुये यहां रत्नों के महलों में रहते हैं ।।६७-६८।। विजयाध को द्वितीय श्रेणी का वर्णनः द्वितीयमेखलायां चाचलस्योमयपाश्र्वयोः । प्रतोली 'वेदिकाढधानि जिनालयान्वितानि च ६६|| कल्पद्रुमादियुक्तानि पुराणि सन्त्यनेकशः । सौधर्मशानयोराभिर्योगिकानां सुधाभुजाम् ॥१०॥ अर्थः-विजयार्ध पर्वत की द्वितीय श्रेणो के दोनों पार्श्व भागों में प्रतोली और वेदिका आदि से सहित, जिनालयों से समन्वित तथा कल्पवृक्षों से युक्त अनेक नगर हैं। जिनमें सौधर्म ऐशान इन्द्रों के पाभियोग (बाहन) जाति के देव निवास करते हैं ।।९-१०॥ अब विजया के शिखर पर स्थित नव अटों के नाम एवं उनके विस्तार आदि का प्रमाण कहते हैं: १. प्रतोल्या ज. Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमोऽधिकारः [ १४६ शिखरेऽस्यातिरम्याणि नवकूटान्यमून्यपि । सिद्धायतन कूटं च दक्षिणार्धक नामकम् ॥१०॥ कूटं खण्डप्रपातास्यं पूर्णभद्रसमाह्वयं । विजयार्धाभिधं माणिभद्र तिमिस्रसंज्ञकम् ।।१०२।। उत्तराख्यिकं वश्रवणं कूटान्यमून्यपि । नवोन्नतानि सक्रोशयोजन: षट्प्रमाणकः ॥१०३॥ मूलेऽमीषां च गव्यूत्यषड्योजन सम्मिताः। मध्येसार्धद्वि गव्यूत्यनचतुर्योजनप्रमः ॥१०४॥ व्यासोस्ति नवकूटानांमूनित्रियोजनप्रमः । प्रादौ च परिधिविशतियोजनश्चसम्मिता ।।१०।। मध्येतुल्या च किञ्चिन्यूनपञ्चदशयोजनः । मस्तके योजनानां सविशेषा नवसंख्यकाः ॥१०६।। अर्थ:-विजया, पर्वत के शिखर पर अत्यन्त रमणोक नौ कूट हैं। उनमें सब कूटों के (पूर्वदिवा को प्रोर से) प्रथम सिद्धायतन वृट, २ दक्षिणार्ध ( भरत ) कूट, ३ खण्डप्रपात, ४ पूर्णभद्र, ५ विजयार्धक्ट ६ माणिभद्र, ७ तिमिश्र, ८ उत्तरार्ध ( भरत ) कूट और (पश्चिम दिशा के अन्त में , गैश्रवण नाम का क्ट है । ये सभी कूट ६४ योजन ऊँचे, मूल में ६ योजन, मध्य में पढ़ाई कोस सहित ४ योजन और शिस्त्रर पर तीन योजन प्रमाग चौड़े ( एवं लम्बे ) हैं। इन नब बू.टों को प्रथम परिधि (कुछ कम) बोस योजन प्रमाण, मध्यम परिधि कुछ कम पन्द्रह योजन प्रमाण और मस्तक पर कुछ अधिक नौ योजन प्रमाण मानी गई है ॥१०१-१०६।। सिद्धायतन कूट का वर्णनः . क्रोशायामो जिनेन्द्राणां क्रोशार्धविस्तरान्वितः । चैत्यालयश्चपादोनकोशोत्तङ्गः स्फुरत्प्रभः ॥१०७।। मरिणस्वर्णमयबिम्बंदिव्योपकरणः परः । प्राकारतोरणाना मण्डपाधरलंकृतः ॥१०॥ सङ्गोतनाट्यशालाभिषेकक्रोउनसद्गृहै । मणिमुक्ताफलस्वर्णमालाजालेश्चशोभितः ।।१०।। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० ] सिद्धान्तसार दोपक घनोपवन केत्वाधर्मङ्गलद्रव्यमूतिभिः । भासमानोऽस्ति सिद्धायतन'कूटोमनोहरः ॥११०।। अर्थः-विजया पर्वत के अग्रभाग पर पूर्व दिशा की ओर जिनेन्द्र भगवान का सिद्धायतन नाम का एक चैत्यालय है । जो दैदीप्यमान प्रभा से युक्त, एककोस लम्बा, अर्धकोस चौड़ा और (पौन) कोस ऊँचा है । वह मन को मोहित करने वाला सिद्धावतन कूट मरिण एवं स्वर्ण बिम्बों से समन्वित, कोट, नाना प्रकार के तोरण द्वार तथा मण्डप प्रादि से अलंकृत, सङ्गीतशाला, नाटयशाला, अभिषेक गृह एवं उत्तम कीड़ागृह आदि से व्यान, मरिणयों, मुक्ताफलों और स्वर्ण मालाओं के समूहों से सुशोभित वन, उपवन आदि से वेष्टित और ध्वजा आदि मङ्गलद्रव्य रूपी विभूति से भासमान है ।।१०७-११०॥ अवशेष कूटों के स्वामी: शेष कूटस्थसौधेषु वसन्ति व्यन्तरामराः । स्व-स्वकूटोत्थ नामाढपा विश्वेषु दीप्तिशालिषु ॥१११॥ अर्थ:-अवशेष समस्त कूटों पर स्थित अपनी दीप्ति से मनोहर भवनों में अपने अपने कूटों के सदृश नाम वाले ध्यन्तर देव रहते हैं ॥१११।। विजयाधं सम्बन्धी वनों का विवेचन चार श्लोकों द्वारा करते हैं: वन द्विकोशविस्तीर्ण नाना माङ्कितं महत् । पूर्वापरान्धिपर्यन्तं स्यावस्योभयपाश्र्वयोः ।।११२।। द्विकक्रोशोन्नतापञ्चशतचापसुविस्तृता । बहुतोरणयुक्तात्र' दीप्तास्तिवनवेविका ॥११३॥ धनमध्येपुराणिस्पर्यन्तराणां महान्ति च । सप्तभूमियुतोत्तुङ्ग रत्नधामाखितान्यपि ॥११४।। चैत्यालययुताम्युसचः शालाधलंकृतानि । इत्येषा वर्णनात्ररावतरूप्याचले भवेत् ।।११५।। मर्थ:--विजया पर्वत के दोनों पार्श्व भागों में पूर्व समुद्र से पश्चिम समुद्र पर्यन्त अर्थात् पर्वतों के बराबर ही लम्बे, दो कोस चौड़े और नाना प्रकार के वृक्षों से संयुक्त महान धन हैं । ये दोनों वन दो कोस ऊँची, ५.०० धनुष चौड़ी, नाना तोरणों से युक्त और प्रकाशमान वनवेदिका से विभूषित है। १. कूटे अ. ज. न. २. दीपा अ. Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमोऽधिकारः [१५१ उन वनों के मध्य में सात तलों वाले, उत्त ङ्ग, रत्नमयगृहों से व्याप्त, चैत्यालयों से विभूषित और ऊचे ऊँचे कोटों प्रादि से अलंकृत व्यन्तर देवों के श्रेष्ठ नगर हैं। जैसा वर्णन भरतक्षेत्र स्थित विजयाध का किया गया है वैसा ही ऐरावत क्षेत्र में स्थित विजयाध पर्वत का जानना चाहिये ।।११२-११५॥ भरत क्षेत्र के छह खण्ड और आर्यों के स्वरूप का अवधारण करते हैं: प्रखिलं भारतं क्षेशं षट्खण्डीकृतमादिमम् । गङ्गासिन्धुनदोम्यांस्थाद्विजयार्धाचलेन च ॥११६॥ कृप्या दक्षिणे भागेश तरे लबणाम्बुधैः । गङ्गासिन्धुयोर्मध्येऽस्त्यार्य खण्डं शुमाकरम् ॥११७॥ यत्रार्याः स्वर्गमोक्षादीन साधयन्तिलपोबलात् । स्वमुक्तिश्रीसुखाधारमार्यखण्डं तदुत्तमम् ॥११॥ अर्थ:-विजया पर्वत और मङ्गा सिन्धु इन दो नदियों के द्वारा समस्त भरतक्षेत्र के छह खण्ड होते हैं । इनमें विजया के दक्षिण में, लवण समुद्र के उत्तर में और गङ्गा सिन्धु इन दोनों नदियों के मध्य में शुभक्रियाओं का प्राकर प्रार्य खण्ड है। स्वर्ग लक्ष्मी और मुक्ति लक्ष्मी के सुख का प्राधार यह उत्तम प्रार्य स्खण्ड ही है, अतः यहां आर्य जन अपने तपोबल से स्वर्ग और मोक्ष का साधन करते हैं ।।११६-११८|| म्लेच्छरखण्डों को अवस्थिति एवं म्लेच्छों का स्वरूप कहते हैं: तस्यपूर्वे परे भागे भरतार्थेऽचलोत्तरे । स्पः पञ्चम्लेच्छखण्डानि धर्माचारातिगानि च ॥११६॥ धर्मकर्मबहिता म्लेच्छानीचकूलान्विताः । वसन्तिविषयासक्तास्तेषुदुर्गतिगामिनः ॥१२०॥ अर्थः—ार्य खण्ड के पूर्व-पश्चिम भाग में, अर्ध भरत क्षेत्र में विजया की उत्तर दिशा में धर्म आचरण से रहित पाँच म्लेच्छखण्ड हैं। जिनमें धर्म कम से बहिर्भूत, नीचकुल से समन्वित, विषयाशक्त और दुर्गति जाने वाले म्लेच्छ जीव रहते हैं ।।११६-१२०॥ आर्यखण्ड में अयोध्यानगरी की अवस्थिति कहते हैं: आर्यखण्डस्य मध्ये स्याद्गङ्गासिन्नोस्तदन्तरे । अयोध्यानगरी चक्रवति भोग्या परा भवेत् ॥१२१।। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ ] सिद्धान्तसार दीपक अयोध्यालवराम्बुध्योर्मध्येऽर्धचन्द्रसत्रिभः । नानाजलचराकोर्णोपसमुद्रोस्तिघोमिभाक् ॥१२२॥ अर्थ:- : -- गङ्गा-सिन्धु नदियों के अन्तराल में श्राखण्ड है और श्राखण्ड के मध्य में चक्रवर्ती राजाओं के द्वारा भोग्य श्रेष्ठ अयोध्या नगरी है, तथा प्रयोध्या और लवगासमुद्र के मध्य में नाना प्रकार के जलचर जीवों से की और कल्लोल मालाओं से व्याप्त अर्धचन्द्र के सदृश एक उपसमुद्र है ।। १२१ - १२२ ।। म्लेच्छखण्ड के मध्य में स्थित वृषभाचल के स्वरूप का निरूपण करते हैं:उत्तरे भारते क्षेत्रे म्लेच्छखण्डे च मध्यमे । योजनानां शतोत्सेधो मूले शतं कविस्तृतः ।। १२३॥ विस्तीर्णो मध्यभागे स्यात् पञ्चसप्ततियोजनः । पञ्चाशद्योजनव्यासो मस्तके शाश्वतो महान् ।। १२४ ॥ गतच शनामधिश्चितो जिनालयाङ्कितः । वनतोरणसद्वेदी नानाभवन भूषितः ॥ १२५ ॥ । वृत्ताकारो हि चक्रे शगर्षहृद् वृषभाचलः । ऐरावतेऽप्ययं श्रेय ईवृशोऽद्रिः स्फुरत्प्रभः ।। १२६ । श्रर्थः - उत्तरभरत क्षेत्रस्थ मध्यम म्लेच्छखण्ड के मध्य में चक्रवर्तियों के मान को मर्दन करने वाला वृत्ताकार एक वृषभाचल पर्वत है । जो १०० योजन ऊँचा, मूल में १०० योजन विस्तृत, मध्य ७५ योजन विस्तृत और शिखर पर ५० योजन विस्तृत, तथा भूतकालीन चक्रवर्तियों के नाम समूह से व्याप्त जिनालय से अलंकृत, वन तोरणद्वार उत्तमवेदी एवं अनेक भवनों से विभूषित, अकृत्रिम श्रौर महान है ।।१२३-१२६॥ जघन्य भोगभूमि का स्वरूपः- हिमवन्तमथोल्लङ्घय क्षेत्र हैमवताह्वयम् । दशधा कल्पवृक्षादय' जघन्यं भोगभूतलम् ।। १२७॥ मद्यवाद्याशदीपांगा वस्त्रभाजनदामदाः । ज्योतिर्भूषागृहांगाश्चदशधाकल्पशाखिनः ॥१२८ ।। पात्रदानफलेनं ते तत्रोत्पन्नार्थदेहिनाम् । दक्षतेवशधाभोगान् सारान्सङ्कल्पितान्परान् ॥ १२६ ॥ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमोऽधिकार : [ १५३ अर्थः-हिमवान् पर्वत का उल्लसन करने पर हैमदत नाम का क्षेत्र प्राप्त होता है, जिसमें शाश्वत जघन्य भोगभूमि है । जिसका भूमितल निरन्तर दशप्रकार के कल्पवृक्षों से व्याप्त रहता है। पात्र दान के फल से जो जीव यहाँ उत्पन्न होते हैं, उन पार्यों को १ मद्य (पानाङ्ग), २ वाद्य (तूर्याङ्ग), ३ अन्न (पाहाराङ्ग), ४ दीपाङ्ग, ५ वस्त्राङ्ग, ६ भाजन (पात्राङ्ग) ७ दाम (पुष्पाङ्ग), ८ ज्योतिरङ्गा ९ भूषणाङ्ग और १० गृहाङ्ग ये दस प्रकार के कल्पवृक्ष संकल्प मात्र से दस प्रकार के उत्तम भोग देते हैं 1.२७-१२६ नाभिपर्वतों के नाम, प्रमाण, स्थान एवं स्वामी ग्रादि का वर्णन करते हैं: शब्दवान प्रथमो नाभिगिरिविकृतिवास्ततः । गन्धवान माल्यवानेते चत्वारो नाभिपर्वताः ॥१३०॥ सहस्रयोजनोत्सेधावृत्ताः सर्वत्र सक्षिभाः। सहस्रयोजनव्यासावनवेद्याविभूषिताः ॥१३१।। प्रत्येकं मूर्धिनचैतेषांजिनेन्द्रभवनाङ्कितम् । सप्तमूम्युन्नतः सौधर्वनवेदीसुतोरणः ॥१३२॥ यतं स्यान्नगरं रम्यं व्यन्तराणां च शाश्वतम् । क्षेत्र हैमवते शब्दवानाद्यो नाभिपर्वतः ।।१३३॥ शब्दवान्नाभिशेलान पुरे राजामराचितः।। स्वातिनामाऽमरोमान्यः पत्यकायष्क जितः ॥१३४॥ स्यादरिक्षेत्रमध्येविकृतिवान्नाभिसदगिरिः। तदद्रिस्थपुरेराजारुणप्रभामरोमहान् ॥१३५॥ रम्यकक्षेत्रमध्येस्याद्गन्धवान्नाभिपर्वतः। तन्मूर्धस्थपुरेभूपः पमप्रभाह्वयः सुरः ॥१३६।। स्या रण्यवतेवर्षेशैलो नाम्ना हि माल्यवान् । तदग्रस्थपुरे स्वामी प्रभासाख्योऽमरोऽद्भुतः ॥१३७।। ततोमहाहिमाद्रि चोल्लध्यकल्पद्रुमाश्रितम् । तृतीयं हरिसत्क्षेत्रां मध्यम भोग-भूतलम् ।।१३८।। अर्थ :-( शरीर के मध्य नाभि के सदृश जो पर्वत क्षेत्र के ठीक मध्य में स्थित रहते हैं उन्हें नाभिगिरि कहते हैं }। शब्दवान्, विकृतिवान्, गन्धवान् और माल्यवान् ये चार नाभि पर्वत हैं । वन एवं वेदो प्रादि से विभूषित ये वृताकार ( मोल ) पवंत १००० योजन ऊँचे और १००० योजन चौड़े Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ ] सिद्धान्तसार दीपक हैं । प्रत्येक नाभि पर्वतों के शिखर पर व्यन्तरदेवों के वन वेदी से बेष्टित, उत्तम तोरणों से युक्त, अत्यन्त रमणीक एवं शाश्वत नगर हैं, जो जिन चैत्यालयों से अलंकृत और सात तल ऊँचे श्रेष्ट भवनों से युक्त हैं । हैमवत् क्षेत्र के मध्य में प्रथम शब्दवान् नाम का नाभिपर्वत स्थित है। उस शब्दवान् नाभिपर्वत के शिस्त्र र पर स्थित नगर का राजा ( हजारों) देवों से पूजित और एक पल्य को उत्कृष्ट मायु वाला स्वाति नाम का देव है ।। १३०-१३४॥ हरिक्षेत्र के मध्य में विकृति (बिजटा) वान् नाभिगिरि अवस्थित है, जिसके शिखर पर स्थित नगर का राजा अरुणप्रभ नाम का श्रेय देव है। रम्यक क्षेत्र के मध्य में गन्धवान् नाम का नाभिगिरि पर्वत है, जिसके शिखर पर स्थित नगर का राजा पद्मप्रभ नाम का देव है। इस प्रकार र पा लेग य में सित माल्यवान नाभिगिरि है जिसके शिखर पर स्थित नगर का स्वामी प्रभास नाम का अद्भुत बलशालो देव है ।।१३५-१३७।।। महाहिमवान् पर्वत के बाद जो हरि नाम का तृतीय क्षेत्र है, उसमें शाश्वत मध्यम भोग भूमि है और उसकी भूमि निरन्तर कल्पवृक्षों को आश्रय देतो है। मर्यात् कल्पवृक्षों से व्याप्त रहती है ।। १३८॥ विशेषार्थ:-जम्बूद्वीप में भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत नाम के सात क्षेत्र हैं, जिनमें भरतरावत क्षेत्रों के मध्य में विजया (नाभिगिरि) पर्वत स्थित हैं और इन दोनों क्षेत्रों के प्रार्यखण्डों में काल परिवर्तन के निमित्त से अस्थिर भोगभूमियों की और कर्म भूमि की रचना होती रहती है । म्लेच्छखण्ड शाश्वत रहते हैं। हैमवत और हैरण्यवत इन दो क्षेत्रों के मध्य में क्रमश: शब्दवान् और माल्यवान् नाभिगिरि अवस्थित हैं, तथा इन क्षेत्रों में शाश्वत जघन्य भोगभूमि की रचना है । हरि और रम्यक इन दो क्षेत्रों के मध्य में कम से विकृतिवान् और गन्धवान् नाभिगिरि अवस्थित हैं, तथा इनमें शाश्वत मध्यम भोगभूमि की रचना है। विदेह क्षेत्र के मध्य में सुदर्शन मेरु नाभिगिरि अवस्थित है। इस क्षेत्र में देव कुरु, उत्तरकुरु, नाम की शाश्वत उत्तम भोगभूमियों के साथ साथ अन्य ३२ विदेह शाश्वत कर्मभुमि की रचना से युक्त हैं । विदेह क्षेत्र का सम्पूर्ण वर्णन अागे छठवें अधिकार में किया जा रहा है। अब इस अधिकार का संकोच करते हैं :--- एते सद्भरतादयोत्र विधिना वर्षास्त्रयो वरिणताः, व्यासाचैश्च यथा तथा बुधजन रैरायताद्यास्त्रयः । शेयाः कर्मसुभोगभूमिकलिता आर्येतरार्धश्रिताः, पुण्यापुण्यफलप्रदाबहुविधाः सर्वज्ञदग् गोचराः ॥१३॥ अर्थः--इसप्रकार सर्वज्ञप्रभु के ज्ञानगोचर होने वाले भरत आदि तीन क्षेत्रों के व्यास प्रादि का उपर्युक्त विधि के अनुसार जैसा वर्णन किया है वैसा ही ज्ञानीजनों के द्वारा ऐरावत आदि तीन क्षेत्रों का भी जान लेना चाहिये। अनेक प्रकार के पुण्य और पाप के फल को प्रदान करने वाली ये कर्मभूमियाँ एवं भोगभुपियाँ पार्य जनों से एक अन्य जनों से निरन्तर ध्यान रहती हैं ॥१३६॥ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 पञ्चमोऽधिकारः अधिकारान्त मङ्गलाचरणः सर्वज्ञान श्रीगणेशान् श्रुतसकलकृतः संयतान्विश्ववन्द्यान्, पञ्चाचारादि भूषांस्त्रिभुवन महितान् पाठकान् ज्ञातविश्यात् । प्राप्तान्सर्वांगपारं त्रिकसमयसूयोगप्रदीप्तादि सर्वेः, सारैर्युक्तांस्तपोभिस्त व समगुरपसिद्धषं च साधून् नमामि ॥ १४० ॥ इति सिद्धान्तसारदीपक महाग्रन्थे भट्टारक श्रीसकल कीर्ति विरखिते चतुर्दशमहानदी, विजयार्थ, वृषभाद्रि नाभिगिरि वर्णनोनाम पञ्चमोऽधिकारः ॥ ५ ॥ [ १५५ -- अर्थः- विश्ववन्दनीय सर्व अरहन्तों को, द्वादशांग की रचना करने वाले मरणधरदेवों को, संयम एवं पञ्चाचार से विभूषित जगत् पुज्य प्राचार्यों को, द्वादशांग के पार पहुँच कर प्राप्त किया है समस्त तत्त्वों का ज्ञान जिन्होंने ऐसे उपाध्यायों को तथा तीनों समयों ( ऋतुनों) में उत्तम प्रतापन पादि योगों एवं उम्र और दीप्त आदि सारभूत सर्व तपों को धारण करने वाले साधु परमेष्ठियों को मैं उन अनुपम गुणों की सिद्धि के लिये नमस्कार करता हूँ || १४० ॥ इस प्रकार भट्टारक सकलकोति विरचित सिद्धान्तसार दीपक नाम महाग्रन्थ में चौदह महानदियों, विजयाधों, वृषभाचलों और नाभि गिरि पर्वतों का वर्णन करने वाला पांचवां || अधिकार समाप्त ॥ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठोऽधिकारः मंगलाचरण एवं प्रतिज्ञाः-- विवेहस्थान जिनेन्द्रादीन् प्रणम्य परमेष्ठिनः । तन्मूादीश्च वक्ष्येऽहं विदेहक्षेत्रमुत्तमम् ॥१॥ अर्थः-विदेह क्षेत्रों में स्थित विद्यमान तीथडुरों को, उन [ग्रहन्तों की प्रतिमानों को तथा पञ्चपरमेष्ठियों को नमस्कार करके मैं उत्तम विदेह क्षेत्र को कहूँगा। अर्थात् विदेह क्षेत्र का विस्तार पूर्वक वर्णन करूंगा ।।१।। विदेहक्षेत्रस्थ सुदर्शन मेरु का सविस्तार बर्गन:-- तस्यमध्ये महामेरुः सुदर्शनाह्वयोमहान् । नवाधिकनवत्या चोच्छुितःसहस्रयोजनैः ॥२॥ योजनानां सहस्र ककन्दस्त्रिक्षण' अजितः । विचित्राकारसंस्थानोनाभिवद्भाति सुन्दरम् ।।३।। सहस्रपोजनैवज्रमयश्चित्राधरान्तगः । नानारत्नमयो मध्ये स्यादेकषष्टिसम्मितः ।।४।। सहस्रयोजनश्चाग्रेशातकुम्ममयोगिरिः । नित्यो दीप्तोयमत्राष्टत्रिंशत्सहस्रयोजनः ।।५।। अर्थ:-विदेह क्षेत्र के मध्य में मुदर्शन नाम का एक श्रेष्ठ महामेरु है, जो ६६००० योजन ऊंचा, १००० योजन को जड़ वाला, अनादिनिधन, श्रेष्ठ. सुदर और नाना प्रकार के आकारों से युक्त तथा जम्बूद्वीप की नाभि के सदृश शोभायमान होता है । यह सुमेरु पर्वत चित्रा पृथ्वी के अन्त पर्यन्त अर्थात् मूल में एक हजार योजन प्रमाग वन्नमय, मध्य में इकसठ हजार योजन पर्यन्त अनेकों रत्नमय और अग्रभाग में ३८००० योजन पर्यन्त देदोप्यमान स्वर्गमय एक अकृत्रिम है ॥२-५॥ १. निकाले २. दीनो अ. ज.मे. Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठोऽधिकारः [ १५७ अस्य विस्तर व्याख्यानं बालावबोधाय संस्कृतभाषया वक्ष्ये: चित्रावनि मित्वा स्थितस्य मेरोः कन्दतले व्यासः नवत्यधिकदशसहस्रयोजनानि योजनकादशभागीकृतानां दशभागाः, परिधिश्चकत्रिंशत्सहस्रनत्रशतदशोत्तरयोजनानि योजनकदशभागानां साधिको द्वौ भागौ। ततः क्रम हासेन पृथ्वोतलेऽस्य विस्तार: दशसहययोजनानि, परिधिश्चक त्रिंशत्सहस्रषट्शतकिञ्चिदूनत्रयोविंशतियोजनानि । ततः क्रमहान्या' तस्य पार्यो पञ्चशतयोजनान्यूचं गत्वा पञ्चशतयोजन विस्तृते नानापादपाद्याको सुन्दरं नन्दनायं वनं विद्यते । तत्र नन्दनबनसहित मेरोहिये विष्कम्भः नवसहस्रनवशतचतुःपञ्चाशद्योजनानि, योजनकादशभागानां षड्भागाः, परिधिश्चक विशत्सहस्रचतुःशतकोनाशीतियोजनानि । नन्दनवनादृते मेरोरभ्यन्तरे व्यासः अष्टसहस्रनवरातचतुःपंचाशयोजनानि योजनकादशभागानां षड्भागा, परिधिश्चाष्टाविंशतिसहस्रविशतषोडशयोजनानि, योजनकादशभागानां षड्भागाः, तलोस्य साद्विषष्टि सहयोजनान्यूर्व भाग मुम्वा तृतीयं सौमनसाख्यं वनं स्यात् । तेषां सार्ध द्विषष्टिसहस्रयोजनानां मध्येऽयं मेरुः एकादशसहस्रयोजन पर्यन्त समधार्ग ऋजुर्भवति । ततः महान्या साधैंक पञ्चाशत्सहस्रयोजनपर्यन्तमेष ह्रस्वोऽस्ति। तत्र पञ्चत्रातयोजनविस्ततं तदनं मुक्त्वाऽस्याभ्यन्तरे विष्कम्भः द्विसप्तत्यधिकद्वात्रिंशच्छतयोजनानि, योजनै कादशभामानामष्टी भागाः, परिधिश्व नवसहस्रनवशतचतुवतियोजनानि, पोजनकादशभागानां षट्भागाः । ततोऽस्म पत्रिंशत्सहनयोजनान्युमितिकम्य चतुवित्यग्रचतुःशतग्रोजनबिस्तारं चतुर्थं पाण्डुकवनं स्यात् । तेषां षड्विशत्सहस्रयोजनानां मध्येऽयं एकादशसहस्रयोजनपर्यन्तं हानिवृद्धिरहितः सर्वत्र सद्शोऽस्ति । ततः क्रमहान्या पञ्चविंशतिसहनयोजनान्तं ह्रस्यो भवति । तत्रास्य मस्तके वनाङ्किते विस्तृतिः सहस्रयोजनानि परिधिश्च किचिवग्न द्वि षष्ट्यधिक विशच्छतयोजनानि ! तस्य शिरोमध्यभागे चत्वारिशद्योजनोन्नता, मूले द्वादशयोजनव्यासा, मध्येऽष्ट योजनविस्तीर्ण मूनि चतुर्योजन विस्तृतावैडूर्य रत्तमयी उत्तरकुरुभोगभूमिजार्य बालान्तरेगा सौधर्म स्वर्गस्याद्यपटलस्थ: । मृजुविमानमस्पृशती चूलिकास्ति । __ मेरोः पूर्वापर दिग् भागयोः प्रत्येक द्राविशतिसहस्रयोजनायाम, दक्षिणोतरे सार्धद्विशतयोजन. विस्तृत नानापादाको रम्यं भूतले भद्रशालारूपं वनं स्पात् । तत्रास्य च सुदिक्षु नानाविभूतिकलिताचत्वारः श्री जिनालयाः सन्ति । तथा नन्दन सौमनसपाण्डुरुवनानाम् प्रत्येक चत्वारश्चैत्यालयाभवन्ति । अमीषां चैत्यालयानां ध्यासेनाने व्याख्यानं करिष्यामि । नन्दनवनेऽस्य शान्यां दिशिशतयोजनोच्छ्रितं, मूलेशतयोजन विस्तृत, मस्तके पञ्चाशद्योजन विष्कम्भं नानारत्नमयं बलभद्रनामक्ट स्यात् । तस्योपरि बिचित्रपाकारगोपुरवनादि भूषितानि पुराणि सन्ति । तेषु प्रभुय॑न्त रामरो बलभद्राख्यो वसति । तस्मिन्नन्दनेवने मशिसंज्ञचारणाहयगन्धर्वाख्य चित्रनामानि, पञ्चाशद्योजनोत्सेधानि, विशयोजनायामविष्कम्भानि, नानामरिणविचित्रितानि मेरोश्नतुर्दिक्ष चत्वारि भवनानि सन्ति । तेषु प्रत्येक रूपलावण्यादिभूषिताः सार्ध त्रिकोटिप्रमा दिवान्यावसन्ति । १. क्रमहान्यतस्य प्र. ज. न.। २. अष्टो भागा अ. ज. न. । ३. मुः विमान अ. अ. न. Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ ] सिद्धान्तसार दीपक तेषां गृहाणां पतय: रक्तकृष्णस्वर्णाभश्वेतवस्त्राचलंकृताः देववृन्दान्विताः लोम-यम-वरुण-कुवेराह्वयाः लोकपाला भवेयुः । बज्रायवज्रप्रभसुवर्णसुवर्णप्रभनामानि पञ्चविंशति योजनोत्सेधानिपञ्चदशयोजनायाम विस्तरारिण चत्वारिगृहाणि सौमनस बने मेरोश्चतुदिक्ष भवन्ति । __लोहिताजनहारितपाण्डुराजयानि सार्धद्वादशयोजनोन्नतानि मा सम्योजनदी विस्तृतानि वरसिंहासनपल्यादि सहितानि, पञ्चवर्णरत्नमयानि चत्वारि भवनानि पाण्डुकवनेऽस्य पूर्वादिदिक्चतुष्टये सन्ति । एतेषु अष्टभवनेषु प्रत्येक सार्वत्रिकोटि दिक्कुमार्यो वसन्ति । अमीषामष्टगृहाणां स्वामिनोजिनबिम्बाडितशेखराः देववृन्दावताः, रक्तकृष्णस्वर्णाभश्वेत वस्त्र नेपथ्याचलंकृताः, स्वयंप्रभारिष्टजलप्रभवर्गप्रभविमानवासिनः सोमयमवरुणकुवेराख्याः सौधर्मशान सम्बन्धिनो विख्याता लोकपालाभवन्ति । सोमबरुणयोरायुः सार्द्ध पल्यद्वयं स्यात् । यमकुवेरयोरायुः पादोनपल्यत्रयं च । तव नन्दनबने पूर्व दिक चैत्यालयस्य पाश्र्चयोयोः नन्दनमन्दराख्ये द्वे कुटे भवतः । दक्षिण दिगभागस्थजिनालयस्य द्वि पाश्वयोः निषध हिमवत्संज्ञे कटे वे स्तः। पश्चिमदिम् चैत्यालयस्योभयपालयोः रजतरुचकाह्वये द्वे कूटे स्याती। उत्तरदग्जिनालयस्य द्वयोः पाश्र्वयोः सागरवनाभिधे कूटे भवतः । अमीषामष्टकटानां उदयः पञ्चशतयो जनानि, भूध्यासः पञ्चशत योजनानि, मध्यविस्तारः पञ्चसप्तत्यधिक त्रिशतयोजनानि, मुख विष्कम्भः सार्धतिशतयोजनानि । शिखरे च क्रोशायामाः, अर्धक्रोशविस्तृताः पादोनकोशोन्नता नानारत्न मयाः दिग्बधूनां प्रासादा भवन्ति । तेषु प्रासादेषु मेघङ्करा-मेघवती-सुमेघा. मेघमालिनी-तोयन्धराविचित्रा-पुष्पमालिन्यनन्दिताख्याः, दिक्कुमार्यों वसन्ति। एवं सर्वकूट दिग्वधूप्रासादानन्दनवनवत्सौमनसबने भवन्ति । मेरोराग्नेयदिग्भागे उत्पला-कुमुदा-नलिन्यु-त्पलोज्ज्वलाऽह्वयाश्चतस्रो वापिका भवेयुः । नैऋत्यदिशि भृङ्गा-मृङ्गनिभा-कज्जला-कज्जलप्रभाख्याश्चतस्रो वाप्यः सन्ति । वायुदिग्भागे श्रीभद्रा'श्रीकान्ताधीमहिताश्रीनिलयाभिधावापिकाः स्युः । ऐशानी दिशि नलिनी-नलिन्यूमि-कुमुदा-कुमुदप्रभासंज्ञाश्चतस्रो वाप्यो भवन्ति । एतामणितोरण बेदिकादि मण्डिता, विचित्ररत्नसोपानाः, पञ्चाशद्योजनायामाः, पञ्चविंशतियोजन विस्तृताः, दशयोजनावगाहाः, चतुष्कोणाः षोडश वाप्यो हंस-सारस-चक्रवाकादि बानेस्तरां विभान्तिस्म । तासां सर्वासां वापीनां मध्य भागे साद्विषष्टियोजनोत्सेधाः, क्रोशाधिकत्रिंशद्योजनायामविस्ताराः, सिंहासनसभास्थानायलंकृताः, द्विक्रोशावगाहा, रत्नमयाः प्रासादाः सन्ति। तेषु आग्नेय १. श्रीप्रभा न. Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ বীথিকাৰ: [ १५६ नैऋत्य दिकस्थित प्रासादेषु सौधर्मेन्द्र स्वामी लोकपालादि देव शचीभिः समं विविधा क्रीडा करोति । वायव्येशान दिग्भागस्थ गेहेवैशानेन्द्रः पतिः देव्यादिभिश्चमुदा क्रीडति । यथारनन्दनबनेशपीप्रासादाः सौधर्मशानेन्द्रयोगिता. तथोक्तक्रमेणकापीप्रासादाः सर्वे सौमनसबनेऽपि भवन्ति नात्रकश्चितिशेपः । पाण्डुकवने चूलिकायाः प्रदक्षिणं ऐशानादि विदिक्षुशत योजनायामाः पञ्चाशद्योजनविस्तीर्णाः अष्टयोजनोन्नताः अर्धचन्द्रोपमाः रत्नतोरणवेदिकाद्यलंकृताः स्वस्वक्षेत्रसन्मुखाः स्फुरत्त जोमयाः पाण्डुकशिलाद्याश्चतस्रोदिभ्याः शिलाः सन्ति । तासामाद्या स्वर्णवर्णा पूर्वापरदीर्घा भरतक्षेत्रोत्पन्नतीर्थकराणां जन्मस्नान पीठिका पाण्डुकशिला भवति। द्वितीया अर्जुनच्छाया दक्षिणोत्तरदोर्घा अपरविदेहज जिनेंद्वारणां अन्माभिषेक पीठिका पाण्डु कम्मलाच्या प्राग्ने यदिशि शिलास्ति ! तृतीयातपनीयनिभापूर्वापरदीर्घा, ऐरावतवर्षज तीर्थकृज्जन्माभिषेकनिबद्धा रक्ताह्वया नैऋत्यदिग्भागे शिला स्यात् । चतुर्थीपद्मवर्णा दक्षिगोत्तरदीर्घा पूर्व विदेहजातश्री जिनानां जन्मस्नानहेतुभूतावाधुदिमागे रक्तकाम्बलास्थाशिलाविद्यते । प्रासां चतुः शिलानामुपरिप्रत्येक स्फुरद्रत्नमयानि श्रीणि सिंहासनानि भवन्ति । तेषां सिंहासनानां मध्यस्थ सिंहासन पञ्चशतधनुस्त्तु गं, पञ्चशतचापभूविस्तृत साध द्विशतदण्डानन्यासं तीर्थकृतां जन्माभिषेकस्थित्यं स्यात् । दक्षिण दिग्भागस्थितं सिंहासनं जिनाभिषेक समये सौधर्मेन्द्रस्योपवेशनाय भवति । उत्तरदिशास्थहरिविष्टरं तीर्थ कृज्जन्माभिषेचनसमये ऐशानेन्द्रस्य संस्थितयेऽस्ति। घण्टासिंहनाद शङ्खस्वरभेरीध्वानासन कम्पनादि चिन्हैजिनोत्पनि विज्ञायकल्पवासिज्योतिष्कभवनवासिव्यन्तरवासवाः, परया भूत्या छत्र ध्वज विमानाद्य नभोगणमाच्छादयन्त:, नाना पटहादिध्यानर्वधिरीकृत दिग्मुखाः, तोर्याउनन्माभिषेकोत्सवाय सानन्दाः, धर्मरागरसोत्कटा मेमप्रति स्वस्थानादागच्छन्ति । तस्मिन् जन्माभिषेक समये इंद्राणां मुख्यः सामर: ऐरावतगजेन्द्रारूढः त्रिभिः [तिसृभिः] परिषद्भिः सप्तानोकरचालं कृतः सौधर्मेद्रः स्वर्गादत्रायाति । अस्येन्द्रस्य प्रथमायाम पन्त रायां परिषधि दिव्यरूपानना: प्रहरणाभरणाचलंकृताः, द्वादश लक्षदेवा भवन्ति । मध्यमपरिषदिचतुर्दशलक्षाः सुराः, बाह्यपरिषदि षोडशलक्षनिर्जराः भवेयु । अन्तमध्यबाह्यपरिषदां क्रमेगा रवि-मशि-यदुपामहत्तरमराः सन्ति । वृषभरथतुरंग गजनृत्यानोकगन्धर्वभूत्यनामानि प्रत्येक सप्तसप्तकक्षायुतानि, सप्तानीका नि प्रथमदेवराजस्य पुरो महताडम्बरेण जन्माभिरेक समये ब्रजन्ति । प्राद्य कक्षायां शंख कुन्देन्दु धवलाश्चतुरशीलिलक्षाः वृषभाः गच्छन्ति । अष्टषष्टिलक्षेककोटि वृषभाः जपापुष्पाभाश्च द्वितीय कक्षायां यान्तिस्म । तृतीयानीके नीलोत्पल सन्निभाः षट्त्रिंशल्लक्षत्रिकोटि वृषभाश्च । चतुर्यानीके द्विसप्ततिलक्षषट्कोटिवृषभाः मरकतमरिणवर्णाश्च । पञ्चम्यां कक्षायां कनकनिभाश्चत्वारिंशल्लक्षत्रयोदशकोटिवृषभाश्च । षष्टयां अजनाभाः अष्टाशी तिलक्षषड्विंशतिकोटि वृषभाश्च । सामानीफे किंशुक कुसुमप्रभाः षट् सप्ततिलक्षत्रिपञ्चाशत्कोटिवृषभानजन्ति । ध्वमन्नानापटहादि तुर्यान्तरिताः घण्टाकिंकिणीवरचामरमणिकुसुममालाद्यलंकृताः, रत्नमयमृद्वासनाः, देवकुमारैर्वा हिताः षडधिकशतकोट्यष्टषष्टिलक्षग्रमाः, दिव्यरूपाः सप्तकक्षान्विलाः सर्वे वृषभास्तस्मिन्महोत्सवे व्रजन्ति । Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० ] सिद्धान्तसार दीपक ___ यथैताः द्विगुण द्विगुणसंख्याः सप्तऋषभानीकानां वरिणताः सथाशेषरथादिषडनीकानां समान. संख्याः ज्ञातव्याः । प्राधे अनीके शशितुषाराभाः धवलातपत्रालंकृताः धवलरथाः गच्छन्ति । द्वितीये बडूयंमरिणविनिमितचतुश्चक्रविराजमाना मन्दार कुसुमनिभा महारथाश्च । तृतीये कनकातपत्रचमरध्वजाश्रिताः, निष्टप्तकाञ्चननिर्मितारथाश्च । चतुर्थेमरकतमणिमय बहुचक्रोत्पन्नशब्दगम्भीराः, दूर्वावरथाश्च । पञ्चमे कर्के'तमरिणजालबहुचक्रोत्पन्न सत् स्वराः, नीलोत्पलदलाभारथाश्च । षष्ठे पद्मरागमणिघटित चारुचक्रधराः कमलवर्णाः रथाश्च । सप्तमे अनीके शिखिकण्ठवर्णमणिगणोत्याकरणपिरिताः इन्द्रनीलमणिप्रभाः महारथाः गच्छन्ति । एते सप्त सेनान्विताः, बहुदेवदेवीपूर्णाः, बरचमरछत्रकेतुकुसुममालादिभासमानाः, कक्षान्तरान्तर ध्वनन्नानादेवानका नभस्तलमाच्छादयन्त उत्तु ङ्गाः पृथुरथा जिनजन्माभिषेकोत्सवे शक्रस्य महतापुण्येन पुरः व्रजन्ति । प्रथमायां अश्वसेनायां क्षीराधितरङ्गनिभाः, सितचामरालंकृता धवलाश्वा गच्छन्ति । द्वितीयायां उदयभानुसन्निभाश्चलहरचामरास्तुरङ्गगाश्च । तृतीयायां निष्टलकनकसमखुरोत्थरेणु पिजरिता गोरोचनवर्णा अश्वाश्च । चतुझं मरकतमरिणवर्णाः शीघ्रगामिनोऽश्वा गच्छन्ति । पंचम्यो रत्नाभरणभूषिता, नीलोत्पलपत्राभायाश्च । षष्ठ्यां जपापुष्पवर्णा अश्वाश्च । सप्तम्यां सेनायां इन्द्रनीलप्रभाघोटका यान्ति । एते सप्तसेनान्विताः, नानाभरणभूषिताः, स्वस्वसेनाऽनोत्थवाद्यरवान्तरिता, वररत्नासना, देवकुमार हिता, दिव्योन्नतकाया, अश्वास्तजन्माभिषेकोत्सवे गच्छन्ति । चतुरशीतिलक्षप्रमा गोक्षौरवर्णा आदिमे गजसंन्येपर्वतसमोन्नत पृथुदेहा गजाः व्रजन्ति । द्वितीये भानुतेजसस्तद्विगुणा दन्तिनश्च । तृतीये तेभ्यो द्विगुणा निष्टप्तकनकाभागजाश्च । चतुर्थे सर्पप. कुसुमवस्तिद्विगुणा वारणाश्च । पंचमेतेभ्यो द्विगुणा नीलोत्पलाभा-गजाश्च । षष्ठे तद् द्विगुणा जपापुष्पप्रभा दन्तिनश्च सप्तमे सैन्ये षट् सप्ततिलक्षत्रिपंचाशत्कोटिगराना, अंजनाद्रिसमतेजसो हस्तिनोवजन्ति । एते सर्वे एकत्रीकृताः षडग्रशतकोटयष्टपष्टि लक्षसंख्यानाः सप्तसेनान्विता उत्त ङ्गदन्तमुसला, गुडुगुडुगर्जन्तो गलन्मदलिप्तांगाः, प्रलम्वित-रत्लघण्टाकिकिरणोकुसुमदामशोभिता, नानापताकाछत्रचमरमणिकनकरज्ज्वाद्यलंकृताः अंतरातरध्वनदेवानका, वरदेवदेयारोहिताश्चलगिरिसमोन्नतमहादिव्यदेहा गजेन्द्रास्तस्मिन् जिनजन्मोत्सवे सौधर्मेंद्रस्य प्रवरं पुण्यफलं लोकानां दर्शयन्त इव स्वर्गान्मे प्रत्यागच्छन्ति । प्रथमे नर्तकानीके विद्याधर कामदेव राजाधिराजानां चरित्रेणनटन्तोऽमरा गच्छन्ति । द्वितीये । सकलार्ध महामण्डलीकानां वरचरित्रेण नर्तनं कुर्वन्तः सुराश्च । तृतीय बलभद्रवासुदेवप्रतिवासुदेवानां १. कातन अ.न. Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठोऽधिकारः [ १६१ वीर्यादिगुणनिबद्धचरित्रेण नृत्यन्तो देवा गच्छन्ति । चतुर्णे चक्रवर्तिनां विभूति वीर्यादिगुणनिबद्धचरित्रेण महानर्तनं भजन्तोऽमरा । पञ्चमे चरमांगयतिलोकपाल सुरेन्द्राणां गुणरचितचरित्रेण नटतो निर्जराश्च । षष्ठे गरणधरदेवानां ऋविज्ञानदि गुणोत्पन्नवरचरित्रेण तद्गुणरागरसोत्कटाः परं नृत्यं कुर्वाणाः सुराः यान्ति । सप्तमे मर्त्त कानी के तीर्थंकराणां चतुस्त्रिंशदतिरायाष्टप्रातिहार्य निन्तज्ञानादिगुण रचितचरित्रेण तद्गुण रागरसोत्कटा नाकिनः प्रवरं न नं प्रकुर्वन्तो गच्छन्ति । अमी सप्तानी काश्रिता महानृत्यविशारदाः, सानन्दा, दिव्य वस्त्राभरणभूषिता, महारूपा नटती न का मरा: मेरु प्रत्तन्ति । मोभिः सप्तस्वरे जिनेन्द्र गणधरादि गुणनिवद्धानि नानामनोहरगीतानि गायन्तो दिव्यकण्ठा वस्त्राभरणमण्डिता गन्धर्वामरास्तस्मिन् जिनजन्म महोत्सवे सप्तानोकान्विता गच्छन्ति । ग्राद्ये प्रनीके षड्ज स्वरेण जिनेन्द्र गुणान् गायन्तः द्वितीये ऋषभस्वरेण च गानं कुर्वन्तस्तृतीये गान्धारनादेन गायन्ती गन्धर्वा गच्छन्ति । चतुर्थे मध्यमध्वनिना जन्माभिषेकसम्बन्धिगोतान् गायन्तः । पञ्चमे पञ्चमस्वरेण गानं कुणाः । षष्ठे धैवतध्वानेन च गायन्तः सप्तमे निषादघोषणकलं गोतगानं कुर्वन्तो गन्धर्वा व्रजन्ति । एते स्वस्ववीयुताः सतानीकाविताः किन्नरैः किन्नरीभिश्च सार्धं वीणा मृदङ्ग झल्ल रीताल । दिभिर्जिनजन्माभिषेकोत्सवे गुणगणैः रचितानि बहुमधुर शुभ मनोहगीतानि गायन्तो धर्म रागरसोत्कटा गन्धर्वसुरात महोत्सवे ब्रजन्ति । ततः सप्तसेनान्विता दिव्याभरणालंकृता अनेकवत्रारोपितकरा देवभृत्या गच्छन्ति । प्रथमायां सेनायां ग्रननप्रभा ध्वजकराङ्किता भूत्यामरा यान्ति । द्वितीयायां परिएकाञ्चनदण्डशिखरस्थचलच्चमन्वित नीलध्वजारोपित पायो भृत्याश्च । तृतीयायां वं दण्डाग्रस्थधवल केतुकृतकरा देवादच । चतुर्थ्यां करिसिंहवृषभदर्पण शिखिसारस गरुडचक्ररविरूपाकार कनकध्वजाश्रितमरकतमणि गृहीत हस्ताः भृत्यमुरा व्रजन्ति । पञ्चभ्यां विकसित कमलाभपद्मध्वजारोपित विद्रुममणिमयत गदण्डानिक राश्च । षष्ठयां गोक्षीरव श्वेतपताकाश्रितकनकदण्डयुक्तकराच, स्फुरन्म शिंगण निबद्धदण्डाग्रस्थैर्मुक्तादामालंकृतछनिय हैधं बलवर्णैयुं तपासयो भृत्यामराः सप्तभ्यां सेनायां गच्छन्ति । एते समानोकाता, जिनभक्तिपरायणा भृत्यामराः सोचमास्तन्महोत्सवे प्रयान्ति । श्रमी षट्संन्यानां पिण्डीकृताः सर्वे द्विनवति लक्षद्विपञ्चाशः कोटिप्रमाणास्तस्मिन् महोत्सवे गच्छन्तो मरुद्वशात् (द) दिव्याध्वजास्वरांराजन्ते । षट्सप तिलक्षत्रिपंचाशत् कोटिप्रमाः श्वेतच्छत्राच । एते सर्वे वृषभादिभृत्यदेवता एकोनपंचानीकानामेकत्रीकृताः सप्तशतषट् चत्वारिंशत्कोटिषट्सप्ततिलक्षा भवन्ति । 1 यताः सप्तविधाः सेना: सौधर्मेन्द्रस्यात्र जिनजन्ममहोत्सवे भागच्छन्ति । तया सर्वेन्द्राणां प्रत्येकं सप्तसेनाः स्वस्थ सामानिकाद्विगुरणा द्विगुणा भवन्ति च श्रायान्ति । इत्युक्त सेनात्रिपरिषदावृतः सौधर्मेन्द्र ऐरावत गजेन्द्र ं शच्यासममारुह्य महामहोत्सवेन स्वर्गान् जिनजन्मकल्याण निष्पत्यै निर्गच्छति । अंगरक्षाः नानायुधालंकृताः सुरेशं परितः निर्यान्ति । प्रतीन्द्रसामानिक त्रायस्त्रशल्लोकपालाद्याः शेषामरा इन्द्रेण सह दिवो मे प्रत्यागच्छन्ति । Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ ] सिद्धान्तसार दीपक अब मन्दबुद्धिजनों को समझाने के लिये इस सुमेरु पर्वत का निरूपण विस्तार पूर्वक किया जा रहा है: ___ सुदर्शन मेरु की जड़ चित्रा पृथ्वी को भेद कर एक हजार योजन नीचे तक गई है । जड़-नींव के नीचे मेह का व्यास १००६०१५ योजन और इसकी परिधि का प्रमाण ३१६१.की योजन ( कुछ अधिक ) है । इसके बाद क्रम से हीन होता हुआ ( एक हजार की ऊंचाई पर ) पृथ्वीतल पर मेरु की चौडाई १०००० योजन और परिधि का प्रमाण कुछ कम ३१६२३ योजन है। इसके बाद क्रमशः हानि होते हुये मेरु के दोनों पार्श्वभागों में ५०० योजन ऊपर जाकर ५०० योजन बिस्तार वाला नानाप्रकार के वृक्षों से व्याप्त एक सुन्दर नन्दन नाम का वन विद्यमान है। वहाँ नन्दनवन सहित मेरु का बाह्यविष्कम्भ ६६५४ योजन है। जिसकी परिधि ३१४७६ योजन प्रमाण है। नन्दनवन के बिना मेहपर्वत का अभ्यन्तर व्यास ८६५४ योजन और परिधि २८३१६० योजन है । इसके बाद मेरु पर्वत पर ६२५०० योजन पर जाकर तृतीय सामनत नाम का सुन्दर बन है । मन ६२५०० योजन के मध्य अर्थात् नन्दनवन के मध्य से मेरु को चौड़ाई ११००० योजन ऊपर तक दोनों पार्श्वभागों में समान रूप से जाती है । इसके बाद ५१५०० योजन की ऊँचाई पर्यन्त मेरु की चौड़ाई में क्रमशः हानि होती जाती है। इसके बाद वहाँ मेरु की चौड़ाई को युगपत ५०० योजन अर्थात् दोनों पार्श्वभागों में १००० योजन कम हो जाने से वहाँ मेरू के अभ्यन्त र विष्कम्भ का प्रमाण ३२७२१५ योजन' और वहीं को परिधि का प्रमाण ६६६४ायोजन प्रमाण है। इस सौमनस वन से ३६००० योजन ऊपर जाकर ४६४ योजन व्यास वाले चतुर्थ पाण्डुकवन की प्राप्ति होती है। उन ३६००० योजनों के मध्य अर्थात् सौमनस वन के मध्य से ११००० योजन की ऊँचाई पर्यन्त मेरु का व्यास हानिवृद्धि से रहित सर्वत्र सदश ही है । इसके बाद अर्थात् समरुन्द्र ( समान चौड़ाई) के ऊपरो भाग से २५००० योजन की ऊंचाई पर्यन्त क्रमिक हानि द्वारा हस्व होता जाता है। वहाँ पर अर्थान् ( सौमनसवन से ३६००० योजन ऊपर ) मे के मस्तक पर पाण्डुकवन सहित मेरु का विस्तार १००० योजन और उसको परिधि कुछ अधिक ३१६२ योजन प्रमाण याप्त होती है। मेरु के इस १००० योजन विस्तार वाले पाण्डुक वन के अर्थात् मेरु के शिखर के मध्य भाग में ४० योजन ऊँची, मूल में १२ योजन चौड़ी, मध्य में ८ योजन चौड़ी और शिखर पर ४ योजन चौड़ी, वडीरत्नमयी तथा उत्तरकुरु भोगभूमिज आर्य के एक बाल के अंतराल से स्थित सौधर्म स्वर्ग के प्रथम पटलस्थ ऋजुबिमान को स्पर्श नहीं करने वाली चूलिका है। सुमेरु पर्वत की मूल पृथ्वी ( भूमि ) पर भद्रशाल नाम का एक अत्यन्त रमणीय वन है । जो अनेक प्रकार के वृक्षों से व्याप्त है, तथा जिसकी पूर्व दिशा गत चौडाई २२००० योजन, पश्चिम दिशागत चौड़ाई २२००० योजन, उत्तर दिशागत चौड़ाई २५० योजन और दक्षिण दिशागत चोड़ाई भी २५० योजन प्रमाण है । (इन वन का पायाम विदेह क्षेत्र के विस्तार बराबर है । ज० वी० प० ४/४३) Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठोऽधिकारः [ १६३ वहाँ भद्रशालवन की चारों दिशाओं में अनेक प्रकार की विभूतियों से युक्त चार जिनालय हैं । इसी प्रकार नन्दन, सौमनस और पाण्डुक इन प्रत्येक वनों में भी चार-चार चैत्यालय हैं। इन चैत्यालयों के व्यास प्रादि का विवेचन मैं (प्राचार्य) आगे करूंगा। नन्दनबन को ऐशान दिशा में सौ योजन ऊँचा, मूल में सो योजन चौड़ा, और शिखर पर ५० योजन चौड़ा अनेक रत्नमय बलभद्र नामका एक काट है । उस कूट के ऊपर अनेक प्रकार के कोट, प्रतोलिका, गोपुरद्वार एवं वन आदि से वेष्टित नगर हैं। जिनका अधिपति बलभद्र नाम का व्यन्तरदेव है, जो वहीं रहता है ! नन्दन वन में मेरु की पूर्वादि चारों दिशाओं में मानी, चारण, गन्धर्व और चित्र नाम के भवन हैं । जो ५० योजन ऊँचे और ३० योजन चौड़े तथा नाना प्रकार की मणियों से खचित हैं । इन भवनों के स्वामी क्रमशः रक्त, कृष्ण, स्वर्ग और श्वेत वर्ण के आभूषणों से अलंकृत तथा देव समूह से समन्वित सोम, यम, वरुण और कुबेर हैं। इन प्रत्येक लोकपालों की रूए लावण्य प्रादि से विभूषित साढ़े तीन करोड़ व्यन्तर जाति की दिक्कन्याएं हैं। विशेषार्थ:-नन्दनवन में मेरु की पूर्व दिशा में मानी नामका भवन है, जिसमें रक्तवर्ण के अलङ्कारों से प्रसंस सोन लोकपाल साढ़े तीमा जोड दिनुमारियों के साथ रहता है। दक्षिण के चारण भवन में कृष्णवर्ण के अलङ्कारों से सुशोभित यम लोकपाल अपनी साढ़े तीन करोड़ दिक्कुमारियों के साथ रहता है । पश्चिम दिशा सम्बन्धी गन्धर्व नामक भवन में स्वर्णाभा सदृश आभूषणों से विभूषित वरुण लोकपाल अपनी साढ़े तीन करोड़ दिक्कुमारियों के साथ और उत्तर दिशा सम्बन्धी चित्र नामक भवन में श्वेतवर्ण के प्राभूषणों से युक्त कुवेर नाम का लोकपाल अपनी साढ़े तीन करोड़ दिक्कन्याओं के साथ निवास करता है। सौमनसवन में मेरु को चारों दिशामों में क्रमशः बज, वज़प्रभ, सुवर्ण और सुवर्णप्रभ नाम के चार भवन हैं। जो पच्चीस योजन ऊँचे और पन्द्रह योजन चौड़े हैं। पाण्डुकवन में मेरु की चारों दिशाओं में उत्कृष्ट सिंहासन एवं पल्यङ्क प्रादि से सहित पंचवर्ण के रत्नमय क्रमशः लोहित, अंजन, हारित और पाण्डु नाम के चार भवन हैं। जो १२३ योजन ऊँचे और ७३ योजन चौड़े हैं। इन उपर्युक्त आठों भवनों में से प्रत्येक में साढ़े तीन करोड़ दिक्कुमारियाँ निवास करती हैं। इन आठों गृहों के स्वामी जिनबिम्ब के चिह्न से चिह्नित मुकुट वाले, देव समूह से वेष्टित तथा क्रमशः रक्त, कृष्ण, स्वर्ण और श्वेत वस्त्र एवं अलङ्कारों से अलंकृत, क्रमानुसार स्वयंप्रभ, अरिष्ट, जलप्रभ और वर्गप्रभ ( कल्प) विमानों में निवास करने वाले तथा सौधर्मशान इन्द्रों के सम्बन्ध को प्राप्त सोम, यम, वरुण और कुवेर नाम के लोक प्रसिद्ध चार लोकपाल हैं। इनमें सोम और यम लोकपालों की प्रायु २३ पल्य तथा बरुण प्रौर कुबेर की प्रायु पौने तीन (२१) पल्य प्रमाण है। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ ] सिद्धान्तसार दीपक यहाँ नन्दनवन में पूर्व दिशा स्थित चैत्यालय के दोनों पार्श्व भागों में नन्दन और मन्दर नाम के दो कूट हैं। दक्षिण दिशा स्थित चैयालय के दोनों पार्व भागों में निषष और हिमवत् नाम के दो बूट हैं । पश्चिम दिशा सम्बन्धी चैत्यालय के दोनों पार्व भागों में रजत और रुचक नाम के दो कूट हैं तथा उत्तर दिशा सम्बन्धी जिनालय के दोनों पाव भागों में सागर और वज़ नाम के दो कट ! हैं। इन पाठों क्रूटों की ऊँचाई ५०० योजन, भूयास ५०० योजन, मध्य व्यास ३७५ योजन और मुख व्यास २५० योजन प्रमाण है । इन कूटों के शिखरों पर दिक्कुमारियों के एक कोस लम्बे, अकोस चौड़े और पौन कोस ऊंचे तथा नानाप्रकार के रत्नमय भवन बने हैं। इन आठों भवनों में क्रमशः मेघरा, मेघवती, सुमेधा. मघमालिनी, तोयन्धरा, विचित्रा, पुष्पमालिनी और अनन्दिता नाम की दिक्कुमारियाँ निवास करती हैं । इसप्रकार नन्दन वन के समान सर्वकूट, दिक्कुमारियों के भवन प्रादि सौमनस वन में भी हैं। ( नन्दनवन में ) मेरुपर्वत को प्राग्नेय दिशा में उत्पला, कुमुदा, नलिनी और उत्पलोज्ज्वला नाम की चार वापिकाएं हैं । नैऋत्य दिशा में भृङ्गा, भङ्गनिभा, कज्जला और कज्जलप्रभा नाम को चार वापिकाएं हैं। बायव्य दिशा में श्रीभद्रा, श्रीकान्ता, श्रीमहिता और श्रीनिलया नाम की चार वापिकाएं हैं तथा ऐशान दिशा में नलिनी, नलिनीमि, कुमुद और कुमुदप्रभा नाम की चार वापिकाएं हैं। ये सोलह वापिकाएँ मणियों के तोरणों एवं वेदिका प्रादि से मण्डित, नानाप्रकार के रत्नों की सीढ़ियों से युक्त, पचास योजन लम्बी, पच्चीस योजन चौड़ी और दस योजन गहरो हैं। ये सभी वापिकाएं चतुष्कोण हैं, तथा हंस, सारस और चक्रवाक प्रादि पक्षियों के शब्दों से अत्यन्त शोभायमान हैं। इन सभी वापियों के मध्य भाग में ६२३ योजन ऊँचे, ३१३ योजन चौड़े, अर्ध (३) योजन गहरो नींव से संयुक्त, सिंहासन एवं सभास्थान प्रादि से अलंकृत रत्नमय भवन हैं। इन आम्नेय और नैऋत्य दिशा सम्बन्धी वापिकायों में स्थित भवनों में सौधर्म इन्द्र अपने लोकपाल अादि देव और शचि आदि देवाङ्गनाओं के साथ नाना प्रकार की क्रीड़ा करता है, तथा घायल्प और ईशान दिशा स्थित वानिकानों के भवनों में ऐशान इन्द्र अपने परिवार देवों एवं देवाङ्गनारों के साथ प्रसन्नता पूर्वक क्रीडा करता है । जिस प्रकार नन्दनवन में सौधर्मशान सम्बन्धी वापी एवं प्रासाद आदि का वर्णन किया है, उसीप्रकार क्रमसे वागो प्रासाद आदि का सभी वर्णन सौमनस बन में जानना चाहिये, क्योंकि नन्दनवन से यहां कोई विशेषता नहीं है। मेरु पर्वत के ऊपर पाण्डुकवन में चूलिका की प्रदक्षिणा रूप से ऐगान आदि विदिशाओं में सौ योजन लम्बी, पचास योजन चौड़ी और ग्राठ योजन ऊंची, अर्धन्दन्द्र की उपमा को धारण करने वाली, रत्नमय तोरण एवं वेदिका आदि से अलंकृत, अपने अपने क्षेत्रों के सम्मुख, स्फुरायमान तेजमय पाण्डुक प्रादि चार दिव्य शिलाएं हैं। इन चारों शिलानों में प्रथम पाण्डुक नाम को मिला ऐशान दिशा में है। जो स्वर्ण सदश वर्ण से युक्त पूर्व-पश्चिम लम्बी तथा भरतक्षेत्र में उत्पन्न Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पष्टोऽधिकारः होने वाले तीर्थंकरों के जन्म स्नान की पीठिका सदृश है। द्वितीय पाण्डुकम्बला नाम की शिला आग्नेय दिशा में है, जो अर्जुन ( चांदी ) सदृश वर्ण से युक्त, दक्षिणोत्तर लम्बी और पश्चिम बिदेह क्षेत्र में उत्पन्न होने वाले जिनेन्द्रों के जन्माभिषेक की पीठिका सदृश है । तृतीय रक्ता नाम की शिला, नैऋत्य दिशा में है, जो तपाये हुयें स्वर्ण के सदृश वर्ण से युक्त, ऐरावत क्षेत्र में उत्पन्न तीर्थङ्करों के जन्माभिषेक से निबद्ध तथा पूर्व-पश्चिम लम्बी है। इसी प्रकार रक्तकम्बला नाम की चतुर्थ शिला वायव्यदिशा में, दक्षिण-उत्तर लम्बी, रक्त वर्ण से युक्त और पूर्व विदेह में उत्पन्न होने वाले तीर्थङ्कर देवों के जन्माभिषेक से सम्बद्ध है । इन चारों शिलाओं में से प्रत्येक शिला के ऊपर देदीप्यमान रत्नमय तीन तीन सिंहासन हैं। उन सिंहासनों में से बीच का सिंहासन पांच सौ धनुष ऊंचा, भूमि पर पांच सौ 'धनुष चौड़ा, अग्रभाग पर दो सौ पचास धनुष कौड़ा तथा जिनेन्द्रव सम्बन्धी अधात तारों के जन्माभिषेक की स्थिति के लिये है। दक्षिण दिशा में स्थित सिंहासन जिनेन्द्र भगवान के जन्माभिषेक के समय सौधर्म इन्द्र के बैठने के लिये होते हैं, और उत्तर दिशा स्थित सिंहासन तोङ्किरों के जन्माभिषेक के समय ऐशानेन्द्र की संस्थिति अर्थात् बैठने के लिये हैं । पाण्डुक आदि चारों शिलानों एवं सिंहासन प्रादि का चित्रण निम्न प्रकार है: पहर 4 AA ARTHAN ट + 6t-pA -अमृत्यगत . HN5 sailai - .२० र "Jaadka REMEDNA कल्पवासी, ज्योतिष्क, भवनवासो और व्यन्तरवासी देवों के इन्द्र क्रमशः घण्टा, सिंहनाद, शाल एन ऊत्तम भेरी के शब्दों तथा प्रासन आदि कम्पित होने रूप चिह्नों द्वारा जिनेन्द्र भगवान् की उत्पत्ति को जानकर परम विभूति एवं छत्र ध्वजा आदि से युक्त विमानों द्वारा प्राकाश रूपी प्रांगण को पाच्छा Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ ] सिद्धान्तसार दोपक दिश करते हुये तथा अनेक प्रकार के पटह प्रादि के शब्दों द्वारा दसों दिशात्रों को बहरी करते हुये जिनेन्द्र भगवान् के जन्माभिषेक का उत्सव मनाने के लिये अपूर्ण प्रानन्द एवं धर्मरागरूपीरस से उत्कट अपने-अपने स्थानों से सुमेरु पर्वत की पोर पाते हैं । इस जन्माभिषेक के समय इन्द्रों का प्रमुख देव सौधर्मेन्द्र ऐरावत हाथी पर चढ़कर अपनी तीन परिषदों एवं सात अनीकों से अलंकृत होता हुआ स्वर्ग से मध्य लोक में पाता है । इस सौधमेंद्र की प्रथम अभ्यन्तर परिषद् में दिव्यरूप और दिव्य मुखवाले, आयुध एवं अलंकारों से अलंकृत मारह लाख देव होते हैं। मध्यम परिषद् में चौदह लाख देव और बाह्यपरिषद् में सोलह लाख देव होते हैं। प्राभ्यन्तर, मध्य और बाह्य परिषदों के क्रम से रवि, शशि और यदुप नाम के महत्तर (प्रधान) देव हैं। वृषभ, रथ, तुरंग, गज, नर्तक, गन्धर्ग और मृत्य हैं नाम जिनके ऐसे सात-सात कक्षामों से युक्त सात अनौके सेनाएँ सौधर्मेन्द्र के आगे जन्माभिषेक के समय में महान आडम्बर से युक्त होती हुई चलती हैं। प्रथम कक्षा में शंख एवं कुन्द पुष्प के सदश धवल चौरासी लाख वषभ चलते हैं। द्वितीय कक्षा में जपा पुष्प के सदश वर्ग वाले एक करोड़ अडसठ लाख वृषभ चलते हैं। तृतीय कश्वा में नील कमल के सदृश घर्ग वाले तीन करोड़ छत्तीसलाख वृषभ हैं। चतुर्श कक्षा में मरकत (नील) मरिण की कान्ति सदृश वर्ण बाले छह करोड़ बहत्तर लाख वृषभ हैं। पंचम कक्षा में स्वर्ण सदृश वर्ण वाले तेरह करोड़ चवालोस लाख वृषभ हैं। षष्ठ कक्षा में अञ्जन सदृश वर्ण वाले छन्नीस करोड़ ग्रहासी लाख वृषभ हैं, और सप्तम अनीक में किंशुक (केसु) पुष्प की प्रभा सदृश वर्ण वाले ओपन करोड़ छयसर लाख वृषभ आगे आगे चलते हैं। शब्द करते हुये नाना प्रकार के पटह ग्रादि एवं तूयं ग्रादि से अन्तरित अर्थात् इन सेनात्रों के मध्य मध्य में इन बाजों से युक्त, घण्टा, किंकणो, उतम चॅवर एवं मरिणमय कुसुममालाओं से अलंकृत, रत्नमय कोमल आसन (पलान) से युक्त, देवकुमारों द्वारा चलाये जाने वाले और दिव्य रूप को धारण करने वाले समकक्षामों से समन्वित समस्त वृषभ अनोकों को संख्या एक गौ छह करोड़ अडसर लाख है जो इस जन्माभिषेक महोत्सव में जाती है । जिस प्रकार इन सात वृषभ धनीकों को दूनी दूनी संध्या का वर्णन किया गया है, उसी प्रकार शेष रथ प्रादि छह अनीकों की संख्या जानना चाहिये। प्रयम कक्षा में हिम को प्राभा के सदृश धवल छत्रों से विभूषित धवल रथ चलते हैं। द्वितीय कक्षा में वैडूर्य मरिण से निर्मित, चार चाकों से विराजमान और मन्दार पुष्पों के सदृश वर्ण बाले महारथ गमन करते हैं । तृतीय कक्षा में स्वर्णमयछत्र, चामर और ध्वज समूहों से समन्वित तथा तराये हुये स्वर्ण से निर्मित रथ जाते हैं। चतुर्थ कक्षा में मरकत मरिणयों से निर्मित बहुत चाकों से उत्पन्न हुये शब्दों से गम्भीर और दुर्वांकुर वर्ण सदृश रथ होते हैं । पञ्चम कक्षा में कर्केतन मणियों से निर्मित बहुत चाकों से उत्पन्न शब्दों से युक्त तथा नीलोत्पलपत्रों के सदृश रथ हैं। पष्ठम कक्षामें पद्मराग Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठोऽधिकार: [१६७ मरिणयों से निर्मित, सुन्दर चाकों को धारण करने वाले तथा कमल के सदृश वर्ण बाले रथ हैं. और सप्तम कक्षा में मयूर कष्ठ सदृश वर्ण वाले मणियों के समूह से उत्पन्न किरणों से देदीप्यमान इन्द्र नीलमणि की प्रभा के सदृश वर्ण वाले महारथ जाते हैं। इन राष्ट्र सेनामों से समन्वित, बहुत से देव देवियों से परिपूर्ण, उत्तम चमर, छत्र, ध्वजाएं एवं पुषों की मालाओं से प्रकाशमान, सब रथ कक्षाओं के मध्य में शब्द करते हुये देव वादित्रों से युक्त और आकाश को आच्छादित करते हुये ॐचे एवं विस्तृत रथ जिनेन्द्र भगवान के जन्माभिषेक महोत्सव में इन्द्र के महान् पुण्योदय से आगे आगे जाते हैं। अश्वों की प्रथम कक्षा में क्षीरसमुद्र की तरङ्गों के सदृश तथा श्वेत चापरों से अलंकृत धवल अश्व जाते हैं । हितोय कक्षा में उदित होते हुये सूर्य के वर्ण सदृश एवं चलते हुये उत्तम चामरों से युक्त ( रक्त वर्ण के ) तुरङ्ग होते हैं। तृतीय कक्षा में तपाये हुये स्वर्ण के सदृश ग्छरों से उत्पन्न धूलि से पिञ्जरित अश्व गोरोचन (पीत) वर्ण वाले होते हैं। चतुर्थ कक्षा में मरकत मरिण के सदृश वर्ग वाले एवं शीघ्रगामी अश्व चलते हैं। पञ्चम कक्षा में रत्नों के आभूषणों से विभूषित तथा नीलोत्पल पत्र सदृश वर्ण वाले घोड़े चलते हैं । षष्ठम कक्षा में जपा पुष्प सदृश (रक्त) वर्ण वाले और सातम कक्षा में इन्द्रनील मणि की प्रभा वाले घोड़े होते हैं । इसप्रकार ये सात कक्षाओं से युक्त, अनेक प्रकार के प्राभरणों से विभूषित, अपनी अपनी सेनाओं के प्रागे उत्पन्न होने वाले वादित्रों के शब्दों से अन्तरित, उत्तम रनों के पासनों (पलानों) से युक्त, देवकुमारों द्वारा चलाये जाने वाले दिव्य और उत्तुङ्ग काय घोड़े भगवान् के जन्माभिषेक के महोत्सव में जाते हैं। प्रथम कक्षा की गज सेना में गोक्षीर ( धवल ) वर्ण सदृश और पर्वत के समान उन्नत एवं विस्तृत देह वाले चौरासी लाख हाथी होते हैं । हितीय कक्षा में सूर्य (बाल सूर्य ) के तेज सदृश कान्ति वाले हाथो दुगुने ( एक करोड़ अड़सठ लाख ) होते हैं। तृतोय कक्षा में दूसरी कक्षा से दुगुने और तपाये हुये स्वर्णाभा सदृश हाथो जाते हैं। चतुर्थ कक्षा में इससे भी दुगुने और तपाये हुये स्वर्ण को कान्ति सदृश हाथी होते हैं । पञ्चम कक्षा में चतुर्थ कक्षा से दुगुने और नीलोत्पल प्राभा युक्त हाथी षष्ठम कक्षा में पञ्चम कक्षा से दुगुने तथा जपा पुष्प सदश हाथी और सप्तम कक्षा में अञ्जन गिरि के सदृश कान्ति वाले वेपन करोड़ छय तर लाख हाथी जाते हैं । इन सातों कक्षाओं के हाथियों को संख्या का योग एक सौ छह करोड़ अड़सठ लाख है। इन सात सेनाओं से युक्त, उन्नत दात रूपी मूसलों से सहित, गुड-गुड गरजने वाले, गलते हुये मद से हैं लिप्त अङ्ग जिनके, लटकते हुये रत्नमय घण्टा, किंकिणी एवं पुष्प मालानों से सुशोभित, अनेक प्रकार की ध्वजारों, छत्र, चमर एवं मरिण और स्वर्ण को रस्सियों से अलंकृत, प्रत्येक कक्षा के अन्तरालों में बजने वाले वादित्रों के शब्दों से युक्त, उत्तम देव देवियों की सवारियों से सहित, चलते फिरसे पर्वत के समान उन्नत एवं महादिव्य देह को धारण करने वाले हाथी, इन जिनेन्द्र भगवान के जन्म महोत्सव में सौधर्म इन्द्र के श्रेष्ठ पुण्य क रुल को लोगों को दिखाते हुये ही मानो स्वर्ग से मेरु पर्वत की पोर आते हैं। Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ ] सिद्धान्तसार दीपक मतक अनोक देव प्रथम कक्षा में विद्याधर, कामदेव, राजा और अधिराजारों के चरित्रों द्वारा अभिनय करते हुये नर्तकी देव जाते हैं। द्वितीय कक्षा के नतंक देत्र समस्त अर्धमण्डलीक एवं महामंडलीकों के उत्तम चारित्र का अभिनय करते हैं। तृतीय कक्षा के नर्तक देव बलभद्र, वासुदेव और प्रतिवासु देवों ( प्रतिनारायणों ) के वोर्यादि गुणों से सम्बद्ध चारित्र द्वारा महानर्तन करते हुये जाते हैं । चतुर्थ कक्ष के नतंक देव चक्रवतियों की विभूति एवं बोर्यादि गुरगों से निबद्ध चारित्र के द्वारा महाअभिनय करते हुये जाते हैं । पञ्चम कक्षा के नर्तक देव चरमशरीरी यतिगण, लोकपाल और इन्द्रों के गुणों से रचित उनके चरित्र द्वारा अभिनय करते हैं । षष्टम कक्ष के नर्तक देव विशुद्ध ऋद्धियों एवं ज्ञान प्रादि गुणों में उत्पन्न उत्तम चारित्र द्वारा उनके गुण रूपी रागरस से उत्कट होते हुये श्रेष्ठ नृत्य करते हुये जाते हैं, और सतम कक्ष के नर्तक देव चौतीस अतिशय, अष्ट प्रातिहार्य और अनन्तज्ञान आदि गु-शों से सम्बद्ध चारित्र द्वारा उनके गुणरूपो रागरस में डूबे हुये तथा सर्वोत्कृष्ट नर्तन करते हुये जाते हैं। ये सात अनोकों के आश्रित, उत्तम नृत्य करने में चतुर, आनन्द से युक्त, दिव्य वस्त्र और दिव्य अलङ्कारों से विभूषित तथा महा विक्रिया रूप नृत्य करते हुये मेरु पर्वत की ओर जाते हैं। संगीत के सात स्व द्वार शिव भवाः और गणधरादि देवों के गुणों से सम्बद्ध अनेक प्रकार के मनोहर गीत गाते हुये, दिप कण्ठ, दिव्य वस्त्र ए दिव्य प्राभरणों से मण्डित गन्धर्व देव जिनेन्द्र के जन्माभिधेक महोत्सव में सात अनीकों से समन्वित होते हुये जाते हैं। प्रथम कक्ष में पड्ज स्वरों से जिनेन्द्र के गुण गाते हैं। द्वितीय कक्ष में ऋषभ स्वर से गुणगान करते हैं। तृतीय कक्ष में गान्धार स्वर से गाते हुये जाते हैं। चतुर्थ कक्ष में मध्यम स्वर से जिनाभिषेक सम्बन्धी गीतों को गाते हैं । पञ्चम कक्ष में पञ्चम स्वर से गान करते हैं। परम कक्ष में धैवत स्वर से गाते हैं. और सप्तम कक्ष में निषात स्वर से युक्त गान करते हुलो गन्धर्व देव जाते हैं। इसप्रकार अपनी अपनो देवियों से संयुक्त, सप्त अनौकों के आश्रित, किन्नर और किन्नरियों के साथ वीणा, मृदङ्ग, झल्लगे और ताल आदि के द्वारा जिनाभिषेक महोत्सव के गुरण समूह में रचित, बहुन मधुर, शुभ और मन को हरण करने वाले गीत गाते हुगे, धर्म राग रूपी रस से उद्धत होते हुये गन्धर्व देव उस महामहोत्सव में जाते हैं। सात प्रकार को सेनाओं से युक्त, दिव्य प्राभूषणों से अलंकृत, अनेक वर्गों की ध्वजाएं एवं छत्रों सहित हैं हाथ जिनके ऐसे भृत्यदेव जाते हैं। प्रथम कक्ष में प्रजन सदृश प्रभा वाली ध्वजाएँ हाथ में लेकर भृत्यदेव जाते हैं। द्वितीय कक्ष के भृत्यदेव अपने हाथों में मणि एवं स्वर्णदण्ड के शिखर पर स्थित चलते (दुलते) हुये चामरों से संयुक्त नीलो बजाए लेकर चलते हैं। तृतीय कक्ष के भृत्यदेव अपने हाथों में वैडूर्य मरिणमय दण्डों के अग्रभाग पर स्थित धवल ध्वजाए लेकर चलते हैं । चतुर्थ कक्षा के मृत्यदेव अपने हाथों में हाथी, सिंह, वृषभ, दर्पण, मयूर, सारस, गरुड़, चक्र, रवि एव चन्द्राकार कनक (पीली) ध्वजायों के प्राश्रय भूत मरकत मणिमय दण्ड लेकर चलते हैं । पञ्चम कक्षा के Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दष्ठोऽधिकारः [ १६६ भत्यदेव अपने हाथों में विकसित कमल की कान्ति बाली पद्मध्वजारों से प्रारोपित विद्र ममणि (मूगे) के ऊँचे ऊँचे दण्ड लेकर चलते हैं । षष्ठम कक्ष के भृत्यदेव अपने हाथों में गोक्षीर वर्ण सदृश धवल ध्वजात्रों से युक्त स्वर्शदण्ड लेकर तथा सप्तम कक्षा के भृत्यदेव अपने हाथों में दैदीप्यमान मरिण समूह से रचित दण्ड के अग्रभाग पर स्थित, मोतियों की मालारों से अलंकृत धवल छत्रों को लेकर जाते हैं। इसप्रकार सात प्रनीकों से युक्त, जिमभक्ति में तत्पर भृत्यदेव उत्साह और अपूर्व उद्यम पूर्वक उस महोत्सव में जाते हैं। इन मृत्यदे बों की सात अनीक कक्षानों में से छह कक्षा के मृत्यदेव मात्र ध्वजाएँ लेकर चलते हैं जिनका सर्वयोग बावन करोड़ बान्नवे लाख ( ५२६२००००० ) प्रमाण है, जो इस जन्ममहोत्सव में चलती हुई पवन के वश से हिलने वाली दिव्य ध्वजारों से अत्यन्त शोभायमान होते हैं सप्तम कक्षा के भृत्य श्वेत छत्र लेकर चलते हैं, जिनका प्रमाण ओपन करोड़ छयत्तर लाख ५३७६००००० है । इसप्रकार वृषभ से भृत्यदेव पर्यन्त (४६) उनचास अनीक कक्षानों का एकत्र योग करने पर सात सौ छयालीस करोड़ छयत्तर लाख प्रमाश है । यथाः सात अनोक सम्बन्धी ४६ कक्षानों का एकत्रित प्रमाण वृषभ । रथ घोड़े । हाथी । नर्तक । गन्धवं । भृत्यवर्ग ५४०००.. ८४००... | Y०.... । ४.००४. ! -४००००० ५४०.००० १६८००००० । १६८००००० | १६८००००० १६८००००० ] १६८००००० १६०००००० १६८००००० ३३६००००० | ३३६०००००३३६०००००१ ३३६००००० | ३३६००००० ३३६००००० ३३६००००० | ६७२००००० ६७२००००० ६७२००००० ६७२००००० ६७२-०३०० ६७२००००० ६७२००००० ५ | १३४४०००००,१३४४०००३०] १३४४००००० १३४४०००००१३४४०००००१३४४०००००१३४४०,००० २६८८००००० २६८८०००००२६८८०००००२६८८०००००२१८८०००००२६८००००००/२६८८००००० ७ । ५३७६०००००' ५३७६०००००। ५३७६००००० ५३७६०००००५३७६०००००५३७६०००००५३७६००००० ०६६८०००००१०६६८०००००१०६६८०००००१०६६८००००० १०६६८ । १०६६८ । १०६६८ + -- .०००००००००+ ०००००. -७४६७६००००० कुल प्रमाण हुमा Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० ] सिद्धान्तसार दीपक सौधर्मेन्द्र जिस प्रकार सात अनीकों के ७४६ करोड ७६ लाख सेना के साथ यहाँ जिनेन्द्र के जन्म महोत्सव में प्राता है, उसीप्रकार समस्त इन्द्रों में से प्रत्येक इन्द्र की सेना का प्रमाण अपने अपने सामानिक देवों को सेना से चूना दूना होता है, जिस कार' सन्न प्रति है। इसतरह उपयुक्त समस्त सेना और तीनों पारिषद देवों से वेष्टित सौधर्म इन्द्र शचि के साथ ऐरावत हाथी पर चढ़कर महामहोत्सब के साथ स्वर्ग से जिनेन्द्र के जन्म कल्याणक की निष्पत्ति के समय निकलता है । अनेक आयुधों से अलंकृत अङ्गरक्षक देव इन्द्र को वेष्टित किये हुये निकलते हैं। प्रतीन्द्र, सामानिक देव, वास्त्रिश देव एवं लोकपाल शादि अवशेष देव इन्द्र के साथ स्वर्ग से मेरु पर्वत की पोर पाते हैं । अथेन्द्रस्यैरायतदन्तिनः किञ्चिद वर्णनं करोमिः जम्बूद्वीपप्रमाणाङ्ग, वृत्ताकारं शंखेन्दु कुन्दधबलं नानाभरपघण्टाकिंकिणी तारिकाहेमकक्षादि भूषितं कामगं कामरूपधारिणं महोन्नतं ऐरावनगजेन्द्र नागदत्ताख्याभियोग्येशो वाहनामरो विकरोति । तस्वदन्तिनः बहुवर्णा, विचित्रतानि रम्याणि द्वात्रिंशदनानि 'एकैकस्मिन् वदने मृदुस्थूलायता अष्टौ. दन्ताः स्युः । एककस्मिन् दन्ते एकैकं चलकल्लोलरम्यं सरोवरं स्पात् । एकैकस्मिन्सर सि एकैका कमलिनी भवति । एककस्याः कम लिन्या एककस्मिन् दिग्भागे मणिवेदिकाङ्कितं एकैकं तोरणं भवेत् । प्रफुल्लद्वात्रिंशत्कमलानि च सन्ति । एककस्मिन् कमले एकैकयोजन सुगन्धायतानि शात्रिंशन्मनोहर पवारिण स्युः। एकैकस्मिन् पत्रे दिव्यरूपाः सरसा द्वात्रिशन्न टिकाः स्युः। एकस्मिन्नेकस्मिन प्रत्येक नाटके दिव्यरूपा द्वात्रिंशत्सुरनत क्यो नानारूपाणि विकृत्य मृदङ्गादि तूयँ नाचरणविन्यासः करपल्लवैः कटीतटादिलयः सानन्दा नृत्यन्ति । सर्वाः सप्तविंशति कोटिप्रमाः अप्सरसोऽष्टीमहादेव्यो लक्षवल्ल भिकाश्च तद् गजेन्द्र पृष्ठमारुह्य तस्मिन् जन्मोत्सवे गच्छन्ति । ऐरावतो हि शक्रस्य कीदृशो भवति प्रभो । लक्षयोजनप्रोत्तङ्गो विस्तरोपि तथा भवेत् ॥१॥ द्वात्रिंशद्ववनान्यस्य दन्सा अष्टौ मुखं प्रति । दन्तं प्रतिसरश्चक नलिन्यकासरंप्रति ॥२॥ द्वात्रिंशत्कमलान्येब चैकैको पद्मिनी प्रति । द्वात्रिशदस्य पत्राणि प्रतिपद्म विराजते ॥३॥ प्रतिपयं च द्वात्रिंशन्नयंत्यप्सरसो बराः। केषाञ्चित्संयताना तु श्रूयतां भो ! मतान्तरं ॥४॥ चमखो गजो शेयो दन्तयुग्मं मुखं प्रति । सरसीनां शतं जोयं प्रतिवन्तं जलभतम् ।।५।। १. सववय गणमट्ठदन्ता दन्लेसरमदनालिनी पणवीसा। पणवीसा स उ कमलाकमले अठ्ठत्तरतयंपत्त। Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठोऽधिकार : [ १७१ सरः प्रतिनलिनीनां पञ्च विशतिकं ततः । नलिनी प्रतिपमानां पञ्चविंशत्यधिकं शतं ॥६॥ नर्तकीनो प्रतिए चमष्टोत्तरशतं परं । एवं वैभवसंयुक्त गजं शक्रः स्थितोमुदा ।।७।। अब इन्द्र के ऐरावत हाथो का संक्षिप्त वर्णन करते हैं: आभियोग्य देवों का अधिपति नागदत्त नामक वाहन जाति का देव जम्बूद्वीप प्रमाण अर्थात् एक लाख योजन प्रमाण गोल देह की विक्रिया करके इन्द्र का ऐरावत हाथी बनता है। जो शङ्ख, चन्द्र पौर कुन्द पुष्प के समान धवल अलङ्कारों, घण्टा, विकलो. तारिकानों पर जनों) एवं नया कक्षा अर्थात् हाथी के पेट पर बांधने की रस्सो प्रादि से विभूषित, अत्यन्त सुन्दर, विक्रियारूप को धारण करने वाला तथा महा उन्नत होता है । उस हाथी के अनेक वरणों से युक्त रमणीक बत्तीस मुख होते हैं । एक एक मुख में कोमल, मोटे और लम्बे पाठ पाठ दांत होते हैं। ( ३२ मुख x ८ =२५६ दात हुये )। एक एक दांत पर उठती हुई कल्लोलों से रमणीक एक-एक सरोवर होता है । ( २५६ तरोबर हुये)। एक एक सरोवर में एक एक कमलिनी होती है । एक एक कमलिनी पर एक एक दिशा में मणियों की वेदिकानों से अलंकृत एक एक तोरण होता है, प्रत्येक कमलिनी के साथ प्रफुल्लित रहने वाले बत्तीस बत्तीस कमल होते हैं (२५६ x ३२८१६२ कमल होंगे)। एक एक कमल में एक एक योजन पर्यन्त सुगन्ध फैलाने वाले बत्तीस बत्तोस पत्र होते हैं-(८१९२ कमल - ३२=२६२१४४ पत्र हुये)। एक एक पत्र पर दिव्य रूप को धारण करने वाले प्रतिमनोज्ञ बत्तीस नाटक (नाटयशाला) होते हैं (२६२१४४४३२ = ८३८८६०८) और एक एक नाट्यशालाओं में दिव्यरूप को धारण करने वाली बत्तीस बत्तीस अप्सराएँ नृत्य करती हैं ( ८३८८६०८४३२-२६८४३५४५६ अप्सराएँ )। जो अनेक प्रकार की बिक्रिया धारण करके मृदङ्ग प्रादि वादियों द्वारा, नाना प्रकार के चरण विन्यास द्वारा, हाथ रूपी पल्लवों द्वारा और कटितट आदि की लय के द्वारा प्रानन्द पूर्वक नृत्य करती हैं। ये समस्त सत्ताईस करोड़ अप्सराएँ, पाठ महादेवियां और एक लाख बल्लभिकाएँ उस ऐरावत हायी को पीठ पर चढ़ कर उस जन्म महोत्सव में जाते हैं। विशेषार्थ:-विक्रिया धारण करने वाले ऐरावत हाथी के ३२ मुख और प्रत्येक मुख में आठ पाठ दाँत इत्यादि उपर्युक्त क्रम से मानने पर अप्सरामों की कुल संख्या छब्बीस करोड़ चौरासीलाख पतीस हजार चार सौ छप्पन (२६८४३५४५६) होती हैं, किन्तु प्राचार्य इनकी संख्या सत्ताईस करोड़ लिख रहे हैं, तथा अन्य प्राचार्यों के मतानुसार भी अप्सरात्रों की संख्या २७ करोड़ हो है । यथाः इस ऐरावत हाथी के सौ मुख होते हैं । प्रत्येक मुख में पाठ-पाठ दांत ( १००४=८०० } होते हैं । प्रत्येक दांत पर जल से भरे हुये सरोबर (८००) होते हैं । प्रत्येक सरोवरों में पच्चीस-पच्चीस Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ ] सिद्धान्तसार दीपक नलिनी (८०० ४ २५ = २०००) होती हैं प्रत्येक नलिनी पर एक सौ पच्चीस कमल (२००००४१२५ = २५००००० ) होते हैं। प्रत्येक कमल में एक सौ पाठ, एक सौ पाठ पत्र ( २५०००००४ १०८= २७०००००००) होते हैं, और प्रत्येक पत्र पर एक-एक अप्सरा नृत्य करती है, अतः कुल मप्सरानों की संख्या सत्ताईस करोड़ है। नोट-पृष्ठ २१५ श्लोक ५-७ के अनुसार:-.-४ मुख x २ दन्त-८ दन्त, प्रत्येक दांत पर १०० सरोवर, ८ x १०० =८०० सरोवर, प्रत्येक सरोवर में २५ नलिनी, ८०० x २५ - २०००० नलिनी, प्रत्येक नलिनी पर १२५ कमल, २०००० x १२५ -२५००००० कमल, प्रत्येक कमल पर १०८ पत्र २५०००००४ १०५=२८००००००० पत्र, प्रत्येक पत्र पर एक एक अप्सरा अर्थात् कुल अप्सराएं २७ करोड़ हैं। अब ऐशान प्रादि अन्य इन्द्रों और अहमिन्द्रों प्रादि की स्थिति कहते हैं: याशी दक्षिणेन्द्रस्य सप्तानोकानां संख्याणिता तादृशी संख्योत्तरेन्द्रस्य स्यात् । ईशानेन्द्रोपि दिव्यं तुरङ्गमारुह्यस्वपरिवारालंकृतो नहाधिभुयाराच्छांत । शेषा सनत्कुमारेन्द्राया अच्युतेन्द्रपर्यन्ता देवेन्द्राः समानीकत्रिपरिषद्वेष्टिताः स्वस्व वाह्नविभूत्याश्रिताः सामराः सकलत्रास्तदायान्ति । भवनवासि व्यन्तर ज्योतिष्क देवेशाः समानीक श्रिपरिषदावृता: स्वस्ववाहन विमानाद्यारूढा महाविभूत्या स्त्रदेवदेवोभिः सहायागच्छन्ति सर्वे अहमिन्द्रा प्रासन कम्पेन तज्जन्मोत्सवं विज्ञाय सप्तपदान गत्वा भक्त्या मुर्म स्थानस्था एव जिनेद्रप्र शमस्ति । इत्यादि परया विभूत्या चतुर्णिकायसुरेन्द्राः, सामराः सकलत्राः नानादेवानकध्वान धिरीकृनदि मुखाः, ध्वजछत्रचामर विमानादिभिर्नभोङ्गणं छादयन्त: स्वर्गातीर्थेशोत्पत्तिपुरमागच्छन्ति । अर्थ:-जिस प्रकार दक्षिणेन्द्र के सात अनीकों की संख्या का वर्णन किया है। उसी प्रकार की संख्या आदि उत्तरेन्द्र के भी होती है। ऐशान इन्द्र भो दिव्य अश्वों पर चढ़कर अपने परिवार से अलंकृत होता हुआ, महाविभूति के साथ जन्माभिषेक में आता है । शेष सनत्कुमार इन्द्र आदि को लेकर अच्युत इन्द्र पर्यन्त के सभी देवेन्द्र सात अनीकों एवं तोन पारिषदों से वेष्ठित, अपने अपने वाहन रूपी विभूति का आश्रय लेकर समस्त देवों के साथ यहां आते हैं। भवनवासी, व्यन्तरवासी और ज्योतिष्क देवों के इन्द्र भी सात अनीकों एवं तीन पारिषदों से वेष्टित होते हुये, अपने-अपने वाहन एवं विमान श्रादि पर चढ़कर महाविभूति से युक्त होते हुये पानी-पानो देवियों के साथ यहाँ पाते हैं । समस्त अहमिन्द्र प्रासन कम्पायमान होने से जिनेन्द्र के जन्म उत्सब को जानकर और सात पर आगे जाकर मस्तक से अपने स्थान पर स्थित होकर ही जिनेन्द्र भगवान को नमस्कार करते हैं। इसरकार परम विभूति से मुक्त होते हुये चतुनिकाय के इन्द्र अपने समस्त देवों के साथ नाना प्रकार के देववादित्रों के शब्दों द्वारा Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठोऽधिकारः [ १७३ दिशात्रों को बहरी करते हुये तथा ध्वजा, छत्र, चामर और विमान आदि के साथ ग्राकाशतल को व्यात करते हुये स्वर्ग से उस नगर में प्राते हैं, जहाँ तीर्थङ्कर की उत्पत्ति होती है। अब बालतीर्थङ्कर के जन्माभिषेक आदि की समस्त प्रक्रिया का सविस्तार वर्णन करते हैं: कोन्द्राण प्रचार अनिल गानुरको पाई मायाशिशु निधाय तीर्थेशं प्रणम्यादाय गुढ़वृत्त्यामोय सौधर्मेन्द्रस्य करे ददाति । सोपितं तीर्थङ्करं मुदाप्रगम्यस्तुत्वामहोत्सवेन मेरुमानीयपरीत्य पाण्डुकशिलास्थ मसिहासने धत्ते । ततः क्षीराब्धेः क्षीराम्बुभतः अष्टयोजनगम्भीरैर्योजनकमुखविस्तृत मुक्तादामाम्भोजचन्दना'चलंकृतरष्टोलरसहस्रः, कनत्काञ्चनकलशेर्गीतनृत्यभ्र पोरक्षेपादि ध्र क्षेपादि] महोत्सवशतः, परया भक्त्या विभूत्या च नाकेन्द्राः सम्भूय जिनेन्द्र स्नपयन्ति । यदि चेत्ता महत्योजलधारा यस्याद्रपरि पतन्ति सोऽद्रिस्तत्क्षरणं शतखण्डतां याति । अप्रमाणमहावीर्यः परमेश्वरस्तद्धारापतनं जलविन्दुवन्मन्यते । इतिध्वनद्वाद्यशतर्जयजयादि निर्घोष : शुद्धाम्बुस्नपनं सम्पूर्ण विधा. यान्ते सुगन्धिद्रव्य मिश्रित! गन्धोदक कुम्भगन्धोदकस्नपनं शका अस्थ कुर्वन्ति । ततस्तगन्धोदकमभिवन्द्य दिव्यगन्धादिभिः स्वर्गापनीत महापूजाद्रव्य जिनं प्रपूज्योत्तमांगेनदेवेन्द्रा इन्द्राणोदेवादिभिः सहोच्चैः प्रणमन्ति । पुनः शची नानासुगन्धद्रव्यदिव्यांशुक शाश्वत मणिने ध्येस्तोर्णेशस्य महत्मण्डनं करोति, तदा सौधर्मेन्द्रो जगद्गुरोर्महारूप सम्पदोदीक्ष्य तृप्तिमप्राप्य पुन:क्षितु सहस्रनयनानि विदधाति । तत: परमानन्देन परमेश्वरं स्तुतिशतैः स्तुत्वा तत्पुरं नीत्वा पित्रो समप्यं तत्रानन्दमाटकं कृत्वा परं पुण्यमुपाज्यं चतुरिणकाय देवेशाः स्वस्वस्थानं गच्छन्ति । ___ अर्थ:-प्रभु के जन्म नगर में प्राकर इन्द्राणी प्रसूतिगृह में प्रवेश करके माता के समीप जाकर सर्व प्रथम बाल तीर्थङ्कर को प्रणाम करती है, और उसी समय माता के समीप मायामयी बालक रख कर भगवान को उठाकर तथा गढ़ वत्ति से लाकर सौधर्म इन्द्र के हाथों में दे देती है। वह इन्द्र भी उन तोङ्कर प्रभु को प्रसन्नता पूर्वक प्रणाम करके एवं स्तुति करके महामहोत्सव के साथ मेरु पर्वत पर लाकर और मेरु की तीन प्रदक्षिणा देकर पाण्डुक शिला पर स्थित मध्य के सिंहासन पर प्रभु को विराजमान कर देता है । इसके बाद क्षीरसागर के क्षीर सदृश जल से भरे हुये आठ योजन (६४ मोल) गहरे, एक योजन (८ मोल) मुख विस्तार वाले, मोतियों की माला, कमल एवं चन्दन आदि से अलंकृत, अत्यन्त शोभायमान स्वर्ण के एक हजार पाठ कलशों के द्वारा, गीत, नृत्य एवं भ्र उपक्षेपण |भ्र क्षेपण आदि सैकड़ों महा उत्सवों के साथ, उत्कृष्ट भक्ति एवं परम विभूति से सभी इन्द्र एकत्रित होकर जिनेन्द्र भगवान को स्नान कराते हैं। भगवान् के ऊपर गिरने वाली वह महान् जल की धारा यदि १. चन्दनाय र.लंकृत अ. ज.. Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ ] सिद्धान्तसार दीपक कहीं उस पर्वत के ऊपर गिर जाय तो उस पर्वत के उसी क्षण सो खण्ड हो जाय, किन्तु अपरिमित महावीर्य को धारण करने वाले बाल जिनेन्द्र उन धाराओं के पतन को जलविन्दु के समान मानते हैं। इस प्रकार शब्द करते हये सैंकड़ों वादियों और जय जय आदि शब्दों के द्वारा शुद्ध जल का अभिषेक समार करके अन्त में इन्द्र सुगन्धित द्रव्यों से मिश्रित, सुगन्धित जल से भरे हुये घड़ों के द्वारा सुगन्धित जल से अभिषेक करता है । पश्चात् उस गन्धोदक की अभिवन्दना करके महापूजा के लिये स्वर्ग से लाये हये दिव्य गन्ध आदि थ्यों के द्वारा बाल जिनेन्द्र की पूजा करके इन्द्र अपनी इन्द्राणी एवं अन्य देवों के साथ उत्साह पूर्वक प्रणाम करते हैं । इसके बाद शचो अनेक प्रकार के सुगन्धित द्रव्यों से, दिव्य वस्त्रों से और मरिणयों के आभूषणों से तीर्थेश का महान शृङ्गार करती है। उस समय सौधर्म इन्द्र जगद्गुरु की महारून वरूप समागो कात नहीं होता और पुन: पुनः देखने के लिये एक हजार नेत्र बनाता है । ततः उत्कृष्ट प्रानन्द से युक्त होता हुया भगवान की सैकड़ों स्तुतियां करता है। अर्थात् सहस्रों प्रकार से भगवान की स्तुति करता है । इसके बाद नगर में लाकर पिता को सौंप देता है, पश्चात् पितृगृह के प्राङ्गण में प्रानन्द नाम का नाटक करके, तथा उत्कृष्ट पुण्य का उपार्जन करके इन्द्र एवं चतुनिकाय के देव अपने अपने स्थानों को वापिस चले जाते हैं । प्रब भद्रशाल वन में स्थित जिनालयों के प्रमाण का वर्णन करते हैं:--- मथ मेरोश्चतुविक्षु भवशालवनस्थितान् । वर्णयामि मदोत्कृष्टाश्चतुरः श्रीजिनालयान् । अद् पूर्वदिशाभागे योजनशतायतः।। पञ्चाशद् विस्तृतस्तुङ्गः पञ्चसप्ततियोजनः ॥७॥ कोशद्यावगाहाच विचित्रमणिचित्रितः। प्रभुतः स्याज्जिनागारस्त्रैलोक्यत्तिलकाहपः ॥६॥ अर्थ:-सुमेरुपर्वत को चारों दिशाओं में भद्रशाल वन है जिसमें उत्कृष्ट चार जिनालय हैं, अब मैं (प्राचार्य) उन जिनालयों का प्रसन्नता पूर्वक वर्णन करता हूँ। ६।। सुदर्शन मेरु की पूर्व दिशा ( भवशाल वन ) में नाना प्रकार की मणियों से रचित लोक्यतिलक नाम का एक अद्भुत जिनालय है, जो सौ योजन लम्बा, पचास योजन चौड़ा, पचहत्तर योजन ऊँचा और अर्ध योजन अवगाह (नीव) वाला है ॥७-८॥ औलोक्यतिलक जिनालय के दरवाजों का वर्णन:-- भस्य पूर्वप्रदेशेऽस्ति चोसरे दक्षिणे महत् । एककमूजितं द्वारं रत्नहेममयं परम् ॥६॥ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठोऽधिकारः [ १७५ राजते नितरां द्वारं तयोः पूर्वस्थमादिमम् । प्रष्टयोजन विस्तीर्ण तुङ्ग षोडशयोजनः ॥१०॥ दक्षिणोत्तरदिगभागस्थे द्वे द्वारे परे शुभे । भातोऽष्टयोजनोत्तुङ्ग चतुर्योजन विस्तरे ॥११॥ अर्थ,—इस टीलोक्य तिलक जिनभवन के पूर्व, उत्तर और दक्षिण में रत्न एवं स्वर्णमय एक एक उत्कृष्ट द्वार हैं । उत्तर-दक्षिण दोनों द्वारों के मध्य पूर्व दिशा में स्थित प्रथम द्वार अत्यन्त शोभायमान है, जिसकी ऊँचाई सोलह योजन और चौड़ाई पाठ योजन प्रमाण है। जिनालय को दक्षिणोत्तर दिशा में जो एक एक द्वार सुशोभित हैं, उनकी ऊँचाई पाठ योजन और चौड़ाई चार योजन प्रमाण है ॥६-११॥ अब जिनालय के अभ्यन्तर एवं बाह्य मागों में स्थित मालाओं, धूपघटों एवं स्वर्ण घटों का प्रमाण आदि कहते हैं: भवनस्यास्य चाभ्यन्तरे पूर्वे विस्फुरन्त्यलम् । विचित्रामणिमालाश्चाष्टसहस्रारिपलम्बिताः ॥१२।। तासामन्तरभागेषु चतुविशतिसम्मिताः । सहस्राणां विराजन्ते माला रत्नांशुसञ्चयः ॥१३ । चतुविशसहस्राणि दिया धूपघटाः शुभाः। सुगन्धि द्रव्य धूपः स्युः सुगन्धीकृतदिग्मुखाः ॥१४।। स्पात्रिंशत्सहस्राणि कलशा भानुतेजसः ।। सुगन्धिदामराशीनां सन्मुखा मरिगहेमजाः ॥१५॥ तबहिर्भागदेशेषु मणिमालाः प्रलम्धिताः । चत्वारि च सहस्राणि सन्ति दीप्ता मनोहराः ॥१६॥ द्वादशवसहस्राणि स्युः काञ्चनस्रजोऽमलाः । तस्मिन्नेव बहिर्भागे दिव्याधूपघटाः स्मृताः ॥१७॥ द्विषट्सहस्रसंख्याताः सहस्रषोडशप्रमाः। वीप्ताः काञ्चनकुम्भाश्च स्फुरन्तिस्वाङ्गरश्मिभिः ॥१८॥ १. दीप्रा: प्र. ज. न. Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ ] सिद्धान्तसार दोपक अर्थ:—उस जिनालय के अभ्यन्त र भाग में स्थित पूर्व दिशा के द्वार पर अत्यन्त दैदीप्यमान नाना प्रकार की मणियों को पाठ हजार मालाएं लटकती हैं, और इनके मध्य में रत्नकिरणों से उपचित चौबीस हजार मालाएँ विराजमान होती हैं। सुगन्धित द्रव्य एवं धूप के द्वारा दिशानों को सुगंधित करने वाले चौबीस हजार धूपघट स्थित हैं । सुगन्धित माला समूहों के अभिमुख, सूर्य सदृश तेजपुज से संयुक्त बत्तीस हजार माल एवं स्वमिव काश विस है। मुख्यधारा में बाह्यभाग में जो द्वार हैं, उन पर प्रति मनोहर और दीप्तवान् चार हजार मरिणमय मालाएं, और बारह हजार स्वर्णमय मालाएँ हैं । इनके भी वाह्य भाग में बारह हजार प्रमाण दिव्य धूपघट और स्फुरायमान होने वाली । अपनी किरणों से दीप्त सोलह हजार स्वर्ण कलश स्थित हैं ।। १२-१८॥ अब पौठ, सोपान एवं पोठवेदियों के व्यास प्रादि का और जिन प्रतिमानों का । वर्णन चौवह श्लोकों द्वारा करते हैं:-- जिनागारेऽत्र सन्त्येबदोर्धाणिषोडशप्रमः । साधिकर्योजनैविस्तृतान्यष्टाधिकयोजनः ॥१६॥ ववेन्द्रनीलरत्नादिमयानि परमान्यपि ॥२०॥ मणिसोपान पंक्तिः स्यात्तत्रवीर्घा च योजनः। वयष्टभिरष्टमिासाषड्योजनोन्नता शुभा ॥२१॥ क्रोशद्वयावगाहास्यावष्टोत्तर शतान्यपि । सोपानानि भवन्त्येवप्रोन्नतानि चतुःशतैः ॥२२॥ किञ्चिदुनश्चचापः पञ्चचत्वारिंशदग्रग्ने। पौठपर्यन्तभागेऽस्ति दिव्या सद्रनवेदिकाः ॥२३॥ क्रोशद्वयोन्नताः पञ्चशतचापप्रविस्तृताः । सेषु पीठेषु दिव्याङ्गा अष्टोत्तरशतप्रमाः ॥२४॥ स्फुरनानामणिस्वर्णमयोऽधिनश्वराः शुभाः । धनुः पंचशतोतुङ्गामनोझायोक्षणप्रियाः ॥२५॥ निराभरणवीप्ताश्च' निरम्बरमनोहराः। कोटये कमानुतेजोऽधिक सुतेजो विराजिताः ॥२६॥ १. दीप्राश्च प्र. ज. न. Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठोऽधिकारः [ १७७ लक्षणव्यंजनेयुक्ताः पल्यङ्कासनसंस्थिताः । पूर्णसोममुखाः सौम्याः समस्तविक्रियातिगाः ॥२७॥ दिव्यभामण्डलान्तर्बाह्योच्छेदिततमश्चयाः। प्रफुल्लपासवहस्ता पारक्तचरणाम्बुजाः ॥२६॥ अजनाभमहाकेशा प्रताम्रनयनोत्पलाः । विद्रुमाभाधराः छत्रत्रयशोभितमस्तकाः ॥२६॥ विसिंहासनारूढा भामण्डलातविग्रहाः। महार्चनाचितायोज्यमाना: प्रकीर्णकः ॥३०॥ मिरौपम्या जगन्नेत्रप्रियाः पुण्याकरा इव । हसन्त्यो वा बदन्त्यो वा मुखचन्द्र ण संततम् ।।३१।। त्रिजगन्नसुराराध्यायन्याः स्तुत्यामया सदा । राजन्ते श्रीजिनेन्द्राणां प्रतिमादिव्य मूर्तयः ॥३२॥ अर्थ:-लोक्यतिलक जिनभवन में वज्र एवं इन्द्रनीलमणिमय एक पीठ है जो कुछ अधिक सोलह योजन लम्बा, प्राह योजन चौड़ा, दो योजन ऊँचा, अत्यन्त शुभ और परमोत्कृष्ट है ।।१६-२०|| वहाँ पर सोलह योजन लम्बी, पाठ योजन चौड़ी, छह योजन ऊँची और अर्ध योजन नींव से युक्त मरिणमय सोपान पंक्ति है, तथा उस सोपान पंक्ति में एक सौ पाठ सोपान हैं, जिनमें से प्रत्येक सोपान कुछ कम चार सौ पैंतालीस धनुष ऊँचे हैं। पीठ पर दिव्य और उत्तम रत्न वेदियां हैं, जो अब धनुष ऊँची और पांच सौ धनुष चौड़ी हैं । उन वेदिकाओं पर श्री जिनेन्द्र भगवान् को ऐसी एक सो पाठ प्रतिमाएँ सुशोभित हैं, जो अत्यन्त विभावान् मरिण एवं स्वर्णमय हैं। प्रविनश्वर अर्थात् अकृत्रिम हैं। प्रत्यन्त शुभ, मनोज्ञ, देखने में अति प्रिय और दिव्य अङ्ग वाली हैं। पांच सौ धनुष ऊँची हैं, वस्त्राभूषणों से रहित अर्थात् दिगम्बर मुद्रा युक्त हैं, और करोड़ों सूर्यों के तेज से भी अधिक कान्तिवान् हैं ॥२१-२६।। वे जिन प्रतिमाएं (१०८) लक्षणों एवं (९००) यजनों से युक्त तथा पूर्ण चन्द्र के सदृश मुख वाली हैं। उनकी शरीराकृति अत्यन्त सौम्य और सर्व विकारों से रहित है, वे सभी पद्मासन से स्थित हैं। उनका भामण्डल अन्तर-बाह्य अन्धकार के समूह को नष्ट करने वाला है। उनके करकमल एवं चरणकमल खिले हुए कमल सदृश अर्थात् कुछ कुछ लाल हैं, केश अञ्जन सदृश काले, नेत्र कमल लालिमा से रहित, मोंठ विद्रुम को प्राभा सदृश लाल और मस्तक तीन छत्रों से सुशोभित है । दिव्य सिंहासन पर विराजमान उनका शरीर अत्यन्त कान्तिवान् है । वे महापूजा से पूज्य, यक्षों द्वारा वोज्यमान चामरों से युक्त, उपमा रहित, तोन लोक के नेत्रों को अत्यन्त प्रिय और पुण्य की खान के समान Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ ] सिद्धान्तसार दीपक हैं। वे जिन प्रतिमाएं शोभायमान मुख चन्द्र से मानो निरन्तर हँस रहीं हैं, और बोल रही हैं तथा तीन लोक के मनुष्यों एवं देवों से पूज्य और मेरे द्वारा सदा वन्दनीय एवं स्तुत्य हैं ॥२७-३२॥ भोपकरलो (मला•il) का वर्णनः-- प्रकृत्रिमा महाभूत्या धर्मोपकरणः परः । प्रत्येकं भिन्नभिन्न दाष्टोत्तरशतप्रमः ॥३३॥ अशोकवृक्षशोमायादेवदुन्दुभिभुषिताः । सुरैः कृतमहापुष्पवृष्टचाच्छादितमूर्तयः ॥३४॥ अर्थः-अकृत्रिम और महाविभूति स्वरूप भिन्न-भिन्न मङ्गल द्रव्यों { भारी, कलश, दर्पण, पंखा, ध्वजा, चामर, छत्र और ठोनों ) को सख्या एक सौ पाठ-एक सौ पाठ है । वे प्रतिमाएं (छत्र, चमर, सिंहासन, भामण्डल और ) अशोक वृक्ष को शोभा से युक्त, देवदुन्दुभि से विभूषित और देवों ।। द्वारा की हुई महापुष्पवृष्टि से पाच्छादित (व्याप्त) होतो हैं ॥३३-३४॥ गर्भगृह का वर्णन:-- शुद्धस्फटिकभित्याय वेड्यस्तम्भशोभितम् । नानारत्नप्रभाकीर्ण दिव्यामोदात्तदिग्मुखम् ।।३५॥ जिनेन्द्रप्रतिमानां तद्दवच्छन्दान्यनामधत् । गर्भगृहं जगत्सारं राजते नितरांश्रिया ।।३६।। अर्थ:--शुद्ध-निर्विकार स्फटिक मरिणमय दोवालों से युक्त, वैडूर्यमणिमय खम्भों से सुशोभित, अनेक प्रकार के रत्नों को प्रभा से व्याप्त, दिव्य प्रामोद से ग्रहण-सुगन्धित किया है दिशाओं को जिसने ऐसा जगत के सार स्वरूप जिनेन्द्र प्रतिमानों सम्बन्धो देवच्छन्द नाम का गर्भगृह अत्यन्त शोभा से सुशो. भित होता है ।।३५-३६।। ध्वजाओं, मुखमण्डपों और प्राकारों का निर्धारण करते हैं:-- सद्रत्नवेदिकाग्रेषु सुपीठ शिखरेषु च । मणिस्तम्मेषु राजन्ते महान्तोऽन ध्वजोत्कराः ।।३७॥ सिंहहस्तिध्वजा हंसवृषभान्ज शिखिध्वजा । मकरध्वजचक्रातपत्राख्यागरुडध्वजाः ॥३८।। एते महाध्वजा रम्या वशमेव युताः शुभाः । प्रत्येकं च पृथगरूपा अष्टोत्तरशतप्रमाः ।।३।। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठोऽधिकारः [१७६ एकक सद्ध्वजानां सम्बन्धिनः क्षुल्लकध्वजाः । अष्टाशसंख्याः सन्ति सुहायताः ॥४०॥ एते सर्वे ध्वजवाता गोपुरेभ्यः समुन्नताः । मुखमण्डपसंज्ञानां त्रयाणां स्युर्बहिदिशि ॥४१॥ सुवर्णमणिसदप्यमयाश्च योजनोच्छ्रिताः । स्युः प्राकारास्त्रयस्ता महान्तो रचनाङ्किताः ॥४२॥ प्राकारंप्रति चत्वारि सदनगोपुराण्यपि । सन्त्युत्तानि वीप्तानि योजनः षोडशप्रमः ।।४३।। शतकयोजनायामाः पञ्चाशद्विस्तरान्विताः ।। क्रोशद्वयाषगाहा: प्रोन्नता। षोडशयोजनः ।।४४।। संतप्तहेमवीप्ताङ्गा विचित्ररत्नचित्रिताः। नित्योत्सवयुत्तारम्या विशेया मुखमण्डपाः ।।४।। अर्थ:-श्रेष्ठ रत्न वेदिकानों के अग्रभाग पर, पीठ के शिखर पर और मणिमय खम्भों के ऊपर महान ध्वजारों के समूह शोभायमान होते हैं। वे अत्यन्त रमणीय महा ध्वजा समूह सिंह, हाथी, हंस, वृषभ, कमल, मयूर, मकरध्वज, चक्र, प्रातपत्र और गरुड़ के भेद से दश प्रकार के हैं। इन प्रत्येक भेदों की भिन्न भिन्न एक सौ पाठ, एक सौ पाठ ( १०८x१० = १०८०) ध्वजाएँ होती हैं और उन १.८ ध्वजारों के भी पृथक-पृथक एक सौ आठ, एक सौ आठ छोटा ध्वजाएँ (१०८०४१०५=११६६४०) मुक्ता की मालानों से सुशोभित होती हैं ॥३७-४०॥ __ ये समस्त ध्वजारों के समूह गोपुरों से ऊंचे हैं। तीनों मुखमण्डलों के बाहर तीन कोट हैं। ये तोनों कोट, स्वर्ण, मरिण एवं रजतमय हैं, एक योजन ऊँचे तथा महान रचना से सहित हैं। प्रत्येक कोट में उत्तम रत्नों से भास्वर एवं उत ङ्ग चार चार गोपुरद्वार ( प्रतोली) हैं, जो सोलह योजन ऊंचे हैं ॥४१-४६॥ ___तपाये हुये स्वर्ण के सदृश देदीप्यमान, नानाप्रकार के रलों से खचित, सदैव होने वाले महा महोत्सवों से युक्त और अत्यन्त रमणीय मुखमण्ड़प भी सौ योजन लम्बे, पचास योजन चौड़े, सोलह योजन ऊँचे और अर्ध योजन नींव वाले जानना चाहिये 11४४-४५।। अब प्रेक्षागृह एवं सभागृहों का वर्णन करते हैं:-- तदओयोजनानां च शतकायामविस्तराः । भवन्त्यर्धावगाहाः प्रोतुङ्गाः षोडायोजनः ।।४६।। Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० ] सिद्धान्तसार दीपक नानारत्नमया रम्याः प्रेक्षागृहा मनोहराः। वेषां च पुरतः सन्तितुङ्गा बोडशयोजनः ॥४७॥ योजनानां चतुःषष्टिदीर्घस्यासान्विताः पराः । हमारामधास्तीजाजालावृताः सभागहाः ॥४८॥ तेषां सभागहाणां कांचन पोठानिसन्ति च । अशीतियोजनायामविस्तृतानि शुभान्यपि ।।४६॥ द्वियोजनोच्छुितान्यच्चः पद्मवेदीयतानि वै । मनोहराणि रम्याणि प्रदोरतर्मणि तोरणः ॥५०॥ अर्थ:-उन मुखमण्डपों के आगे सौ योजन लम्बे, सौ योजन चौड़े, सोलह योजन ऊँचे, अर्ध योजन नींव से युक्त अनेक रत्नों से व्याय, अत्यन्त रमणीक और मन को हरण करने वाले प्रेक्षागृह हैं । उन प्रेक्षागृहों के आगे सोलह योजन ऊँचे, चौंसठ योजन लम्चे, चौंसठ योजन चौड़े, दीप्ति समूह से प्रावृत्त स्वर्ण एवं रत्नमय उत्तम सभागृह हैं ।।४६-४८॥ उन सभागृहों के पीठ स्वर्णमय हैं। तथा अस्सी योजन लम्बे, अस्सो योजन चौड़े और अत्यन्त सुन्दर हैं। वे पीठ देदीप्यमात मणियों के दो योजन ऊँचे तोरणों से संयुक्त, अत्यन्त रमणीक और मनोहर पद्मवेदी से रम्य हैं ॥४६-५०।। अब नवस्तुप और मानस्तम्भ का वर्णन करते हैं: तेषां सभालयानां पुरतः स्तूपा नवोजिताः । योजनानां चतुःषष्टयायामच्यासोन्नताः शुभाः ॥५१॥ जिनेन्द्रप्रतिमापूर्णा मेखलात्रयसंयुताः । चतुर्विशतिसद्ध मवेदीभिर्वेष्टिताः पराः ॥५२॥ रत्नपीठेषु चत्वारिंशयोजनोच्छुितेषु च । स्फुरदरत्नमयाः सन्ति स्थितादेवखगाचिताः ॥५३॥ गोपुराणां बहिर्भागे वीथीनां मध्यभूमिषु । मानस्तम्भा भवन्त्यच्च दीप्ता घण्टाद्यलंकृताः ।।५४॥ अर्थ:-उन सभागृहों के भागे चालीस योजन ऊँने रत्नमय पीठों पर देव और विद्याधरों से पूजित देदोप्यमान रत्नमय जिनद्र प्रतिमानों से संयुक्त, तीन मेखलाओं से वेष्टित चौंसठ योजन लम्बे, चौंसठ योजन चौड़े और चौंसठ योजन ऊँचे, श्रेष्ठ स्वर्णमय चौबीस वेदियों से परिवेष्टित, अति उत्तम और अत्यन्त सुन्दर नव स्तूप हैं ।।५१-५३।। गोपुरों के बाह्यभाग में तथा वीथियों (गलियों ) की मध्यभूमि में अतिशय प्रभावान् और घण्टा आदि से अलंकृत मानस्तम्भ हैं ।। ५४।। Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठोऽधिकार : अब चैत्यवृक्ष का वर्णन सात श्लोकों द्वारा करते हैं:स्तूपानां पुरतोगत्वा हेमपीठं भवेन्महत् । सहस्रयोजनायास विस्तारंमरिणभास्वरम् ||५५ ।। युतं द्वाभिण्डितम् । पीठस्योपरिसन्ति प्रोन्नताः षोडशयोजनैः ॥५६ ।। श्रष्टयोजनविस्तीर्णाश्चैत्यवृक्षाः शुभप्रदाः । रम्याः सिद्धार्थनामानो महान्तः सुरपूजिताः ॥५७॥ एकं लक्षं च चत्वरिंशत्सहस्र तथा शतम् । विशत्य प्रमिमासंख्या विशेया चेत्यशाखिनाम् ।। ५८ ।। द्रुमाणां भूतलाद्गत्वा चत्वारियोजनानि च । चतुदिक्षुचतस्रः स्युद्विषट्कयोजनायताः || ५६|| योजन कसुविस्तीर्णा महाशाखाः क्षयातिगाः । मूलेषु चैत्यवृक्षाणां चतुर्दिक्षु मनोहराः ||६०|| जिनेन्द्रप्रतिमाः शाश्वताः पत्यङ्कासन स्थिताः । भवेयुर्मारीताङ्गः प्रातिहार्य श्रियाचिताः ॥ ६१ ॥ अर्थ:-- स्तूपों के आगे ( पूर्व दिशा की ओर ) जाकर एक हजार योजन लम्बा और एक हजार योजन चौड़ा, मणियों की प्रभा से दीप्तवान्, बारह वेदियों से वेष्टित तथा उत्तम तोरणों से मण्डित एक स्वर्णमय पीठ है । उस पीठ के ऊपर सोलह योजन ऊँचा और आठ योजन चौड़ा यति शोभायुक्त, रमणीक और देवों से पूजित एक सिद्धार्थ नाम का महान चैत्यवृक्ष है ।। ५५-५७ ।। उस चैत्यवृक्ष के परिवार वृक्षों की संख्या एक लाख चालीस हजार एक सौ बीस जानना चाहिये ||१८|| चैत्यवृक्ष के भूमितल भाग से चार योजन ऊपर जाकर बारह योजन लम्बी और एक योजन चौड़ी प्रमाण वाली तथा विनाश से रहित चार महाशाखाएं चारों दिशाओं में फैली हैं। चैत्यवृक्षों के मुलभाग को चारों दिशाओं में पत्पङ्कासन (पद्मासन ) से स्थित एक एक जिनेन्द्र प्रतिमाएं हैं । जो अपनो सुन्दरता से मन को हरण करने वाली, उत्पत्ति विनाश से रहित, मणियों की दीप्ति से भास्वर शरीर वाली तथा प्रातिहार्य आदि लक्ष्मी से सेव्यमान हैं ।।५६ - ६१ ॥ [ १८१ अब ध्वजापीठ, स्तम्भ, ध्वजासमूह और वापियों का वर्णन पाँच श्लोकों के माध्यम से करते हैं: ततश्चत्यद्र ुमेभ्योऽनुगत्वा प्राग्दिग्महीतले । महत्पीठं ध्वजघानां स्याद्वेदीद्वादशाङ्कितम् ||६२॥ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ ] सिद्धान्तसार दोपक पीठस्योपरिषोत्तुङ्गाः सन्ति षोडशयोजनः । क्रोशव्यासामहास्तम्माः सद्धर्यमयाः शुभाः ॥३॥ स्तम्भानां शिखरेषुस्युन नावान्विता ध्वजाः । छत्रत्रयांफिता मूर्निदिव्यरूपाश्च्यतोपमाः ।।६४॥ ध्वजानांपुरतो याप्यो दीर्धाः शतकयोजनः । पञ्चाशद्विस्तृताः स्युश्चावगाहा दशयोजनः ।।६।। युताः काञ्चनवेदोभिर्मणि तोरणभूषिताः । निर्जन्तुजलसम्पूर्णाः शाश्वताः कमलाश्रिताः ॥६६॥ अर्थ:-उस चैत्यवृक्ष से पुनः पूर्व दिशा में जाकर पृथ्वीपर बारह वेदियों से संयुक्त ध्वजासमूहों का एक विशाल पीट है ॥६२।। उस पीट के शिखर पर सोलह योजन ऊँचे और एक कोस विस्तार से युक्त वैडूर्यमणिमय प्रति शोभायुक्त महास्तम्भ ( खम्भे ) हैं ॥६३।। इन खम्भों के शिखरों पर विविध वर्णो से समन्वित, शिखर पर तीन छत्रों से सुशोभित्त, दिव्य रूप से सम्पन्न और अनुपम ध्वजाए हैं ।।६४॥ उन ध्वजारों के प्रागे सो योजन लम्बो, पचास योजन चौड़ो और दश योजन गहरी, स्वर्ण वेदियों से वेष्टित, मरिणमय तोरणों से विभूषित, निर्जन्तु अर्थात् स्वच्छ जल से परिपूर्ण और कमलों से व्यार, शाश्वत विद्यमान रहने वाली वापियां हैं ॥६५-६६।। अब क्रीड़ा प्रासादों का और तोरणों के विस्तार प्रादि का वर्णन करते हैं: बापोनां प्राक्तने भागे यु त्तरे दक्षिणे शुभाः। स्वर्णरत्नमयाः सन्ति प्रासादाः कृत्रिमातिगाः ।।६७॥ पञ्चाशद्योजनोत्सेधाः पञ्चविंशति योजनः । मायामव्याससंयुक्ता रत्नवेद्यायलंकृताः ॥६॥ एषु क्रोडागहेपूच्चः देवाः क्रोडा प्रकुर्वते । तेभ्यः पूर्वदिशंगत्वा विचित्रं रत्नतोरणम ॥६६॥ स्थाद्योजनशता?च्चं पञ्चविंशति विस्तरम् । मुक्तावामांकितं रम्यं वरघण्टाचयान्वितम् ।।७०॥ अर्थाः-उन वापियों के पूर्व, उत्तर और दक्षिण भागों में अत्यन्त शुभ, स्वर्ण एवं रत्नमम तथा प्रकृत्रिम क्रीड़ा प्रासाद हैं । वे कीड़ागृह पचास योजन ऊँचे, पच्चीस योजन लम्बे एवं चौड़े और रत्नों को वेदी प्रादि से अलंकृत हैं। उन कोडागृहों में देवगण नाना प्रकार की कौड़ाएं करते हैं । उन Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठोऽधिकारः [ १८३ क्रीड़ागृहों से भागे पूर्व दिशा में जाकर रत्नों से व्याप्त विचित्र तोरण है, जो पचास योजन ऊँचा, इससे प्राधा अर्थात् पच्चीस योजन चौड़ा, मुक्ता माला से संयुक्त, रमणीय एवं उत्तम घण्टा समूह से समन्धित है ।।६७-७०॥ अब प्रासादों, ध्वजाओं और वनखण्डों का निर्देश करते हैं:---- ततोऽस्यतोरणस्यैव पाश्वयोः स्तो द्वयोः परौं । द्वौ द्वौ सबस्नगेही च शतकयोजनोन्नती ॥७१॥ ततः परं विचित्राः स्यवंजवाताः समुन्नताः । नानावमहान्तोऽशीतिसहस्रप्रमाणकाः ।।७२॥ शततोरण संयुक्ता बनवेदी प्रवेष्टिताः । ततः परे महीभागे बनखण्डं स्फुरत्प्रभम् ॥७३॥ यादीगुल रहनसोएगाढच मनोहरम् । विचित्रमणिपीठाग्रस्थित मौघशोभितम् ॥७४॥ विद् मोत्थमहाशाखंहेमपुष्पौधशोभितम् । वैडूर्यफलपूर्ण मरकतारमसुपत्रकम् ॥७॥ चम्पकाशोकवक्षामसप्तपर्णद्र मैश्चितम् । कल्पपादपसंकीर्णशाश्वतं स्यात् खशर्मदम् ॥७६॥ अर्था:-इसके प्रागे तोरण के दोनों पाश्वभागों में सौ सौ योजन ऊँचे और उत्तम रत्नों के दो दो भवन हैं ॥७१।। इसके आगे विविध वर्ण के, समुन्नत और महान एक हजार प्रस्सी ( १०८४१० =१०८० ) संख्या प्रमाण विचित्र ध्वजारों के समूह हैं, जो सौ तोरणों से संयुक्त और उत्तम वनवेदी से परिवेष्ठित हैं । इसके आगे पृथ्वोतल पर देदीप्यमान प्रभा से भासुर वनखण्ड हैं, जो बनवेदी से युत; रत्नतोरणों से संयुक्त. मन को हरण करनेवाले, नाना प्रकार की मगिण पीठों के अग्रभाग पर स्थित वृक्षसमूहों से सुशोभित, विद म अर्थात् प्रवालमय शाखानों को शोभा से युक्त, स्वर्ण के पुष्प समूह से समृद्ध, वडूर्यमय फलों से व्याप्त, मरकत मरिण के पत्थरमय उत्तम पत्रों से संकीर्ण, चम्पक, अशोकवृक्ष, आम एवं सप्तपर्ण के वृक्षों द्वारा गहन, अन्य कल्पवृक्षों से परिपूर्ण, अनाद्यनिधन और इन्द्रियों को मुख देने वाले हैं ।।७२-७६।। अब मेरु के जिन भवनों को अवस्थिति और अन्य बनों आदि में स्थित जिनालयों के विस्तार प्रादि का वर्णन पाँच श्लोकों द्वारा करते हैं: तेषां कन्पद्रमाणांसन्मूले स्युजिनमूर्तयः । चतुर्दिक्षुमहादीप्ताः प्रातिहार्याद्यलंकृताः ॥७॥ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ ] सिद्धान्तसार दोपक इत्यादि रचनाभिश्च धथा यं श्रीजिनालयः । बॉणतः पूर्वदिग्भागे मेरोराथवनेऽखितः ॥ ७८ ॥ तथापरे जिनेन्द्राणां मेरोदित्रिषु संस्थिताः । समानथनोपेता शेयाश्चत्यालयास्त्रयः ॥७६॥ इत्येवं वर्णनः सर्वे जिनालया प्रकृत्रिमाः । समानाः सदृशाज्ञेयाः स्थिता लोकत्रये परे ॥८०॥ किन्त्वन्येषां जिनेन्द्रालयानां स्याद्वर्णनापृथक् । मध्यमानां जघन्यानामायामोत्सेधविस्तरैः ॥ ६१॥ श्रर्थः उन कल्पवृक्षों के मूलभाग की चारों दिशाओं में महादीप्तवान् एवं प्रातिहार्य आदि से अलंकृत जिनेन्द्रों की प्रतिमाएँ हैं ||७७|| जिस प्रकार सुदर्शन मेरु के प्रथम - भद्रशाल वन के पूर्व भाग में स्थित श्री जिनमन्दिर का अनेक प्रकार की रचना आदि के द्वारा सम्पूर्ण वर्णन किया है, उसी प्रकार सुदर्शन मेरु सम्बन्धी भद्रशाल वन में तीनों दिशाओं में स्थित तोन चैत्यालयों का वर्णन जानना चाहिये ॥७६ - ७६॥ इस प्रकार तीन लोक में स्थित अन्य समस्त प्रकृत्रिम जिनालयों की रचना आदि का समस्त वर्णन उपर्युक्त वन के सदृश ही जानना चाहिये, परन्तु अन्य जिनालयों अर्थात् मध्यम जिनालयों और जघन्य जिनालयों के प्रायाम, उत्सेध और विस्तार यादि का वर्णन पृथक् पृथक् है ||५०८१|| अब देवों, विद्याधरों एवं अन्य भव्यों द्वारा की जाने वाली भक्ति विशेष का निवर्शन करते हैं:-- एष श्रीजिनगेहेषु कुर्वन्स्युवं महामहम् । जिनेन्द्र दिव्यमूर्तीनामागत्य भक्तिनिर्भरा ॥ ८२ ॥ चतुणिकाय देवेशा देवदेव्यादिभिः समम् । प्रत्यहं स्वर्गलोकोत्थंम हाच द्रव्य सूरिभिः || ८३ ॥ खगेशाः खचरीभिश्च सहाभ्येत्यात्र पूजनम् । श्रतां विविधं कुर्युक्त्या विव्याष्टधानैः ||८४॥ चारणा ऋषयो नित्यं जिनेन्द्रगुणरञ्जिताः । अत्रेश्य जिनचैस्यादौन प्रणमन्ति स्तुवन्ति च ॥ ६५ ॥ श्रन्येऽपि बहवो भव्या प्राप्तविद्या वृषोत्सुकाः । जिनाच सर्चयन्स्यत्र भक्त्या नरोत्तमाः सया || ६६ ॥ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठोऽधिकारः एषु चाप्सरसो नित्यं कुर्वन्ति नृत्यमूजितम् । जिनेशगणभृद्दिव्य चरित्रऔरोक्षपप्रियम् ||८७|| दिव्यकण्ठाश्च किन्नयां गन्धर्वा वीणया सम् गायन्ति सारगीतानि तीर्थेश गुरणजान्यपि ॥ ६८ ॥ इत्युत्सवशर्त: पूर्णा विश्व चैत्यालया हमे । संक्षेपेण मया प्रोक्ता महापुण्य निबन्धनाः ॥ ८६ ॥ यतोऽमीषां पराः शोभा महतीरचनाभुवि । मुक्त्या गणाग्रिमं को बुधो वर्णयितु क्षमः ॥ [ १८५ अर्थः- अपूर्व भक्तिरस से भरे हुये चारों निकाय के इन्द्र उत्कृष्ट विभूति, देव देवियों एवं स्वर्ग लोक में उत्पन्न हुई महापूजा के योग्य अपरिमित द्रव्य सामग्री के साथ श्राकर उपर्युक्त वरिंगत श्री जिनालयों में स्थित जिनेन्द्रदेव की दिव्य मूर्तियों की प्रतिदिन महामह पूजन करते हैं ।। ८२-८३ ।। विद्याधरों के अधिपति भी अन्य विद्याधर एवं विद्याधरियों के साथ यहाँ ( अकृत्रिम जिन चैत्यालयों i) आकर भक्ति पूर्वक अष्ट प्रकार की दिव्य सामग्री के द्वारा अर्हन्त भगवान को नाना प्रकार से पूजन करते हैं ||२४|| जिनेन्द्र के गुणों में अनुरज्जित है मन जिनका ऐसे चारणऋद्धि घारी मुनिराज नित्य ही मेरु आदि पर आकर जिनेन्द्र प्रतिमाओं को प्रणाम करते हैं और स्तुति करते हैं ||२५|| अन्य भी और बहुत से विद्या प्रात धर्म उत्सुक एवं मनुष्यों में श्र ेष्ठ भव्य जीव भक्ति से प्रेरित होकर यहाँ निम ही जिनेन्द्र भगवान् की पूजा करते हैं ||८६|| और वहाँ पर अप्सराएँ नित्य ही जिनेन्द्र भगवान् एवं गणधर देवों के सर्वोत्तम चारित्र के अभिनय द्वारा देखने में अत्यन्त प्रिय और श्रेष्ठ नृत्य करतीं हैं । दिव्य कण्ठ वालों किन्नरियाँ और गन्धर्ण वीणा द्वारा जिनेश तीर्थकरों के गुणों से उत्पन्न हुये गीत तथा और भी सारगर्भित उनम गीत गाते हैं । इस प्रकार ये समस्त प्रकृत्रिम चैत्यालय सहस्रों महोत्सवों से व्याप्त रहते हैं | महा पुण्य बन्ध के हेतुभूत इन चैत्यालयों का वर्णन मेरे (आचार्य) द्वारा संक्षिप्त रूप से किया गया है, क्योंकि लोक में उत्कृष्ट शोभा और महान रचनाओं से व्याप्त इन प्रकृत्रिम चैत्यालयों का सम्पूर्ण वर्णन करने के लिये तोर्थङ्कर को छोड़ कर अन्य कौन विद्वान समर्थ है ? अर्थात् कोई नहीं है १८७६० श्रत्र मध्यम जिनालयों एवं उनके द्वारों का प्रमाण कहते हैं: पञ्चाशयोजनायामाः पञ्चविंशति विस्तृताः । सार्धसप्ताधिकैस्त्रिशद्योजनः प्रोन्नताः शुभाः ॥१॥ द्विगन्त्यवगाहाः स्युर्मध्यमाः श्रीजिनालया । श्रमीषां मुख्य सुद्वारमुत्तुङ्गमष्टयोजनेः ||२|| Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ ] सिद्धान्तसार दोपक चतुर्योजनविस्तीरणं चान्यद द्वारद्वयं भवेत् । चतुभियोजनैस्तुङ्ग पोजनद्वय विस्तरम् ।।६३॥ अर्थ:--मध्यम प्रकृत्रिम जिनालय पचास योजन लम्बे, पच्चीस योजन चौड़े, साड़े सैंतीस (३७३) योजन ऊंचे और अर्ध योजन नींव से युक्त होते हैं। इनके उत्तम प्रधान द्वार की ऊँचाई पाठ योजन और चौड़ाई चार योजन प्रमाण है, तथा अन्य दो द्वारों की ऊंचाई चार योजन और चौड़ाई दो योजन प्रमाण होती है ।।६१-६३॥ अब जघन्य जिनालयों एवं उनके द्वारों का प्रमाण बतलाते हैं: पञ्चविंशति संख्यानर्योजनरायताः परे । क्रोशद्वयाधिकद्वादश योजन सुविस्तृताः ।।१४।। त्रिकक्रोशाधिकाष्टादशयोजन समुन्नताः । द्वयकोशावगाहाः स्युर्जघन्याः श्रीजिनालयाः ॥६५॥ एतेषामग्रिमं द्वारं स्याच्चतुर्योजनोन्नतम् । योजनद्वय विस्तोरवं लघुद्वारद्वयं परम् ।।६।। द्वियोजनोरिचुतं च स्यादेकयोजन विस्तृतम् । अपरा वर्णना प्रोक्ता समाना श्रीजिनागमे ॥१७॥ अर्थ:-जघन्य अकृत्रिम जिनालय पच्चीस योजन लम्बे, साढ़े बारह ( १२३) योजन चौड़े, १८३ योजन ऊँचे और अर्ध योजन नींव से युक्त होते हैं। इन चैत्यालयों के प्रधान द्वार चार योजन ऊँचे और दो योजन चौड़े होते हैं, तथा दोनों लघुद्वार दो योजन ऊँचे और एक योजन चौड़े होते हैं। जिनागम में इन तीनों प्रकार के प्रकृत्रिम जिनालयों का अवशेष वर्णन समान ही कहा गया है ॥६४-६७॥ अब तीनों प्रकार के जिनालयों को अवस्थिति का निर्धारण करते हैं: भद्रशालेषु सर्वेषु मेरूगां नन्दनेषु च । वनेषु स्वविमानेषु नन्दीश्वरेषु सन्ति ये ॥६॥ उत्कृष्टायामविस्तारोत्सेवर्युक्ता जिनालयाः । उत्कृष्टास्ते जिमैः प्रोक्ता सर्वे पूज्या नरामरैः ॥६॥ मेरसौमनसोधानेषु विश्वेष कुलादिषु । वक्षारगजदन्तेषु चेष्वाकारनगेष्वपि ॥१००।। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठोऽधिकारः कुण्डले राकेशले मानुषोत्तरनामनि । ये चैत्यालयास्तेऽत्र दीर्घार्थ मध्यमा मताः ॥१०१॥ - ये पाण्डुकवने ते स्युर्जघन्याः श्री जिनालयाः । सर्वेषां विजयार्थानां जम्बूशाल्मलिशाखिनाम् ॥१०२॥ क्रोशायामाः परे क्रोशार्धव्यासाः प्रोन्नताः शुभाः । terraria विश्वे श्रीजिनमन्दिराः ॥ १०३ ॥ अर्थ :-- जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा कहे हुये और मनुष्यों एवं देवों द्वारा पूज्य उत्कृष्ट जिनालय पञ्चमेरु सम्बन्धी भद्रशाल बनों और नन्दन वनों में तथा नन्दीश्वर द्वीप और वैमानिक देवों के विमानों में हैं। इनका प्रयास, विस्तार एवं ऊँचाई उत्कृष्ट ही कही गई है ।६८-६६॥ पञ्चमेरु सम्बन्धी सौमनस वनों में समस्त कुलाचलों पर, वक्षार पश्तों पर, गजदन्त पर्वतों पर, इष्वाकार पर्वतों पर, कुण्डलगिरि, रुचकगिरि और मानुषोत्तर पत्रतों पर जो जिनालय हैं, उनकी दीता आदि का प्रमाण मध्यम माना गया है ||१०० -१०१॥ पञ्चमेरु सम्बन्धी पाण्डुकवनों में जो जिनालय अवस्थित हैं, उनका व्यासादिक जघन्य प्रमाण वाला है। समस्त विजयाध, जम्बुवृक्षों एवं शाल्मलि वृक्षों पर स्थित जिनालय एक कोस लम्बे, अर्ध कोस चौड़े और पौन कोस ऊँचे हैं, ऐसा जानना चाहिये ||१०२-१०३। अब भवनत्रिक सम्बन्धी एवं अन्य जिनालयों के साथ श्रष्टप्रातिहार्यो का कथन करते हैं: भावनव्यन्तरज्योतिष्क विमानेषु सन्ति ये । चैत्यालयाश्च ते जम्बूवृक्ष चैत्यालयः समाः ॥ १०४॥ श्रन्येषु वन सोधाद्रिपुरादिषु सुधाभुजाम् । भवन्ति ये जिनागारा बहवो विविधाश्च ते ।। १०५ ॥ श्रायामविस्तरोत्सेधेषु धर्ज्ञेया बरागमे । यतोऽत्र सन्ति सर्वत्र जिनागाराजगत्त्रये ॥१०६ ॥ [ १८७ भृङ्गारफलशादशं व्यञ्जनध्वजचामराः । सुप्रतिष्ठातपत्राश्च मङ्गलद्रव्यसम्पदा ॥१०७॥ प्रत्येकं हि पृथग्भूता प्रष्टोत्तरशतप्रमाः । एता भवन्ति सर्वेषु जिन वैश्यालयेष्वपि ॥ १०६ ॥ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ ] सिद्धान्तसार दीपक अर्थ:-भवनवासी, व्यन्तरवासी और ज्योतिष्क देवों के विमानों अर्थात् भवनों में जो चैत्यालय हैं, उनका प्रमाण जम्बूवृक्ष स्थित चैत्यालयों के प्रमाण सदृश हो है ॥१०४॥ अन्य वन, प्रासाद और नगर आदि में स्थित देवों के आवास सम्बन्धी जिनालय बहुत और नाना प्रकार के हैं ! इनका प्रायाम, विस्तार एवं उत्सेध आदि भी जिनागम में अनेक प्रकार का कहा है, जो विद्वानों के द्वारा जानने योग्य है। तीन लोक में सर्वत्र जितने भी अकृत्रिम जिन मन्दिर हैं ।।१०५-१०६।। उन समस्त जिनालयों में भृङ्गार, कलश, दर्पण, वीजना, ध्वजा, चामर, ठोना और छत्र ये अष्ट द्रव्य रूप सम्पदा पृथक्-पृथक् एक सौ पाठ-एक सौ पाठ प्रमाण होते हैं। अर्थात् एक एक जाति के उपकरण एक सौ पाठ-एक सौ पाठ (१०८४५-८६४) होते हैं ।। १०७-१०८।। अब लोकस्थ समस्त प्रकृत्रिम चैत्यालयों (प्राचार्य) नमस्कार करते हैं:-- ये त्रैलोक्ये स्थिताः श्रीजिनवरनिलया मेरनन्दीश्वरेषु, चेष्वाकारेभदन्तेषु वरकुलनगेष्वेवरूप्याचलेषु । मान्वादोषोत्तरे कुण्डलगिरिरुचकेजम्यक्षतरेषु, वक्षारेष्वेव सर्वेष्वपि शिवगतये स्तौमि तांस्तज्जिनार्चाः ।।१०।। अर्थ:-जो तीन लोक में स्थित अर्थात् विमानवासी, भवनवासी, व्यन्तरवासी एवां ज्योतिष्क देवों के स्थानों पर स्थित तथा परचमेरु सम्बन्धी-भद्रशाल ग्रादि वनों के ८०, चार इवाकारों के ४, बीस गजदन्तों के २०, तोस कुलाचल पर्वतों के ३०, एक सौ सत्तर विजया पर्वालों के १७०, एक मानुषोत्तर के ४, दश जम्बू एवं शाल्मलि वृक्षों के दश तथा अस्सी वक्षार पर्वतों के ८०, नरलोक सम्बन्धी और नन्दीश्वर द्वीप के ५२, कुण्डलगिरि के ४ और रुचकगिरि के ४, इसप्रकार मध्यलोक सम्बन्धी ४५८ जिनालय एवं उनमें स्थित जिन प्रतिमाएँ हैं उन सबकी मैं मोक्ष प्राप्ति के लिये स्तुति करता हूँ ॥१०॥ अधिकारान्त मङ्गलाचरणः-- त्रिभुवनपतिपूज्यास्तीर्थनाथांश्च सिद्धान्, त्रिभुवनशिखरस्थान पञ्चधाचारदक्षान् । मुनिगणपतिसूरीन पाठकान् विश्वसाधून, ह्यसमगुणसमुद्रान्नौम्यहं सद्गुणाप्त्यै ॥११०॥ इतिश्री सिद्धान्तसारबीपकम् ग्रन्थे भट्टारकश्रीसकलकोतिविरचिते सुदर्शनमेरु भवशालयनजिनचैत्यालयवर्णनोनाम षष्ठोऽधिकारः ।। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठोऽधिकार : [ १८६ अर्थ:--त्रिभुवनपनि अर्थात् शतेन्द्र पूज्य प्रहन्त परमेष्ठियों को, त्रैलोक्य शिखर पर स्थित सिद्धपरमेष्ठियों को, पञ्चाचार पालन में दक्ष ऐसे मुनिसमूह के अधिपति प्राचार्य परमेष्ठियों को और अनुपम गुणों के समुद्र समस्त उपाध्याय एवं साधु परमेष्ठियों को मैं उनके गुणों को प्राप्ति के लिये नमस्कार करता हूँ॥११०॥ इसप्रकार भट्टारक सकल कीति विरचित सिद्धान्तसार दीपक नाम महाग्रन्थ में सुदर्शनमेरु, भद्रशाल वन एव जिनचैलवालयों का वर्णन करने वाला छठवाँ अधिकार ।। समाप्त ।। Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मङ्गलाचरण: सप्तमोऽधिकारः जिनालयान् जिनाचरिच जिनेन्द्रान जिनलिङ्गिनः । जिननिर्वाणभूम्यादीन् वन्दे जिनागमध्वनीन् ॥१॥ अर्थ :--- जिनमन्दिरों, जिनप्रतिमाओं, जिनेन्द्रदेवों, जिनसाधुनों, जिन निर्वाणभूमि श्रादिकों को तथा जिनागम को मैं नमस्कार करता है || १ | अब गजदन्तों का प्रवस्थान एवं वर्ण कहते हैं:-- श्राग्नेयदिशिमेरोः स्यान्महान्सौमनसाह्वयः । गजदन्तश्च रूपाभः सप्तकूटा मण्डितः ॥२॥ नैऋत्यादिशि तस्यैव विद्युत्प्रभाभिधो भवेत् । गजदन्तः सुवर्णाभो नवकूटाङ्कितोऽद्भुतः ॥३॥ ऐशान्यां विशिसन्मेरोगंजदन्तोऽस्ति माल्यवान् । वैडूर्य रत्नदीप्साङ्गो नवकूटान्वितः शुभः ||४| वायव्यां दिशि रम्यः स्याद्गन्धमादन संज्ञकः । सप्तकूटाङ्कित मूनि शातकुम्भप्रभोऽचलः ||५|| अर्थ:-- सुदर्शन मे की प्रान्नेय दिशा में सात कूटों से मण्डित रजतमय महासौमनस नाम का गजदन्त है । नैऋत्य दिशा में नवकूटों से अलंकृत अद्भुत शोभा युक्त स्वर्णमय विद्युत्प्रभ नाम का गजदन्त है । ईशान दिशा में नवकूटों से समन्वित वैडूर्य रत्नों की दीति से युक्त उत्तम माल्यवान् गजदन्त है, तथा वायव्य दिशा में शिखर पर सात कूटों से संयुक्त, स्वर्णमय एवं रमणीक गन्धमादन नाम का गजदन्त पत है || २-५॥ अब गजदन्तों के विस्तार प्रादि का निर्धारण करते हैं:-- तेषां त्रिंशत्सहस्राणि नवाधिकशतद्वयम् । योजनानां कलाषट्प्रमाणक योजनस्य च ॥ ६ ॥ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमोऽविकारः [ १६१ भागानां सकलैकोन विंशति प्रमितात्मनाम् । पायामो गजबन्तानां व्यासः पञ्चशतानि च ॥७॥ नीलस्य निषधस्यान्तेऽमीषां चतुः शतान्यपि । योजनानां समुच्छ्रायो गजदन्तमहीभृताम् ॥८॥ क्रमवृद्धचा समापे' ते मेरोः पञ्चशतानि च । निजोन्नतेश्चतुर्थांशः सर्वत्रास्त्यवगाहता - अर्थ:---इन चारों ही गजवन्तों की लम्बाई तोस हजार दो सौ नव योजन और एक योजन के उन्नीस भागों में से छह भाग ( ३०२०६का योजन ) प्रमाण है, तथा इनका व्यास पाँच सौ योजन प्रमाण है ॥६-७।। इन गजदन्त पर्वतों की ऊँचाई नील और निपथ पर्वतों के समीप चार सौ योजन प्रमाण है ! प्रागे वह क्रम से वृद्धिजत होती हुई मेरु के समीप में पांच सौ योजन प्रमाण हो जाती है । इन पर्वतों का अवगाह (नीव) सर्वत्र अपनो ऊँचाई का चतुर्थांश अर्थात् नील-निषध के पास सौ योजन और मेरु के समीप सवा सौ योजन प्रमाण है ।।८-६|| अब गजवन्तों पर स्थित कूटों के नाम कहते हैं:-- सिद्धि सौगरलं देवकुसार च II विमलं काञ्चनं फूटं विशिष्टाख्य मिमानि च ॥१०॥ स्युरत्रसप्तकूटानि सौमनसस्य भस्तके । सिद्ध विद्युत्प्रभाभिख्यं स्पाईवकुरु संज्ञकम् ॥११॥ पद्माख्यं स्वस्तिकं कूटं सपनं च शितोवलम् । सोतोदानामकं फूट हरिकूटमिमान्यपि ।।१२।। विद्युत्प्रभगिरेः सन्ति नवकूटानि मूर्धनि । सिद्धाख्यं माल्यवस्कूटं तथोत्तरकुरूक्तिकम् ।।१३॥ कच्छाख्यं सागराभिख्यं रजतं पूर्णभद्रकम् । सोताख्यं हरिकूट नवेमानि माल्यवगिरौ ॥१४॥ सिद्धायतननामाढच गन्धमादन संज्ञकम् । तथोत्तरकुरुप्राख्यं गन्धमालिनिकाभिधम् ।।१५॥ स्फाटिकं लोहितं कूटमानन्दाख्यममून्यपि । भवन्ति रत्नदीप्तानि गन्धमादन मस्तके ॥१६॥ १. समीपान्ते अ.ज.न. Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ ] सिद्धान्तसार दोपक अर्था:-सिद्ध, सौमनस, देव कुरु, मङ्गल, विमल, काञ्चन और विशिष्ट नाम के ये साल कूट महासौमनस के शिखर पर अवस्थित हैं । सिद्ध, विद्युत्प्रभ, देवकुरु, पक्ष, स्वस्तिक, तपन, शितोज्वल सीतोदा और हरि नाम वाले ये नव कूट विद्य त्प्रभ के ऊपर स्थित हैं। सिद्ध, माल्यवान, उत्तरकुरु, कच्छ, सागर, रजत, पूर्णभद्र, सीता और हरि नाम के नवकूट माल्यवान् पर्वत के ऊपर हैं, तथा सिद्धायतन, गन्धमादन, उत्तरकुरु, गन्धमालिनी, स्फटिक, लोहित और आनन्दकूट नाम के ये रत्नों को दीप्ति से भास्वर सात बाट गन्धवान् गजदन्त के मस्तक पर अवस्थित हैं ॥१०-१६।। . अब कूटों के स्वामी एवं उदय कहते हैं :---- सिद्धक्टोऽस्ति सर्वत्र प्रोन्नते मेरु सन्निधौ । प्रागुक्तवर्णनोपेतो जिनचैत्यालयो महान् ।।१७॥ कलाचलसमीपस्थ कुटयोश्च द्वयोद्धयोः । वसतो दिग्वधूसंजो द्वे द्वे वेव्याविमे शुभे ॥१८॥ चतुरा गजदाता रत्नसौधे निजे निजे । मित्रादेवी सुमित्राख्या वारिषेणाचलायाः ॥१६॥ भोगाभोगवतीदेवी सुभोगाभोगमालिनी । इमान्यष्टसु नामान्यष्टदिग्वध्वषु योषिताम् ॥२०॥ शेष मध्यस्थकूटानां वेश्मस व्यन्तरामराः । स्वस्वकूटसमः स्युर्नामभियुक्ताः प्रियान्विताः ॥२१॥ स्वस्थाद्रीणां चतुर्थांशः कूटानामुदयः स्मृतः । माद्यन्तानां तु शेषाणां हासो वृद्धिः पृथक पृथक ॥२२॥ अर्था:- चारों गजदन्तों पर मेरु के समीप जिनेन्द्र देव सम्बन्धी सिद्धातयन कूट हैं, जो एक सौ पच्चीस योजन ऊंचे हैं। इन चैत्यालयों का समस्त वर्णन पूर्वोक्त जिन चैत्यालय के वर्णन सदृश ही है ।।१७।। चारों गजदन्तों पर कुलाचलों के समीप जो दो दो कूट हैं, उनमें दिवधु नाम की उत्तम दोदो देवियां निवास करती हैं ।। १८|| चारों गजदन्तों के अपने-अपने रत्नमय महलों में अर्थात् महासौमनस गजदन्त के बिमल और काञ्चन बून्दों में मित्रा और सुमित्रा देवी, विद्युत्प्रभ गजदन्त के स्वस्तिक और तपन कूटों पर क्रमशः वारिषेणा और अचला, माल्यवान् के सागर एवं रजतकूटों पर क्रमशः भोगा और भोगवती तथा गन्धवान् गजदन्त के स्फटिक और लोहित कूटों पर क्रमशः सुभोगा और भोगमालिनी नाम को (ये पाठ) व्य नर देवियां निवास करती हैं ।।१६-२०॥ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमोऽधिकार: [ १६३ मध्य में स्थित अवशेष कूटों के गृहों में अपने-अपने कुटों के नामधारी और अपनी-अपनी देवांगनाओं से युक्त व्यन्तर देव रहते हैं ॥२१॥ कूटों की ऊँचाई अपने-अपने गजदन्तों की ऊँचाई का चतुर्शभाग माना गया है । ग्रादि और अन्तिम कूट को छोड़ कर शेष कूटों के ह्रास एवं वृद्धि का प्रमारप पृथक् पृथक् है ।।२२।। विशेषार्थ:-महासौमनस और माल्यवान् गजदन्तों पर नौ-नौ तथा विद्यत्प्रभ और गन्धवान् गजदन्तों पर सात-सात वट अवस्थित हैं । मेरु के समीपस्थ ऋदों को ऊँचाई १२५ योजन और कुलाचलों के समीपस्थ कूटों की ऊँचाई १०० योजन है। मध्य के कूटों को ऊँचाई का प्रमाण निकालने के लिए हानि चय का प्रमाण निकालना चाहिए । यथा-अंतिम कुट की ऊंचाई के प्रमाण में से प्रथम कट को ऊँचाई घटा कर अवशेष को एक कम पद से भाजित करने पर हानिचय का प्रभारण प्राप्त होता है और इसको एक कम इष्ट गच्छ रो गुरिणत कर मुख में जोड़ने से इष्ट कूटों को ऊँचाई प्राप्त हो जाती है । (वि० सा गा० ७४६) जैसे:---१२५---१००-२५: ( एक कम पद अर्थात् ६-१-):-३६ योजन महासौमनस और माल्यवान् गजदन्तों पर स्थित बूटों का हानि-वृद्धिचय है और १२५-१०० ... २५ (७-१)-६-४, विद्युत्मभ और गन्धवान् के कूटों का हानि-वृद्धि चय है । चय को इष्ट गच्छ से गुगित कर मुख में जोड़ते जाने से प्रत्येक कूटों की ऊँचाई प्राप्त हो जाती है । अथ कूटानां प्रत्येक मुत्सेधो व्याख्यायतेः-- सौमनसस्य गन्धमादनस्य च गिरेः कुल पर्वतपावें प्रथमे लघुकटे उन्नतिर्योजनानां शतं स्यात्। द्वितीये च चतुरुत्तरं शतं योजनस्थ षड्भागानामेको भागः । तृतीये अष्टोत्तरशतं योजनस्यतृप्तीयोभागः। चतुर्थे द्वादशोत्तर शतं द्वौ कौशौ च । पंचमे षोडशाग्नशतयोजन विभागानां द्वौ भागो । षष्ठे विंशत्यधिकशतं योजनषड्भागानां पञ्चभागाः । सप्तमे सर्वज्येष्ठ कूटे मेरु समी उत्सेधः योजनानां पञ्चविंशत्यग्रशतं स्यात् । विद्युत्प्रभगिरेर्माल्यवतश्च कुलाचल निकटे आदिमे लघुक्टे उन्नतिर्योजनानां शतं भवेत् । द्वितीये कूटे च अर्धक्रोशाग्रत्रयोनातं । तृतीये क्रोश धिकषडुत्तरशतं । चतुर्थे सार्धक्रोशाग्रनवोत्तरशतं । पञ्चमे साधद्वादशोत्तरशतं । पाटे साधं द्विक्रोश पञ्चदशाधिकशतं । सप्तमे त्रिकोशाग्राष्टादशाधिक शतं । अष्टमे सार्वत्रिकोशाग्र कवि गत्यधिकशतं । नवमे सर्वबृहत्दूटे मेरुसन्निधौ योजनानामुत्सेधः पञ्चविंशत्यग्रशतं स्यात। उपर्युक्त गद्यांश का समस्त अर्था निम्नाङ्कित तालिका में निहित किया गया है: [ प्रत्येक कूटों का पृथक् पृथक् उत्सेध तालिका प्रमले पृष्ठ पर देखें।] Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ ] प्रत्येक कूटों का पृथक् पृथक् उत्सेष महासौमनस ग. के विद्युत्प्रभ ग. के कूटों की कूटों की कूटों की # | नाम ऊँचाई (यो में) # | नाम ऊंचाई (यो० में | माम ऊंचाई (यो० में) माल्यवान ग० के गम्धवान ग०के कुटों की म | ऊंचाई (यो० में) १ / विशिष्ट | १०० योजन | १ हरि | १०० योजन | सिद्ध ! १२५ योजन | १ | सिद्ध । १२५. योजन २ कांचन १०४१ , २ | सीतोदा | १०३८ ।, माल्यवान्, १२१६ ।।। २ | गपमादन | १२०३ ॥ i, ] ३ गीतोज्वल १०६ , मंगल ११२३ , ४ | तपन | १०९६ , ४। कच्छ । ११E" गंधमालिनी सिद्धान्तसार दीपक देवकुछ | ११६३ ॥ | ५ । स्वस्तिक! ११२६ ,, ! ५ ! टिक ! १०८ सौमनस | १२०५ , | ६ | पन | ११५५ ॥ १०९३ , | ६ | लोहित । ७ | सिद्ध | १२५ ॥ | ७ | देवकुरु | ११८ ।, ७. पूर्णभद्र १०६४ ॥ यानन्द | ८ विद्य त्प्रभ १२१६ । । ८ | सोता | १०३३ , Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमोऽधिकारः [ १६५ अब पूर्व-अपर भद्रशालयनों की स्थिति, भद्रशालवनों को वेदियों से गजवन्तों का अन्तर एवं उत्तम भोगभूमियों को अवस्थिति का वर्णन करते हैं: मूनि गजदन्तानामुभयोः पार्थयोर्भुवि । वेदिकातोरणैर्युक्त रम्यं च शाश्वतं वनम् ॥२३॥ स्यात् पूर्वभत्रशालाख्यापरामद्रादिशालयोः । अन्तरं वेदिकायाश्च गजवन्तमहीभृताम् ।।२४।। शतपच्चप्रमाणानि योजनानि पृथक् पृथक् । निषधस्योत्तरे भागे गजदन्तहयावृतम ॥२५॥ यच्चापाकारसत्क्षेत्रमुत्कृष्टभोगभूतलम् । तद्देवकुरुनाम स्याद् विश्वकल्पद्रुमंश्चितम् ॥२६॥ नीलस्य दक्षिणे पावें गजदन्तद्विवेष्टितम् । तादृशं भोगभूभागमन्योत्तर कुरूक्तिकम् ॥२७॥ अर्थ:-गजदन्तों के दोनों पार्श्वभागों की उपरिम भूमि पर वेदिका और तोरणों से संयुक्त पूर्वभद्रशाल एवं पश्चिम भद्रशाल नाम के रमणोक और गाश्वत वन हैं। इन पूर्व भद्रशाल और पश्चिम भद्रशाल वनों की (चारों) बेदिकानों से (चारों) गजदन्तों के ( अन्तरंग भाग का ) पृयक पृथक् अंतर पाँच सौ, पांच सौ योजन प्रमाण है । ( क्योंकि गजदन्तों का व्यास ५०० योजन है ) निषध पर्वत की उत्तर दिशा में विद्युत्प्रभ और महासौमनस इन दो गजदन्तों रो वेष्टित धनुषाकार शुभ क्षेत्र है वही समस्त प्रकार के कल्पवृक्षों से युक्त देवकुरु नाम को उत्कृष्ट भोगभूमि है। इसी प्रकार नोलपर्वत को दक्षिण दिशा में गन्धमादन और माल्यवान् इन दो गजदन्तों से बेष्टित उत्तर कुस्लाम की उत्कृष्ट भोगभूमि है ।।२३-२७॥ अब उत्कृष्ट भोगभूमियों के धनुःपृष्ठ का प्रमाण कहते हैं:-- य एकत्रोकृतायामोऽनयोद्विगजदन्तयोः । तद्धि देवकुरोश्चोत्तरकुरोधनुरुच्यते ॥२८॥ अर्थः - विद्य त्प्रभ और सौमनस गजवन्तों की लम्बाई जोड़ने से देवकुरु के और गन्धमादन एवं माल्यवान् गजदन्तों को लम्बाई जोड़ देने से उत्तर कुरु के धनु:पृष्ट का प्रमाण प्राप्त होता है ।।२।। देवकुरूतरकुरुभोगभूम्योः प्रत्येकं धनुःपृष्ठ षष्टिसहस्र चतुःशताष्टादशयो जनानि योजनकोनविशतिभागानां द्वादशभागाः । Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्तसार दीपक अर्थ:-देवकुरु उत्तमभोगभूमि के धनुःपृष्ठ का प्रमाण ६०४१८११ योजन और उत्तरकुरु भोग भूमि के धनुःपृष्ठ का प्रमाण ६०४१८१० योजन है । प्रम देवकुरु उत्तरकुरु भोगभूमि को जीवा का प्रमाण कहते हैं :--- भद्रशालवनं द्विघ्नं मेरम्यासेन योजितम् । सहस्रोनं भवेज्जीवामध्ये वेदिकयोद्धयोः ॥२६॥ अर्श:-भद्रशाल वन के प्रमाण को दूना करके उसमें मेरु का व्यास जोड़ना चाहिये । जो प्रमाण प्राप्त हो उसमें से दोनों वेदिकामों और गजदन्तों के मध्य का अन्तर अर्थात् गजदन्तों को मोटाई { ५००+५००) = एक हजार योजन घटा देने पर भोगभूमियों को जीवा का प्रमाण प्राप्त होता है ।।२६॥ विशेषार्थः- भद्रशालबन का प्रमाण २२००० यो. है. इसे दुगुना करने पर (२२०००४२)-४४००० योजन हये । इसमे मेरु व्यास १०००० योजन जोड़ देने से (४४०००+ १०००० )=५४००० योजन हये । इसमें से भद्रशाल वन की दो वेदियों और गजदन्तों के बीच का अन्तर अर्थात् गजदन्तों की चौड़ाई ( ५००+५००)- १००० योजन है, अतः इसे घटा देने से देवकुरु, उत्तर कुरु की जोवा का | प्रमाण ५४०००---१००० = ५३००० योजन प्राप्त हो जाता है ।। देवोत्तरकुरुभोगभूम्योः प्रत्येकं कुलाद्विपार्वे जीवा त्रिपञ्चासत्सहस्र योजनानि । अर्थ:-निषध और नील कुलाचल के समीप में देवकुरु और उत्तरकुरु अर्थात् प्रत्येक उत्कृष्ट भोगभूमि की जीवा का प्रमाण ५३००० योजन है । प्रब देवकुरु उत्तरकुरु भोगभूमियों के थाण का प्रमाण कहते हैं :-- विवेहक्षेत्रविस्तारोऽखिलो यो मेरुवजितः। तस्याधं यत् पृथक क्षेत्र सा वाणवीर्घतोच्यते ॥३०॥ अर्था:-विदेहक्षेत्र के विस्तार में से मेकगिरि का भुव्यास घटा कर आधा करने पर कुरु क्षेत्र के विष्कम्भ का प्रमाण होता है, और यही कुरु क्षेत्र के वाण की दीर्घता का प्रमाण है ॥३०॥ विशेषार्थ:-विदेह क्षेत्र के व्यास का प्रमाण ३३६८४ योजन है, इसमें से मेरुगिरि का भूव्यास १०००० योजन घटाकर आधा करने पर ( ३३६८४८-१००००-२३६८४२) = १९८४२ योजन देवकुरु और उत्तरकुरु के व्यास का प्रमाण है और यही दोनों क्षेत्रों के ( पृथक्पृयक्) वाण का प्रमाण है। . देवकुरुत्तरक्षेत्रयोः प्रत्येकं वाणः एकादशसहस्राष्टशतद्विचत्वारिंशद्योजनानि योजनेकोनविंशति भागानां द्वौ भागौ। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठोऽधिकार : [ १९७ अर्थः-देवकुरु और उत्तरकुरु इन दोनों क्षेत्रों का और इन क्षेत्रों में से प्रत्येक के वाण का प्रमाण ११८४२० योजन है । अब भोगभूमि में उत्पन्न होने वाले जीवो की गति प्रगति का एवं और भी अन्य विशेषतामों का वर्णन करते हैं: भता निदर्शनाजीवास्त्रिधा सत्पात्रदानतः । जायन्ते भोगिनश्चार्याः क्रमाद् भोगमहीत्रिषु ॥३१॥ न रोगो न भयो ग्लानिल्पिमृत्युन दीनता । न वृद्धत्वं न नीहारो नाहो ! षड्ऋतु संक्रमः ॥३२॥ नानिष्टसलामो नेटवियोगो नापमानता । नान्यत् दुःखादिकं किञ्चित् क्षेत्रसदमावतो नृणाम् ॥३३॥ केधलं मृत्युपर्यन्तं पानवानज-पुण्यतः। बशधाकल्पवृक्षोत्थान मोगान भुञ्जति तेऽनिशम् ॥३४॥ उत्पादोमृतिरार्याणां युग्मरूपेण जायते । क्षुतात् मृत्युनंराणां स्यान स्त्रीणां जम्भिकयात्र च ।।३।। ततस्ते स्वार्यभावेनार्या यान्ति देवसवगतिम् । सत्पात्रवानपुण्येनामीषां नास्त्यपरा-गतिः ॥३६॥ अर्थ:- भद्रमिथ्या ष्टि जीव उसम, मध्यम और जघन्य सत्पात्रों के दान के फल से क्रमशः उत्तम, मध्यम और जघन्य इन तीन भोगभूमियों में पायं और प्रार्या रूप से उत्पन्न होते हैं । उत्तम क्षेत्र के सद्भाव से वहाँ के जीवों के रोग नहीं होते, न वहाँ भय है, न ग्लानि है. न अल्पकाल में मृत्य होती है, न दोनता है, न जीवों को वृद्धता पाती है. न निहार होता है, अहो ! और न छह ऋतुओं का सञ्चार होता है, न अनिष्ट का सयोग होता है, न इष्ट का वियोग होता है, न अपमान मादि का दुःख है, और न अन्य ही किञ्चित् दुःख वहाँ प्राप्त होते हैं, किन्तु वे पात्रदान से उत्पन्न होने वाले पुण्य के फल से मरण पर्यन्त दशप्रकार के कल्पवृक्षों से उत्पन्न होने वाले भोगों को निरन्तर भोगते हैं । वहाँ पर स्त्री पुरुष युगल रूप से एक साथ उत्पन्न होते हैं और एक ही साथ मरते हैं। पुरुषों की मृत्यु छींक से और खियों की मृत्यु जम्भाई से होती है। भोगभूमि के जीव अपने प्रार्य एवं प्रार्याधाव से अर्थात् सरल परिणामी होने से मरण के बाद देवगति को ही प्राप्त करते हैं, सत्पात्रों को दिये हुये दान के फल से उन जीवों को नरक, तिर्यञ्च एवं मनुध्य गति की प्राप्ति नहीं होती ॥३५-३६।। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ ] सिद्धान्तसार दीपक , अब जम्बूवृक्ष का स्थानादिक परिकर ग्यारह लोकों द्वारा कहते हैं :-- मेरोरोशानदिक्कोण सीतायाः प्राक्तटस्थले । कुरभूकोणसंस्थाने नीलाद्रः सन्निधौ भवेत् ॥३७॥ जम्बूवृक्षो महान जम्बूवृक्षाकारश्च शाश्वतः । पथिवीकायसद्रत्नमयो मणिद्र मावतः ॥३८।। अस्थादौ पीठिकावत्ता वेदिका तोरणाडिताः । दिव्या स्वर्णमया पञ्चायोलननिस्तुता ॥३६॥ मध्येऽष्टयोजनोत्तुङ्गास्त्यन्तेऽर्धयोजनोच्छ्रिता । तन्मध्ये पोठिकाहेमी योजनाष्टोन्नता परा ॥४०॥ मूले च द्वादशव्यासा मध्यव्यासाष्टयोजनैः ।। अग्रे स्याद् विस्तृता रम्या चतुभियोजनः परा ॥४१॥ तस्या मध्यप्रदेशेऽस्ति मूनि छत्रत्रयाशितः । वनस्कन्धः सुवैडूर्यरत्नपत्रफलावृतः ॥४२॥ जम्बूवृक्षो महादीप्तोऽनेकपादपमध्यगः । तस्य जम्बूद्र मस्यास्ति स्कन्धो द्वियोजनोन्नतः ॥४३॥ योजनार्धावगाहो द्विकोशविस्तारसंयुतः । तदर्धे प्रवराः शाखाश्चतस्रः सन्ति शाश्वताः ॥४४॥ गम्यूतिद्वयविस्तीर्णा योजनाष्टसमायताः । दिव्यगेहयुप्ता दीप्ता रम्या मरकताश्मजाः ॥४५॥ तासामुत्तरशाखायां जिनचैत्यालयोऽव्ययः । अनावतादि यक्षौघः पूज्यो वन्धस्तुतोऽन्वहम् ॥४६॥ शेषशाखात्रयस्थोच्चसौधेष्वनावतामरः । यक्षान्वयी वसेद् भूत्या जम्बूद्वीपस्य रक्षकः ॥४७॥ अर्थ:-नील कुलाचल के समीप, सीतामहानदी के पूर्व तट पर, मेह पर्वत को ईशान दिशा में, उत्तरकुरु क्षेत्र के कोने में, जामुन वृक्ष के प्राकार सदृश, शाश्वत्, पृथ्वीकाय, उत्तम रत्नमय तथा मणिमय अनेक वृक्षों से समन्वित एक महान् जम्बूवृक्ष स्थित है ।।३७-३८॥ इस जम्बूवृक्ष की प्रथम पीठिका { स्थलो) गोल, वेदिकानों एवं तोरणों से अलंकृत, दिव्य, स्वर्णमय तथा पांच सौ योजन Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमोऽधिकारः [१६६ विस्तृत, मध्य में पाठ योजन ऊँची और अन्त में अर्ध योजन ऊँची है। इस स्थली के मध्य में आठ योजन ऊंची एक अन्य रमणीक और स्वर्णमय पीठिका है, जिसका मूल व्यास बारह योजन, मध्य व्यास पाठ योजन और अग्रभाग का व्यास चार योजन प्रमाण है ।।३६-४१॥ ___ इस पीठ के मध्य भाग में ऊपर तोन छत्रों से अञ्चित, वज्र मयस्कन्ध, उत्तम वैडूर्यरत्नों के पत्र एवं फलों से संकुलित, अनेक लघु जम्बूवृक्षों के मध्य में महादेदीप्यमान जम्बूवृक्ष है । उस जम्बूवृक्ष का स्कन्ध (पीठ से) दो योजन ऊँचा, दो कोस चौड़ा और अर्ध योजन अवगाह ( नींव ) से युक्त है। उस वृक्ष के अर्ध भाग से शाश्वत और उत्तम चार शाखाएँ निकलती हैं जो दो कोस चौड़ी, पाठ योजन लम्बी, दिव्य प्रासादों से युक्त, ज्योतिर्मान, सुन्दर और मरकतमरिण मय हैं ।।४२-४५॥ इन में से उत्तर दिशा की शाखा पर अनावृत प्रादि यक्ष समूह से निरन्तर पूज्य, चन्दनीय एवं स्तुत्य शाश्वत अर्थात् अकृत्रिम जिन चैत्यालय है। शेष तीन शाखाओं पर स्थित उन्नत प्रासादों में जम्बूद्वीप का रक्षक और यक्षकुलोत्पन्न अनावृत नाम का देव अपनी परम विभूति के साथ निवास करता है ।।४६-४७|| अब परिवार वृक्षों की संख्या, प्रमाण एवं स्वामियों का निवर्शन करते हैं:-- यावन्तः स्युः श्रियो देव्याः परिवारान्जसद्गृहाः । परिषत् च्यादिदेवानां संख्ययाखिलदिस्थिताः ॥४७।। तायतोऽत्रास्य देवस्य परिवारसुधाभुजाम् । सर्वे जम्बूद्र मा शेयाः शाखाग्रसौधसंयुताः ॥४८।। व्यासायामोन्नता जम्बूवृक्षस्या@च्छुितादिभिः । एकैक श्रीजिनागारालंकृताः भयदूरगाः ॥४६॥ विशेषोऽयं भवेदश चतुदिक्षु गृहद्रमाः । चत्वारोऽस्याग्रदेवीनां स्यः पद्यरागतन्मयाः ॥५०॥ अर्थ:-[ पद्मद्रह में स्थित ] श्री देवी की चारों दिशाओं में स्थित तीन परिषद् यादि के समस्त परिवार देवों के कमल स्थित प्रासादों की जितनी संख्या है, उतनी ही संख्या इस अनावृत देव के परिवार देवों की है। ये समस्त परिवार जम्बूवृक्षशास्त्रा के अग्रभाग पर प्रासादों से संयुक्त हैं ऐसा जानना चाहिये ॥४७-४८॥ इन परिवार जम्बूवृक्षों की चौड़ाई, लम्बाई एवं ऊँचाई मूल जम्बूवृक्ष के अर्घ प्रमाण है, और प्रत्येक परिवार जम्बूवृक्ष एक एक अत्रिम जिन चैत्यालय से अलंकृत है। अर्थात् जितने (१४०१२०) जम्बूवृक्ष हैं, उतने ही अकृत्रिम जिन चैत्यालय हैं। श्रीदेवी के परिवार कमलों से यहाँ इतना विशेष है कि प्रधान जम्बूवृक्ष की चारों दिशाओं में अनावृत देव की चार पट्टदेवाङ्गनामों के पद्मरागमणिमय चार गृहम अधिक हैं ।।४६-५०॥ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०. ] सिद्धान्तसार दीपक अस्य व्यासेन परिवारवर्णनोच्यते : जम्बूवृक्षस्यास्याग्नेय दिग्भागे अन्तः परिषद्देवानां द्वाविंशत्सहस्र गेहाधारपादपाः स्युः। दक्षिणा. शायां मध्यपरिषत् मुराणां चत्वारिंगत्सहस्रालयवृक्षाश्च । नैऋत्यकोरणे बाह्यपरिषद्गीर्वाणानां अष्टचत्वारिंशत्सहस्रग्रहजम्बूद्रमाः सन्ति। बायु दिगोशान दिशोः सामान्य कामराणां चतुःसहस्रगृहशाखिनो भवन्ति । पश्चिम दिशि सप्तानीक सुरागां सा गृहद् माश्च । चतुर्दिक्षु अङ्गरक्षारणां षोडशसहस्रसौधपादपाश्च । अष्टदिक्षु प्रतोहारोत्तमानामष्टोत्तरशतगेहाधारवृक्षा: सन्ति । चतुदिक्षु अनावृतदेवस्य चतुरप्रदेवीनां चत्वारः सौधान्वितपादपा भवेयुः। एते सर्ने पिण्डोकृताः प्रासादाङ्कितजम्बूवृक्षाः मूलजम्बूवृक्षेण समं एकलक्षचत्वारिंशत्सहस्र कशतविंशतिप्रमाणाः भवन्ति । ___ अर्थ :--प्रधान जम्बूवृक्ष की माग्नेय दिशा में अन्तः पारिषद देवों के बतीस हजार गृहों के प्राधार भूत जम्बनक्ष हैं। दक्षिगा दिशा में परिषद देतों के चालोस हजार गृह जम्बूवृक्ष हैं। नैऋत्य दिशा में बाह्यपरिषद देवों के अड़तालीस हजार प्रासादजम्वूवृक्ष हैं। वायव्य और ईशान दिशा में सामानिक देवों के चार हजार गृवृक्ष हैं । पश्चिम दिशा में सात अनीक देवों के सात गृहद्र म हैं। चारों दिशाओं में अङ्गरक्षक देवों के सोलह हजार सौववृक्ष हैं । दारों दिशानों और चारों विदिशानों में प्रतीहार देवों के उत्तम एक सौ पाठ गृहों के आधार भूत वृक्ष हैं। चारों दिशाओं में अनाय त देव की चार पट्टदेवाङ्गनामों के भवनों से समन्वित चार व क्ष हैं । प्रधान जम्बूब क्ष के साथ इन सब प्रासाद युक्त जम्बूव क्षों को एकत्रित करने पर - (१३२०००+४०००० + ४८०००+ ४०००+७+१६००० +१०८+-४) = १४०१२० अर्थात् एक लाख चालीस हजार एक सौ बीस प्रमाण होते हैं। अब शाल्मलिवृक्ष का वर्णन चार श्लोकों द्वारा करते हैं:--- मेरो ऋत्यदिग्भागे सोतोदापश्चिमे तटे । निषधाद्रिसमीपेऽस्ति देवादिकुरुभूतले ॥५१॥ उत्सेधायामविस्तारर्जम्बूवृक्षसमो महान् । परिवार मैः सर्वैः शाल्मली वृक्ष जितः ।।५२॥ तस्य दक्षिणशाखायां रत्नशाली जिनालयः । वेणुदेवादिमिः पूज्यो जिनबिम्बभतो भवेत् ॥५३॥ शेषशाखात्रयाग्रस्थप्रासादेषु बसेत् सुरः । गरुडान्वयजो वेणुदेवो देवः समं महान ॥५४॥ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमोऽधिकारः [ २०१ अर्थः-सुदर्शन मेरु को नेऋत्य दिशा में, सीतोदा नदी के पश्चिम तट पर, निषधकुलाचल के समीप देवकुरुक्षेत्र में जम्बूवृक्ष के सदृश उत्सेच, पायाम एवं विस्तार से युक्त तथा समस्त (१४०१२०) परिवार वृक्षों से समन्वित एक प्रति शोभा सम्पन्न शाल्मली वृक्ष है । इसकी दक्षिण शाखा पर वेणुधारी ग्रादि देवों द्वारा पूज्य और अनेक जिनबिम्बों से संकुलित रत्नमय जिनालय है । शेष तीन शाखामों पर स्थित प्रासादों में अनेक परिवार देवों के साथ गरुडकुलोत्पन्न वेणु नाम का महान् देव निवास करता है ।।५१-५४।। प्रब यमकगिरि का स्वरूप कहते हैं:---- नीला दक्षिणे गत्वा सहस्रयोजनानि च । भवेतां यमकाद्रीद्वौ सीतायाः पार्ययोर्द्वयोः ।।५।। सहस्रयोजनोच्यो यस्कूटकाञ्चनाह्वयौ । सहस्रयोजनव्यासौ मूले मध्ये च योजनः ॥५६॥ साधंसप्तशतैविस्तृतौ मूनिशतपञ्चकः । परस्परान्तरौ वीप्राङ्गो पञ्चशतयोजनः ॥५७।। मुले भूमितले मूनि वनवेदीयुतौ शुभौ । जिनालयान्यसौधोच्चतोरणाद्यग्रभूषितौ ॥५८।। तयोश्च शिखरे रत्नप्रासादेषन्नतेषु च । साद्विषष्टिसंख्याने योजनमणिशालिषु ॥५६॥ योजनैरेकगध्यूत्यकत्रिशत्प्रमाणकैः। च्यासायामेषु देवौ यमदेवकाञ्चनाभिधौ ॥६॥ घप्ततः एरिवारादधौ पल्योपमैकजीवितौ । तथान्येऽचलयोनि सन्ति प्रासादपङ्क्तयः ॥६१॥ सप्तानीकसुसामान्यफाङ्गरक्षसुधाभुजाम् । चतुरग्रसुदेवीनां परिषत्रिसुधाशिनाम् ।।६२।। अर्थ:-नील कुलाचल से दक्षिण में एक हजार योजन आगे जाकर सीता नदी के दोनों तटों पर यमकलाट और काञ्चनगिरि नाम के दोयमकगिरि पर्वत हैं । ये दोनों यमगिरि एक हजारयोजन ऊँचे, मूल में एक हजार योजन चौड़े, मध्य में साढ़े सात सौ योजन और शिखर तल पर पांच सौ योजन चौड़े हैं। इन दोनों देदीप्यमान शैतों का परस्पर का अन्तर भी पांच सौ योजन प्रमाण है ॥५५-५७॥ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ 1 सिद्धान्तसार दीपक इन दोनों पर्वतों के मूल में अर्थात् पृथ्वोतल पर और शिखरतल पर रमणीय वनवेदी से युक्त। जिनालय हैं तथा जिनालयों के अग्रभाग तोरणों से सुशोभित हैं। दोनों पर्वतों के शिखरों पर स्थितः मरिणयों से शोभायमान उन्नत रत्नमय उन्नत प्रासादों में एक पल्योपम प्रमाण प्राय बाले यमक और ! काञ्चन नाम के देव अपने परिवार सहित निवास करते हैं। इनके ये प्रासाद साढ़े बासठ योजन ऊंचे और सबा इकतीस योजन प्रमाण लम्बे एनं चौड़े हैं। इन्हीं दोनों पर्वतों के शिखरों पर सात अनीकों के, सामानिक देवों के, अङ्गरक्षकों के, चार पट्ट देवाङ्गनामों के और तीनों परिषदों के देवों के भवन पंक्तिबद्ध स्थित हैं। अब विचित्र-चित्र नामक यमक पर्वतों का विवेचन करते हैं :-- निषधस्योत्तरे गत्वा सहस्त्रयोजनान्यपि । स्तो द्वौ यमकशैलौ सीतोदायास्तटयोद्धयोः ॥३॥ "विचित्रचित्रकूटाख्यौ पूर्वोक्त यमकप्रमौ । चैत्यालयगृहारामध्यासोत्सेधाविवर्णनः ।।६४॥ अनयो मधिन सौधेषु प्रागुक्तोच्चादि शालिषु । चित्रविचित्रनामानौ गीर्वाणौ वसतोऽद्भुतौ ॥६५।। पूर्वोदिताङ्गरक्षादि सर्वदेवाग्रयोषिताम् ।। एतयोः शिखरे सन्ति प्रासादतोरणादयः ।।६६।। अर्थ:-निषधकुलाचल से उत्तर में एक हजार बोजन प्रागे जाकर सीतोदा नदी के दोनों तटों पर विचित्र और चित्र कट नाम के दो यामक गिरि हैं। इन पर्वतों पर स्थित जिन चैत्यालयों, प्रासादों एवं वनों के व्यास एवं उत्सेध आदि का समस्त बर्णन पूर्व कथित दोनों यमक शैलों के सदृश है। ॥६३-६४।। इन दोनों शैलों के शिखर पर स्थित पूर्वोक्त ऊँचाई आदि से युक्त शोभायमान प्रासादों में : चित्र विचित्र नाम के अद्भुत पुण्यशाली देव निवास करते हैं। इन पर्वतों के शिखरों पर पूर्ण कथित अङ्गरक्षक ग्रादि सर्ग देवों के और दोनों देवों को चार-चार प्रमुख देवाङ्गनाओं के तोरण आदि से युक्त प्रासाद हैं ।।६५-६६।। अब सीता नदी स्थित पञ्चद्रहों का वर्णन करते हैं :-- यमकादी परित्यज्य यावत् पञ्चशतान्तरम् । योजनानां सरित्सीताया उत्तरकुरुक्षितेः ॥७॥ १. चित्रविचित्रकूटाख्यो . ज, न. Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमोऽधिकार: [२०३ मध्ये पञ्चद्रहाः सन्ति श्रोपमहद सन्निभाः। शतपंचप्रमर्योजनरन्तरान्तरस्थिताः ॥६॥ ह्रदोनोलाह्वयोऽत्राधस्तथोत्तरकुरुद्रहः । चन्द्र ऐरावतो माल्यवानेतन्नामसंयुताः ॥६६॥ सीतामध्यस्थिता एते शेयाः पंचद्रहाः शुभाः । देवी नीलकुमारी चोत्तराद्यन्तकुमारिका ॥७॥ चन्द्रकुमारिकार्थरावत कुमारिका तथा । माल्यवतोति नामादया पंच नागकुमारिका ॥१॥ पुण्यलक्षणभूषाड्या वसन्ति पुण्यपाकतः । द्रहस्थपनगेहेषु स्वपरिवारवेष्टिताः ॥७२।। अर्थ:-यमकगिरि से पांच सौ योजन जाकर उत्तरकुरु भोगभूमि स्थित सीता सरितु के मध्य में पद्महद के सरश पाँच द्रह हैं। ये पांचों द्रह पांच पांच सौ योजन के अन्तराल से स्थित हैं, तथा नीलवान्, उत्तरकुरु, चन्द्रद्रह, ऐरावत ह और मकान मा संयुक्त हैं . ये सुग पाँचद्रह सोता नदी के मध्य में स्थित हैं, ऐसा जानना चाहिये। इन पांचों द्रहों में स्थित कमलों पर निर्मित प्रासादों में अपने अपने परिवारों से वेष्टित और पूर्वोपाजित पुण्य के फल से शुभ लक्षण और शुभ वस्त्राभूषणों से अलंकृत नीलकुमारी, उत्तर (कुरु) कुमारी, चन्द्रकुमारी, ऐरावत कुमारी और माल्यवती नाम की पाँच नागकुमारियाँ क्रमशः निवास करती हैं ॥६७-७२।। अब सीतोदा नदी स्थित पाँच द्रहों का वर्णन करते हैं : त्यक्त्वान्यौ यमकानी योजनपंचशतान्तरम् । स्यु हाः पंचसीतोदामध्ये देवकुरुक्षितौ ॥७३॥ प्रथमो निषधाभिस्यो ततो देवकुरुद्रहः । सूर्याख्यः सुलसो विद्युत्प्रभ इत्यायनामकाः ।।७४।। शेया: पंचद्रहा रम्याः समाः श्रीलदवर्णनेः। निषधादिकुमारोदेवादिकुरुकुमारिकाः ॥७५।। देवी सूर्यकुमारी सुलसा विद्युत्प्रमाह्वया । वसन्तिब्रहगेहेषु पंचेमा नागकन्यकाः ॥७६।। Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ ] सिद्धान्तसार दोपक अर्थ:- अन्य दो ( विचित्र और चित्र ) यमकगिरि पर्वतों से पांच सौ योजन जाकर देवकुरु भोगभूमि में स्थित सीतोदा नदी के मध्य में पाँचद्रह हैं। इन पांचों ग्रहों का नाम निषध द्रह, देवकुरुद्र, सूर्यद्रह, सुलह और विद्युत्प्रभद्र है। इन रमणीक पाँचों द्रहों का समस्त वर्णन श्रीदेवी के पद्मद्रह के समय है । द्रह स्थित कमलों पर निर्मित प्रासादों में क्रमशः निषधकुमारी, देव (कुरु) कुमारी सूर्य कुमारी, सुलसाकुमारी और विद्युत्प्रभा नाम की पाँच नागकुमारियाँ निवास करती हैं ।।७३-७६ ।। अब अन्य दश द्रहों को प्रवस्थिति एवं समस्त ग्रहों के प्रायाम प्रादि का कथन करते हैं :-- पुनः पंच द्रहाः पूर्व भद्रशालवने परे । मध्ये सीतामहानचा स्युः प्राग्नामादि संयुताः ॥७७॥ पश्चिमे भद्रशालेऽन्ये सन्ति पंच ब्रहा युताः 1 निषषाधाख्यदेवोभिः सीतोदाभ्यन्तरे क्रमात् ॥७८॥ एते पिण्डीकृताः सर्वे ब्रहाः विंशतिरूजिताः । वज्रमुलाः सपद्मायोजन पंचशतान्तराः ॥७६॥ सहस्रयोजनायामा दक्षिणोत्तर पार्श्वयोः । पूर्वापर सुविस्तीर्णाः शतपंच सुयोजनंः ||८०|| जलान्तसमर्वयं नालक्रोशद्वयोच्छ्रिताः । जलाद्दशावगाहाः स्युर्वेदिकास्तोरखाङ्किताः ॥ ८१ ॥ अर्थ:- इसके पश्चात् पूर्णभद्रशाल वन में स्थित सोता महानदी के मध्य में पूर्व कथित नीलवान् उत्तरकुरु आदि नामों से युक्त अन्य पाँच द्रह हैं। जिनमें नीलवान् श्रादि देवियां निवास करती है । पश्चिम भद्रशाल वन में स्थित सीतोदा नदी के मध्य में निषधवान् श्रादि पुत्र नाम वाले अन्य पांच ग्रह हैं, जिनमें निषेध प्रादि नाम वालीं पाँच नागकुमारियाँ क्रमशः निवास करतीं हैं। ये सभी ब्रह् एकत्रित जोड़ने से बीस होते हैं । अर्थात् ५ द्रह उत्तरकुरु सम्बन्धी और ५ पूर्व भद्रवाल सम्बन्धी सोता नदी के मध्य में हैं, तथा ५ देवकुरु और ५ पश्चिमभद्रशाल सम्बन्धी सीतोदा के मध्य में हैं। वज्रमय है मूल जिनका ऐसे कमलों से युक्त इन पांचों द्रहों का पारस्परिक अन्तर पांच सौ योजन प्रमाण है । ये पाँचों वह दक्षिणोत्तर दिशा में एक हजार योजन लम्बे और पूर्व-पश्चिम पांच सौ योजन चौड़े हैं। एक एक द्रह दश योजन गहरे, रत्नमयवेदिकानों से युक्त और मरिमय तोरणों से मण्डित हैं। प्रत्येक द्रहों में स्थित कमल समूहों को नाल वैड्रमय है श्रीर जल से दो कोस ऊँची है । अर्थात् पद्मनाल की कुल I Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमोऽधिकारः [ २०५ लम्बाई साढ़े दश योजन प्रमाण है, इसीलिये दश योजन महरे सरोवर को ध्यान करती हुई जल से अर्ध योजन (दो कोस) प्रमाण ऊँची है ।।७७-८१।। अमीषा व्यासेन वर्णनं क्रियते :-- द्रहार प्रत्येक जलाद दिकोशोकिछत योजनविस्तीर्ण साक्रोशायतकादशसहस्रपद्मपत्राङ्कितं क्रोशध्यासपि कान्वितम् एकैकं शाश्वतं कमलं स्यात् 1 कमलं कमलं प्रति कणिकायाम् नानामणिमयं कौर्शकदीर्घ अर्धक्रोशव्यासं पादोनक्रोशोच्चं रत्नवेदिकातोरणाद्यलंकृतं एक भवनं भवेत् । तेषु सर्वभवनेषु स्वस्व परिवारदेवावृताः प्रागुक्तनामाङ्किता: दिव्यरूपाः नागकुमार्यो वसन्ति । मुख्यकमलगेदादाग्नेयनिशिदेव्याः द्वात्रिंशत्सहस्राणि अन्तः परिषद्देवानां पद्मालयाः सन्ति । दक्षिरपदिग्भागे मध्यपरिषत्सुराणां चत्वारिंशत्सहस्राम्बुजाउयगृहाइच । नैऋत्यदिशि बाह्य परिषद् गीर्वाणानां प्रष्टचत्वारिंशत्सहस्राणि अब्जसौधा: सन्ति । वायुकोणशादिशोः सामान्यकामराणां चतुःसहस्राम्भोज प्रासादाश्च । पश्चिमाशायां सप्त सप्त सैन्याङ्कित सप्तानीकानां सप्तपद्मगेहाः स्युः । पूर्वादि चतुद्दिक्षु अङ्गरक्षाणां षोडशसहस्रपद्याङ्कितप्रासादाः सन्ति । देव्यः पद्म परितः अष्टदिग्विदिक्षु प्रतोहारोत्तमानामष्टोतरशतकमलगेहाश्च । इत्युक्ताः सर्वे एकत्रोकृता एकलक्षचत्वारिंशत्सहस्र कशलषोडशप्रमाणा: मुख्यपद्मालयावर्षायाम व्यासोत्सेधाः एकक जिनालयवेदिकातोरणाद्यलंकृताः सुगन्धिपद्माश्रितरत्नगृहा बिज्ञयाः । सर्वे विंशतिदहारणां पिण्डीकुताः देवीपमैः समं शाश्वता मणिपद्माः अष्टाविंशति लक्षद्विसहस्रत्रिवातविंशतिप्रमाणाः भवेयुः तावन्तः पद्यस्था प्रालयाश्च । अब कमलों का तथा कमल स्थित भवनों के व्यास प्रादि का एवं उनमें निवास करने वाली नागकुमारियों के परिवार प्रादि का वर्णन करते हैं:-- अर्थ :-प्रत्येक सरोवरों के मध्य में एक एक अकृत्रिम कमल हैं । जो एक योजन चौड़े और और जल से दो क्रोस प्रमाण ऊँचे हैं, तथा डेढ़ कोस लम्बाई वाले ग्यारह हजार पत्रों से युक्त और एक कोस विस्तार वाली कणिका से समन्वित हैं । प्रत्येक कमल को कणिका पर अनेक मरिणयों से निमित, रत्नमय वेदिका एवं तोरण प्रादि से अलंकृत, एक कोस लम्बे, अर्ध कोस चौड़े और पौन कोस ऊंचे एक एक भवन हैं । इन समस्त (२०) भवनों में अपने अपने परिवार देवों से आवृत, पूर्वोक्त नाम वाली दिव्यरूप धारणी नागकुमारियां निवास करती हैं। इन देवियों के प्रधान कमल स्थित भवनों से प्राग्नेय दिशा में अभ्यन्तर परिषद् देवों के ३२००० पद्मालय हैं। दक्षिण दिशा में मध्य पारिषद् देवों के ४०००० कमलयुक्त भवन हैं 1 नैऋत्य दिशा में बाह्य पारिषद् देवों के ४८००० पद्मालय हैं। वायव्य और ईशान दिशा में सामानिक देवों के ४००० अम्भोज प्रासाद हैं । पश्चिम दिशा में सात सात सेनाओं से मण्डित सात अनीकों के सास ( ७ ) पद्म Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ ] सिद्धान्तसार दीपक गृह हैं । पूर्व आदि चारों दिशामों में अङ्गरक्षक देवों के १६००. पद्मांकित भवन हैं । देवियों के प्रधान कमलों के चारों ओर अर्थात् आठों दिशाओं में प्रतीहार देवों के १०८ कमलगृह हैं (प्रत्येक दिशा में चौदह, चौदह और विदिशाओं में तेरह-तेरह इस प्रकार एक सौ पाठ हैं ) इसप्रकार उपर्युक्त सर्व पक्षगृहों का एकत्रित योग ( ३२००० + ४००००+४८०००+१६००० + ४०००+१०८+७+१) = १४०११६ प्रमाण होता है । इन परिवार कमलालयों का प्रायाम, ब्यास एवं उत्सेध प्रधान पद्मालय के 'प्रायाम प्रादि से अध अर्थ प्रमाण है। ये सभी सुगन्धित पद्माश्रित रत्नप्रासाद एक एक जिनालय, रत्नमय वेदिका एवं तोरण प्रादि से अलंकृत जानना चाहिये । नागकुमारियों के प्रधान कमलों के साथ साथ बीसों सरोवरों के समस्त कमलों का प्रमाण (१४०११६ ४२०) -- २८०२३२० अर्थात् अट्ठाईस लाख दो हजार तीन सौ बीस है। जितने ये कमल हैं, इन पर स्थित उतने ही प्रासाद हैं (और उतने ही अकृत्रिम जिन चैत्यालय हैं)। अब काञ्चन पर्वतों का सविस्तार वर्णन करते हैं:--- एषां सर्वग्रहाणां च पूर्वपश्चिमभागयोः । प्रत्येकं पञ्च पञ्चव पर्वताः काञ्चनाह्वयाः ।।२।। शतकयोजनोत्सेधा मूले शतकविस्तृताः । पञ्चसप्ततिविस्तारा मध्येने ध्याससंयुताः ॥३॥ पंचाशद्योजनैः स्वोच्चचतुर्थांशधरान्तगाः । मूलाग्रेऽलंकृताः सन्ति बनवेदीसुतोरणः ॥४॥ एषां द्विशतसंख्यानां शिखरेषु महोन्नतः । जिनचैत्यालय रत्नमयः प्रासादपंक्तिभिः ॥१५॥ पेविकातोरणाद्यश्च भूषितानि पुराणि थे । कल्पद्रुमादि युक्तानि भवन्ति शाश्वतानि भोः ॥८६॥ पुरेषुतेषु राजानः कांचनाख्याः सुरोत्तमाः । दशचापोच्चविष्याङ्गा वसन्ति पल्यजीविनः ॥७॥ अर्थ:-इन उपयुक्त बोस द्रहों में से प्रत्येक द्रह के पूर्व पश्चिम ( दोनों ) तटों पर पांच पांच (पूर्व तट पर २०४५- १०० और पश्चिम तट पर १००) काञ्चन नाम के पर्वत हैं । जो सौ योजन ऊँचे, मूल में-पृथ्वीतल पर सौ योमन चौड़े, मध्य में पचहत्तर योजन और शिखर पर पचास योजन चौड़े हैं । जमोन में इनका प्रवगाह (नीव) अपनी ऊँचाई का चतुर्य भाग अर्थात् (१)=२५ योजन Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमोऽधिकारः [ २०७ प्रमाण है। ये पर्वत मूल और अग्र भाग में वन, वेदी एवं उत्तम तोरणों से युक्त हैं । उन दो सौ कांचन शैलों के शिखरों पर महा उन्नत रत्नमय जिन चैत्यालयों, प्रासाद पंक्तियों, वेदिकानों एवं तोरणों आदि से विभूषित तथा शाश्वत कल्प वृक्षों से युक्त नगर हैं। उन काञ्चनगिरि के नगरों में दश धनुष उन्नत, उत्तम देह से संयुक्त और पस्योपम प्रमाण प्रायु के धारक काञ्चन नाम के उत्तम देव अधिपति स्वरूप से निवास करते हैं ।।५२-८७।। अब ब्रहों और भद्रशाल को वेदियों के अन्तराल का दिग्दर्शन कराते हैं: योजनानां सहस्र द्वे द्वयाना नवतिः कले । द्वे, ह्रदोभयवेद्योः सर्वेषां प्रत्येकमन्तरम् ॥८॥ अर्थः–सीता-सीतोदा के मध्य स्थित अन्तिम हद और उत्तर-दक्षिण भद्रशाल की वेदी इस सब में से प्रत्येक के बीच के अन्तर का प्रमाण २०१३ योजन है। अर्थात् अन्तिम द्रह से २०१२ योजन आगे जाकर भद्रशाल की वेदी अवस्थित है ।।८।। विशेषार्थ :-विशेष के लिए देखिये त्रिलोकसार गाथा ६६० (टीका सहित)। अब दिग्गज पर्वतों का स्वरूप छह श्लोकों द्वारा कहा जाता है: कुरुभूम्योर्द्वयोः पूर्वापरादि भद्रशालयोः । मध्ये च द्वि महानद्योः पावथोदिक्षपर्वतौ ।।६।। द्वौ हौ दिग्गजनामानौ शतकयोजनोन्नती । शतयोजनविस्तारौ मूलेऽने विस्तरान्वितौ ॥६०|| पंचाशद्योजन रत्नप्रासादतोरणाहिती। बनवेदीजिनागारालंकृतौ भवतोऽभुतौ ॥६१| पद्मनीलाहयौ शैलौ स्वौवस्सि-कांजनायो। कुमुदाद्रिपलाशाख्याववतं शाद्विरोचनी ।।१२।। इति नामाश्रिता प्रष्टो पूर्वादिदिक्षु दिग्गजाः । जोया एषां च मूर्धस्थमणिवेश्मसु पुण्यतः ।।६३॥ स्वस्याद्रिनामसंयुक्ता प्रष्टौ व्यन्तरनिर्जराः। देवदेवोपरिवारयुक्ता वसन्ति शर्मणा ।।१४॥ अर्थ:- देवकुरु, उत्तरकुरु इन दो भोगभूमियों में तथा पूर्व भद्रशाल और पश्चिम भद्रशाल वनों के मध्य में महानदो सोता और सौतोदा के दोनों तटों पर दो दो दिग्गज पर्नत प्रवस्थित हैं। Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८] सिद्धान्तसार दीपक इन (पाठों) दिग्गज पर्वतों की ऊँचाई सौ योजन, भूविस्तार सौ योजन और शिखर तल का विस्तार पचास योजन प्रमाण है। इन पर्वतों के शिखर तोरण आदि से युक्त रत्तमय प्रासादों, रनों, वेदियों एवं अद्भुत वैभवशालो जिन चैत्यालयों से अलंकृत हैं ॥६-६१|| पूर्वादि दिशात्रों में पद्म, नील. स्वस्तिक, अञ्जन, कुमुद, पलाश, अवतंश मौर रोचन नाम के आठ दिग्गज पर्वत हैं । अर्थात् सुदर्शनमेरु के पूर्व दिशा गत भद्रशालवन के मध्य से बहने वाली सोता के उत्तर तट पर पद्मोत्तर और दक्षिण तट पर नीलवान् नाम के दिग्गज हैं। इसी मेरु को दक्षिण दिशा गत देवकुरु भोगभूमि के मध्य सोतोदा महानदी के पूर्व तट पर स्वस्तिक और पश्चिम तट पर अञ्जन नाम के दिग्गज हैं। सुमेरु को पश्चिम दिशागत भद्र शाल वन के मध्य मोतोदा नदी के दक्षिण तट पर कुमुद और उत्तर तट पर पलाश नाम के दिग्गज हैं, तथा मेरु को उत्तर दिशागत उत्तरकुरु भोगभूमि के मध्य सीता के पश्चिम तट पर प्रवर्तश और पूर्व तट पर रोचन नाम के दिग्गज पर्वत हैं । (श्लोकार्थ) इन दिग्गजों के शिखरों पर स्थित मणिमय भवनों में पूर्व पुण्य के उदय से अपने अपने पर्वतों सदृश नामों से युक्त पाठ न्यन्तर देव अपने अपने देव देवियों के परिवार से युक्त होते हुये सुख पूर्वक निवास करते हैं ।।६२-६४॥ प्रब विदेह नाम को सार्थकता एवं उसके भेद प्रमेव कहते हैं:-- विदेहा मुनयो पत्र भवन्त्यनेकशोऽनिशम् । रत्नत्रयतपोयोगः ससार्थनामभनमहान ॥५॥ विहो राजते वेदियक्षाराद्रघन्तराश्रितः । विभङ्गाभिर्यतः पूर्वापर वनेक भेदभाक् ॥१६॥ विभक्तः सोतया पूर्वविदेहोऽसौ द्विधा भवेत् । उत्तराख्योऽपरो बक्षिणश्चेति स द्विनामभत् ॥६७|| सोतोदया कृतो द्वेधा परदिग्भागसंस्थितः । दक्षिणोत्तरमेवाभ्यां स्यादिदेहोऽपराभिषः || सोताया उत्तरे भागे नीला दक्षिणेऽस्ति च । उत्तरप्राग्यिवेहः पूर्वे हर तरकुरुक्षिते ॥६६।। अर्थ:-रत्नत्रय और तप के योग से यहाँ पर अनेक मुनिराज निरन्तर देह से रहित अर्थात् सिद्ध होते हैं, इसलिये वह "विदेह" इस महान सार्थक नाम को धारण किये हुये है। वेदियों और वक्षार पर्वतों से अन्तरित, विभङ्गानदियों से युक्त तथा दो और अनेक भेदों को धारण करता हुमा विदेह क्षेत्र शोभायमान है ॥६५-६६॥ ( सुदर्शनमेझ से अन्तरित होता हुमा) पूर्णविदेह सीता महानदी के द्वारा उत्तर विदेह और दक्षिण विदेह के नाम से दो प्रकार का है। इसी प्रकार सीतोदा महानदी Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमोऽधिकारः [२०६ द्वारा विभाजित किया गया पश्चिम विदेह दक्षिण विदेह और उत्तर विदेह के भेद से दो प्रकार का है ।।६७-६८॥ सीतानदी के उत्तर में, नीलकुलाचल के दक्षिण में और उत्तर कुरु भोगभूमि के पूर्व में उत्तर-पूर्ण विदेह क्षेत्र है ।।६६ अब भन्नशाल आदि की वेदियों का प्रमाण कहते हैं :-- मस्यादौ भद्रशालस्य रत्नवेदी क्षयातिगा। शतपंचधनुर्यासाद्विक्रोशप्रोन्नता भवेत् ॥१००। योजनानां सहस्राणि शतपंचाग्रषोडश । तथा द्विनवतिर्भागौ द्वौ कृतकोनविंशतः ॥१०१।। इत्यायामोऽस्ति वेद्याश्च तथान्या वनवेदिकाः । सप्तधास्याः समाना विशेयादी?च्चविस्तरः ॥१०२॥ अर्थ:-इस उत्तर-पूर्व विदेह क्षेत्र के प्रारम्भ में भद्रशाल वन की लय से रहित रत्नमय वेदी है। यह वन वेदो दो कोस ऊंचो, पाँच सौ धनुष चौड़ी और १६५६२१ योजन लम्बी है । इसी प्रकार अन्य सात (३ वेदिकाएँ भद्रशाल को, २ देवारण्य और २ भूतारण्य को =७) वन वेदिकाओं की दीर्घता एवं विस्तार आदि का प्रमाण जानना चाहिये । अर्थात् आठों वन वेदिकाएँ दो कोस ऊँचो, ५०० धनुष चौड़ी और १६५९२१ योजन लम्बी हैं ॥१००-१०।। अब विवेहस्य कच्छा देश की अवस्थिति एवं उसका प्रमाण कहते हैं :-- ततोऽस्याः पूर्वदिग्भागे दक्षिणे नीलशैलतः । सीताया उत्तरे कच्छाख्यः स्याद् विषय ऊजितः ॥१०३॥ योजनानां सहस्र द्वे द्वादशानशतद्वयम् । सार्धक्रोशत्रयं चेति च्यासोऽस्य पूर्वपश्चिमे ।।१०४॥ पायामो वेदिकातुल्यो दक्षिणोत्तरभागयोः । विदेहविस्तृतेः सीताच्यासोनस्यार्धसम्मितः ॥१०॥ अर्थ:- इस भद्रशालवन वेदी के पूर्व में, नौलकुलाचल के दक्षिण में और सीता सरित् के उत्तर में कच्छा नाम का एक महान देश है । इस देश की पूर्व-पश्चिम चौड़ाई दो हजार दो सौ बारह योजन { २२१२ योजन ) और ३३ कोश है, तथा दक्षिणोत्तर लम्बाई वेदिका की लम्बाई प्रमाण अर्थात् १६५६२0 योजन है ! विदेह के विस्तार में सीतानदी का व्यास घटा कर प्राधा करने पर कच्छा देश के पायाम का प्रमाण प्राप्त हो जाता है । यथाः-विदह का विस्तार ३३६८४, योजन और सीता Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. ] सिद्धान्तसार दीपक का विस्तार ५०० योजन प्रमाण है, अतः ३३६८४-५००२१६५९२० योजन कन्छा देश । के अायाम का प्रमाण प्राप्त होता है ।।१०३-१०॥ प्रब कच्छ देश स्थित विजयाध पर्वत का वर्णन करते हैं :-- अस्य देशस्य मध्येऽद्ध विजयार्धाचलो महान् । शुक्लवर्णः समुत्तुङ्गः पंचविंशतियोजनः ॥१०६॥ पंचाशयोजनच्यासो भूम्यवगाहसंयुतः। क्रोशाग्रयोजनः षभिः स्पाद्विधेशामराश्रितः ।।१०७॥ विजयव्यासमानेन पूर्वापरायतः समः । मूनि स्वोच्चचतुर्थांशतुङ्गकूटनवाङ्कितः ॥१०॥ दशयोजनमभ्येत्यभूमेरस्य यो दिशोः। श्रेण्यौ द्वे भवतो रम्ये दक्षिणोत्तरसंज्ञिके ।।१०।। अद्रिदीर्घसमायामे दशयोजनविस्तृते । तन्मध्येऽस्त्यद्रिविस्तीर्णस्त्रिशत्प्रमाणयोजनः ।।११०॥ तयोः श्रेण्याईयोः सन्ति नगराणि खगामिनाम् । महान्ति पंचपंचाशत्प्रत्येक भूषितानि च ॥१११।।। जिनागारमहासौधः शालयोपुरसद्वनः । प्रागुक्तनामदीर्घादिवर्णनान्तर्य तान्यपि ॥११२।। पुनर्वयोविशोगत्वा दशास्य योजनानि च । प्रागुक्तायामविस्तारे श्रेण्यौ द्वे स्तो मनोहरे ॥११३॥ सन्त्येतयोद्धयोः श्रेण्योर्बहदिव्यपुराणि च । सौधर्मशानकल्पस्थाभियोगिक सुधाशिनाम् ।।११४।। ततोऽप्यूर्व महाद्रेश्च गत्या सत्पञ्च योजनान् । दशयोजनविस्तीर्ण मस्तकं स्याम्मनोहरम् ॥११५॥ अर्थ:-इस कच्छ देश के मध्य में विजय-देश को प्राधा करने वाला शुक्ल वर्ण का एक महान विजयाय नाम का पर्वत है। जिसकी ऊँचाई पच्चोस योजन, गुथ्यास पचास योजन, अवमाह (नीव) सवा छह योजन तथा पूर्व पश्चिम लम्बाई कच्छ देश के व्यास सदृश अर्थात् २२१२ योजन ३३ कोश है। इस पर्वत पर विद्याधर और देवगण निरन्तर निवास करते हैं। इसके शिखर तल पर पर्वत की ऊँचाई के चतुर्थभाग प्रमाण ऊँचाई वाले नौ कूट अवस्थित हैं ॥ १०६-१०८ ॥ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमोऽधिकारः पर्वत की उत्तर-दक्षिण दोनों दिशाओं में भूमि से दश योजन ऊार दक्षिण-उत्तर नाम वाली दो रमणीक श्रेणियां हैं, जिनका विस्तार दश योजन और पूर्व-पश्चिम आयाम पर्वत के प्राधाम सक्श अर्थात् २२१२ योजन ३३ कोश प्रमाण है। दश-दश योजन को दोनों श्रेणियाँ निकल जाने के बाद पर्वत के मध्य में विजया का विस्तार तीस योजन प्रमाण रहता है ।। १०६-११०।। उन उत्तर-दक्षिण दोनों श्रेणियों में से प्रत्येक श्रेणी पर विद्याधरों की पचपन-पचपन नगरियाँ हैं, जो जिनचैत्यालयों, उन्नत प्रासादों, प्राकारों, गोपुरों एवं उत्तम वनों से विभूषित हैं। इन नगरों के नाम एवं दोघेता आदि के प्रमाण का वर्णन पूर्वोक्त प्रकार ही है ।।१११-११२॥ इसके बाद पुनः पर्वत की ऊँचाई में दशयोजन कार जाकर उत्तर-दक्षिण दोनों दिशाओं में पूर्वोक्त आयाम ( २२१२ योजन ३१ कोश ) और विस्तार (१० योजन) से युक्त दो मनोहर श्रेणियाँ हैं। इन दोनों श्रेणियों पर सौधर्मशान कल्पवासो देव सम्बन्धी आभियोग्य देवों के अनेक दिव्य नगर हैं । पर्वत को ऊंचाई में इससे भी पांच योजन ऊार जाकर अत्यन्त मनोहर और दश योजन चौड़ा शिखर तल प्राप्त होता है ।।११३-११५॥ अब विजयास्थि कूटों के नाम, स्वामी, प्रमाण एवं परिधि प्रादि का सविस्तार वर्णन करते हैं : सिद्धाख्यं दक्षिणार्धं च खण्डप्रपातसंज्ञकम् । पूर्णभद्राह्वयं कूटं विजयार्धाभिधं ततः ॥११६।। मारिणभद्र मिश्रास्यमुप्तरार्धाभिधानकम् । कूटं वैश्रवणं तत्र नवकूटान्यमून्यपि ॥११७॥ सिद्धकूटे जिनागारः प्राग्वर्णनायुतो भवेत् । खण्डप्रपातकूटाग्रे महमाली सुरो वसेत् ॥११६।। तमिश्र कृतिमालो च षट्कूटाग्रस्थवेश्मसु । स्थकटसमनामानो वातन्ति व्यन्तरामराः ॥११॥ व्यासो मूले च कूटानां क्रोशाग्रयोजनानि षट् । मध्ये सार्धद्विगव्यूत्यग्रयोजनचतुष्टयम् ॥१२०॥ योजनत्रितयं मूनि द्यादौ परिधिरुत्तमा । विस्तृता योजनविश प्रममध्ये च मध्यमा ।।१२१॥ परिधिः स्थाद्धि किञ्चिन्यूनपञ्चदशयोजनैः । शिखरे योजनानां सविशेषा नवसंख्यया ॥१२२॥ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ ] सिद्धान्तसार दीपक अर्थ:--विजयाधं पवंस के दश योजन बिस्तीर्ण शिखर तल पर सिद्ध, दक्षिणा, खण्डप्रपात, पूर्णभद्र, विजयाचं, माणिभद्र, तमिस्रगुह, उत्तरार्ध और वैश्रवण नाम के नौ कूट हैं। इनमें से प्रथम सिद्धकूट पर पूर्व वर्णन के अनुसार ही जिनचैत्यालय है। खण्डप्रपातकूट पर नमाली ( नृत्यमाल ) और तमित्र गुह कूट पर कृतमाली तथा अवशेष छह कूटस्थ प्रासादों में अपने-अपने कूद नामधारी व्यंतय देव रहते हैं ॥११६-११६।। कूटों की चौड़ाई मूल में सवा छह (६) योजन, मध्य में चार योजन ढ़ाई कोस ( ४ योजन २३ कोस पावर शिस्त्रर पर तीन ( ३ गोलन पमाणा है । कुट के मूलभाग की अर्थात् प्रादि की उत्तम परिधि का प्रमाण बीस योजन, कूट के मध्य भाग की मध्यम परिधि का प्रमाण कुछ कम पन्द्रह योजन और शिखर पर कुटों की परिधि का प्रमाण कुछ अधिक नो योजन प्रमाण है ।।११६ १२२।। अब विजयाधस्थ तमिस्र एवं प्रपात गुफा का सविस्तार वर्णन करते हैं :--- पञ्चाशद्योजनायामे योजनाष्टसमुन्नते । ग्रहे तमिश्रकाण्डप्रपातास्ये स्तोऽत्र पर्वते ॥१२३॥ योजनद्वादशज्यासे तिमिरोष्माभिपूरिते । महावज्रकपाटद्वयाङ्किते शाश्वते शुभे ।।१२४॥ अस्योमर्योदनित्यं बने विक्रोविस्तृतम् । वेदिकातोरणयुक्त जिनालयपुरादिभिः ।।१२५।। इत्येषा वर्णना सर्वा विदेहे द्विविधेऽखिले । द्वात्रिशद्विजयार्धानां समानास्त्युन्नतादिभिः ॥१२६॥ अर्थ :-इस विजयाध पर्वत में तमिस्र और प्रपात नाम की दो गुफाएँ हैं, जो पचास योजन लम्बो, पाठ योजन ऊँची बारह योजन चौड़ी, अन्धकार और उष्णता से भरी हुई, दो महावज्र कपाटों से युक्त, शाश्वत और शुभ हैं ।। १२३-१२४|| पर्वत की दोनों दिशाओं में जिन चैत्यालयों, नगरों, वेदिकानों एवं तोरणों से युक्त दो कोम चौड़े शाश्वत वन हैं। इसी प्रकार का यह समस्त वर्णन पूर्व विदेह, अपर विदेह में अथवा बत्तीस विदेहों में और बत्तीस विजयाओं की ऊँचाई आदि में समान रूप से है ।।१२५-१२६।। अब चौंसठ कुण्डों का वर्णन करते हैं :-- नोलाद्रपधःस्थ भूभागे साद्विष्टियोजनः । विस्तृते चावगाहाव्य दशयोजनसंख्यया ॥१२७।। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमोऽधिकारः [ २१३ वेदिकातोरणद्वारोपेते स्वच्छाम्बुभिभुते । द्वे कुण्डे स्तः पृथग् रक्तारक्तोदोत्पत्तिकारणे ॥१८॥ इत्युक्तविस्तृतायः सर्वाणि कुण्डानि धोधनः । सहशानि चतुःषष्टिर्नेयानि शाश्वतानि च ॥१२९।। नीलाद्रिनिषधाधास्थभूमिष्वति शुभान्यपि । चतुःषष्ठिनदीनां स्थोत्पत्तिभूतानि नान्यथा ॥१३०॥ __ अर्थ :-नीलपर्णत के प्रधोभाग में भूमि पर साढ़े बासठ योजन चौड़े, दशा योजन गहरे, वेदिका और तोरणों से संकलित तथा स्वच्छ जल से भरे हुये रक्ता-रक्तोदा महानदियों की उत्पत्ति के कारण भूत पृथक् पृथक् दो कुण्ड हैं ॥१२७-१२८।। इस प्रकार विद्वानों के द्वारा समस्त चौंसठ ( ६४ ) ही शाश्वत कुण्ड पूर्वोक्त कुण्डों के विस्तार आदि के सदृश ही कहे गये हैं, ऐसा जानना चाहिये । नील और निषध कुलाचलों के अधोमान में प्रथ्वी पर निदेवस्थान मिल्धु र कागौट रक्तोदा इन) चौंसठ नदियों के (पान और) उत्पत्ति के कारणभूत अत्यन्त शुभ चौसठ कुण्ड हैं, इसमें संशय नहीं है ।।१२६-१३०।। अब विवेहस्थ रक्ता रक्तोदा का स्वरूप कहते हैं :-- कुण्डयोदक्षिणद्वाराभ्यां निर्गत्योम्मिसंकुले । कोशाग्रयोजनः षड्भिरादौ विस्तारसंयुते ॥१३१।। अर्धक्रोशावगाहे द्वे रक्ता रक्तोदसंज्ञिके । नद्यौगुहास्थदेहल्या अधोभागे विनिर्गते ॥१३२।। प्रद्र गुहान्तरे शेयो विस्तारः खण्डवजितः । अष्टयोजनसंख्यो हिनद्योः सर्वत्र सन्निभः ।।१३३॥ ततोऽभ्येत्य क्रमान्नद्यो सार्धद्विषष्टियोजनः । विस्ताराद्यवगाहे द्वे पञ्चक्रोशमनोहरे ॥१३४।। सीतायास्तोरणद्वाराभ्यां प्रविष्टे क्षयोज्झिते । द्विपाश्वंस्थमहादेदीवनतोरणभूषिते ॥१३॥ चतुर्दशसहस्राणि वनवेद्याद्यलंकृताः । प्रत्येकमनपोः सन्ति परिवाराख्यनिम्नगाः ॥१३६।। अर्थ:-कल्लोलावलियों से व्यास, सवा छह योजन चौड़ी और अर्ध कोस गहरी रक्ता-रक्तोदा नाम' की दोनों नदियाँ निषध कुलाचल के मूल में स्थित कुण्डों के दक्षिण द्वारों से निकलकर विजया Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ ] सिद्धान्तसार दोपक स्थित गुफा की देहली के नीचे से जाती हुई गुफा में प्रवेश करती हैं । गुफा के भीतर इन सरिताओं का विस्तार हानि-वृद्धि से रहित सर्वत्र समान रूप से प्राट योजन प्रमाण जानना चाहिये । इसके बाद मन को हरण करने वाली ये दोनों नदियाँ क्रमश: साढ़े बासठ योजन विस्तार और पाँच कोस के अवगाह को प्राप्त होती हुई, दोनों पार्वभागों में महान् वेदियों. वनों एवं तोरणों से विभूषित और अनाद्यनिधन सीता-सीतोदा की वेदियों के तोरण द्वारों से होती हुई सोता-सीतोदा में प्रवेश करती है। इन दोनों में से प्रत्येक को वन वेदो प्रादि रो अलंकृत चौदह-चौदह हजार परिवार नदियाँ हैं ।।१३१-१३६।। अब सीता सीतोदा के तोरणों एवं गोपुरों के प्रायाम प्रादि का वर्णन करते हैं: सीतायास्तोरणद्वारयोरायामः प्रथग्विधः । सार्धद्विषष्टिसंख्याति योजनानि तथोन्नतिः ॥१३७।। योजनानां च पादोनचतुर्नवतिसम्मिता। अर्धयोजनविस्तारो बह्वयो, जिनेन्द्रमूर्तयः ॥१३८॥ तयोर्गोपुरयोर्मूनि स्युः पुराणि सुधाभुजाम् । युक्तानि बनवेद्याधस्तुङ्गधामजिनालयः ।।१३।। इत्येषा वर्णना सर्वा ज्ञातव्या सदृशो बुधैः । चतुःषष्टिनदीनां चावगाहाविस्तरादिभिः ॥१४०।। सीतासोतोदयोनंद्योरािणां तटयो योः । चतुःषष्टिप्रमाणानां सरित्प्रवेशवायिनाम् ॥१४१।। अर्थः -सीता और सोतोदा के तोरण द्वारों का पृथक्-पृथक् आयाम साढ़े बासठ योजन, ऊँचाई एक पाद से कम चौरसन्नवे ( ६३३ ) योजन और नींव अर्ध योजन प्रमाण है। इन दोनों नदियों के गोपुरों के ऊपर अत्यधिक जिनेन्द्र मुर्तियाँ और देवों के नगर हैं, वे नगर उत्तम जिनालयों, उन्नत प्रासादों, वनों एवं वेदियों आदि से संयुक्त हैं ।।१३७-१३६॥ सीता-सीतोदा नदियों के दोनों तटों पर स्थित नदियों को प्रवेश देने वाले चौंसठ (प्रकोमा) द्वारों का तथा गंगा-सिन्धु ( ३२) और रक्ता-रक्तोदा (३२) इन ६४ नदियों के विस्तार एवं अवगाह यादि के प्रमाण का समस्त वर्णन विद्वानों के द्वारा इसके सहश हो जानने योग्य है ।।१४०-१४१॥ अब कच्छादेश का छह खण्डों में विभाजन, प्रार्य खण्ड की स्थिति और म्लेच्छ खण्डों का स्वरूप कहते हैं:-- विजयार्धाद्रिणा रक्तारक्तोदाभ्यां बभूव च । कच्छादेशः सषट्खण्ड प्रायकम्लेच्छपञ्चभृत् ।।१४२।। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोऽधिकारः सीताया उत्तरे भागे विजयार्धस्य दक्षिणे । रक्तारक्तोदयोमध्येऽस्त्यार्यखण्डं शुभाकरम् ॥१४३॥ अन्यानि लेखण्डानि धर्मदूराणि पञ्च हि । धर्मकर्म बहिर्भूतैः म्लेच्छं तानि दुःकुलैः || १४४ ॥ अर्थ :- विजयार्थं पति और रक्ता-रक्तोदा इन दो नदियों से कच्छा देश के छह खण्ड होते हैं, उनमें से एक प्रार्य और पांच म्लेच्छ खरड हैं । सीतानदी के उत्तर में विजया के दक्षिण में और रक्ता रक्तोदा के मध्य में अत्यन्त शुभ चेष्टाओं से युक्त प्रायें खण्ड है। शेष पाँच म्लेच्छ खण्ड धर्म रहित हैं, और धर्म कर्म से बहिर्भूत तथा खोटे कुलोन्न म्लेच्छों से भरे हैं ||१४२-१४४॥ [ २१५ अब पृथक् पृथक् तोन खण्डों का, छह खण्डों का और विजयार्ध के समीप रक्तारक्कोवा का विस्तार कहते हैं : :-→ नीलाचलसमीपे त्रिखण्डानां विस्तरः पृथक् । योजनानां त्रयस्त्रिवग्रसप्तशतानि च ।। १४५ । । क्रोकस्य षडंशेनोन द्विकोशयुतान्यपि । षट्खण्डानां तथायामोऽष्टौ सहस्राणि द्वे शते ॥१४६॥ एकसप्ततिसंयुक्ते योजनानां पृथक् पृथक् । एकोनविंश भागानां भागको योजनस्य च ॥ १४७॥ मूले रजतशैलस्य विस्तारः सरितो द्वयोः । योजनानि चतुस्त्रिशत् सार्धक्रोशयुतान्यपि ॥ १४८ ॥ विजयार्धसमीपे हि त्रिखण्डानां सुविस्तृतिः । योजनानां द्विसप्ताधिकानि सप्तशतानि च ॥ १४६ ॥ तथा पञ्चसहस्राणि धनुषां षट्शतानि च । षट्षष्टिरेव हस्तौ द्वावंगुलान्यपि षोडश ॥ १५० ॥ अर्थ:- नीलकुलाल के समीप में कच्छ देश के लोन खण्डों का पृथक्-पृथक् विस्तार सात सौ तेतीस योजन छह भागों से होन दो कोस ( ७३३३३ योजन ) प्रमाण है, तथा छह खण्डों का पृथक् पृथक् श्रायाम आठ हजार दो सौ इकहत्तर योजन और एक कला ( ८२७१११ योजन ) प्रमाण है । विजया पति के मूल में रक्ता रक्तोदा नदियों में से प्रत्येक का विस्तार चौतीस योजन श्रीर डेढ़ कोस से कुछ अधिक है । अर्थात् ३४३ योजन प्रमाण है ।। १४५ - १४८ ।। विजपा पति के समीप में तीनों Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ ] सिद्धान्तसार दीपक खण्डों में से प्रत्येक खण्ड का विस्तार ७१४ योजन पांच हजार छह सौ छयासठ धनुग, दो हाथ और सोलह अंगुल प्रमाण है ॥१४६-१५०।। अब इस उपर्युक्त प्रमाण को लाने का विधान कहते हैं :-- रक्तारक्तोदाव्यासोनकच्छादेशत्रिभागोकृतः विजया पावें प्रार्य म्लेच्छखण्डानां प्रत्येक विष्कम्भः चतुर्दशाग्रसप्तशतयोजनानि पंत्रसहस्रषट्शतषट्षष्टिवनूषि च द्वौ करो षोडशांगुलानि ! अर्थ:-रक्ता-रक्तोदा के व्यास से हीन कच्छा देश के व्यास को तीन से भाजित करने पर विजया के समीप आर्यादि छह खण्डों में से प्रत्येक खण्ड का विस्तार प्राप्त होता है। यथा-कच्छा देश के विष्कम्भ का प्रमाण २२१२४-३४६४२ रक्ता-रक्तोदा का दि०):३७१४ योजन, ५६६६ धनुष, २ हाथ और १६ अंगुल प्रत्येक खण्ड का विस्तार है ।। अब सीता के तट पर स्थित तीन खण्डों का विस्तार, क्षेमपुरी को अवस्थिति, प्रमाण एवं अन्य अन्य विशेषतामों का वर्णन करते हैं : सीतातटे त्रिखण्डानां विष्कम्भः षट्शतानि च । चरणवत्यधिकान्येय योजनानां पृथक् पृथक् ॥१५१॥ गय्यूत्येकषांशेनोनानि क्षेमाह्वया पुरी । प्रार्यखण्डस्य मध्योऽस्ति महती धर्ममातृका ॥१५॥ योजनद्वादशापामा नवयोजनविस्तृता । सहस्रगोपुरद्वारः क्षुल्लकद्वारपंक्तिभिः ॥१५३।। शतपञ्चप्रमै रत्नमयः खातिकयावृता । चतुःपथसहस्रः सहस्रद्वादशवीथिभिः ॥१५४॥ तुङ्गसौधजिनागार-जैनसंजिनादिभिः । धर्मोत्सवशतैनित्यं भाति धर्मखनीव सा ॥१५५।। मिथ्यात्वमठदुःशास्त्रकुविलिङ्गिवजिता । मिथ्यामतकुपाखण्डिदूरा वर्णत्रयान्विता ।।१५६।। अत्रसप्तमहामेघा भ्रमराञ्जनसन्निभाः। वर्षाकाले च वर्षन्ति सप्तसप्तदिनान्यपि ॥१५७।। कुन्देन्दु सदशा द्रोणमेघा द्वादशसंख्यकाः । महासलिलसम्पूर्णा योग्यं कुर्वन्ति वर्षणम् ॥१५॥ . Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमोऽधिकारः एकैकस्य सुमेधस्य सन्ति श्रीपतनाः शुभाः । स्थूला नीरौघसंयुक्ता विशत्यग्रशतत्रयम् ।। १५६ ॥ सोऽतिवृष्टयनावृष्टिदुभिक्षाद्याः किलेतथः । जायन्तेऽत्र न चा निष्टा श्रन्ये प्रजाऽसुखप्रदाः ।। १६० ।। उत्पद्यन्तेऽत्र तीर्थेशा स्त्रिजगन्नाथसेविताः । गणेशा गणनातीताश्चरमाङ्गाश्च योगिनः || १६१ ॥ चक्रिणो वासुदेवाश्च बलदेवास्तयद्विषः । नारदाः कामदेवाद्या जायन्ते नृसुराचिताः ॥ १६२॥ राजा तथाधिराजश्च महाराजोऽर्धमण्डली । मण्डलीको महामण्डलोकस्त्रिखण्ड सूपतिः ॥ १६३॥ [ २१७ अर्थः- सौता महानदी के तीर पर तीनों खण्डों का पृथक् पृथक् विस्तार छठे भाग से हीन छ सौ छ्यानवे योजन (६६५३३ यो० ) प्रमाण है । आर्य खण्ड के मध्य में श्रेष्ठ धर्म माता के सदृश क्षेमा नाम की नगरी है ।। १५१ - १५२ ।। इस नगरी का आयाम बारह योजन और विस्तार नौ योजन प्रमाण हैं, तथा यह नगरी एक हजार गोपुर द्वारों एवं पाँच सौ क्षुल्लक ( लघु ) द्वारों से युक्त तथा रत्नमय खाई सेष्टित है। धर्म की खान ( ग्राकर ) के समान यह क्षेमा नगरी एक हजार चतुष्पथों, बारह हजार चन्द्र थियों, उन्नत प्रासादों, जिन चैत्यालयों, जिनसंघों, जिन प्रतिमाओं एवं नित्य प्रति होने वाले सहस्रों धर्म महोत्सवों के द्वारा शोभायमान रहती है ।। १५३ - १५५ ॥ मिथ्या मठों अर्थात् मिथ्यात्व के पोषक मिथ्या श्रायतनों, कुशास्त्रों, कुदेवों एवं कुलिङ्गियों से रहित, मिष्यामत और पाखण्डियों से विहोन यह नगरी तीन वर्णों के मनुष्यों से सदा समन्वित रहती है ।।१५६|| यहाँ पर वर्षा काल में भूमर एवं अञ्जन के सदृश सात प्रकार के महामेघ सात सात दिन तक वर्षा करते हैं । कुन्द पुष्ा और के सदृश 'प्रभावाले तथा प्रचुर जल से परिपूर्ण बारह द्रोणमेघ भी योग्य वर्षा करते हैं ! इनमें से एक एक के स्थूल जल के समूह से युक्त प्रत्यन्त शुभ तीन सौ बीस श्रीपतन ( सरित्प्रपात ) होते हैं ॥ १५७ - १५६ ।। इस नगरी में कभी अतिवृष्टि, अनावृष्टि, दुर्भिक्ष यादि तथा और भी अन्य ईतिय ( अतिवृष्टि, अनावृष्टि, मूसक, सलभ, शुक्र, स्वचक्र और परचक्र ये सात ईतियाँ हैं ) नहीं होतीं । प्रजा को दुख देने वाले अन्य भी कोई अनिष्ट वहाँ नहीं होते || १६० ।। वहाँ पर तीन लोक के इन्द्रों (१०० इंद्रों) से सेवित तीर्थंकर देव, गणनातीत गणधर एवं चरमशरीरी मुनिराज उत्पन्न होते हैं । मनुष्यों और देवों से पूजित चक्रवर्तीीं, वासुदेव, प्रतिवासुदेव, बलदेव, नारद और कामदेव आदि भी उत्पन्न होते हैं, तथा राजा, अधिराजा महाराजा, अर्धमण्डल, मण्डलीक, महामण्डलीक और त्रिखण्ड - पति भी उत्पन्न होते हैं ।। १६१ - १६३ ।। Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ ] सिद्धान्तसार दीपक प्रय राजाधिराजा प्रादि के लक्षण कहते हैं :-- घकोषट्खण्डभूनाथः शतपञ्चमहीभृताम् । पतिः स्यादधिराजश्च सहस्रभूभुजां पतिः ॥१६४॥ महाराजो महीपानां द्विसहस्रप्रमाजुषाम् । स्वाम्यर्धमण्डलीकः स्याच्चतुः सहस्रभूभृताम् ।।१६।। नायको मण्डलीकश्चाष्टसहस्रमहीभुजाम् । पतिर्भयेन्महामण्डलीको भूपशिरोमणिः ॥१६६॥ सहस्रषोडशानां सद्राज्ञां मुकुटशालिनाम् । पतिः स्यादर्धचक्री च नृविद्येशसुराचिसः ॥१६७॥ द्विषोडशसहस्राणां राज्ञां शेखरशालिनाम् । स्वामी षट्खण्डमूनाथश्चक्रीरत्ननिधीश्वरः ।।१६८।। 'मत्रोपयोगिनालोका :--- अष्टावशसंख्यानां श्रेणीनामधिपतिविनम्राणाम् । राजास्यान्मुकुटधरः कल्पतर सेव्यमाना ॥१॥ पञ्चशतनरपतीनामधिराजोधीश्वरो भवतिलोके । राजसहस्राधिपतिः प्रतीयतेऽसौ महाराजः ॥२॥ द्विसहस्रराजनाथो मनीषिभिभण्यतेधमण्डलिकः । मण्डलिकाचतथास्याच्चतुः सहस्रावनीशपतिः ॥३॥ प्रष्टसहस्रमहीपतिनायक माहु बुधामहामण्डलिकम् । षोडशराजसहस्रं विनम्यमानं त्रिखण्डधरणीशम् ॥४॥ षट्खण्डभरतनापं द्वात्रिंशद्धरणिपति सहस्राणाम् । दियमानुष्प भोगागारं विदुरिह धरम् ॥५॥ अर्थ:-(अठारह श्रेणियों के स्वामी को अथवा एक करोड़ ग्रामों के अधिपति को राजा कहते हैं)। ५०० राजाओं का अधिपति अधिराजा, एक हजार राजाओं का स्वामी महाराजा, दो हजार राजाओं का स्वामी अर्धमण्डलीक, चार हजार राजाओं का स्वामी मण्डलीक, आठ हजार राजाओं १. एके श्लोकाः प्र. ज. प्रत्यो न मन्ति। टिप्पण्यामेन प्रदशिताः ब. क. प्रत्योः मूले समा वेशिताः । Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनोऽधिकार: । [ २१६ का स्वामी महामण्डलीक, सोलह हजार मुकुटबद्ध राजाओं का अधिपति अधंकको (त्रिखण्डाधिपति) और बतोस हजार मुकुटबद्ध राजानों का स्वामी छम्खण्डों का अधिपति, चौदह रत्न एवं नौ निधियों का अधीश्वर चक्रवर्ती होता है ।। १६४ - १६८ ।। उपयोगी (क्षेपण) इलोकों का अर्थः-- . अठारह श्रेणियों ( १ सेनापति, २. गणपति, ३ वणिपति, ४ दण्डपति, ५ मन्त्री, ६ महत्तर, ७ तलवर, ८ चतुर्वर्ण ११ चतुरङ्ग, १५ पुरोहित, १६ अमात्य, १७ महामात्य और १८ प्रधान ) के अधिपति से जो कल्पवृक्ष के सदृश सेव्यमान है उसे मुकुट बद्ध राजा कहते हैं । ५.. राजानों से सेव्यमान को अधिराजा, १००० राजामों के स्वामी को महाराजा, २००० राजानों से सेव्यमान को अर्धमण्डलीक, ४००० राजाओं से सेव्यमान को मण्डलीक, ८००० राजाओं के स्वामी को महामण्डलीक, १६००० राजामों से सेवित को अर्धचक्री अर्थात् त्रिखण्डाधिपति कहते हैं, और ३२००० राजानों के अधिपति को जो कि छह खण्ड का अधिपति है, दिव्य मनुष्य शरीर से युक्त और भोगों की खान है उसे चक्रवर्ती कहते हैं ॥१-५॥ क्षेमापुरी के धनों की संख्या कहते हैं :-- क्षेमापुर्याश्चतुविक्षु प्रत्येक सदनानि च । षष्टयप्रत्रिषासानि स्युः फलपुष्पयुतान्यपि ॥१६॥ अर्थ:-क्षेमापुरो की चारों दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में फलों एवं पुष्पों से युक्त तीन सौ साठ, तीन सौ साठ उत्तम वन हैं।॥ १६६ ।। प्रम चक्रवर्ती को दिविजय का विस्तृत व्याख्यान करते हुये सर्व प्रथम दक्षिण दिग्विजय का वर्णन करते हैं :-- तत्रोत्पन्नो हि चक्रेशः प्राप्य रत्नचतुर्दश । निधीन्नवषडङ्गाढयो निर्याति विजयाप्तये ॥१७०॥ क्रमात् स साधयत् भूपान् दक्षिणाभिमुखेम छ । गत्वा सीतासरिदद्वारे स्वसंन्येन बसेसुधीः ।।१७१।। तत्र सेनापतिं चक्री नियोज्य बलरक्षणे। दिव्यं रथंमुदारुह्य सरिद द्वारं प्रविश्य च ।।१७२।। गत्वा नद्यन्तरे द्वादशयोजनानि सबनुः । आवाय तन्निनादेन कम्पयन् नुखगाऽमरान् ।।१७३॥ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२. ] सिद्धान्तसार दीपक अमोघाख्यं स्फुरद्दोघं शरं मुञ्चति पाणिना। मागवावासमुद्दिश्य मागधद्वीपसंस्थितम् ।।१७४।। शकिनामा कितो काणः कुर्मद जयनिहारतम् । भयं तद्वासिदेवानां पते वसभाक्षितौ ॥१७५।। मागधाख्योऽमराधीशः चक्रिनामाङ्कितं शरम् । तं वीक्ष्य सहसादाय ज्ञात्वा चक्रघागमं ध्रुवम् ॥१७६॥ अभ्येत्य शिरसा नत्वा चक्रेशं पूजयेन्मुदा । विख्याभरणरत्नाद्यस्तदाज्ञां प्रोद्वहस्वयम् ।।१७७॥ अनेन विधिनाऽसौ वरतनु व्यन्तराधिपम् । शक्त्या वरतनु द्वीपाधीशं प्रभासनिर्जरम् ॥१७॥ सीतान्तःस्थं प्रभासाख्यं द्वीपनार्थ प्रसाध्य च । ताभ्यां नेपथ्य रत्नादीन बहून् गृह्णाति लीलया ॥१७६।। इति दक्षिणदिमागे वासिनोऽमरभूपतीन् । जित्वोत्तरदिशां जेतुमायाति स जयन नूपान् ।।१०।। अर्थः—उस क्षेमापुरी नगरी में उत्पन्न होने वाले चक्रवर्ती चौदहरत्न, नौ निधियों को प्राप्त कर सेना से युक्त होते हुये दिग्विजय को प्राप्ति के लिये निकलते हैं ।।१७०॥क्षेमापुरी से निकलकर सर्व प्रथम दक्षिणाभिमुख जाते हैं, वहाँ के सर्व नरेन्द्रों को क्रम से जीतते हुये उत्तम बुद्धि का धारक वह चक्रवर्ती सीतानदी के द्वार पर जाकर अपनी सेना के साथ ठहर जाते हैं। वहां सेना को रक्षा में सेनापति को नियुक्त कर आप स्वयं दिव्य रथ पर चढ़कर सीता नदी के द्वार में प्रवेश करते हुये नदी के भीतर बारह योजन पर्यन्त जाकर उत्तम धनुष बाण ग्रहण करते हैं, जिसकी टङ्कार से मनुष्यों विद्याधरों एवं देवों को कम्पायमान करते हुये मागधद्वीप में स्थित मागध देव के निवास स्थान का उद्देश्य कर अमोघ नाम के देदीप्यमान वाराह को अपने हाथों से छोडते हैं ।।१७१-१७४।। चक्रवर्ती के नाम से अङ्कित वह वाण अपनो ध्वनि से वहाँ के निवासी देवों को भय उत्पन्न कराता हुआ देव सभा के मध्य में गिरता है ।।१७५।। देवों का अधीश्वर मागध नाम देव, चक्कवती के नाम से अंकित उस वारण को देख कर तथा उसे ग्रहण करके और निश्चय से चक्रवर्ती का आगमन जानकर शीघ्र ही वहाँ पाकर उन्हें शिर से नमस्कार करता है, तथा दिव्यवस्त्राभूषणों एवं रलसमूहों से प्रसन्नता पूर्वक चक्रवर्ती की पूजा करता हुआ उनको प्राज्ञा को स्वयं अपने शिर पर धारण करता है ।।१७६-१७७11 इसी प्रकार वह चको अपनी शक्ति विशेष से वरतनुद्वीप के अधीश्वर Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमोऽधिकारः [ २२१ वरतनु नाम को ध्यन्तराधिप को और सीता के तट पर स्थित प्रभास द्वीप के स्वामी प्रभास देव को अपने आधीन करके उनके बहुत से वस्त्राभरण और रत्न मादि क्रीड़ा मात्र में ग्रहण कर लेता है ॥१७८-१७६। इसी प्रकार दक्षिण दिशा में निवास करने वाले देवों एवं राजाओं को जीत कर यह चक्री उत्तर दिशा गत राजाओं को जीतने की इच्छा से उत्तर में प्राता है ।।१८०1। अब उत्तर दिग्विजय में विजयाध की गुफा से निस्तीर्ण होने का विधान बतलाते हैं:-- क्रमेण विजयार्धाद्रि समीर घालावृतः । रूप्याद्रि म्लेच्छखण्डादि साधनाय चिरं वसेत् ॥१८॥ चक्रयादेशेन सेनानीरश्वरत्नं खगामिनम् । पारुह्याभ्यस्य रूप्याद्र गुहाद्वारं सुदुर्गमम् ॥१८२।। तमिश्राख्यं स्फुरहण्डरत्नेन घातयेत्तराम । तत् क्षरणं स खमुत्पत्य म्लेच्छखण्डं व्रजेन्सुधीः ।।१३।। दण्डघातेन तद् द्वारकपाटोघाटनं भवेत् । तन्मध्यादुष्मदाहोघो निर्याति दुस्सहस्तवा ।।१४।। षण्मासर्यावदूष्माघः शान्तः स्याच्छीतला गुहा । तावत्सेनापतिम्लेंच्छखण्डमेकं च सापयेत् ॥१८॥ ततश्चकिमहासेना ह्यागत्याद्रिगुहामुखम् । प्रविश्य यत्नतो गच्छेन्नधा उभयपाश्र्वयोः ।।१८६।। क्रमेणास्य ग्रहामध्यभागे गत्वा नदीद्वयात । अग्रे गन्तुमशक्त तत्सत्यं चिन्तापरं वसत् ॥१७॥ गिरिद्विपार्षभित्तिस्थमूकुण्डाभ्यां विनिर्गते । द्वे चोन्मग्नजलासंज्ञिका निमग्नजलाये ॥१८॥ नद्यौ नियोजनायामे महोमिचयसंकुले। रक्तामध्ये प्रविष्टे प्रबहतस्तत्र दुर्गमे ॥१८६।। तदा चक्रधरादेशात स्थपत्याख्यो नृरत्नथाक् । दिव्यशक्त्यानयो धोः सेतुबन्ध प्रबन्धयेत् ॥१०॥ सेनोतीर्य शनर्नयौ पुण्येन सैन्य मूजितम् । गुहाया उत्तरद्वारेण निर्गच्छति शर्मणा ।।१६१॥ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्तसार दोपक अर्थ:-चक्रवर्ती म्लेच्छ प्रादि वण्डों को जीतने के लिये उत्तर दिशा में कम से जाते हुये अपनी महान सेना सहित विजया के समीप बहुत काल तक रहता है । चक्रवर्ती के प्रादेश से सेनापति आकाशगामी धोड़े ( अश्वरत्न ) पर चढ़कर विजयार्ध पर्वत को तमिथ नाम की गुफा द्वार को देदीप्यमान दण्ड रत्न से अत्यन्त जोर से घात करता (ठोकर मारता) है और वह उत्तम बुद्धि का धारी सेनापति तत्क्षण आकाश में उड़ता हुआ म्लेच्छ खण्ड को जाता है ।। १८१-१८३॥ दण्डधात के द्वारा उस गुफा के दोनों द्वार खुल जाते हैं और उसके भीतर से अत्यन्त दुस्सह उष्मा ( उष्णता ) का समूह निकलता है। छह मास के बाद वह उष्णता का समूह शान्त होता है और गुफा शीतल होती है तब तक सेनापति एक म्लेच्छ खण्ड को साध (जीत) लेता है। इसके बाद चक्रवर्ती की महान सेना विजयाधं गुफा द्वार के मुख में प्रवेश करके नदी के दोनों पार्श्वभागों में यत्नपूर्वक चलती हुई कम से गुफा के मध्य भाग में पहुँचकर उन्मग्नजला और निमग्नजला इन दोनों नदियों को पार करने में असमर्थ होती हुई चिन्तातुर होकर ठहर गई ॥१८४-१८७।। विजया पर्वत के दोनों पार्श्व भागों को भित्ति (मूल में) स्थित दो कुण्डों से निकलने वाली उन्मग्नजला और निमग्नजला नाम की दोनों नदियां दो योजन लम्बी और महान् कल्लोलों के समूह से संकुलित होकर बहती हुई अति दुर्गम रक्ता महानदी के मध्य में प्रविष्ट होती हैं । तब चक्रवर्ती के आदेश से स्थपति नाम का (बढ़ई) मनुष्य रत्न दिव्य शक्ति के द्वारा दोनों नदियों पर सेतुबन्ध का प्रबन्ध करता है 1 पुण्ययोग से समस्त सेना उन दोनों नदियों को शनैः शनैः उत्तीर्ण कर गुफा के उत्तर द्वार से सुख पूर्वक निकल जाती है ॥१८८-१६१।। अम मध्यम म्लेच्छ खण्ड में चक्रवर्ती के प्रदेश एवं उनके ऊपर पाये हुये उपसर्ग का वर्णन करते हैं :--- मध्यस्थम्लेच्छखण्डस्य धरामाक्रम्य चक्रभत् । तिष्ठेत् षडङ्गसंयुक्तो जेतु म्लेच्छनपान बहून् ।।१९२॥ चक्रयागमं तदालोक्य म्लेच्छया भयातुराः । विज्ञापयन्ति चाभ्येत्याराध्य स्वकुलनिर्जरान् ।।१६३॥ तच्छ त्वा ते धागत्यामरा मेघमुखाह्वयाः । तत्सैन्यसुभटावीनां कुर्वन्त्युपद्रवं महत् ।।१९४॥ व्याघ्राद्यैर्भाषणरूपविविधश्चक्रिपुण्यतः । मनाक क्षोभं न गच्छन्ति सैन्यकास्तरुपद्रवः ॥१५॥ पुनस्ते मेघधाराद्यैः स्थूलः स्वविक्रियाकृतः । कुर्वते महती पृष्टि विद्युत्पातादि गर्जनः ।।१६६।। Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमोऽधिकारः उपर्यस्य सुसेनायाः सप्ताहोरात्र मञ्जसा । सात्रैकार्णवः स्याच्च मज्जयन् वनपादपान् ॥१६७॥ तदम्बुजलधौ चर्मरत्नं विस्तरति स्फुटम् । द्विषयोजनपर्यन्तं जलाभेद्यं हि वज्रवत् ॥ १६८ ॥ तस्योपरि महादेवं तिष्येतस्मिन्नुप । तच्चर्मोपरि सेनाया मेघवाधाविहानये ||१६|| छत्ररत्नं जलाभेद्यं चर्मरत्नान्तमञ्जसा । प्रसरेविति तद्रत्नद्वयं स्थादण्डकोपमम् ॥ २००॥ चतुर्द्वाराङ्कितस्यास्य मध्ये चक्रेशपुण्यतः । निराबाधतया कृत्स्नं संन्यं तिष्ठेत्स्वशर्मणा ॥ २०१ ॥ सतचक्रधरो ज्ञात्वा तद् वोश्यमुपद्रवम् । देवानुद्दिश्य दिव्याङ्ग तथा वाणं विमुञ्चति ॥ २०२॥ तथा ते निर्जरादुष्टा जायन्ते निःप्रमास्ततः । ते निर्जिता विलोक्योच्च एच किमाहात्म्यमूजितम् ॥२०३॥ देवा म्लेच्छ पाश्चत्य सेवां कुर्वन्ति चक्रिणः । हस्त्यश्व रत्नकन्यादिदानंः प्रणाम भक्तिभिः ॥२०४॥ [ २२३ अर्थः-- चक्रवर्ती विजयार्थ गुफा के उत्तर द्वार से निकल कर मध्य में स्थित मध्यम म्लेच्छ खराब की भूमि को प्राप्त कर अनेक म्लेच्छ राजानों को जीतने के लिये षड् (छह ) अंगों की सेना सहित ठहर गया ।।१६२।। तब चक्रवर्ती के आगमन को देखकर भय से आकुलित म्लेच्छ राजा अपने कुल देवताओं के पास आकर और उनकी प्राराधना करके अपने भय का कारण कहने लगे। उसे सुनकर वे देवगण क्रोधित हो उठे और मेघमुख नाम के देव ने ग्राकर चक्रवर्ती की सेना के सुभटों पर घोर उपद्रव किया | अनेक प्रकार के व्याघ्र आदि भीषण रूपों के द्वारा किये हुये अनेक उपद्रव चक्रवर्ती के पुण्य से सेना को किचित मात्र भी क्षोभ नहीं पहुँचा सके । तब वे देव अपनी विक्रिया के द्वारा जल की मोटी मोटी धारा के द्वारा जल की महान् वृष्टि, विद्यस्पात एवं मेघगर्जन आदि करने लगे । सेना के ऊपर यह उपर्युक्त वर्षा सात दिन रात पर्यन्त होती रही जिससे वहाँ वन के वृक्ष आदिकों को डुबाने वाला एक समुद्र हो गया ।।१६३ - १६७ ।। उस जल समुद्र के ऊपर बारह योजन पर्यन्त जल के द्वारा अभेद्य और वज्र के समान एक चर्मरत्न फैला दिया गया। उसके ऊपर वह महान सेना उस उपद्रव के समय में ठहर गई । सेना की मेघ श्रादि की बाधा को दूर करने के लिये उस चर्मरत्न के ऊपर जल Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ ] सिद्धान्तसार दीपक के द्वारा अभेद्य और चर्म रत्न के बरावर एक छत्ररत्न फैला दिया गया। ये दोनों रत्न मिलकर ( एक ऊपर एक नोवेमारा को भारत के सर हो गये। कुल के पुण्य में चार दामों में सुना हुन दोनों रत्नों के बीच में समस्त सेना निराबाध और सुख पूर्वक ठहरो रही ।।१६८-२०१।। इसके बाद "यह उपद्रव देवों द्वारा उत्पन्न किया गया है "यह नानकर चक्रवर्ती उन देवों का चिन्तन ( लक्ष्य ) करके ही एक दिव्य बाण छोड़ता है। उस एक ही बारण से वे दुष्ट देव कान्ति हीन हो गये, तथा म्लेच्छ राजाओं के साथ साथ वे सब देव चक्रवर्ती के महान् माहात्म्य को देख कर उनके पास आये और हाथी, अश्व, रत्न एवं कन्या आदि दान के द्वारा भक्ति पूर्वक उनकी सेवा करने लगे ।।२०२-२०४।। प्रब चक्रवर्ती के मद एवं निर्मद होने का कारण दर्शाते हैं : ततो म्लेच्छाधिपांश्चक्री साधयन याति पुण्यतः । मध्यमम्लेच्छखण्डस्थ वृषभाचलसन्निधिम् ॥२०॥ तदा चक्राधिपो देवखगभूपजयोद्भवम् । उद्घ हन् परमं गर्व वाञ्छन स्वनामलेखनः ॥२०६॥ स्वकीति निश्चलां फतुमभ्येत्याद्रि निरीक्ष्य तम् । निर्मदो जायतेऽनेक चक्र शनामवोक्षणात् ॥२०७।। अर्थ:-लेच्छ खण्ड के राजाओं को जीतता हुआ चक्रवतीं पुण्य के प्रभाव से मध्यम म्लेच्छ स्वरात में स्थित वृषभाचल के समीप पहुँचता है। देव एवं विद्याधर प्रादि राजाओं को जीत लेने से उत्पन्न होने वाले महान गर्व को धारण करता हुआ वह अपने नाम लेखन के द्वारा अपनी कोर्ति निश्चल करने को इच्छा से वृषभाचल को प्रार करता हुमा उसे दबता है, तथा अनेक चक्रवतियों के नाम दस्ख कर तत्क्षण निर्मद हो जाता है ।।२०५-२०७।। अब वृषभाचल पर्वत के प्रमाण प्रादि का एवं उस पर चक्रवर्ती के प्रशस्ति लेखन का वर्णन करते हैं :-- शतयोजनविस्तीर्णो मूले मध्ये च योजनः । पंचसप्ततिसंख्यानै विस्तृतो मस्तके महान् ॥२०॥ पंचाशत्संख्यक ति स योजनशतोन्नतः । बनतोरणवेद्यायनिहब वृषभाचलः ॥२०६॥ अनेन वर्णनेनात्र विदेहवृषभाद्रयः । द्वात्रिशन्निखिला शेयाः समाना उन्नतादिभिः ।।२१०।। Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमोऽधिकारः तत्राचले विरस्याशु कस्यचिन्नाम चक्रभृत् । लिखेत्स्वकुलनामस्तोत९॥ [ २२५ अर्थः- चक्रवर्तियों के मान की हरण करने वाला यह वृषभाचल पर्वत सौ योजन ऊँचा, मूल में सौ योजन चौड़ा, मध्य में पचहत्तर योजन चोड़ा और शिखर पर पचास योजन चौड़ा है, तथा वन, तोरण एवं वेदी आदि से सहित है ।।२०६ - २०६|| विदेह स्थित बत्तीस वृषभाचलों की ऊँचाई भादि का समस्त वर्णन इसी वृषभाचल के सदृश जानना चाहिये ।।२१० || इस वृषभाचल पर्वत पर चक्रवर्ती पृथिवी पर अपनी कीर्ति स्थाई करने के लिये अन्य किसी चक्रवर्ती का नाम मिटाकर अपने कुल नामादि युक्त प्रशस्ति लिखता है || २११ || से अब चक्रवर्ती के नगर प्रवेश का क्रम आदि कहते हैं : ततः खण्ड योत्पन्नान् जित्वा खगनृपामरान् । तत्सारवस्तु कन्यादीन् गृहीत्वा याति पुण्यतः ॥ २१२ ॥ रूप्याघपरभागस्थ गुहाद्वारेण चक्रभूत् । प्राग्वच्चोद्घाटितेनैव तच्चमूपतिना स्वयम् ॥ २१३॥ इति षट्खण्डवासिसुरभूपखगाधिपान् । साधयित्वा कमातेभ्यः कन्यारत्नान्यनेकशः ॥१२१४|| वस्तुवानकोटींश्चादाय पुण्यात् स्वलीलया । वज्जीव स्वपु चक्रो प्रविशेषच षडङ्गभूत् ॥ २१५।। तत्रातिपुण्यपान भुंक्त भोगांच्युतोपमान् । चक्रोदशविधान् कुर्वन् जिनधर्ममनारतम् ।।२१६॥ अर्थ:- इसके बाद तीन खण्ड में उत्पन्न विद्याधरों, राजाओं और देवों को जीतकर पुण्य प्रताप से वहाँ की कन्या यदि सार वस्तुओंों को लेकर चक्रवर्ती वापिस आता है । जब चक्रवर्ती विजयार्ध पर्वत के पश्चिमस्थ गुफा द्वार पर छाता है तब सेनापति स्वयं पूर्ण के समान उस गुफा द्वार को खोलता है ।।२१२ - २१३।। इस प्रकार छह खंडवासी देवों, नरेंद्रों और विद्याधरों को क्रमशः जीतकर तथा श्रतिशय पुण्य से करोड़ों वस्तु, वाहन आदिकों को क्रीडा मात्र में ग्रहण करके चक्रवर्ती छह चह्नों की सेना सहित इन्द्र पुरी के समान अपनी नगरी में प्रवेश करता है और वहाँ श्रश्यन्त पुण्योदय से उपमा रहित भोगों को भोगता हुआ जिन धर्म में है रस मन जिसका ऐसा चक्रवर्ती दश प्रकार के धर्मो का पालन करता है ।।२१२ - २१६ ॥ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ । सिद्धान्तसार दीपक प्रब चक्रवर्ती के ग्राम, पुर और मटम्बों प्रादि का वर्णन करते हैं :-- ‘भन्ति विषये चक्रिणो ये प्रामपुरादयः । भोग्याः सम्पबलाचास्तान समासेन दिशाम्यहम् ॥२१॥ स्पुत्रिशत्सहस्राणि देशास्तस्य च शाश्वताः । नपा मुकुटबद्धास्तावन्तो नमन्ति तत्कमौ ।।२१।। वृत्यावृता महा ग्रामाः कोटोषण्णवतिप्रमाः । चतुर्गोपुरशालाद्यैर्वेष्टितानि पुराणि च ॥२१६॥ षड्विंशति सहस्राणि ग्रामः पञ्चशतयुताः । प्रत्येकं च मटम्बाः स्युश्चतासहस्रसम्मिताः ॥२२०॥ सरित्पर्वतयोमध्ये सहस्राण्येव षोडश । खेटानि स्यु तान्यच्चंजिनालयसुधार्मिकः ॥२२१॥ चतुर्विशसहस्राणि कवंटायावृतानि च । पर्वतेन जिनागारश्रावकादियुतान्यपि ॥२२२।। पत्तनान्यष्टचस्वारिंशत्सहस्राणि सन्ति च । रत्नोत्पस्यादिहेतूनि युक्तानि धनिर्मिभिः ॥२२३।। सहस्राणि नवाग्रा नवतिद्रोणामुखानि च । सीतानीजलोत्पन्नोपसमुद्रतटेवपि ॥२२४।। चतुर्दशसहस्राणि संवाहनानि सन्ति । पर्वतानेषु युक्तानि रत्नसौधजिनालयः ॥२२५॥ अष्टाविंशसहस्राणि स्पर्दुर्गाणि महान्ति च । प्रगम्यान्यस्य शत्रूणां पनिर्मिभूतानि च ॥२२६।। अन्तर्वीपा भवेयुः षट्पञ्चाशद्रत्नराशिभिः । भता उपसमुद्रस्य मध्ये सोतोत्तरे तटे ॥२२७।। षविंशतिसहस्राणि रत्नाकरा महोन्नतः । सौधचैत्यालयैः पूर्ण रत्नभूसार वस्तुभिः ।।२२८॥ रस्नकुक्षिनिवासाः स्यू रत्नस्थानधरान्विताः । शतसप्तामा रम्या जिनघामादिषार्मिकः ।।२२९।। Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमोऽधिकारः [ २२७ सीताया उत्तरे भागे समापुर्याश्च दक्षिणे। भवत्युपसमुद्रोऽपिनश्वरः स्वोर्मिसंकुलः ।।२३०॥ अर्थी-चक्रवर्ती के देश में जो ग्राम एवं पुर आदि होते हैं उनका तथा उनके योग्य भोग्य सामग्री, सम्पदा एवं बल प्रादि का संक्षिप्त वर्णन करता हूँ ।।२१७।। चक्रवर्ती के शाश्वत बत्तीस हजार देश होते हैं, जिनके बत्तीस हजार मुकुट बद्ध राजा क्रम से उन्हें नमस्कार करते हैं ॥२१८|| जो वृत्ति वाड़ से प्रावृत्त ( घिरे हुये) होते हैं. उन्हें ग्राम कहते हैं, ऐसे छयानवे करोड़ महा ग्राम; चार गोपुर एवं उन्नत कोट प्रादि से वेष्टित छब्बीस हजार पुर, जो पाँच सौ ग्रामों से संयुक्त होते हैं ऐसे चार हजार मडम्ब, ( प्रत्येक मडम्ब चार हजार ग्रामों से युक्त होता है ) नदियों और पर्वतों के मध्य रहना है लक्षण जिनका ऐसे उन्नत जिनालयों एवं धार्मिक जनों से भरे हुये सोलह हजार खेट होते हैं ॥२१७२२शा जी मात्र पर्वतों से घिरे हुये होते हैं उन्हें कर्वट कहते हैं । ऐसे मुनि और श्रावकों से युक्त चौबीस हजार कर्वट होते हैं ॥२२२।। धनी और धार्मिक जनों से युक्त तथा रत्न प्रादि उत्पत्ति के कारण भूत अड़तालीस हजार पत्तन हैं ॥२२३॥ सीता नदी के जल से उत्पन्न होने वाले उपसमुद्रों के तटों पर निन्यानवें हजार (२९०००) द्रोणमुख होते हैं ॥२२४।। रत्नप्रासादों एवं जिनालयों से सहित पर्वतों के शखरों पर चौदह हजार सबाह हैं जो अन्य शत्रों ग्रादिकों को प्रगम्य हैं तथा धनी और धार्मिक जनों से भरे हैं ऐसे अट्ठाईस हजार (२८०००) महादुर्ग हैं ।।२२५--२२६।। सीता के उत्तर तट पर उपसमुद्र के मध्य में रनों की राशियों से भरे हुये छप्पन ( ५.६ ) अन्तर्वीप हैं ॥२२७॥ महा उन्नत प्रासादों से परिपूर्ण और रत्नों एवं भूमि की अन्य सारभूत वस्तुओं से समृद्ध छब्बीस हजार { २६००० ) रत्नाकर हैं ।।२२८॥ रत्नों की स्थानभूत पृथिवी से समन्वित तथा रमणीक जिनभवनों और धार्मिक जनों से अंचित सात सौ रत्नकुक्षिवास हैं ॥२२६।। सीता के उत्तर भाग में और क्षेमापुरी के दक्षिण में अपने पाप में उठने वाली कल्लोलों सो संकुलित और अविनश्वर उपसमुद्र है ।।२३०॥ अब चक्रवर्ती के बल और रूप प्रादि के साथ-साथ अन्य वैभव के प्रमाण का वर्णन करते हैं :-- लक्षाश्चतुरशीतिः स्युजेन्द्राः पर्वतोपमाः । तावन्तश्चक्रिरणो रम्यारथावाजिद्वयाङ्किताः ॥२३१॥ शीघ्रगामिन एवास्याश्वा अष्टादशकोटयः । कोटघश्चतुरशीतिः स्यु तगामिपदातयः ॥२३२।। स्यादनास्थिमयं बनवलयैर्वेष्टितं वपुः । निभिन्नं वज्रनाराचैरमेधं तस्य सुन्दरम् ॥२३३॥ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २.२८ ]. सिद्धान्तसार दीपक प्रादिमं च सुसंस्थानं चतुःषष्टिसुलक्षणः । व्यञ्जनं बहुभिर्युक्त हेमाभं च च्युतोपमम् ॥२३४॥ षट्खण्डवासिभूपानां पिण्डीकृतं हि यबलं । ततोऽधिकं महावीर्यं चक्रिणः स्यान्निसर्गतः ॥ २३५॥ स्युर्द्वात्रिशरसहस्राण्याखण्डस्थ नृपात्मजाः । तावत्यो वररूपाश्च म्लेच्छराजसुताः शुभाः ॥ २३६॥ तत्प्रमाः खचराधोशपुग्यो विद्याकलाविताः । नाटकाः शर्मंदा द्वात्रिंशत्सहस्रप्रभाः शुभाः ॥ २३७॥ स्थास्यः स्वर्णमयाः कोटिप्रभा प्रस्य महानसे । स्यादेककोटिलक्षश्च हलानां पामरैः समम् ॥ २३८ ॥ ffers व्रजकोटोsस्य गोकुलैः संकुलाः शुभाः । श्रष्टादश सहस्राश्च म्लेच्छ राजानमन्ति तम् ॥ २३६ ॥ अर्थ : - चक्रवर्ती के पर्वत की उपमा को धारण करने वाले चौरासी लाख हाथी और दो-दो जोड़ों से युक्त तथा रम्य चौरासी लाख ही रथ होते हैं । अठारह करोड़ शीघ्रगामी घोड़े और द्रुतगामी चौरासी करोड़ पदाति होते हैं ।। २३१-२३२ || वज्रमय वाणों से अभेद्य, सन्धि रहित, वज्रमय अस्थि एवं वज्रवलय वेष्टित चक्रवर्ती का शरीर अत्यन्त सुन्दर, समचतुरस्त्र संस्थान, चोंसठ उत्तम लक्षणों और अनेकों व्यञ्जनों से युक्त, हेम वर्ण एवं उपमा रहित होता है ।। २३३ - २३४ ।। छह खण्डवर्ती समस्त राजानों के बल को एकत्रित करने पर जो बल होता है उससे भी अधिक बल अर्थात् महावीर्य चक्रवर्ती के स्वभावतः होता है ॥ २३५॥ भार्य खण्डस्थ राजाओं की बत्तीस हजार कन्याएँ. अनुपम रूप एवं शुभ लक्षणों से युक्त म्लेच्छ राजाओं की बत्तीस हजार कन्याएँ तथा विद्याओं एवं कलाओं से समन्वित विद्याधरों को बत्तीस हजार कन्याएँ अर्थात् चक्रवर्ती के छ्यान्नवे हजार रानियाँ होती हैं। सुख उत्पन्न करने वाले शोभनोक बत्तीस हजार नाटकगरण, रसोई गृह में स्वर्णमय एक करोड़ प्रमाण थालियाँ अथवा इण्डियाँ होती हैं । एक लाख करोड़ किसानों के साथ साथ एक लाख करोड़ प्रमाण ही हल होते हैं । नाना वर्णों की अत्यन्त शुभ लक्षण वाली गायों से भरे हुये तीन करोड़ व्रज होते हैं और चक्रवर्ती को अठारह हजार म्लेच्छ राजा नमस्कार करते हैं ।।२३६-२३६|| चक्रवर्ती को नौ निधियों के नाम, कार्य एवं उनके प्राकार श्रादि का सविस्तर वर्णन करते हैं :--- Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२२६ सप्तमोऽधिकारः कालाह्वयो महाकालो नःसर्पः पाण्डुकाभिधः । पमाख्यो मारणवः पिङ्गलाभिस्यः शंखसंज्ञकः ॥२४०।। सर्वरत्न इमे सन्ति चक्रिणो निधयो नव । निधिः कालोऽस्य पुण्येन पुस्तकानि दवाति च ॥२४॥ सर्वलौकिकशब्दादि वार्तानामन्यहं तथा । मनोशानिद्रियार्थांश्च वीणावंशानकादिकान् ॥२४२॥ असिमस्याविषट्कर्मसाधनद्रव्यसम्पदः । महाकालनिधिदत्ते पुण्यात्पुण्यनिधेः प्रभो ॥२४३।। शरपासनालयादीनि नःसप्पो वितरेद्विभोः । पाण्डुकोऽखिल धान्यानि षड्रसांश्च मनोहरान् ।।२४४॥ पट्टकूलादि वस्त्राणि दत्ते पद्मो महान्ति च । रस्नाभरणविश्वानि दीप्तिशालीनि पिङ्गलः ।।२४५।। शस्त्राणि नीतिशास्त्राणि सूते कृत्स्नानि मारणवः । शंखः प्रदक्षिणावर्तः सुवर्णानि महान्ति च ॥२४६॥ सर्वरतनिधिदद्याद्विश्वरत्नानि चक्रिणः । सर्वेऽमी शकटाकारा निधयोऽभुतपुण्यजाः ॥२४७।। चतुरक्षावाल्या योजनाष्टसमुन्नताः । नवयोजनविस्ताराः प्रत्येक रक्षिताः सुरैः ॥२४। सहस्रसंख्यदिशयोजनायताः शुभाः । ज्ञेयाः पुण्यनिधेस्तस्य नित्यं स्वेहितवस्तुदाः ॥२४६।। अर्थ:-चक्रवर्ती के काल, महाकाल, नैसर्प, पाण्डु, पद्म, माणव, पिङ्गल, शङ्ख और सवरत्न ये नव निधियाँ होती हैं । चक्रवर्ती के पुरण्य से प्रेरित इन नौ निधियों में से काल नाम को प्रथम निधि तर्क, व्याकरण, छन्द, अलङ्कार प्रादि के. लोक व्यवहार सम्बन्धी एवं व्यापार सम्बन्धी शास्त्रों को तथा इन्द्रियों के मनोज्ञ विषयों को एवं वीणा, बाँसुरी, पटह आदि वाद्यों को निरन्तर देती है। पुण्य को खान स्वरूप चक्री के शुभोदय से महाकाल निधि असि, मसि कृष्यादि षट् कर्मों के साधन भूत द्रव्यों को और अन्य सम्पदा को भी देती है। नःसर्प निधि चक्रवर्ती को शय्या, आसन और प्रासाद आदि देती है। पाण्डु निघि सम्पूर्ण धान्य एवं मनोहर पट्रसों को देती है। पद्म नाम को पञ्चम निधि रेशमी और सूती प्रादि सभी प्रकार के महान कात्र देती है। पिङ्गल निधि कान्तिमान समस्त प्रकार के Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० ] सिद्धान्तसार दोपक रत्नाभरण आदि देती है। मानव निधि समस्त प्रकार के प्रायुध और नीति शास्त्र देती है । प्रदक्षिणाबतं शंख निधि महान स्वर्ण और सर्वरत्न नाम की । वी निधि समस्त प्रकार के रत्न चक्रवर्ती को देती हैं । अद्भुत पुण्य से उत्पन्न होने वाली ये नौ निधियाँ शकटाकार होती हैं ॥२४०-२४७।। चार खूटियों ( चक्रधारा) एक आठ पहियों से संयोजित ये कल्याण प्रद नौ निधियाँ पृथक्-पृथक् पाठ योजन ऊँची, नौ योजन चौड़ी, बारह योजन सम्बी और एक-एक हार देशों से रक्षित हैं. :गा पुण्य के भंडार स्वरूप चक्रवर्ती को नित्य ही स्व इच्छित पदार्थ देती हैं, ऐसा जानना चाहिये ।।२४८-२४६॥ अब चक्रवर्ती के चौदह रत्नों के नाम और उनके उत्पत्ति स्थानों को कहते हैं : चक्र छत्रमसिदण्डो मरिणश्च चर्मकाकिणी । इमानि सप्तरत्नान्यजीवानि साधनाम्यपि ।।२५०।। सेनागृहपतीभावस्थपतिस्त्रीपुरोधसः । सप्तरत्नानि चैतानि सजीवानि महान्ति वै ॥२५१॥ चकच्छवासिदण्डाश्च जायन्तेऽस्यायुधालये । काकिणीमणिचर्माणि पुण्येन श्रीगृहान्तरे ।।२५२।। स्त्रीगजाश्वाः त्रिरत्नान्युत्पद्यन्ते रजताचले। चत्वारिशेषरत्नानि क्षेमापुर्या महान्ति च ।।२५३॥ सरत्नानिधयो नार्यः संन्यं शय्यासने पुरी। भोज्यं सभाजनं नाट वाहनं हीति चक्रभत् ॥२५४॥ दशाङ्गमोगसाराणि भुनक्ति पुण्यपाकतः । गणबद्धामराभृत्याः सहस्रषोडशास्य च ।।२५५१५ अर्थः- चक्रवर्ती के महापुण्य योग से चक्र, छत्र, तलवार, दण्ड, मरिण, चर्म रत्न और काकणी ये सात अजीव रत्न अनेक कार्यों को साधने वाले होते हैं। तथा सेनापति, गृहपति, हाथो, अश्व, स्थपति, स्त्री और पुरोहित ये सात सजीव रत्न हैं ॥२५०-२५१।। चक्र, छत्र, असि और दण्ड ये चार रत्न चक्रवर्ती की प्रायुधशाला में उत्पन्न होते हैं । काकणी, मणि और चर्म रत्न ये तोन रत्न श्रीगृह अर्थात् चक्री के म्नजाने में तथा स्त्री, हाथी एवं अश्व ये तीन रत्न विजयार्थ पर्वत पर उत्पन्न होते हैं शेष चार रत्न अर्थात् सेनापति, गृहपति, स्थपति और पुरोहित ये महान् चार रत्न क्षेमापुरी में ही उत्पन्न होते हैं ॥२५२-२५३।। चक्रवर्ती १ चौदह रत्नों सहित नौ निधियाँ, २ स्त्री, ३ सेना, ४ शय्या, ५ प्रासन, ६ पुरी, ७ भोजन, ८ भाजन, ६ नाटक और १० वाहन ये दश प्रकार के सारभूत भोगों को भोगता है । महा पुण्योदय से सोलह हजार गणवद्ध देव भृत्यों के सदृश सेवा करते हैं ॥२५४-२५शा Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमोऽधिकार: [२३१ सब कवर्ती के पन्या भोग्य पदार्थों के नाम कहते हैं :--- क्षितिसारावयस्तुङ्गः प्राकारोस्ति गृहाप्तिः । गोपुरं सर्वतोभवमुल्लसद्रत्नतोरणम् ॥२५६॥ निवेशः शिविरस्यास्य नन्द्यावर्ताभिधो भवेत् । प्रासादो वैजयन्ताख्य सर्वत्र शर्मसाधकः ॥२५७।। विकस्वस्तिका सभाभूमिः परावर्ष मणिकुट्टिमा । अस्य चंक्रमणीयष्टिः सुविधिर्मणिनिमिता ॥२५॥ गिरिकूटाख्यकसौध तुङ्ग दिगवलोकने । वर्धमानकनामास्य प्रेक्षागारं सुसुन्दरम् ॥२५॥ धारागहाभिधो रम्यो घन्तिकोस्ति शीतलः । गृहकूटकसंज्ञोऽस्य वर्षावाप्तो मनोहरः ॥२६०॥ हम्यं स्यात्पुष्करावर्ताह्वर्ग रम्यं सुधासितम् । कुवेरकान्तनामास्य भाण्डागारं क्षयातिगम् ॥२६१॥ अध्यागं वसुधारास्यां कोष्ठागारं च चक्रिणः । जीमूतनामकं स्याच्च मज्जनागारमूजितम् ॥२६२।। रत्नमालातिरोचिष्णुः सुप्रोच्चास्त्यवतन्सिका । देवरम्याह्वयारम्या स्मृता दूष्पकुटीपृथुः ॥२६३॥ सिहभयानकरूढा सुशय्यासिंहवाहिनी । अनुत्तराख्या दिव्य तुङ्ग सिंहासनं महत् ॥२६४।। रम्याणि चामराण्यस्यानुपमास्यानि सन्ति छ । भास्वत्सूर्यप्रभं छत्रं दीप्तं सद्रत्नभूषितम् ।।२६५।। विद्युत्प्रभाह्वये स्यातां रुचिरे मणिकुण्डले । अभेद्यास्यं तनुत्राणममेद्यं शत्रुजैः शरैः ।२६६।। रत्नांशु जटिला. सन्ति पादुका विषमोचिकाः । परांहिस्पर्शमाशेण मुञ्चन्त्यो विषमुल्वरणम् ॥२६७॥ रथोऽजितजयाल्यः स्यातुनकाण्डं महद्धनुः । चक्रिणोऽमोघपाताः स्युरमोधास्यमहेषवः ।।२६८।। Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ ] सिद्धान्तसार दोपक श्रर्यः - चक्रवर्ती के नगर के चारों ओर क्षितिसार नाम का उत्तुङ्ग और वृत्ताकार प्राकार है । कान्तिमान् उत्तम रत्नों का सर्वतोभद्र नाम का गोपुर है। शिविर ( डेरा, तम्बू ) के निवेश द्वार का नाम नन्द्यावर्त है। सर्व ऋतुयों में सुख देने वाला वैजयन्त नाम का प्रासाद है ।। २५६-२५७॥ पराद्ध मणि का है आंगन (भूमि ) जिसका ऐसा दिक्स्वस्तिका नाम का सभा स्थल और चक्रवर्ती के हाथ में लेने की घूमने वाली सुविधि नाम को मरिण निर्मित छड़ी है ।। २५८ ॥ दिशाओं का अवलोकन करने के लिये गिरिकूट नाम का उन्नत प्रासाद है, और अति रमसीक वर्धमान नाम का प्रेक्षागार है ।। २५६॥ प्रताप का विनाश करने वाला शोतल और रम्य धारागृह नाम का भवन है, वर्षाकाल में सर्व सुखों को देनेवाला मन को शिकूनम का है। चुने की कलई से उज्ज्वल और रम्य पुष्करावर्त नाम का उत्तम भवन है जिसमें अक्षय निधि से परिपूर्ण कुबेरकान्त नाम का भण्डारगार है ।। २६०-२६१ ।। चक्रवर्ती के क्षय से रहित वसुधारा नाम का कोष्ठागार है और अत्यन्त तेज कान्ति से युक्त जीमूत नामका मज्जनागार ( स्नानगृह ) है || २६२ ॥ चक्रवर्ती की प्रति देदीप्यमान रत्नों की माला है, और प्रोच्चा नाम की उत्तम दोपी है । यति सुन्दर और महान विस्तार वाली देवरम्य नाम की दृष्य कुटी अर्थात् वस्त्रागार कहा गया है || २६३ || भयावह ( बड़े- बड़े) सिहों पर प्रारूढ़ सिंहवाहिनी नाम की उत्तम शय्या है और अनुत्तर नाम का दिव्य और उन्नत श्रेष्ठ सिंहासन है ॥२६४॥ अनुपम नाम के श्रेष्ठ चमर और उत्तम रत्नों से रचित देदीप्यमान सूर्यप्रभ नाम के छत्र हैं || २६५|| विद्यत्प्रभ नाम के सुन्दर मणिकुण्डल और शत्रुओं के वारणों द्वारा छिन्न भिन्न न होने वाला प्रभेव नाम का कवच है || २६६॥ चक्रवर्ती की रत्नजड़ित विषमोचिका नाम की दो पादुकाएँ हैं जो अन्य जनों के पैरों के स्पर्श करने मात्र से उनके प्रतितीव्र विष का मोचन (हरण) कर लेतीं हैं ।। २६७॥ श्रजितञ्जय नाम का रथ और चक्रवर्ती को विजय प्राप्त कराने वाले प्रमोघ नाम के बाणों से युक्त वञ्चकाएड नाम का महान धनुष है || २६८ ।। श्रय चक्रवर्ती के हथियारों, मौ निधियों एवं चौदह रत्नों के नाम कहते हैं: वज्रतुण्डाभिधा शक्तिर्ववारिखण्डिनी । कुन्तः सिंहाटको रत्नदण्डः सिहनखाङ्कितः ॥ २६६ ॥ तस्यासिपुत्रिका दोप्ता महती लोहवाहिनी । कयोस्ति मनोवेगोऽसिश्च सौमम्बका रूयकः ॥ २७० ॥ पृथुभूतमुखं खेटं सार्थं भूतमखान्वितम् । सुदर्शन चक्रं षट्लण्णाक्रमणक्षमम् ॥२७१॥ चण्डवेनाभिषोदण्डो गुरद्विमेवकृत् । चर्मरत्नं जलामेदं महद्वजमधाभिधम् ॥२७२।। Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमोऽधिकारः [ २३३ मणिरत्नं तमोहन्तृ चूडामभिधानकम् । जितं काकिणीरत्नं चिन्तामणि समाह्वयम् ॥२७३॥ सेनापतिरयोध्यात्यो नररत्नं भवेत्प्रभोः । पुरोधाः पुरुधोर्दक्षो बुद्धिसागरनामकः ॥२७४॥ वास्तुविद्याप्रवीणः स्थपति भंद्रमुखोऽभुतः । श्रीमान् गहपतिः कामवृष्टिनामास्त्यभीष्टदः ।।२७५।। व्ययोपचयचिन्तायां नियुक्तश्चक्रवतिनः । यागहस्तीमहाकायोऽत्र्याभो विजयपर्वतः ॥२७६॥ पवनञ्जयसंशोऽश्वः सुभद्रास्त्री च्युतोपमा । इमानि दिव्यरत्नानि रक्षितानि सुरैविभोः ॥२७७।। राज्याङ्गभोगकर्तीणि पुण्यात्सन्ति चतुर्दश । तद्गृहेऽपररस्नानां संख्या को वेत्ति बुद्धिमान् ॥२७॥ प्रानन्दिन्योऽब्धिनि?षाभेर्यो द्वादशसम्मिताः । विषड्योजनपर्यन्तं ध्वनन्त्यापूर्यदिग्मुखम् ॥२७॥ प्रभोविजयघोषाख्याः पटहा द्वादशप्रमाः । चतुर्विशति शङ्खाः स्यर्गम्भीरावर्तसंज्ञकाः ॥२०॥ अर्थ:-चक्रवर्ती के पास शत्रुनों को नाश करने वाली वजमय बज तुण्डा नाम की शक्ति, सिंहाटक नाम का कुन्तल और सिंह नखों के सहा प्रकार से अंत्रित रत्नदण्ड होता है ॥२६॥ महा दौति से युक्त लोहवाहिनी नाम का खड्ग, मनोवेग नाम की करधौनी और सौनन्द नाम की तलवार होतो है ।।२७०]। भूतमुख से सहित अपने नाम को सार्थक करने वाली पृथुभूतमुख नाम की ढाल और षट्खण्डों पर आक्रमण करने में समर्थ ऐसा सुदर्शन नाम का चक होता है ॥२७१॥ दोनों गुफा द्वारों को भेदने में समर्थ चण्डवेग नाम का दण्ड और जल के द्वारा अभेद्य बजमय नाम का महान चर्मरत्न होता है ॥२७२।। अन्धकार को नाश करने वाला चूडामरिण नाम का मणिरत्न और महाप्रकाशवान् चिन्तामरिण नाम का काकिणी रत्न होता है ।।२७३।। चक्रवर्ती के अयोध्यसेन नाम का सेनापति नररत्न और विशाल बुद्धि का धारक तथा अतिदक्ष बुद्धिसागर नाम का पुरोहित होता है ॥२७४।। प्रावास विद्या अर्थात् निवास स्थानों का निर्माण करने में प्रवीण भद्रमुख नाम का अद्भुत स्थपति (सिलावट) Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ ] सिद्धान्तसार दीपक और मनोवाञ्छित पदार्थों को देने वाला कामबृष्टि नाम का गृहपति होता है । जिसे चक्रवर्ती अपने व्यय-उपचय ( हानि-वद्धि या देय प्रादेय या लघु-दीर्घ चिन्तनवत् ) को चिन्ता सौंप कर निश्चिन्त हो जाता है । पर्वत के सदश महाकाय विजयपत नाम का पट्ट हाथी, पदनञ्जय नामका घोड़ा, और उपमा से रहित सुभद्रा नाप की स्त्री होती है। चक्रवर्ती के इन दिध्य रत्नों की रक्षा देवों द्वारा होतो है ।।२७५-२७७।। महान पुण्योदय से चकनी के पास र ग्रङ्ग टागोजह न गाना प्रकार के भोगों के कर्ता हैं। उनके प्रासाद में अन्य और कितने रत्न हैं ? इसकी संख्या कोन बुद्धिमान जान सकता है ? अर्थात कोई नहीं 1॥ २७॥ समद्र के सदृश निर्घोष करने वाली ग्रानन्द नाम की बारह भेरियां हैं, जो अपनो ध्वनि से वारह योजन पर्यन्त समस्त दिशानों को व्या कर देती हैं । इसी प्रकार चक्रग के यहाँ विजयघोष नाम के बारह पर और गम्भीरावतं नाम के चौबोस दाख हैं ।।२७९-२८०।। अब अन्य अवशेष वस्तुओं के नाम कहते हुये उनके भोज्य प्रादि पदार्थों का विधेचन करते हैं :--- दीप्ता वीराङ्गदाभिख्या कटका मणिनिर्मिताः ।. पताका अष्टचत्वारिंशत्कोटयोऽति मनोहराः ।।२८१॥ महाकल्याणकाभिस्टो तुङ्ग दिव्यासनं महत् । अस्यान्यसारवस्तूनि गदितु को बुधः क्षमः ॥२२॥ भक्ष्यायेऽमृतगर्भाख्याः सगन्धस्वादुशालिनः । शक्ता जरयितु तस्य नान्ये तान सुरसोत्कटान् ।।२८३।। स्वाधं चामृतकल्पाख्यं हृद्यास्वादं सुसंस्कृतम् । रसायनरसं दिया पानकं ामृताह्वयम् ।।२८४।। अर्थ:-मरियों से निर्मित और विशाल कान्तिमान् वीराङ्गद नाम का कड़ा है। पड़तालीस करोड़ प्रति मनोज्ञ पताकाएँ होती हैं। महाकल्याण नाम का उन्नत, दिव्य और विशाल प्रासन होता है । चक्रवर्ती के पास और भी अनेक सार वस्तुएँ होती हैं जिनका कथन करने के लिये कौन बुद्धिमान समर्थ हो सकता है ? अर्थात् कोई नहीं ।।२८१-२८२।। चक्रवर्ती के भोजन के लिये उत्तम गन्ध और शुभ स्वाद युक्त अमृतगर्भ नाम के मोदक होते हैं। उत्तम रसों से उत्कट उन मोदकों को पचाने की शक्ति चक्रवर्ती में ही होती है अन्य किसी में नहीं ।।२८३॥ चक्रवर्ती के द्वारा सेव्यमान अमृतकल्प नाम का स्वाद्य पदार्थ हृदय को प्रिय और भली भांति संस्कृत होता है, तथा ममृत नाम के पेय पदार्थ भी दिव्य एवं रसायन रस के सरश होते हैं ॥२४॥ प्रब पकेश को सम्पदा पुण्य का फल है ऐसा दिखाते हुये प्राचार्य धर्म करने की प्रेरणा देते हैं :-- Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमोऽधिकार : [ २३५ पुण्यकल्पद्र मोभूता एताः सर्वाः सुसम्पदः । फलभूता महाभोगा जानन्तु चक्रवतिनः ॥२८५।। मत्वेति व्रतशोलाद्यैः शर्मकामाः सुबत्नतः । अर्जयन्तु सदा धर्म स्वर्मुक्तिश्रीवशीकरम् ॥२८६।। अर्थः- चक्रवर्ती के पूर्वोपार्जित पुण्य रूपी कल्पवृक्ष से उत्पन्न होने वाली ये सब उत्तम सम्पदाएँ और उसी वृक्ष के फल स्वरूप ये उत्कृष्ट भोग हैं ऐसा जानो, और सुख की इच्छा करने वाले मनुष्यों ! इसे धर्म का प्रसाद मानते हुये ही व्रत और शोल आदि के द्वारा समीचीन पुरुषार्थ द्वारा स्वर्ग और मोक्ष लक्ष्मी को वश करने वाले धर्म का निरन्तर अर्जन (संचय) करो ॥२८५-२८६।। प्रम अन्य चक्रवतियों के नगरों एवं देशों का विवेचन करते हैं : ययास्य चक्रिणः प्रोक्ता मूतयो दिग्जयादयः । तथा ज्ञेया धिबेहेऽस्मिन् सकले चक्रवर्तिनाम् ।।२८७॥ व्यावर्णनं कृतं यत् क्षेमापुर्या मयाऽखिलम् । विवेहेज्य पुरीणां च तदशेयं न चान्यथा । २८८।। कच्छाविषयषटखण्डानां प्रोक्तावर्णना यथा। तथा द्विधा विदेहे स्याह शखण्डाखिलात्मनाम् ॥२६॥ अर्थ:--जिस प्रकार इस चक्रवर्ती को विभूति एवं दिग्विजय प्रादि का वर्णन किया गया है उसी प्रकार इस विदेह क्षेत्र सम्बन्धी समस्त चक्रवतियों का जानना चाहिये । मेरे ( आचार्य ) द्वारा क्षेगापुरी नगरी का सम्पूर्ण वर्णन जिस प्रकार किया गया है, विदेह क्षेत्र में स्थित अन्य पुरों का समस्त वर्णन इसी प्रकार जानना चाहिये, अन्य प्रकार नहीं । कच्छा देश में जिस प्रकार छह खण्डों का वर्णन किया गया है, पूर्व-पश्चिम विदेह स्थित देशों के छह खण्डों का समस्त वर्णन इसी प्रकार है ।।२८७-२८६।। धर्म का फल कहते हैं :इति सुकृतविपाकाच्चक्रिलक्षम्यो महत्यो, निरुपमसुखसारा रत्ननिध्यादयश्च । त्रिजगतिसुपदाधाः स्युः सतां होति मत्वा, भजत चरणयोगः कोविदा ! धर्ममेकम् ॥२६॥ अर्थ:- इस प्रकार महान पुण्य विपाक से सज्जन पुरुषों को चक्रवर्ती की विशाल सम्पत्ति, निरुपम सुख, चौदह रत्न और नौ निधियाँ प्रादि तथा देवेन्द्र, धरणेन्द्र, खगेन्द्र आदि विविध प्रकार के उत्तम पद प्राप्त होते हैं, ऐसा मान कर-हे प्रवीण जनो ! अत, तप, संयम आदि शुभ योगों के द्वारा निरन्तर एक धर्म का हो सेवन करो ॥२६०।। Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ ] सिद्धान्तसार दीपक धर्म प्रशंसा :-- सद्धर्मः क्रियते मया प्रतिदिनं धर्म मजे यत्नतो, धर्मेणव ममास्तु शाश्वतसखं धर्माय कुर्वे तपः । धर्मान्नापरमाश्रये सुगतये धर्मस्य सेये गुरगान , धर्मे चित्तमहं बधे भवभयं मे धर्म ! दूरोकुरु ॥२६१॥ ' इति श्री सिद्धान्तसारदीपकमहानन्यभट्टारक श्रीसकलकोति विरचिते देवकुरूत्तरकुरु कच्छादेश चक्रिदिग्विजय विभूति वर्णनोनाम सप्तमोऽधिकारः॥७॥ मर्थ:- मेरे द्वारा प्रतिदिन समीचीन धर्म का सेवन किया जाता है, मैं यत्न पूर्वक धर्म को धारण करता हूँ। धर्म के द्वारा ही मुझे शाश्वत सुख की प्राप्ति हो, मैं धर्म के लिये तप करता हूँ। उत्तम गति के लिये धर्म से अपर अन्य कोई याश्य नहीं है । धर्म के गुणों को धारण करो। मैं अपने चित्त को धर्म में लगाता हूँ । हे धर्म ! मेरे भव भय को दूर करो ॥२६॥ इसप्रकार भट्टारक सकलकी तिविरचित सिद्धान्तसार दीपक नाम महाग्रन्थ में देवकुरु, उत्तरकुरु, कच्छादेश चक्रवर्ती की दिम् विजय एवं विभूति का वर्णन करने वाला सातवाँ अधिकार ।। समाप्त ।। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मङ्गलाचरण: अष्टमोऽधिकारः I देहातिगान् जिनाधीशान् बन्धान् सुरोंश्च पाठकानू त्रिजगत्पतिभिः साधून् विदेहस्यान् नमाम्यहम् ॥ १॥ अर्थ :- तीन लोक के अधिपतियों द्वारा वन्दनीय देह रहित सिद्धों को, विदेह क्षेत्रों में स्थित अरहन्तों को चाय को, उपाध्याय परमेष्ठियों को और साधुयों को मैं सकलकीर्ति ( श्राचार्य ) नमस्कार करता हूँ || १॥ अब चित्रकूट नाम के प्रथम वक्षार पर्वत का वर्णन करते हैं --- अथ कच्छामहादेशात्पूर्वे वक्षारपर्वतः । प्रथमचित्रकूटाहपश्चतुः कूटविराजितः ॥ २॥ भवेदश्यमुखाकारस्तप्तचामीकरच्छविः । तोर सर्व नवेद्यार्थी जिन देवालये लः ||३|| नद्यन्ते योजनानां च शतपञ्चभिरुन्नतः । कुलाचलसमीपे योजनंश्चतुः शतप्रमैः ||४|| स्वोच्चतुर्थांश भूमध्यः कच्छादेशसमायतः । शतपञ्चप्रमाणंच योजने विस्तृतोऽभुतम् ॥५॥ अर्थ:: - कच्छा महादेश के पूर्व में चार कूटों से सुशोभित चित्रकूट नाम का प्रथम वक्षार पर्वत है. जो ग्रव के मुखसरा ग्राकार वाला, तपाये हुये स्वर्ण के सदृश कान्तिवान् और तोरणों, वनों, वेदियों और जिनालयों से समन्वित है ।। २३ ।। इस पर्वत की ऊंचाई सोता नदी के समीप पाँच सौ योजन श्रौर नील कुलाचल के समीप चार सौ योजन प्रमाण है। भूमध्य ( नींव ) में इसकी ऊँचाई का चतुर्थ भाग प्रमाण पृथिवी के भीतर है । पर्वत की लम्बाई कच्छा देश की लम्बाई के प्रमाण अर्थात् १६५६२ योजन और विस्तार पाँच सौ योजन प्रमाण है ॥४-५॥1 Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ ] सिद्धान्तसार दीपक अब वक्षारपर्वतस्थ कूटों के नाम, स्थान एवं स्वामी प्रादि कहते हैं : सिद्धकूटं च कन्छाख्यं सुकच्छासंज्ञकं ततः । चित्रकूटाह्वयं कूटं चतुःकूटान्यमूनि वै ॥६॥ वक्षारोच्चचतुर्थाशतुङ्गानि स्युः शुमान्यपि । अहंस्सुरालयायानि सोतासमीपतः क्रमात् ।।७।। वियोपकरणः पूर्णः सिद्धकूटे जिनालयः । टोलाइ यन्तति मे ते दिवमन्याः सन्ति धामसु ।।८।। मध्यकूटद्वयस्थोचचरत्नवेश्मसु पुण्यतः । वसतः स्वस्वकटोत्थ नामानौ व्यन्तरामरौ ।।६।। अर्थ :--चित्रकूट नामक प्रथम वक्षार पर्वत पर सिद्ध कूट, कच्छाकूट, सुकच्छाकूट और चित्रकूट नाम के चार कूट हैं ॥६॥ इन शुभ क्रूटों की ऊँचाई क्षार पर्वत की ऊंचाई के चतुर्थ भाग प्रमाण है । अर्थात् सीता महानदी के समीप स्थित सिद्ध कूट की ऊँचाई ( "१° = ) १२५ योजन और नील पर्वत के समीप चित्रकूट को ऊँचाई (°)=१०० योजन प्रमाण है, शेष दो कूटों की क्रमशः हानिवृद्धि को लिये हुये है । सीता के समीप से क्रमशः अर्हन्त भगवान और देवों से युक्त काट हैं । सिद्धकूट के ऊपर दिव्य उपकरणों से परिपूर्ण जिन चैत्यालय है, और नील पर्वत के समीप अन्तिम चित्रकूट पर अनेक प्रासाद हैं, जिनमें दिक्कुमारियां निवास करती हैं ॥७-८॥ मध्य में स्थित शेष दो कूटों में रत्ल के प्रासाद हैं जिनमें पुण्योदय से अपने अपने कुटों के सदृश हो नाम वाले व्यन्तर देव निवास करते हैं ॥६॥ प्रब कूटों का उत्सेथ पृथक्-पृथक् कहते हैं :-- कुल गिरि निकटस्थे प्रथमे कूटे उत्सेधः शतयोजनानि । द्वितीये च तृतीय भागाधिकाष्टोत्तरशतयोजनानि । तृतीये षोडशाग्रगतयोजनानि योजनविभागानां द्वौ भागौ । चतुर्थे कूटे उन्नति. पञ्चविशत्यधिक शतयोजनानि । अर्थ:- नील कुलाबल के समीप स्थित प्रथम कूट की ऊंचाई १०० योजन, द्वितीय कूट को १०५१ पोजन, तृतीय लूट की ११६३ योजन और चतुर्थ कूट की ऊँचाई १२५ योजन प्रमाण है ।। अब शेष वक्षार पर्वतों, सुफच्छा देश और क्षेमपुरी का कथन करते हैं :-- इत्थं सवरांना शेया विदेहे सफलेखिला । षोडशप्रमवक्षाराणां सर्वेषां समानका ॥१०॥ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमोऽधिकारः ततः प्राश्वर्णनोपेतः सुकच्छाविषयो भवेत् । द्विनदी विजयादुर्वैश्च षट्खण्डीकृत ऊर्जितः ॥ ११॥ तस्यार्यखण्डमध्येऽस्ति रम्या क्षेमपुरी पुरी । प्रागुक्तनगरीतुल्या व्यासाद्यैर्धर्ममातृका ।।१२।। अर्थः--- :--- इस प्रकार विदेह क्षेत्र स्थित सोलह वक्षार पर्वतों का समस्त वर्णन भी इस चित्रकूट क्षार पर्वत के सदृश ही जानना चाहिये ।। १० ।। पूर्व कथित कच्छादेश के वर्णन के समान ही सुकच्छा देश का वर्णन है । इस देश के भी रक्ता रक्तोदा और विजयार्ध पर्वत से वह खण्ड हुये हैं ||११|| इन वह खण्डों में से प्रायं खण्ड के मध्य में व्यास आदि से क्षेमापुरी नगरी के समान प्रतिरम्य और धर्म की माता के सदृश क्षेमपुरी नाम की नगरी है || १२ | aa fवभङ्गा नदी का निर्गम स्थान, परिवार नदियाँ और लम्बाई प्रादि कहते ततो नीलाद्रिपार्श्वस्थ कुण्डस्य शाश्वतस्य च । निर्गत्य दक्षिणद्वारेण विभङ्गा नदी शुभा ॥ १३ ॥ अष्टाविंशसहस्राणां परिवारसरिद्युता । कुण्डहीनायता प्रातीसंज्ञोमिसंकुला ||१४|| [ २३६ अर्थः- इसके बाद नीलकुलाचल के पार्श्व भाग में एक शाश्वत कुण्ड स्थित है उस कुण्ड के दक्षिण द्वार से निकलकर ग्राहवती नाम वाली, प्रत्यन्त रमणीक विभङ्गा नदी अट्ठाईस हजार परिवार नदियोंसे युक्त होती हुई, कुण्ड व्याससे हीन प्रायतवाली अनेक उर्मियों से व्याप्त होकर बहती है ।। १३-१४।। विभङ्गा के अवशेष वर्णन का कथन करते हैं :-- रोहित्सरित्समव्यासा हेमसोपानशालिनी । तोरी नदीभिरलंकृता मनोहरा ||१५|| योजनः पञ्चविंशत्यग्रशतक प्रमाणकैः । विस्तीर्णान्ते हि सीतायाः प्रविष्टाभ्यन्तरे परा ।।१६।। तस्याः प्रवेशद्वारस्य पूर्वापरदीर्घता । पञ्चविशति संयुक्तशर्तक योजनानि च ।। १७ ।। तोरणस्योच्छ्रुतिः सार्धसप्ताशीत्यधिकं शतम् । योजनानां तथास्मिन्स्युजिनेन्द्र प्रतिमादयः ||१८ ॥ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० ] सिद्धान्तसार दोपक इत्येषा वर्णना सर्वा विभङ्गासरितां समा । सोताप्रवेश सद्धाराणां विशेया न चान्यथा ॥१९॥ अर्थ:-ग्राहवतो विभङ्गा नदी का व्यास रोहित् महानदी के सदृश है । स्वर्ण सोपानों से सुशो. भित, तोरणों, बनों एवं वेदियों से अलंकृत यह मनोज्ञ नदो अन्त में एक सौ पच्चीस (१२५) योजन विस् तीर्ण होती हुई सीता महानदी के मध्य प्रवेश कर जाती है ।।१५-१६। इस नदी को सीता प्रवेश द्वार की पूर्व-पश्चिम दीर्घता एक सौ पच्चीस योजन है, तथा जिस पर जिनेन्द्र प्रादि प्रतिमाएँ अवस्थित हैं ऐसे तोरण की ऊँचाई एक सौ साले सतासी (१८७३) योजन प्रमाण है ॥१५-१८।। इस प्रकार का यह सब वर्णन सर्व विगङ्गः नदियों का मोर सीजा गोश द्वारों का सदृश हो जानना चाहिये । अन्यथा नहीं ।।१९।। अब महाकच्छ देश की अवस्थिति और उसके मध्य स्थित अरिष्टानगरी का संक्षिप्त कथन करते हैं: नद्याः पूर्व महाकच्छाविषयः प्राक्तनोपमः । धर्मशर्माकरीभूतः स्यात् षट्खण्डघरातिः ॥२०॥ तस्य मध्ये परारिष्टानगरी विद्यते शुभा । जिन जैनालयस्तुङ्ग भूषिता धर्मकर्मभिः ॥२१॥ अर्थ:-- ग्राह्वती नदी की पूर्व दिशा में पूर्वोक्त (कच्छा देश सद्दश) उपमानों से युक्त महाकच्छ नाम का देश है । जो धर्म और सुख की खान, तथा छह खण्ड पृथिवियों से समन्वित है ।।२०।। उस देश के मध्य में एक अत्यन्त शुभ और श्रेष्ठ अरिष्टा नाम की नगरी है, जो जैन धर्मावलम्बियों के प्रासादों, उन्नत जिन चैत्यालयों एवं धर्म-कर्म से विभूषित है ।।२१।। प्रम पद्मकूट वक्षार पर्वत की अवस्थिति आदि कहते हैं :-- ततोस्ति पद्मकूटाख्यो वक्षारपर्वतो महान् । सिद्धकूटं महाकच्छाह्वयं कूटं ततः परम् ॥२२॥ कूटं च कच्छकावत्याल्यं पनकूटसंज्ञकम् । एतेश्चतुर्महाकूटः शिखरेऽलंकृतोऽस्ति सः ॥२३॥ अर्थ:--महा कच्छ देश के भागे पद्मफूट नाम का एक महान वक्षार पर्वत है । सिद्धक्ट, महाकच्छ कूट, कच्छकावतो कूट और पद्यकूट' इन चार महा कुटों के द्वारा उसका शिखर अलंकृत है २२-२३॥ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमोऽधिकारः [ २४१ अब कमछकावती देश, ब्रहवती विभङ्गा, पावत देश और नलिनकट वक्षार की प्रदस्थिति कहते हैं :-- ततोऽस्ति विषयः कच्छकायती संज्ञकोऽभुतः। मध्येऽरिष्टपुरी तस्य भवेद् धर्मसुखाकरा ॥२४॥ ततो द्रवतीसंज्ञा विमङ्गा निम्नगा भवेत् । पूर्वोक्तवर्णनायुक्ता कुण्डात्सीतान्तरागता ॥२५॥ तस्याः पूर्व महान्देश प्रावर्ताख्योऽस्ति शाश्वतः । तन्मध्ये नगरी रम्या खड्गाख्या च शुभाकरा ॥२६॥ ततो नलिनकटाख्यो वक्षाराद्विमहान् भवेत् ।। चतुःकटाङ्कितो हेममयो जिनालयादिमृत् ।।२७।। सिद्ध चावर्तसं च लागलावर्तनामकम् । नलिनाख्यं चतुःकूटरमीभिर्मूविधनसोऽन्वितः ॥२८॥ अर्थः....पा. फाट वकार गति को लागे नायकापती नाम का अनुपम देश है । उसके मध्य में धर्म और सुख की खान स्वरूप अरिष्ट नाम की नगरी है ।।२४।। कच्छकावती देश के प्रागे पूर्वोक्त (ग्राहवती नदी के वर्णन युक्त द्रवती नदी है जो कुण्ड से निकलकर सीता नदी पर्यन्त लम्बी है ।।२५॥ इस द्रवती विभङ्गा के पूर्व में एक आवर्ता नाम का महान और शाश्वत देश है, जिसके मध्य में अत्यन्त रम्य और कल्याणों की खान सदृश खड्मा नाम की नगरी है ।।२६।। उसके प्रागे (पूर्व में) नलिनकूट नाम का एक महान वक्षार पर्वत है, जो चाराटों से अञ्चित और स्वर्णमय जिन चैत्यालयों आदि से परिपूर्ण है ।।२७। उस वक्षार पर्वत का शिखर सिद्ध, पावर्ता, लाङ्गलावर्त और नलिन इन चार कूटों से समन्वित है ॥२८॥ अब इसके आगे-मागे के देश, विभङ्गा नदी और यक्षार पर्वतों का संक्षिप्त कथन करते हैं :-- ततोऽस्ति विषयो लांगलाबाह्वय कजितः। षट्खण्डमण्डितो युक्तो नदीकाननपर्वतः ॥२६॥ तन्मध्ये मगरीरम्या मञ्जूषाख्या विराजते । मजूषेव नृरत्नानां जिनकेवलिमिणाम् ॥३०॥ पुनः पवतीनाम्नी विभंगा प्रवरा नदी । दशक्रोशावगाहास्याद्रोहित्समानविस्तृता ॥३१॥ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ । सिद्धान्तसार दोपक नद्याः पूर्वे शुभोदेशः पुष्कलाख्योऽविनश्वरः । ग्रामखेटादिभिः पूर्णो जिनर्जेनैश्च धामिकः ॥३२।। औषधी नगरी रम्या तस्य मध्ये विभात्यलम् । औषधीय सतां जन्मजरामृत्यु रुजापहा ॥३३॥ ततः स्यादेक शैलाख्यो वक्षाराद्रिर्मनोहरः । चतु:कूटयु तो मूनि जिनामरालयान्वितैः ॥३४॥ सिद्ध च पुष्कलाख्यं पुष्कलायती समाह्वयम् । एकशैलाह्वयं ह्यतेश्चतुः कूटैः सभात्पलम् ॥३५॥ ततः पूर्वं भवेत् पुष्कलावती विषयो महान् । नद्यद्विग्रामसीमाभूतो धार्मिक योगिभिः ॥३६॥ तन्मध्ये नगरी नित्या राजते पुण्डरीकिणी । तुमचैत्यालयभव्य पुण्डरीकैः सुकर्मभिः ॥३७॥ ततो रत्नमयी दिव्या शाश्वती वनवेविका । पूर्वोक्तवर्णनोपेतोत्सेधच्यासादि तोरणः ॥३८॥ अर्थः-नलिन क्षार के आगे लाङ्गलावर्त नाम का श्रेष्ठ देश है, जो छह खण्डों से मण्डित तथा नदी, वन और पर्वत आदि से युक्त है । इस देश के मध्य में प्रति मनोज्ञ मंजुषा नाम की नगरी सुशोभित है, जो जिनेन्द्रदेव, केवली और धार्मिक मनुष्य रूपी रत्नों को मञ्जूषा ( पेटो ) के सदृश सार्थक नाम वाली है ।।२९-३०।। इसके मागे पकवती नाम की श्रेष्ठ विभङ्गा नदी है, जो दश कोस गहरी और रोहित नदी के सदृश विस्तृत है ।।३१॥ इस विभङ्गा नदी के पूर्व में पुष्कल नाम का विनाश रहित और श्रेष्ठ देश है, जो ग्राम सेट आदि से तथा अन्तिों, जैनों और धर्मात्माजनों से परिपूर्ण है ।। ३२।। जिसके मध्य में औषधी नाम की मनोज नगरी शोभायमान है । जो सज्जन पुरुषों के जन्म, बुढ़ापा, मृत्यु और रोग प्रादि दोषों को दूर करने के लिये औपधि के सदृश है ।।३३।। इसके बाद एक शैत नामका मन कोहरण करने वाला वक्षार पर्वत है, जो शिखर पर जिन चैत्यालय और अन्य देवों के प्रासादों से समन्वित चार कूटों से युक्त है ।।३४३ सिद्धकूट, पुष्कलकूट, पुष्कलावतीकूट और एक शैल इन चार कूटों से वह पर्वत शोभायमान है ॥३५॥ इस वक्षार पर्वत के पूर्व में पुष्कलावती नाम का महान देश है, जो नदी, पहाड़ ग्राम को सीमा प्रादि से तथा मुनिराजों एवं धार्मिक पुरुषों से परिपूर्ण है । इसके मध्य में पुण्डरीकिणी नाम की शाश्वत नगरी सुशोभित होती है, जो उन्नस चैत्यालयों, भष्यों, तीर्थङ्करों, गणघरादि योगियों एवं उत्तम क्रिया करने वाले सज्जन पुरुषोंगे व्याप्त है ॥३६-३७।। इसके बाद शाश्वत, दिव्य और रत्नमय वनवेदिका है, जो पूर्व कथित उत्सेब, एवं व्यासादि वाले तोरणों से युक्त है ॥३८॥ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमोऽधिकारः [ २४३ इसके आगे देवारण्य वन का वर्णन करते हैं :-- तस्याः पूर्वे समुद्रस्यापरेमागे मनोहरम् । नाना T मोघ संकीणं देवारण्याह्वयं वनस् ॥३६।। द्वे सहस्र शतान्येव नवद्वाविंशतिस्तथा । योजनानामिति व्यासः पूर्वापरेण कथ्यते ॥४०॥ बनस्यास्याखिलायामो देशाधायामसन्निमः । देवारण्यवने तस्मिन् प्रासादाः सन्त्पनेकशः ॥४१॥ अर्थ:--लस रत्नमय बन वेदी के पूर्व में और लवण समुद्र के पश्चिम में अनेक प्रकार के वृक्ष समूहों से व्याप्त देवारण्य नाम का मनोहर धन है ।।३६।। जिसका पूर्व पश्चिम व्यास दो हजार नौ सौ बाईस ( २६२२ ) योजन प्रमाण है, और पायाम दश के अायाम सदृश अर्थात् १६५६२२ योजन प्रमाण है। इस देवारण्य बन में अनेक प्रकार के प्रासाद हैं ।।४०-४१॥ अब देवारण्यस्थ प्रासादों का वर्णन करते हैं : नानारत्नमयास्तुङ्गा वनवेद्याद्यलंकृताः । जिनालयाङ्किता दिव्या मणितोरणभूषिताः ।।४२॥ प्रचुराः पुष्करण्यश्च क्रोडाशालाः सभागृहाः । उपपादालयास्तुङ्गा बाह्यान्तमरिणचित्रिताः ॥४३॥ चतुर्विदिक्षुगेहाः स्युरात्मरक्षसुधाभुजाम् । परिषत् त्रयदेवानां प्रासादा दक्षिणादिशि ॥४४॥ सप्तानीकामराणां च दिग्भागे पश्चिमे गृहाः । किल्बिषाह्वयदेवानामभियोगामृताशिनास ॥४५॥ सम्मोहनिर्जराणां च कन्धाख्यसुरात्मनाम् । प्रत्येकं स्युः पृथग्भूताः प्रासादाः शाश्वताः शुभाः ॥४६॥ अर्थाः देवारण्य वन में स्थित प्रासाद नाना रत्नमय, उन्नत, वन वेदी आदि से अलंकृत और जिनालयों से विभूषित हैं । वहाँ बहुत से तालाब, क्रीडा शालाएँ, सभागृह और बाह्य एवं अभ्यन्तर में मणियों से रचित तथा उन्नत उपपाद भवन हैं।।४२-४३।। चारों विदिशाओं में आत्मरक्षक देवों के भवन हैं । दक्षिण दिशा में तीनों परिषद् देवों के प्रासाद हैं, और पश्चिम दिशा में सात प्रकार के अनीक Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ ] सिद्धान्तसार दीपक देवों के गृह हैं । किल्विष देवों, आभियोग, सम्मोह और कन्दर्प जाति के देवों में से प्रत्येक के पृथक् । पृथक् शाश्वत और शोभायुक्त प्रासाद हैं ॥४४-४६।। प्रब अन्य देवारण्य का विस्तार करते हैं : ततः सीतामहानद्या-भागेऽस्ति दक्षिणे परम् । देवारण्यं च पूर्वोक्त म्यासाचस्तत्समं महत् ।।४७।। बनेऽस्मिन् सन्ति देवानां बहूनि नगराणि च । प्राकारगोपुराश्च तुङ्गधामजिनालयः ।।४।। अलंकृतानि वापीभिनंगरेषु सुरोत्तमाः । भूपाश्चतुर्महादेवीयुक्ता वसन्ति पुण्यतः ॥४६॥ परिषत् त्रितयैः सप्तसप्तानीकैः पृथग्विधः । सामान्यकात्मरक्षाचैर्वेष्टिताजिनभाक्तिकाः ।।५।। अर्थः–सीता महानदी के दक्षिण भाग में एक दूसरा देवारण्य नाम का दन है जिसके व्यास प्रादि का प्रमाण पूर्वोक्त देवारण्य के सदृश हो है ॥४७।। इस वन में भी देवों के बहुत से नगर हैं। प्राकार, गोपुर प्रादि, उत्तप्रासाद, जिनालय श्रीर वापी ग्रादि से प्रलंकृत इन नगरों में पूर्व पुण्य प्रताप से इन्द्र उत्तम देवों एवं चार महादेवियों से युक्त निवास करते हैं ।।४८-४६॥ तथा तीन प्रकार के पारिषद देवों. पृथक पृथक् सात सात अनोकों, सामानिक देवों और प्रात्मरक्षक आदि देवों से वेष्टित होकर जिनेन्द्र भगवान की भक्ति करते हैं ।। ५०।। प्रब देवारण्य के बाद अन्य वेदो, देश, वक्षार एवं विभङ्गा प्रादि को अवस्थिति का वर्णन करते हैं : ततः पश्चिमदिग्भागे दिन्यास्ति बनवेदिका । कोशानावगाहा च प्रागुक्तोत्सेधविस्तृता ॥५१॥ वेद्याश्च पश्चिमाशायां वत्साख्यो विषयो महान् । गंगासिन्धुनवीरूप्यातिभिः षट्खण्डसंयुतः ॥५२।। तदार्यखण्डमध्ये स्यात् सुसीमानगरी परा। धर्मसीमाकरीभूता यतिश्रावकधामिकः ।।५३॥ सप्तो भवेत् त्रिकुटाल्पो वक्षारशैल अजितः । चतुःकूटयु तोधिन घेत्यदेशलयाङ्कितः ।।५४।। Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमtsfaer: सिद्धकूटं च वत्साख्यं सुवत्साकूटसंज्ञकम् । त्रिकूटाह्वयमेतानि कूटानि शिखरेऽस्य वं ॥ ५५ ॥ तदनन्तरमेवास्ति सुस्ता विषयः शुभः । मुनिषेवलिसंघाद्य भूषितोऽद्विसद्विः ॥ ५६ ॥ तन्मध्ये विद्यते दिव्या कुण्डला नगरी युता । रत्नशालप्रतोत्याय इचैत्यालयश्च धर्मिभिः ॥ ५७॥ ततस्तप्तजलाभिख्या विभंगा निम्नगा भवेत् । कुण्डोत्थादेश सीमान्ता बनवेद्यादिवेष्टिता ॥ ५८ ॥ पुनर्महान्महावत्सा विषयोऽस्ति शुभाकरः । ग्रामपलन पेटा जिनेन्द्रभवनांकितं ॥ ५६ ॥ तन्मध्ये नाभिवद्भाति नगरी खापराजिता । जितेन्द्रियेजिनागाजिनकल्याणकोत्सवः ॥ ६०॥ ततो वैश्रवणोनाम्ना वक्षारोहेमसन्निभः । सिद्धकूटं महावत्सानामकूटं द्वितीयकम् ||६१|| कूटं च वत्सकावत्याख्यं वैश्ववरणसंज्ञकम् । एतंश्चैत्यसुरागायुतः कूटः स मण्डितः ॥ ६२ ॥ [ २४५ अर्थः- देवारण्य के आगे पश्चिम दिशा में अर्ध कोश अवगाह (नीव) और पूर्वोक्त उत्सेध एवं विस्तारसे युक्त एक दिव्य वन बेदी है ।। ५१|| वेदी की पश्चिम दिशा में महान वत्सा नामक देश है, जिसके गङ्गा सिन्धु नदो और विजयाधं पर्वत के द्वारा छह खण्ड हुवे हैं, उनमें से प्रार्य खण्ड के मध्य में सुसोमा नाम की एक श्र ेष्ठ नगरी है, जो धर्म की सीमा को करने वाली अर्थात् धर्म को सीमा यहीं तक हो है मानो ऐसे सार्थक नाम को धारण करने वाली और मुनिगणों एवं धार्मिक श्रावक गरणों के द्वारा सुशोभित है ।। ५२-५३ ।। वत्सा देश के आगे पश्चिम में त्रिकूट नामक श्रेष्ट वक्षार पर्वत है, जिसके शिखर पर जिनचैत्यालय और देवालयों से अङ्कित चार कूट हैं ||२४|| सिद्ध कूट, वत्सा कूट, सुवत्सा कूट और त्रिकूट ये चार कूट उस वक्षार पर्वत के शिखर पर है ।। ५५|| इसके बाद ही मन को अभिराम सुवत्मा नाम का देश है, जो मुनिगणों, केवलियों और चतुविध संघों से विभूषित तथा पर्वतों सरिताओं और वनों आदि से संयुक्त है ! उस देश के मध्य में रत्नों के शाल (परकोटा) प्रतोली आदि से एवं चैत्यालयों से युक्त तथा धार्मिक जनों से व्याप्त कुण्डला नाम की दिव्य नगरी है ।। ५६-५७।। सुवरसा देश के पश्चिम में सप्तजला नाम की विभङ्गा नदी है, जो कुण्ड से निकलो है, देश के बराबर लम्बी है और Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ ] सिद्धान्तसार दीपक वन वेदी आदि से वेष्टित है ।।५८॥ इस विभङ्गा के पश्चिम में कल्याण की खान सदश महान् महावत्सा नाम का देश है, जो ग्राम पत्तन और खेटों आदि से युक्त और जिनेन्द्र भवनों से सम्पन्न है। उसके मध्य में नाभि सदृश अपराजिता नाम की नगरी है, जो जितेन्द्रियों, जिन साधनों और जिन कल्याणक महोत्सवों से विभूषित रहती है ॥५६-६०|| महावत्सा देश के पश्चिम में कच्चन सदृश वैश्रवण नाम का वक्षार पर्वत है, जिसका शिखर सिद्धकूट, महावत्सा वूट, वत्सकावती क्ट और वैश्रवण कूट जो कि जिन चैत्यालयों और व्यन्तर देवों के प्रासादों से मण्डित है ।।६१-६२॥ पूर्व विदेह क्षेत्र के अवशेष देशों, पर्वतों एवं विभंगा नदियों को अवस्थिति कहते हैं : ततः परं भवेद्वत्सकावतीविषयोऽद्भुतः। षट्खण्डादिनदीयुक्तः स्वक्तिसुखसाधनः ॥६३।। तन्मध्ये महतो निस्था प्रभंकरा पुरी भवेत् । जिनेन्द्रजनसंघाश्चत्यागारभृतापरः ॥६४।। ततो मत्तजलासंज्ञा विभङ्गा सरिवृत्तमा । सोतामध्ये प्रविष्टा च कुण्डद्वारेण निर्गता ॥६५।। तस्या अपरभागेऽस्ति रम्याल्यो विषयः शुभः । रम्यो रम्यैजिनागारधर्मकर्ममहोत्सवः ।।६६॥ अंकाख्या नगरी रम्या तवार्य खण्डमध्यगा । भातिधर्मखनीयोच्चधमिधर्मप्रवर्तनः ॥६७॥ ततोऽञ्जनगिरिर्नाम्ना वक्षारस्तुङ्गविग्रहः । हेमवर्णश्चतुः फूट चैत्यवेघालयान्वितः ॥६॥ सिद्धकूटं च रम्याख्यं कूट सुरम्यनामकम् । अञ्जनाह्वयमेतैः सकूटरग्रेऽप्यलंकृतः ।।६६॥ ततः सुरम्य देशोऽस्ति रमणीयः शुभावहः । चैत्यागारसुसङ्काढ मिखेटपुरादिभिः ।।७०॥ पुरी पद्मावतीनाम्नी सदार्यखण्ड भूस्थिता । श्रीमदिर्धाभिकर्भग्याति पद्मव शाश्वता ॥७१॥ ततो नदोविभङ्गास्ति परोन्मत्तजलाभिषा । जिनेन्द्रप्रतिमायुक्त बैदिका तोरणयंता ॥७२॥ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमोऽधिकारः [ २४७ तस्या अपरभागेस्याद् रमणीयाभिधो महान् । मिधामजिनागारैः सार्थोदेशोऽतिसुन्दरः ॥७३।। तन्मध्ये राजते रम्या शुभारमा नगरी शुभा। शुभष्मानशुभाचारैः शुभैः शुभखनीय च ॥७४।। अर्थ:-वैश्रवण वक्षार पर्वत के प्रागे वत्सकावती नाम का अद्भुत देश है । जो छह खण्डों, पर्वतों और नदियों से युक्त तथा स्वर्ग और मोक्ष सुख का साधन है। उस देश के मध्य में प्रभङ्करा नाम की शाश्वत और महान नगरी है. जो अर्हन्त परमेष्ठियों, जिन संघों और जिनमन्दिरों से निरन्तर भरी रहती है ॥६३-६४।। इस.वत्सकावती देश के बाद मत्तजला नाम की उत्तम विभङ्गा नदी है, जो कुण्ड के द्वार से निकल कर सीता महानदी के मध्य में प्रविष्ट हुई है ।। ६५।। इस नदी के पश्चिम भाग में रम्या नाम का श्रेष्ठ देश है, जो मनोज जिन चैत्यालयों एवं धार्मिक और लौकिक महोत्सवों से निरंतर रम्य-शोभित रहती है, इस देश के मध्य में सुन्दर आर्य खण्ड है, जिसके मध्य में अड़ा नाम को नगरी है, जो धर्म की खान के सदृश है और धर्म प्रवर्तन करने वाले उत्कृष्ट धर्मात्मानों से सुशोभित है ॥६६-६७।। रम्या देश के पश्चिम भाग में प्रजन गिरि नाम का उत्तुङ्ग वक्षार पर्वत है, जो हेमवर्ण का है, और चार वटों, चैत्यालयों तथा अन्य देवगणों के प्रासादों से समन्वित है । इस पर्वत का शिखर सिद्धकूट, रम्यकूट, सुरम्यकूट और अञ्जन इन चार क्रूटों से अलंकृत है ।।६८-६९॥ इस अंजनपिरि वज्ञार के पश्चिम में मन को अभिराम और पुण्य प्रदेश का कारण भूत सुरभ्य नाम का देश है, जो जिन चैत्यालयों, जिनसंघों, ग्रामों, खेदों और अनेक नगरों से युक्त है। इसके मध्य में आर्य खण्ड है, जिसके मध्य में शाश्वत पद्मावतो नाम की नगरी है, जो धनवानों और धार्मिक भव्य जनों के द्वारा पद्म के समान शोभायमान होती है ।।७०-७१॥ इस सुरम्य देश के पश्चिम में उन्मत्तजला नाम की श्रेष्ठ विभङ्गा नदी है, जो जिनेन्द्र प्रतिमानों, वेदिकानों एवं तोरणों से संयुक्त है ।।७।। इस नदो के पश्चिम में धर्म स्थानों एवं जिन चंत्यालयों से रम्य सार्थक नाम वाला रमणीय नाम का सुन्दर देश है, जिसके मध्य में शुभा नाम को शुभ शोभा युक्त नगरी है, जो शुभ-कल्याण की खान के सदृश, शुभ-उत्तम ध्यान और शुभ पाचरणों से सुशोभित है ।।७३-७४।। अब सुदर्शनमेरु पर्यन्त देशों, वक्षारों एवं नदियों का प्रवस्थान कहते हैं :--- तत प्रादर्शनाभिल्यो वक्षारोऽतीवसुन्दरः । सिद्धायतनकूटं च रमलोयसमाह्वयम् ।।७५॥ कूटं हि मङ्गलावस्यास्यमापनसंज्ञकम् । चैत्यदेवालयाग्रस्थैरेत: फूटैः स संपुतः ॥७६।। Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ ] सिद्धान्तसार दीपक ततोऽस्तिविषयो मंगलावतीसंगकोऽद्भुतः । धर्मकर्मोत्थ माङ्गल्यैजिनाथैमङ्गलोसमैः ॥७७॥ तन्मध्येनगरी भाति महती रस्नसञ्चया । दृग्ज्ञानवतरत्नाढय न स्त्रीरत्नस्तथापरैः ॥७॥ ततोपरदिशाभागे नित्या प्राग्वेदिकासमा । स्यात्पूर्वभदशालाख्य वनस्य रत्नवेदिका ॥७॥ सतो नैऋत्य दिग्भागे मेरोइचदक्षिणे तटे । सीतोदाया महानद्या विदेहेऽपरसंजके 1001 अर्थ:-रमणीय महादेश के पश्चिम में प्रादर्शन नामका अतीव सुन्दर वक्षार पर्वत है, जिसका शिखर जिन चैत्यालय एवं अन्य व्यन्तर देवों के प्रासादों से संयुक्त सिद्धायतन, रमणीय, मङ्गलावती और प्रादर्शन नामक कूटों से अलंकृत है ॥७५-७६ ।। इस प्रादर्शन वक्षार के पश्चिम में धर्म और अन्य क्रियानों से उत्पन्न होने वाले मङ्गलों से तथा जिनेन्द्र भगवान रूप उत्तम मङ्गलों से संयुक्त मंगलावती नाम का अद्भुत देश है। उसके मध्य में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप रत्नों से, स्त्री पुरुष रूप रत्नों से (वहाँ के स्त्री पुरुष रत्नों के समान हैं) और अन्य रत्नों से युक्त रत्नसञ्चया नाम की विशाल नगरी सुशोभित है ।।७७-७८॥ इस देश के पश्चिम भाग में पूर्व कथित भद्रशाल की बेदिका के समान पूर्णभद्रशालवन की शाश्वत, रत्नमय वेदिका है |७६॥ इस पूर्णभद्रशाल वन वेदी के प्रागे मेरु पर्वत की नैऋत्य दिशा में और सीतोदा महानदी के दक्षिण तट पर पश्चिम विदेह क्षेत्र की अवस्थिति है 11८०॥ अब पश्चिम दिवेहगत वेशों, वक्षारों एवं नदियों का प्रवस्थान कहते हैं :-- निषधस्योत्तरे भागे शाश्वता मणिदेविका । भवेत् पश्चिमसंजस्य भद्रशालबनस्य च ॥१॥ धेद्याः पश्चिमदिग्भागे पद्माख्यो विषयः शुभः । स्याद् गंगासिन्धु रूपाद्रिभिः षड्खण्डोकृतोऽखिलः ।।२।। तन्मध्येऽशवपुरी नाम्नी नगरी पुण्यमातृका । पुण्यवर्बुिधैः पूर्णा जिनधामादिशोभिता ॥३॥ ततोऽस्ति शन्दवान्नाम्ना वक्षारो हाटकप्रमः। चतुःकूटाङ्कितो मूनि बनवेद्यायलंकृतः ।।४।। Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमोऽधिकार: [ २४६ सिद्धकूटं च पाख्यं सुपमाकूटनामकम् । शब्दवत् कूटमेतानि स्युः कूटान्यस्य मस्तके ॥५॥ ततो भवेत् सुपमाख्य देशः पनालयोपमः । साध्यते यत्र धर्माद्यः पनालोकत्रये स्थिता ।।६।। तत्र सिंहपुरीसंज्ञा नगरी राजते तराम् । कर्मेभहननोवयुक्त नरसिंहैः सुधार्मिकैः ॥७॥ ततो नवी विभंगास्ति क्षारोदाख्या मनोहरा। कुण्डालित्य सौतोदा मध्यायाता क्षयातिगा ।।८।। पुनर्देशो महापद्माह्वयः षडजितः । नद्यद्रिवनसनामपुरा मिभिःशुभैः ।।८६।। तन्मध्ये नगरी रम्या महापुरी समाह्वया । साधयन्ति महान्तोऽस्याः स्वर्ग मोक्षं तपोवृषात् ॥१०॥ ततो विकटवान्नाम्ना वक्षारोऽस्ति सराश्रितः । सिद्धायतनकूटं च महापद्माल्यकं ततः ॥६१॥ कूटं हि पदमकावत्याद्वयं धिकटवत् परम् । नाम्नेमानि चतु-कूटानि सन्ति शिखरेऽस्य च ॥२॥ ततोऽस्ति विषयः पद्मावतीसंझको महान् । यत्र केलिनः पुंसां विहन्ति शिवाप्तये ॥१३॥ तन्मध्ये राजधानी स्यात् विजयापरमापुरी। यस्त्रां मोक्षाय धर्माय स्वजन्मेच्छन्ति नाफिनः ॥४॥ अर्थ:-निषधपर्वत के उत्तर भाग में पश्चिम भद्रशाल की मणिमय और शाश्वत वेदी है। ॥श। वेदो के पश्चिम भाग में पद्मनाम का सुन्दर देश है, जिसके विजयार्थ पर्वत और गंगा-सिन्धु नदियों के द्वारा छह खण्ड होते हैं । इस देश के मध्य में पुण्य की जननी के सदृश अश्वपुरी नाम की नगरी है, जो पुण्यवान् पुरुषों एवं विद्वज्जनों से परिपूर्ण और जिन चैत्यालयों से सुशोभित है ।।८२-८३।। इस देश के पश्चिम में शिखर पर चार कूटों से युक्त एवं वन वेदी आदि से अलंकृत हेमवर्ण वाला दाब्दवान् नामक बक्षार पर्वत है । इस पर्वत के अग्रभाग में सिद्धकूट, पद्यकूट, सुपद्म और शब्दवान् नाम के चार कूट अवस्थित हैं ॥८४-८५॥ इस वक्षार के पश्चिम में लक्ष्मी के प्रालय की उपमा को Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० ] सिद्धान्तसार दीपक धारण करने वाला पद्म नाम का देश है, जहाँ भय्यजन धर्मादि के द्वारा त्रैलोक्यस्थित लक्ष्मी का साधन करते हैं । इस देश के मध्य में सिहपुरी नाम की नगरी शोभायमान है, जहाँ के उत्तम धार्मिक मनुष्य रूपी सिंह निरन्तर कर्मरूपी हाथियों को मारने में उद्यत रहते हैं । ८६-८७।। इस देश के पश्चिम में क्षीरोदा नाम की मनोहर त्रिभंगा नदी है, जो क्षय रहित है और कुण्ड से निकल कर सोतोदा महानदी के मध्य में प्रवेश करती है || ८ || इस विभंगा के पश्चिम में छह खण्डों से सुशोभित महापद्म नाम का देश है, जो नदी, पर्वत, वन, उत्तम ग्राम और नगरों से तथा शुभाचरण से युक्त धार्मिक जनों से परिपूर्ण है । इस देश के मध्य में प्रति रम्य महापुरी नाम की नगरी है, जहाँ पर महान पुरुष तपरूपो वृक्ष से स्वर्ग और मोक्ष का साधन करते हैं ।।५-६०।। इस देश के पश्चिम में देवों के श्राश्रयभूत विकटवान् नाम का वक्षार पर्वत है, जिसके शिखर पर सिद्धायतन, महापद्म पद्मकावतो और विकटवान् नाम के चार कूट अवस्थित हैं |१-६२॥ विकटवान् वक्षार की पश्चिम दिशा में पद्मकावती नाम का महान देश है, जहाँ पर भव्यों को मोक्ष प्राप्त कराने के लिये केवली भगवान् निरन्तर विहार करते हैं । इस देश के मध्य में विजयापरमपुरी नामक नगरी है, जो देश की राजधानी है । धर्म और मोक्ष के लिये जिस नगरों में देवगा भी अपने जन्म लेने की वाञ्छा करते हैं ।।६३-६४।२ पद्मावती देश के प्रागे श्रन्थ अन्य देशों, विभङ्गा नदियों एवं पर्वतों की अवस्थिति कहते हैं :-- पुननंदी विभङ्गा स्यात् सोतोदाव्या विभूषिता । कुण्डव्या सोनदेशस्य ह्यायामेन समायता ॥ ६५ ॥ तस्याः पश्चिमभागेऽस्ति देशः शङ्खाय्य ऊर्जितः 1 शलाकापुरुषा यत्र जायन्ते गरपनातिगाः ॥ ६६ ॥ तन्मध्येऽस्त्यरजाभिख्या पुरी स्वभुं क्तिदायिनी । यस्याः सन्तोऽहं यान्ति धर्माचादिवं शिवम् ॥ ६७ ॥ तत श्राशीविषोनाम्ना वक्षारः काञ्चनच्छविः । देशायामसमायामश्चतुः कूटाश्रितोऽद्भुतः ||६८ ॥ सिद्धकूटं च शङ्खाख्यं कूटं नलिनसंज्ञकम् । कूटमाशीविषं हीति कूटानि तस्य मस्तके ॥६६॥ ततो नलिन देशोऽस्ति यत्र सम्भार्गवृत्तये । विहरन्ति गणेशाश्च सूरयः पाठकाः सदा ॥१००॥ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २५१ gsferre भवेत्तस्यायंखण्डे व विरजा नगरी परा । यस्यां कर्मरजस्युच्चै निष्धुं यस्युविदोऽमलाः ॥ १०१ ॥ तदनन्तरमेवात्र ! बनतो रणवेदीभिर्भूषिता तटयोर्द्वयोः ॥ १०२ ॥ ततोऽस्ति कुमुदा भिख्यो देशोधर्मसुखाकरः । erयन्ते योगिनो धीरा यत्रारण्याचलाविषु ॥ १०३ ॥ अशोकानगरी तत्रातीतशोकंबुता । श्रजयन्ति सदा धर्मं यस्यां वक्षाव्रतादिभिः ॥ १०४ ॥ ततः सुखावही नाम्ना वक्षारोऽस्ति सुखाकरः । तत्रस्यानामिहामुत्र संततं पुण्यकर्मभिः ॥ १०५ ॥ सिद्धाख्यं कुमुदा मिल्यं सरिताह्वयमेव हि । सुखावहमिमान्यस्य चतुः कूटानि मस्तके ॥ १०६ अर्थः- पद्मावती देश के ग्रागे सीतोदा नाम की विभंगा नदी है, जिसका श्रायाम कुण्ड व्यास से हीन देश के आयाम प्रमाण है ||५|| विभंगा के पश्चिम भाग में शङ्खा नामक श्रेष्ठ देश है, जहाँ पर गणनातीत अर्थात् श्रसंख्याते शलाका पुरुष उत्पन्न होते हैं। उसके मध्य में स्वर्ग और मोक्ष देने वाली अरजा नाम की नगरी है, जहाँ से भव्यजन धर्माचरण के द्वारा निरन्तर स्वर्ग और मोक्ष प्राप्त करते हैं ।।६६-६७ ।। इस देश के श्रागे देश की लम्बाई प्रमाणु श्रायाम से युक्त, चार कूटों से श्रलं - कृत और कञ्चन की आभा को धारण करने वाला प्राशीविष नाम का वक्षार पर्वत है। उसके मस्तक पर सिद्धकूट, शंखाकूट, नलिन और प्राशीविष नाम के चार कूट हैं ।।६८-६६ ॥ वक्षार पर्वत के श्रागे नलिन नाम का देश है, जहाँ पर धर्म मार्ग के प्रकाशन हेतु अथवा सन्मार्ग की प्रवृत्ति हेतु गरणधरदेव, श्राचार्य और उपाध्याय निरन्तर बिहार करते हैं । इस देश के श्रायें खण्ड में विरजा नाम की श्र ेष्ठ नगरी है, जहाँ पर विद्वज्जन कर्म रूपी रज-धूल को भलीप्रकार न करके निर्मल होते हैं, अर्थात् मोक्ष प्राप्त करते हैं ।। १०० - १०१ ॥ इस देश के बाद ही दोनों तटों पर वनों, तोररणों एवं वेदियों से विभू षित श्रोतवाहिनी विभंगा नदी है ।। १०२ || विभंगा के पश्चिम में धर्म और सुख का आकर ( खान ) कुमुद नाम का देश है, जहाँ के वनों और पर्वतों पर निरन्तर धीर-वीर योगिगरा ( साधु ) दिखाई देते हैं। वहाँ शोक आदि से रहित बुद्धिमान मनुष्यों से भरी हुई अशोक नामक नगरी है। जहाँ पर व्रत श्रादि करने में चतुर भव्य जन सदा धर्म का अर्जन करते हैं ।। १०३-१०४ ।। उस कुमुद देश के श्रागे सुखोत्पादक सुखावह नाम का वक्षार पर्वत है, जहाँ के मनुष्य सदा पुण्य क्रियानों के द्वारा इहलोक और परलोक में सुख प्राप्त करते हैं और जिसके शिखर पर सिद्ध कूट, कुमुद, सरिता और सुखावद्द् नामक चार कूट हैं ।। १०५ - १०६ ।। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ ] सिद्धान्तसार दीपक अब अन्य अवशेष देशों श्रादि के श्रवस्थान का दिग्दर्शन कराते हैं। :-- ततोऽस्ति सरिताभिख्यो महान् जनपदः शुभः । यत्रायान्त्यन्यहं देवाः पूजाभवत्यं परात्मनाम् ॥१०७॥ ataशोकापुरी तत्र यस्यां शोकातिगा विदः । स्वर्गमोक्षसुखाद्याप्यं कुर्वन्ते धर्ममुत्तमम् ॥१०८॥ ततो हेममया रम्या स्यात् परा वनवेदिका । पूर्वोक्तवेदिकातुल्या व्यासायामोखितादिभिः ॥१०६ ॥ वेद्या अपरभागे स्याद् भूतारण्यास्य सवनम् 1 देवारण्यसमं चैत्यालय देवपुरान्वितम् ॥ ११० ॥ तस्योत्तरविशाभागे जिनेन्द्रभवनाश्रितम् । भूतारण्यं भवेदन्यत्सुरसौधपुरान्वितम् ||१११|| बनात्पूर्व दिशाभागे सोतोदायास्तटोत्तरे । नीला दक्षिणे पावस्थाद्रत्नवनवेदिका ॥ ११२ ॥ ततः पूर्वे भवेद्देशो वप्रारूपो भृत उत्तमैः । यतिश्रावक चैत्याः कुलिङ्गयादिविवर्जितः ॥ ११३॥ तस्य मध्ये पुरी रम्या विजयाख्या जयन्ति च । दुःकर्माक्षकषायारीन् यस्यां योगेर्मुमुक्षवः ॥ ११४ ॥ ततः पूर्वेस्ति चन्द्रारूपो वक्षारोहेनभानिभः । जिनेन्द्रसुरधामाग्रं श्चतुः कूटैः शिरोऽङ्कितः । ।११५ ।। सिद्धकूटं च वप्राख्यं सुवप्राभिधमन्तिमम् । चन्द्रकूटभिमानि स्युः शिखरेऽस्य शुभान्यपि ॥ ११६ ॥ ततः स्याद्विषयो रम्यः सुवप्राह्वय कर्जितः । यत्राद्गरिगयोगोन्द्रा विरहन्ति सुराचिताः ॥११७॥ तार्थ खण्डभूभागे वैजयन्तीपुरी परा । वसन्ति तुङ्गसोधेषु यस्यां विजयशालिना ।। ११८ ॥ ततो नदी विभङ्गास्ति गम्भीरमालिनी परा । नोलाद्र्यधःस्थकुण्डोत्या सीतोदामध्यमाश्रिता ॥ ११६॥ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमोऽधिकारः तस्याः पूर्वे महावप्राभिधो देशः शुभाकरः । शुभमराव सतां शुभप्रवर्तनः ।। १२० ।। तन्मध्ये नगरी भाति जयन्ती संज्ञिका परा । जिनेन्द्रापरधामौघैः पुण्यवद्भिर्जयोद्धतेः ॥१२१॥ अर्थ:-सुखावह वक्षार पर्वत के पश्चिम में सरिता नाम का एक महान श्रेष्ठ देश है, जहाँ पर जिनेन्द्र भगवान की पूजा भक्ति के लिये निरन्तर देवगण आते रहते हैं। इस देश के मध्य में वीतशोका नाम की नगरी है, जहाँ पर बुद्धिमान् जीव शोक से रहित होते हैं, श्रोर स्वगं एवं मोक्ष की प्राप्ति के लिये सदा उत्तम धर्म का आचरण करते हैं ।। १०७-१०८ || सरिता देश के धागे कञ्चनमय, अत्यन्त र और श्रेष्ठ वेदिका है, जिसके व्यास आदि का प्रमाण पूर्व कथित वेदिका के व्यास, आयाम और ऊँचाई के सदा है ||१०६ ।। इस वेदी के पश्चिम में भूतारण्य नाम का उत्तम वन है, जो देवारण्य के सहरा जिनचैत्यालयों और देवों के नगरों से संयुक्त है ।। ११० ।। इस वन को उत्तर दिशा में जिन चैत्यालयों से युक्त तथा प्रासादों से संयुक्त देवों के नगरों से समन्वित अन्य भूतारण्य वन है ॥ १११ ॥ इस भूतारण्य वन की पूर्व दिशा में सोतोदा महानदी के उत्तर तट पर श्रीर नोल कुलाचल के दक्षिण भाग में एक रत्नमय वेदिका है ।। ११२|| इस बेदी की पूर्व दिशा में कुलिङ्गी साधुओं आदि से रहित और उनम मुनिगरणों, श्रावकों एवं जिनचैत्यालयों से परिपूर्ण वप्रा नाम का देश है । जिसके मध्य में विजया नाम की अति रम्य नगरी हैं, जहां पर मोक्षाभिलाषी भव्यजन मन-वचन और काय की स्थिरता द्वारा अथवा ध्यान प्रादि के द्वारा दुष्ट कर्मी इन्द्रियों और कषाय रूपी वैरियों को जीतते हैं ।। ११३११४।। इस वत्रा देश के पूर्व में स्वर्णाभा के समय कान्तिवान् चन्द्रा नाम का वनार पर्वत है, जो जिनचैत्यालय और देवालयों से समन्वित चार कूटों से सुशोभित है। इसके शिखर पर सिद्धकूट, वत्रा, मुत्रप्रा और चन्द्रकूट नाम के चार उत्तम कूट हैं ।। ११५ ११६ ॥ इस वक्षार के पूर्व में सुवप्रा नाम का रम्य र श्रेष्ठ देश है, जहाँ पर अरहन्त देव, गणबर देव और मुनि समूह निरन्तर बिहार करते हैं | इस देश के आर्य खण्ड में विजयन्ती नाम की श्रेष्ठ नगरी है, जहां के उन्नत भवनों में विजय स्वभात्री भव्य जोन रहते हैं ।। ११७-११८ ।। इसके बाद गम्भीरमालिनी नाम की श्रेष्ठ त्रिभंगा नदी है, जो नील कुलाचल के अधोभाग में स्थित कुण्ड से निकली है, और सीतोदा के मध्य प्रवेश करती हे ।। ११६ | इसके पूर्व में उत्तम ग्राम नगर यादि से युक्त और सज्जनों की शुभ प्रवृत्तियों से सुशोभित पुण्य की खान सदृश महावप्रा नाम का उत्तम देश है । जिसके मध्य में जयन्ती नाम की उत्तम नगरी शोभायमान होती है, जो जिन चैत्यालयों, अन्य प्रासाद समूहों, पुण्यवान् भव्य जीवों एवं जितेन्द्रिय जीवों से सदा परिपूर्ण रहती है ।।१२०-१२१॥ [ २५३ अब पूर्वविदेहगत वक्षार पर्वतों आदि की अवस्थिति कहते हैं। :―― Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ । सिद्धान्तसार दीपक तता सूराह्वयोनिः स्याद्वक्षारोऽमरसंयुतः । सिद्धकूट महावाभिधानकटमेव हि ॥१२२।। कूटं च वप्रकावत्याख्यं सूरकूट मन्तिमम् । तस्याग्ने स्यात्सुरोपेत मेतकूट चतुष्टयम् ।।१२३॥ सतो जनपदो वप्रकावस्याख्यो महान्मवेत् । यत्र प्रवर्तते धर्मो मोक्षमार्गोऽविनश्वरः ॥१२४।। भर्मशगान ग मायनिता पुरी। कर्मारिनिर्जयोद्युक्त विद्वद्भोराजतेतराम् ।।१२।। ततो नदी विभङ्गास्ति शाश्वता फेनमालिनी । रत्नतोरणसद्वेदी बनास्तितटद्वया ॥१२६॥ ततो गन्धाहयो देश एकार्यस्खण्डभूषितः । धर्मशर्माकरः पञ्चम्लेच्छखण्डयुतोऽक्षयः ।।१२७॥ तन्मध्ये नगरी चक्राह्वया भाति जिनालयः । शालगोपुरसौधाधेश्चक्रयादि पुरुषोत्तमः ॥१२८।। ततो नागाभिधः शलो वक्षारः शिखरे तिः । अर्हत्सुरालयाग्रस्थैस्तुङ्गकूटचतुष्टयः ॥१२९।। सिद्धकटं च गन्धाख्यं सुगन्धाह्वयमेव च । नागकूटमिमान्युच्चः स्फुरन्ति शैलमस्तके ॥१३०॥ तस्य पूर्वे भवेत्रंशः सुगन्धाख्यो महोत्तमः । धर्मचंत्यालयोपेतः प्रामारामपुरादिभिः ।।१३१॥ तन्मध्ये राजते खड्गापुरी रत्नजिनालयैः । पुण्यवद्भिबुधैनित्यं धर्मोत्सवशतैः परः ॥१३२॥ ततः पराविभङ्गा च नदोस्यादूमिमालिनी। दक्षिणोत्तर दिग्वीर्घा पूर्वपश्चिमविस्तरा ॥१३३॥ तदनन्तरमनास्ति विषयो गन्धिलाल्यकः । जिनधर्मोत्तमाचारजनश्च मिभिर्भूतः ॥१३४॥ तत्रायोध्यापुरी भाति भटः कर्मजयोद्यतः । जिनमैत्यालयदक्षः खनीवधर्ममिणाम् ।।१३५॥ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमोऽधिकारः [ २५५ अर्थः- महावप्रा देश के पूर्व में देवों से संयुक्त सुर नामक वक्षार पर्वत है। उसके शिखर पर जिनचैत्यालय और देव प्रासादों से युक्त सिद्धकूट महाबप्रा वप्रकावती और सुर नाम वाले चार कूट अवस्थित हैं ।। १२२-१२३॥ सूर वक्षार के पूर्व में वप्रकावती नाम का श्रेष्ठ देश है, जहाँ पर धर्म और मोक्षणात प्रवर्तते है । उस देश के मध्य में धर्म और सुख की खान स्वरूप श्रपराजित नाम की नगरी है; जो कर्म शत्रुओं को जीतने में उद्यत भव्य जीवों से और विद्वज्जनों से प्रत्यन्त शोभायमान रहता है ।। १२४ - १२५। उस देश के प्रागे शाश्वत बहनेवाली केनमालिनी नाम की विभङ्गा नदी है, जिसक दोनों तट रत्नों के तोरणों, उत्तम वेदियों और वनों से अञ्चित हैं ।। १२६ ।। विभङ्गा नदी के आगे धर्म और सुख के ग्राकर स्वरूप एक ग्रार्य खण्ड से विभूषित श्रीर पाँच म्लेच्छ खण्डों से युक्त गन्ध नाम का शाश्त्रत दश है। जिसके मध्य में जिन चैत्यालयों, शाल, गोपुर एवं प्रासादों और चक्रवर्ती आदि महापुरुषों से विभूषित चक्र नाम की नगरी है ।। १२७- १२८ || गन्ध देश के पूर्व में शिखर पर प्रति है जिन त्यालय और देवों के श्रालय जिनके ऐसे चार बूढों से संयुक्त नागा (धिप) नाम का बक्षार पर्वत है । जिसके मस्तक पर सिद्धकूट, गन्धकूट, सुगन्धकूट और नागकूट नाम के चार महान कूट स्फुरायमान होते हैं ।। १२६ - १३० ।। नाग वक्षार के पूर्व में जिन चैत्यालयों, नगरों, ग्रामों और उद्यानों से सहित सुगन्ध नाम का महा उत्तम देश है। उसके मध्य में खड्मापुरी नगरी है, जो रत्नों के जिनालयों से, पुण्यवान् पुरुषों, बुद्धिमानों और धार्मिक महोत्सवों में तल्लीन ऐसे धन्य भव्यजनों से सदा शोभायमान रहती है ।। १३१ - १३२ ।। सुगन्ध देश के श्रागे ऊर्मि नाम की विशाल विभङ्गा नदी है, जो दक्षिण-उत्तर लम्बी और पूर्व-पश्चिम चौड़ी है ॥ १३३॥ उसके बाद जैनधर्म जन्य उत्तम नाचरणों, जैन बन्धुयों एवं धर्मात्मानों से परिपूर्ण गन्धिला नाम का देश है। उसके मध्य में धर्म श्रीर धर्मात्माओं की खान के सदृश अयोध्या नाम की नगरी है, जो पण्डित जनों, जिन चैत्यालयों एवं कर्मों पर विजय प्राप्त करने में प्रयत्नशील भव्यजनों से सदा सुशोभित रहती है ।।१३४- १३५|| अब भद्रशाल की वेदी पर्यन्त देशों, वक्षारों एवं विभंगा नदियों का प्रवस्थान कहते हैं : ततो देवाद्रिनामास्ति वक्षार ऊजिलोऽव्ययः । प्रथमं सिद्धाख्यं द्वितीयं गन्धिलाह्वयम् ॥१३६॥ कूटं च गन्धमालिन्यारूयं बेवकूटमन्तिमम् । मणिकूटरमीभिः सोऽलंकृतः शिखरे बरे ||१३७॥ तत्पाइ विषयो गन्धमालिनीसंज्ञकोऽद्भुतः । द्विनदी विजयार्धश्च षट्खण्डीकृत उत्तमः ॥१३८॥ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ ] सिद्धान्तसार दीपक तत्सीतोदोत्तरे भागे स्यादवध्यापुरी परा । पुण्यकर्माकरीभूतास्यक्ति धर्ममातृका ॥१३९।। तदन्ते शाश्वती विध्या वेदिका स्थूल विग्रहा। बनस्यापर भद्रादिशालस्यांघ्रिप-शालिनः॥१४०।। अर्थ:--गन्धिला नाम देश के आगे अनादि निधन देवाद्रि नाम का श्रेष्ठ वक्षार पर्वत है। इसके शिखर पर सिद्धट, गन्धिला, गन्धमालिनी और देवकूट नाम के चार कूट हैं, इन्हीं मणिमय चार कूटों से वह पर्वत अलंकृत है ।। १३६-१३७ ॥ देवाद्रि वक्षार के आगे गन्धमालिनी नाम का अद्भुत देश है, जिसके दो नदियों और विजया पर्वत के द्वारा छह स्त्र हुये हैं। इस देश के मध्य में और सीता महानदी की उत्तर दिशा में अवध्या नाम की श्रेष्ठ नगरी है, जो पुण्यकर्म की खान स्वरूप और स्वर्ग मोक्ष देने वाले धम की माता के समान है।।१३८-१३६॥ इस देश के बाद अन्त में अंघ्रिप । ) वृक्षों से सुशोभित, अनादि निधन, स्थूलकाय और दिव्य, पश्चिम भद्रशाल वन की वेदी है ।।१४०॥ प्रब बनों, वेदियों, वक्षार पर्वतों और देशों का प्रायाम कहते हैं :-- वेवारण्यद्वयोर्भूतारण्याख्ययोर्चनद्वयोः । अष्टानां धनवेदोना द्वयष्टवक्षारभूमृताम् ॥१४१॥ द्वात्रिशद्विषयानां चायामः स कीतितो बुधः। सौताव्यासोन यिस्तारो विदेहार्धस्थयो भुवि ।।१४२॥ अर्थ:-सीता नदी के विस्तार ( ५०० यो०) को विदेह के विस्तार ( ३३६८४४. यो. ) में से घटा { ३३६८४४ -- ५०० ) कर शेष को प्राधा ( ३३१८४४२) करने पर जो लब्ध प्राप्त हो उतना ही पायाम प्रमाण ( १६५६२२ यो.) दो देवारण्यों, दो भूतारण्य वनों, पाठ वन वेदियों, सोलह वक्षार पर्वतों और बत्तीस देशों का है ऐसा विद्वानों के द्वारा कहा गया है ॥१४१-१४२।। उसी का विशेष कहते हैं :-- हि देवारण्यद्विभूतारण्याष्ट वेदिकाषोडशवक्षारद्वात्रिंशद्देशानां प्रत्येकमायामः पोडशसहस्र पंचशतद्विनवतियोजनानि योजन कोनविंशति भागानां कले च । अर्थ:--दो देवारण्यवनों दो भूतारण्य वनों, ( चार वनों की ) श्वाठ वेदिकाओं, सोलह वक्षार पर्वतों और बत्तीस देशों में से प्रत्येक का आयाम सोलह हजार च सौ बानवे योजन और एक योजन के उन्नीस भागों में से दो भाग ( १६५६२ यो०) प्रमाण है॥ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमोऽधिकारः [ २५७ पब कुण्डों का ध्यास एवं गहराई कहते हैं : द्वादशप्रमकुण्डानां विमङ्गोत्पत्तिकारिणाम् । योजनानां शतं व्यासः पञ्चविंशतिसंयुतम् ॥१४३॥ सर्वत्र चावगाहो योजनविंशतिसम्मितः । महातस्तोरणद्वारवेशाचाः सन्ति शाश्वताः ॥१४४॥ अर्थः--बारह विभङ्गा नदियों की उत्पत्ति के कारण भूत बारह कुण्डों का व्यास एक सौ पच्चीस ( १२५ ) योजन प्रमाण है और प्रवगाह सर्वत्र बीस योजन प्रमाण है। वे कुण्ड अनाद्यनिधन और विशाल तोरण द्वारों एवं वन वैदियों से युक्त हैं ॥१४३-१४४।। अब विभंगा नदियों का मायाम कहते हैं :-- विषप्रमविभङ्गानामायामः प्रोक्तिः श्रुते । कुण्डव्यासोनवेशायामेन सादृश्य प्राश्रितः ॥१४५॥ द्वादशविभङ्गानदीनां प्रत्येकंदीर्घताषोडशसहस्रचतुःशतसप्तषष्टि योजनानि योजनकोनविंशभागानां द्वे कले। अर्थः-देश के आयाम ( १६५६२ यो ) में से कुण्ड का ध्यास ( १२५ यो० ) घटाने पर जो प्रमाण ( १६५६२-१२५= १६४६७१ यो ) रहता है, उसी के सदृश प्रत्येक विभङ्गा नदियों का आयाम आगम में कहा गया है ॥१४५।। बारह विभाडा नदियों में से प्रत्येक विभक्षा की दीर्घता ( लम्बाई ) सोलह हजार चार सौ सड़सठ योजन और एक योजन के उन्नीस भागों में से दो भाग प्रमाण अर्थात् १६४६७० योजन है। अब विदेहस्थ रक्तादि ६४ नदियों का मायाम कहते हैं :-- चतुःषष्टिप्रमाणानां रस्ताविसरितां स्फूटम् । स्वकुण्डविस्तरोनोयो देशायामः स एव हि ॥१४६॥ रक्तारक्तोदागङ्गासिन्धुसंज्ञानां चतुःषष्टिनदीनामायामः प्रत्येकं षोडशसहस्रपञ्चशतकोनत्रिशयोजनानि द्वौ क्रोशी योजनकोनविंशति भागानां द्वौ भागौ ।। अर्था:--विदेहस्थ गंगा, सिन्धु, रक्ता और रक्तोदा इन ६४ नदियों में से प्रत्येक के आयाम का प्रमाण अपने-अपने कुण्ड के विस्तार ( ६२३ यो०) से हीन देश के प्रआयाम ( १६५६२-६२३= १६५२६ योजन और दो कोश ) प्रमाण ही है ॥१४६।। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ ] सिद्धान्तसार दीपक रक्ता, रक्तोदा, गङ्गा और सिन्धु इन ६४ नदियों में से प्रत्येक नदी की लम्बाई सोलह हजार पाँच सौ उन्तीस योजन दो कोस और एक योजन के उन्नीस भागों में से दो भाग प्रमाण है। अर्थात् १६५२६४] योजन और दो कोस प्रमाण है । sarat विदेहक्षेत्रस्य पूर्वापरेणायामः कथ्यते : मेरोविष्कम्भी दशसहस्रयोजनानि । भद्रशालवनद्वयो. चतुश्चत्वारिंशत्सहस्रयोजनानि च षोडश विषयानामेकी कृते विस्तरः पञ्चत्रिंशत्सहसचतुःशत षडुत्तरयोजनानि । श्रष्टवक्षाराद्रीणां पिण्डीकृतो व्यासः चतुःसहस्रयोजनानि । षविभङ्गनदीनामेकत्रीकृतो विष्कम्भः सार्धंसप्रशतयोजनानि । देवारण्यभूतारण्यवनद्वयोर्मेलिता विस्तृतिः पञ्चसहस्राष्टशतचतुश्चत्वारिंशद्योजनानि । एवमेतेषां मेवादीनामेकत्रीकृतो व्यासः विदेहस्यायामो लक्षयोजन प्रमाणो भवति । I अर्थः- :- श्रब विदेहक्षेत्र का पूर्व - पश्चिम आयाम कहते हैं :-- सुदर्शनमेरु का विष्कम्भ १०००० योजन, दोनों भद्रशाल बनों का ४४००० योजन, सोलह देशों का एकत्रित विस्तार ३५४०६ योजन, आठ दक्षार पर्वतों का एकत्रित व्यास ४००० योजन, छह विभङ्गा नदियों का एकत्रित व्यास ७५० योजन और देवारण्य भूतारण्य दोनों वनों का एकत्रित व्यास ५८४४ योजन प्रमाण है । इन सब मेरु आदि का एकत्रित व्यास ( १००००४४०००+ ३५४०६ + ४०००+७५० + ५८४४ = ) एक लाख १००००० योजन होता है, विदेह क्षेत्र का पूर्व-पश्चिम आयाम भी यही एक लाख योजन प्रमाण है । अब २६ श्लोकों द्वारा विदेह का विस्तृत वर्णन करते हैं —— विदेहक्षेत्रदेशेषु सर्वेषु च पुरादिषु । मरिणममयास्तुङ्गा निप्रासादपंक्तयः || १४७ ॥ उत्तुङ्गतोरणाबीसा रत्न बिम्बशर्त भृताः । रत्नोपकरणैः पूर्णा न कुदेवालयाः क्वचित् ॥ १४८ ॥ सन्ति बह्वषः स्फुरद्दीप्राणिमेन्द्र विष्य मूर्तयः । सुरेश्चाचिता बन्धा न नीचदेवमूर्तयः ॥ १४६ ॥ तत्रत्यैः सर्वदा दक्षैरन्ते जिनमूर्तयः । विश्वाभ्युदयसर्वार्थ सिद्धयं नाना विधार्चनं ॥। १५० ।। विवाहजातकर्मादि मङ्गलेष्वखिलेषु च । परमेष्ठिन एवाहो न क्षेत्रपालकादयः ।। १५.१ ।। Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमोऽधिकारा [ २५६ जिनेन्द्राः समवस्त्र त्याश्रिता द्विषड्गणावृताः ।। सतां धर्मोपदेशादोन बवतो विहरन्ति च ॥१५२॥ मुक्तिमार्गप्रवृत्यर्थं गणेशागणवेष्टिताः । चतुर्मानमहद्धोशा विहारं कुर्वतेऽनिशम् ||१५३।। शिष्याविपरिवारेणावृताः सूरय जिताः । बिहरन्तोऽत्र दृश्यन्ते पञ्याचारपराः सदा ॥१५४॥ पठन्तः पाठयन्तोऽन्यानङ्गपूण्यनेकशः । रत्नत्रयतपोभूषाः सन्त्युपाध्याययोगिनः ।।१५।। गिरिकन्दरदुर्गादिवनेषु निर्जनेषु च।। साभयो च्यानसंलोना महाघोरतपोङ्किताः ॥१५॥ प्रवर्तकागुणवद्धा अन्ये वा संयतवजाः । सुमव्यर्वन्विताः पूज्या दृश्यन्तेऽत्रपवे पदै ॥१५७।। इत्याद्या जिनयोगोन्द्रा निर्ग्रन्थाः स्युरनेकशः । मोक्षमार्ग स्थिता धीरा न स्वप्नेऽपि कुलिङ्गिनः ॥१५८|| अपूर्वाणि सर्वाणि पठभन्ते यत्र योगिभिः । धूयन्ते श्रावकैनित्यं न कुशास्त्राणि जातुषिम् ।।१५६॥ अहिंसालक्षणो धर्मः शाश्वती वर्ततेऽनिशम् । सागारयमिनां द्वधा स्वर्मुक्तिसुखसाधकः ॥१६०।। व्रतशीलोपवासाजिनप्रणीत अजितः । न धुर्तजल्पितश्चान्यो हिसोत्थो दुर्गतिप्रदः ॥१६१॥ वैश्याश्चक्षत्रियाः शूद्रा इति वर्णत्रयान्विता । प्रजा भद्रा विवेकज्ञा जिनधर्मपरायणा ॥१२॥ न्यायमार्गरता नित्यं क्सद्वृत्ताधलंकृता । कुमार्गगा द्विजा नात्र न दुर्मतोत्थर्षियः ॥१६३॥ जैनसङ्घादिभेदो न पाखण्डदर्शनानि न । न मतान्तर एकोपि ह्य के जिनमतं विना ।।१६४॥ बहत्येवानिशं मोक्षमार्गोऽत्रानन्तसौख्यदः । रत्नत्रयात्मकः सत्यो जिनेन्द्रोक्तो महात्मनाम् ॥१६॥ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० ] सिद्धान्तसार दीपक अत्रत्याः श्रावका दक्षाः प्रावकव्रतधर्मतः । षोडशस्वर्गपर्यन्तं गच्छन्ति श्राविकास्तथा ।।१६६॥ केचिभोगमहीं पानवानपुण्येन भद्रकाः । जिना स्तुतिभक्त्याचर्यान्ति चन्द्रास्पदं विवः ॥१७॥ नाकिनः कृतपुण्या येतेऽध स्वर्मोक्षसिद्धये । सत्कुलेषु प्रजायन्ते बहुश्रीभोगिनो बुधाः ।।१६८।। यत्रोत्पन्नः प्रयत्नेन साक्षान्मोक्षो हि साध्यते । रत्नत्रयतपोधोरैस्तत्र का वर्णना परा ॥१६॥ यथेषा वर्णना प्रोक्ता विदेहे द्विविधेऽखिला। तथा शेषविवेहेषु जेया द्वीपापरद्वये ॥१७०।। द्वीपेष्वर्ध ततीयेषत्कृष्टेन श्रोजिनेश्वराः । उत्पद्यन्ते पयचित्सर्वे सप्तत्य शतं परम् ॥१७१॥ तावन्तश्चक्रिरणश्चंव जायन्से नृसुचिताः । सप्तत्यग्रशतेष्वार्यखण्डेश्येककसंख्यकाः ॥१७२॥ जघन्येन जिनाधीशा भवन्ति विशति प्रमाः। चक्राधिपाश्च सर्वत्र नृदेवखचराचिताः ॥१७३॥ मी:- विदेश क्षेत्ररथ देशों के सर्व नगरों एवं ग्रामों आदि में मणिमय और स्वर्णमय जिन चैत्यालयों की पंक्तियाँ हैं। वे जिन मन्दिर उन्नत और प्रकाशमान तोरणों से युक्त, रत्नमय सहस्रों जिन बिम्बों से भरे हुये और रत्नमय उपकरणों से परिपूर्ण हैं, वहाँ कहीं भी कुदेवालय नहीं हैं ।। १४७ १४८]। वहाँ पर मनुष्यों एवं देवगरणों से पूजित और बन्दित तथा प्रकाशमान् दीपि से यक्त जिनेन्द्र भगवान् की दिव्य मूर्तियाँ ही प्रचुर मात्रा में हैं, नीच देवों को मूर्तियां नहीं हैं ।। १४६।। वहाँ उत्पन्न होने वाले प्रवीगा पुरुष समस्त अभ्युदय सुख एवं अन्य समस्त सर्व अर्थ की सिद्धि के लिये नानाप्रकार को पूजन विधि से जिनेन्द्र भगवान को ही पूजते हैं ।।१५०॥ विवाह एवं जन्म आदि कार्यों में तथा अन्य समस्त मङ्गल कार्यों में एक परमेष्ठी अर्थात् अर्हन्त, सिद्ध प्रादि का ही पूजन होता है, क्षेत्रराल आदि का नहीं ॥१५१॥ समवसरण के प्राश्रित होने वाली बारह समानों से घिरे हुये जिनेन्द्र भगवान सज्जन पुरुषों को उपदेश देते हैं और विहार भी करते हैं ।।१५२१३ चार ज्ञान के धारो, महाऋद्वियों के अधी. श्वर तथा मुनिगणों से वेष्टित गणधरदेव मूक्ति मार्ग की प्रवृत्ति के लिये निरन्तर बिहार करते हैं। ॥१५३।। विदेह क्षेत्र में पञ्चाचार पर या तथा शिष्य प्रादि परिवार से वेष्टित महान प्राचार्य निरंतर Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमोऽधिकार : [ २६१ विहार करते हुये दिखाई देते हैं ।। १५४॥ वहाँ पर अङ्ग और पूर्व रूप जिनागम को स्वयं पढ़ते हुये पीर अन्य मुनिगणों को पढ़ाते हुये तथा रत्नत्रय एवं तप से विभूषित अनेक उपाध्याय परमेष्ठी हैं ।।१५५॥ वहाँ पर उत्तम ध्यान में संलग्न तथा महाघोर तप से पालीढ़ साधु पर्वतों पर, कन्दरामों में, दुर्ग आदि में, वनों में तथा और भी अन्य निर्जन स्थानों में निवास करते हैं ।।१५६॥ विदेह क्षेत्र में उत्तम भव्य जीवों के द्वारा वन्दित एवं पूजित प्रवर्तक साधु, गुणसमूह से वृद्ध-महान् साधु तथा अन्य और भी यति समूह पद पद पर दिखाई देते हैं ।। १५७। इस प्रकार इनको प्रादि लेकर जिनेन्द्र भगवान्, योगियों के अधिनायक प्राचार्य प्रादि तथा अनेक प्रकार के धैर्यवान् निर्ग्रन्थ साधु मोक्षमार्ग में स्थित रहते हैं। वहाँ स्वप्न में भी कुलिङ्गी साधुनों के दर्शन नहीं होते ॥१५८॥ योगिजन अङ्ग पूर्व प्रादि के समस्त नागम को पढ़ते हैं और श्रावक गण नित्य ही सुनते हैं । खोटे शास्त्र वहाँ पर कभी भी नहीं सुनते ।१५६।। स्वर्ग और मोक्ष सुख का जो साधक है, श्रावक धर्म और मुनि धर्म के भेद से जो दो प्रकार है तथा अहिंसा ही जिसका लक्षण है, ऐसा अनाद्यनिधन धर्म हो वहाँ निरंतर प्रवर्तित रहता है ।।१६।। वहाँ पर व्रत, शील और उपवास आदि के द्वारा जिनेन्द्रदेव द्वारा प्रतिपादित श्रेष्ठ धर्म का ही सेवन होता है । भूतों के द्वारा कहा हुना तथा अन्य हिसा आदि से उत्पन्न और दुर्गति प्रदाता धर्म नहीं है। ॥१६१1। वहाँ की प्रजा क्षत्रिय, वंश्य और शूद्र इन तोन वर्षों से समन्वित है, भद्रपरिणामी अर्थात् कुटिलता रहित है, विवेकवान एवं ज्ञानवान् है, जिनधर्मपरायण, न्यायमार्ग में प्रारूढ़ और सम्यग्दर्शन ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र से अलंकृत है। वहाँ पर मिथ्यामतों से उत्पन्न होने वाली खोटो बुद्धि को धारण करने वाले मनुष्य नहीं हैं, तथा कुमार्गगामी द्विज-ब्राह्मण भी नहीं हैं ॥१६२-१६३।। यहाँ जन संघों में भेद नहीं हैं, न यहाँ पाखण्डो दर्शन हैं और न एक अद्वितीय जिनमत के बिना अन्य कोई मतान्तर हैं ॥१३४।। वहाँ पर जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कहा हुमा, अनन्त सुख प्रदाता रत्नत्रयात्मक सत्य मोक्षमार्ग का प्रवाह निरन्तर बहता रहता है ।।१६।। यहाँ उत्पन्न होने वाले निपुण श्रावक एवं धाबिकाएँ श्रावका धर्म के प्रभाव से सोलह स्वर्ग पर्यन्त जाते हैं । कोई भद्रपरिणामी गृहस्थ पात्रदान के प्रभाव से भोगभूमि में उत्पन्न होते हैं, और कोई बुद्धिमान् जन जिनेन्द्र भगवान् की पूजा, स्तुति एवं भक्ति प्रादि के द्वारा इन्द्र पद प्राप्त करते हैं ।।१६५-१६७॥ बहुत प्रकार के भोगों को भोगने वाले जो विवेकी देव स्वर्ग में पुण्यकर्मा हैं वे वहाँ से चय होकर स्वर्ग और मोक्ष की सिद्धि के लिये विदेह क्षेत्रस्थ उत्तम कुलों में जन्म लेते हैं ।।१६८।। वहां उत्पन्न होने के बाद रत्नत्रय युक्त घोर तपश्चरण के द्वारा चे प्रयत्नपूर्वक साक्षात् मोक्ष को ही साधते हैं। वहाँ का अन्य और क्या वर्णन किया जाय ॥१६६॥ पूर्व विदेह और पश्चिम विदेह का यहां समस्त वर्णन जैसा किया गया है, वैसा ही धातकी खण्ड पीर पुष्कराधंगत विदेह क्षेत्रों का जानना चाहिये ।।१७०।। मढ़ाई द्वीप में उत्कृष्ट रूप से एक साथ एक सौ सत्तर तीर्थकर उत्पन्न हो सकते हैं। मनुष्यों और देवों से अचित चक्रवर्ती भी एक साथ एक सौ सत्तर हो सकते हैं । पञ्च मेरु सम्बन्धी १६० विदेह देशों के १६० आर्य खण्ड और पांच Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ ] सिद्धान्तसार दीपक भरत एवं पांच ऐरावत सम्बन्धी १० प्रायं खण्ड, इस प्रकार एक सौ सत्तर प्रायं खण्ड हैं, इनमें से एक एक आर्य खण्ड में एक-एक तीर्थंकर और एक-एक ही चक्रवर्ती उत्पन्न हों तो १७० हो सकते हैं । ।।१७१-१७२।। जघन्य रूप से सर्व क्षेत्रों में ( सर्वत्र ) मनुष्यों, देवों एवं विद्याधरों से पूजित तीर्थंकर एवं चक्रवर्ती मात्र बीस हो सकते हैं। बीस से कम कभी नहीं होते ।।१७३॥ अब जम्बूनीपस्थ समस्त पर्वतों की एकत्रित संख्या कहते हैं। ——— जम्बूद्वीपे प चत्वारो गजदन्ताश्च द्वपष्टवक्षारभूधराः ॥१७४॥ श्रष्टौ विभगजशैलाः स्युश्चत्वारो यमकाद्रयः । चत्वारो नाभिलारच द्वेशते काञ्चनाद्रयः ।। १७५ ।। विजयार्थाश्चतुस्त्रिशत्तावन्तो वृषभाद्रयः । सर्वे पिण्डीकृता एते त्रिशतकादशोत्तराः ॥ १७६ ॥ अर्थ :- जम्बूद्वीप में एक सुदर्शनमेरु, छह कुलाचल पर्वत, चार गजदन्त, सोलह बक्षार पर्वत, श्राठ दिग्गज पर्वत, चार थमकगिरि, चार नाभिगिरि, दो सौ काञ्जव पर्वत, चौंतीस विजया और चौंतीस वृषभाचल पर्वत हैं। इन सबको एकत्रित करने पर जम्बुद्वीपस्थ ( १ +६+४+१६+८+ ४+४+२००+३४ + २४ = ) ३११ पर्वत होते हैं ।। १७४ - १७६ ।। अब अवशेष द्वीपों के पर्वतों की संख्या कहते हैं :-- एतेभ्यो द्विगुणाः सन्ति मेर्वाद्या अद्वयोऽखिलाः । द्वीपे च घातकीखण्डे पुष्करार्थे तथापरे ।। १७७ ॥ अर्थ :-- धातकी खण्ड में श्रीर पुष्करार्धं द्वीप में मेस श्रादि पर्वतों की संख्या जम्बूद्वीप से दूनीदूनी है | अर्थात् धातकी खण्ड में ६२२ पर्वत और पुष्कराधं द्वीप में ६२२ पर्वत हैं ।। १७७ || ब जम्बूद्वीपस्थ वन, वृक्ष, सरोवर एवं महादेशों कराते हैं :-- श्रादि की संख्या का दिग्दर्शन जम्बूद्वीपे वनेद्वेस्तो भद्रशालाह्वये परे । जम्बूशाहम लियुक्षौ च कुलाचलस्थ षट्वहाः ॥१७८॥ सीतासीतोदयोर्मध्ये ह्रवाः स्युविशति प्रमाः । जघन्यमध्यमोत्कृष्ट मेवैः षड् भोगभूमयः || १७६ ॥ चतुस्त्रिशन्महादेशा भरत रावतान्विताः । स्युर्नगर्यश्चतुरिंशदार्थखण्डान्तर स्थिताः ॥ १८० ॥ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमोऽधिकारः [ २६३ भवन्त्युपसमुद्राश्चतुस्त्रिशस्छाश्वतेतराः । धारस्तो मूतारज्यसदने ।।१८१॥ अर्थ:-जम्बूद्वीप में पूर्व भद्रशाल और पश्चिम भद्रशाल नाम के दो वन हैं । जम्बू और शाल्मली नाम के दो वृक्ष हैं । छह कुलाचलों पर छह सरोवर हैं। सीतासीतोदा के मध्य में बोस हद हैं । दो जघन्य भोगभूमियाँ, दो मध्यम और दो उत्कृष्ट, इस प्रकार छह भोगभूमियां हैं। भरतरावत सहित चौंतीस महादेश हैं और प्रार्य खण्डों में स्थित चौतीस ही नगरी ( राजधानियां ) हैं । अनाद्य निधन चौंतीस उपसमुद्र हैं, एनं देवारण्य नाम के दो तथा भूतारण्य नाम के दो उत्तम वन हैं ।।१७८-१८१॥ प्रब जम्बूद्वीपस्थ समस्त नवियों का विवेचन करते हैं : द्वादशव विभाङ्गाख्या नधस्तास्ताश्च पिण्डिताः । परिवाराहयानद्यस्त्रिलक्षमहितान्यपि ॥१८॥ स्युः पत्रिंशत्सहस्राणि विवहक्षेत्रमध्यपाः । गङ्गायाः क्षुल्लिका नद्यरचतुःषष्टिप्रमाणकाः ॥१३॥ प्रासां पिण्डीकृताः सर्वाः परिचारास्यनिम्नगाः। षण्णवतिसहस्राणिह्यष्टलक्षयुतान्यपि ॥१८४॥ चतुर्दशमहानद्यः सप्तक्षेत्रान्तराध्वगाः। गङ्गादिप्रमुखास्तासां परिवारनदीवजाः ।।१८।। मेलिताः पञ्चलक्षाप्रसहस्रषष्टिसम्मिताः । सप्ताग्रदशलक्षाणि द्वियुता नवतिस्तथा ॥१८६॥ सहस्राणि नवत्या सहेति संख्या जिनोविताः । मूलोतरनवीनां सर्वासा द्वीपे किलादिमे ॥१७॥ अर्थ:- विदेह क्षेत्र में विभङ्गा नदियाँ १२ हैं, (प्रत्येक नदी की सहायक नदिया २८००० हैं, अतः २८०००४ १२ =) इनकी समस्त परिवार नदियों का योग ३३६००० होता है। विदेह देशस्थ गङ्गासिन्धु और रक्ता-रक्तोदा ६४ हैं, (इनमें प्रत्येक को परिवार नदियां १४००० हैं ) अत: इनको परिवार नदियों का कुल योग (१४००० x ६४ =) ८६६००० होता है ॥१८२-१८४।। जम्बूद्वीपस्थ सात क्षेत्रों के मध्य में बहने वाली गंगादि चौदह महानदियां हैं, जिनकी परिवार नदियों का कुल योग (गंगा,सिन्ध,रक्ता और रक्तोदा की १४०००४ ४-५६००.+रोहित, रोहितास्या, स्वर्णकला, रूप्या कूला की २८०००४४=११२०००+हरि, हरिकांता, नारी, नरकान्ता को ५६०००x४ = २२४००० +और सीता, सीतोदा की १६८०००) १७६२००० है । इनमें मूल नदियां (१४+१२+ ६४ = ) to और मिला देने से जम्बूद्वीपस्थ कुल नदियों का योग १७६२०६० होता है ।।१८५-१८७ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ ] सिद्धान्तसार दीपक प्रब इसी प्रमाण को पुनः कहते हैं :-- सर्वजम्बूद्वीपस्य भरतादिसप्तक्षेत्रेषु सर्वाः मूलपरिवारनद्यः एकत्रीकृताः सप्तदशलक्ष-द्विनवतिसहस्रनवतिप्रमा सातव्याः।। अर्थ:-जम्बूद्वीपस्थ भरतादि सात क्षेत्रों में मूल और परिवार नदियों का सर्व योग १७६२०६० प्रमाण जानना चाहिये । अब कुण्डों का प्रमाण एवं शेष द्रोपों के भद्रशाल प्रावि का प्रमाण कहते हैं :-- गङ्गादिपातदेशेषु कुण्डान्येव चतुर्दश । विभंगाक्षुल्लकानिम्नगाश्च षट्सप्ततिः स्फुटम् ॥१५॥ भवशालसरिजम्बूवृक्षादयोऽखिला अमी। द्विगुणा धासकोखण्डे पुष्कराधैं भवन्ति च ॥१६॥ अर्थ:- जम्बुद्वीप में गंगादि चौदह महानदियों के पतन स्वरूप चौदह कुण्ड हैं, और बारह विभङ्गा एवं ६४ गंगादि छोटी नदियों के निकलने के (६४+१२) छिहत्तर (७६) कुण्ड हैं। इस प्रकार कुल १. कुण्ड हैं ॥१८८।। जम्बूद्वीप में भद्रशाल आदि वन, जम्बू प्रादि वृक्ष एवं नदियों आदि का जोजो प्रमाण कहा है, धातको खण्ड और पुष्करा द्वीप में वह सब प्रमाण दूना-दुना जानना चाहिये ।।१८।। अब प्राचार्य विदेहक्षेत्र के प्रति प्राशीर्वचन कहते हैं :-- पत्रोच्चः पदसिद्धये सुकृतिनोजन्माश्रयन्तेऽमरा, यस्मान्मुक्तिपदं प्रयास्तिसपसा केचिच्चनाकवतः। तीर्थेशा गणनायकाश्च गणिनः श्रीपाठकाः साधवः, सङ्काढयाविहरन्ति सोऽत्रजयतान्नित्यो विदेहो गुणः ॥१६॥ अर्थ:- जहाँ पर पुण्यशाली देव गण मोक्षपद की प्राप्ति के लिये जन्म लेते हैं । जहाँ से कितने ही भव्य जन समीचीन तप के द्वारा मोक्षपद प्राप्त करते हैं, कितने ही ब्रतों के द्वारा स्वर्ग प्राप्त करते हैं, तथा जहाँ पर तीर्थकर देव, गणधर देव, प्राचार्य, उपाध्याय और साधुगण संघ सहित विहार करते हैं, और जहाँ से रत्नत्रय प्रादि गुरगों के द्वारा देह से रहित होते हैं ऐसा वह विदेह क्षेत्र नित्य ही जयवन्त रहो ॥१०॥ अधिकारान्त मङ्गलाचरण :-- ये तीर्थेशाः सुराा जगति हितकराः सद्विदेहे च जाता, अस्माद्ये मोक्षमाप्ता हतविधिवपुषोज्ञानर पाश्च सिद्धाः । Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमोऽधिकारः श्राचार्याः पाठकाये गुणगणनिलयाः साधवः साधितार्था स्ते सर्वे सङ्गृहीना निजगुणगतये वन्चिताः सन्तुमेऽद्य ॥ १६१ ॥ [ २६५ इति श्रीसिद्धान्तसार दीपक महाग्रत्थे मट्टारक श्रीसकलकीर्ति विरचिते विदेहाऽखिलदेशादिवर्णनोनामाष्टमोध्याय ॥८॥ अर्थ:- विदेह क्षेत्र में उत्पन्न होने वाले, जगत का सर्वोपरि हित करने वाले और देवसमूह से ग्रचित तीर्थंकर देव, कर्म और शरीर को नाश करके मोक्ष प्राप्त करने वाले ज्ञानशरीरी सिद्ध परमेष्ठी, गुणसमूह के श्रालय श्राचार्य और उपाध्याय परमेष्ठी तथा मोक्ष प्राप्ति का साधन करने वाले समस्त निर्ग्रन्थ साधु जो कि आज मेरे द्वारा वन्दित हैं, वे सब मेरे निजगुणों की प्राप्ति के लिये हों । अर्थात् मुझे मोक्षगति प्राप्त करने में सहायक हों ॥। १६१ ।। इस प्रकार भट्टारक सकलकीति विरचित सिद्धान्तसारदीपक नाम महाग्रन्थ में विदेहक्षेत्रस्थ सम्पूर्ण देशों यादि का वर्णन करने वाला Raaf || Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमोऽधिकारः मङ्गलाचरणः-- प्रादिमध्यान्तसजातान तुर्षे काले जगद्वितान् । त्रिजगद्दीपकान बन्दे ज्ञानाय परमेष्ठिनः ।।१।। अर्थ:-चतुर्यकाल के आदि, मध्य और अन्त में उत्पन्न होने वाले, त्रैलोक्य का हित करने वाले और तीनों जगत को प्रकाशित करने के लिये दीपक के सदृश पञ्चपरमेष्ठियों के ज्ञान प्राप्ति के लिये नमस्कार करता हूँ ॥१॥ छह कालों का सामान्य वर्णन :--- मथ येऽत्र प्रवर्तन्ते कालाः षट् षट् पृथग्विधाः । उत्सपिण्यवपिण्यौ भरतरायतेषु च ॥२॥ एककमित्यरूपेण विवेहादिजगत्त्रये ।। वक्ष्ये तेषां पृथग्भूतं स्वरूपं वर्तनादिभिः ॥३॥ अर्श:-भरत एवं ऐरावत क्षेत्रों (के आर्य स्खण्डों) में उत्सपिरणी तथा अवसर्पिणी काल सम्बन्धी भिन्न-भिन्न छह-छह कालों का वर्तन होता है, और विदेह आदि तीनों लोकों में अवस्थित रूप से एकएक काल का वर्तन होता है । अब यहाँ मैं वर्ननादि के द्वारा उनका भिन्न-भिन्न स्वरूप कहूँगा ।।२-३।। प्रम प्रथम काल का सामान्य वर्णन करते हैं :-- अमीषां प्रथमः कालः सुषमासुषमाह्वयः। सुखाकरोऽवसपिण्यामुत्कृष्टभोगभूमिवत् ।।४।। सागराणां चतुःकोटि कोटिप्रमाण उत्तमः।। तस्यादौ तपनोयाभास्त्रिपल्योपमजीविताः ॥५॥ कोशत्रयोन्नता आर्या वदरीफलमात्रकम् । भुञ्जना विष्यमाहारं गते दिनत्रये सति ।।६।। उस्कृष्टपात्रदानोत्थोत्कृष्टपुण्येन सन्ततम् ।। भुञ्जन्त्युत्कृष्टसद्भोगान् दशांगकल्पवृक्षजान् ॥१७॥ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमोऽधिकारः [ २६७ अर्थ:-सी काल के इन छह कालों में से सुख के आकर स्वरूप प्रथम काल का नाम सुषमासुषमा है, जहां की रचना उत्कृष्ट भोगभूमि के सहश होती है ||४|| इस काल का प्रमाण चार कड़ा सागरोपम (४०००००००००००००० सागर ) होता है । इस काल के आदि में जीवों की आयु का प्रमाण तीन पल्योगम, शरीर की कान्ति तपाये हुए स्वर्ण के सदृश और ऊँचाई तीन कोश (छह हजार वनुष) प्रमाण होती है । 'आर्य' इस नाम को धारण करने वाले मनुष्य तीन दिन बाद बदरीफल प्रमाण दिव्य आहार का भोजन करते हैं ।।५-६ ।। उत्तम पात्रदान के फल से उत्पन्न उत्कृष्ट पुण्य के द्वारा यहाँ उत्पन्न होने वाले जीव दश प्रकार के कल्पवृक्षों से है उत्पत्ति जिनको ऐसे उत्कृष्ट भोगों को निरन्तर भोगते हैं ||७|| ܩܝܫܝܫ: अब दशप्रकार के कल्पवृक्षों का वर्णन करते हैं : मद्याद्यविभूषास्त्रग्दीपज्योतिगृहाङ्गकाः । भोजनाङ्गास्तथा भाजनवस्त्राङ्गा दशेत्यमी ॥८॥ मांगा वितरन्येषां ततामोदान् रसोत्कटान् । सारान् सुधोपमान् कामोद्दीपकान् मद्यवत्तराम् ॥६॥ भेरीपटहखादीन्नाना वाद्यान् फलन्ति च । वाद्याङ्गागीतनृत्यादौ वीणामृदंग-भल्लरीः ॥१०॥ स्वर्णरत्नमयान् दीप्तान् दिव्यांश्च भूषरगांगकाः । हारकुण्डलकेयूरमुकुटादीन् ददत्वलम् ॥११॥ जो नानाविधादिव्याः सर्वतु कुसुमांकिताः स्तुवन्ते भोगसौख्यायार्याणां सदा त्रगंगकाः ॥ १२ ॥ ध्वस्तध्वान्ताश्च दीपांगाम रिणदीपविभान्त्यलं । ज्योतिरंगा महोद्योतमातन्वन्ति स्फुरद्र ुचः ॥१३॥ तु सौस भागेहमण्डवादीन् गृहांगकाः । चित्र नर्तनशालाश्च विधातु सर्वदा क्षमाः ॥ १४ ॥ अन्नादिचतुराहारानमृतस्थावुदायिनः । festive षड्रसान् पुण्याद् भोजनांगा ददस्य हो ।। १५१। हेमस्थलानि भृंगारान् चषकान् करकादिकान् । भाजनांगा दिशन्त्याविर्भवच्छाग्र सत्फलाः ॥१६॥ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ ] सिद्धान्तसार दीपक मृदुसूक्ष्मारिणवस्त्राणि पट्टकूलानि संततम् । वितरन्ति च वस्त्रांगाः प्रावारपरिधानकान् ।।१७॥ न वनस्पतयोऽौते नापिदेवरधिष्ठिताः । फेवलं पृथिवीसारमया निसर्गसुन्दराः ॥१८॥ अनादिनिधनाः फल्पद्रुमाः सत्पात्रदानतः । संकल्पितमहाभोगान् दशमेवांश्च्युतोपमान् ॥१९॥ फलन्ति बानिनां प्रोत्यै यथते पादपा भुयि । सर्वरत्नमयं दीप्रं भात्या भूतलं परम् ॥२०॥ - : काल में गवांग पानांग, पांधांग, भूषणग, मालांग, दीपांग, ज्योतिरंग, गृहांग, भोजनांग, भाजनांग और वस्त्रांग ये दश प्रकार के कल्पवृक्ष होते हैं । इनमें से मद्यांग नाम के कल्पवृक्ष प्रमोद बढ़ाने वाले, मद्य के समान कामोद्दीपक, अमृत की उपमा को धारण करने वाले और श्रेष्ठ ( वीर्यवर्धक ) ( ३२ प्रकार के ) उत्कृष्ट रसों को देते हैं ।।८.६|| वाद्यांग कल्प वृक्ष, भेरी, पदहा शल प्रादि लथा गीत नत्य आदि के उपयोग में आने वाले वीणा, मृदंग और भल्लरी श्रादि वाद्यों को देते हैं ||१०|| भूषणांग कल्पवृक्ष स्वर्ण और रत्नमय देदीप्यमान् हार, कुण्डल, केयूर और मुकुट आदि दिव्य प्राभूषण देते हैं ।।११।। स्रगंगकल्पवृक्ष वहाँ के प्रार्य मनुष्यों के भोग और सुख के लिये सर्व ऋतुमों के फूलों से बनी हुई नाना प्रकार की दिव्य मालाएँ देते हैं ॥१२॥ दीपांग कल्पवृक्ष मरिंगमय दीपों के द्वारा अन्धकार को नष्ट करते हुए सुशोभित होते हैं। ज्योतिरंग कल्पवृक्ष देदोग्यमान ज्योति से महान प्रकाश फैलाते हैं ।।१३।। गृहांग वृक्ष निरन्तर ऊँचे-ऊँचे प्रासाद. सभागृह, मण्डप ग्रादि तथा चित्र शालाएँ और नृत्य आदि शालाएँ देने में समर्थ हैं ।।१४॥ भोजनांग कल्पवृक्ष पुण्य के प्रभाव से अन्न, पान, खाद्य और लेह्य यह चार प्रकार का अमृततुल्य, उत्तम स्वाद देने वाला, छह रसों से युक्त और दिव्य आहार देते हैं ।।१५। भाजनांग कल्पवृक्षों को शाखानों के अग्रभाग पर स्वर्णमय थालियाँ, भुंगार, कटोरा और करक ( जलपात्र ) प्रादि प्रगट होते हैं ॥१६|| वस्त्रांग कल्पवृक्ष निरन्तर मृदु एवं बारीक रेशम आदि के वस्त्र और धोतो दुपट्टा तथा अभ्यंतर में पहिनने योग्य वस्त्रों को देते हैं ॥१७|| ये दशों प्रकार के कल्पवृक्ष न वनस्पतिकाय हैं और न देवों के द्वारा अधिष्ठित हैं, ये तो केवल पृथ्वी के सारमय, स्वाभाविक सुन्दर और अनादिनिधन हैं। सत्पात्र दान के प्रभाव से उपमा रहित ये कल्पवृक्ष मनोवांछित उत्तम भोगों को देते हैं। पृथ्वी पर जैसे अन्य वृक्ष फल देते हैं उसी प्रकार दानियों के फल प्राप्ति के लिए ये वृक्ष फलते हैं, यहां की सर्व रत्नमय चमकती हुई उत्कृष्ट भूमि अत्यन्त सुशोभित होती है ॥१६-२०।। Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमोऽधिकारः २६६ भोगभूमि का अवशेष वर्णन :--- मृगाश्चरन्ति तत्रात्या मृदुस्वादुतृणान्यपि । अशुगुमाननि रसायनरमायया ॥२१॥ न तशातपजा बाधा शोतो वृष्टिर्न जातुचित् । ऋतवो नाप्यहोरात्र किञ्चिन्नाशर्मकारणम् ॥२२॥ अर्थः-वहाँ पर मृदु और सुस्वादु चार अंगुल प्रमाण तृप उत्पन्न होता है जिसे मृग रसायन के स्वाद की वाञ्छा से चरते हैं ॥२१ ।। वहाँ पर न गर्मी जन्य बाधा होती है, न कभी शीत जन्य, न वर्षा जन्य और न कभी ऋतुनों के परिवर्तन जन्य बाधा होती है। उन्हें रात्रि दिन में दुःख के कारण किञ्चित् भी प्रार नहीं होते ॥२१-२२।। अब भोगमूमिज जीवों की उत्पत्ति एवं वृद्धि प्रादि का वर्णन करते हैं :-- सद्यो जातार्यबालानां दिनसप्तासमुद्रसम् । भवेदुत्तानशय्यायामंगुल्याहार उत्तमः ॥२३॥ ततः सप्तदिनान्येषां धरिणोरङ्गरिङ्गिणाम् । दम्पतीनां मनोज्ञः स्यात्किञ्चिदवृद्धया देशान्तरः ।।२४।। सप्ताहेनापरेगते प्रोत्थाय कलभाषिणः । सञ्चरन्ति स्वयं भूमौ स्खलगति सहेलया ॥२५॥ पुनः स्थिरपदन्यासनजन्ति दिनसप्तकम् । सप्ताहं निर्विशंत्युच्चैः कलाज्ञानादिसद्गुणैः ॥२६॥ अन्यैः सप्तविनस्ते स्युः सम्पूर्णनवयौवनाः । दिव्यांशुक सुभूषाढयाः स्त्रीनरा भोगभागिनः ॥२७॥ स्थित्वातिनिर्मले गर्भे नवमासान् स्त्रियःशुभान् । एत्य दम्पतितामत्रोत्पद्यन्ते दानिनो नराः ॥२८॥ यदा दम्पति सम्भूतिस्तदा मृत्युः स्फुटं भवेत् । जनयित्रोस्ततोऽमोषां संकल्पो न सुतादिजः ।।२६।। अर्थः-तत्काल उत्पन्न हुए आर्य बालकों का सात दिन पर्यन्त शय्या पर सीधे सोते हुए अंगुली में स्थित उत्कट एवं उत्तम रस का प्राहार होता है ॥२३॥ इसके पश्चात सात दिन पर्यन्त पृथ्वी पर रेंगते हुए वे प्रति मनोज स्त्री पुरुष किञ्चित् बुद्धि के द्वारा अन्य दशा को प्राप्त होते हैं । अर्थात् कुछ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० ] सिद्धान्तसार दीपक बड़े हो जाते हैं ।।२४॥ अन्य सात दिनों में वे उठ कर सुन्दर वचन बोलते हैं और स्वयं अपनी इच्छा से क्रीड़ा करते हुए अस्थिर गति से भूमि पर चलते हैं ॥२५।। पुनः सात दिन पर्यन्त स्थिर पर रखते हुए चलते हैं, और अन्य सात दिनों में वे ज्ञान कला आदि सद्गुणों के द्वारा परिपूर्ण हो जाते हैं ॥२६॥ अन्य सात दिनों के द्वारा दिव्य वस्त्राभूषणों से युक्त और अखण्ड भोग-भोगने वाले वे स्त्री पुरुष सम्पूर्ण नव योवन सम्पन्न हो जाते हैं ॥२७॥ दानी मनुष्य शुभ योग से भोगभूमिज स्त्रियों के अत्यन्त निर्मल गर्भ में नौ मास स्थित रह कर उत्पन्न होते हैं और पश्चात् वे ही दम्पतिपने को प्राप्त हो जाते हैं ।।२८॥ जब नवीन दम्पति उत्पन्न होते हैं तभी उत्पन्न करने वाले दम्पति मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं, इसीलिए माता पिता पुत्रादि की उत्पत्ति के सुख से रहित होते हैं । अर्थात् ये पुत्र पुत्री हैं इस संकल्प से रहित होते हैं ॥२६॥ अब भोगभूमिज जीवों को अन्य विशेषताएं कहते हैं : प्राजन्ममरणान्तं नार्याणां रोगो मनाक् क्यचित् । न चेष्टादिवियोगो नानिष्टसंयोगशोचनम् ॥३०॥ न चिन्ता दीनता नैव नाप्युन्मेषनिमेषणम् । न निद्रा नातितन्द्रा नो लाला स्वेवोद्भवो न च ॥३१॥ मलं मूत्रन शारीरं कामभोगे न खण्डता । विरहो नाशुभोन्मादो नेपा न च पराभवः ॥३२॥ विषादो न मयं ग्लानि च किञ्चिद विरूपकम् । मन्यस् वा जायते दुःखहेतुः स्वप्नेऽपि भोगिनाम् ॥३३॥ आदि संहनना आदि संस्थाना दिव्यरूपिणः । समभोगोपभोगास्ते सबै मन्दकषायिणः ॥३४॥ स्वभावसुन्दराकाराः स्वभावसौम्पमूर्तयः । स्वमावमधुरालापाः स्वभावगुणभूषिताः ॥३५॥ अर्थ:-भोगभूमिज मनुष्यों के जन्म से मरण पर्यन्त न कभी किंचित् भी रोग होता है. न इष्ट आदि का वियोग, न अनिष्ट आदि का संयोग और न शोच आदि होता है. न चिन्ता है, न देन्यता है और न नेत्रों का उन्मेषनिमेष अर्थात् पलकों का झपकना है । न अति निद्रा है, न अति तन्द्रा, न मुख से लार और न शरीर से पसीना की उद्भूति होती है, शरीर सम्बन्धी मलमूत्र भी नहीं होता, और नकाम भोग में कभी खंडता आती है, न कभी विरह होता है, न अशुभ उन्माद होता है, न ईर्षा भाव है, न पराभव है, न विषाद है, न भय है, न ग्लानि है, और न शरीर आदि में किञ्चित् भी विरूपता होती है। उन भोगी जीवों के स्वप्न में भी अन्य कोई दुःख के कारण उत्पन्न नहीं होते ॥३०-३३।। वे सर्व भोगभूमिज जीव Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमोऽधिकार: [ २७१ प्रथम (बर्षभवचनाराच) संहनन और प्रथम समचतुरस्त्र संस्थान से युक्त, दिव्य रूप सम्पन्न, मन्दकषायो एवं समान भोग उपभोग वाले होते हैं। वे स्वभावतः सुन्दर आकार वाले, स्वभावतः सौम्य मूर्ति, स्वभावतः मधुर भाषी और स्वभावतः अनेक गुण विभूषित होते हैं ॥३४-३५।। दाता और पात्रदान के भेद से फल में भेव होता है, यह बताते हैं :--- हाथों विस्वभावारले सत्पात्रवानपुण्यतः । दशयाकल्पवृक्षोत्थान भोगान् भुञ्जन्त्यहनिशम् ॥३६॥ भद्रकाः पात्रदानेन केचि दानानुमोदतः । स्त्रीनरा चात्र तिर्यञ्चो जायन्ते भोगभागिनः ॥३७॥ अवता दृष्टिहीनाश्च कुपात्रदानतो मृगाः । उत्पद्यन्तेऽपशर्माणो युग्मरूपेण भद्रकाः ॥३८॥ अर्थ:--सत्पात्रदान के पुण्य से जीव भोग भूमि में आर्य और प्रार्या भाव से उत्पन्न होकर प्रहनिश दश प्रकार के कल्पवृक्षों से उत्पन्न भौगों को भोगते हैं ।।३६।। कुटिलता रहित भद्र परिणामी कोई जीव पात्रदान के फल से और कोई दान की अनुमोदना से वहाँ पर भोग भोगने वाले स्त्री, पुरूष और तिर्यञ्च होते हैं ।। ३७॥ व्रत रहित और सम्यक्त्व रहित कोई जीव कुपात्रों को दान देते हैं, और उसके फल स्वरूप भोगभूमि में अल्पसुत्र से युक्त, युगल रूप से भद्र परिणामी मग प्रादि पर्यायों में उत्पन्न होते हैं ॥३८॥ प्रब भोगभूमिज जोधों के मरण का कारण और प्राप्त होने वाली गति कहते हैं: प्रायुषोऽन्ते विमुच्यासून् क्षुता जुम्भकया ततः । प्रार्याः स्त्रियो दिवं यान्त्यार्जव मावेन नान्यथा ॥३६॥ अर्थ:-प्रायु के अन्त में पुरुष और स्त्री क्रमश: छोंक एवं जम्भाई के द्वारा प्राणों को मोड कर पार्जव { सरल ) भात्रों के कारण स्वर्ग हो जाते हैं, अन्य गतियों में नहीं जाते ॥३६॥ अब द्वितीय और तृतीय कालों का संक्षिप्त वर्णन करते हैं :-- ततः कालो द्वितीयोऽस्ति सुषमाख्यः सुखाद्धितः । त्रिकोटीकोटिवाराशिप्रमो मध्यमभोगकृत् ।।४०॥ तस्यादौ पूर्णचन्द्राभा द्विकोशोमध सुविग्रहाः । द्विपल्पाखण्डितायुका प्रक्षमानॉनभोजिनः ।।४।। Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ ] सिद्धान्तसार दीपक दिनद्वये गते मध्यमपात्रदानजाच्छमात् । भोगान् दशविधानार्या भजन्ति कल्पवृक्षजान् ॥४२॥ अन्यत्सर्व समान स्यादत्राद्यकालवर्तनः । ततस्तृतीयकालोऽस्ति सुषमादुःषमाभिधः ॥४३॥ जघन्यभोगमयुक्त प्राधसौख्यान्तदुःखधत् । द्विकोटीकोटिपूर्णाधिस्थितिः कल्प माश्रितः ॥४४॥ अस्यादौ मानवाः सन्ति पल्यै काखण्डजीविनः । प्रियंगुश्यामवर्णाङ्गाः क्रोशकोन्नतथिग्रहाः ॥४॥ दिनान्तरेण सौख्यायामलकाभान्नभोगिनः । कृत्स्नमन्यत्समानं स्यात्प्रागुक्तकालवर्तनः ।।४६॥ कालत्रयोद्भवार्याणां सहसा स्वायुषः क्षये । दिव्याङ्गानि विलीयन्ते यथाभ्रपटलानि च ॥४७॥ अर्थ :-प्रथमकाल के बाद सुखों से युक्त सुखमा नाम का दूसरा काल पाता है, इसमें मध्यम भोगभूमि की रचना होती है और इसका प्रमाण तीन कोड़ाकोड़ी (३००००००००००००००) सागरोपम होता है ॥४०॥ द्वितीय काल के प्रारम्भ में मनुष्यों के शरीर की प्रभा पूर्ण चन्द्रमा के सदृश और ऊंचाई दो कोश प्रमाण होती है । ये दो पल्य प्रमाग अम्बण्डित प्रायु से युक्त और दो दिन बाद प्रक्ष (हरड़) फल प्रमाण अन्न का भोजन करने वाले होते हैं। मध्यम पात्रदान से उत्पन्न पुण्य फल के प्रभाव से ये प्रायं दशप्रकार के कल्पवृक्षों से उत्पन्न भोगों को भोगते हैं ॥४१-४२।। अन्य और सर्व वर्णन प्रथम काल के वर्तन के सदृश ही होता है । इसके बाद सुखमादुःखमा नाम का वृतीय काल पाता है । इसकी रचना जघन्य भोगभूमि के सदृश होती है और इस काल के प्रारम्भ में सुख तथा अन्त में दुःख होता है । इस काल की स्थिति दो कोटाकोटी ( २००००००००००००००) सागरोपम प्रमाण होती है, तथा इस काल के प्रारम्भ में मनुष्य कल्पवृक्षों के पाश्रय से अखण्डित एक पल्प पर्यन्त जीवित रहते हैं। मनुष्यों के शरीर की प्राभा प्रियंगुमणि सच्श हरित और श्याम वर्ण होती है, ऊँचाई एक कोस प्रमाण होती है। ये एक दिन के अन्तर से सुख प्राप्ति के लिए प्रोवबे के बराबर भोजन करते हैं । इस काल का अन्य और समस्त बर्तन पहिले कहे हुए प्रथम काल के वर्तन के सा ही होता है। ॥४३-४६॥ तीनों कालों में उत्पन्न होने वाले आर्यों (जीवों) के दिव्य शरीर अपनी अपनी आयु पूर्ण हो जाने पर सहसा अभपटल ( मेघों के समूह के ) सदृश विलीन हो जाते हैं ।।४७।। Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्रमोऽधिकारः [ २७३ अब कुलकरों की उत्पत्ति के समय का वर्णन करके सर्व प्रथम प्रतिश्रुत और सम्मति इन दो कुलकरों का सम्पूर्ण वर्णन करते हैं :-- यदा तृतीयकालस्यान्तिमे पल्याष्टमे क्रमात् । अवशिष्टे स्थिते भागेऽत्रमे कुलकरास्तवा ।।४८।। प्रार्याणां हितकर्सारी जाता दक्षाश्चतुदंश । बभूव प्रथमस्तेषां प्रतिश्रुत्यभिधानकः ॥४६।। स्वयंप्रभापति(मान हेमवर्णोऽतिरूपवान् । अष्टादशशतानां च धनुषामुच्चविग्रहः ॥५०॥ पन्यस्य दशभागानामेकभागस्वजीवितः । तत्काल ज्योतिरामा ब्युच्छित्तीति भास्वरी ॥५१॥ प्रादुर्बमूवतुश्चन्द्रादित्यौ से दर्शनात्तयोः । प्रार्या भीता द्रुतं प्रापुः शरणं तं प्रतिश्रुतिम् ।।५२।। सोऽपि विद्वान् निरूप्याशु गिरा स्वरूपमञ्जसा । चनोदयकालानां तेषां भयमपाकरोत् ॥५३॥ "हा" नोश्यादान्नृणां शिक्षा तदनन्तरमेव हि । गते पल्योपमाशोत्येकभागेऽभून्महान्मनुः ।।५४॥ सन्मत्याख्यो द्वितीयोऽत्र भर्ता यशस्वतीस्त्रियः । प्रयोदशशतानां च चापानां तुङ्गहमाफ ।।५।। पल्यस्य शतभागानामेकभागायुजितः । स्वर्णवर्णस्तदा सर्व ज्योतिरङ्ग क्षयान्नभः ॥५६॥ प्रापूर्य ग्रहताराद्याः प्रादुरासन स्फुरत्प्रभाः। ते भीता दर्शनातषां जम्मुस्तं सन्मति विभुम् ॥५७।। भयनाशाय तेषां स इत्याख्यत्प्रवरं वचः । हे भद्रका ! ग्रहा एते ह्यमीतारादयः शुभाः ॥१८॥ ज्योतिश्चक्रेण वोऽनेन किन्चिन्नास्तिभयादिकम् । कित्वद्यप्रभृति ज्योतिष्कवर्तते दिनं निशा ॥५६।। इति तचनात्प्रीतास्तं स्तुत्वाऽगुनिजास्पदम् । क्वचित् तान् कृतदोषान स हा नीत्यातर्जयेत्सुधीः ॥६०॥ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ ] सिद्धान्तसार दोपक ___अर्थ:-जब तृतीयकाल के अन्त में पल्य का पाठवा भाग अवशेष रहता है तब यहाँ सार्यों का हित वारने में प्रवीग ऐसे दौदह कुलकर क्रम से उत्पन्न होते हैं। उनमें से प्रथम कुलकर प्रतियुति नाम के हुए। जिनकी पत्नी का नाम स्वयं प्रभा था। जो हेमवर्ण की प्राभा से युक्त अति रूपवान् एवं बुद्धिमान थे। उनके वरोर की ऊँचाई १८०० धनुष और प्राय का प्रमाण पल्प को दश भागों में से एक भाग ( पल्य ) प्रमाएरा थी । तत्काल ही अर्थात् पल्य का आठवाँ भाग अवशेष रहने पर ज्योतिरंग कल्पवृक्षों की कान्ति नष्ट हो जाने पर प्राकाश में ( प्राषाढ़ी पूर्णिमा के दिन ) सूर्य और चन्द्र का प्रादुर्भाव होता है, उन रवि शशि के दर्शन से भयभीत हुए वे सब आर्य और प्रार्या शीघ्र ही प्रतिश्रुति कुलकर को शरण में पहुंचते हैं, तब वे बुद्धिमान् प्रतिश्च ति कुलकर शीघ्र ही अपने प्रिय वचनों द्वारा सूर्य चन्द्र के उदय काल आदि के स्वरूप का वर्णन करके उनका भय दूर करते हैं ।।४८-५३॥ उसी समय ही उन्होंने मनुष्यों को "हा" इस दण्ड नीति की शिक्षा दी थी। अर्थात् अपराध करने वाले मनुष्यों को 'हा' इस प्रकार के दण्ड का स्थापन किया था। इसके बाद अर्थात् इस कुलकर की मृत्यु के बाद पल्योपम के अस्सी भाग समाप्त हो चुकने पर यशस्वति स्त्री के स्वामी सन्मति नाम के द्वितीय महामनु यहाँ उत्पन्न हुए। इनके शरीर की ऊँचाई १३०० धनुष, प्रायु पल्य के सौ भागों में से एक भाग ( पल्य ) प्रमाण और शरीर को कान्ति स्त्रर्ण सदृश थी। सर्व ज्योतिरंग कल्प वृक्षों के क्षय हो जाने से चमकती हुई प्रभा से युक्त प्रगट होते हुए ग्रहों एवं तारागणों ने आकाश मण्डल को आपुर्ण कर दिया अर्थात् भर दिया, जिसके दर्शन से भयभीत हुए लोक जन सन्मति प्रभु की शरण को प्राप्त हुए । उनके भय को नाश करने के लिए वे इस प्रकार श्रेष्ठ वचन बोले कि हे भद्र जनो ! ये ग्रह हैं, और ये शुभ तारा गण आदि हैं। इस ज्योतिष चक्र से आप लोगों को किंचित् भी भय नहीं करना चाहिए, क्योंकि अब इन्हीं ज्योतिष देवों के द्वारा आप लोगों को दिन और रात्रि के भेद का ज्ञान होगा । इस प्रकार मनु के वचनों से सन्तोष को प्राप्त होकर तथा उनको स्तुति करके वे सब अपने अपने स्थान को चले गये। दोष करने वाले लोगों को वे उत्तम बुद्धि के धारक सन्मति मनु 'हा' इसो दण्ड नीति में तर्जन करते थे ॥५४-६०।। अब क्षेमकर आदि तीन कुलकरों को प्रायु आदि का तथा उनके कार्यों का । वर्णन करते हैं :-- ततोऽष्टशतभागानां पल्यस्यातिक्रमे सति । एकभागे भनुर्जज्ञे क्षेमकरो विशारदः ॥६१॥ सुनन्दायाः स्त्रियोभाप्रोद्यमी काञ्चनच्छविः । शताष्टधनुरुत्तुङ्ग एकभामायुस्त्तमः ॥६२॥ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमोऽधिकार। [ २७५ पन्यस्य कृतभागानां सहस्रसंखयया तवा । तत्रत्याः भद्रकाः प्रापुः क्रूरता कालतो मृगाः ।।६३॥ तद् बाधामक्षमाः सोमार्याः क्षेमकरं भवात् । प्राश्रित्याशु स्ववाधानाशायेदं सहचोऽवदन ॥६४॥ प्रभो ! ये प्रारमृगा भद्रा अस्माभिर्लालिताः करैः। प्रधुला रतां TA नल्याग नखादिभिः ॥६॥ तान प्रत्याह मनुश्चेत्थमेतेऽहो कालदोषतः । सहसा परिहर्तव्या अन्तरे विकृति गताः ॥६६॥ भवद्भिर्नाद्य विश्वासः कर्तव्यः क्रूरजन्मनाम् । एतान स्वक्षेमशिक्षादोन श्रुत्वा ते तत्स्तवं व्यधुः ॥६७॥ प्रीतः सोपि प्रजानां स्वहाकारदण्डमादिशेत् । पुनभगि गते पन्याष्टसहस्र कमानके ॥६८।। धीमान कुलकरोऽत्रासीत क्षेमन्धरः सक्षेमकृत । विमलाभामिनीकान्तः कनकाञ्चनमागमृत् ॥६६॥ तस्योन्नतिश्च दण्डाना पानाष्टशतप्रमा। पल्यस्य दशसहस्र कभागाभङ्गजीवितम् ॥७॥ तवाति क्रूरताप्तेभ्यो मृगादिभ्यः स धीरधीः । यष्ट्यादिताडनस्तासां बाधा न्यवारयद तम् ॥७॥ प्रजानां कृतदोषाणां सोऽपि हाकारदण्डभृत् । पल्याशीतिसहस्र कभागे गते ततोऽभवत् ॥७२॥ मनः सीमधेरो ज्ञानी पतिर्मनोहरीस्त्रियः। सार्धसप्तशतश्चापरुन्नतः कनकप्रभः ॥७३॥ पल्यलक्षकभागायुहोकारवण्डदायकः । कल्पवृक्षा यदा चासन् विरला मन्दकाः फलैः ॥७४॥ तदार्याणां विसम्वावस्तत्कृतोऽभूत् परस्परम् । ततः सीमावधि तेषां स स्पधात् क्षेमवृत्तये ॥७॥ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ ] सिद्धान्तसार बोषक अर्थ. -- इसके बाद पल्य के ८०० भाग व्यतीत हो जाने पर एक भाग में क्षेमङ्कर नाम के प्रति निपुण मनु हुए, जो सुनन्दा स्त्री के स्वामी, उद्यमवान् और स्वर्णाभा के सह सुन्दर शरीर के धारक थे। इनके शरीर की ऊँचाई ८०० धनुष और श्रायु का प्रमाण पल्य के एक हजार भागों में से एक भाग ( ब००- पल्य ) था । इन्हीं मनु के जीवन काल में वहां रहने वाले मृग, शेर आदि काल दोष के प्रभाव से क्रूरता को प्राप्त हो गये तब उनकी बाधा को सहन करने में असमर्थ होते हुए प्रायें जन भय से शीघ्र ही क्षेमंकर के समीप जाकर अपनी बाबा नाश करने के लिये इस प्रकार उत्तम वचन बोलेहे प्रभो ! ये मृग, सिंह यादि पहिले भद्र परिणामी थे और हम लोगों के हाथों से इनका लालन पालन किया गया है, किन्तु श्राम ये क्रूरता को प्राप्त होकर हमें अपने नाखूनों से मारते हैं ।। ६२-६५ ।। उन आर्य जनों को प्रति उत्तर देते हुए मनु बोले- कि काल दोष के प्रभाव से इनके मनों में विकार उत्पन्न हो गया है, अतः इनको शीघ्र ही छोड़ देना चाहिए। ग्राम लोगों को अब इनका विश्वास नहीं करना ' चाहिए। इस प्रकार अपने कल्याण की शिक्षा आदि को सुनकर उन्होंने मनु को बहुत स्तुति। की ।।६६-६७११। - ८००० प्रजाजनों को प्रीति ( कल्याण ) के लिए उन्होंने भी "हा" दण्ड नीति का ही आदेश दिया। पुनः पल्य के आठ हजार ( ) प्रमाण भाग व्यतोस हो जाने पर अत्यन्त करुयारण करने वाले, बुद्धिमान् मन्धर नाम के कुलकर उत्पन्न हुए, जो विमला महादेवों के स्वामी और स्वर्ण सदृश आभा को धारण करने वाले थे ।। ६८-६६।। उनके शरीर की ऊँचाई ७७५ धनुष और श्रापत्य के दश हजार भागों में से एक भाग (पत्य) प्रमाण थी ॥७०॥ उस समय मृगादि पशु अत्यन्त क्रूरता को प्राप्त हो गये थे, अतः उन उत्तम बुद्धि को धारण करने वाले मनु ने लकड़ी प्रादि के द्वारा ताड़न आदि करने की शिक्षा देकर शीघ्र ही उनकी बाधा को दूर किया ||७१|| प्रजा के द्वारा किये हुए दोषों पर उन्होंने भी "हा" इस दण्ड नीति का प्रयोग किया। पल्य के अस्सी हजार भाग व्यतीत हो जाने के बाद मनोहारी स्त्री के प्रत्यन्त विद्वान पति सोमङ्कर नाम के मनु हुए। जिनके शरीर की ऊँचाई ७५० धनुष और कान्ति स्वर्ण के सदृश श्री ।।७२-७३ ॥ इनकी ग्रायु एल्य के एक लाख भागों में से एक भाग (पल्य ) प्रमाण थीं, तथा ये भी 'हा' दण्ड नीति का हो प्रयोग करते थे । आपके समय में जब कल्पवृक्ष विरले और मन्द फल देने वाले हो गये तब ग्रार्य जन परस्पर में बिसम्वाद करने लगे, उस समय आपने 'प्रजा के कल्याण के लिये उनकी यलग सोमा बांध दी थी ।।७४-७५।। श्रम सीमत्थर ग्रादि चार कुलकरों के स्वरूप एवं कार्यों का वर्णन करते हैं :-- ततः पल्माष्टलक्षक भागे गतेऽभवन्मनुः । सीमन्धरोऽङ्गहेमाभोऽत्र यशोधारिणीप्रियः ॥ ७६ ॥ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ raasaar दशकः । शतप्रमैश्चापैः पञ्चविंशति संयुतेः ॥७७॥ हा-मा-नीतिकरस्तस्मिन् कालेऽतिविरलाः स्वयम् । जाताः कल्पद्र ुमा मन्दफलावच कालहानितः ॥ ७८ ॥ तत्कारणस्तदाऽमोषां विसम्वादः परोऽजनि । ततो गुल्मादि चिह्नः स तेषां सीमांन्यधात् सुधीः ॥७६॥ पल्यस्याशीति लक्षभागे गते ततोऽभवत् । सुमतिस्त्रीप्रभुवंक्षो मनुर्विमलवाहनः ||८०|| स्वर्णकान्तिर्महाँस्तुङ्गः शतसप्तशरासनः । पन्थकोटय कभागामु-मा-नीतिकृतोद्यमः ॥८१॥ - प्रकारयत्प्रजानां तदांकुशाद्यायुधैर्बुधः । श्रारोहणं गजादीनामुपरि स्फुटमञ्जसा ॥८२॥ पुनः पल्याष्टकोट क मागे गतेऽभवत्सुधीः । चक्षुष्मान कुलकर्तात्र धारिणीप्रिय उन्नतः ॥८३॥ दण्डैः षट्शतसंख्याः पञ्चसप्ततिसंश्रितैः । पत्यस्य दशकोट कभागजीव्यवधीक्षणः ॥ ८४ ॥ प्रियंगुवर्णदीप्राङ्गस्तवा सुनुवर्शनं । बभूवादृष्टपूर्वैश्चार्याणां भयं सुजीविनाम् ||६५|| तत् क्षणं स निवेद्य स्वपुत्रोत्पत्ति सुखाप्तये । सन्तान वृद्धिभूतां च तेषां निराकरोद्भयम् ||६६ ॥ तेनंष सार्थनामाभूद्धा-मा-नीतिप्रदोऽङ्गिनाम् । पल्यस्याशी तिकोटय कभागेऽतीते ततः शुभात् ॥६७॥ यशस्वी कुलकर्तासीत् कान्तिमालापतिर्बुधः । सार्धषट्तचाप पल्यस्थ शतकोटय कभागायुर्ज्ञानिलोचनः । प्रियंगुप्रभवाम् ॥८८ यशसा भूषितो वाग्मी: हा-मा-नीतिप्रवर्तकः ॥ ८६॥ तवासौ कारयामास पुत्रजातमहोत्सवम् । अनन्तरं प्रसूतस्तु पितृणां चिरजीविनाम् ॥६० [ २७७ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ ] सिद्धान्तसार दीपक ___ अर्थ:-इसके बाद पल्य के आठ लाख भाग व्यतीत हो जाने के बाद यहां पर हेम सदृश प्राभा को धारण करने वाले, यशोधारशी प्रिया के स्वामी सीमन्धर नाम के मनु उत्पन्न हुए थे ।।७६।। इनकी प्रायु पल्य के दशलाख भागों में से एक भाग ( Trana पल्य' ) प्रमाण एवं शरीर की ऊँचाई ७२५ धनुष प्रमाण थी॥७७! आपके द्वारा 'हा-मा' दण्डनीति निर्धारित की गई थी। इस समय में काल हानि के प्रभाव से कल्पवृक्ष अत्यन्त बिरले एवं अत्यन्त मन्द फल प्रदान करने वाले हो गये थे, इस कारण से प्रार्य जनों के परस्पर में बहुत कलह होने लगा था, तब अति निपुण मापने झाड़ी, डाली, झौंरा, गुच्छा एवं फल आदि चिह्नों के द्वारा उनकी सीमा बांध दी थी॥७५-७६। इसके बाद पल्य के अस्सी लाख भाग व्यतीत हो जाने पर सुमति महादेवी के स्वामी अत्यन्त निपुण विमलवाहन नाम के मनु उत्पन्न हुए ।।८०॥ इनके शरीर को कान्ति स्वर्ण के सदृश और ऊँचाई ७०० धनुष थी। प्रायु पल्य के एक करोड़ भागों में से एक भाग ( प पल्य ) प्रमाण थी। प्रारके द्वारा भी "हा-मा' नीति निर्धारित की गई थी।८१॥ इन्होंने प्रजा को अंकुश आदि आयुधों का धारण व प्रयोग करना तथा हाथी आदि पर चढ़ना (सवारी करना) बतलाया था ॥२॥ पश्चात् पल्य के पाठ करोड़ भाग व्यतीत हो जाने के बाद यहाँ पर धारिणी प्रिया के स्वामी महान कुलकर चक्षुष्मान हुए 1।८३॥ प्रापके शरीर की ऊँचाई ६७५ धनुष और कादि प्रियंमुपरिण के ला हरित नशा की भी। प्रायु का प्रमाण पल्य के दश करोड़ भागों में से एक भाग ( क पल्य ) प्रमाण था । अबधिज्ञान ही आपके नेत्र थे । अर्थात् पाप अवधिज्ञान से देखते थे । उस समय पूर्व में कभी नहीं देखे हुए अपने पुत्र के दर्शन से जीवित रहने वाले आर्य जनों को बहुत भय उत्पन्न हुआ, उसी क्षण फुलकर ने अपने पुत्र की उत्पत्ति सुख प्राप्ति के लिए होती है, ऐसा कह कर सन्तान वृद्धि से होने वाले उन जीवों के भय को दूर कर दिया ।।८४-८६।। सार्थक नाम को धारण करने वाले उन चक्षुष्मान् कुलकर के द्वारा भी प्रजाजनों को "हामा" का ही दण्ड दिया जाता था। इसके पश्चात् पल्य के प्रस्सी करोड़ भाग व्यतीत हो जाने पर कान्तिमाला के पति बुद्धिमान यशस्वी नाम के कुलकर उत्पन्न हुये। आपके शरीर की ऊँचाई ६५० धनुष और कान्ति प्रियंगु मरिंग के सदृश थी॥ ८७-८८ ।। पल्प के सौ करोड़ भागों में से एक भाग ( पल्य ) प्रमाण आयु थी। ज्ञान नेत्र एवं यश से विभूषित आपने भी "हा-मा ' दण्ड नीति का ही प्रवर्तन किया था॥८६॥ उस समय पुत्र उत्पत्ति के बाद माता पिता बहुत काल तक जीवित रहने लगे तब कुलकर ने पुत्र उत्पत्ति का महामहोत्सव करने का उपदेश दिया। अर्थात् पुत्र उत्पत्ति के बाद लोगों से महोत्सव करवाये ||६|| अब अभिचन्द्र और चन्द्राभ इन दो कुलकरों की उत्पत्ति प्रादि का एवं कार्यों का वर्णन करते हैं : Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमोऽधिकार : venteenrict कभागेऽतीते ततोऽभवत् । प्रभिचन्द्रो मनुर्ज्ञानी श्रीमतीकान्त जन्नतः ॥ ६१॥ पञ्चविंशतिसंयुक्तं चापः षट्शत सम्मितः । पल्यकोटिसहस्र कमागायुः कनकच्छविः ॥ ६२ ॥ चन्द्रादिदर्शने रात्रौ चिरजीविप्रजात्मनाम् । सुनोर्वोदय मुखं प्रोत्ये क्रीडनं वचसादिशत् ||६३॥ तेन तत्कृतनामासोद्धा -मा-नीतिविधि व्यधात् । पल्यस्याष्टसहस्रप्रमकोटचं कप्रमाणके ॥६४॥ गते नागेोऽभूचन्द्रामरचन्द्रवर्णवान् । प्रभावतीप्रियस्तुङ्गो दः षट्शतसंस्थः ॥६५॥ पत्यस्य दशसहस्रकोट 'कांशाहनजीवितः । प्रार्याणां कृलदोषाणां हा मा धिक्कारदण्डकृत् ॥ ६६ ॥ तवासौ स्वगिश दक्षः पितॄणां चिरजीविनाम् । व्यवहारं व्यधात् प्रीत्यं पितृपुत्रादिकल्पनः ॥६७॥ [ २७६ अर्थः- तत्पश्चात् पल्य के आठ सौ करोड़ भाग व्यतीत हो जाने के बाद श्रीमती कान्ता के पति ज्ञानवान् एवं श्रेष्ठ मनु अभिवन्द्र उत्पन्न हुए ॥ ६१ ॥ इनको ऊंचाई ६२५ धनुष, आयु पल्य के हजार करोड़ भागों में से एक भाग (पल्य ) प्रमाण एवं शरीर की कान्ति स्वर्णाभा सदृश थी ||२|| सार्थक नाम को धारण करने वाले इन कुलकर ने अपनी वाणी द्वारा बहुत काल तक जीवित रहने वाली अपनी प्रजा को रात्रि में चन्द्रमा श्रादि के दर्शन द्वारा अर्थात् अपने बालकों को चन्द्रमा दिखा दिखा कर प्रीति पूर्वक उनका मुख देख कर क्रीड़ा कराने ( रमाने) का उपदेश दिया ||२|| इनके द्वारा भी "हा मा" दण्ड नोति का ही विधान किया गया था। पश्चात् पल्य के श्राठ हजार करोड़ प्रमाण भाग बोल जाने पर यहां चन्द्रमा की कान्ति को धारण करने वाले प्रभावती प्रिया के स्वामी चन्द्राभ नाम के मनु हुए। इनके शरीर को ऊँचाई ६०० धनुष प्रमाण और भ्यु पत्य दश हजार करोड़ भागों में से एक भाग (पत्य ) प्रमाण थी। दोष करने वाले आर्यों को ये हा मा और धिक्कार का दण्ड देते थे ||६४-६६ ॥ उस समय आपने अपने वचनों द्वारा बहुत काल तक जीवित रहने वाले गाता पिता को पिता पुत्र आदि के सम्बन्ध की कल्पना द्वारा प्रीति पूर्वक व्यवहार करने का उपदेश दिया ॥६७॥ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० ] सिद्धान्तसार दोपक अब मरुदेव, प्रसेनजित और नाभिराय कुलकरों का वर्णन करते हैं : पल्याशीति सहस्त्रादि कोट्यक सम्मित गते । भागे ततो मा वो बभूवानुपमाप्रियः ॥६॥ पञ्चसप्ततिसंयुक्त धनुः पञ्चशतोन्नतः । पन्यस्य लक्षकोटच कभागायुः कनकद्युतिः ॥६॥ हा-मा-धिक्कारनीत्युक्तस्तत्काले वार्धयः स्वयम् । प्रादुरासंश्च नद्यौघा-मेघा-नानाविधाः शुभाः ॥१०॥ नद्यब्ध्युत्तरणे पोतनौ द्रोण्यादीन् ह्यकारयत् । प्रारोहणे स गिर्यादि सुधीः सोपानमालिकाः ॥१०१।। पल्याष्टलक्षकोटच कभागे व्यतिक्रमे ततः । प्रियंकान्ति सत्कायो जज्ञे मनः प्रसेनजित् ।।१०२॥ सुङ्गाः शरासनः साशतपश्चरबुधः । पल्यस्य दशलक्षादिकोट कभागजीवितः ।।१०३।। हा-मा-धिग्नीति दण्डोक्तस्तस्यामितगतिः पिता। वरकन्यकयासाधं विवाहं विधिना व्यधात् ।।१०४॥ फुलकृच्चक एबात्रोत्पन्नः स युगलं विना । तदा प्रभृति युग्मानामुत्पत्तौ नियमो गतः ॥१०५।। कालेऽस्पेव सुतोत्पत्तिर्जरायुपटलावृता । अभूत् तत् कर्षणस्नानान प्रजानां सोऽदिशगिरा ॥१०६।। पल्पस्याशीति लक्षादिकोटथे कप्रमिते पते । भागे ततोऽभवत्पुण्यान् नाभिः कुलकरोऽद्भुतः ।।१०७|| मरुदेषोप्रियो विद्वान हेमकान्तिः सुराचितः । पंचविंशतिसंयुक्त धनः पंचशतोच्छ्रिनः ॥१०८।। पूर्वकोटिप्रमायुरुको हा-मा-धिग्नोतिकारकः । काले तस्य सुतोत्पत्ति भिनालयुतानि ।।१०६।। तत्कर्तनं स पित्रीणां सुखाय विधिनादिशत् । ततोऽसौ सार्थकं स्वस्थ नाम प्रापप्रजोदितम् ।।११०॥ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमोऽधिकारः [२८१ तस्मिन् काले मभो व्याप्य तडिवम्बरगर्जनः । साधं मुहुर्महावृष्टोर्मेघाधारावजऱ्याधुः ॥१११॥ तदा शनैः शनैर्भूषु सर्वतो विरलं स्वयम् । वृद्धान्यासंश्च सस्यानि पूर्णपक्वान्यनेकशः ॥११२॥ षाष्टिकाः कलमनोहियवगोधूम कङ्गवः । श्यामाक कोद्रवोद्दालनीबारवरकास्तथा ॥११३॥ तिलालस्यौमसूराश्च सर्षपा धान्य जोरकाः । माषमुगाढकीराजमाषां निष्पावकाश्चणाः ॥११४॥ कुजस्थास्त्रिपुटा धान्यभेदा एते तदाभवन् । कसम्भाद्याश्च कसाः प्रजाजीवनकारिणः ॥११॥ सामस्त्येन तदा जम्मुव्यु च्छित्ति कल्पशाखिनः । महत्याहारसंज्ञासीत् तेषां सर्वाङ्गशोषिणी ।।११६।। सयान्तराकुलीभूताः प्रजाः भुवदनाक्षताः । नाभिमस्येत्य नत्वेति प्रोचुर्दोनगिरा बुधाः ॥११७।। स्थामिन् कल्प मा विश्वेयास्मरपुण्यक्षयात् क्षयम् । ययुरन्ये द्रुमाः केचिज्जाता नानाविधाः स्वयम् ॥११॥ किमेते परिहर्तव्या भोग्याः किवा तदादिश । सदुपायं च वृत्तान्तं जीविकायेन नो भवेत् ॥११६।। तदाख्यन् नाभिरित्थं हे भद्रकाः ! सक्छ मा इमे । कार्या भोग्या अमी शीघ्र स्त्याज्या विषाविषादपाः ।।१२०॥ काश्चिदेता महौषध्य एते पुण्ड क्षुदण्डकाः । प्रपातध्या रसीकृत्य यन्त्रैः खाद्या इमे द्रुमाः ॥१२१।। पाम्राया इति तत्प्रोक्तं श्रुत्वा प्रीता प्रशस्यतम् । नत्वा तद् दर्शितां वृत्ति मेजुः कालोचितां प्रजाः ॥१२२॥ अर्थ:- पश्चात् पल्य के अस्सी हजार करोड़ भाग समाप्त हो जाने पर अनुपमा प्रिया के स्वामी मरुदेव कुलकर उत्पन्न हुए । आपको ऊँचाई ५७५ धनुष, आयु पल्य के एक लाख करोड़ भागों में से एक भाग ( T arad पल्य ) प्रमाण एवं शरीर की कान्ति स्वर्णाभासदृश थी ।।१८-- ६६1 मापने भी हा-मा और विकार दण्ड नीति का ही प्रयोग किया गया था। इस समय समुद्र, Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ ] सिद्धान्तसार दीपक नदियों के समुह और नाना प्रकार के श्रेष्ठ मेघों का स्वयं ही प्रादुर्भाव हुआ था। मरुदेव कुलकर ने नदी और समुद्र आदि को पार करने के लिए पुल, नाव और द्रोणी आदि का तथा पर्वत आदि पर चढ़ने के लिए सोपान मालिका-सीढ़ियों की पंक्तियों का विधान किया था ।।१००-१०११। इसके पश्चात् पल्य के आठ लाख करोड़ भाग व्यतीत हो जाने पर प्रियंमुमरिण की हरित प्राभा के सदृश उत्तम शरीर ध्रुति से युक्त प्रसेनजित् मनु उत्पन्न हुए ।।१०२॥ आपके शरीर की ऊँचाई ५५० धनुष और अायु पाम के दाला रोड भारों से एक भाग ( पत्य) प्रमाण थी॥१०३।। प्रसेनजित् मनु के द्वारा भी हा-मा और धिक्कार नोति का ही प्रयोग किया गया था। आपके पिता अमितगति ने प्रापका विवाह उत्तम कन्या से विधि पूर्वक किया था 11१०४॥ यह एक ही कुलकर बिना युगल के उत्पन्न हुए हैं और इसी समय से युगल उत्पत्ति का नियम समाप्त हूया है। अर्थात् युगल ही उत्पन्न हों, ऐसा नियम नहीं रहा ॥१०५॥ इसी समय में पुत्रों (सन्तानों) को उत्पत्ति जरायु पटल से श्रावृत्त होने लगी थी। उस समय आपने अपनो मृदु वागौ के द्वारा प्रजा को जरायु आदि काटने का तथा स्नान आदि कराने का उपदेश दिया था ।। १०६ ।। पश्चात् पल्य के अस्सी लाख करोड़ भाग व्यतीत हो जाने पर पुण्य उदय से चौदहवें कुलकर नाभिराय उत्पन्न हुये ॥१०७।। मरुदेवी कान्ता के स्वामी, विद्वान्, हेमकान्ति को धारण करने वाले और देवों द्वारा पूजित आपकी ऊँचाई ५२५ धनुष प्रमाण तथा प्रायु एक पूर्व कोटि प्रमाण थो। आप भी हा-मा और धिक् दण्ड नीति का ही प्रयोग करते थे। इस काल में सन्तान की उत्पत्ति नाभि नाल से युक्त होने लगी थी। आपने माता पिता के सुख के लिए उस नाल को काटने का उपदेश दिया था, इसीलिये प्रजा ने प्रापका सार्थक नाम नाभिराय रखा था ।।१०५-११०॥ __इसो काल में नभ को व्याप्त करके बिजली सहित मेघ गम्भीर गर्जना के साथ साथ स्थूल जल धारा के द्वारा बार बार महावृष्टि करने लगे थे ।।१११।। वर्षा होने के वाद हो पृथ्वी पर धीरे धीरे चारों ओर पूर्ण रूपेण पके हुए अनेक प्रकार के धान्य को वृद्धि होने लगी थी, जिसमें शालि चावल, कलम, ब्रीहि आदि और अनेक प्रकार के चावल, जव, गेहूँ, कांगणो, श्यामक ( एक प्रकार का धान्य ) कोदों, मोट, नोवार ( कोई धान्य ), वरवटी, तिल, अलसी, मसूर, सरसों, बना, जीरा, उड़द, मूग, अरहड़, चौला, निष्पावक ( बालोर), चना, कुलथी और त्रिपुटा ( तेवड़ा ) आदि भेद वाले धान्य हो गये थे । तथा कल्पवृक्षों की सम्पूर्ण रूपेण समाप्ति हो जाने पर प्रजा के जीवनोपयोगी कौसुम्भ और कापास प्रादि की भी उसी समय उत्पत्ति हो गई थी। कल्पवृक्षों का अभाव हो जाने से जीवों में प्राहार की तीन वाञ्छा उत्पन्न होने लगी, उस समय सर्व अङ्गों को शोषण करने वाली क्षुधा बेदना से प्रजा अन्तरङ्ग में अत्यन्त दुःखी होती हुई नाभिराय मनु के समीप जाकर तथा नमस्कार करके दीन वचनों से इस प्रकार कहने लगी कि-हे स्वामिन् ! हम लोगों का पुण्य क्षय हो जाने से समस्त कल्पवृक्ष नष्ट हो गये हैं और उनके स्थान पर और कोई नाना प्रकार के अनेक वृक्ष स्वयमेव उत्पन्न हुए हैं, इनमें Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमोऽधिकार : | २५३ 1 से कौन से वृक्ष छोड़ने योग्य हैं और कौन से भोगने योग्य हैं यह समझाते हुए आप हमें ऐसा सर्वोत्तम उपाय बतलाइये जिससे हम लोगों की जीविका चले। इसके बाद नाभिराय इस प्रकार बोले कि - हे भद्र ! इनमें ये तो उत्तम वृक्ष भोगने योग्य और काम में लेने योग्य हैं तथा ये विष आदि के वृक्ष हैं, जी शीघ्र ही छोड़ने योग्य हैं ।। ११२-१२० ।। इनमें ये वृक्ष महा श्रौषधि रूप हैं, ये आप आदि खाने योग्य हैं और ये गन्ना श्रादि हैं, जिनका यन्त्र के द्वारा रस निकाल कर पीना चाहिए । इस प्रकार राजा के वचनों को सुन कर और भली प्रकार प्रीतिपूर्वक उन्हें नमस्कार करके प्रजा उनके द्वारा दर्शाई हुई कालोचित वृत्ति का सेवन करने लगी ।। १२१-१२२॥ अब कुलकरों की उत्पत्ति प्रादि का कुछ वर्णन करते हैं :-- प्रतिश्रुत्यादयोऽत्र वरिता मनवोऽखिलाः । ते प्राग्भाविदेहेषु ज्ञेया नृपाः महान्वयाः || १२३॥ सम्यक्त्वग्रहणात्पूर्वं पात्रदान शुभार्जनैः । भोगभूमिमनुष्याणां बद्ध्वायुस्ते शुभाशयाः || १२४॥ पश्चात क्षायिकसम्यक्त्वं जिनान्ते काललब्धितः । गृहीत्वा स्वायुरन्ते सर्वे जाता विचक्षणाः ॥ १२५ ॥ तेषु जातिस्मराः केचित्केचिच्चावविलोचनाः । एतान् हितोपदेशादीन् प्रजानामादिशन् बुधाः ॥ १२६॥ अर्थ – यहाँ पर जिन प्रतिश्रुति आदि कुलकरों का वर्णन किया गया है वे सभी पूर्व भव विदेह क्षेत्र में उत्तम कुलोत्पन्न श्रेष्ठ राजा थे । सम्यक्त्व ग्रहण के पूर्व पात्रदान से प्रजित पुण्य फल के द्वारा उन पवित्र चित्तवृत्ति वाले सभी मनुयों ने भोगभूमि के मनुष्यों की श्रायु का बन्ध कर लिया था । पश्चात् काललब्धि के योग से जिनेन्द्र भगवान् के पादमूल में विचक्षण बुद्धि को धारण करने वाले वे सभी आयु के अन्त में वहां से हैं ।। १२३ - १२५ ।। उनमें से किन्हीं को जातिस्मरण और किन्हीं को विद्वज्जन प्रजा को हितोपदेश देते हैं ।। १२६ ॥ क्षायिक सम्यक्त्व ग्रहण करके प्र ऋषभदेव और भरत चक्रवर्ती को दण्डनीति तथा ऋषभदेव के मोक्ष जाने का वर्णन करते हैं :-- मरण कर यहाँ उत्पन्न होते अवधिज्ञान होता है, जिसमे वे नाभेः कुलकरस्यान्तिमस्यात्रासीत्सुतः परः । ऋषभस्तीर्थकृत् पूज्यः कुलकृत् त्रिजगद्धितः ।। १२७ ।। Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ ] सिद्धान्तसार दोपक हा-मा-धिगनीतिमार्गोत्तोऽस्य पुत्रो भरतोऽग्रजः । चक्री कुलकरो जातो बधबन्ध्यादि दण्डभृत् ।।१२८।। ततश्चतुर्थकालाच्च पूर्व श्रयादिजिनेश्वरः । मुक्ते मार्ग द्विधा धर्म प्रकाश्य ध्वनिना सताम् ॥१२६॥ हत्या कृत्स्नाङ्गकर्माणि प्राप्य देवाधिपार्चनम् । अनन्तगुणशर्माधिजगामान्ते शिवालयम् ॥१३०॥ विश्वाग्रस्थं ततीयस्य कालान्तेऽस्यान्तिमे सति । वर्षत्रये ऽवशिष्टे च सार्धाष्टमाससंयुते ॥१३१॥ अर्थ:-अन्तिम कुलकर नाभिराय के ऋषभदेव नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ, जो तीर्थंकर, पूज्य, कुलकर और त्रैलोक्य का हित करने वाला था 1 आपने भी हा-मा और धिक् दण्डनीति का ही प्रयोग किया था। आपके पुत्र प्रथम चक्रवर्ती भरत, कुलकर रूप में उत्पन्न हुए जिन्होंने दोष करने वालो प्रजा पर बध, बन्धन आदि दण्ड नीति का प्रयोग किया ।।१२७-१२८॥ चतुर्थ काल से पूर्व ही अंतरंग बहिरंग लक्ष्मी से युक्त प्रथम तीर्थकर हुए, जो भव्य जनों को अपनी दिव्य ध्वनि के द्वारा मोक्षमार्ग को तथा मुनि और धावक के धर्म को प्रकाश कर, सम्पूर्स कर्मों को नष्ट कर तथा देवेन्द्रों से पूजा को प्राप्त कर सम्पूर्ण तृतीयकाल के अन्त में तीन वर्ष साढ़े आठ मास अवशेष रहने पर अनन्त गुण और अनन्त सुख के सागर मोक्ष को प्राप्त हुए ॥१२६-१३१॥ अब चतुर्थकाल का सविस्तृत वर्णन करते हैं :--- ततश्चतुर्थकालोऽभूत् दुःषमासुषमाह्वयः । दुःखसौख्यकरो ह्येक कोटीकोटयम्बुधिप्रमः ॥१३२॥ ऊनो वर्षद्विचत्वारिंशत्सहस्रप्रममहान् । शुभः कर्मधरोत्पन्नः स्थर्मोक्षसुखसाधनः ॥१३३॥ प्रस्यादौ मानवाः सन्ति पूर्वकोटिपरायुषः । पञ्चवर्णा लसद्द हाश्चापपञ्चशतोच्छिताः ॥१३४।। यारेक पूर्णमाहारं दिन प्रत्याहरन्ति ते । षट्कर्मकारिणोऽन्ते मोक्षचतुर्गतिगामिनः ॥१३५।। प्राधकालत्रये भोगभूमिभागेषु येऽङ्गिनः । न भूता दुःखदा द्वित्रिचतुरिन्द्रियजातयः ॥१३६॥ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमोऽधिकारः मांसाशिपक्षिणः क्रूरा अन्ये जलचरादयः । ते सर्वे विकलाक्षाद्याः कालेऽस्मि स्वयमुद्गताः ।। १३७ ।। चतुर्विंशतितीर्थशास्चक्रेशा द्वादशोत्तमाः । बलदेवा नथैवासन् वासुदेवा नवोत्कटाः || १३८ ॥ तच्छत्रवोऽत्र तावन्तो रुद्रा एकादशाशुभाः । चतुविशतिकामाश्च दुर्वेधा नारदा नव ॥१३६॥ [ २८५ अर्थः- तृतीयकाल के अन्त में दुखमा सुखमा नाम का चतुर्थ काल प्रारम्भ हुआ, जो दुख और सुग्व 'दोनों का सम्पादन करने वाला था और उसका प्रसारण व्यालीस हजार वर्ष कम एक कोड़ाकोड़ी सागर ( १०००००००००००००० सागर – ४२००० वर्ष ) था । इसमें शुभकर्मों द्वारा पुण्य उपार्जन करने वाले तथा स्वर्ग और मोक्ष का साधन करने वाले जीव उत्पन्न होते थे ।। १३२ - १३३|| चतुर्थ काल के प्रारम्भ में मनुष्यों की उत्कृष्ट प्रायु एक पूर्व कोटि ( ७०५६ के प्रागे १७ शून्य शरीर की आभा पंच वर्ण की थोर ऊँचाई ५०० धनुष प्रमाण थी || १३४ | | उस समय जीव दिन में एक बार पूर्ण आहार करते थे तथा षट्कर्मों में तत्पर रहते थे, और आयु के अन्त में मोक्ष एवं कर्मानुसार चारों गतियों को प्राप्त होते थे ।। १३५|| प्रारम्भ के भोगभूमि सम्बन्धी तीनों कालों में दुखदाई हीन्द्रिय, वेन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय अर्थात् विकलत्रय जीव, मांस भक्षी एवं अन्य क्रूर पक्षी तथा जलचर आदि जो जोव उत्पन्न नहीं होते थे, वे सब इस काल में स्वयमेव उत्पन्न होने लगे थे ।। १३६-१३७।। इस काल में चौवीस तीर्थकर, द्वादश चक्रवर्ती, नव नारायण और नव हो प्रतिनारायण उत्कट बल के धारी हुये । ग्यारह रुद्र, शुभकार्य करने वाले चौबीस कामदेव और दुर्बुद्धि धारी नव नारद भी इसी काल में होते हैं ।। १३८ - १३६॥ ---- प्र चौबीस तीर्थंकरों का सविस्तृत वर्णन करते हैं वृषभोऽजिततीर्थेशः सम्भवाख्योऽभिनन्दनः । सुमतिः श्रीजिनः पद्मप्रभसुपादतीर्थंकृत् ॥ १४०॥ चन्द्रप्रभजिनः पुष्पयन्तः शीतलसंज्ञकः । श्रेयान् श्रीवासुपूज्योऽहं विमलोऽनन्ततोर्थकृत् ॥ १४१ ॥ धर्मः शान्तीश्वरः कुन्थुनाथोऽशे मल्लिनामकः । मुनिसुव्रततीर्थेशो नमिर्ने मिजिनेश्वरः ।। १४२ ॥ पार्थः श्री वर्धमानाख्य एते श्रीजिननायकाः । त्रिजगन्नाथवन्द्याश्चतुविशतिरेव च ।। १४३ ॥ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६] सिद्धान्तार दोपक चन्द्राभपुष्पदन्तौ द्वौ चन्द्रकान्तमणिप्रभौ । पद्माभवासुपूज्यौ च पद्मरागमणिच्छवी ॥१४४॥ सुपार्श्वपार्वतीर्थेशौ स्फुरन्मरकतग्रुती । नेमीशसुवतौ श्यामौ शेषास्ते कनकप्रभाः ॥१४५॥ मुनिसुवतनेमोशौ हरिवंशशिरोमणी । शान्तिकुन्थ्वरतीर्थेशा कुरुवंशविमूषणाः ॥१४६।। उग्रवंशाग्रणीः पार्यो बोरो नाथान्वयोजयः । इक्ष्वाककलसजाता जिनाः सप्तवशापरे ।।१४७।। चापपञ्चशतान्याचे चोनं पञ्चाशवहस । दश-पञ्चस चापानि होनानि पञ्च चाष्टसु ॥१४॥ नव सप्तकराः प्रोक्ताः क्रमेण पायवीरयोः । उत्सेधास्तीर्थकर्तीणां दिव्याङ्गषु भवन्त्यमी ॥१४६॥ प्रायुश्चतुरशीतिश्च प्रथमश्रीजिनेशिनः । सतो द्वासप्ततिः षष्टिः पूर्वलक्षारिण चाहताम् ॥१५०॥ तेभ्यो दशविहीनानि पञ्चानां हि क्रमात् तथा । पूर्वलक्षद्वयं जेष्ठायुः पूर्वलक्षमर्हतः ॥१५१॥ लक्षाश्चतुरशीतिः सम्वत्सराणां द्विसप्ततिः । पष्टिरित्रशद्दशवायुस्ततो लक्षकमञ्जसा ।।१५२॥ पंचाग्रा नवतिर्वर्षाण्यशीतिश्चतुरुत्तरा। प्रायुश्च पंचपंचाशत् सहस्राणि पृथक सतः ॥१५३॥ त्रिशदृशसहस्राणि सहस्र के ततः परम् । वर्षाण्यायः शतकं स्याद्वर्धमाने द्विसप्ततिः ॥१५४॥ अर्थ:-वृषभनाथजी, अजितनाथ तीर्थकर, सम्भवनाथ, अभिनन्दननाथ, सुमतिनाथ, पद्माभजिनेन्द्र, सुपार्श्वनाथ, चन्द्रप्रभ, पुष्पदन्त, शीतलनाथ, श्रेयान्सनाथ, वासुपूज्य अहंन्त, विमलनाथ, अनन्तनाथ, धर्मनाथ, शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ, अरनाथ, मल्लिनाथ, मुनिसुव्रतनाथ, नमिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और वर्धमान नाम के ये चौबीस तीर्थंकर हुये हैं। ये चौबीसों तीर्थ कर तीनों लोकों के स्वामियों द्वारा अर्थात् सुरेन्द्र, धरणेन्द्र और नरेन्द्रोंके द्वारा वन्दनीय एवं अर्चनीय हैं ॥१४०-१४३॥ इन चौबीस तीर्थंकरों में से चन्द्रप्रभ और पुष्पदन्त भगवान् के शरीर को कान्ति चन्द्रकान्तमरिण को Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमोऽधिकार। [२८७ प्रभा के सदृश श्वेत, पद्मप्रभ और वासुपूज्य भगवान् के शरीर की प्राभा पद्मरागमणि की आभा के सदृश लाल, सुपार्श्वनाथ और पार्श्वनाथ तीर्थंकरों की कान्ति मरकत मरिण की कान्ति सदृश हरित, नेमिनाथ और मुनिसुव्रतनाथ के शरीर को अति श्याम तथा अन्य अवशेष सोलह सीकरों के शरीर की कान्ति कनकप्रभाके सदृश थी ।।१४४-१४५।। ____ मुनिसुव्रतनाथ और नेमिनाथ हरिवंश के शिरोमणि थे । शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ और अरनाथ कुरुवंश के विभूषण थे, पार्श्वनाथ उग्नवंश के अग्रणी थे, बोरनाथ नाथवंश के एवं अन्य शेष सत्रह जिनेश्वर इक्ष्वाकुवंश के आभूषण थे । अर्थात् इन-इन वंशों में उत्पन्न हुए थे ।।१४६-१४७॥ प्रथम तीर्थकर आदिनाथ भगवान् के शरीर को ऊंचाई ५०० धनुष प्रमाण थी, द्वितीयादि पाठ तीर्थंकरों को ५०-५० धनुष कम अर्थात् ४५०, ४००, ३५०, ३०.. २५०, २००, १५० और १०० धनुष थी। दशवे आदि पांच तीीकरों की १०-१० धनुष कम अर्थात् ६०, ८०, ७०, ६० और ५० धनुष थी। पन्द्रहवें आदि पाठ तीर्थंकरों की क्रमशः ५-५ धनुष कम अर्थात् ४५, ४०, ३५, ३०, २५, २०, १५ और १० धनुष थी। पार्श्वनाथ भगवान् की हाथ और वीर नाथ भगवान की ७ हाथ प्रमाण ऊँचाई थी, इस प्रकार चौबीस तीर्थीकरों के दिव्य शरीरों का उत्सेष था ॥१४८.१४६।।। चौबीस तीर्थीकरों में से प्रथम तीर्थंकर की प्राय चौरासी लाख पूर्व, द्वितीय की बहत्तर लाख पूर्व और तृतीय को साठ लाल पूर्व थी। इसके प्रागे पांच-पांच ती करों को क्रमश: १०-१० लाख पूर्व कम, पुष्पदन्त को दो लाख पूर्व और शीतलनाथ की एक लाख पूर्व की आयु थी। श्रेयांसनाथ की ८४ लाख वर्ष, वासुपूज्य की ७२ लाख वर्ष, विमलनाथ की ६० लाख वर्ष, अनन्तनाथ की ३० लाख वर्ष, धर्मनाथ को १० लाख वर्ष, शान्तिनाथ की एक लाख वर्ष, कुन्थुनाथ की ६५ हजार वर्ष, अरनाथ की ८४ हजार वर्ष मल्लिनाथ की ५५ हजार वर्ष, मुनिसुव्रतनाथ की ३० हजार वर्ष, नमिनाथ को १० हजार वर्ष, नेमिनाथ को एक हजार वर्ष, पार्श्वनाथ की १०० वर्ष और वर्धमान स्वामी की ७२ वर्ष प्रमाण प्राय थो ।।१५०-१५४।। प्रथ कायायषोः सखबोधाय विस्तारमाह :--- वृषभस्याङ्गोत्सेधःपञ्चशतधनुषि । प्रायुश्चतुरशीति लक्षपूर्वाणि । अजितस्योन्नतिः सार्धचतुःशतचापानि । प्रायुसिम तिर्नक्षपूर्वाणि । सम्भवस्योत्सेधः चतुःशतधनूषि, प्रायुः षष्टिलक्षपूर्वारिंग। अभिनन्दनस्यातितिः सार्वत्रिशतचापानि, प्राय: पञ्चाशल्लक्षपूर्वारिंग । सुमतेस्नतिः विशतधनू पि, प्रायुश्चत्वारिशल्लक्ष पूर्वाणि । पानभस्योत्सेधः साबंद्विशतचापानि, प्रायस्त्रिशल्लक्षपूर्वाणि । सुपार्श्वस्योन्नतिद्विशतधनुषि, प्रायुविशतिलक्षपूर्वाणि। चन्द्रप्रभस्योत्सेघः सार्धशतचापानि, अयुद्द शलक्षपूर्याणि । पुष्पदन्तस्योन्नतिः शतधनू षि, प्रायद्धिलक्षपूर्वारिण। शीतलोत्सेधः नवतिचापानि, प्रायु रेकलक्षपूर्वाणि । श्रेयसः उन्नतिरशीतिधनू षि, प्रायुश्चतुरशीतिलक्षवर्षाणि । वासुपूज्योत्सेधः सप्ततिचापानि, आयुर्दासमतिलक्षवर्षाणि । विमलस्योत्सेधः षष्टिधनूषि, प्रायः षष्टिलक्षवर्षाणि । अनन्तस्यो. न्नतिः पञ्चाशच्चापानि, आयस्त्रिगल्ला वारिग । धर्मस्योत्सेधः पञ्चचत्वारिंशद्वन् षि, प्रायुर्दशलक्ष Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायु उत्सेध ऋषभनाथ ८४ लाख पूर्व ० २८८ ] सिद्धान्तसार दोपक वर्षाणि । शान्तेरुन्नतिश्चत्वारिंशच्चापानि, प्रायुरेकलक्षवर्षाणि । कुन्थोल्त्सेधः पञ्चत्रिशद्धषि, प्रायुः पञ्चनवतिसहस्रवर्षाणि । अरस्योन्नतिस्त्रिशच्चापानि, प्रायुश्चतुरशीतिसहस्रवरिण । महिलनाथस्योत्सेधः पन्चविंशतिधषि, प्राय: पञ्चपञ्चाशत्सहस्रवर्षाणि। मुनिसुव्रतस्योन्नतिविंशति चापानि, आयुस्त्रिशत्सहस्त्रवर्षाणि । नमेरुत्सेधः पञ्चदशधनू षि, प्रायुर्दशसहस्त्रवर्षाणि । नेमेहन्नतिदेशचापानि, प्रायः सहस्रवर्षारिए । पाश्वस्योत्सेधः नवहस्ताः, प्राय: शतवर्षारिण। वर्धमानस्योन्नतिः सप्तकराः प्रायद्विसप्ततिवर्षाणि । ____उपयुक्त गद्य में वर्णित चौबीस तीर्थंकरों के शरीर के उत्सेध का प्रमाण और प्रायु का प्रमाण निम्न लिखित तालिका द्वारा दर्शाया जा रहा है : चौबीस तीर्थंकरों की प्रायु एवं उन्सेश :--- ._क्रम । नाम ५०० धनुष प्रजितनाव ४५० सम्भवनाथ अभिनन्दननाथ सुमतिनाथ पद्मनाथ सपार्श्वनाथ २०० चन्द्रप्रभ पुष्पदन्त पीतलनाथ थेयांसनाथ ८४ लाख वर्ष वासुपूज्य विमलनाथ अनन्तनाथ धर्मनाथ . शान्तिनाथ कुन्थुनाथ ९५ हजार वर्ष घरनाथ मल्लिनाथ मुनिसुग्रत नमिनाथ नेमिनाथ पार्श्वनाथ १०० वर्ष ९ हाथ य,मान ७२ वर्ष ७ हाथ ० ० mmM ० ००० ० १५० ० २ ० ॥ " ० ० ७२ ० ० .. . Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८९ नवमोऽधिकारः अब तीर्थंकरों का अन्तरकाल कहते हैं :--- गतेऽत्र वृषभे निर्वाणं जातेऽजितनायके । तयोस्तीर्येशयोमध्ये गतकालो जिनान्तरः ॥१५५।। पञ्चाशलक्षकोटयश्च सागराः प्रथमान्तरम् । सार्धाष्टमाससंयुक्त विषाँग्रमर्स परम ॥१५६॥ ज्ञेयं मध्येऽन्तरस्यास्यवाजितस्यायुरञ्जसा । इत्यन्तरस्य मध्ये स्थादायुः शेषजिनेशिनाम् ।।१५७।। ततोऽब्धिलक्षकोटीनां त्रिशद्दश नथ क्रमात् । तथा सहस्रकोटीनां नवतिः क्रमतो नव ॥१५८।। कोटयो नवशतान्येव कोटयो नयतिनंब । ततः शतोन कोटये का, जिनेन्द्रस्यान्तरं पृथक् ॥१५६।। षट्षष्टिलक्षषड्दिशसहस्रवत्सरोनितम् । सागरा हि चतुः पञ्चाशस्त्रिशच्च नवान्तरम् ॥१६॥ चत्वारोऽम्बुधयः पादोनपल्यजितास्त्रयः । पन्या, पन्य पादं सहस्रकोटिसमोनितम् ।।१६१।। सहस्रकोटिवर्षाणि मध्येऽर्हतो जिनान्तरम् । सम्वत्सराश्चतुः पञ्चाशल्लक्षाः षट् च पञ्च हि ।।१६२।। सार्थसप्तशताग्रास्त्र्यशीतिसहस्रवत्सराः । सार्धद्विशतवर्षाणि ततोऽपरं जिनान्तरम् ।।१६३॥ हीनं सार्धाष्टमासाधिकवर्ष त्रिभिरंजसा । चतुविशाहतामित्थं पृथक् पृथग्जिनान्तरम् ॥१६४॥ इत्युक्त कालमध्येषु जगन्नाया जिनेश्वराः। हत्या कृत्स्नाङ्गकर्माणि जग्मुर्मोक्षं जगद्धिताः ॥१६॥ यदा चतुर्थकालस्य सार्धाष्टमाससंयुते । सति वर्षत्रये शेषे तदा वोरोऽगमच्छिवम् ।।१६६॥ एषां जिनान्तराणां च मध्ये क्षिप्तेषु सत्सु वै । ह्य कविशसहस्त्राब्धेषु पंचमान्त्यकालयोः ॥१६७।। Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० ] सिद्धान्तसार दीपक जिनान्तराणि सर्वाणि पिण्डिलानि भवन्ति च । कीटोकोटब्धयः कालसंख्ययात्र जिनेशिनाम् ॥। १६८ ।। के बाद दोनों अर्थः- वृषभदेव भगवान् के मोक्ष करों के मध्य में जो काल व्यतीत होता है, वही तीर्थंकरों का अन्तरकाल कहलाता है ।। १५५ ।। प्रथम अन्तर पचास करोड़ सागर तीन वर्ष और साढ़े आठ माह प्रमाण था । इस ऋषभनाथ और अजितनाथ के प्रथम ग्रन्तर के मध्य में अजितनाथ भगवान् की श्रायु सम्मिलित हो जानना । इसी प्रकार अन्य अन्तरालों में अन्य तीर्थंकरों की आयु भी सम्मिलित है ।। १५६-१५७।। इसके बाद दूसरे यदि अन्तराल क्रमश: तीस लाख करोड़ सागर, दश लाख करोड़ सागर, नत्र लाख करोड़ सागर, ६० हजार करोड़ सागर, नव हजार करोड़ सागर, ६०० करोड़ सागर, ६० करोड़ सागर, 8 करोड़ सागर और ६६ लाख २६ हजार एक सौ सागरों से होन एक करोड़ ( ३३७३६०० ) सागर था । इस ग्यारहवें अन्तराल के बाद क्रमशः चौवन सागर तीस सागर, नौ सागर, चार सागर, पौन पल्य कम सीन सागर, अर्धपत्य, हजार करोड़ वर्ष कम चौथाई पल्य, हजार करोड़ वर्ष, चौबन लाख वर्ष, छह लाख वर्ष और पाँच लाख वर्ष प्रमाण जिनान्तर जानना चाहिए ।। १५६ - १६२।। इसके बाद तेरासी हजार सात सौ पचास वर्ष और अन्तिम अन्तर दो सौ पचास वर्षों में से तीन वर्ष, साढ़े आठ मास कम अर्थात् दो सौ चालीस वर्ष तीन मास और एक पक्ष प्रमाण था । इस प्रकार चौबीस तीर्थंकरों का यह पृथक्-पृथक् ग्रन्तरकाल जानना चाहिए ।।१६३ - १६४ ।। इस उपर्युक्त काल में त्रैलोक्य हित कर्ता, तीन लोक के स्वामी जिनेश्वर भगवान् द्रव्य कर्म, नोकर्म और भाव कर्मों का नाश कर मोक्ष गये ।। १६५ ।। जब चतुर्थ काल के तीन वर्ष साढ़े याठ मास प्रवशेष थे तब वीर प्रभु ने मोक्ष प्राप्त किया था ॥ १६६॥ | चौबोस जिनेन्द्रों के सम्पूर्ण अन्तर कालों को एकत्रित करके उसमें पंचम और छटवें काल के ४२००० वर्ष और मिला देने पर एक कोटाकोटि सागरोपम प्रमाण हो जाता है ।।१६७-१६८।। विशेष:-- पूर्व पूर्व तीर्थकर के अन्तर में उत्तर-उत्तर तोकर की आयु संयुक्त रहती है अतः सम्पूर्ण अन्तराल काल में ४२००० वर्ष जोड़ देने से एक कोटाकोटि सागरोपम हो जाता है । sarat पृथक् पृथग्बालावबोधाय जिनान्तराण्युच्यन्ते : वृषभे निर्वाणं गते सति जिनान्तरं सागरोपमानां साघष्टिमास त्रिवर्षाधिक पंचाशल्लक्ष कोटयः । श्रजिते च त्रिशल्लक्ष कोटयः । सम्भवे दशलक्ष कोटयः । अभिनंदने नवलक्ष कोटयः । सुमतौ नवतिसहस्र कोटयः पद्मप्रभे नवसहस्रकोटयः । सुपार्श्वे नवशतकोटयः । चन्द्रप्रभे नवतिकोटयः । पुष्पदन्ते नवकोटयः । शीतले षट्षष्टिलदापविशतिसहस्रवर्ष होन नवनवति सहस्र नवशतकोटयः । श्रेयसि जिनान्तरं सागराणां चतुःपंचाशत् । वासुपूज्ये त्रिशत्। विमले नव । अनन्ते चत्वारः । धर्मे पादोन पल्यहीन त्रिसागराः । शान्तो Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमोऽधिकारः [ २६१ पल्याधम् । कुन्थी सहस्रकोटि वर्षोनपल्य पादं । अरे सहस्रक्रोटि वर्षाणि । मल्लिनाथे चतुःपञ्चाशल्लक्षवर्षाणि । मुनिसुव्रते षड्लमवर्षाणि। नमिनाथे पञ्चलक्षवर्षारिख । नेमिनाथे सार्थसप्तशताधिकश्यशीतिसहस्रवर्षारिण । पावें निर्वाणं गते श्री वर्धमाने उत्पन्ने सति तयोः पाववर्धमानयोर्मध्ये जिनांतरं सार्धाष्टमासापत्रिवर्ष हीनसार्धद्विशतवर्षारिए । यदा वीरनाथो मोक्षं गतः तदा चतुर्थकालः सार्धाष्टमास त्रिवर्षप्रमोऽवशिष्टोऽभूत् । पञ्चमषष्टसमानकाल योद्वयो: संख्या द्विचत्वारिंशत्सहस्रवर्षारिण। एवं सर्वे जिनान्तरकालाः एकत्रीकृताः कोटीकोटिसागरोपमाः भवन्ति । अर्थ:- वृषभनाथ भगवान् के मोक्ष चले जाने पर ५० करोड़ लाख सागर ३ वर्ष ८ माह व्यतीत हो जाने पर अजितनाथ भगवान् मुक्ति गये। अजितनाथ के मोक्ष जाने के बाद तीस लाख करोड़ सागर का, सम्भवनाथ भगवान के बाद दश लाख करोड़ सागर का, अभिनन्दन नाथ के जाने पर ह लाख करोड़ सागर का, सुमतिनाथ के बाद ६० हजार करोड़ सागर का, पद्यप्रभु के बाद नी हजार करोड़ का, सुपार्श्वसागर के बाद ६ सौ करोड़ सागर का, चन्द्रप्रभु के बाद ६० करोड़ सागर का, पुष्पदन्त के मोक्ष जाने के बाद इ करोड़ सागर का, शीतलनाथ के मोक्ष जाने के बाद (एक करोड़ सागर) १०००००००-६६२६१००=३३७३६०० सागर का, श्रेयांसनाथ भगवान के मोक्ष जाने के बाद ५४ सागर का, वासुपूज्य भगवान् के ३० सागर का, विमलनाथ के सागर का, अनन्तनाथ के चार सागर का, धर्मनाथ के मोक्ष जाने के बाद पल्य कम तीन सागर-मर्थात् ३ सागर- पल्य२ सागर और ६६६REE CERTEERE पल्य का, शान्तिनाथ के मोक्ष गमन के बाद प्रधं पल्प का, कुन्थुनाथ के बाद हजार करोड़ वर्ष कम पल्य (पल्य--१००० करोड़ वर्ष ) का, अरनाथ के एक हजार करोड़ वर्ष का, मल्लिनाथ के ५४००० वर्ष का. मुनिसुव्रतनाथ के ६००००० वर्षों का, नमिनाथ के ५००००० वर्षों का, नेमिनाथ के ८३७५० वर्षों का और पाश्र्वनाथ भगवान के मोल जाने के बाद तीन वर्ष साढ़े आठ मास कम २५० वर्ष अर्थात् ( २५०-३ वर्ष ८ मास ) =२४६ वर्ष, ३ मास और एक मास बाद वोर प्रभु मोक्ष गये अतः यह पार्वजिनेन्द्र और वीरजिनेन्द्र इन दोनों के मध्य का अन्तर है। जब वधमान स्वामी मोक्ष गये तब चतुर्थ काल के तीन वर्ष ३ मास अवशेष थे पञ्चम और षष्ठ ये दोनों काल इक्कीस-इक्कीस हजार वर्ष के हैं, इन दोनों का एकत्रित काल ४२००० वर्ष प्रमाण है जिनेन्द्रों के सर्व अत्तार कालों को एकत्रित करके उसमें दोनों कालों के ४२००० वर्ष जोड़ देने पर एक कोटाकोटि सागरोपम का प्रमाण हो जाता है। प्रब जिनधर्म का उच्छेदकाल दर्शाते हैं :-- पुष्पदन्तस्य कालान्ते धर्मन्युच्छित्तिरंजसा । पल्यस्यासीच्चतुर्थांशः पन्या शीतलस्य च ॥१६॥ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ ] सिद्धान्तसार दीपक श्रेयसः प्रोक तोते वासुपूज्यस्य पत्येकं धर्मनाशो द्विधाभवत् ॥ १७० ॥ पादोन पत्यमिव श्रीविमलस्य जिनान्तरे । धर्म नाशोऽप्यनन्तस्य पत्यार्ध कालदोषतः ।। १७१ ।। धर्मनाथजिनेन्द्रस्य भागे जिनान्तरान्तिमे । पल्यपादोऽभवद् वक्तृश्रोतॄयत्पाद्यभावतः ॥ १७२ ॥ श्रः- पुष्पदन्त भगवान् के काल के अन्त में पल्य तक धर्म का व्युच्छेद रहा। शीतलनाथ के अन्तराल में अपत्य यांसनाथ के तीर्थकाल के अन्त में पत्य और वासुपूज्य भगवान् के तीर्थकाल के अन्त में एक पल्य पर्यन्त मुनि और श्रावक इन दोनों प्रकार के धर्म का प्रभाव रहा । विमल जिनेन्द्र के अन्तर काल के अन्त मेंपत्य तक तथा कालदोष से ग्रनन्तनाथ के तीर्थ में पल्य पर्यन्त धर्म का नाश रहा और धर्मनाथ जिनेन्द्र के अन्तर काल के अन्तिम भाग में पत्थ पर्यन्त वक्ता और श्रोता दोनों का सर्वथा प्रभाव रहा । अर्थात् सुविधिनाथ श्रौर शीतलनाथ के अन्तराल में पत्यतक, शीतलनाथ और श्रेयांसनाथ के अन्तराल में पल्य तक श्रेयांस एवं वासुपूज्य के अन्तराल में 3 पल्यतक, वासुपूज्य और विमलनाथ के अन्तराल में एक पल्य तक, विमल एवं ग्रनन्त नाथ के अन्तराल में पल्य तक, श्रनन्तनाथ एवं धर्मनाथ के अन्तराल में २ श्रीर धर्मनाथ एवं शांतिनाथ के अन्तराल में है पल्य तक जैन धर्म का अत्यन्त विच्छेद रहा। अर्थात् चतुर्थकाल में ४ पल्य तक जैन धर्म के अनुयायियों का सथा प्रभाव रहा ।। १६६-१७२।। हुण्डावसवणी काल की विशेषताओं को दर्शाते हैं --- उत्सपिण्यवस पिण्यसंख्यातॆषु गतेष्वपि । हुण्डावसपिरीकाल इहायाति न चान्यथा ॥ १७३ ॥ तस्यां हुण्डावसविण्यां पंचपाखण्डदर्शनम् । शलाकापुरुषा ऊनाः सङ्गमेवा श्रनेकशः ॥ १७४॥ जिनशासनमध्ये स्युविपरीता मतान्तराः । चीवरायावृता निन्द्याः सग्रन्थाः सन्ति लिङ्गिनः ।। १७५ ।। उपसर्ग जिनेन्द्राणां मानभङ्गाश्च चक्रिणाम् । कुदेव मठसूर्याद्याः कुशास्त्राणि बुरागमाः ॥ १७६ ॥ दुर्मार्गा गुरवः काम-लालसा दुई शोजनाः । इत्याद्या परेऽनिष्टा जायन्ते बहवोऽशुभाः ॥ १७७॥ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमोऽधिकारः [ २६३ अर्थ:-असंख्यात उत्सपिणी और अवपिरिणयों के व्यतीत हो जाने पर इह अर्थात् भरतरावत क्षेत्रों में एक हुण्डावसपिणो काल आता है, इसके पूर्व नहीं पाता ॥ १७३ ।। इस हुण्डावसपिरणी काल में पांच प्रकार के पाखण्डों के दर्शन होते हैं । शलाका पुरुष कम अर्थात् ६३ न होकर ५८ होते हैं। जिनशासन के मध्य भी मूलसंघ, काष्ठासंघ आदि अनेक भेद हो जाते हैं। जैनधर्म से अत्यन्त विपरीत प्रवृत्ति वाले अनेक मतान्तरों का जन्म हो जाता है । वस्त्र मादि से युक्त तथा परिग्रह से युक्त अनेक निन्दनीय लिंग को धारण करने वाले साधु बहुत होते हैं । तीर्थंकरों पर उपसर्ग और चक्रवर्ती का मानभङ्ग होता है । खोटे देवों के मठ तथा उनकी मूर्तियाँ, खोटे शास्त्र, खोटा आगम, बोटे मार्ग पर चलने वाले गुरु और काम प्रादि लालसा से युक्त तथा अत्यन्त दयनीय दशा को प्राप्त मनुष्य बहुत होते हैं । इस प्रकार और भी अनेक प्रकार के अनिष्ट और अशुभ कार्य प्रादि इस काल में स्वयमेव उत्पन्न होते हैं ।।१७४-१७७|| अब बारह चक्रवतियों के नाम, उत्सेथ एवं उनकी प्रायु का कथन करते हैं :-- प्रथमो भरतश्चक्रो सगरो मघवाह्वयः । सनत्कुमारचक्रेशः शान्तिकुन्नरचक्रिरणः ॥१७८।। सुभौमश्च महापद्यो हरिषेणो जयोऽन्तिमः । ब्रह्मदत्तोद्विषट् ह्यते हेमामाः सन्ति चक्रिणः ।।१७६।। भरतस्य समुत्सेधो धनुः पंचशतप्रमः । प्रायुश्चतुरशीतिश्च पूर्वलक्षाण्यखण्डितम् ।।१८०।। उन्नतिः सगरेशस्य सार्धशतचतुष्टयम् । चापानां पूर्वलक्षाण्याद्विसप्ततिरेव च ।।१८१।। उच्छितिमघवाख्यस्य धनुः सार्धद्विसंयुता । चत्वारिंशत्प्रमायुश्च पंचलक्षाद सम्मितम् ।।१२।। कायोत्तुङ्गश्च सार्धक चत्वारिंश द्धनुः प्रमः । आयुर्वर्षत्रिलक्षाणि सनत्कुमारचक्रिणः ॥१८३।। शान्तेहोन्नतिश्चत्वारिंशच्चापानि निश्चितम् । प्रायुर्वत्सरलक्षकं जिनकामपदेशिनः ॥१४॥ कुन्थोः शरीरतुङ्गोऽस्ति पंत्रिशतनुः प्रमः । आयुर्वर्षसहस्राणि पंचाग्रनवतिः परम् ॥१५॥ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ ] सिद्धान्तसार दीपक प्ररस्य वपुरुत्सेधो भवेत् त्रिशद्धनुः प्रमः । श्राघुश्चतुरशीतिश्चाब्दसहस्राण्यखण्डितम् || १६६ ॥ सुभमस्यच्छ्रितिश्चापान्यष्टाविंशतिरेव च । श्रायुः षष्टिसहस्राणि वर्षाणां खण्डवजितम् ॥ १८७॥ महापद्मस्य चोत्सेधो द्वाविंशतिधनुः प्रमः । श्रायुस्त्रिशत्सहस्राणि वत्सराणां परं ततः ।। १८६ ॥ प्रोन्नतिहरिषेणस्य चापविशतिसम्मिता । प्रायुर्दशसहस्राणि वर्षाणां चक्रवर्तिनः ।। १८६ | जयस्य वपुरुत्तुङ्गो धनुः पञ्चदशप्रमः । प्रायः सम्वत्सराणां च त्रिसहस्राणि चक्रिणः || १९०३ ॥ उत्सेधो ब्रह्मदत्तस्य वापस प्तप्रमाणकः । प्रायः सप्तशतान्येव वर्षाणां रत्नभोगिनः ॥ १११ ॥ अर्थ :- चतुर्थकाल में (१) भरत. (२) सगर, (३) मघवान्, (४) सनत्कुमार, (५) शांतिजिन, (६) कुन्थुजिन, (७) श्ररजिन, (८) सुभौम, (६) महापद्म, (१०) हरिषेण, (११) जय और अन्तिम (१२) ब्रह्मदत्त ये बारह चक्रवर्ती हुए हैं। इन सर्व चक्रबतियों के शरीर की आभा स्वर्ण वर्ण के स ॥ १७६ - १७६ ॥ भरत चक्रवर्ती के शरीर का उत्तेध ५०० धनुष और प्रायु ८४००००० पूर्व की थी ।। १८०॥ सगर चक्रवर्ती का उत्सेध ४५० धनुष और प्रायु ७२००००० पूर्व की थी ।।१८ १॥ मघवा का उत्सेध ४२३ धनुष और आयु ५००००० वर्ष को थी ।। १८२ ॥ सनत्कुमार चक्रवर्ती का उत्सेध ४१३ धनुष और श्रायु ३००००० वर्ष की थी ।। १८३ || शान्तिनाथ का उत्सेध ४० धनुष और आयु १००००० वर्ष की थी, ये चक्रवर्ती, तीर्थंकर और कामदेव इन तीन पदों के धारी थे ।। १६४॥ कुन्थुनाथ का उत्सेध ३५ धनुष और आयु २५००० वर्षं प्रमाण थो ( आप भी तोन पद धारी थे ) || १८५|| अरनाथ का उत्सेध ३० धनुष और प्रायु ८४००० वर्ष की थी ।। १८६॥ सुभीम चक्रवर्ती का उत्सेध २८ धनुष और प्रायु ६०००० वर्ष प्रमाण थी || १८७।। महापद्म का उत्सेध २२ धनुष और प्रायु ३०००० वर्ष की थी ॥ १६८ ॥ हरिषेण का उत्सेच २० धनुष और आयु १०००० वर्ष की थी ॥ १८६॥ जय चक्रवर्ती का उत्सेध १५ धनुष और आयु ३००० वर्ष प्रमाण थी ।। १६० ।। अन्तिम चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त का उत्सेध ७ धनुष प्रमाण और प्रायु ७०० वर्ष प्रमाण थी, ये सभी चौदह रत्नों के भोक्ता हुये हैं ||११|| Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमोऽधिकारः [ २९५ ue पाँच श्लोकों द्वारा चक्रवतियों के वर्तना काल का कथन करते हैं !-- काले प्रवर्तमानेऽभूद् भरतो वृषभस्य च । सगरोऽजितनाथस्य वर्तमानस्य सम्प्रति ।। १६२ ।। सञ्जातौ मघवाभिख्यसनत्कुमारचक्रिणौ । जिनान्तरेऽश धर्मस्य चक्रिणः स्युजिनास्त्रयः ॥ १६३॥ सुभीमचक्रभृज्जातोऽत्रारनाथ जिनान्तरे । महापद्मसमुत्पन्नो मल्लिनाथजिनान्तरे ।। १६४ ।। चक्रेशो हरिषेणो मुनिसुव्रत जिनान्तरे । प्रभूचक्री जयाख्यश्च नमिनाथजनान्तरे ॥ १६५ ॥ ब्रह्मदत्तायो जातो नेमीशस्य जिनान्तरे । इति चक्राबिया जाता जिनकाले जिनान्तरे ।।१६६ ।। अर्थ :- वृषभनाथ तोर्थंकर के काल में भरत चक्रवर्ती और जितनाय के काल में सगर चक्रवर्ती हुए थे || १६२ || मघवा और सनत्कुमार ये दो चक्रवर्ती धर्मनाथ और शान्तिनाथ के अन्तराल में, शान्ति, कुन्यु और भर नाथ ये तीन चक्रबर्ती स्वयं जिन थे ।। १६३ ।। सुभमची अरनाथ और मल्लिनाथ के अन्तराल में, महापद्म चक्रवर्ती मल्लिनाथ और मुनिसुव्रत के ग्रन्तराल में हरिषेण चक्रवर्ती मुनिसुव्रत और नमिनाथ के अन्तराल में उत्पन्न हुए थे। जय चक्की नमि और नेमिनाथ के अन्तराल में तथा ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती नेमिनाथ और पार्श्वनाथ के अन्तराल में उत्पन्न हुए थे, इस प्रकार बारह चक्रवनियों में से कोई तो जिनेन्द्र के काल में और कोई अन्तराल में उत्पन्न हुए थे ।।१६४-१६६।। श्रव चक्रवतियों को गति विशेष कहते हैं :-- सुभौमब्रह्मदत्ताख्यो बह्वारम्भपरिग्रहैः । जात पापविना धर्मं सप्तमं नरकं गतौ ।। १६७।। चक्रेशौ मघवाभिख्यसनत्कुमारसंज्ञकौ । सनत्कुमारकल्पं च जग्मतु तपुण्यतः ।। १६८ ।। शेषाष्टचक्रण हत्वा तपो ध्यानासिना बलात् । कृत्स्नकर्मरिपून् जग्मुर्मोक्षं रत्नत्रयाङ्किताः ॥ १६६ ॥ अर्थ:-सुभीम और ब्रह्मदत्त ये दो चक्रवर्ती बहुत प्रारम्भ और बहुत परिग्रह से उपार्जित पान के कारण धर्म भावना से रहित होते हुए सप्तम नरक में गये हैं ।। १६७॥ मधवा और सनत्कुमार नाम Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ ] सिद्धान्तसार दीपक के दो चक्रवर्ती व्रत और धर्म ( पुण्य ) के प्रभाव से सनत्कुमार स्वर्ग में गये हैं ।। १६८ ।। रत्नत्रय से अलंकृत शेष आठ चक्रवर्ती तप एवं ध्यान रूपी तलवार के बल से सम्पूर्ण कर्म रूपी शत्रुओं का नाश करके मोक्षपद को प्राप्त हुए हैं ॥ १६६ ॥ अब नव बलदेवों के नाम, उनका उत्सेध और श्रायु का कथन करते हैं :--- विजयोऽथाचलो धर्मः सुप्रभाख्यः सुदर्शनः । नन्दी च नन्विमित्रोऽत्र रामः पद्म इमे बलाः ||२००|| उत्सेधो विजयेशस्य चापाशीतिप्रमः स्मृतः 1 सप्तप्राशोतिलक्षाणि वर्षाणामायुरञ्जसा ॥ २०१ ॥ कायोत्सेधोऽचलस्यास्ति धनुः सप्ततिमानकः । सप्तसप्ततिलक्षाण्यब्दानामायुरखण्डितम् ॥ २०२॥ धर्मस्य पुरुत्तुङ्गः षष्टिचापप्रमाणकः । सप्तषष्टिलक्षाणि वर्षाणि चायुरुत्तमम् ॥ २०३ ॥ तुङ्गत्वं सुप्रभाख्यस्य पञ्चाशद्दण्डसम्मितस् । श्रायुरखण्डितं सप्तत्रिशल्लक्षाब्द मानकम् ॥ २०४ ॥ सुदर्शनस्य देहः पञ्चचत्वारिंशदुन्नतः । चापानि जीवितं सप्तदशलक्षाव्यगोचरम् ॥२०५॥ उन्नतिर्नन्दिनश्चं फोन त्रिशद्दण्ड सम्मिता । सप्तषष्टिसहस्राण्यायुर्वर्षाणामखण्डितम् ॥ २०६ ॥ उच्छ्रायोर्न दिमित्रस्य द्वाविंशतिधनुः समः । त्रिशत्सहस्रवर्षाणि ह्यायुर्बल पदेशिनः ॥ २०७ ॥ रामस्याङ्गसमुत्सेधः चापषोडशसंख्यकः । सप्ता दशसंख्यान्यऽब्दसहस्राणि जीवितम् ॥ २०८ ॥ अङ्गोfare पद्यस्य दशदण्डप्रमा मता । श्रायुर्वर्षाणि च द्वादशशतप्रमितान्यपि ॥ २०६॥ अर्थ :- विजय, अचल, धर्म, सुप्रभ, सुदर्शन, नन्दी, नन्दिमित्र, राम और पद्म ये बलदेव हैं । ||२००|| विजय बलदेव का उत्सेध ८० धनुष और प्रायु ८७ लाख वर्ष की थी || २०१|| अचल का उत्सेध ७० धनुष और प्रायु ७७ लाख वर्ष, धर्म का उत्सेध ६० धनुष और ग्रायु ६७ लाख वर्ष, सुप्रभ का उत्सेध ५० धनुष और मायु ३७ लाख वर्ष, सुदर्शन का उत्सेध ४५ धनुष और आयु १० लाख वर्ष, Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमोऽधिकार : [ २६७ नन्दी बलदेव का उत्सेध २६ धनुष और प्रायु ६७ हजार वर्ष, नन्दिमित्र का उत्सेध २२ धनुष और आयु ३७ हजार वर्ण, राम बलदेव का उत्सेध, १६ धनुष और प्राय १७ हजार वर्ष तथा नवमें बलभद्र पद्म का उत्सेध १० धनुष और पायु १२०० वर्ष प्रमाण थी ।।२०२-२०६॥ अब बलमद्रों के रत्न, अन्य सम्पदा, शरीर का वर्ण और प्राप्त होने वाली गति का दिग्दर्शन कराते हैं :-- गदा सद् रत्नमाला च मुशलं हलमूजितम् । सुररक्षाणि चत्वारीमानि रत्नानि सन्ति वै ॥२१॥ सर्वेषां बलभदाणा विध्यरूपाः स्त्रियोऽखिलाः । सहस्राटप्रमा अन्याः सम्पदः स्युश्च्युतोषमाः ।।२११॥ कुन्देन्दुवा दिव्याङ्गा धर्मशीलाः शुमाशया। बलेशाः सकला ज्ञेया निसर्गणोर्ध्वगामिनः ॥२१२॥ हलिनोऽष्टौ विजयाधास्तपोध्यानायुधबलात् । निहत्य कृत्स्नकर्माणि ययुर्मुक्ति सुखावनिम् ॥२१३॥ पदोऽन्तिमो गतो ब्रह्मस्वर्गसोऽप्यभरस्ततः । कृष्णं तीर्थेशमभ्येत्य मोक्षं यास्यति दीक्षया ॥२१४॥ अर्थ:-सर्व बलभद्रों के, देवों द्वारा रक्षित गदा, रत्नमाला, मुसल और उत्कृष्ट हल ये चार रत्ल, दिव्य रूप को धारण करने वाली पाठ-पाठ हजार रानियाँ तथा उपमा रहित और भो अन्य बहुत सम्पत्तियाँ होती हैं ॥२१०-२१११। सभी बलदेवों के दिव्य शरीर को प्राभा कुन्द पुष्प एवं चंद्रमा सदृश होती है । धर्म स्वभावो, शुभ चित्त वाले सभी बलदेवों की स्वभावतः ऊर्ध्वगति ही होती है। ॥२१२॥ विजयादि आठ बलभद्र तप एवं ध्यान रूपी शस्त्रों के बल से द्रव्य कर्म, भाव कम और नोकर्मों का नाश कर सुख की भूमि स्वरूप मोक्ष पद को प्राप्त हुए, अन्तिम बलभद्र पद्म ब्रह्मस्वर्ग में देव हुए हैं। कृष्ण नारायण का जीव जब तीर्थकर होगा तब ये भी दीक्षा धारण करके मोक्ष प्राप्त करेंगे ।।२१३-२१४॥ अब बलभत्रों का वर्तना काल दर्शाते हैं : श्रेयप्तो वर्तमानेऽत्र कालेऽभूहिजयो बलः । वासुपूज्य जिनेशस्या चळः काले प्रतिनि ॥२१॥ बभूव वर्तमानस्य विमलस्य जिनेशिनः । काले धर्मोऽप्यनन्तस्य वर्तमाने च सुप्रभः ॥२१६॥ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ ] सिद्धान्तसार दोपक धर्मस्य वर्तमानेऽभूत्काले सुदर्शनो बलः । जिनान्तरेऽरनाथस्य जातो नन्दी नरेश्वरः ।। २१७।। नन्दिमित्रो बभूव श्रीमल्लिनाथजिनान्तरे । सुनिसुव्रतनाथस्य जातो रामो जिनान्तरे ॥२१८॥ नेमिनाथस्य कालेऽभूत्पद्मः प्रवर्तमानकः । इत्यत्रोत्पत्तिकालाः स्युर्बलभद्रादिभूभृताम् ॥ २१६ ॥ अर्थ :- विजय नामक प्रथम बलदेव श्रेयांसनाथस्वामी के मान काल में अचल बलभद्र वासुपूज्य स्वामी के काल में, धर्म बलभद्र विमलनाथ स्वामी के काल में सुप्रभ श्रनन्तनाथ स्वामी के काल में और सुदर्शन बलदेव धर्मनाथ स्वामी के विद्यमान काल में उत्पन्न हुए थे। नन्दो बलदेव अरहनाथ स्वामी के अन्तरकाल में नन्दिमित्र मल्लिनाथ स्वामी के अन्तर काल में और राम मुनिसुव्रत नाथ के अन्तर काल में उत्पन्न हुए थे, तथा अन्तिम बलभद्र पद्म, मेमिनाथ स्वामी के विद्यमान काल में उत्पन्न हुए थे। इस प्रकार यहाँ बलभद्र प्रादि राजात्रों के उत्पत्ति काल हैं ।।२१५-२१६।। अब नौ नारायणों के नाम, स्वभाव, शरीर का वर्ण और उत्सेध का कथन करते हैं :-- त्रिपृष्टाख्यो द्विपृष्टोऽथ स्वयंम्भूः पुरुषोत्तमः । ततः पुरुषसच पुण्डरीक स्त्रिखण्डभाक् ॥ २२० ॥ वत्ताख्यो लक्ष्मणः कृष्णो वासुदेवा इमे नव । रौद्राशयाः प्रकृत्या स्युस्त्रिखण्डभरताधिपाः ।।२२१॥ व्रतशीलतपोहीनाः पञ्चाक्षसुखलोलुपाः । उल्लसत्कृष्णवर्णाङ्गा-बलाङ्गोच्चसमोन्नताः ॥ २२२ ॥ अर्थः- १ पृष्ठ २ त्रिपृष्ठ ३ स्वयम्भू, ४ पुरुषोतम ५ पुरुषसिंह, ६ ( पुरुष ) पुण्डरीक, ७ ( पुरुष ) दन, ८ लक्ष्मण और कृष्ण ये नव वासुदेव स्वभावतः रौद्र परिणामी व्रत, शील एवं तप से हीन, पंचेन्द्रिय सुखों के लोलुपी तथा भरत क्षेत्र में श्रार्य खण्ड आदि तीन खण्डों के अधिपति हुए हैं । इन सभी के शरीरों का वर्णं कृष्ण एवं उत्सेध बलदेवों के सदृश अर्थात् क्रमशः ८० ७०, ६०, ५०, ४५, २६,२२,१६ और १० धनुष प्रमारण था ।। २२०-२२२॥ --- अब सर्व नारायणों की श्रायु का कथन करते हैं लक्षाश्चतुरशीतिरचं वर्षाणामायुरजसा । त्रिपुष्टस्य द्विपुष्टस्यायुक्षाणि द्विसप्ततिः ॥ २२३॥ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमोऽधिकारः [२६६ स्वयंभूभूभृतोऽब्दानां षष्टिलक्षाणि जीवितम् । स्यात्पुरुषोत्तमस्याय: त्रिशलक्षाब्दसम्मितम् ।।२२४॥ प्रायः पुरुषसिंहस्य दशलक्षाग्दगोचरम् । पञ्चषष्टिसहस्राब्दाः पुण्डरीकस्य जीवितम् ।।२२।। बत्तस्यायुः परं द्वात्रिंशत्सहस्राब्दमानकम् । वर्षाणां लक्ष्मणस्यायुः सहस्रद्वादशप्रमम् ॥२२६॥ कृष्णस्य वासुदेवस्य सहस्रवर्षजीवितम् । इत्यत्र वासुदेवानां सन्त्यायू षि क्रमात् तथा ॥२२७॥ अर्थ :-प्रथम नारायण त्रिपृष्ट को प्राय ८४ लाख वर्ष की, द्विपृष्ट को ७२ लाख वर्ष की, स्वयम्भू की ६० लाख वर्ष की, पुरुषोत्तम की ३० लाख वर्ष की, पुरुषसिंह की १० लाख वर्ष की, पुण्डरीक की ६५००० वर्षा की, दत्त नारायण को ३२००० वर्ष की, लक्ष्मण की १२००० वर्ष की और अन्तिम वासुदेव कृष्ण को प्राथु १००० वर्षा प्रमाण थी। इस प्रकार वासुदेवों को यह आयु क्रम से होती है ।।२२३-२२७॥ अन नारायणों के सात रत्नों का एवं अन्य विभूति का वर्णन करते हैं : धनुः शङ्खो गदा चक्रं दण्डोऽसिः शक्तिरेव च । इमानि सप्तरत्नानि रक्षितानि सुरव्रजः ॥२२८।। विन्यरूपाः सुदेव्यः स्युः सहस्रषोडशप्रमाः । नृपा मुकुटबद्धाश्च सहस्र द्वयष्टसम्मिताः ।।२२६।। अमोषां वासुदेवानां सर्वेषां भूतयोऽपरा: । गजादिगोचरा बह्वषो विज्ञेया पागमे बुधः ॥२३०॥ अर्थः- प्रत्येक नारायण के पास देव समूह के द्वारा रक्षित धनुष, शंख, गदा, चक्र, दण्ड, असि, और शक्ति ये सात रत्न एवं दिव्य रूप को धारण करने वाली सोलह हजार श्रेष्ठ रानियाँ होती हैं, तथा मुकुटबद्ध सोलह हजार राजा इनकी सेवा करते हैं। इन सभी वासुदेवों के अन्य बहुत जनसमुदाय एवं हाथी घोड़े आदि होते हैं, जो विद्वानों के द्वारा प्रागम से जानने योग्य है ॥२२७-२३०।। अब नारायणों की गति विशेष का वर्णन करते हैं :-- त्रिपृष्टोऽपि महापापः सप्तमीभूमिमाश्रितः । हिपृष्टाण्यः स्वयंभूश्च पुरुषोत्तमसंज्ञकः ॥२३१॥ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० ] सिद्धान्तसार दीपक ततः पुरुषसिंहाख्यः पुण्डरीक इमेऽशुभात् । पंचार्धचक्रिरणो जग्मुः षष्ठोपृथ्वी वतातिगाः ।।२३२॥ दत्तोऽगात पंचमी बान्ते चतुर्थों लक्ष्मणः क्षितिम् । तृतीयां पृथिवीं कृष्णः स्वकर्मयशगो विधिः ।।२३३॥ अर्थ:-महापाप का भार से प्रथम नारायण त्रिषष्टि सम्म नरक, द्विपृष्ट, स्वयम्भू, पुरुषोत्तम, पुरुषसिंह और पुण्डरीक ये पांच नारायण अर्थात् प्रचंचक्रवर्ती अशुभ योग एवं व्रतरहित होने से छठे नरक, दत्तनारायण पाँचवें नरक, लक्ष्मण चौथे नरक और कृष्ण नारायाण अपने स्वकर्म के वशीभूत होते हुए तीसरे नरक गये हैं ।।२३१-२३३॥ अब प्रतियासुदेवों के नाम, उत्सेध, वर्ण एवं स्वभाव आदि का कथन करते हैं : अश्वनीवस्त्रिखण्डेशस्तारको मेरकाह्वयः । निशुम्भा केटमारिस्तु मधुसूदननामकः ॥२३४॥ वलिहन्ता ततो रावणो जरासिन्धसंज्ञकः । वासुदेवद्विषोऽमी प्रतिवासुदेवभूभृतः ।।२३५॥ बलेशाङ्गसमोत्तुङ्गाः श्यामकायाः सुरूपिणः । रौद्रध्यानाः प्रकृत्या स्युः समदा उद्धताशयाः ॥२३६।। अश्वनीवादयोऽत्राष्टौ तेषां मध्ये वियच्चराः। सन्त्यर्ध चक्रिणोऽन्त्यः स्याज्जरासंघो महीचरः ।।२३७।। अर्थ:-अश्वग्रीव, तारक मेरक, निशुम्भ. कंदभ, मधुसूदन, बलिहन्ता, रावण और जरासिन्ध नाम के ये नौ अर्धचक्री प्रतिवासुदेव हैं। ये प्रतिवासुदेव राजा वासुदेवों के शत्रु होते हैं । इनके शरीर की कान्ति श्याम वर्ण एवं उत्सेध बलदेवों के उत्सेध सदृश होता है । ये स्वभाव से रोद्र परिणामी, गर्व युक्त प्रौर उक्त प्रकृति के होते हैं -२३४-२३६॥ इनमें से अश्वग्रीव प्रादि पाठ प्रतिनारायण विद्याधर हैं और अन्तिम अर्धचत्री जरासिन्ध भूमिगोचरी हैं ।।२३७॥ अब प्रतिवासुदेवों की प्रायु और गति प्रादि का कथन करते हैं :-- पञ्चानां धासुदेवानामादिमानां सुजोधितः । सममायूषि पंचानां तच्छणां भवन्ति च ॥२३॥ षष्टस्यवान पंचाशत्सहस्रवर्षजीवितम् । सप्तमे वत्सराणां द्वात्रिंशत्सहस्रजीवितम् ।।२३६।। Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमोऽधिकार। [ ३०१ चतुर्दशसहस्राब्दान्यायुश्च रावणस्य वै। - जरासिंधनृपस्यायः सहस्रवत्सरप्रमम् ॥२४०।। त्रिखण्डस्वामिनोऽप्येते बह्वारम्भधनार्जनैः ।। प्रतीव विषयासक्त्योपाय पापं महत्परम् ॥२४१॥ धर्माहतेनववागुस्ताः पृथ्वोदुःखपूरिताः । रौद्रध्यानेन मृत्या या वासुदेवा गता नव ॥२४२।। वासुदेवप्रक्षिप्तेन स्वचक्रेणाखिला प्रमी । प्रवायं मरणं प्राप्य श्वभू यान्ति न चान्यथा ॥२४३॥ शलाकाया एते विलाशियका गरे । तुर्यकालेऽत्र जायन्ते नृपदेवखमाचिताः ॥२४४।। अर्थः-अश्वनीब आदि पाँच प्रतिवासदेवों को आयु त्रिषष्ठि श्रादि पाँच वासुदेवों के सदृश ही है। अर्थात् क्रमशः ८४ लाख वर्ष, ७२ लाख वर्ष, ६० लाख वर्ष, ३० लाख वर्ष और १० लाख वर्ष प्रमाण है ॥२३८॥ छठवें मधुसूदन प्रतिवासुदेव की ५० हजार वर्ष, बलि की ३२००० वर्ष, रावरण को १४००० वर्ष और नवमें प्रतिवासुदेव जरासिन्ध को आयु १००० वर्ष प्रमाण थी। 11२३६-२४०11 ये सब तीन खण्ड के स्वामी बहु प्रारम्भ परिग्रह एवं धनार्जन के द्वारा तथा अत्यन्त विषया शक्ति से अति महान पाप का उपार्जन करके धर्म के बिना, रौद्र ध्यान से मरण कर दुःख पूरित जिस जिस नरक पृथ्वी में नव दासुदेव जाते हैं, उसी पृथ्वीको ये प्राप्त होते हैं ॥२४१-२४२।। ये सभी प्रतिवासुदेव अपना चक्र वासुदेव पर छोड़ते हैं पश्चात् वासुदेव के द्वारा छोड़े हुए उसी चक्र से ये अवश्यमेव मृत्यु को प्राप्त होकर नरक जाते हैं। अन्य और किसी गति को प्राप्त नहीं होते ।।२४३।। यहाँ चतुर्थकाल में नरेन्द्रों, देवों एवं विद्याधरों से पूजित ये त्रैस शलाका के पुरुप उत्पन्न होते हैं ।।२४४॥ अब रुद्रों के नाम, उनका उत्सेध एवं प्रायु का कथन करते हैं : भीमो बलिजितारिश्च विश्वानलाढयस्ततः । सुप्रसिष्ठोऽचलाभिख्यः पुण्डरोकोऽजितन्धरः ॥२४५।। जितनाभिस्ततः पाठः सात्वकोतनयोऽयमी । व्रतभ्रष्टात्मजारुद्रा भवन्त्येकादशाशुभाः ॥२४६।। Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ ] सिद्धान्तसार दीपक भीमस्याङ्गसमुत्सेधो धनुः पञ्चशतानि च । यशी तिलक्षपूर्वाध्यायुर्वीक्षापतितात्मनः ॥ २४७ ॥ उच्छ्रितिश्च बलेश्चापसाधंचतुःशतप्रभा । एकसप्ततिलक्षाणि पूर्वारगामायुरञ्जसा ।। २४८ ॥ जिता रेवं पुरुत्सेधो धनुः शतप्रमाणकः । श्रायुद्विलक्षपूर्वाणि चारित्रचलितात्मनः ॥२४६ ॥ विश्वानलस्य वेहोच्चो धनुर्नयतिसम्मितः । प्रायुर्लक्षपूरण रत्नत्रयात्मनः ।। २५० ।। सुप्रतिष्ठस्य कायोच्चश्चापाशीतिप्रमो मतः । लक्षाश्चतुरशीतिश्च वर्षाणामायुरुत्तमम् || २५१ ॥ देहोत्सेधोऽचलस्यास्ति बण्डसप्रतिमानकः । प्रायुश्च षष्टिलक्षारिण वत्सराणां चलात्मनः ।। २५२ ।। उन्नतिः पुण्डरीकस्य षष्टिचापत्रमा स्मृता । पञ्चाशल्लक्षवर्षायुस्त्यक्तमोक्षात्मजात्मनः ।। २५३ ॥ तुङ्गोऽजितन्वरे कायः पंचाशदण्डमानकः । प्रायुर्वर्षाणि चत्वारिंशल्लक्षप्रमितानि च ॥ २५४ ॥ उच्छ्रितिजितनाभेश्चाष्टाविंशतिधनुः प्रभा । प्रायुविंशतिलक्षाणि वर्षाणां चंचलात्मनः ।। २५५ ॥ चतुविशतिचापानि पीठस्याङ्गसमुन्नतिः । प्रायुश्च लक्षवर्षाणि व्रतशीलच्युतस्य वै ।। २५६ || सात्यकीतनयस्याङ्गोत्सेधः सप्तकरप्रमः । जीवितं त्यक्तवृतस्य वर्षाण्ये कोनसप्तति ।। २५७।। अर्थः- १ भीम, २ बलि, ३ जितारि, ४ विश्वानल, ५ सुप्रतिष्ठ, ६ अचल, ७ पुण्डरीक, म अजितधर जितनाभि, १० पीठ और ११ सात्विकीतनय ये ११ रुद्र अशुभ चित्तवृत्ति के धारी और चारित्र से भ्रष्ट होने वालों के पुत्र हैं ।। २४५ - २४६ ॥ प्रथम रुद्र भीम का उत्सेध ५०० धनुष और श्रायु ८३ लाख पूर्व की थी, यह दीक्षा से च्युत होने वाले मुनि आर्यिका की सन्तान है || २४७ ॥ बलिरुद्र का उत्सेध ४५० धनुष और आयु ७१ लाख पूर्व की थी || २४८ || जितारि का उत्सेध १०० धनुष और आयु दो लाख पूर्व की थीं, यह भी चारित्र भ्रष्ट होने वालों का पुत्र है || २४६|| विश्वानल के देह की Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमोऽधिकारः [३०३ ऊँचाई ६० धनुष और आयु एक लाख पूर्व की थी। यह भी रत्नत्रय से भ्रष्ट होने वालों का पुत्र है। ॥२५०।। सुप्रतिष्ठ का उत्सेध ८० धनुष और आयु ८४ लाख वर्ष की थी ॥२५१॥ मचल रुद्र का उत्सेध ७. धनुष और प्रायु ६० लाख वर्ष की थी, इसके माता पिता भी चारित्र रूपी रत्न को नष्ट करने वाले थे ।।२५२।। दीक्षा लेकर जो भ्रष्ट हो चुके थे ऐसे मुनि श्रायिका से उत्पन्न होने वाले पुण्डरीक रुद्र का उत्सेध ६० धनुष और प्रायु ५० लाख वर्ष की थी ।। २५३ ।। अजितन्धर रुद्र का उत्सेध ५० धनुष और आयु ४० लाख वर्ष को थी ।। २५४ 1। चारित्र से चलायमान हो चुकी थी प्रात्मा जिनको ऐसे मुनि प्रायिका से उत्पन्न जितनाभि रुद्र का उत्सेध २८ धनुष और आयु २० लाख वर्ष प्रमाण थी ।।२५५।। व्रत और शील से च्युत मुनि आयिका से उत्पन्न होने वाले पीठ रुद्र का उत्सेध २४ धनुष और प्राय एक लाख वर्ष प्रमाण थी ।।२५६।। अपने जीवनकाल में ही चारित्र को छोड़ देने वाले मुनि प्रायिका से उत्पन्न हुए सास्विकौतनय रुद्र का उत्सेध सात हाथ प्रमाण और वायु ६६ वर्षे प्रमाण थी ॥२५७।। प्रम रद्रों का वर्तनाकाल कहते हैं :-- जातो नाभेयकाले द्वायेतो भीमवली भुवि । पुष्पदन्तस्य कालेऽभूज्जितारिः श्रीजिनेशिनः ॥२५८।। रुद्रो विश्वानलो जातः काले श्रीशीतलस्य च । श्रेयसो वर्तमाने काले सुप्रतिष्टसंजकः ।।२५६॥ वासुपूज्यस्य काले प्रवर्तमानेऽचलोऽभवत् । काले विमलनाथस्य पुण्डरीको बभूव च ।।२६०।। फाले बिहरमाणस्थानन्तस्यात्राजितन्धरः । धर्मनाथस्य कालेऽभूज्जितनाभिसमाह्वयः ॥२६१॥ शान्तेः प्रवर्तमानस्य काले पोठाभियोऽभवत् । सात्यकीतनयो जातः काले वीरस्य सम्प्रति ।।२६२॥ अर्थ :-पुष्पदन्त जिनेन्द्र के काल में जितारि रुद्र, शीतलनाथ के काल में विश्वानल, श्रेयांस नाथ के काल में सुप्रतिष्ट नाम के रुद्र हुए हैं ॥२५८-२५६।। वासुपूज्य भगवान् के काल में प्रचल रुद्र, विमलनाथ के काल में पुण्डरीक, अनन्तनाथ के काल में अजितन्धर, धर्मनाथ के काल में जितनाभि, शान्तिनाथ के काल में पोठ रुद्र और वीर प्रभु के काल में सात्विको तनय नामक रुद्र उत्पन्न हुए हैं ।।२६०-२६२॥ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ ] सिद्धान्तसार दीपक प्रय उन रुत्रों द्वारा प्राप्त नरकों को एवं नरकगति को प्राप्ति के मूल कारणों का वर्णन करते हैं : रखा रौद्राशया एते दीक्षापतितसूनवः । विद्यानुबाबपाठेन प्राप्त विद्याश्चलात्मकाः ।।२६३॥ विषयासक्तदुर्बु बघा त्यक्तदृरज्ञानसंयमाः । दीक्षाभङ्गमहापापर्ययुः श्वभ यथोचितम् ॥२६४।। हौ भीमबलिसंज्ञौ च नरक सप्तमं गतौ । दीक्षाभङ्गाज्जितारिश्च रुद्रो विश्वानलाख्यकः ॥२६५।। सुप्रतिष्ठोऽचलः पुण्डरीको रुद्रा इमेऽखिलाः । पञ्च पवन ययुः षष्ठं रत्नत्रयतपोस्थयात् ।।२६६॥ रुद्रोऽजितन्धराभिस्यो जगाम पञ्चमी क्षितिम् । गौश्वभ्रं चतुर्थं जितनाभिपीठसंज्ञको ।।२६७।। सात्विकीतनयः प्राप्तस्तृतीयां पृथिवीमहो । एते तपस्विनो दृष्टिज्ञानसंयमभूषिताः ॥२६८।। दीक्षाभङ्गाजपापौधयधगुश्चेदृशीं गतिम् । ततो मन्येऽहमति दीक्षाभङ्गसमं महत् ॥२६॥ न भूतं भुवने पापं नास्ति नाग्रे भविष्यति । अपमानं च निन्धत्वं निर्लज्जवं जगत्रये ॥२७०।। मत्वेति धोधनः सारं वृत्तरत्नं सुदुर्लभम् । स्वप्नेऽपि नात्र नेसव्यं मलपाश्र्वेऽतिनिर्मलम् ॥२७१॥ अमीषां सर्वरुद्राणां भवः कतिपयैः स्फुटम् । लब्धसम्यक्त्वमाहात्म्यानिर्वाणं भविता व्रतैः ॥२७२।। अर्थाः-रोद्र परिणामी ये सभी रुद्र जैनेन्द्री दीक्षा को नष्ट कर देने वाले मुनि प्रायिकानों के पुत्र हैं। ये सभी दैगम्बरी दीक्षा धारण करके विद्यानुबाद नामक दशर्के पूर्व को पढ़ते हैं, उससे इन्हें विद्याओं की प्रानि होती है, उससे इनकी प्रात्मा चलायमान हो जाती है, और विषयों में प्रासक्त दुर्बुद्धि से अपने ग्रहण किये हुए दर्शन, ज्ञान और संयम को छोड़कर दीक्षाभङ्ग के महान् पाप से यथोचित् नरकों को प्रात करते हैं ।।२६३-२६४॥ दीक्षा भङ्ग के पाप से भीम और बलि ये दो रुद्र सप्तम नरक को प्राप्त हुए हैं । जितारि, विश्वानल, सुप्रतिष्ठ, अचल और पुण्डरीक ये पांच रुद्र रत्नत्रय एवं तपके Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमोऽधिकारः [ ३०५ परित्याग से छठवें नरक को प्राप्त हुए ।। २६५-२६६ ।। अजितधर नाम का रुद्र पाँचवें नरक, जितनाभि और पीठ ये दो रुद्र चौथे नरक तथा सात्विकीतनय तीसरे नरक को प्राप्त हुए हैं। सम्यग्दर्शन, ज्ञान एवं संयम से विभूषित ये सभी तपस्वी ( रुद्र ) दीक्षाभङ्ग से उत्पन्न होने वाले पाप के समूह से ही इस प्रकार की दुर्गति को प्राप्त होते हैं, इसलिए मानता हूँ कि परी में दीक्षा भङ्ग बराबर महान् पाप, अपमान, निन्द्यपना एवं निर्लज्जता न कभी ( अन्य क्रियाओं से ) भूतकाल थी, और न कभी भविष्यतकाल में होगी । त्रैलोक्य में बुद्धिमानों के द्वारा सारभूत प्रति दुर्लभ रत्न चारित्र ही माना गया है अतः प्रति निर्मल चारित्र के समीप स्वप्न में भी मल नहीं लाना चाहिए । अर्थात् ग्रहण किए हुए चारित्र में स्वप्न में भी दोष नहीं लगाना चाहिए ।। २६७ - २७१।। इन सभी रुद्रों को अनेक भवान्तरों के बाद प्राप्त किये हुए सम्यक्त्व के माहात्म्य से चारित्र होगा और चारित्र के द्वारा इन्हें निर्वाण की प्राप्ति होगी ॥ २७२ ॥ a नौ नारदों के नाम एवं उनका अन्य वर्णन संक्षिप्त में करते हैं। भीमायो महाभीमो रुद्रसंज्ञस्तृतीयकः । महारुद्राभिषः कालो महाकालश्चतुर्मुखः ॥ २७३ ॥ ततो नरमुखो नाम्नोन्मुखोऽत्र नारदा इमे । वासुदेवसमानायुः कायोच्चाः कलहप्रियाः || २७४ ॥ हिंसानन्दपरा नित्यं कदाचिद्धर्मवत्सलाः । जाता नवैव काले बलभद्रादित्रिभूभुजाम् || २७५ ॥ ते स नारदाः हिसानन्दोत्थ पापपाकतः । जग्मुः श्वभ्रं यथायोग्यमन्येषां कलियोजनात् ।। २७६ ।। -: ग्रर्थः - १ भीम, २ महाभीम, ३ रुद्र, ४ महारुद्र, ५ काल, ६ महाकाल, ७ चतुर्मुख, ८ नरमुख और उन्मुख (अधोमुख) नाम के ये है नारद हैं। इनकी आयु एवं शरीर का उत्सेध वासुदेव के सदृश ही होता है । श्रर्थात् भीम यादि नारदों की सायु ग्रथाक्रम से ८४ लाख वर्ष ७२ लाख वर्ष, ६० लाख वर्ष ३० लाख वर्ष, १० लाख वर्ष, ६५ हजार वर्ष ३२ हजार वर्ष, १२००० वर्ष और एक हजार वर्ष की हुई है। इसी प्रकार प्रथमादिक के क्रम से इनका उत्सेध क्रमशः ८०,७०,६०,५०,४५, २६, २२, १६ और १० धनुष प्रमाण था ।।२७३ - २७४ || ये सभी नारद कलह प्रिय होते हैं और नित्य ही हिसानन्द रौद्र ध्यान में संलग्न रहते हैं। ये कदाचिद् धर्मवत्सल भी होते हैं। ये सभी बलभद्र एवं त्रिखण्डी नारायण भादि के समय में ही उत्पन्न होते हैं 11२७५ || वे सभी नारद हिसानन्दी रौद्रध्यान से उत्पन्न हुए पाप के फल से तथा अन्य जीवों को युद्ध में संयुक्त कराते रहने से यथा योग्य (परिणामों के अनुसार ) नरकों में हो जाते हैं ।।२७६ ।। Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्तसार दीपक प्रब पञ्चमकाल का संक्षिप्त वर्णन करते हैं : ततोऽत्र दुषमाकालः कृत्स्नदुःख निबन्धनः । एकविंशतिसंख्यानसहस्रयर्षसम्मितः ।।२७७।। अस्यादौ मानवाः सन्ति सप्तहस्तोच्चविग्रहाः । रूक्षकायाश्च विशत्यग्रवत्सरशतायुषः ॥२७॥ दिनमध्ये सकृद्वारमाहरन्त्यशनं जनाः । बलसरवसुबुद्ध घाद्योनाः केचिच्च संयुताः ।।२७६ ।। अर्शी-आर्य क्षेत्र में चतुर्थकाल की समाप्ति के बाद सम्पूर्ण दुःखों का निबन्धन करने (बांधने) वाला, २१००० वर्ष प्रमाग से युक्त दुखमा नामका पञ्चम काल प्रारम्भ होता है। इसके प्रारम्भ में मनुष्यों के शरीर को ऊँचाई सात हाथ प्रमा], तिरू और आयु १२० वर्ष की होती है। उस समय.मनुष्य दिन में अनेक बार भोजन करने वाले होते हैं। उस समय कोई कोई मनुष्य वल, सत्व और उत्तम बुद्धि के धारक होते हैं, किन्तु अधिकांशतः इनसे रहित ही होते हैं ।।२७७-२७६।। प्रब शक राजा और प्रथम कल्को की उत्पत्ति का काल तथा कल्की का नाम एवं प्रायु प्रादि का कथन करते हैं :-- त्यक्त्वा सम्वत्सरान् पञ्चाधिकषट्शतसम्मितात । पञ्चपासयुतान मुक्ति वर्धमाने गते सति ।।२८०।। शकराजोऽभवत् स्यातस्ततोऽन्देषु गतेष्वपि । चतुर्नबतिसंयुक्तत्रिशतप्रमितेषु च ।।२८१।। सप्तमासाधिकेष्वासीत् कल्कीचतुर्मुखाह्वयः । वर्षसप्ततिजीवो सद्धर्मद्वेषोह चादिमः ।।२८२॥ अर्थ:--श्री वर्धमान स्वामी के मोक्ष जाने के ६०५ वर्ष ५ मास बाद शक राजा (विक्रमादित्य) हुया था, और शक राजा के ३६४ वर्ष ७ माह अर्थात् बीर भगवान के मोक्ष जाने के ६०५ वर्ष ५ मास + ३६४ वर्ष ७ माह =१००० वर्ष बाद चतुमुंख नाम का प्रथम कल्की उत्पन्न हुआ था। इसकी प्रायु ७० वर्ष प्रमाण थी । यह राजा जैन धर्म का अत्यन्त विद्वेषी था॥२८०-२८२।। अब प्रथम कल्को चतुर्मुख के और उसके पुत्र जयध्वज के कार्य कहते हैं : सोऽन्यदाजितभूमि प्रधानाख्यमित्यमादिशत् । निर्ग्रन्थामुनयोऽस्माकमवश्याः सन्ति भूतले ॥२८३॥ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमोऽधिकारः [ ३०७ एतेषां पाणिपात्रे सदनासं प्रदत्तमाधिमम् । स्वं गृहाण स्वशुन्कायेत्यादेशं ववभूकारणम् ॥२४॥ श्रुत्वा स मूढधीमंन्त्री सर्व तथाकरोत्तदा । सदुपद्रवतोऽशासन व्याकुला मुनयो नृपात् ॥२८५।। उपसर्ग विदित्वा तं मनीनामसुराधिपः । चतुर्मुखं जघानाशु जिनशासनरक्षकः ॥२६॥ ततो मृत्वा स पापात्मा फल्को पापविपाकतः । विश्वदुःखाकरीभूतं प्रथमं नरकं गतः ॥२७॥ तदाशु तवयात्तस्य सुतो जध्वं जपाह्वयः । जिनशासनमाहात्म्यं प्रत्यक्ष वीक्ष्य तस्कृतम् ॥२८८।। सम्यक्त्यरत्नमादाय काललब्ध्यासुशिनम् । स्वसैन्यस्वजनाद्यश्च जमाम शरणं सह ।।२८६।। अहो | पुण्याधकीणां शुभाशुभं फलं महत् । इहैव दृश्यते साक्षात्का वार्ता परजन्मनि ।।२६०॥ अर्थ :---उस चतुर्मुख कल्की ने अपने योग्य भूमि को जीत कर प्रधानमन्त्री को इस प्रकार आदेश दिया कि इस भूतल पर निर्ग्रन्थ मुनि हमारे वश में नहीं हैं अतः उनके पाणिपात्र में दिया हुआ प्रथम ग्रास तुम ग्रहण करो। नरकगति के कारण भूत मादेश को सुन कर उस मुहमति मन्त्री ने सर्व कार्य उसी आदेशानुसार किया, उस समय उस उपद्रव से उस क्षेत्र में रहने वाले समस्त मुनिजन राजा से बहुत व्याकुल हो गये ( इस राजा के द्वारा जनधर्म नाश हो रहा है इसलिए मुनिजन व्याकुल हुए) ।।२८३-२८५।। मुनियों के उपसर्ग को जानकर जिनशासन के रक्षक असुरेन्द्र ने शीघ्र ही उस चतुर्मुख राजा को मार डाला ।।२८६॥ वह पापात्मा कल्की मर कर पापोदय से सम्पूर्ण दुःखों के प्राकर स्वरूप प्रथम नरक गया ॥२८५।। उसी समय कस्को का पुत्र जयध्वज और स्त्री चेलका असुरेन्द्र के भय से और जनधर्म कृत जिनशासन के माहात्म्य को प्रत्यक्ष देख कर तथा काललब्धि के प्रभाव से सम्यक्त्व रूपी महारल को ग्रहण करता हुआ शोन छी अपनी सेना एवं स्वजन परिजनों के साथ असुरेन्द्र की शरण में गया ।।२८८-२८६।। अहो ! पुण्य करने वालों के महान् शुभ फल और पाप करने वालों के महान अशुभफल साक्षात् यहां ही दिखाई दे जाते हैं अगले जन्म की तो क्या बात ! ॥२६॥ प्रब अन्तिम कल्की का स्वरूप और उसके कार्यों प्रावि का दिग्दर्शन कराते हैं : Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्तसार दोपक इति मुक्ति गते धीरे प्रतिवर्षसहस्रकम् । एकको जायले कल्की जिनधर्मविराधकः ।।२६१॥ तेषां विंशति संख्येषु गतेष्वत्रान्तिमः खलः । जलमन्थननामोन्मार्गस्थः कन्को भविष्यति ।।२६२॥ इन्द्र राजमुनेः शिष्यो यतिवीराङ्गदाभिधः। अन्तिमश्चाधिका सर्वश्रीः श्रावकोऽग्निलायकः ॥२६३॥ श्राविका च प्रिया तस्य पञ्चसेनाभिधा तदा । कालदोषेण चत्वारोऽमोस्थास्यन्ति सुर्धामणः ॥२६४।। स कल्को पापधीः पापात् पूर्ववत् तस्य सन्मुनेः । सद्ग्रासहरणाद्यमहोपसर्ग करिष्यति ॥२६५।। चत्वारस्ते तदा तस्मिन्नुपसर्गे शिवाप्तये । ग्रहीष्यन्ति सुसंन्यासं स्पषत्वाहारं चतुर्विधम् ।।२६६॥ ततो दिनत्रयेगव मुक्त्वा प्राणान् समाधिना । दुःषमस्येव कालस्यावसानस्य स्थितेषु च ।।२६७॥ साष्टिमाससंयक्त-त्रिवर्षोडरितेष्वपि । पूर्वाह्न कार्तिके मास्यमावास्यायां शुभोदयात् ।।२९।। अन्ते सौधर्मकल्पं ते चत्वारः सुखसागरम् । गमिष्यन्ति महाशर्म मोक्तारो धर्मतत्पराः ॥२६॥ तन्मनेः सागरैकं च भवितायुरखण्डितम् । तत्र शेषत्रयाणां च पन्यमेकं हि साधिकम् ॥३००।। ततः पञ्चमकालस्य दिनस्य चरमस्य च । पूर्वाह द्विविधो धर्मो विनश्यति सुखाकरः ॥३०१॥ राजा मध्याह्नकाले चापरा वह्निरञ्जसा । ततोऽतिदुःषमाकालः षष्ठो दुःखेकसागरः ॥३०२।। अर्थाः-इस प्रकार महावीर स्वामी के मोक्ष चले जाने पर प्रत्येक एक एक हजार वर्ष बाद जिनधर्म का विरोधी एक एक कल्की उत्पन्न होता है। बोस कल्को उत्पन्न हो चुकने के बाद जन्मार्गगामी एवं दृष्ट स्वभावी जलं मन्थन नाम का अन्तिम कल्को होगा ॥२६१-२६२५१ उस समय इन्द्रराज Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमोऽधिकारः [ ३०६ मुनिराज के शिष्य वीराङ्गद नाम के अन्तिम मुनिराज, सर्व श्री प्रायिका, अग्निल नाम का श्रावक और उसको प्रिया पंचसेना नाम की श्राविका काल दोष से ये चार ही धर्मात्मा जोव अबस्थित रहेंगे ॥२६३-२६४|| पाप बुद्धि को धारण करने वाला वह जलमत्थन कल्की पापोदय से पूर्व कल्कियों के सद्दश वीराङ्गद मुनिराज के पाणिपात्र से प्रथम नास का हरण कर घोर उपसर्ग करेगा । तब उस उपसर्ग के प्राप्त होते ही वे चारों धर्मात्मा जीव चारों प्रकार के प्राहार का त्याग कर सुख प्राति के लिए उत्तम मंन्यास ग्रहण कर लेगे ॥२६५-२९६।। पंचम ( दुःग्यमा ) काल के अन्त में तीन वर्ष साढ़े आठ मास अवशेष रहने पर कातिक बदो अमावस्या को प्रातः काल के शुभ उदय में तीन दिनों में हो वे चारों धर्मात्मा जीव समाधिपूर्वक प्राणों को छोड़कर सुख के सागर स्वरूप सौधर्मवाल्प में चले जावेंगे और वहाँ धर्म में तत्पर रहते हुए महा सुखों को भोगेंगे ।।२६७-२६६।। स्वर्ग में वे मुनिराज खण्ड रहित एक सागर की और शेष तीनों जीव कुछ अधिक एक पल्य की आयु प्राप्त करेंगे ।।३००।। पंचम काल के उसी अन्तिम लिन पात: काना नुसती वा पण मुनि रग भावक धर्म का नाश होगा, मध्याह्न काल में राजा का और सन्ध्याकाल में अग्नि का नाश हो जायगा ।।३०१-३०२॥ अब अतिदुखमाकाल का दिग्दर्शन कराते हैं :---- धर्मशर्मातिगः पञ्चमकालस्थितिसंख्यकः । विश्वानिष्टाफरीभूतः पापिसत्त्वकुलालयः ।।३०३॥ अस्यादौ धूम्रवर्णाङ्गा नरा हस्तव्योन्नताः । शाखामृगोपमानग्ना वर्षविंशतिजीविनः ॥३०४॥ मांसाधाहरिणोऽनेकवाराशिनो दिनं प्रति । बिलादिवासिनो दुष्टा प्रायाता दुर्गतिद्वयात् ।।३०५॥ मात्रादिकामसेवान्धास्तिर्यग-नरकगामिनः । भविष्यन्ति दुराचाराः पापिनो दुःखभोगिनः ।।३०६॥ तस्मिन् काले शुभातीते मेघास्तुच्छजलप्रवाः । स्वादुवृक्षोज्झितापृथ्वी निराश्रया नराः स्त्रियः ।।३०७॥ कालस्यान्ते करकोच्चदेहा नराः कुरूपिणः । उत्कृष्टषोडशादायुष्काः शीतोष्णादिपीडिताः ॥३०८।। प्रान्ते तस्मेव कालस्य कियद्दिनावशेषतः । स्फुटिष्यति मही सर्वा निःशेषं वारिशोक्ष्यति ॥३०॥ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० ] सिद्धान्तसार दोपक से तदात्युष्णसंतप्ता भ्रमिष्यन्ति दिशोऽखिलाः । मूर्द्धायास्यन्ति दुःखार्ता यमान्तं चाप्यनेकशः ।। ३१० ॥ विषयापिरेः सिधुनङ्गः सरितस्तवा | युग्मानि बहुजीवानां द्विसप्ततिमितान्यपि ॥ ३११ ॥ बिलादिषु वगाधीशा नेष्यन्ति कृपया स्वयम् । तथा श्रर्थः - दुखमा नामक पंचम काल की समाप्ति के बाद मात्र एक दु:ख के सागर स्वरूप प्रतिदुखमा नाम के छठवें काल का प्रारम्भ होगा। इसको स्थिति पंचम काल के सदृश २१००० वर्ष की ही होगी । यह काल धर्म और सुख से रहित समस्त अनिष्टों के खान स्वरूप और पापी जीवों के समुदाय व्याप्त होगा || ३०३ || इस काल के प्रारम्भ में बन्दरों की उपमा को धारण करने वाले मनुष्यों के शरीरों का वर्णं धूमू के सश, ऊंचाई दो हाथ प्रमाण और उत्कृष्ट श्रायु बीस वर्ष की होगी, ये सब नग्न ही रहेंगे। प्रतिदिन अनेकों बार मांस आदि का भोजन करेंगे, बिलों आदि में निवास करेंगे, दुष्ट प्रकृति के होंगे और नरक एवं तिर्यञ्च इन दोनों गतियों से आकर यहाँ उत्पन्न होंगे ॥१३०४- ३०५|| अत्यन्त दुराचारी, पापी, दुःख भोगने वाले, काम वासना से अन्ध माता प्रादि से भी व्यभि चार करने वाले तथा मरण कर नरक और तिर्यञ्च इन दोनों गतियों में जन्म लेने वाले होंगे ।। ३०६ || इस काल में मेघ प्रत्यन्त अशुभ एवं अल्प जल देने वाले होंगे। पृथ्वी स्वाद एवं सार युक्त वृक्षों से रहित एवं पुरुष स्त्री निराश्रय रहेंगे || ३०७|| काल के अन्त में मनुष्यों की ऊँचाई एक हाथ और श्रायु सोलह वर्ष प्रमाण होगी । मनुष्य कुत्सित रूप वाले एवं श्रीत उष्ण को बाबाओं से पीड़ित होंगे ॥ ३०८ ॥ इस अतिदुखमा काल के अन्त में जब कुछ दिन श्रवशेष रहेंगे, तब यहाँ को पृथ्वी फट कर सम्पूर्ण जल का शोषण कर लेगी, तब वे सभी जीव प्रति उष्णता से सन्तप्त होते हुए सम्पूर्ण दिशाओं में परिभ्रमण करेंगे, और उनमें से दुःख के कारण श्रनेक जीव तो मूचित हो जाते हैं भौर अनेक मरण को प्राप्त हो जाते हैं ।। ३१०। उस समय कृपावन्त विद्याधर बहत्तर कुलों में उत्पन्न जीवों के बहत्तर युगलों को विजयार्ध पर्वत की गुफाओं में, गङ्गा सिन्धु नदियों की वेदियों में श्रीर बिलों में ले जाकर वहां रख देते हैं ।। ३११ - ३१२ ।। नोट:- ३१२ श्लोक के दो चरणों का अर्थ ऊपर किया गया है, शेष दो चरणों का आगे लिखा जायगा । अब दुहियों के नाम, उनका फल और जघन्य श्रायु श्रादि का कथन करते हैं : 1 सावर्ताऽनिल ष्टिः संत्याम्बुवृष्टिरञ्जसा ।। ३१२॥ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमोऽधिकारः [ ३११ प्रतिक्षाराम्बुवृष्टिश्च विषवृष्टिः सुदुःसहा । अग्निवृष्टी रजोवृष्टि मवृष्टिर्भविष्यति ॥३१३॥ सप्तसप्तदिनान्युच्च विश्वाङ्गिक्षयकारिणी । तन् वष्टिभिरधोभागे योजनान्तं महीतलम् ॥३१४॥ भस्मसाद् भविता तूनं जीयानामजसा क्षयः । इत्याहुर-वसपिण्याः स्वरूपं सकलं जिनाः ॥३१॥ प्रादौ द्वितीयकालादीनामुत्कृष्टाश्चये मताः । प्रायुरुत्सेधशर्माद्या प्राणां भोगशालिनाम् ॥३१६।। अन्ते प्रथमकालादिषु जघन्यादिषु तेऽखिलाः। ज्ञातव्या अवसपिण्याः षट् कालानामिति स्थितिः ॥३१७॥ अर्था:- छठवें काल के अन्त में सर्व प्रथम सावतं नाम की बायु चलेगी, पश्चात् अत्यन्त शोतल जल की, पश्चात् प्रतिक्षार जल की और इसके बाद अत्यन्त दुस्सह विष की वृष्टि होगी। इसके पश्चात् सात सात दिन पर्यन्त सर्व जीवों का नाश करने वाली अग्नि घृष्टि, धूलि वृष्टि और धूम की वृष्टि होगी। इन दुर्वष्टियों से पृथ्वी, नोचे एक योजन पर्यन्त भस्म हो जावेगी, और नियम से सर्व जीवों का नाश हो जायगा । इस प्रकार सभी जिनेन्द्रों ने अवसपिणी काल का स्वरूप कहा है ।।३१२ ( के दो चरण) ३१५॥ द्वितीय आदि कालों के प्रारम्भ में भोगभूमिज मनुष्यों को जो उत्कृष्ट प्रायु, उत्सेध एवं सुख आदि पूर्व में कहा गया है, वही सब प्रथम मादि कालों के अन्त में जघन्य रूप से जानना चाहिए। अर्थात् द्वितीय काल की आदि में जो उत्कृष्ट प्रायु आदि कही है, वह प्रथम काल के अन्त की जघन्य है। इस प्रकार अवसर्पिणी काल सम्बन्धी छह कालों को अवस्थिति जानना चाहिए ॥३१६-३१७॥ अब उत्सपिणी काल के प्रथम काल का वर्णन करते हैं :-- ततोऽलिदःषमाद्याः षटकाला वृद्धियुताः क्रमात । उत्सपिण्यो भविष्यन्त्यलोत्सेधार्बलादिभिः ॥३१८।। तस्या प्रत्रादिमः कालः षष्ठेन सदृशोऽखिलः । क्रमवद्धियुतश्वातिदुःषमाख्यो बलादिकः ॥३१॥ तस्यादौ जलसवृष्टिः क्षीरवृष्टिर्घनोभवा । घृतवृष्टिस्ततोऽपोक्षुरसष्टिः सुखप्रदा ॥३२०॥ सुधावृष्टिर्जगताप-नाशिनी च भविष्यति । सप्तसप्तदिनान्यत्र सुगन्धा शीतला मही ।।३२१॥ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्तसार दीपक तिर्यंचो मानवास्तद्गन्धाकृष्टाश्च निजेच्छया । नाना युगलरूपेण वतिष्यन्ते वृषातिगाः ।।३२२।। ते सर्वे मृण्मयाहारजीविनो वृद्धिसंयुताः। प्रायुनलहायता मानान्तमा ३२२! अर्थ:---अवसपिणी काल की परिसमाप्ति के अनन्तर ही उत्सपिणी सम्बन्धी अति दुखमा आदि छह काल होंगे, जिनमें उत्पन्न होने वाले जीव उत्सेध, नायु एवं बल आदि के द्वारा क्रम से वृद्धि को प्राप्त होंगे ॥३१॥ अवसर्पिणी के छठवें काल के सदृश उत्सर्पिणो का दुख मादुखमा नाम का प्रथम काल है। अन्तर केवल इतना है कि इस काल में बल, प्राय और विवेक आदि की क्रमशः वृद्धि होती जायगी ।।३१६। इस काल के प्रारम्भ में जगत का सन्ताप नाश करने वाली और सुख प्रदान करने बाली सात सात दिन पर्यन्त उत्तम जल की, दूध की, घी की, इक्षु रस को और अमृत की वर्षा होगी, जिससे पृथ्वी शीतल और सुगन्धित हो जायगी ।।३२०-३२१॥ उस गन्ध से प्राकृष्ट होकर मनुष्य और तिर्यञ्चों के अनेक युगल अपनी इच्छा से उन गुफाओं आदि से निकल कर वृद्धि को प्राप्त होंगे। वे सब जीव उस प्रथम काल के अन्त पर्यन्त धर्म से रहित, मिट्टी मय पाहार से जीवन यापन करने वाले तथा प्रायु, देह के उत्सेध, बल एवं बुद्धि प्रादि से निरन्तर वृद्धिंगत होते रहेंगे 1३३२२-३२३|| प्रब उत्सपिणोकाल सम्बन्धी द्वितीय बुखमा काल का वर्णन करते हैं : उत्सपिण्यास्ततोऽप्यस्या द्वितीयो दुःषमाभिधः । कालः पञ्चमसादृश्यो भविता क्रमवृद्धिभाक् ॥३२४॥ अन्ते द्वितीयकालस्यावशिष्टे ऽब्दसहस्रके । सत्येते कूलकत्रो भविष्यन्त्यत्र षोडश ।।३२५॥ प्रादिमः कनकाभिख्यो द्वितीयः कनकप्रभः । ततः कनकराजाख्यः कुलकृत् कनकध्वजः ॥३२६।। स्वर्णपुङ्गव संज्ञोऽस्थ नलिनोनलिनप्रभः । ततो नलिन राजाख्या कुलभून्नलिनध्वजः ॥३२७॥ नलिनीपूङ्गवाभिल्यः पवाः पद्मप्रभाभिः । पाराजाह्वयापद्मध्वजश्च पापुङ्गवः ।।३२८।। महापग्न हमे प्रोक्ता भविष्या मनयोऽखिलाः। सूचयिष्यन्ति मुग्धानां कृत्याकृत्याधि देहिनाम् ॥३२६।। Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमोऽधिकारः अर्थ:- अवसर्पिणीकाल के पञ्चम काल सहा उत्सपिणी का दुःखमा नाम का द्वितीयकाल होगा किन्तु इसमें बुद्धि बल आदि की क्रमशः बृद्धि होली जायगी ||३२४।। उत्सपिणी के द्वितीय काल के अन्त में एक हजार वर्ष अवशेष रहने पर निम्नलिखित सोलह कुलकर होंगे। यथा-१ कनक, २ कनकप्रभ, ३ कनकराज, ४ कनकध्वज, ५ कनकपुङ्गव, ६ नलिन, ७ नलिन प्रभ, ८ नलिनराज, ६ नलिनध्वज, १० नलिनपुङ्गव, ११ पद्म, १२ पद्मप्रभ, १३ पद्मराज, १४ पद्मध्वज, १५ पद्मपुङ्गव और महापय ये १६ मनु होंगे, जो मुग्ध (भोले) जीवों को कृत्य-अनात्य प्रादि कार्यों की शिक्षा देंगे । अर्थात् क्षत्रिय मावि कुलों के अनुरूप आचरण और अग्नि द्वारा पाचन प्रादि का विधान सिखावेंगे ।।३२५-३२६।। प्रब दुःखमासुखमा नामक तृतीयकाल की स्थिति बतलाते हुए इसमें उत्पन्न होने वाले चौबीस साकारों का वर्णन कर है : ततस्तृतीयः कालः स्यात् दुःषमासुषमाह्वयः । चतुर्थकालतुल्योऽत्रायास्यति क्रमवद्धि भाक् ।।३३०।। तस्मिन् काले क्रमेणव भविष्यरित जिनेश्वराः । नष्टधर्मोद्धरा एते चतुविशतिसंख्यकाः ॥३३१।। पद्माख्यः सुरदेवोऽथ सुपार्यो हि स्वयंप्रभः । सर्वात्माभूतसंज्ञश्च देवपुत्रसमाह्वयः ।। ३३२।। कुलपुत्र उवङ्कास्यः प्रोष्ठिलो जयकोतिवाक् । मुनिसुव्रतनामातथारनाथो हपापकः ॥३३३॥ निःकषायाभिधानोऽथ विपुलो निर्मलाख्यकः । चित्रगुप्तो जिनाधीशः समाधिगुप्तनामकः ।।३३४।। स्वयंभूरनितिनु जयाल्मो विमलाभिधः । देवयालाह्वयोऽनन्तवीर्य एते जिनाधिपाः ॥३३५॥ त्रिजगन्नाथवन्द्यााः स्वमुक्तिमार्गदर्शिनः । धर्मतीर्थप्रणेतारो ज्ञेया विश्वहितङ्कराः ।।३३६।। मध्ये यः प्रथमोऽमोषां श्रेणिकः स भविष्यति । शुद्धसम्यक्त्व माहात्म्यादा दितीर्थप्रवर्तकः ॥३३७।। षोडशाग्रशताब्दायुः सप्तहस्तोच्चविग्रहः । दिन्येन ध्वनिना पुसां स्वर्गमोक्षाध्वदर्शका ।।३३८।। Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ ] सिद्धान्तसार दोपक अन्तिमः कोटिपूर्वायुर्भविता तीर्थकारकः । शतपञ्चधनुस्तुङ्गः सन्मार्गदोपको महान् ।।३३६ ।। शेषाणां तीर्थकतोणा भविष्याणां जिनागमे । प्रायुरुत्सेधकालाधा ज्ञेयाश्च भूतयेऽखिलाः ॥३४०।। अर्थ:--द्वितोय काल के बाद उत्सपिरणो का दुःखमासुखमा नाम का तृतीय काल पायगा, जो अवसर्पिणी के चतुर्थकाल सदृश होगा, किन्तु इसमें प्रायु, बल एवं बुद्धि प्रादि में क्रमशः वृद्धि होती जायगी ॥३३०॥ इस तृतीय काल में नष्ट हुए धर्म का उद्धार करने में तत्पर प्रागे कहे जाने वाले चौबीस तीर्थकर क्रमशः होंगे ॥३६॥ प्रथग डीकर (मिम गाजाका जी ) १ पद्म, २ सुरदेव, ३ सुपाश्च, ४ स्वयम्प्रभ, ५ सर्वात्मभूत, ६ देवपुत्र, ७ कुलपुत्र, ८ उदङ्क, १ प्रोष्ठिल, १० जयकीर्ति, ११ मुनिसुव्रत, १२ अरनाथ, १३ अपावक, १४ निष्कषाय, १५ विपुल, १६ ( कृष्णनारायण का जीव } निर्मद, १७ चित्रगुप्त, १८ समाधिगुप्त, १६ स्वयम्भू, २० अनिवति, २१ जय, २२ विमल, २३ देवपाल और २४ ( सात्यिको तनुज अन्तिम रुद्र का जीव ) अन्तिम तीर्थकर अनन्तवीर्य होगा। ये चौबीस जिनेन्द्र, देवेन्द्र, धरणेन्द्र एवं नरेन्द्रों के द्वारा वन्दित और पूजित हैं, स्वर्ग एवं मोक्ष के मार्ग को दर्शाने वाले हैं, घमं तीर्थ के प्रणेता एवं विश्व का हित करने वाले हैं. ऐसा जानना चाहिए ।। ३३२-३३६॥ इन यौबीस तीर्थंकरों के मध्य, तीर्थ का प्रवर्तन करने वाले जो प्रथम तीर्थंकर होंगे वे शुद्धसम्यक्त्व के माहात्म्य से श्रेणिक राजा का जीव हो होगा। इनकी प्रायु ११६ वर्ष प्रमाण और शरीर की ऊँचाई सात हाथ प्रमाण होगी। ये अपनी दिव्यध्वनि के द्वारा मनुष्यों को स्वर्ग और मोक्ष का मार्ग दर्शायेंगे ||३३७-३३८॥ सात्यि कीतनुज अन्तिम रुद्र का जीव अनन्तवीर्य नाम के अन्तिम तीर्थंकर होंगे। सन्मार्ग दर्शाने के लिये दीपक सदृश इन महान तीर्थंकर की आयु एक पूर्व कोटि प्रमाण और शरीर का उत्सेध ५०० धनुष प्रमाण होगा। भविष्य में होने वाले अवशेष बाईरा तीर्थकरों की प्रायु, उत्सेध एवं काल आदि का समस्त वर्णन जिनागम से जान लेना चाहिए ।।३३६-३४०।। अब आगामी द्वादश चक्रवतियों के नाम कहते हैं :--- भरतो दीर्घदन्ताख्यो जयदत्ताभिधानकः । गूढदन्तायः श्रीषेणाख्यः श्रीभूतिसंज्ञकः ।।३४१।। श्रीकीर्तिश्च ततः पनो महापद्माभिधानकः । चित्रवाहननामा विमलवाहननामकः ।।३४२॥ अरिष्टसेननामामी भाविचक्रधरा मताः । द्वादशाद्भुत पुण्यात्या नृदेव खचराचिताः ॥३४३॥ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमोऽधिकारः [ ३१५ अर्थः- (भविष्यतकाल में भी प्रथम चक्रबर्ती का नाम भरत ही होगा, इस प्रकार ) - १ भरत, २ दीर्घदन्त, ३ जयदत्त, ४ गूढदन्त, ५ श्रीवेण ६ श्रीभूति, ७ श्रीकीर्ति, पद्म, महापदा, १० चित्रबाहुन ११ विमलवाहन और १२ रिमेन नाम के ये द्वादश चक्रवर्ती प्रदुद्भुत पुण्य से युक्त और नरेन्द्रों, देवों एवं विद्याधरों से पूजित भविष्यतकाल में होंगे || ३४१ - ३४३ ।। अब भविष्यकाल में होने वाले बलभद्र, वासुदेव और प्रतिवासुदेवों के नाम कहते हैं : चन्द्राह्वयो महाचन्द्रस्ततश्चन्द्रधराभिधः । हरिचन्द्राख्यक: सिंहचन्द्राख्यो वरचन्द्रमाः || ३४४ ।। पूर्णचन्द्रः सुचन्द्राख्यः श्रीचन्द्रो भाविनोऽप्यमी । बलभद्रा नव ज्ञेया देवार्च्या ऊर्ध्वगामिनः ।। ३४५ ॥ नन्दी च नन्दिमित्राख्यो नन्दिषेणसमाह्वयः । नन्दिभूति नरेशोऽथ प्रतोतबल संज्ञकः || ३४६ ॥ ततो महाबलाभिख्योऽतिबलाख्यस्त्रिखण्डभृत् । त्रिपृष्टोऽथ द्विपृष्टोऽमी वासुदेवा नवस्मृताः ॥३४७॥ श्रीकण्ठो हरिकण्ठाख्यो नीलकण्ठोऽइचकण्ठकः । सुकण्ठः शिखिकण्ठश्च ततोऽश्वग्रीवसंज्ञकः ॥ ३४८ ।। हयग्रीवो मयूरग्रीवोऽमी खण्डश्रयाधिपाः । वासुदेवद्विषः सर्वे ज्ञातव्या नव भूतले ||३४६ | शलाकाः पुरुषा एते खभूचरसुराधिपः । वन्द्याः पूज्यास्त्रिषष्टिश्च भविष्यन्ति जिनादयः || ३५०|| अर्थ :- भविष्यकाल में चन्द्र, महाचन्द्र चन्द्रघर, हरिचन्द्र सिंहचन्द्र, वरचन्द्र, पूर्णचन्द्र, सुन्द्र और श्रीचन्द्र नाम के ये नौ बलभद्र, देवों से पूज्य और ऊर्ध्वगामी होंगे ||३४४-३४५ ।। इसी प्रकार आगामी काल में नन्दी, नन्दिमित्र, नन्दिषेण नन्दिभूत प्रतीतबल, महाबल, अतिजल, त्रिष्ट और द्विपृष्ठ ये नव नारायण होंगे || ३४६-३४७॥ इसी प्रकार तृतीय काल में श्रीकण्ठ, हरिकण्ठ, नील कण्ठ, प्रश्नकंठ, सुकण्ठ, शिखिकण्ठ, वो हयग्रीव और मयुरग्रीव ये नौ विंडरिति प्रतिवासुदेव होंगे | पृथ्वीतल पर ये नौ प्रतिनारायण नारायणों के रात्र होते हैं। ऐसा जानना ||३४८-३४६|| विद्याघरों, राजाओं और देवों द्वारा वन्दनीय एवं पुजनीय जिनेन्द्र आदि त्रेसठ शलाका के ये सभी महापुरुष भविष्यतकाल में होंगे || ३५० ।। Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ ] सिद्धान्तसार दोपक अव अवशेष तीन कालों में भोगभूमि की रचना कहते हैं :-- ततः कालत्रयोऽन्येऽत्र स्थित्यादिवृद्धिसंयुताः । जघन्य मध्यमोत्कृष्टा भोग भूमिभवाः क्रमात् ।। ३५१ ।। प्रागुक्तत्रिक सद्भोगभूमितुल्याः सुखाकराः । दशधा कल्पवृक्षादया श्रायास्यन्ति पृथग्विधाः ।। ३५२ ।। अर्थ :- इस तृतीय काल को परिसमाप्ति के अनन्तर स्थिति मादि की वृद्धि से युक्त तीन काल और होंगे, जिसमें क्रम से जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट भोगभूमि की रचना होगी । अर्थात् चतुर्थं सुखमादुखमा काल में जघन्य भोगभूमि की, पंचम सुखमा काल में मध्यम की और छठवें सुखमासुखमाकाल मैं उत्कृष्ट भोगभूमि की रचना होगी ।। ३५१ ।। पृथक्-पृथक् दश दश प्रकार के कल्पवृक्षों से युक्त सुख की खान स्वरूप इन तीनों भोगभूमियों में पूर्वोक्त भोगभूमियों के सहश ही रचना होगी ||३५२|| भरतंरावत में कहे हुए इन छह कालों को नियम पूर्वक अन्य क्षेत्रों में जोड़ने के लिए कहते हैं : : भरत रावतक्षेत्रेषु सर्वेषु द्विपञ्चसु । द्विषट्कालाः प्रवर्तन्ते वृद्धिह्रासयुताः सदा ॥। ३५३ ।। विजयार्धन गेष्व म्लेच्छखण्डेषु पञ्चसु । चतुर्थकाल एवास्ति शाश्वतो निरुपद्रवः || ३५४।। किन्तु चतुर्थकालस्य यदा स्याद् भरतादिषु । श्रायुःकाय सुखादीनां वृद्धिह्रासश्च जन्मिनाम् ।।३५५।। तदा तेन समः कालो वृद्धिहासतो भवेत् । रूप्याद्रिम्लेक्षखण्डेषु शेषकालेषु न क्वचित् ।। ३५६॥ पूर्वापर विदेहेषु द्विप प्रवर्तते । चतुर्थकाल एवैको मोक्षमार्ग प्रवर्तकः ।। ३५७ ।। देवोत्तरकुरुष्वेव द्विपञ्चभोगभूमिषु । दक्षिणोत्तरयो मेरोः प्रथमः काल ऊर्जितः ।। ३५८ ।। हरिरम्यकवर्षेषु मध्यमभोगभूमिषु । बुद्धिहासातिगः कालो द्वितीयो मध्यमो मतः ।। ३५६ ॥ हैमवताष्य हैरण्यवत क्षेत्र द्विपञ्चसु । तृतीयः शाश्वतः कालो जघन्यभोगभूमिषु || ३६०|| Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमोऽधिकार : [ ३१७ तिर्यग्द्वीपेष्वसंख्येषु मानुषोत्तरपर्वतात् । बाह्यस्थेष्वन्तरस्थेषु नागेन्द्रशैलत: स्फुटम् ॥३६१।। जघन्यभोगभूभागस्थिति युक्तषु वर्तते । जघन्यभोगभूकता नित्यः कालस्तृतीयकः ॥३६२।। नागेन्द्रपर्वताबाह्य स्वयम्भूरमरणार्णवे । स्वयम्भूरमणवीपार्ध कालः पञ्चमोऽव्ययः ।।३६३।। चतुणिकायदेवानां स्वादिसयामस । सुषमासुषमाकालो नित्योऽस्ति सुखसागरः ॥३६४॥ कालोऽतिदुःषमाभिल्यो नरकेष्वस्ति सप्तसु । विश्वासाताकरीभूतः शाश्वतो नराकाङ्गिनाम् ॥३६५॥ अर्थ:-पञ्चमेरु सम्बन्धी पांच भरत और पांच ऐरावत ( इन दश ) क्षेत्रों के प्रार्य खण्डों में वृद्धि हास युक्त छह काल उत्सपिणी सम्बन्धो और छह काल अवसपिंगी सम्बन्धी इस प्रकार बारह काल निरन्तर प्रवर्तन करते रहते हैं ।।३५३।। विजयाध पर्वतों को थेशियों में एवं भरतरावत सम्बंधी दश क्षेत्रों के पांच पांच म्लेच्छ खण्डों में उपद्रव रहित चतुर्थकाल की बतना शाश्वत रहती है, किन्तु भरतरावत क्षेत्रों के चतुर्थ काल में जीवों के काय, प्राय एवं सुख प्रादि का जिस प्रकार पद्धि हास होता है उसी के सदृश वृद्धि ह्रास वहाँ भी होता है। अर्थात् भरतरावत क्षेत्रों के आर्य खण्डों में अवसपिरणी के चतुर्थ काल में प्रादि से अन्त तक जीवों की प्रायु मादि में जैसी क्रमिक हानि होती है, वसी ही हानि वहाँ होती है, और प्रार्य खण्डों में उत्सपिरगी काल के तृतीय काल ( क्योंकि जो अवसपिरणी का चतुर्थ काल है, वही उत्सर्पिणी का तृतीय है ) में ग्रादि से अन्त तक जैसी क्रमिक वृद्धि होती है, वैसी ही वृद्धि वहाँ ( म्लेच्छ खण्डों में और बिजयाओं में ) होतो है। विजयाओं को श्रेणियों में यौर म्लेच्छ खण्डों में शेष कालों के सदृश वर्तना कभी भी नहीं होती । अर्थात् वहाँ अवपिणी के पांचवें और छठव तथा उत्सर्पिणी के पहिले और दूसरे काल सहश वर्तना कदापि नहीं होती ।। ३५४-३५६ ।। पंचमेरु सम्बन्धो पांच पूर्व विदेह और पांच पश्चिम विदेह इस प्रकार पूर्वापर दश विदेह क्षेत्रों में मोक्षमार्ग के प्रवर्तक मात्र एक चतुर्थाकाल को एक सहा वर्तना होती है । अर्थात् जसे यहाँ प्रार्य खण्डों सम्बन्धी चतुर्थ काल में प्रायु आदि हीनाधिक होती है वैसे बहाँ नहीं होती । यहाँ अवपिणी सम्बन्धी चतुर्थ काल के प्रारम्भ में जैसी वर्तना होती है. वंसी वहाँ निरन्तर होती रहती है ॥३५७|| यहाँ अवसपिणी के प्रथम काल के प्रारम्भ में प्राय, उत्सेध एवं सुख प्रादि की जो वर्तना होती है, वैसी ही घर्तना पञ्चमेरुषों के उत्तर और दक्षिण में अवस्थित उत्तरकुरु, देवकुरु नामक दश उत्तम भोग भूमियों में निरन्तर रहती है ॥३५८॥ अवसर्पिणी के द्वितीय Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ ] सिद्वान्तसार दीपक काल के प्रारम्भ सदृश पञ्च मेरु सम्बन्धो हरि रम्यक क्षेत्रों की दश मध्यम भोगभूमियों में वृद्धि ह्रास गे रहित बतंना होतो है ।।२५६! इसी प्रकार सवापिंगा दे तुतीय काल के प्रारम्भ सदृश हैमबत् और हैरण्यवत् क्षेत्रगत दश जघन्य भोगभूमियों में शाश्वत वर्तना होती है ।।२६०॥ मानुषोत्तर पर्वत से बाहर और स्वयम्भूरमरग द्वीप के मध्य में अवस्थित नागेन्द्र पर्वत के भीतर भीतर तिर्यग्लोक सम्बंधी असंख्यात द्वीपों में जघन्य भोगभुमि का वर्तन होता है, अवपिरणी के तृतीय काल के प्रारम्भ में जघन्य भोगशूमि जन्य यहाँ जैसा वर्तन होता है, वैसा वहाँ शाश्वत होता है ।।३६१-३६२।। ___ नागेन्द्र पर्वत के बाह्य भाग से स्वयम्भूरमण समुद्र के अन्त पर्यन्त अर्थात अर्ध स्वयम्भूरमरण द्वीप में और स्वयम्भूरमण समुद्र में अवसपिणी के पञ्चम काल के प्रारम्भ सहश, हानि-वृद्धि रहित पंचम काल का ही नित्य वर्तन होता है ।।३६३।। चतुनिकाय देवों के स्वर्गादिक सभी स्थानों में सुव के सागर स्वरूप सुखमा सुखमा काल के सदृश ही नित्य वर्तन होता है, तथा सातों नरक भूमियों में नारको जीवों के नित्य ही समस्त असाता की खान स्वरूप दुःखमा दुःखमा काल के सदृश वर्तन होता है { स्वर्गों एवं नरकों में प्रत्यन्त सुखों एवं अत्यन्त दुःखों को विवक्षा से यह कथन किया गया है, प्रायु तथा उत्सेध आदि की विवक्षा से नहीं ।।३६४-३६५॥ अब प्राचार्य कालचक्र के परिभ्रमण से छूटने का उपाय बतलाते हैं :-- इत्येतत् कालचक्रं भ्रमणभरयतं तीर्थनाथः प्रणीतम् । षड्भेदं सौख्यदुःखास्पदमपि निखिलं भो ! भ्रमन्त्येव नित्यम् ।। संसारे दुःखपूर्ण विधिगणगलिताः प्राणिनश्चेति मत्वा । दक्षाः कालादिदूरं सुचरणसुतपोभिः शिवं साधयध्वम् ॥३६६।। अर्थ:-इस प्रकार भ्रमण के भार से युक्त, समस्त सुखों एवां दुःखों के स्थान स्वरूप यह छह भेद बाला कालचक्र भगवान् जिनेन्द्र के द्वारा कहा गया है। इस कारण कर्म समूह से प्रेरित जीव इस दुःख पूर्ण संसार में नित्य ही भ्रमण करना है, ऐसा जानकर भो चतुर भव्य जनो! आप सव उत्तम चारित्र और उत्तम तप के द्वारा काल चक्र के प्रभाव से रहित मोक्ष का साधन करो ।।३६६।। अधिकारान्त मङ्गलाचरण :-- एषां काले चतुर्थे वसुगुणवपुषो येऽभवन् सिद्धनाथाi, सार्धद्वीपद्वये ये सकलगुणमयास्त्यक्तदोषा जिनेन्द्राः । अन्तातोताः सुराा जगति हितकराः सूरयः पाठकाश्चाचाराढ्याः साधवस्तांस्तदसमगतये नौमि सर्वान जिनादीन् ॥३६७।। Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नबमोऽधिकारः [ ३१६ इति श्रीसिद्धांतसारदीपकमहाग्रन्थे भट्टारक श्रीसकलकोति विरचिते अवसपि ण्युत्सपिणी षट्काल प्ररूपको नाम नबमोधिकारः । अर्थ:-- इन छह कालों के मध्य चतुर्थ नाल में पाठ गुरण ही हैं शरीर जिनका ऐसे सिद्ध परमेष्ठी हुए हैं। पढ़ाई द्वीप में जो अठारह दोषों से रहित, सम्पूर्ण गुणों से सहित, विनाश रहित और देव समूह से पूज्य जिनेन्द्र अर्हन्त हए हैं, तथा जगत का हित करने वाले एवं चारित्र गुण से विभूषित आचार्य, उपाध्याय और सर्ग साधु हुए हैं, उन सब जिनेन्द्रादि-पंचपरमेष्ठियों को मैं अनुपम गति की प्राप्ति के लिए नमस्कार करता हूँ॥३६७।। इस प्रकार भट्टारक सकलकी ति विरचित सिद्वान्तसारदीपक नाम महाग्रन्थ में अवसपिरणो-उत्सपिणी के छह कालों का प्ररूपण करने वाला नवमा अधिकार समाप्त Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमोऽधिकारः मङ्गलाचरण एवं प्रतिज्ञा सूत्र:-- अथ पंचगुरून् नत्वा धर्मसाम्राज्यनायकान् । महतस्त्रिजगत्पूज्यान् प्रवक्ष्ये लवणार्णवम् ||१|| अर्थः यत्र त्रैलोक्य पूज्य और धर्म साम्राज्य के अधिनायक पञ्च परमेष्ठियों को नमस्कार करके लवर समुद्र का वर्णन करूँगा || १|| अब जम्बूद्वीप की परिधि और प्राकार का प्रमाण कहते हैं योजनानां त्रिलक्षाणि सहस्राण्यपि षोडश । द्वेशते सप्तविंशत्यधिके कोशास्त्रयस्तथा ||२॥ धनुषां शतमेकं किलाष्टाविंशतिसंयुतम् । त्रयोदशांगुलान्यगुलं साधिकमञ्जसा ॥३॥ इत्येवं संख्या जम्बूद्वीपस्य परिधिता । सूक्ष्मः प्राकार एतस्य स्यादष्टयोजनोन्नतः ||४|| योजनानां द्विषव्यासो भूले मध्येऽष्ट विस्तृतः । चतुभिविस्तृतोऽन्ते च वज्राङ्गो वलयाकृतिः ॥ ५॥ अर्थ:- ( एक लाख योजन प्रमाण विष्कम्भ व श्रायाम से सहित ) जम्बूद्वीप की परिधि का सूक्ष्म प्रमाण तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्ताईस योजन, तीन कोस एक सौ अट्ठाईस घनुष और साढ़े तेरह अंगुल से कुछ अधिक है । अर्थात् ३१६२२७ यो०, ३ कोश १२० धनुष और १३३ अंगुल से कुछ अधिक है । इस जम्बुद्वीप को चारों ओर से वेष्टित करने वाला एक वज्रमय वलयाकार कोट है, जो पाठ योजन ऊँचा, मूल में बारह योजन, मध्य में प्राठ योजन और ऊपर चार योजन प्रमाण घोड़ा है ॥२-५॥ - :-- म प्राकार ऊपर स्थित वेदिका का निरूपण करते हैं। प्राकारोपरिभागेऽस्ति पद्मवेदी च शाश्यता | धनुःपञ्चशतव्यासादिव्या क्रोशद्वयोच्छ्रिता ||६|| Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमोऽधिकार। [ ३२१ 1- प्रकार के उपरम भाग में पद्म नाम की वेदी है, जो शाश्वत है पांच सौ धनुष चौड़ी है और दो कोश ऊँची है || ६ || श्रव कोट के चारों दिशाओं में स्थित द्वारों के नाम, प्रमाण और उनके ऊपर स्थित जिन प्रतिमानों का निरूपण करते हैं :-- शालस्य पूर्वदिग्भागे द्वारं विजयसंज्ञकम् । दक्षिणे वैजयन्ताख्यं द्वारं भागे च पश्चिमे ||७|| जयन्तमुत्तरे गोपुरद्वारमपराजितम् । चत्वारिगोपुराणीति नानारत्नमयान्यपि ||६|| प्रत्येकं गोपुराणां च योजनाष्टसमुन्नतिः । सर्वत्र ध्यास आयाम चतुर्योजन सम्मितः ॥६॥ गोपुरद्वारसर्वेषु जिनेन्द्रप्रतिमाः पराः । सन्ति भामण्डलच्छ सिहासनश्र अर्थः- कोट की पूर्व दिशा में विजय, दक्षिण में वैजयन्त, पश्चिम में जयन्त और उत्तर में पराजित नाम के नाना प्रकार के रत्नमय चार गोपुर द्वार हैं। ये प्रत्येक गोपुरद्वार प्राठ योजन ऊँचे, चार योजन चौड़े और चार योजन लम्बे हैं, इन समस्त द्वारों पर भामण्डल, तीन छत्र एवं सिंहासन आदि से युक्त जिनेन्द्र प्रतिमाएँ हैं ।।७-१०|| :-- अब इन चारों गोपुरद्वारों के अधिनायकों का कथन करते हैं। विजयो वैजयन्तोऽथ जयन्ताख्पोऽपराजितः । चत्वारो व्यन्तराधीशा एते पत्येकजीविनः ||११॥ भिर्बहुन्या समृद्धा अधिनायकाः । पूर्वादिदिक्प्रतोलीनां दिव्यदेहा भवन्ति च ॥१२॥ अर्थः:- इन नारों द्वारों के क्रमशः विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित नाम के चार व्यन्तर देव हैं । पूर्वादि दिशाओं में स्थित प्रतोलियों के ये चारों अधिनायक दिव्य देह के घारी, एक पल्य की आयु से युक्त और देवों की अनेक प्रकार की सेनाओं से समृद्ध होते हैं । । ११-१२ ॥ अब चारों गोपुरद्वारों के ऊपर स्थित नगरों का वर्णन करते हैं। ! श्रमीषां विजयादीनां प्रत्येकं पुरमुत्तमम् । सर्वत्रायामविष्कम्भं सहस्रद्वादशप्रः ||१३|| Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ ] सिद्धान्तसार दीपक योजन मंणिसौधोच्च प्राकारगोपुराङ्कितम् । द्वाराणामूर्ध्वभागं च गत्वा तिष्ठति शाश्वतम् ॥ १४॥ ते स्वकीये स्वकीयेऽत्र पुरे तस्मिन् मनोहरे । स्वदेवपराया वसन्ति व्यन्तराधिपाः ।। १५ ।। श्रर्थः -- चारों गोपुर द्वारों के ऊपर ( गगन तल में ) जाकर इन विजय आदि चारों व्यन्तराघिनायकों के अत्यन्त रमणीक और शाश्वत नगर हैं। जिनका आयाम और विस्तार पृथक-पृथक बारह् हजार योजन प्रमाण है । 'नगर मणियों के ऊँचे ऊँचे महलों, प्राकारों और गोपुरों यादि से संयुक्त हैं । व्यन्तर देवों के स्वामी ये विजय आदि देव अपने अपने मनोहर नगरों में अपनी अपनी परिवार देवियों के साथ निवास करते हैं ।। १३ - १५॥ अब चारों द्वारों का पारस्परिक अन्तर और प्राकार के बाह्याभ्यन्तर भाग में स्थित वनों श्रादि का निरूपण करते हैं। :--- प्राकारपरिषेकचतुर्थांशं तदेव हि । द्वारव्यासोनितं तेषां द्वाराणामन्तरं भवेत् ॥१६॥ प्राकाराभ्यन्तरे भागे कोशद्वय सुविस्तरम् । नानापादपसंकीर्णं वनमस्ति मनोहरम् ॥१७॥ वेदिका स्याद्वनस्यान्ते गोपुरादिविभूषिता । क्रोशहयोशतादिव्या क्रोशतुर्याशविस्तृता ॥ १८ ॥ इत्यादिवर्णनोपेतः प्राकारोऽस्ति पृथक् पृथक् । प्रख्यद्वीपवानां पर्यन्ते वलयाकृतिः ॥१६॥ अर्थ -द्वार के व्यास से होन कोट की परिधि के चतुर्मास का जो प्रमाण प्राप्त होता है, वही उन द्वारों के अन्तर का प्रमाण है । अर्थात् कोट ( जम्बूद्वीप ) की परिधि का प्रमाण ३१६२२८ योजन है, और चारों द्वारों का व्यास १६ योजन है. इसे परिधि के प्रभार में में घटा देने पर (३१६२२८१६) ३१६२१२ योजन अवशेष रहते हैं। मुख्य द्वार चार हैं. ग्रतः अवशेष को चार से भाजित करने पर (११५२. *) =७६०५३ योजन प्राप्त हुये। यही एक द्वार से दूसरे द्वार के अन्तर का प्रमार है ।।१६।। प्राकार के भीतर की ओर ( पृथ्वी के ऊपर ) दो कोश विस्तार वाला तथा अनेक प्रकार के वृक्षों से व्याप्त महामनोहर वन है। उस वन के अन्त में गोपुर आदि द्वारों से विभूषित वेदिका है, जो दो को ऊँची और एक कोश का चतुर्थात् पात्र (2) कोश विस्तार वाली है ।।१७-१८ ।। Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमोऽधिकारः चूड़ी के आकार को धारण करने वाले श्रसंख्यात द्वीप समुद्रों के अन्त में उपर्युक्त वर्णन से युक्त पृथक् पृथक् प्राकार-कोट हैं ।। १६ ।। :-- अब लवण समुद्र की प्रवस्थिति और उसके स्वामी कहते हैं तत्प्राकारान्तमाश्रित्य वलयाकार भृन्महान् । द्विलक्षयोजनव्यामो नित्योऽस्ति लवरणारवः ||२०|| सत्स्वामि सुस्थिताभिख्यौ देवौ दिव्याङ्गधारिणौ । वायसमुद्रस्य तिष्ठतः परिरक्षकौ ॥२१॥ अर्थः- उस जम्बुद्वीप के कोट के अन्तिम भाग का आश्रय कर अर्थात् कोट से लगा हुआ, चूड़ी के ग्राकार को धारण करने वाला, दो लाख योजन व्यास से युक्त शाश्वत और महान् लवण समुद्र है । इस लवण समुद्र के दिव्य प्रङ्ग को धारण करने वाले सत्स्वामि और सुस्थित नाम के दो परि रक्षक देव वहाँ रहते हैं । २०-२१ ॥ | अब लवण समुद्र के अभ्यन्तरवतों पातालों के नाम, उनका अवस्थान और संख्या का वर्णन करते हैं। :-- समुद्राभ्यन्तरे पंचनवति प्रमितान्यपि । योजनानां सहस्राणि चतुदिक्षु विहाय च ।। २२ । स्युः पातालानि चत्वारि महान्ति शाश्वतान्यलम् । पूर्वस्यां दिशि पातालं पश्चिमे वडवामुखम् ||२३|| मवेदक्षिणदिग्भागे कदम्बकसमाह्वयः । उत्तरास्ये दिशाभागे नाम्नास्ति युगकेशरी ॥२४॥ श्रमीषामन्तरेऽत्रैव विदिक्षु मध्यमान्यपि । चत्वारि श्रेणिरूपेण पातालानि भवन्ति च ॥२५॥ एतेषामष्टपातालानामन्तरेषु चाष्टसु । पातालानि जघन्यानि पञ्चविशाधिकं शतम् ॥२६॥ प्रत्येकं तानि सर्वाणि पातालानि भवन्ति च । प्रष्टाधिकसहस्राणि पिण्डितानि जिनागमे ॥ २७॥ अर्थ :- लवण समुद्र के अभ्यन्तर भाग में ६५ हजार योजन छोड़ कर अर्थात् तट से ६५००० योजन पानी के भीतर जाकर चारों दिशाओंों में चार महा पाताल हैं, जो शाश्वत हैं। पूर्व दिशा स्थित Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ ] सिद्धान्तसार दोपक बटवानल का नाम पाताल, दक्षिण दिश स्थित का नाम बड़वामुख, पश्चिम दिशा स्थित का कदम्बक और उत्तर दिशा स्थित पाताल का नाम युगकेशरी है ।।२२-२४।। इन चारों पातालों के अन्तराल में चारों विदिशामों गत श्रेणी रूप से स्थित चार मध्यम पाताल हैं, और इन चार दिशा सम्बन्धी तथा चार विदिशा सम्बन्धी पाट पातालों के पाठ अन्तराल हैं, जिनमें १२५-१२५ जघन्य पाताल हैं। जिनागम में इन समस्त पातालों का योग (१२५४८-१०००+४+४)- १००८ अर्थात् एक हजार प्राउ कहा गया है ।।२५-२७|| अब तीनों प्रकार के पातालों का प्रवगाह प्रावि कहते हैं :-- ज्येष्ठानामवगाहोऽस्तिलक्षकयोजनप्रमः । मध्यभागे महाव्यासो लक्षयोजनमानकः ।।२।। पातालानामधोमागे सहस्त्रदशसम्मितः। योजनानां लघुव्यासो मुखेऽधोभागसनिमः ॥२६॥ चतुर्णा मध्यमानां च सहस्राणि दशेयहि । अवगाहोऽवगाहेन समोऽस्ति मध्यविस्तरः ।।३०॥ योजनानां सहस्र कोऽधस्तले विस्तरो मतः । पातालानां मुखे व्यासः सहस्रयोजनप्रमः ॥३१॥ अनगाहो जघन्यानां योजनानां सहस्रकम् । मध्यभागे च विष्कम्भोऽवगाहेन समानकः ॥३२॥ शतकयोजनव्यासः पासालानामधस्तले । योजनानां शतकं स्याद्विस्तारस्तन्मुखे क्रमात् ॥३३।। अर्थ:-चारों दिशाओं में स्थित महा पातालों का यवगाह एक लाख योजन, मध्य भाग का व्यास एक लाख योजन, पातालों के अधोभाग का व्यास दश हजार योजन यौर मुख व्यास भी दश हजार योजन प्रमाण है ॥२८-२९॥ चारों मध्यम पातालों का अवगाह दश हजार योजन, मध्य व्यास दश हजार योजन, मुख व्यास एक हजार योजन और अधोभाग का व्यास भी एक हजार योजन प्रमाण है ।।३०-३१।। एक हजार प्रमाण जघन्य पातालों का पृथक् पृयक् अवगाह एक हजार योजन, मध्य व्यास एक हजार योजन तथा मुख और अधोभाग का व्यास सौ-सौ योजन प्रमाण है ॥३२-३३।। [इसका चित्ररण अगले पृष्ठ पर देखिये।] Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमtofuकार: इसका चित्रण निम्न प्रकार है। चा -x - [ ३२५ अब पातालों के अभ्यन्तरवर्ती जल और बायु के प्रवर्तन का क्रम तथा जल में होने वाली हानि वृद्धि का कारण कहते हैं :-- पातालानां समस्तानामवगाहे निरूपिताः । पृथक् यस्त्रयो भागाः समाना आगमे जिनंः ||३४|| अधोभागेषु सर्वेषां केवलं वातसञ्चयः । मध्यतृतीयभागे स्तो जलवातौ स्वभावतः ||३५| स्तृतीयांशेषु तिष्ठन्ति जलराशयः । arratri वृद्धिह्रासौ स्तो वाताधीनौ न संशयः ॥ ३६ ॥ यदाधस्तान् महान् वायुरूर्ध्वमायाति तेन च । atari हि तदा वृद्धिर्जघन्यमध्यमोत्तमा ||३७॥ यदा पातालमध्येषु प्रवेशं कुरुते मरुत् । हातिस्तदेव वीचीनां सर्वत्र लवणाम्बुधौ ||३८|| अर्थः- :- श्रागम में जिनेन्द्र भगवान के द्वारा उन समस्त पातालों का जो पृथक् पृथक् अवगाह निरूपण किया गया है, उसके समान रूप से तीन तीन भाग करने पर उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य तीनों Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ hd ३२६ ] सिद्धान्तसार दीपक पातालों के अधो भागों में स्वभाव से ही मात्र वायु है। मध्य के तृतीय भागों में जल और वायु है, तथा ऊपर के तृतीय भागों में मात्र जल है। जल कल्लोलों की वृद्धि और हानि में मात्र वायु हो कारण है, इसमें किञ्चित् भी संशय नहीं है ।।३४-३५।। जब अधस्तन भाग में स्थित वायु ऊपर की ओर पातो है, तब उस वायु से जल कल्लोलों में क्रमशः जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट वृद्धि होती है, किन्तु जब वह वायु पाताल के अभ्यन्तर भाग में प्रवेश करती है, तब जल कल्लोलों में सर्वत्र क्रमशः हानि होती जाती है ।।३७-३८t उत्कृष्ट पाताल के विभाग का प्रमाण एवं उनमें स्थित बायु आदि का चित्रण निम्न प्रकार है। अन्य पातालों का भो इसी प्रकार जानना । केवल प्रमागा में अन्तर होगा, अन्य नहीं : . : -. . .. ----.:.२ जलवायु मित्र - ३३३३३९ औ ३२ अब अमावस्या एवं पूर्णिमा को हानि वृद्धि रूप होने वाले जल के भूभ्यास प्रादि का प्रमाण कहते हैं : बीचेर्यासो दमावस्यायां हिलक्षप्रमाणकः । योजनानां महीभागे शिखरे विस्तरस्तथा ॥३६॥ साधंत्रिशतयुक्तकोनसप्ततिसहस्रकाः । एकादशसहस्राण्युत्सेधो जघन्य एव च ॥४०॥ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमोऽधकार : योजनानां त्रयस्त्रिशदधिकत्रिशतानि च । योजनस्य तृतीयांश इति संख्यादिनं प्रति ॥४१॥ वृद्धिः परिज्ञेया या पक्षान्ति दिए । पूर्णमास्यां महावीचेद्विलक्षयोजन प्रमः ||४२ ॥ विस्तारो भूतले सूनि सहस्रदशसम्मितः । उत्सेधो योजनानां च सहस्रषोडशप्रमः ||४३| [ ३२७ अर्थः- अमावस्या को समभूमि से जल को ऊँचाई ११००० योजन रहती है यह लवण समुद्र जल का जघन्य उत्सेध है। इस दिन अर्थात् १९००० ऊँचाई वाले जल का व्यास दो लाख योजन और सुरज व्यास अर्थात् शिखर पर जल की चौड़ाई का प्रमाण ६६३५० योजन है || ३६-४०|| नोट :- त्रिलोकसार गा० ६०० को टीका में मुख व्यास का प्रमाण ६६३७५ योजन कहा है । मुख व्पास ६६३७५ योजन कैसे हुआ ? इसे त्रैराशिक से सिद्ध भी किया गया है। शुक्ल पक्ष में प्रतिदिन ३३३३ योजन की वृद्धि जल लहरों में होती है, इस प्रकार शुक्ल पक्ष के अन्त में पूर्णमासी को लवण समुद्र के जलराशि की ऊँचाई १६००० योजन हो जाती है। उस दिन भूमितल पर जल का विस्तार दो लाख योजन और शिखर पर जल का व्यास अर्थात् चौड़ाई १०००० योजन रहती है ॥४१-४३॥ विशेष ::- लवर समुद्र का जल मुरजाकार है। अर्थात् समुद्र के मध्य में जल हमेशा समभूमि से ११००० योजन ऊपर तक राशि के समान स्थित रहता है । पातालों के मध्यम त्रिभागों में नीचे पवन और ऊपर जल है। शुक्ल पक्ष प्रत्येक दिन जल के स्थान पर पवन होता जाता है, इससे जल कल्लोलों में प्रतिदिन ३३३३ योजन को वृद्धि होती है. इस प्रकार बढ़ते हुए पूर्णमासी को जल राशि की वृद्धि ( ३३३३ × १५ ) = | = ५००० योजन हो जाती है। अर्थात् जल राशि की ऊंचाई ११००० योजन तो थी हो, ५००० योजन की वृद्धि हो गई, ग्रतः पूर्णमासी को जल राशि की ऊँचाई ( ११००० + ५००० } = १६००० योजन प्राप्त होती है। कृष्ण पक्ष में प्रतिदिन पवन के स्थान पर जल होता जाता है, अतः जलराशि में प्रतिदिन ३३३३ योजन की हानि होते हुये अमावस्या को जलराशि की ऊँचाई (१६००० - ५००० ) ११००० योजन प्रमाण रह जाती हैं । = अब तीनों प्रकार के पातालों के पारस्परिक अन्तर का प्रमाण दर्शाते हैं {== नवलक्षाः सहस्राण्पष्टचत्वारिंशदेव च । षट्शतानिशीतिः किलेति योजनसंख्यया ॥ ४४ ॥ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ ] सिद्धांतसार दीपक मध्यमा परिधिः प्रोक्तो मध्यसूच्या महाम्बुधेः । चतुर्थ भागएवास्थाः परिधेर्यः पृथक् कृतः ।।४।। दिक पातालमुख वनासहीनः सोऽत्रान्तरं मवेद । चतुरणी ज्येष्टपातालानां पृथग भूतमञ्जसा ॥४६।। द्वौ लक्षौ च सहस्राणि सप्तविशतिरेव हि । शतकं सप्ततिर्योजनानां क्रोशास्त्रयः स्फुटम् ॥४७॥ इत्येवं संख्यया तेषां ज्येष्टानामन्तरं मतम् । तस्याध मध्यमानां स्यान्मुखव्यासोनमन्तरम् ॥४८॥ योजनानां च लक्षक सहस्राणि त्रयोदश । पंचाशीतिमा साईको इसाङ्क हारयः | मध्यमानां चतुर्णां पातालानामन्तरं पृथक् । विभक्तमन्तरं चोनं मुखव्यासैस्तदेव हि ॥५०॥ पातालक्षुल्लकानां पञ्चविंशानशतात्मनाम् । अन्तररन्तरं प्रोक्त षड्विंशाग्रशतप्रमः ॥५१॥ योजनानां शतान्येव सप्ताष्टानवतिस्तथा । योजनकस्य भागानां षर्विशाग्रशतात्मनाम् ॥५२॥ सप्तत्रिंशत्प्रमा भागा इत्यङ्कसंख्ययान्तरम् । मतं क्षुल्लकपातालानां सर्वेषां जिनागमे ॥५३॥ अर्थः-लवण समुद्र की मध्यम सूची व्यास की मध्यम मूल्य परिधि का प्रमाण ६४८६८३ योजन प्रमाण है। इस मध्यम परिधि के चतुर्थ भाग (13 - २३७१७०३ यो०) में से लत्कृष्ट पाताल के मुख व्यास का प्रमाण (१० हजार यो०) घटा देने पर दिशा सम्बन्धी उत्कृष्ट पातालों का पृथक पृथक् अन्तर ( २३७१७०१-१०००० = २२७१७०३ यो० ) प्राप्त होता है । अर्थात् पूर्व दिशागत उत्कृष्ट पाताल के मुख से दक्षिण दिशा गत उत्कृष्ट पाताल के मुख पर्यन्त २२७१७०३ योजन का अन्तर है। इसी प्रकार दक्षिण से पश्चिम, पश्चिम से उत्तर और उत्तर से पूर्व में जानना। इन उत्कृष्ट पातालों के अन्तर प्रमाण में से मध्यम पाताल के मुख ध्यास (१०००) को कम करके ग्राधा करने पर [(२२७१७०३१०००)२=] ११३०८५ यो० और डेढ़ कोश (३) प्राप्त होते हैं, यही चारों विदिशाओं गत चार मध्यम पातालों का चारों दिशा गत ज्येष्ठ पातालों से पृथक् पृथक् अन्तर का प्रमाण है । अर्थात् पूर्व दिशागत ज्येष्ठ पाताल और आग्नेय दिशा गत मध्यम पाताल के मुखों में ११३०८५ योजन और १३ कोश का अन्तर है । इसी प्रकार अन्यत्र जानना । विशागत और बिदिशागत पातालों के मध्य में १०० Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमोऽधिकारः [ ३२६ योजन मुख व्यास थाले १२५ जघन्य पाताल हैं, इन सबका मुख व्यास ( १२५४१००= ) १२५०० यो० होता है। ज्येष्ठ और मध्यम पाताल के अन्तर प्रमाण ११३०५५ यो० १३ कोश में से मुख व्यास घटा कर अवशेष को १२६ ( क्योंकि प्राजु बाजू के दिशागत और विदिशागत पातालों सहित १२७ पाताल हैं, अत: १२७ पातालों के १२६ अन्तराल होते हैं। ) से भाजित करने पर समस्त क्षुल्लक पातालों के बीच का अंतराल जिनागम में (११३०८५ यो०१३ कोश-१२५०० यो० - १००५८५ यो० १३ कोश-: १२६) = ७६८.+ + योजन . कहा गया है १३ कोश में १२६ का भाग देने पर ३xx =3 योजन प्राप्त होते हैं ।।४४-५३॥ अब लवणोदक समुद्र के प्रतिपालक नागकुमार श्रादि देवों के विमानों की संख्या को तीन स्थानों के प्राश्रय से कहते हैं :-- बेलन्धराधिपा नागा नागवेलम्धरैः समम् । वसन्ति पर्वताप्रस्थनगरेषु मुवाम्बुधी ॥५४॥ नागा द्वयधिक चत्वारिंशत्सहस्रप्रमाः सदा । अध्यायतिरजां बेला धारयत नियोगः ॥५॥ द्वासप्ततिसहस्राश्च बाह्यवेलां जलोजिताम् । धारयन्त्यम्बुधौ नागा जलक्रीडापरायणाः ॥५६।। अष्टाविंशतिसंख्यातसहस्रनागनिर्जराः । महवनोदकं नित्यं धारयन्ति यथायथम् ॥५७॥ अर्थ:-वेलन्धर नागकुमारों के स्वामी अपने वेलन्धर नागकुमारों के साथ पर्वतों के अग्रभाग पर स्थित नगरों में प्रति प्रसन्नता पूर्वक निवास करते हैं। लवरणसमुद्र के प्रम्यन्तर भाग ( जम्बूद्वीप को और प्रविष्ट होने वाली वेला ) को अपने नियोग से व्यालोस हजार नागकुमार देव रक्षा करते हैं। समुद्र के बाह्यभाग ( धातको खण्ड द्वीप को पोर को वेला ) को जलक्रीड़ा में परायण बहत्तर हजार नागकुमार देव धारण ( रक्षा ) करते हैं, और जल के महान् अग्रभाग को अर्थात् सोलह हजार ऊंची जल राशि को निरन्तर अट्ठाईस हजार नागकुमार देव धारण करते हैं । अर्थात् रक्षा करते हैं ॥५४-५७।। नोट :-तिलोय पणपत्ति, त्रिलोकसार और लोक विभाग में लवण समुद्र के बाह्याभ्यन्तर भाग में और शिखर पर जल से कार पाकाश तल में नागकुमार देवों के ४२०००, ७२००० और २८००० नगरों या विमानों का प्रमाण कहा है, देवों का नहीं। प्रब लवणसमुद्र की वेदियों के प्रागे दिशाओं प्रावि में स्थित बसोस पर्वतों के नाम, प्रमाण एवं उनके प्राकार प्रादि का निरूपण करते हैं :-- Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० ] सिद्धान्तसार दीपक श्रस्याम्बुधेश्च बाह्याभ्यन्तर वैदिकयोर्द्वयोः । योजनानि द्विचत्वारिंशत्सहस्रप्रमाण्यपि ॥ १५८ ॥ तरमुत्सृज्य सन्ध्येते चतु दिवष्टपर्वताः । star: कौस्तभासोऽन्य एतौ पूर्वदिशि स्थितौ ॥५६ ।। दक्षिणे स्त इमौ लौ हा काख्योदकप्रभो । ह्य श्री शंखमहाशंखी दिग्भागे पश्चिमे स्थितौ ॥ ६० ॥ गदाद्रिगदवासाक्षो भवन्तश्चोत्तरेऽम्बुधौ । इत्यमी पर्वता अष्टौ सहस्रयोजनोन्नताः ॥ ६१॥ सहस्रयोजनानि विस्तीर्णाः शाश्वताः शुभाः । कलशार्धसमाः श्वेतावनवेद्यादिभूषिताः ॥ ६२ ॥ तावन्ति योजनान्यन्धेर्मुक्त्वा वेद्यो द्वयोस्तदम् 1. चतुविदिक्षु सन्त्यन्ये शैला श्रष्टौ मनोहराः || ६३ ॥ तथा तेषां महाद्रीणामष्टस्वन्तरदिक्षु च । भवन्ति वनवेद्याद्यैर्युताः षोडशपर्वताः ||६४ || गिरयो मिलिता एते निखिलाः कौस्तभादयः । द्वात्रिंशत्संख्यका ज्ञेया लवणाब्धौ मनोहराः ||६५ ॥ अर्थः- लबा समुद्र की बाह्याभ्यन्तर दोनों वेदियों के तटों से ब्यालीस हजार ( ४२००० ) योजन ग्रागे समुद्र में जाकर अर्थात् तट को छोड़ कर पूर्वादि चारों दिशाओं में पाठ पर्वत हैं, इनमें पूर्व दिशा में स्थित पर्वतों के नाम कौस्तुभ और कौस्तुभास हैं। दक्षिण दिशा में उदक एवं उदकप्रभ, पश्चिम में शंख और महाशंख तथा उत्तर दिशा में गद एवं गदवास नाम के पर्वत हैं। ये आठों पर्वत एक हजार योजन ऊंचे शिखर पर एक हजार योजन चौड़े, शाश्वत अत्यन्त मनोहर, अर्धकलश के आकार सहा, श्वेत वर्ग को धारण करने वाले और वन एवं वेदियों यादि से विभूषित है ।। ५८-६२ ।। दोनों वेदियों के तटों से समुद्र को व्यालीस हजार ( ४२००० ) योजन छोड़कर चारों विदिशात्रों में अत्यन्त मनोहर ग्राठ अन्य पर्वत हैं, तथा इन दिशा-विदिशा सम्बन्धी पाठ युगल पर्वत के आठ श्रन्तरालों में वन वेदी आदि से युक्त सोलह पर्वत हैं। इन स्तभ यदि समस्त पर्वतों का योग करने पर लवण समुद्र में मन को हरण करने वाले बसीस पवंत जानना चाहिये ||६३-६५।। नोट :- त्रिलोकसार आदि ग्रन्थों में इन बत्तीस पर्वतों का अवस्थान दिशाओं-विदिशाओं गत पातालों के दोनों पार्श्व भागों में कहा गया है। Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमोऽधिकारः [ ३३१ उन पर्वतों के ऊपर स्थित द्वीपों को और पर्वतों के स्वामियों को कहते हैं : एषामुपरि सर्वेषां द्वीपाः स्युः प्रवरा युताः । नाना प्रासादसद्वेदीप्रोद्यानगोपुरादिभिः ॥ ६६ ॥ तेषु द्वीपस्थसोधेषु वसन्ति व्यन्तरामराः । तुझेषु स्वस्वर्शलेम समनामान ऊर्जिताः ॥६७॥ अर्थः:- इन सम्पूर्ण पर्वतों के ऊपर द्वीप हैं, जो अनेक कमरों वाले प्रासादों से उत्तम वेदियों, उद्यानों और गोपुरों आदि से संयुक्त हैं । उन द्वीप स्थित ऊँचे ऊँचे प्रासादों में अपने अपने पर्वतों के नाम सदृश नाम वाले व्यन्तर देव रहते हैं ।। ६६-६७।। अब वायव्य दिशा में स्थित गोतम द्वीप, उसके ऊपर स्थित प्रासाद और उसके रक्षक देव का सविस्तार वर्णन करते हैं। प्रस्तराट् द्विषट्संख्य सहस्रयोजनान्यपि । लोऽस्ति वायुदिवको गोतमाख्योऽतिसुम्बर: ।। ६८ । सत्समोदयविस्तीर्णो वनवेद्याद्यसंकृतः । विचित्रवर्णनोपेतः शाश्वतः सुरसंकुलः ||६६॥ तस्योपरिमहान द्वीपो गोतमाख्योऽतिमास्वरः । स्वर्णदेवी स्फुरद्रत्नप्रासादवनगोपुरः ॥७०॥ तस्याप्रे भवनं तु सार्धंद्विषष्टियोजनः । तदर्धविस्तरायामं श्रोशद्वयावगाहमाक् ।। ७१ ॥ नानारत्नमयं स्याच्च द्वारेणाऽलंकृतं महत् । प्रष्टयोजनतुङ्ग ेन चतुर्थ्यासयुतेन च ॥ ७२ ॥ गोतमारयोऽमरस्तत्र वसेत् पल्यंकजीवितः । दशचापोच्च विध्याङ्गः स्वदेवोसुरभूषितः ॥ ७३ ॥ अर्थ:- लवण समुद्र से १२००० योजन दूर जाकर वायव्य दिशा में स्थित गोतम नाम का प्रति सुन्दर पर्वत है, जो १२००० योजन ऊंचा, १२००० योजन चौड़ा, वन वेदियों से अलंकृत नाना प्रकार की रचना से युक्त, शाश्वत और अनेक देव गणों से युक्त है ।।६८- ६६ ।। उस पर्वत के ऊपर गोदम नाम का एक महान द्वीप है, जो स्वर्णमय वेदी, तेजोमय रत्नों के प्रासादों, वनों एवं गोपुर द्वारों से देदीप्यमान है || ७ | उस द्वीप के (ऊर) आगे साढ़े बासठ योजन ऊँचा. सवा इकतीस ( ३१४ ) योजन लम्बा और दो कोश की भवगाह ( नोंत्र ) से युक्त भवन है । जो विविध प्रकार के रत्नमय, Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___३३२ ] सिद्धान्तसार दीपक पाठ योजन ऊंचे और चार योजन चौड़े द्वारों से अलंकृत है ११७१-७२।। उस भवन में एक पल्य की प्रायु से युक्त और दश धनुष ऊँचे दिव्य शरीर को धारण करने वाला गोतम नाम का देव अपने परिवार देव देवियों के साथ निवास करता है ।।७३॥ प्रब लवरण समुद्र के अभ्यन्तर तट सम्बन्धी २४ अन्तर द्वीपों का सविस्तार वर्णन करते हैं :-- अन्धेर्वेदीतटादगत्वा शतपञ्चप्रमाणि च । योजनानि चतुदिक्षु सन्ति द्वीपाश्चतुःप्रमाः ॥७४।। शतयोजनविस्तीर्णाः कुभोगमूनरान्विताः। पुनस्पक्त्याम्बुधेस्तीरं तावन्ति योजनानि च ॥७५।। चतुर्विदिक्षु चत्वारः स्युर्तीपा विस्तृताः स्फुटम् । योजनः पञ्चपञ्चाशत्प्रमः कुनृयुगाश्रिताः ॥७६॥ योजनानि विहायाब्धेः सार्धं पंचशतानि च।। दिग्विदिग्मध्यभागाष्टान्तरदिक्षुक्षयातिगाः ॥७७॥ पञ्चाशद्योजनव्यासा द्वीपा प्रष्टौ भवन्ति ।। पार्वयोधच द्वयोरब्धौ हिमवद्विजयायोः ॥७॥ रूप्याचलशिखर्यद्रयोः प्रत्येक योजनान्यपि । षट्शतानि विमुच्यस्तो द्वौ द्वौ द्वीपौ पृथक् पृथक् ।।७।। कुलाद्रिद्वयरूप्याद्रिद्वयान्तमस्तकाश्रिताः । भवेयुर्मलिता प्रष्टौ द्वीपाः सर्वे सुविस्तृताः ।।८०॥ योजना पंचविंशत्या कुत्सिताभोगभूयुताः । समस्ताः पिण्डिता एते चतुर्विशति सम्मिताः ।।१।। तीयोदयावगाहस्य संयोगेन समोन्नताः । सर्वे द्वीपा जलाध्वं योजनेकोच्छिता मताः ॥२॥ अर्थ:-लवण समुद्र की वेदी के तट से ५.० योजन आगे जाकर चारों दिशाओं में सौ सौ योजन चौड़े और कुभोगभूमिज मनुष्यों से संकुलित चार द्वीप हैं । पुनः समुद्र तीर से ५०० योजन आगे जाकर चारों विदिशामों में ५५ योजन विस्तार वाले और कुभोगभूमिज मनुष्य युगलों से भरे हुये चार द्वीप हैं ।।७४-७६।। समुद्र तट को ५५० योजन छोड़ कर दिशाओं और विदिशात्रों के मध्य Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमोऽधिकारः [ ३३३ अाठ विदिशानों में कभी नाश न होने वाले प्रो र ५० योजन विस्तार वाले पाठ द्वीप हैं । समुद्र के दोनों पात्र भागों में हिमवन् कुलाचल, ( भरतक्षेत्र सम्बन्धी) विजयाई पर्वत, शिस्त्ररी कुलाचल और ( ऐरावत क्षेत्र सम्बन्धी ) विजयाध पर्वत, इन प्रत्येकों को छह सौ-छह सौ योजन छोड़ कर दोनों कुलाचलों और दोनों विजयाओं के अन्तिम भागों का आश्रय कर पृथक पृथक् दो दो द्वीप हैं। ये सब एकत्रित कर देने पर आठ द्वीप होते हैं। ये पाठों द्वीप पच्चीस पच्चीस योजन विस्तार वाले और कुभोगभूमिज जीवों से संकुलित हैं। इन समस्त द्वीपों का योग २४ होता है ।।७४-८१॥ समभूमि से नीचे जल की गहराई और समभूमि से जल की ऊँचाई इन दोनों का योग कर देने पर जल के अवगाह का प्रमाण प्राप्त होता है । अर्थात् (वेदी सहित) सर्व द्वीप जल से एक-एक योजन ऊँचे हैं ।।८२।। नोट :- लवरण समुद्र के ( २४+२४ )=४८ द्वीपों का चित्रण श्लोक १०२ में दिया गया है । अब कुभोगभूमिज मनुष्यों को प्राकृति, प्रायु, वर्ण, प्राहार और उनके रहने के स्थान प्रादि का वर्णन करते हैं : एकोरका सश्रृङ्गालांगुलिनोऽथाप्यभाषिणः । पूर्वादिषु चतुर्दिक्षु वसन्त्येते क्रमान्नराः ॥८३।। शशकर्णाः कुमाश्च सन्ति शकुलि फर्णकाः । कर्णप्राधरणा लम्बकर्णाश्चतुर्विदिक्षु वै ।।८४॥ सिंहाश्यमहिषोलूक-व्याघ्र-सूकरगोमुखाः।। कपिवक्त्रा वसन्त्यष्टान्तरदिक्ष कुमानुषाः ॥१५॥ मत्स्यकालमुखा मेघविद्युद्वक्त्रा वसन्ति छ । हिमाद्रविजयाद्धस्य पूर्वपश्चिमभागयोः ।।६।। गजदर्पणमेषाश्व वदनाः कुत्सिता नराः । स्यू रूपाविशिखयोरुभयोः पार्श्वयोः क्रमात् ॥७॥ एषु द्वीपेषु सर्वेषु प्राप्य जन्म सुगर्भतः । दिनरेकोन पञ्चाशत्प्रमलब्ध्या सुयौवनम् ॥१८॥ स्त्रीमध्ययुग्मरूपेण रोगक्लेशादिवजिता । पल्यैकजीविनः पंचवर्णाः क्रोशोग्नता नराः ॥८६॥ नानाकायमुखाकारा भुञ्जन्ति नीचपुण्यतः । नीचान भोगान सका तत्रत्याः कुभोगघरासु च ||१०|| Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___३३४ ] सिद्धान्तसार दोपक एकोषका गुहायां च वसन्ति कान्तया समम् । मधुरं मृण्मयाहारमाहरन्ति सुखावहम् ॥१॥ समस्त्रोदुसाः शक्षाधिकाशिनः । भुञ्जन्ति तृप्तये सर्वे पत्रपुष्पफलानि च ॥१२॥ पायुषो सेऽप्यसून मुक्त्वा विश्वे मन्दकपायिणः । ज्योतिर्भावनभौमानां ते जायन्ते सुवेरमसु ॥३॥ तेषु ये प्राप्तसम्यक्त्वाःकाललब्ध्या व्रजन्ति ते । सौधर्मशानकन्पी च मान्यत्र दृष्टिपुण्यतः ||६४॥ अर्थः-लवण समुद्र की पूर्वादि चारों दिशाओं के द्वीपों में क्रम से एकोरुक, सशृङ्ग अर्थात् वैषाणिक, लांगुलिक और प्रभाषक ये चार प्रकार के मनुष्य रहते हैं ॥५३॥ चारों विदिशानों के चार द्वीपों में कम से शशकर्णा, शकुलिकर्ण, कर्णप्रावरण और लम्बकणं ये चार प्रकार के कुमानुष रहते है ।।४।। पाठ अन्तरालों को आठ दिशामों में स्थित द्वीपों में कम से सिंह, अश्व, भैंसा, उल्लू, व्याघ्न, सूकर, गाय और बन्दर सदृश मुख वाले कुमानुष रहते हैं ।।८।। हिमवान् पर्वत और विजयाई पर्वत के पूर्व पश्चिम भाग में मछलीमुख, कालमुख, मेघमुख और विद्युत्मुख वाले कुमनुष्य रहते हैं अर्थात् पूर्व में मछलीमुख, पश्चिम में कालमुख, पूर्व में मेघमुख और पश्चिम में विद्युत्मुख वाले मनुष्य रहते हैं ॥८६॥ विजया और शिखरी पर्वत के दोनों पाव भागों में क्रमशः गज, दर्पण, मेष और अश्वमख अर्थात् पूर्व में गजमुख, पश्चिम में दर्पणमुख, पूर्व में मेषमुख और पश्चिम में प्रश्वमुम्व वाले कुमनुष्य निवास करते हैं ।।८७। इन समस्त द्वीपों में स्त्री पुरुष दोनों का युगल रूप से गर्भ जन्म होता है, ये रोग और क्लेश प्रादि से रहित होते हैं तथा ४६ दिनों में पूर्ण यौवन प्रार कर लेते हैं। इनको प्रायु एक पल्य को, शरीर पांच वर्षों का और शरीर की ऊँचाई एक कोश की होती है ।।८५-८६विविध प्रकार के शरीराकार और मुखाकार को धारण करने वाले ये कुमनुष्य पूर्व जन्म में ( अपने व्रतों में लगे हुये दोषों की ) निन्दा गहरे रहित व्रत तप पालन करने से उत्पन्न नीच पुण्य के योग से इन कुभोग भूमियों में निरन्तर नीच भोग भोगते हैं ।।६०॥ चारों दिशात्रों में निवास करने वाले एकोरुक मादि मनुष्य अपनो स्त्रियों के साथ गुफरों में रहते हैं, और सुख प्रदान करने वाली प्रति मधुर मिट्टी का आहार करते हैं ॥११॥ शेष कुमनुष्य अपने सदृश आकार वालो अपनी अपनी स्त्रियों के साथ वृक्षों के मूल भाग में निवास करते हैं, और क्षुषा शान्ति के लिये सर्व प्रकार के पत्र, पुष्प और फल खाते हैं । ॥१२॥ ये सब भोग कुभूमिज जीव मन्दकषायी होते हैं, और प्रायु के अन्त में प्राणों को छोड़ कर भवनवासी, व्यन्तरवासी और ज्योतिषी देवों के भवनों आदि में उत्पन्न होते हैं। इन कुभोगभूमिज Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दामोऽधिकारः [ ३३५ जीवों में काललब्धि के प्रभाव से जो जोव सम्यग्दर्शनसह कर लेते हैं, वे सौधर्मेशान कल्प में उत्पन्न होते हैं, वे सम्यक्त्वरूपी पुण्य के प्रभाव से अन्यत्र ( भवन त्रिक में ) उत्पन्न नहीं होते हैं ।। ६३-६४|| कुभोगभूमियों में कौन जीव उत्पन्न होते हैं ? उसे कहते हैं येsलिङ्ग प्रपंचत्वादिकारिणः कुमार्गगाः । अनालोचनपूर्व ये तपोवृत्तं चरन्ति च ॥ ६५॥ परेषां ये विवाहादिपापानुमतिकारिणः । ज्योतिष्क मन्त्र तन्त्रादिवैद्यकर्मोपजीविनः ॥ ६६ ॥ पंचाग्न्यादितपोनिष्ठा ये हगादिविराधिनः । कुशानकुतपोयुक्ता मौनहीनान्न भोजिनः ॥६७॥ कुकुलेषु च दुर्भातकादिद्युतेषु वा । श्राहारग्रहणोद्युक्ताः सदोषाशन सेविनः ॥ ६८ ॥ इत्यादिशिथिलाचारा मायाविनोऽक्षलम्पटाः । शुद्धिहीनाश्च ते सर्वे स्युः कुपात्राणि लिङ्गिनः ॥६६॥ तेभ्यः कुपात्रलिङ्गिभ्यो दानं ददति ये शठाः । ते कुपुण्यांशतो जन्म लभन्तेऽत्र कुभूमिषु ||१०० ॥ जघन्यभोगभूमौ घामृत्युत्पत्यादिका स्थितिः । सा ज्ञेया कुमनुष्याणां कुत्सिता भोगभूमिषु ॥ १०१ ॥ अर्थः- जो कुमार्गगामी जीव जिनलिङ्ग को धारण करके प्रपञ्च आदि करते हैं, आलोचना किये बिना ही व्रतों एवं तपों का श्राचरण करते हैं. जो विवाह यादि की एवं और भी अन्य सावद्य कार्यों की अनुमति देते हैं। ज्योतिष, मन्त्र तन्त्र एवं वैद्यक प्रादि कार्यों द्वारा उपजीविका श्रर्थात् आहार आदि प्राप्त करते हैं। पंचाग्नि प्रादि मिध्या तपों में निष्ठा रखते हैं । जो सम्यग्दर्शन की विराधना करते हैं, कुज्ञान और कुतप से युक्त हैं, मौन छोड़कर भोजन करते हैं । निन्द्य कुलों में, दुष्ट स्वभाव (दुर्भावना) से युक्त एवं सुतक प्रादि से युक्त गृहों में आहार ग्रहण करते हैं । ४६ दोषों को न टालते हुए सदोष आहार ग्रहण करते हैं. घनेक प्रकार के शिथिलाचार से युक्त हैं, मायावी हैं, इन्द्रिय लम्पट हैं और बाह्याभ्यन्तर शुद्धता से रहित हैं, वे सब लिंगी कुपात्र हैं और मर कर कुभोग भूमियों में जन्म लेते हैं, और जो मूर्व जन ऐसे कुपात्रों एवं लिंगधारियों को दान देते हैं वे सब खोटे पुण्य अंशों से कुभोगभूमियों में जन्म लेते हैं ।। ६५- १०० ।। नोट :- यही विषय त्रिलोकसार गाथा ६२२ से ६२४, तिलोयपति अधिकार चतुर्थ गाथा २५०३ से २५११, जम्बूद्वीप पति सर्ग १० गाया ५८ से ६६ में द्रव्य है । Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ ] सिद्धान्तसार दीपक जघन्य भोगभूमि में जीवों की जन्म, मरण एवं आय प्रादि की जो व्यवस्था है, कुभोगभूमिज मनुष्यों की भी सभी व्यवस्थाए' सी ही जानना ।।१०१।। अब लवण समुद्र के अन्य २४ द्वीप कहते हैं :-- तथा चेम्विधा द्वीपाश्चतुर्विशतिसंख्यकाः । भवन्ति घातकोवण्डनिकटे लवणाएंवे ॥१०२॥ अर्था:-लबरणसमुद्र में जम्बूद्वीप के निकट जिस प्रकार से चौबीस द्वीप कहे हैं, वैसे ही धातकी खण्ड के समीप भी २४ दी द्वीप हैं ॥१०२।। इसप्रकार लवरणसमद्र में ४८ द्वीप हैं। जिन का चित्रण निम्न प्रकार है : L जम्थ-द्वीप फिमचनप/ -- ® Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दामोऽधिकार [ ३३७ अब कालोदधि समुद्र के २४ द्वीप कह कर सम्पूर्ण द्वीपों को संख्या दर्शाते हैं : कालोवजलधेस्तद्वत् सन्स्येवोभयभागयोः । द्वीपाः सर्वेऽष्टचत्वारिंशत्कुभोगमहोयुताः ॥१०३।। विश्वेऽमो पिण्डिता द्वीपा अब्धियान्तरे स्थिताः । कुभोगभूनराकोर्णा ज्ञेयाः षणवतिप्रमाः ॥१०४॥ अर्थ:-लवणसमुद्र के सदृश कालोदधि समुद्र के बाह्याभ्यन्तर दोनों भागों में भी चौबीसचौबीस द्वीप हैं। ये सम्पूर्ण द्वीप ४८ कुभोगभूमियों से युक्त हैं ।। १०३ ॥ कालोदधि और लवण इन दोनों समुद्रों के प्रभ्यन्तर भाग में स्थित अड़तालीस अड़तालीस द्वीपों का योग कर देने पर कुभोगभूमिज मनुष्यों से व्याप्त ६६ अन्तर्वीप प्राप्त होते हैं ।।१०४।। अब लवण समुद्र का प्रवगाह और उसकी सूक्ष्म परिधि का प्रमाण प्रादि कहते हैं : मध्यभामेऽवगाहोऽस्य सहस्रयोजनप्रमः । मक्षिकापक्षसादृश्यश्चान्ते पातालबजितः ॥१०॥ पञ्चाग्रदशलक्षाणि ह्ये काशीतिप्रमाण्यपि । सहस्राणि शतं चैकोनचत्वारिंशदेव हि ॥१०॥ योजनानामिति ख्यातसंख्यया लवणाम्बुधौ । परिधिः प्रोविता सूक्ष्मा किञ्चिदूना जिनागमे ॥१०७।। एवं नाना गिरितीपादियुतो लवणार्णवः । जम्बूद्वीपपरिक्षेपावृतोऽत्र वणितो बुधः ॥१०८।। वेलाः पातालरन्ध्राणि वृद्धिहानिशिखादयः । विद्यन्ते लवणाब्धौ च न शेषा संख्यवाधिषु ।।१०।। यतः शेषार्णवाः सर्वे टोत्कीर्णा इवोजिताः । सहस्रयोजनागाहा वृद्धिह्रासातिगाः स्मृताः ॥११०॥ अर्था—ल बणसमुद्र के बडवानलों का मध्य भाग में जल का अवगाह ( गहराई ) एक हजार योजन है, और अन्त में अर्थात् समुद्र के किनारों पर जल मक्खी के पंख सहश पतला है ।।१०५॥ जिनागम में लवण समुद्र की सूक्ष्म परिधि का प्रमाण कुछ कम पन्द्रह लाख इक्यासी हजार एक सौ उनतालीस ( १५८११३६ ) योजन कही गई है ॥१०६-१०७|| विद्वानों ने लवण समुद्र को अनेकों पर्वतों एवं द्वीपों से युक्त, जम्बूद्वीप को वेष्टित किये हुए और चूड़ो सहश वलयाकार कहा है ॥१०८।। Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ ] सिद्धांतसार दीपक वेला, पाताल विवर, जल में हानि वृद्धि एवं शिखा सदश जल की ऊँचाई अर्थात् जल की शिखा केवल लवासमुद्र में ही है, अन्य असंख्यात समुद्रों में नहीं हैं ।। १०६|| इसलिए शेष सब समुद्र टोत्कीर्ण के सद्दश, एक हजार योजन अबगाह से युक्त और हानि वृद्धि रूप विकार से रहित कहे गये हैं ॥११०॥ ततोऽस्ति वलयाकारी धातकीवृक्षलक्षितः । योजनानां चतुर्लक्षविस्तीर्णो हि विधाध्ययः ।।१११॥ द्वितीयो पातकीखण्डद्वीपस्तस्य द्वयोदिशोः । दक्षिणोत्तरयोः स्यातामिक्ष्वाकाराख्यपर्वतौ ॥११२।। सहस्रयोजनव्यासौ चतुःशतसुयोजनः।। उन्नती सच्चतुःकूटः प्रत्येक मूनि भूषितौ ॥११३।। एकक श्रीजिनागारालंकृतों काञ्चनप्रभो । लवणाम्बुधिकालोदवेद्यन्तस्पशिनौ परौ ॥११४॥ साभ्यां स धातकोखण्डो द्विधाभेदमुपाश्रितः । पूर्वात्यो धातकीखण्ड एकोऽन्योऽपरसंशकः ।।११५॥ एतस्याभ्यन्तरा सूची पञ्चलक्षप्रमाणिका । मध्यमा नव लक्षा च बाह्या जिनागमे मता ॥११६।। योजनानां जिनाधीशलक्षत्रयोदशप्रमा । सूचोनां त्रिगुरणा सर्वा स्थूला परिधिरुच्यते ॥११७।। लक्षाः पञ्चदशकाशीतिसहस्राः शतं तथा । योजनानां किल कोनचत्वारिंशदिति स्फुटम् ।।११८॥ परिधिः प्रोदिता पूर्वसूच्या दक्षंजिनागमे । अष्टाविंशतिलक्षाः षट्चत्वारिंशत्सहरूकाः ॥११॥ तवैकोन पञ्चाशत् परिधिश्चेति मध्यमा । लक्षाणि चकचत्वारिंशद्दशव सहस्त्रकाः ॥१२०॥ शतानि नव चकाग्रषष्टिरित्ययोजनः । तद्वीपे बाह्यसूच्या हि कौतिता परिधिजिनः ।।१२१॥ अर्थ:-लवणसमुद्र के बाद बलयाकार, धातको वृक्ष से युक्त, चार लाख योजन प्रमाण व्यास वाला, पूर्व और पश्चिम के भेद से दो भेद वाला और अविनाशी धातको खण्ड नाम का दूसरा द्वीप है । इस द्वीप की उत्तर दक्षिण दोनों दिशाओं में दो इंध्याकार पर्वत हैं । जो (पूर्वपश्चिम) एक हजार Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमोऽधिकार : [ ३३६ योजन चौड़े, चार सौ योजन ऊँचे ( और दक्षिणोत्तर लम्बे ) हैं। ये दोनों पति काञ्चन वर्ण वाले हैं, और इनके शिखर चार-चार कूटों से सुशोभित हैं। वे दप्वाकार पर्वत एक एक जिनमन्दिर से विभूपित हैं, तथा लवणसमुद्र और कालोदधि समुद्र की वेदियों को स्पर्श करते हैं ।।१११-११४॥ उन वाकार पर्वतों से वह घातकी खण्ड पूर्ण धातको खण्ड और पश्चिम घातको खण्ड के नाम से दो प्रकार वाला है ।। ११५॥ जिनेन्द्र भगवंतों के द्वारा जिनागम में धातकी खण्ड का अभ्यंतर सूची व्यास पांच लाख योजन, मध्यम सूची व्यास नौ लाख योजन और बाह्य सूची श्यास तेरह लाख योजन प्रमाण कहा गया है। तीनो सूची ब्यासी का त्रिगुरणा तीनों स्थूल परिधियों का प्रमाण होता है । अर्थात् अभ्यन्तर सूची व्यास को स्थूल परिधि पन्द्रह लाखा, मध्यम परिधि सत्ताईस लाख और बाह्य सूची व्यास की स्थूल परिधि का प्रमाण उन्तालीस लाख योजन है ।। ११६-११७|| जिनागम में विद्वानों के द्वारा धातकी खण्ड की अभ्यन्तर सूक्ष्म परिधि का प्रमाण पंद्रह लाल इक्यासो हजार एक सौ उन्तालीस (१५८ ११३६) योजन कहा गया है। मध्यम सूक्ष्म परिधि का प्रमाण अट्ठाईस लास्स छयालीस हजार उनचास ( २८४६०४६ ) योजन और बाह्य सूची व्यास की सूक्ष्म परिधि का प्रमाण जिनेन्द्र भगवान के द्वारा इक्तालीस लाख दश हजार नौ सौ इकसठ (४११०६६१) योजन कहा गया है ॥११८-१२।। अब धातकोखण्डस्थ मेरु पर्वतों का अवस्थान, भरतादि क्षेत्रों का प्रायाम और हिमवान् प्रादि पर्वतों का उत्सेध एवं विस्तार आदि दर्शा कर दृष्टान्त द्वारा इनके प्राकारों का वर्णन करते हैं :-- महामेरोश्च मेरूद्वौ पूर्वापरौ हि क्षुल्लको 1 स्तो मध्यभागयोर्धातकीखण्डद्वीपयोद्धयोः ॥१२२॥ मेरोदक्षिणदिग्भागाद् भरतादीनि सप्त च । क्षेत्राणि योजनानां स्युश्चतुर्लक्षायतान्यपि ॥१२३॥ योजनानां चतुर्लभैरायामा षट् कुलाद्रयः । हिमाद्रघाद्याः समोत्सेधा जम्बूद्वीपकुलाचलः ॥१२४॥ प्रायद्वीपकुलादिभ्यो सर्वेभ्यो विस्तरान्यिताः । प्रत्येकं द्विगुणब्यासेनैव सन्ति मनोहराः ॥१२५।। चक्रत्येह यथाराश्च मध्ये छिद्राणि चारयोः । द्वीपस्यास्य तथा सन्ति हराकाराः कलाद्यः ।।१२६॥ परान्तरन्ध्रतुल्यानि क्षेत्राणि निखिलानि च । सङ्कीर्णानि निजाभ्यन्तरे बाहये विस्तृतान्यपि ॥१२७|| Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० ] सिद्धान्तसार दीपक अर्थः-दोनों धातकी खण्ड द्वीपों ( पूर्ण घातको, पश्चिम धातकी खएडों) के ठीक मध्य भाग में पूर्व, पश्चिम दिशा में एक एक मेरु पर्वत अवस्थित हैं ।। १२२ ।। मेरु पर्वतों की दक्षिण दिशा से प्रारम्भ कर भरत, हैमवत आदि सात-सात क्षेत्र हैं, जो चार-चार लाख योजन प्रमाण लम्बे हैं ॥१२३ भरत आदि क्षेत्रों के मध्य हिमवन् आदि छह-छह कुलाचल पर्वत हैं । इन कुलाचलों का आयाम चार. चार लाख योजन प्रमाण और उत्सेध जम्बूदीपस्थ कुलाचलों के सदृश अर्थात् १००, २००, ४००, ४००, २०० और १०० योजन प्रमाण है, किन्तु धातको खण्डस्थ कुलाचलों आदि का विष्कम्भ विस्तार जम्बूद्वीपस्थ कुलाचलों के विस्तार से दुने दुने प्रमाण वाला है ।।१२४-१२५।। जिस प्रकार चक्र-पहिया में नारा होते हैं और प्रारों के मध्य भाग में छिद्र होते हैं, इसी प्रकार इस धातको खण्ड में स्थित कुलाचल आरों के सदृश हैं और उनके मध्य स्थित क्षेत्रों में भरतादि सभी क्षेत्र स्थित हैं, जो अभ्यन्तर अर्थात् सवरण समुद्र को पोर संकीर्ण तथा बाह्य अर्थात कालोदधि की ओर विस्तीर्ण हैं ॥१२६-१२७।। इसका चित्रण निम्न प्रकार है : नील धा - नाhramaram h AMR. ..RADHA " PICH MU-11 Hin be a. रायमा Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमोऽधिकारः [ ३४१ अब धातकीखण्ड के पर्वत अवरुद्ध क्षेत्र का प्रमाण और इस क्षेत्र से रहित द्वीप को तीनों परिधियों का प्रमाण कहते हैं :-- एकलक्षसहस्राण्यष्टसप्ततिः शताष्टकम् । योजनानां द्विचत्वारिशच्चेति संख्यया मतम् ॥१२॥ तत् क्षेत्र पर्वतै रुखं शेषं पर्वत जितम् । विधापरिधिभेवेन क्षेत्रं त्रिविधमुच्यते ।।१२६॥ चतुर्दशव लक्षाणि सहस्र शतद्वयम् । सप्ताग्रानवतिश्चेति योजनानां हि संख्यया ॥१३०॥ जघन्यपरि धेर्जेयं क्षोत्रं सर्वाचलातिगम् । षड्विंशतिश्च लक्षाणि सप्तषष्टिसहस्रकाः ।।१३१॥ सप्तोत्तरशते दू चेत्ययोजनविस्तरः । मध्यमापरिधेः क्षेत्रं भवेत्पर्वतदूरगम् ।।१३२।। लक्षा एकोनचत्वारिंशद् द्वात्रिशत्सहस्रकाः । तथा शतकमेकोविशतियोजनानि च ॥१३३॥ इत्येवं पर्वतातीतं क्षेत्रं सर्व मतं जिनः । उत्कृष्टपरिधेर्धातकीखण्डस्यास्य पिण्डितम् ।।१३४।। अर्थ:-धातकोखण्ड में पर्वतों से अविरुद्ध क्षेत्र का प्रभारण एक लाख अद्वत्तर हजार पाठ सो ब्यालीस (१७५८४२) योजन है । (इस क्षेत्र को प्राप्त करने का विधान त्रिलोकसार गाथा ६२८ की टीका से ज्ञातव्य है । ) इस क्षेत्र के अतिरिक्त सर्व क्षेत्र, पर्वत क्षेत्र से रहित है, जो तीन प्रकार की परिधियों के भेद से तीन प्रकार का कहा गया है ।। १२८-१२६।। लवणोदधि के समीप जघन्य परिधि का पर्वात रहित क्षेत्र अर्थात् पर्वत रहित जघन्य परिधि का प्रमाण ( १५८११३६-१७८८४२ )= १४०२२९७ योजन, पर्गत रहित मध्यम परिधि का प्रमारा (२८४६०५०-१७८८४२)=२६६७२०७ योजन और पर्वत रहित बाह्य ( उत्कृष्ट) परिधि का प्रमाण (४११०६६१-१७८८४२) ३६३२११६ योजन है । इस प्रकार जिनेन्द्र देव के द्वारा पति रहित तीनों परिधियों का प्रमाण कहा गया है ।। १३०-१३४॥ अब धातकोखण्ड स्थित क्षेत्रों एवं पर्वतों का विष्कम्भ कहते हैं :-- क्षेत्राच्चतुर्गुणं क्षेत्रनं विदेहान्तमिह स्मृतम् । ततश्चतुर्गुणोनान्युत्तरक्षेत्रत्रयाणि च ॥१३५।। Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ ] सिद्धान्तसार दीपक जम्बूद्वीपहिमाद्रः स्यादनत्यो हिमधान्महान् । द्विगुणव्याससंयुक्तो हिमानरपराचलौ ॥१३६।। चतुश्चतुर्गुणाव्यासविस्तृतौ चोत्तराद्रयः । नीलाक्यस्त्रयो ज्ञेया हिमाद्रयादि त्रिकः समाः ॥१३७।। अर्थ:-दोनों धातको खण्डों के भरतादि क्षेत्रों का क्षेत्र से क्षेत्र के विष्कम्भ विदेह पर्यन्त चौगुने चौगुने हैं और विदेह के बाद उनर दिशा सम्बन्धी क्षेत्रों का विष्कम्भ चौगुना चौगुना हीन हीन है। अर्थात् भरत क्षेत्र से विदेह पर्यन्त प्रौर ऐरावत क्षेत्र से विदेह पर्यन्त क्षेत्रों का विष्कम्भ क्रमशः चौगुना है। जम्बुद्वीपस्थ हिमवन् पर्वत से धातको खण्डस्थ हिमवन पर्वत का विष्कम्भ दुना है, और धातकी खाण्डस्थ हिमवन् के विस्तार से निपध कुलाचल तक का विस्तार क्रमशः चौगुना है, तथा उत्तर दिशा गत नील आदि तीनों पर्वतों का विष्कम्भ निषघ, महाहिमवन् और हिमवान् पर्वतों के सदृश समझना चाहिए ॥१३५-१३७|| प्रथ क्षेत्रकुलाचलानां प्रत्येकं विष्कम्भः कथ्यते : भरतस्याभ्यन्तरविस्तृतिः पट्सहस्र-षट्शतचतुर्दशयोजनानि योजनस्य द्विशतद्वादशोत्तरभागानां एकोनत्रिशदधिकशतभागाश्च । मध्यव्यासः द्वादशसहस्रपञ्चशतकाशीतियोजनानि, द्विशतद्वादशोत्तर भागानां षट्त्रिंशद्भागा: 1 बाह्य विष्कभ: अष्टादशसहस्रपञ्चशतसप्तचत्वारिंशद्योजनानि द्विशतद्वादशोतरभागानां पञ्चपञ्चाशदनशतभागाश्च । हैमवतस्याभ्यन्तर विस्तारः पड्विंशतिसहस्रचतुःशताष्टपञ्चाशद्योजनानि, द्विशतद्वादशोत्तरभागानां विनयतिभागाः। मध्यविष्कम्भः पञ्चाशत्सहस्रविशतचतुर्विंशतियोजनानि, योजनस्य द्विशत. द्वादशोत्तरभागानां चतुश्चत्वारिशदनशतभागाश्च । बाहाव्यासः चतुःसप्ततिसहस्र कशतनवतियोजनानि योजनस्य द्विशतद्वादशभा गानां पटपञ्चाशदधिकशतभागाश्च । हरिवर्षस्वाभ्यन्तरविष्कम्भ-एकलक्षपञ्चसहस्राष्टशतवयस्त्रिशद्योजनानि, योजनस्य द्वादशाग्रद्विशतभागानां षट्पञ्चागदधिकशतभागाश्च । मध्यन्न्यासः द्विलक्षकसहस्र द्विशताष्टनवतियोजनानि योजनस्य द्विशतद्वादश भागानां द्विपञ्चाशदनशतभागाश्च । बाह्यविस्तरः द्विलक्षषण्णवति सहस्रसप्तशतत्रिषष्टियोजनानि, योजनस्य द्विशतद्वादश भागानां अष्टचत्वारिंशदधिकशतभागाः॥ विदेहो त्रस्याम्वन्तरविष्कम्भः-चतुर्लक्षत्रयोविंशतिसहस्रत्रिगतचतुस्त्रिशद्योजनानि, योजनस्य द्विशतद्वादशभागानां द्विशतभागाश्च । मध्ये विस्तृतिः अष्टलक्षपञ्चसहस्र कशतचतुर्णवतियोजनानि, योजनस्य द्विशतद्वादशभागानां चतुरशोत्यग्रशतभागाः । बाह्यविस्तरः एकादशलक्षसाताशीति सहस्र चतु:पञ्चाशद्योजनानि, योजनस्य द्विशतवादशभागानां अष्टषष्टयनशतभागाः एवां रम्यकस्य हरिवर्पविष्कम्भेन Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमोऽधिकारः [ ३४३ समस्त्रिविधी विष्कम्भोऽस्ति । हेरण्यवतस्य त्रिधा व्यासः हैमवतव्याससमो भवेत् । ऐरावतस्याभ्यन्तरमध्यबाह्यविष्कम्भाः भरतविष्कम्भसमाना: स्युः। इति पूर्वापरधातकोखाएडयोद्वंयो। भरतादिसप्तक्षेत्रागामभ्यन्तरमध्यबाह्य विष्कम्भाः ज्ञातव्याः। नोट:-उपर्युक्त गद्य का सम्पूर्ण अर्थ निम्नांकित तालिका में निहित है । धासकोखण्डद्वीपस्थ मरतादि सात क्षेत्रों का अभ्यन्तर, मध्य और बाह्य विष्कम्म : क्रमांक | क्षेत्र-नाम | अभ्यन्तर वि० मध्य विष्कम्भ । बाह्य विष्कम्भ ६६१४३२१ योजन। १२५८१ या योजन। १८५४७११५ योजन । भरत हैमवत २६४५८२१३ । । ५०३२४२६३ ।। १०५६३३१५६ । । २०१२९८१५३ । । २९६७६३३१६ ।, विदेह ४२३३३४३११ । । ५०५१९४३६१ । । ११६७०५४१ , रम्पक १०५८३३३५३ ,, २०१२६८३५३ , । २९६७६३३४६ , हैरण्यवत २६४५८५१२ । ५०३२४१५ । । ७४१९०२१ , | ऐरावत । ६६१४३३३ ।। १२५८१५१ , १८५४७३१३ ॥ अथ कुलाद्रीणां विष्कम्भा प्रोच्यन्ते :-- हिमवतविष्कम्भः द्विसहस्र कशताञ्चयोजनानि, योजनस्यकोनविंशतिकलानां कलाः पञ्च । महाहिमवतो विस्तारः अष्टसहसचतुःशतकविंशति योजनानि कलैका च । निषघस्य व्यासः त्रयस्त्रिशत्सहस्रषट्शतचतुरशीतियोजनानि चतु:कलाश्च नीलस्य व्यासः निषधव्याससमः। रुक्मिणः विस्तारः महाहिमवतव द्विस्तारसमानः शिखरिणः विष्कम्भः हिमवद्विकम्भतुल्यः। Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ ] सिद्धान्तसार दीपक धासफी खण्डस्थ कुलाचलों का विष्कम्भ :-- क्रमांक नाम विष्कम्म क्रमांक नाम विष्कम्भ हिमवन् । २१०५३ योजन । ४ नील ३३६८४ योजन महाहिमवन् | ८४२१११ , ५ । रुक्मी ८४२१ निषध । ३३६८४४ , ६ शिखरी २१०५१ ॥ अब धातकीखण्डस्थ ह्रद, कुण्ड और नदियों के विस्तार प्रावि का निरूपण करते हैं : धातकोखण्डमध्यस्था हरकुण्डापगादयः । सर्वे द्विगुणविस्ताराः कीर्तिताः श्रीजिनागमे ।।१३।। ह्रदकुण्डापगदिभ्यः प्राम्द्वीपस्थेम्म एव च । अवगाहसमाना हि वेदीवनादिभूषिताः ॥१३६।। अर्थ:-जिनागम में जम्बूद्वीपस्थ सरोवर आदि के विस्तार से धातकीखण्डस्थ समस्त ह्रद, कुण्ड और नदियों का विस्तार दूना दूना कहा गया है ।।१३८|| तथा प्रथम (जम्बू) द्वीपस्थ लद, कुण्ड और नदियों के प्रवगाह समान ही धातकी खण्डस्थ वन, वेदी आदि से विभूषित हद कुण्ड और नदियों का अवमाह कहा गया है ॥१३६॥ अब धातकीखण्डस्थ सरोवरों का ध्यास प्रादि कहते हैं :-- योजनानां सहस्र द्वे पद्मस्यायाम एव च । सहस्रयोजनव्यासस्ततो परौ हद्वयो ।।१४०।। द्विगुणद्विगुणव्यासदीघों शेषास्त्रयोऽपरे । ह्रदा एभिह दस्तुल्या धातकोखण्डयोर्द्वयोः ॥१४१॥ अर्थ:-बातकोखण्डस्थ पद्मसरोवर का आयाम २००० योजन और विस्तार १००० योजन प्रमाण है। इसके प्रागे स्थित महापद्म का पाराम ४००० योजन एवं विस्तार २००० योजन है। Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमोऽधिकारः [ ३४५ तिमिञ्छ सरोवर का विस्तार आदि महापद्म से दुना है । इसके प्रागे केशरी महा पुण्डरीक और पुण्डरोक सरोवरों का प्रमाण क्रमशः तिगिछ, महापद्म और पद्म सरोवरों के सदृश ही है ।। १४० - १४१|| अब घातकीखण्डस्थ कुण्डों का ध्यास आदि कहते हैं. गङ्गाकुण्डस्य विस्तारः पञ्चविंशतियोजनैः । :--- शताग्रश्च तथा सिन्धुकुण्डस्य कीर्तितो बुधैः ॥ १४२ ॥ सोतोदान्त नदीकुण्डानामस्माद् द्विगुणः क्रमात् । व्यासो वृद्धियुतोऽन्येषामेभिः कुण्डैः समानकः || १४३|| श्रर्थः - गणधरों के द्वारा गंगा कूट का विस्तार १२५ योजन और सिन्धु कूट का विस्तार भी १२५ योजन कहा गया है। इसके श्रागे सीतोदा नदी पर्यन्त यह विस्तार दुगुना दुगुना कहा गया है। सीतोदा नदी के आगे कुण्डों का विस्तार क्रमशः उत्तर के श्रर्थात् गंगा आदि कुण्डों के विस्तार सहश ही जानना चाहिए । १४२-१४३॥ अब धातकीखण्डस्य गंगादि नदियों का हिमवन् श्रादि पर्वतों पर ऋजु ( सीधे ) बहाव का प्रमाण कहते हैं -- योजनानां सहस्राणि ह्य कोनविंशतिस्तथा । त्रिशतानि नवाग्राणीति गङ्गासरितो मतम् ॥१४४॥ ऋजुत्वं हिमवन्मूनि सिन्धोश्च गमनं प्रति । रक्तारक्तादयोस्तद्वच्छ्वियंचलमस्तके || १४५ ।। शेषाखिलनदीनां स्यात् ऋजुत्वगमनं द्रहात् । कुलाद्रितटपर्यन्तं पर्वतोपरि नान्यथा ।। १४६ ॥ अर्थः- धातकीखण्डस्य गंगा नदी हिमवन् पर्वत पर १६३०६ योजन पर्यन्त सीधी जाती है । हिमवन् पर्वत पर सिन्धु नदी का सीधा बहाव भी इतना ही है । इसी प्रकार शिखरी पर्वत पर रक्तारक्तोदा नदियों का भी सीधा बहाव १६३०१ योजन प्रमाण ही है। शेष सम्पूर्ण नदियों का अपने अपने पर्वतों के ऊपर सीवा बहाव सरोवरों से कुलाचलों के तट पर्यन्त है, अन्य प्रकार नहीं है ।। १४४ - १४६ ।। :-- अब गंगा सिन्धु आदि नदियों का निर्गम आदि स्थानों का व्यास कहते हैं गङ्गा सिध्वोश्च विस्तारो निर्ममे योजनान्यपि । सार्धं द्वादशवाध्यते पञ्चविंशाधिकं शतम् ॥ १४७ ॥ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ ] सिद्धान्तसार दीपक ततोऽन्यसरितां व्यासो हिगुणद्विगुणः क्रमात् । सीतोदान्तं तथान्यासां विष्कम्भो हाससंयुतः ।।१४८॥ अर्थ:-निर्गम स्थान पर गंगा और सिन्धु नदियों का मुख व्यास १२६ योजन प्रमाण है, इससे क्रमशः वृद्धि होते हुए समुद्र प्रवेश द्वार पर नदो का विस्तार १२५ योजन हो जाता है । इस प्रकार सोतोदा पर्यन्त अन्य नदियों का यह विस्तार दूना दूना होता जाता है, इसके प्रागे जिस क्रम से बुद्धिगत हुअा था, उसी क्रम से घटता हुआ अन्त में मंगा सिन्धु सदृश ही रह जाता है ॥१४७-१४८।। अब धातकोखण्ठस्थ पूर्वविदेह के मेरु पर्वत का प्रमाण एवं उसके चेस्यालयों का प्रमाण कहते हैं :--- मेरुः पूर्वविदेहस्य मध्यभागेऽस्ति अल्लकः । सहस्रयाजनागाहो वनधामाधलकृतः ।।१४६॥ तुङ्गश्चतुरशोत्या च सहस्रयोजनः शुमः । द्वयष्टचैत्यालयोपेतश्चूलिकादिविराजितः ।।१५०॥ अर्थ:--धातकोखण्डस्थ पूर्व विदेह क्षेत्र के मध्यभाग में वन एवं प्रासाद प्रादि से अलंकृत विजय नाम का मेरु पर्वत स्थित है। इसका प्रवगाह ( नींव ) एक हजार योजन और ऊँचाई ८४००० योजन प्रमाण है। यह विजय मेरु सोलह अकृत्रिम जिन चैत्यालयों और बूलिका आदि से सहित होने के कारण अत्यन्त शोभायमान है।।१४६-१५०॥ अब विजयमेरु पर्वत के सम्पूर्ण विष्कम्भ एवं परिधियों के प्रमाण प्रादि का विस्तृत वर्णन करते हैं : अस्य मेरो: कन्दतले विष्कम्भः योजनानां पञ्चनवतिशनानि । परिधिश्च किञ्चिडूनद्विचत्वारिशदधिकत्रिंशत्सहस्रयोजनानि 1 भूतले व्यासः नवसहस्त्रचतु:शतयोजनानि। परिधिश्च एकोनविंशसहस्रसप्तशतपञ्चविंशतियोजनानि । भूतलादूर्व पञ्चशतयोजनानि गत्वास्य मेरोः प्रथममेखलायां प्रामुक्त वर्णनोपेतं पञ्च शतयोजन विस्तृत चतुश्चैत्यालयादिअलंकृतं नानापादपाकीर्णं शाश्वतं वनं स्यात् । तत्र नन्दनबनसहित मेरोबाह्यविस्तार:-नवसहस्रत्रिशतपञ्चागद्योजनानि । बाह्यपरिधिः एकोन विशरसहस्रपञ्चशत सम्पष्टियोजनानि । वनरहितमेरोऽभ्यन्तरविष्कम्भः अष्टसहस्रत्रिशतपश्चाशयोजनानि । अभ्यन्तरपरिधिः षड्विंशतिसहस्रचतुःशतपम्चयोजनानि । ततः उर्व साधपञ्चपञ्चाशत्सहसयोजनानि विमुच्य मेरोः चतुजिनालयवापीसुरसादि विभूषितं पञ्चशतयोजन विस्तीर्णं रम्यं सौमनसाख्यं धनं विद्यते, तेषां सार्धपञ्चपञ्चाशस्सहस्रयोजनानां मध्येऽसौ मेरुः दशसहस्रयोजन पर्यन्तं समविष्कम्भो भवति ततः सार्धपञ्चचत्वारिंशत्सहस्रयोजनान्तं महस्वश्च । Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमोऽधिकारः [ ३४७ तत्रास्य ब्राह्म विष्कम्भ: त्रिसहस्राष्टशतयोजनानि । बाह्यपरिधिः द्वादशसहस्रकिञ्चिदुनसप्तदश योजनानि । अभ्यन्तरव्यासः द्विसहस्राष्टशतयोजनानि । अभ्यन्तरपरिधिः प्रष्टसहस्राष्टशतचतुःपञ्चाशधोजनानि । ततोऽस्यैव मे रोहवं अष्टाविंशति सहनयोजनानि बिहाय मूनि चतुर्नबतियुतचतुःशतयोजनव्यासं जिनालयपाण्डुक शिलादि भूषितं पाण्डुकबनमस्ति । तेषामष्टाविंशतिसहस्रयोजनानां, मध्ये दशसहस्रयोजन पर्यन्तं मेरुः ऋजुविष्कम्भो भवेत्। ततोऽष्टादशसहस्र योजनान्तं क्रमहीयमानह्रस्वश्च । तत्रास्य सहनयोजनविस्तीर्णस्य मेरोमनि परिधिः त्रिसहस्र कशतद्विषष्टियोजनानि साधिक: क्रोशश्च । अत्र मेरो अन्ये चैत्याल पत्रगृहवापीकूटन्चूलिकादय: उत्सेध-व्यासावगाहादि वर्णन: जम्बूद्वीपस्थ महामेरोः समाना भवन्ति । ईबिधवर्णनोपेतो परमेहरपि पश्चिमधातकीखण्ड विदेहस्य मध्ये ज्ञातव्यः । मर्श:-इस विजयमेरु पर्वत का मूल में अर्थात् चित्रा पृथ्वी के तल (निचले) भाग पर (जड़) विस्तार ६५०० योजन है, और इस कन्द विष्कम्भ की परिधि कुछ कम ३०० ४२ योजन प्रमाण है। भूतल पर अर्थात् पृथ्वीतल (चित्रा पृथ्वी के उपरले भाग) पर विजयमेरु का व्यास १४०० योजन तथा परिधि २६७५५ योजन प्रमाण है । पृथ्वीतल से ५०० योजन ऊपर जाकर विजयमेरु की प्रथम मेखला ( कटनी ) पर सुदर्शन मेरु को प्रथम मेखला के वर्णन के सा ५०० योजन विस्तृत, चार चैत्यालयों पादि से अलंकृत और अनेक प्रकार के वृक्षों से युक्त शाश्वत नन्दन नाम का बन है। उस नन्दन वन सहित विजयमेरु का बाह्य विस्तार ६३५० योजन और इसकी बाह्यपरिधि २६५६७ योजन प्रमाण है। नन्दनवन के व्यास रहित मेरु का अभ्यन्तर व्यास ८३५० योजन एवं इसो व्यास को अभ्यन्तर परिधि २६४०५ योजन प्रमाण है। इस नन्दनवन से ५५५०० योजन ऊपर जाकर मेरु को दूसरी मेवला है, जिस पर चार जिन' चैत्यालय, वापियाँ एवं देवों के प्रासादों आदि से विभूषित ५०० योजन विस्तृत सौमनस नामका वन है। इस ५५५०० योजना के मध्य मेरु १०००० योजन पर्यन्त समझन्द्र अर्थात् समान चौड़ाई से युक्त है, इसके बाद ४५५०० योजन पर्यन्त क्रमशः हीन होता गया है । यहाँ का अर्थात् सौमनस वन के वाह्यव्यास का प्रमाण ३५०० योजन और इसकी बाह्यपरिधि का प्रमाण कुछ कम १२०१७ योजन है । सौमनस बन का अभ्यन्तर व्यास २८०० योजन और प्रभ्यन्तर व्यास' की परिधि ८८५४ योजन प्रमाण है । इस गौमनस बन से २८००० योजन ऊपर जाकर चार जिनालयों एवं पाण्डुक प्रादि शिलानों से युक्त ४६४ योजन विस्तृत पादुक नाम का वन है । इन २८००० योजनों के मध्य १०००० योजन पर्यन्त मेरु का विष्कम्भ बिल्कुल सीधा है । अर्थात् चौड़ाई समान है। इसके ऊपर १८००० योजनों पर्यन्त विका क्रमाः हीन होता गया है। पांडुक वन का बाह्यविष्कम्भ १००० योगन और मेरु के ऊपर परिधि ३१६२ योजन और कुछ अधिक एक कोस प्रमाण है। यहाँ मेरु पर्वत के ऊपर चार जिन चैत्यालय, देवगृह, वापी, कूट एवं चूलिका आदि हैं, इन सत्र के उत्सेध, व्यास और अवगाह आदि का वर्णन जम्बूद्वीपस्थ महाभेरु के सहश ही जानना चाहिए। इसी प्रकार धातकीखण्ड स्थित पश्चिम विदेह क्षेत्र के Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ ] सिद्धान्तसार दोपक मध्य में असल नाम का मेरु पर्वत स्थित है, उसका सम्पूर्ण वर्णन इसी विजय मेरु पर्वत के सदृश हो जानना चाहिए। अब भद्रशाल वन, गजरन्त और देवकुरु उत्तर कुरु का आयाम एवं सूची-व्यास तथा परिधि आदि का वर्णन करते हैं :--- मेरोः प्राक् पश्चिमदिगाविते जिनेन्द्रचैत्यालयाद्यलंकृते एफलक्षसप्तसहस्राष्टशतकोनाशीतियोजनायामे पंचविंशत्याद्वादशशसयोजनविस्तीर्णे पूर्वापर भद्रशालाह्वये द्वे बने भवतः । अत्रय मेरो युनैऋत्यविदिगाश्रिती विलक्षषट्पंचाशत् सहस्रतिशतसप्तविंशतियोजनायामी प्रागुक्तकूटचैत्यालयवनवेद्याद्यलंकृतो गन्धमादनविद्य प्रभाख्यो द्वौ लघुगजदम्तपर्वती स्यातां । ईशानाग्नेयविदिक् स्थिती पंचलःकोनसा तिसहस्रतिशतकोनषष्ट्रियोजनायामौ । माल्यबत्सौमनसाह्वयो द्वौ वृहद्गजदन्ताचलो भवत: । देवकुरूत्तरकुरुभोगभूम्योः प्रत्येक कुलाचलसमीपे विष्कम्भः द्विलक्षत्रयोविंशतिसहस्रकाशता पंचाशयोजनानि, कुलाबलात् मेरुपर्यन्तं वक्रायामः त्रिलक्षसप्तनवतिसहस्राष्टशतसमनवति योजनानि, योजनस्य द्विशतद्वादशभागानां द्विनवतिभागाश्च । कुरूणामुभवान्तयोः ऋज्वायामः त्रिलक्षपक्षष्टिसहस्त्र पताशातियोजनानि । पूर्वापरमों: पूर्वाप रभद्र शालान्तयोश्चान्तराले जम्बूद्वीपलबएस मुद्रादिसहिते सूत्री एकादश लक्षपंचविंशतिसहस्र कशताष्टपंचाशयोजनानि । सूच्याः परिधिः पञ्चनिशल्लक्षाष्टाचाशत्सहस्रविष्टियोजनानि । पूर्वापर मेर्वो:, पूर्वापर सर्वभद्रशालवनाभ्यां बिनान्तराले सुचो पहलक्ष चतुः सप्ततिसहस्राष्टशत द्विचत्वारिंशद्योजनानि । ततसूच्याः परिधिः एकविंशतिलाचतुस्त्रिशत् सहस्राष्टत्रिंशद्योजनानि । मेरुपूर्वायर भद्रशालदेयारण्य भूतारण्यवनैविमा, पूर्वारविदेहयोः प्रत्येक व्यासः एकाशीतिसहस्रपंचशतसारसमति योजनानि । अर्थ –धातकीखण्डस्य मेरु पर्वत को पूर्व और पश्चिम दिशा में मेरु के मूल अर्थात् पृथ्वीतल पर जिन चैत्यालयों प्रादि से अलंकृत, १०७८७६ योजन लम्बे और १२२५ योजन चौड़े पूर्वभद्रशाल एवं पश्चिम भदशाल नाम के दो बन हैं। इसी पश्चिम भद्रशाल वन में मेह को वायव्य एवं नैऋत्य विदिशामों में कम से ३५६२२७ योजन लम्बे और पूर्व में कहे हुए कूटों, जिन चैत्यालयों एवं वन वेदी आदि से अलंकृत गन्धमादन तथा विद्युत्प्रभ नाम के दो दो लघु गजदन्त पर्वत हैं। पूर्व भद्रशाल वन में इसी मेरु की ऐशान और आग्नेय विदिशानों में ५६६२५६ योजन लम्बे माल्बवान् और सौमनस नाम के वो वृहद् गजदन्त पर्वत हैं। धातकीखण्डस्य देव कुरु उत्तरकुरु दोनों भोगभूमियों का विष्कम्भ कुलाचलों के समीप २२३१५८ योजन है । अर्थात देवकुरु उत्तरकुरु ( प्रत्येक ) को जोवा २२३१५८ योजन है । कुलाचलों से मेरु पर्यन्त का वक्र आयाम ( घनु:पृष्ठ ) ३६७६६७,१३३ योजन है । अर्थात् प्रत्येक कुरुक्षेत्र का धनुःपृष्ठ ३९७८६७५३ योजन प्रमाण है। दोनों कुरुक्षेत्रों में प्रत्येक क्षेत्र के अन्त से ऋजु अायाम अर्थात् कुरुक्षेत्र का ऋजुवाग ३६६६८० योजन प्रमाण है । पूर्व Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aratsaकार: [ ३४६ 1 पश्चिम मेत्रों के पूर्व-पश्चिम भद्रवाल वनों के अन्त तक ( पूर्वमेरु के पूर्व भद्रशाल बन के अन्त से पश्चिममेरु के पश्चिम भद्रशाल के वन के अन्त तक अर्थात् पूर्वघातकी खण्ड के ३१२५७६ योजन + लवण समुद्र २००००० यो० + जम्बूद्वीप १००००० यो० + लवण समुद्र २००००० यो० पश्चिम बात की खण्ड के ३१२५७६ यो० - ११२५१५८ यो० ) के अन्तराल का ( बाह्य ) सूत्रीव्यास जम्बूद्रीप लवणसमुद्र आदि सहित ११२५९५८ योजन है । तथा इस सूचो व्यास की परिधि ३५५८०६२ योजन प्रमाण है । पूर्व-पश्चिम मेश्रों के पूर्व-पश्चिम भद्रशाल वनों के बिना, अन्तराल का (अभ्यंतर ) सूची व्यास का प्रमाण ६७४ - ४२ योजन ( पूर्वघातकीखण्ड के देवारण्य व विदेह क्षेत्र का प्रमाण ५८४४ +८१५७७८७४२१ यो० + जम्बू, लवण स० के ५०००००+ पश्चिमविदेह के ८७४२१ यो० = ६७४८४२ यो० ) है, और उस सूचो व्यास की परिधि २१३४०३८ योजन प्रमाण है । ( त्रि० स० गाथा ६३० ) मेरु पर्वत पूर्व-पश्चिम भद्रशाल वन और देवारण्य भूतारण्य बनों के व्यास बिना पूर्वपश्चिम दोनों विदेहों में प्रत्येक विदेह का व्यास ८१५७७ योजन प्रभाग है। : अब धातकी वृक्षों की अवस्थिति, विदेहक्षेत्र के विभाग एवं नाम कहते हैं अत्र द्वौ धातकीवृक्षौ जम्बुशाल्मलि सनिभौ । उच्चायामादिभिः स्यातां जिनालयाद्यलंकृतौ ॥ १५१ ॥ मेरो पूर्वदिशाभागे विदेहपूर्वसंज्ञकः । विभक्तः सीतया द्वेषा दक्षिणोत्तरनामभाक् ।। १५२ ।। मेरोः पश्चिमदिग्भागे स्याद् विदेहोऽपराह्नयः । दक्षिणोत्तरनामाढ्य सोतोदया द्विधा कृतः ॥ १५३ ॥ अर्थ :- जम्बू शाल्मलि वृक्षों की ऊँचाई एवं आयाम प्रादि से युक्त धातकीखण्ड में दो मेरु सम्बन्धी दो दो घातकी ( बहेड़ा) के वृक्ष अवस्थित हैं, जो जिनालय आदि से अलंकृत हैं ।। १५१॥ मेरु की पूर्व दिशा में पूर्व विदेह नाम का क्षेत्र है, जो सीतामहानदी के नाम से दक्षिण विदेह और उत्तर विदेह के नाम से दो भागों में विभक्त किया गया है। इसी प्रकार मेरु को पश्चिम दिशा में पश्चिम विदेह है, जो सीतोदा के द्वारा उत्तर दक्षिण नाम से दो भागों में विभक्त किया गया है ।। १५२-१५३ ।। अब देशों के खण्ड एवं कच्छादि देशों का विस्तार प्रादि कहते हैं :-- प्रागुक्तनामानो द्वात्रिंशद् विषया मताः । विजयार्थ द्विनदोभ्यां षट्खण्डान्वितभूतला ।। १५४ ।। पूर्वस्मान्मन्वरात् पूर्वः कच्छाख्यो विषयो महान् । अपरावपरोन्त्यश्च देशः स्याद् गन्धमालिनी ।। १५५ ।। Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० ] सिद्धान्तसार दोपत्रा योजनानां सहस्राणि भवत्यनशतानिषट् । सार्धकोश इति व्यासो देशाना स्यात् पृथक् पृथक् ॥१५६।। विदेह विस्तरस्या नदीच्यासोनितं च यत् । पोना एक साताममित भेदतः ॥१५॥ त्रिविधोऽखिलदेशानां प्रत्येकं वृद्धिह्रासमाक् । यक्षाराचलदेवारण्यादीनां कीतितो जिनः ।।१५८।। चतुःसहस्रसंख्यानि तथा पञ्चशतानि च । त्र्यशीतिर्योजनानां द्विशतद्वादशभागिनाम् ||१५६॥ मागानां किल भागाः षण्णवत्यग्रशलप्रमाः । इत्यायामप्रवृद्धिः स्यात् कच्छादि विषयं प्रति ॥१६०॥ अर्था:-धातकीखण्ड में पूर्व कहे हुए नाम वाले बन्नीस देश हैं, जिनके एक एक विजया पर्वत और गंगासिन्धु नाम की दो दो नदियों द्वारा छह छह खण्ड होते हैं ।।१५४।। मेरु पर्वत से पूर्व दिशा में कच्छा नाम का महान देश है, और मेरु से पश्चिम दिशा में गन्धमालिनी नाम का महान देश है। इन ३२ ही देशों में से पृथक् गृथक् एक एक देश का व्यास ६६०३३ योजन प्रमाण है ।।१५५-१५६॥ विदेह क्षेत्र के विस्तार को प्राधा करके उसमें से नदो का व्यास घटा देने पर प्रत्येक क्षेत्र की लम्बाई का प्रमाए प्राप्त होता है। जिनेन्द्र भगवान के द्वारा बत्तीस देशों. वक्षार पर्वतों और देवारण्य आदि बनों का प्रायाम प्रादि, मध्य और अन्त में वृद्धि-हानि को लिए हुये तीन तीन प्रकार का कहा गया है। अर्थात् प्रादि मायाम से मध्य में और मध्य आयाम से अन्त में, इस प्रकार प्रत्येक में दो दो बार स्व वृद्धि का प्रमाण बढ़ता है। १५७-१५८ ॥ इनमें से देश भायाम की वृद्धि का प्रमाण ४५८३११ योजन है ॥१५६-१६०|| अब धातकीखण्ड विदेहस्थ वक्षार पर्वतों का प्रायाम प्रादि कहते हैं :-- सहस्रयोजनच्यासाद् द्वयष्टवक्षारपर्वताः । भवन्ति विविधायामाः प्रागुक्तोत्सेधसम्मिता ॥१६१॥ चतुःशतानि सप्ताग्रसप्ततिर्योजनानि च । षष्टिभागा इहायामवृद्धिर्वक्षारभूभृतः ॥१६२।। अर्थः-सोलह वक्षार पर्वतों की ऊँचाई पूर्व त हे हुए जम्बूद्वीपस्थ वक्षार पर्वतों को ऊंचाई सदश है । लम्बाई अनेक प्रकार को है, और चौड़ाई १००० योजन प्रमाण है । प्रत्येक क्षार के प्रादि मध्य अन्तायाम में वृद्धि का प्रमाग ४७७३१२ योजन है ।।१६१-१६।। Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमोऽधिकार: अब देवारण्य-भूतारण्य वनों का पायाम प्रादि कहते हैं :-- प्रागुक्तद्विगुणन्यासे रम्ये वे अवतो बने । देवारण्याख्यभूलारण्याह्वये वेदिकातिते ।।१६३॥ अमयी प्रत्येक विष्मः पंचसहस्त्रायशत चतुश्चत्वारिंशयोजनानि । योजनानां सहस्र द्वे तथा सप्तशतानि च । एकोननवतिनिवतिकला जिनागमे ॥१६४।। द्विषद्विशतसंख्यानां कलानामिति कोतिता। पायामवृद्धिरेतस्य द्विवनस्य पृथग्विषा ॥१६५।। अर्थ:-धातकीखण्डस्थ विदेह में वेदिका आदि से अलंकृत तथा अत्यन्त रमणीक देवारण्यभूतारण्य नाम के दो वन हैं। इनका व्यास जम्बूद्वीपस्थ वनों के घ्यास के प्रमाण से दूना है ।।१६३।। इन दोनों वनों में से प्रत्येक बन का विष्कम्भ-५८४४ योजन प्रमाण है । जिनागम में पृथक् पृथक दोनों वनों के मायामों में वृद्धि का प्रमाण २७८६३३ योजन कहा गया है ।।१६४-१६५।। अब विभङ्गा नदियों के प्रायाम प्रादि को कहते हैं : नद्यो द्वादश विस्तीर्णाः सार्धद्विशतयोजनः । विभङ्गाख्या भवेयुः प्राग् धातकोखण्डनामनि ॥१६६॥ कुण्डव्याससरिद् व्यासोनं विदेहस्य भूतलम् । यदर्ध स विभङ्गानामायामोऽस्ति पृथग्विधः ॥१६७।। शतमेकोनविश्त्याधिकं च योजनान्यपि । द्विषद्विशतभागानां भागाः पञ्चाशदेव च ।।१६।। भागद्वयाधिका इत्यायामवृद्धिजिनः स्मृता। प्रत्येकं बहुभेदोऽत्र विभङ्गासरितां क्रमात् ॥१६६।। अर्थ:-पूर्वा धातकी खण्ड में २५० योजन विस्तार वाली, विभंगा नाम की बारह नदियां हैं।।। १६६ ।। विदेह क्षेत्र के पास में से कुण्डग्रास और नदी का पास कम करके अवशेष को आधा करने पर बिभसा की लम्बाई प्राप्त हो जाती है। एक एक नदी का यह आयाम भिन्न भिन्न प्रकार का कहा गया है ।। १६७ ॥ जिनेन्द्र भगवान के द्वारा विभङ्गा नदियों का बहुत भेद वाला यह मायाम क्रम से ११६५५२३ योजन वृद्धि के साथ कहा गया है। अर्थात् विभङ्गा का आद्यायाम ५२८८ ६१ योजन प्रमाण है, इसमें वृद्धि प्रमाण ११६:११ योजन मिला देने पर Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ ] सिद्धान्तसार दीपक विभङ्गा का मध्य आयाम ५२८६८०३३ योजन होता है, और इसमें पुनः वृद्धि का प्रमाण मिला देने पर विभंगा का अन्त आयाम ५२६६०६३ ई योजन- प्रमाण हो जाता है ।। १६८ - १६६ ।। अब कुण्डों, विजयार्थ पर्वतों, गंगादि ६४ नदियों एवं भद्रशालवनादिकों को वेदियों का विस्तार आदि कहते हैं :--- विभङ्गोत्पत्तिकण्डानि साधीद्वशतयोजनः । विस्तीर्णानि च पूर्वोक्ता वगाहसदृशान्यपि ॥ १७० ॥ विजयार्याश्चतुस्त्रिशत्प्रागुक्तोष तिसम्मिताः । शतयोजनविस्तीर्णा द्वीपेऽद्ध ऽस्मिन्निरूपिताः ।। १७१ ।। गङ्गायाः क्षुल्लकानद्यश्चतुःषष्टिप्रमाः शुभाः । प्रासरिद्विगुणन्यासाः प्राग्द्यागाहसन्निभाः ॥ १७२ ॥ गङ्गाद्युत्पत्तिकुण्डानि पादाग्रशतयोजनः । विस्तृतानि चतुःषष्टिपूर्वागायुतानि च ॥१७३॥ श्रीशद्वयोन्नताः पञ्चशतचाप सुविस्तृताः । भशालवनादीनां सत्यष्टौवेदिकाः शुभाः ॥ १७४॥ अर्थः- विभंगा नदियों को उत्पत्ति जिन कुण्डों से होती है, उन कुण्डों का व्यास २५० योजन तथा अवगाह जम्बुद्वीपस्थ कुण्डों के अवगाह सदृश है। प्रधं द्वीप में श्रर्थात् पूर्वघातको खण्ड में पूर्व कथित ( २५ योजन) उत्सेध वाले और १०० योजन विस्तृत चौंतीस विजयार्ध पर्वत हैं ॥ १७१ ॥ | जम्बूद्वीपस्थ विदेह क्षेत्र गत गंगा आदि नदियों के अवगाह सहा प्रवगाह वालीं और वहाँ की नदियों के व्यास से दूने व्यास वाली गंगा, सिन्धु, रोहित और रोहितास्या नाम की १४ छोटी नदियाँ हैं ।। १७२ ।। इन गंगा श्रादि ६४ नदियों की उत्पत्ति के स्थान स्वरूप वहाँ ६४ गंगादि कूट हैं, जो १२५ योजन विस्तृत और जम्बूद्वीपस्थ विदेह के कुण्डों की अवगाहना के सदृश श्रवगाहना वाले हैं ॥१७३॥ भद्रशाद आदि वनों की दो कोस ऊँची और ५०० धनुष चौड़ी प्रत्यन्त रमणीय आठ वेदियाँ हैं ।। १७४।। इदानों चतुर्लक्षयोजन प्रमो विदेहस्य विष्कम्भो यस्तस्य मेर्वादि विभागः संख्या कथ्यते : मेरो : व्यासः नवसहस्रचतुः शतयोजनानि । पूर्वापर भद्रगालवनयोद्वयोः पिण्डीकृतविस्तार: द्विलक्षपञ्चदश सहस्र सप्तशताष्ट पञ्चाशद्योजनानि षोडशदेशानामेकत्रीकृतो व्यासः एकलक्ष त्रिपञ्चाशत्सहस्र षट्ातचतुःपञ्चाशद्योजनानि । अष्टवक्षारपर्वतानां पिण्डितो विस्तारः प्रष्टसहस्रयोजनानि । Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमोऽधिकारः [ ३५३ विभङ्गानदीनां मेलित विष्कम्भः पञ्चदशशतयोजनानि । देवशरण्यभूतारण्ययेोरेकत्रीकृता विस्तृति एकादशसहस्रषट्शताष्टाशीति योजनानि इत्येकत्रीकृतः सफल: विदेहस्य विष्कम्भः चतुर्लक्षयोजन प्रमाणः स्यात् । अर्थ. - विदेहक्षेत्र का विस्तार चार लाख योजन प्रमाण कहा गया है, यहाँ मेरु पर्वत श्रादि forम्भ विभागों के द्वारा उसकी संख्या कही जाती है :--- मेरु पति का व्यास ६४०० योजन है, पूर्व भद्रशाल और पश्चिम भद्रशाल, इन दोनों के व्यास का योग २१५७५८ योजन है । कच्छ्रादि १६ देशों का एकत्रित व्यास १५३६५४ योजन प्रमाण है । आठ वक्षार पतों का एकत्रित व्यास ८००० योजन है। यह विभंगा नदियों का एकत्रित व्यास १५०० योजन और देवारण्य-भूतारण्य का एकत्रित व्यास ११६८८ योजन है। इन सर्व विष्कम्भों की संख्या को एकत्रित कर देने पर विदेह क्षेत्र का ( १४०० + २१५७५८ + १५३६५४+६०००+ १५००+ ११६८८ = ) ४००००० योजन प्रमाण विष्कम्भ प्राप्त हो जाता है । अब देश एवं नगरी आदि के नाम कह कर पश्चिम धातकी खण्ड की व्यवस्था दर्शाते हैं --- जम्बूद्वीप विदेहे सामान्युक्तानि यानि च । देशानां नगरीणां सुविभङ्गासरितां तथा ॥ १७५ ॥ क्षारपर्वतादीनां सान्येव निखिलान्यपि । ज्ञेयानि धातकीखण्डोपेऽस्मिन् द्विविधेऽखिले ॥ १७६॥ इत्येषा वर्णना सर्वा देशशैलादिगोचरा 1 पश्चिमे धातकीखण्डे ज्ञेयाक्षेत्रावि संख्या ॥ १७७॥ अर्थः- पूर्ण और पश्चिम घातकी खण्डों में स्थित त्रिदेह क्षेत्रों के देशों के नाम, नगरियों के नाम, विभङ्गा नदियों के नाम और अक्षार पर्वत आदि अन्य सभी के नाम जम्बुद्वीपस्थ विदेह के देशों, नगरियों एवं नदी-पर्वतों के नाम के सदा ही हैं। अर्थात् जो जो नाम जम्बूद्वीपस्थ विदेह में हैं, वही वह नाम यहाँ हैं ।। १७५ - १७६ ।। पूर्व धातकी खण्ड में देश, पर्वत एवं क्षेत्रादि की जो जैसी तथा जितनी संख्या श्रादि कही है, एवं जैसा जैसा वर्णन किया है, वैसा वैसा ही तथा उतनी ही संख्या प्रमाण में समस्त वर्णन पश्चिम धातकी खण्ड में जानना चाहिए ।। १७७. अब धातकीखण्डस्य यमकगिरि श्रादि पर्वतों की संख्या कहते हैं :-- अष्टौ यमकशैला ये दूधष्टदिग्गज पर्वताः । अष्टौ नाभिनगा ष्षष्टिषभपर्वताः ॥ १७८ ॥ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ ] सिद्धान्तसार दीपक चतुःशतप्रमारणाये पिण्डिताः कनकाद्रयः । उत्सेधविस्तरास्ते घातकीखण्डयो योः ॥ १७६॥ सर्वे प्रथमोपस्य यमाद्रयादिसम्मिता । प्रागुक्तदर्शनोपेता वनवेद्याद्यलंकृताः ॥ १६० ॥ अर्थः- पूर्व और पश्चिम दोनों धातको खण्डों में [मेरु पर्वत दो, विजया ६८ ] यमकगिरि दिग्गज पर्वत १६, नाभि पर्वत = वृषभाचल ६८ और कञ्चनगिरि ४०० [१२ कुलाचल, ३२ वक्षार, गजदन्त और दो इष्वारकार ] ये सब ६२४ पर्वत हैं, इनका उत्सेध एवं विस्तार आदि सच जम्बूद्वीपस्थ विदेह के पर्वतों सहा है ।। १७८ - १८० ।। 1- अब धातकीखण्ड सम्बन्धी भोग भूमियों, कर्म भूमियों, पर्वतों, नदियों एवं ब्रहादिकों की संख्या कह कर उसके प्रधिपति देवों के नाम श्रादि कहते हैं। द्विषट् भोगधरा श्रत्र स्युश्चषट्कर्म भूमयः । जम्बूद्वीपसमानाश्च सुखगत्यादि कारणैः ॥ १८१॥ द्विमेप्रमुखाः सर्वे पिण्डिताः ख्यातपर्वताः । चतुर्विंशतिसंयुक्तषट्शतप्रमिता मताः ।।१८२॥ पंचशिच लक्षाणि ह्यशीतिश्चतुस्त्तराः । सहस्राणि शतकं चाशीतिरित्युक्तसंख्यया ॥ १८३॥ सर्वाः पिडकृता नद्यो गङ्गाद्याः कीर्तिता जिनः । धातकीखण्डयोर्मूलपरिवारायाः श्रुते || १८४ | चत्वारिंशद् ब्रहाः सीता सोतोबामध्य संस्थिताः । त्रादिद्वीपतोऽन्ये द्विगुणा हृद - बनावयः ॥१८५॥ द्वीपस्यास्य पती स्यातां प्रभासप्रियदर्शिनौ । दक्षिणोत्तरभागस्थौ जिनबिम्बात्त शेखरौ ॥ १८६॥ अर्थ ः- सम्पूर्ण धातकी खण्ड में वारह भोगभूमियाँ और ग्रह कर्मभूमियाँ हैं। इनमें सुख और गति - श्रागति आदि के समस्त कारण एवं सम्पूर्ण वर्णन जम्बूद्वीप सम्बन्धी भोग भूमियों एवं कर्मभूमियों के सच ही है || १८१|| दोनों दिशा सम्बन्धी दो मे हैं प्रमुख जिनमें ऐसे सम्पूर्ण धातकी सरह सम्बंधी पर्वतों का एकत्रित योग (२ मेरु + ६८ विजयार्घ + ६८ वृषभाचल :- १६ दिग्गज + = नाभिगिरि + ४०० कंचनगिरि + यमकगिरि : १२ कुलाचल + ३२ वक्षारगिरि गजदन्त और २ इष्वाकार ) = )= ६२४ है || १८२ ॥ जिनेन्द्र भगवान के द्वारा श्रागम में सम्पूर्ण बातको खण्ड की गंगा आदि मूल और Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमोऽधिकार : [ ३५५ इनकी परिवार नदियों की समस्त संख्या ३५८४१८० कही गई है ॥१८३-१८४॥ सीता-सीतोदा नदियों के मध्य में ४० द्रह स्थित हैं। यहाँ के अन्य हृद एवं वन आदिकों की संख्या जम्बुद्वीपस्थ द्रहादिकों की संख्या रो दूनी दूनी है ॥१८५। इस धातकी खण्ड के संरक्षक प्रभास और प्रियदर्शी नाम के दो प्रधिपति देव हैं, जो अपने मुकुटों को शिखरों पर जिनबिम्ब को धारण करते हुए क्रमशः दक्षिण और उत्तर दिशा सम्बन्धी धातको वृक्षों पर रहते हैं ॥१६॥ अब कालोदधिसमुद्र का सविस्तर वर्णन करते हैं :-- तं द्वीपं पातकोखण्डमावेष्टयपरितिष्ठति । लक्षाष्टयोजनव्यासः कालोबधारिधिमहान ॥१७॥ सयंत्रास्यावगाहोऽस्ति सहस्रयोजनप्रमः । प्रागुक्तोल्सेविस्तारः प्राकारो वेधिकाशितः ।।१८८॥ चतुदिश्वस्य शालस्य चत्वारि गोपुराणि च । गङ्गादि सरितां सन्ति द्वाराणि च चतुर्दश ॥१८६।। द्वीपाः सन्त्यष्टचत्वारिंशत्कमत्ययुगान्विताः । कालोदतटयोरन्तर्भागयोरुपरि स्थिताः ॥१६०॥ पातालानि न सन्त्यत्र नोमिवृद्धयावयः क्वचित् । टोत्कीर्ण इवास्स्येष सर्वत्र समगाहधृत् ॥११॥ कालाख्यो रक्षकोऽस्याब्धेः स्वामीविग्भागदक्षिणे। व्यन्तरश्च महाकाल उत्तरास्य दिशि स्थितः ॥१६२।। अर्थ:-उस घातको खण्ड द्वीप को परिवेष्ठित करके पाठ लाख योजन विस्तार वाला कालोदधि नाम का महान समुद्र अवस्थित है ।।१८७।। प्राकार एवं वेदिका आदि से अलंकृत इस समुद्र का अवगाह सर्वत्र १००० योजन प्रमाण है, तथा उत्सेध और विस्तार आदि का प्रमाण पूर्व कथित प्रमाण है। इसके कोट की चारों दिशाओं में चार गोपुर और गंगादि नदियों के समुद्र में प्रवेश करने के चौदह द्वार हैं ।।१८८-१८६।। कालोदधि समुद्र के दोनों तटों से भीतर की ओर जल के मध्यभाग में अड़तालीस अडतालीस कुमोगभूमियाँ हैं, जिनमें युगल कुमानुष रहते हैं ॥१९०|| लवरण समुद्र के समान इस समुद्र में न पाताल हैं, और न कभी लहरों की वृद्धि आदि ही होती है। यह समुद्र सर्वत्र समान गहराई को धारण करता हुआ दंकोत्कीर्ण के सदृश अवस्थित है ।।१६।। इस समुद्र का काल नाम का रक्षक देव समुद्र की दक्षिण दिशा में और महाकाल नाम का अधिपति ध्यन्तर देव समुद्र की उत्तर दिशा में निवास करते हुए समुद्र की रक्षा करते हैं ॥१२॥ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ ] सिद्धांतसार दीपक अब कालोदधि समुद्र को परिधि का प्रमाण और पुष्कर द्वीप का सविस्तर वर्णन करते हैं : एकानवति लक्षाणि सहस्राणि च सप्ततिः । पञ्चाग्रषट्शतानीति कृतयोजनसंख्यया ॥ १६३ ॥ कालोदकसमुद्रस्य परिधिः श्रीजिनोबिता । ततो द्विगुणविस्तारो द्वीपोऽस्ति पुष्कराह्वयः ॥ १६४ ॥ House वाष्टलक्षाणि योजनानि विमुच्य च । नित्यः स्वर्णमयस्तिष्ठेन्मानुषोत्तरपर्वतः ।।१५।। ततः सार्थकनामासौ पुष्करार्ध इहोच्यते । विस्तृतो योजनैरष्टलक्षः पुष्करवृक्षभृत् ॥ १९६ ॥ इक्ष्वाकारनगौ स्लोऽस्य दक्षिणोत्तरयोदिशोः । द्वीपव्याससमायामी दिव्य चैत्यालयाङ्कितौ ॥१६७॥ प्रागुक्तोन्नतिव्यासाठी चतुःकूटविराजितौ । ताभ्यां द्वीपः स संजातः पूर्वापरद्विधात्मकः ॥१६८॥ मध्ये प्राक् पुष्करार्धस्य मेरुमन्दरसंज्ञकः । व्यासोत्सेधपरिध्याद्यै पतिकीखण्ड मेरुवत् ॥ १६६ ॥ तत्समः पुष्करार्धस्यापरस्य मध्यभूतले । विद्युन्मालायो मेरुः स्यात्पूर्ववर्णनायुतः ||२००॥ अर्थ:-श्री जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कालोदधि समुद्र को सूक्ष्म परिधि का प्रमाण ३१७०६०५ योजन कहा गया है। इस कालोदधि समुद्र के आगे कालोदधि समुद्र से दूने ( १६ लाख योजन ) विस्तार वाला पुष्करवर द्वीप है ।।१६३ - १६४ ।। इस पुष्करवर द्वीप के मध्य में पाठ लाख योजन छोड़ कर शास्त्रत और स्वर्णमय मानुषोत्तर नाम का पर्वत यवस्थित है ।। १६ ।। इस पर्वत से पुष्करवर द्वीप के दो भाग कर दिये गये हैं, इसीलिये इस द्वीप का सार्थक नाम पुष्करार्धं कहा जाता है । पुष्करार्ध द्वीप आठ लाख योजन विस्तृत और पुष्कर ( ऐरण्ड ) के वृक्ष को धारण करने वाला है || १६६ | इस पुष्करार्ध द्वीप की उत्तर और दक्षिण दिशा में दिव्य चैत्यालयों से अलंकृत दो इष्वाकार पर्वत हैं, जिनका आयाम द्वीप के व्यास प्रर्थात् बाठ-आठ लाख योजन प्रमारण है || १६७ || ये दोनों इष्वाकार पर्वत पूर्वोक्त उत्सेध और व्यास से युक्त अर्थात् ४०० योजन ऊँचे और १००० योजन चौड़े चार चार कूटों से सुशोभित हैं । इन्हीं दोनों पर्वतों के कारण पुष्करार्थ द्वीप, पूर्व पुष्करार्ध और पश्चिम पुष्करार्धं Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमोऽधिकारः [ ३५७ के भेद से दो प्रकार का होता है ।। १६८ ।। पूर्व पुष्करार्ध के मध्य में मन्दर नाम का मेरु पर्वत है, इसके व्यास, उत्सेध और परिधि आदि का प्रमारण धातकीखण्डस्य मेरु पर्वत सदृश है ॥ १६६ ॥ पश्चिम पुष्करार्ध के मध्य भूतल पर मन्दर मेरु के सदृश विद्युन्माला नाम का मेरु पर्वत है, जिसका सम्पूर्ण वरन धातकीखण्डस्थ मेरु पर्वत सदृश है |२०० अब पुष्कराद्वीप का सूची व्यास, परिधि और पवंत अवरुद्ध क्षेत्र का प्रमाण कहते हैं --: एतस्य मध्यसूचीस्यात् पुष्करार्धस्य मध्यगा । सप्तभिः संयुता त्रिशलक्षयोजनसम्मिता ॥ २०१ ॥ एकाकोटी च लक्षाधिकस्टम | चतुःशतानि सप्तविंशतिश्चेति योजनः ॥ २०२ ॥ तस्या मध्यम सूच्या हि परिधिर्वणितागमे । सूक्ष्मा सूक्ष्माखिलात्मादितत्वविद्भिनं चेतरा ॥२०३॥ प्रोदिता पुष्करार्धस्य बाह्यसूची जिनाविभिः । पञ्चसंयुक्त चत्वारिशल्लक्षयोजनामा || २०४ ॥ एकाकोटी द्विचत्वारिशल्लक्षास्त्रिशदेव हि । सहस्र द्वे शते कोनपञ्चाशदिति स्फुटम् || २०५ ।। योजनंर्बाह्यसूच्या हि परिधिः श्रीजिनर्मता । कोशद्वयाधिका मानुषोत्तराभ्यन्तरावनौ ।।२०६ ।। त्रिलक्षा: पंचपंचाशत्सहस्राणि शतानि षट् । तथा चतुरशीतिश्चतुः कलायोजनस्य च ॥२०७॥ एकोनविभागानामिति योजनसंख्यया । पुष्करार्धस्य संख्द्धक्षेत्रं चतुर्दशाचलः ||२०८ || अर्थ:- इस पुष्करार्ध द्वीप के मध्य में मध्यम सूचो व्यास ३७००००० लाख योजन प्रमाण है || २० १|| समस्त सूक्ष्म आत्मतत्व आदि को जानने वाले गणधरादि देवों के द्वारा जिनागम में इस मध्यम सूची व्यास को सूक्ष्म परिधि ११७००४२७ योजन कही गई है । यह प्रमाण सूक्ष्म का है, स्थूल परिधि का नहीं ।।२०२ - २०३ ।। जिनेन्द्रों के द्वारा पुष्करार्ष का वाह्य सूची व्यास ४५००००० योजन Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ ] सिद्धान्तसार दोपक कहा गया है ॥२०४॥ मानुषोत्तर पर्वत की अभ्यन्तर भूमि पर्यन्त पुष्कराध के वाह्य सूची व्यास की सूक्ष्म परिधि जिनेन्द्रों के द्वारा १४२३०२४६ योजन और २ कोस प्रमाण कही गई है ॥२०५-२०६।। पुष्कराई द्वीप के बारह कुलाचल और दो इष्वाकार पर्वतों से अवरुद्ध क्षेत्र ३५५६८४ योजन और एक योजन के १६ भागों में से ४ भाग ( यो० ) प्रमाण कहा गया है ।।२०७-२०६।। प्रम पुष्करार्धस्थित बारह कुलाबलों के ग्यास प्रादि का प्रमाण कहते हैं : द्विषटकुलायो जम्बूद्वीपसमाजशनतिमा अष्टलक्षायता योजनानामत्र प्रकीसिताः ॥२०॥ प्रस्त्ययं हिमपान धासकोखण्डस्थहिमाचलात । द्विगुरणयास एतस्माच्चतुर्गुणोपरोगिरिः ॥२१०॥ ततश्चतुर्गणो व्यासो निषधोऽन्ये त्रयोऽद्रयः । नीलाद्याः पर्वतै रेभिः ऋमहान्या समानकाः ।।२११॥ अर्थ:-पुष्करार्ध द्वीप में जाम्बुद्वीपस्थ कुलाचलों को ऊँचाई प्रमाण उत्सेध को लिये हुए पाठ प्राउ लाख योजन लम्बे बारह कुलाचल पर्वत कहे गये हैं ॥२०६।। यहाँ का हिमवान् पर्वत धातकी खण्डस्थ हिमवान् पर्वत के व्यास से दुने व्यास वाला है, इसके आगे आगे निषध पर्वत पर्यन्त का ध्यास हिमवन् पर्गत से चौगुना चौगुना होता गया है। इसके बाद नौल आदि तीन पर्वतों का व्यास समान क्रम हानि को लिए हुए है 1 नोल-निषध, रुक्मी-महाहिमवन् पोर शिखरी-हिमवान् पर्वतों का व्यास समान प्रमाण को लिए हुए है ।।२१०-२११॥ प्रमोषां प्रत्येकं पृथक् विष्कम्भोन्नती-निगद्यते :-- हिमवतः उत्सेधः शतयोजनानि । विष्कम्भश्च चतुःसहस्रद्विशतयोजनानि, योजनस्यैकोनविंशतिभागानां कलाः दश । महाहिमवतः उदयः द्विशतयोजनानि व्यासः षोडशसहस्राष्टशतद्विचत्वारिंशयोजनानि द्वे कले च । निषघस्पोन्नतिः चतुःशतयोजनानि व्यासः सप्तषधिसहस्र त्रिशताष्टषष्टि योजनानि एकोनविंशतिभागानामष्टकालाः। नीलस्योत्सेधव्यासी निषधेन समानौ स्तः। रुक्मिणः उन्नतिव्यासी महाहिमवता तुल्यौ च । शिखरिणः उदयविस्तारो हिमवता समो। (उपर्युक्त गद्य का अर्थ अगले पृष्ठ पर तालिका में देखें) Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक १ २ ३ ४ ५ ६ देशमisfaकारः उपर्युक्त गद्य का अर्थ निम्नलिखित तालिका में निहित है। पुष्करार्धस्थ हिमवन् श्रावि पर्वतों के उत्सेध प्रावि का प्रमाण : नाम पर्वत हिमवन् महाहिमवन् निषेध नील रुकमि शिखरिन् ਰਸੇ ਬ १०० ... ४०० ४०० २०० १०० योजन 37 17 " 1- J विष्कम्भ ४२१०६६ योजन १६८४२ ६७३६५६४ ६७३६८५ १६८४२०३ ४२१० Pa 17 " JP :-- श्रम पुष्करार्धस्थ क्षेत्रों के आकार और उनका व्यास श्रादि कहते हैं कुलाद्वयोऽत्र चक्रस्य भवन्त्यरः समायताः । राणां मध्यरन्ध्रः समक्षेत्राणि चतुर्दश ।। २१२ ॥ श्रादिमध्यान्तविस्तारः क्रमवृद्धियुतानि च । वोर्घारिण भरतादीनि किलाष्टलक्षयोजनंः ॥ २१३॥ सहस्राण्येकचत्वारिंशत्चैव शतानि च । एकोनाशीति युक्तानिभागाः शतद्विसप्ततिः ॥ २१४॥ इत्युक्तोऽभ्यन्तरे व्यासो भरतस्यैव योजनैः । त्रिपञ्चाशत्सहस्राणि तथा पञ्चशतानि च ।। २१५।। द्विषनवनवत्यराशतभागा इति श्रुते । fromrat भरतस्योक्तो मध्ये योजनसंख्यया ॥ २१६ ॥ [ ३५६ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्तसार दीपक पञ्चषष्टिसहस्राणि चत्वारि च शतान्यपि । षट्चत्वारिंशदेवाथ तथा भागास्त्रयोदश ॥२१७।। इत्याम्नातोऽत्र विस्तारो बाह्य स भरतस्य च । अस्माद् भरततस्त्रोणि क्षेत्राणि विस्तृतानि च ॥२१॥ चतुश्चतुर्गुणैासंस्ततस्त्रीण्यपराणि च । एभिस्त्रिमिः समानानि होनव्यासानि पूर्ववत् ।।२१।। अर्था:- जिसप्रकार गाड़ो के पहिये में पारा होते हैं, उसी प्रकार पुष्करार्घ द्वीप में कुबाचल आदि पर्वत समान लम्बाई को लिए हुए लम्बे फैले हैं, तथा जिस प्रकार चक्रस्थित पारों के मध्य में छिद्र होते हैं, उसी प्रकार ग्रारों सदृश पर्वतों के मध्य में जो छिद्र ( स्यान ) हैं, उसमें भरतादि चौदह क्षेत्र हैं ।।२१२।। इन क्षेत्रों का विस्तार आदि, मध्य और अन्त में अनुक्रम से वृद्धि को लिए हये है, तथा इनकी लम्बाई द्वीप के सदश आठ लाख योजन प्रमाण है ।।२१३।। जिनागम में भरत क्षेत्र का अभ्यंतर व्यास ४१५७६६१३ योजन, मध्यम व्यास ५३५१२३६६ योजन और बाह्य व्यास ६५४४६१ योजन प्रमाण कहा गया है । इस भरत क्षेत्र से प्रागे के तीन क्षेत्रों का विस्तार ( भरत क्षेत्र से प्रारम्भ कर ) क्रमशः चौगुना चौगुना है, और उसके आगे के तीन क्षेत्रों का विस्तार क्रमशः समान हानि को लिए हुए है ।।२१४-२१६॥ अमीषां पृथग्विषकम्भाः प्रोच्यन्ते : भरतस्याभ्यन्तरे विस्तारः एकचत्वारिंशत्सहस्रपञ्चशतकोनाशीतियोजनानि, योजनस्य द्विशतद्वादनभागानां द्वासप्तमम्रशतभागाश्च । मध्यव्यासः त्रिपञ्चाशत्सहस्रपञ्चशतद्वादशयोजनानि नवनवत्यधिकशतभागाश्च । बाह्यविस्तृतिः पञ्चपष्टिसहस्रचतुःशतषड्चत्वारिंशद्योजनानि भागास्त्रयोदश । हैमवतस्याभ्यन्तरविष्कम्भः एकलक्षगाष्टिसह त्रिशतकोनविंशतियोजनानि द्विशतद्वादशभागानां द्विपञ्चाशद्भागाः । मध्यव्यासः द्विलक्ष चतुर्दशसहस्रक पञ्चाशयोजनानि, षष्टियुतशतभागाश्च । बाह्यविस्तृतिः द्विलक्ष कषष्टिसहस्रसप्तशत चतुरशीतियोजनानिद्विपञ्चाशद्भागाश्च । हरिवर्षस्याभ्यन्तरव्यास-पडलक्षपञ्चषष्टिसमद्विशतषट्सप्ततियो जना नि द्विशतद्वादशभागानां द्विशताष्टभागाश्च । मध्यविष्कम्भः प्रश्नक्षपट्पञ्चाशत्सहस्र द्विशतसप्तयोजनानि भागाश्चत्वारः। बाह्य विस्तारः दशलक्षसप्तचत्वारिंशत्सहस्रक शतषड्विशद्योजनानि द्विशताष्टभागाश्च । विदेहस्याभ्यन्तरन्यासः पड्विंशतिलक्षेकषष्टिसहस्रं कशतसप्तयोजनानि, योजनस्य द्विशतद्वादशभागानां षण्ण वत्यग्रशतभागाः। मध्यविष्कम्भः चतुस्त्रिशल्लक्ष चतुविशतिसहस्राष्टशताटाविंशतियोजनानि, भागाः षोडशैव । बाह्यविस्तारः एकचत्वारिंशल्लक्षाष्टाशीति सहस्रपञ्चशतसाचत्वारिंशद्योजनानि, षण्णवत्यधिकशतभागाः॥ रम्यकअन्तर्मध्य बाह्यश्यामः हरिवर्षसमः । हैरण्यवतश्चहैमवतसमानः । भरते रावतसमोस्तः ।। Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमोऽधिकारः [ ३६१ नोट: -- उपर्युक्त समस्त गद्य का अर्थ निम्नलिखित तालिका में समाहित किया गया है। पुष्करार्घद्वीप में स्थित भरतादि सात क्षेत्रों का अभ्यन्तर, मध्य और बाह्य विष्कम्भ : क्रमांक ! क्षेत्र-नाम } १ भरत २ ३ ४ ५ ६ ७ हैमवत हरि विदेह रम्यक हैरण्यवत अभ्यन्तर वि० ४१५७६ योजन १६६३१९३३ ६६५२७६३१ई २६६११०७३ ६६५२७६३५ई לג ऐरावत ४१५७६३३ " It ३) १६६३१९३परे 21 " मध्य विष्कम्भ ५३५१२३१६ योजन गजदन्तों का व्यास आदि कहते हैं : २१४०५१२१२ ८५६२०७२ श ३४२४८२८५५२ ८५६२०७६त्र ५३५१२३ 11 " " 13 33 बाह्य विष्कम्भ ६५४४६६५२ २६१७८४६ १०४७१३६३१ ४१८८५४७३३३ १०४७१३६ योजन ६५४४६५५३ 12 २०८ ५३५३ " 12 चतुःसहस्रदीर्घो द्विसहस्रविस्तृतो ब्रहः । पद्मः पद्यान्महापद्म द्विगुणो योजनः स्मृतः ॥ २२० ॥ महापद्मात् तिमिञ्छोऽपि द्विगुणायामविस्तृतः । तुल्या एभिस्त्रिभिः शेषाः क्रमह्रस्वाः त्रयो हृदाः ॥२२१॥ गंगा सिध्वोश्च विष्कम्भः पञ्चविंशति संख्यकः । श्रावावन्तेऽत्र सार्धंद्विशतयोजनसंख्यथा ॥२२२॥ श्राभ्यां द्वे द्वे महानद्यो विदेहान्तं प्रवधिते । द्विगुणद्विगुणण्यासह पमानास्तथापराः ।।२२३॥ 11 २६१७८४१ " ब पुष्करार्धस्थ पद्म प्रावि सरोवरों, गंगादि नदियों, कुण्डों, भद्रशाल वनों एवं トラ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ ] सिद्धान्तसार दीपक षभिश्च सरिवाद्याभिः षड्नघः सविस्तराः। द्विगुरद्विगुरगह्रस्वा ऐरावसान्तमञ्जसा ॥२२४॥ गङ्गासिन्ध्वोश्च कुण्डे द्वे सार्धद्विशतविस्तृते । ततो द्विद्विमहानद्योविदेहान्तं सुविस्तृते ॥२२॥ विगुणाद्विगुणव्यास? हे कुण्डे च योजनः । तथान्ये विगुणहासे कुण्डे नद्योढ़योद्धयोः ।।२२६।। द्वौ लक्षौ योजनानां सहस्राः पंचदशप्रमाः । सप्तशतानि चाष्टा पञ्चाशदित्युक्तसंख्यया ॥२२७।। आयामः पुष्कराईं स्यात प्रत्येक भद्रशालयोः । रम्ययोश्चत्यगेहाद्यः पूर्वापरसमाह्वयोः ॥२२॥ लक्षामि विशनिक नियत्वारिंशसाहस्रकाः । देशते योजनानां चकोन विशतिरित्यपि ॥२२६।। द्वयोः प्रत्येकमायामो जेष्ठयोगंजबन्तयोः ।। लक्षाणि षोडशंवाथ षड़विशतिसहस्रकाः ।।२३०॥ शतकषोडशवेति प्रोक्तयोजनसंख्यया । लघीयसो समायाम: प्रत्येकं गजदन्तयोः ॥२३१॥ अर्थ:-- पुष्कराधस्थ पद्म सरोवर ४००० योजन लम्बा और २००० योजन चौडा है। पन सरोवर से महापद्य को लम्बाई चौड़ाई दुगनी अर्थात् लम्बाई पाठ हजार योजन और चौड़ाई ४००० योजन है, इससे तिगिञ्छ सरोवर की लम्बाई चौड़ाई दुगनी है, इसके आगे के केशरी धादि तीनों सरोवर अनुक्रम से ह्रस्व होते हुए दक्षिणागल सरोवरों की लम्बाई चौड़ाई के समान हो लम्बे एक चौड़े हैं। ।।२२०-२२।। गंगा सिन्धु नदियों का प्रादि विष्कम्भ २५ योजन और अन्तिम विष्कम्भ २५० योजन प्रमाण है ।।२२२॥ इसके आगे विदेह तक वृद्धिंगत होता इ-या दो दो महानदियों का यह विष्कम्भ दूना दूना है, इसके आगे ऐरावत क्षेत्र स्थित नदियों तक का विष्कम्भ क्रमशः दुगुरण दुगुण हीन है ! नारी-भरकान्ता, सुवर्णकला-रूप्यकूला और रक्ता-रक्तोदा का व्यास दक्षिण गत छह नदियों के समान है ॥२२३-२२४|| गंगा-सिन्धु सम्बन्धी दो कुण्डों का व्यास २५० योजन प्रमाण है । विदेह पर्यन्त दो दो महानदियों सम्बन्धी दो-दो कुण्डों का यह व्यास दूने दुने प्रमाण बाला प्राप्त होता है, और इसके आगे के दो दो नदियों सम्बन्धी दो दो कुण्डों का व्यास क्रमश: दुगुण-दुमुण होन है ॥२२५-२२६।। पुष्करायस्थ चैत्यगृहों आदि से अलंकृत पूर्वभद्रशाल एवं पश्चिम भद्रशाल वनों का भिन्न भिन्न पायाम २१५७५८ योजन प्रमाण है ।।२२७-२२८।। वृहद् गजदलों में प्रत्येक का भिन्न भिन्न व्यास Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमोऽधिकारः २०४२२१६ योजन प्रमाण और लघु गजदन्तों में प्रत्येक का भिन्न भिन्न व्यास १६२६११६ योजन प्रमाण कहा गया है ॥२२६-२३१।। । अब देवकुरु-उत्तरकुर के वाण तथा उभय विदेह, वक्षार पर्वत, विभंगा नवी और देवारण्य-भूतारण्य के व्यास का प्रमाण कहते हैं :-- लक्षाः सप्तदर्शवाथ सहस्राः सप्तसम्मिताः। शतानि सप्तसंख्यानि योजनानि चतुर्दश ।।२३२॥ इति प्रोक्तः पृथग्वाणो देवोत्तरकुरुद्वयोः । उत्कृष्टमोगभूम्योपच प्रत्येकं श्रीगणाधिपः ॥२३३॥ एकोननिशसहस्त्रास्तथासप्तशतानि च । चतुर्नवतिरेवकं गव्यूतमिति योजनैः ।।२३४।। प्रोक्तःपृथक् पृथक् व्यासो देशानां द्वि विदेहके । वक्षाराणां च विष्कम्भो द्विसहस्रायोजनः ॥२३५॥ शतानि पंचविस्तारो विभङ्गासरितां पृथक् । सर्वासां योजनानां च पूर्वपश्चिमभागयोः ॥२३६।। एकासशसहस्राणि योजनानां शतानि षट् । अष्टाशीतिरिति ध्यासो वेवभूतद्वघरण्ययोः ॥२३७।। अर्थ:-जिनेन्द्र भगवान के द्वारा उत्तरकुरु देवकुरु नामक उत्तम भोगभूमियों का भिन्न भिन्न धाण १७०७७१४ योजन प्रमाण कहा गया है ।।२३२-२३३॥ पूर्व विदेह एवं अपर विदेह का भिन्न भिन्न व्यास २६७६४ योजन १ कोस, वक्षार पर्वतों का व्यास २००० योजन और पूर्व-पश्चिम दोनों पुष्कराक़ में स्थित समस्त विभंगा नदियों का पृथक पृथक् ध्यास ५०० योजन प्रमाण दर्शाया गया है ।। २३४-२३६ ।। देवारण्य एवं भूतारण्य इन दोनों वनों का पृथक पृयक व्यास ११६८८ योजन प्रमाण है ।।२३७॥ प्रब यक्षार, देश, देवारण्य प्रादि वन तथा विभंगा नदियों के प्रायाम का और उस पायाम में हानि वृद्धि का प्रमाण कहते हैं :-- अक्षाराणां च देशानां देवाधरण्ययोर्द्वयोः । आयामः स विवेहस्य योऽर्षायामोऽप्यनेकधा ॥२३८॥ नदीव्यासोनितो वृद्धिह्रासयुक्तो मतः श्रुते । विभङ्गानां तथायामः कुण्डध्यासोनितो भवेत् ॥२३॥ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ ] सिद्धान्तसार दोपक अर्थ:-विदेह के प्रायाम में से सीता वा सोलोदा नदी का व्यास घटा कर शेष का प्राधा करने पर वक्षार पर्वतों का, देशों का और दोनों देवारण्य वनों का आयाम प्रान हो जाता है । यह पायाम वृद्धि और ह्रास के कारण अनेक प्रकार हो जाता है ऐसा धुत में कहा गया है। इस आयाम में से कुण्ड का व्यास (५०० यो०) कम कर देने पर विभंगा नदी का आयाम हो जाता है ।।२३५-२३६॥ अब पुष्कराधस्थ समस्त विजयाओं के व्यास प्रादि का प्रमाण एवं विदेहस्थ क्षेत्रों के छह खण्ड होने का कारण कहते हैं :-- योजन द्विशतव्यासाः सर्वे रूप्याचला मताः । देशव्याससमायामाः पूर्वोन्नतिसमोन्नताः ॥२४०।। गङ्गासिन्धुनदीभ्यां च द्वाभ्यां रूप्याद्रिणारिखलाः । षट्खण्डीभागमापन्ना विदेहे विषयाः स्मृताः ।।२४१॥ अर्थ:-पुरकरार्धस्थ समस्त विजया पर्वतों का आयाम ( लम्बाई ) अपने अपने देश को चौड़ाई के प्रमाण है । अर्थात् जितमै योजन देश की चौड़ाई है, उतने ही योजन विजया की लम्बाई है। रूपाचलों का व्यास २०० योजन और ऊँचाई पूर्व कथिन ( २५ योजन ) प्रमाण है ॥२४०।। विदेहस्थ समस्त देशों के गंगा-सिन्धु इन दो दो नदियों और एक एक रूपाचल ( विजयाध ) पर्वतों से छह-छह खण्ड हुए हैं ॥२४१॥ अब गंगादि क्षुल्लक नदियों के और कुण्डों के व्यास प्रादि का प्रमाण कहते हैं :-- विभङ्गोत्पत्ति कुण्डानि सर्वाणि विस्तृतानि च । द्वारतोरणयुक्तानि स्युः पञ्चशतयोजनः ॥२४२।। गंगादिक्षुल्लकाभ्यः प्राग् नदोभ्यः सरितोऽत्र च । गङ्गाद्या द्विगुणव्यासाः पूर्वावगाहसम्मिताः ॥२४॥ गंगाद्युत्पत्ति कुण्डानि साद्विशतयोजनः । विस्तृतानि च पूर्वोक्तागाहवेदियुतान्यपि ॥२४४।। अर्थ:-विभंगा नदियों को जिनसे उत्पत्ति होती है ऐसे तोरण द्वार प्रादि से अलंकृत समस्त कुण्डों का विस्तार ५०० योजन प्रमाण है ।।२४२|| घातको खण्डस्य विदेह में गंगा आदि छोटी नदियों का जो न्यास कहा है उससे पुष्करराधस्थ बिदेह को गंगादि क्षुल्लक नदियों का व्यास दूना और अवगाह नम्वूहोपस्थ विदेह की गंगादि नदियों के अन माह प्रमाण है ।।२४३॥ गंगादि क्षुल्लक नदियों की जिनसे उत्पत्ति होती है ऐसे बेदी एवं तोरण आदि से युक्त समस्त कुण्डों का व्यास २५० योजन और अबगाह पूर्वोक्त प्रमाण ( ) है ।।२.४४11 Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमोऽधिकारः [ ३६५ इदानीं विषयादीनामायामवृद्धिः कथ्यते । देशानां प्रत्येकमायामवृद्धिः नवसहस्रचतुःशताष्टचत्वारिंशद्योजनानि, योजनस्य द्विशतद्वादशभागानां षट्पञ्चाशद्भामाः । वक्षाराणा पृथगायाम वृद्धिः नवशतचतुः पञ्चाशद्योजनानि विंशत्यग्रशतभागाः। विभङ्गानां प्रत्येकमायामवृद्धिः द्विशतकोनचत्वारिंशद्योजनानि, द्विशतद्वादशभागानां भागास्त्रयोदशदेवारण्यभूताररथयोः पृथगायामवृद्धिः पञ्चसहस्रपञ्चशताष्टासप्ततियोजनानि, योजनस्य द्विशतद्वादशभागानां चतुरशीत्यग्र शत भागाश्च । अब पुष्कराधस्थ देशों प्रादि के पायाम को वृद्धि का प्रमाण कहते हैं :--- अर्थ:-कच्छादि भिन्न भिन्न देशों की लम्बाई में वृद्धि का प्रमाण ६४४८ १५५ योजन, वक्षार पर्वतों की पृथक् पृथक् लम्बाई में वृद्धि का प्रमाण ६५४३२० योजन, प्रत्येक विभंगा नदियों को लम्लाई में वृद्धि का प्रमाण २३१-१३ योजन और प्रत्येक देवारण्य और भूतारण्य को लम्बाई में वृद्धि का प्रमाण ५५७८६६ योजन प्रमाण है । अर्थात् कच्छादि देशों, वक्षार पर्वतों, विभंगा नदियों और देवारण्य भूतारण्य वनों की अपनी अपनी आदिम लम्बाई में उपर्युक्त अपनी अपनी वृद्धि का प्रमाण मिला देने पर उनकी मध्यम लम्बाई का प्रमाण, और मध्यम लम्बाई में भी उसी स्व, स्व वृद्धि का प्रमाण मिला देने से उनकी अपनी अपनी अन्तिम लम्बाई का प्रमाण होता है। अधुना विदेहस्याष्टलक्षयोजनव्यासस्य मेधिव्याप्ता पृथगणना निगद्यते : मेरोासः चतुर्नवतिशतयोजनानि । द्वयोः पूर्वापर भद्रशाल वनयो: पिण्डीकृतो विस्तारः चतुलकत्रिंशत्सहस्रपञ्चशतपोइशयोजनानि । षोडशविषयाणामेकीकृतो विष्कम्भः त्रिलक्षषोडशसहस्रसप्तशताष्टयोजनानि । अष्टवक्षाराणां पिण्डितो व्यासः षोडशसहस्रयोचनानि । षड्विभङ्गानदीनां मेलिता विस्तृतित्रिसहस्रयोजनानि । द्वयोर्देवारण्यभूतारण्ययोरेकत्रीकृतो व्यासः प्रयोविंशतिसहस्रत्रिशतपट्सप्ततियोजनानि । इत्येवं पिण्डी कृतः सकलविदेहस्य विष्कम्भ अष्टलक्षयोजनप्रमो मन्तव्यः ।। अब विदेहक्षेत्र के पाठ लाख बोजन ध्यास के मेरु प्रादि के द्वारा व्याप्त क्षेत्र के प्रमाण को पृथक् पृथक् गणना करते हैं : अर्थः -- मेरु पर्वत का व्यास १४०० योजन, पूर्व-पश्चिम भद्रशाल वनों का एकत्रित व्यास ४३१५१६ योजन, कच्छादि १६ देशों का एकत्रित व्यास ३१६७०८ योजन, आठों यक्षार पर्नलों का एकत्रित व्यास १६००० योजन, छह विभंगा नदियों का एकत्रित व्यास ३००० योजन और देवारण्यभूतारण्य का एकत्रित व्यास २३३७६ योजन प्रमाण है। इस प्रकार इन सब व्यासों का एकत्रित प्रमाण-(१४००+४३१५१६+३१६७०८+१६००० + ३०००+२३३७६ )=८००००० अर्थात् प्राठ लाख योजन ( सम्पूर्ण विदेह क्षेत्र का प्रमाण) जानना चाहिए । Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ ] सिद्धान्तसार दीपक अब पुष्करायद्वीपस्थ वृक्ष, पर्वत, वेदो, कुण्ड और द्वीप के रक्षक देवों का वर्णन करते हैं : जम्बूवृक्षसमोत्सेधव्यासत्यालयाङ्कितौ । प्रागुक्त परिवारौ स्तोत्रापि द्वौ पुष्कर मौ ॥२४५।। समस्ता नाभिशैलाश्च यमका वृषभाद्रयः । ह्रदा भोगधराः सर्वा दिग्गजाः कनकाद्रयः ।।२४६।। वेदीकुण्डादयोऽन्ये च द्वीपेऽस्मिन् पुष्करार्धके । विज्ञेया धातकीखण्डद्वीपस्थ गणनासमाः ।।२४७॥ यावन्तो धातकीखण्डे शैला मेदियोऽखिलाः ।। तावन्तः पुष्कराः स्युर्वनवेद्याद्यलकृताः ॥२४॥ गङ्गाविप्रमुखाः सर्वा नयोऽत्रापि भवन्ति छ । धातकीखण्डसंख्याढघा वनवेद्यादिशोभिता: ।।२४६।। स्वामिनो पुष्करार्धस्य तस्य श्रीजिनभक्तिकौ । . स्तः परपुण्डरीकाल्यो दक्षिणोत्तरवासिनी ॥२५०।। अर्थः-जम्बूद्वीपस्थ जम्बूवृक्ष के उत्सेध और आयाम सदृश उत्सेध ( १० योजन ) एवं व्यास - ( मध्यभाग की चौड़ाई ६ योजन और अग्रभाग की ४ योजन ) से युक्त, चैत्यालय प्रादि से अलंकृत तथा पूर्वोक्त परिवार ( १४०१२० ) वृक्षों से वेष्टित पूर्व-पश्चिम दोनों पुष्कराधों में दो एरण्ड के वृक्ष स्थित हैं ।।२४५।। पुष्करार्धद्वीपस्थ समस्त नाभिगिरि, यमगिरि, वृषभाचल, सरोवर, सर्व भोगभूमियाँ, दिग्गज पर्वत, काञ्चनपर्वत, वेदियाँ एवं कुण्ड प्रादि और भी अन्य सभी को प्रभाग संख्या धातकोखण्मुदीपस्थ नाभिगिरि आदि की प्रमाण संख्या के समान ही जानना चाहिए ॥२४६-२४७।। घातको खण्ड में मेरु आदि जितने पति हैं, वनवेदियों आदि से अलंकृत उतने ही पर्वत पुष्कराचंद्वीप में हैं ॥२४८।। गंगादि प्रमुख नदियों सहित धातकी खण्ड में जितनी नदियाँ हैं, वनवेद्यादि से सुशोभित उतनो ही नदियाँ पुष्कराद्विीप में हैं ।। २४९ ॥ श्रये जिनेन्द्र भगवान की भक्ति से युक्त, दक्षिण और उत्तर दिशा में निवास करने वाले पद्म और पुगडरीक नाम के दो व्यन्तर देव पुष्करा द्वीप के अधिपति हैं ॥२५०।। अब प्रड़ाई द्वीपस्थ पर्वतों और नदियों आदि की एकत्रित संख्या कहते हैं :-- एकोनषष्टिसंयुक्तसार्धसहस्रसम्मिताः । सार्धद्वीपद्वये सर्वे मेर्वादिप्रमुखादयः ॥२५१।। Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमोऽधिकार एकोनमापतिलक्षाः सहस्राः षष्टिसंख्यकाः । चतुःशतानि पञ्चाशदित्यनुसंख्ययाखिलाः ॥२५२॥ गङ्गादिप्रमुखा नद्यो मूलोत्तरसमाह्वयाः । पिण्डीकृता भवन्स्यत्र नृक्षेत्रे च क्षयोज्झिताः ॥२५३॥ त्रिंशद्भोगधराः कर्मपथ्व्यः पञ्चदशप्रमाः । शतसंख्या द्रहा:सीतासीतोदामध्यसंस्थिताः ॥२५४।। कुलाद्रिभूधंभागस्थास्त्रिशद्महाश्चपिण्डिताः। गङ्गादिपातभूभागस्थानि कुण्डानि सप्ततिः ॥२५॥ विभङ्गोत्पत्तिकुण्डानि सर्वाणि षष्टिरेव च । गङ्गाविसरितां सच्चीनां सन्ति जनकानि च ॥२५६।। शतानि त्रीणि विशत्यप्राणि कुण्डानि चाजसा । सप्तत्यग्रशतं देशानगर्योदेशसम्मिताः ॥२५७॥ करवृक्षादशेत्येवं संस्थानयासिलाः । सार्धद्वीपद्वये ज्ञेया अन्ये वा वेदिकादयः ।।२५८।। अर्थः-ढाई द्वीप के मेरु आदि प्रमुख पर्वतों का कुल योग १५५६ है । अर्थात् लाई द्वीप में कुल -पर्वत १५५६ हैं ॥२५१।। नोट :--श्रिलोकसार गा० ७३१ में जम्बुद्वीपस्थ प्रमुख पर्वतों की कुल संख्या "तिसदेक्कारससेले" [अर्थात् १ सुदर्शन मेरु + ६ कुनाचल+४ यमकगिरि+२०० काञ्चन पर्वत + ८ दिग्मज + १६ वक्षार पर्वत+४ गजदन्त + ३४ विजया+३४ वृषभाचल और+४ नाभिगिरि हैं, इन सबका योग १+६+४+२००+५+१६+४+३४+३४+४= ] ३११ कही गई है, जबकि एक मेरु सम्बंधी ३११ पर्वत हैं, तब पञ्चमेरु सम्बन्धी प्रमुख पर्वतों की संख्या ( ३११४५)=१५५५ प्रा होती है, किन्तु उपर्युक्त श्लोक में १५५६ कही गई है, क्योंकि इसमें ४ इष्वाकार पर्वत और लिये गये हैं। मनुष्य लोक ( ढाई द्वोप) में अनाद्यनन्त गंगादि १० मूलनदियों और उनको परिवार नदियों का कुल योग ८६६ ० ४५० है । अर्थात् जम्बूद्वीपस्थ भरत रावत की गंगा, सिन्धु, रक्ता और रक्तोदा इन वार को परिवार नदियाँ (१४०००x४)=५६००७, हैमवत-हेरण्यत्रत क्षेत्र को रोहित, रोहितास्या, स्वर्णकूला और रूप्यकूला की परिवार नदियाँ ( २८००० ५४ )= ११२०००, हरि-रम्यक क्षेत्र स्थित हरित्, रिकान्ता, नारो और नरकान्ता को परिवार नदियां ( ५६०००४४)२२४०००, देवकुरुउत्तरकुरु गत सोता, सीतोदा को परिवार नदियाँ (८४०००x२)=१६८०००, बारह विभंगा नदियों Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ ] सिद्धांतसार दीपक की परिवार नदियाँ ( २८०००x१२ ) - ३३६००० और बत्ती विदेह विदुरका और रक्तोदा इन ६४ की परिवार नदियां ( १४००० X ६४ ) = ८६६००० हैं । इन सम्पूर्ण मूल एवं परिवार नदियों का कुल योग ( ४+४+४+२+१२+६४ + ५६०००+ ११२०००+२२४०००+ १६८००० + ३३६०००+ ८१६००० - १७९२०९० है । जबकि एक मेरु सम्बन्धी सम्पूर्ण प्रमुख नदियाँ १७६२०६०] हैं, तब पंचमेरु सम्बन्धी (१७६२०१०४५ ) = ८६६०४५० नदियों का प्रमाण प्राप्त होता है ।।२५२-२५३ ।। श्रढ़ाई द्वीप में तीस भोगभूमियाँ, पंच भरत, पंच ऐरावत और पंच विदेह इस प्रकार १५ कर्म भूमियाँ तथा सीता-सीतोदा के मध्य स्थित १०० द्रह है। पंच मेरु सम्बन्धी ३० कुलाचलों के ऊपर पद्म श्रादि ३० सरोवर हैं, इस प्रकार ढ़ाई द्वीप में कुल ( १०० + ३० ) = १३० सरोबर हैं । गंगादि ( १४४५ ) = ७० महानदियों का भूमि पर जहाँ पतन होता है, वहाँ कुण्ड हैं, श्रतः ७० कुण्ड ये, ( १२×५ ) = ६० विभंगा नदियों की उत्पत्ति से सम्बन्ध रखने वाले कुण्ड ६० श्रोर गंगादि क्षुल्लक ( ६४५५ ) = ३२० नदियों की उत्पत्ति के ३२० कुण्ड हैं। इस प्रकार ढ़ाई द्वीप में कुल कुण्डों की संख्या ( ७०+ ६० + ३२० ) = ४५० है । एक मेरु सम्बन्धी ३२ विदेह + १ भरत + १ ऐरावत क्षेत्र == ३४ देश हैं, इसलिये पंच मेरु सम्बन्धी ( ३४४५ ) = १७० देश हैं और १७० ही नगरियाँ हैं 1 ।।२५४ - २५७।। पंच मेरु सम्बन्धी दश कुरु क्षेत्रों में जम्बू ग्रादि १० हो अनादि निधन वृक्ष हैं। इसी प्रकार वैदिकाएँ आदि भी जानना चाहिए। जैसे - जम्बूद्वीप में एक मेरु सम्बन्धी ( ३११ पर्वतों की ३११ वेदियाँ + ६० कुण्डों को ९० वेदियाँ + २६ सरोवरों की २६ वेदियाँ + और १७६२०६० नदियों के दोनों तटों की ३५८४१८० वेदियाँ ) = ३५८४६०७ वेदियाँ हैं, इसलिये पंच मेरु सम्बन्धी समस्त वेदियों का कुल योग ( ३५८४६०७४ ३ ) - १७६२३०३५ प्राप्त होता है । इस प्रकार यह अढ़ाई द्वीप के कुछ पर्वतों आदि का एकत्रित योग कहा गया है, श्रन्य का भी इसी प्रकार जानना चाहिये ।। २५८ || अब समस्त (पाँचों विदेहस्थ श्रायं खण्डों को धर्म को आदि लेकर अन्य अभ्य विशेषताओं का प्रज्ञापन करते हैं। -- षष्टचग्रशत देशस्थार्थखण्डेषु जिनोदिताः । श्रावतिभिधा धर्मोऽक्षयः प्रवर्तते ।। २५६ ।। हानिवृद्धघादिदूरस्थो ह्यहिंसालक्षणो महान् । स्वमुक्तिजनको नान्योऽङ्गिघ्नो बेदादिजल्पितः ॥ २६०॥ अहंन्तश्च गणाधीशाः सूरिपाठकसाधवः । नृदेवसङ्घवन्यार्याः स्थविराश्च प्रवर्तकाः ।। २६१ ॥ धर्मोपदेशदातारो विहरन्ति निरन्तरम् । धर्मप्रवृत्तये केवलिनो न च कुलिङ्गितः || २६२|| Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमोऽधिकार: [ ३६६ पुरग्रामादिसर्वषु सर्वत्र च वनारिषु । बोप्रा जिनालयास्तुङ्गा दृश्यन्ते जिनमूर्तयः ॥२६३।। हेमरत्नमयाभव्यैः पूजिता वन्दिताः स्तुताः । न जातु नीचदेवानां गृहा वा मूर्तयोऽशुभाः ॥२६४॥ शाश्वतो मुक्तिमार्गोऽत्र वर्तते योगिनां सदा । स्वर्गो गृहाङ्गणोऽत्रस्थपुण्यभाजां सुखावहः ।।२६॥ प्रजा वर्णन योपेता जिनधर्मरताः शुभाः । श्रतशोलतपोदृष्टिभूषिता न द्विजाः क्वचित् ॥२६६।। मिथ्यात्वपंचकं मात्र स्वप्नेऽपि जातु दृश्यते । द्रव्यभूतं न तद्वक्ता न वान्यच्च मतान्तरम् ।।२६७।। किन्त्वेको जिनधर्मोऽत्र विलोक्य ते गृहे गृहे । पुण्यभाजां तपोदानव्रतपूजोत्सवादिभिः ॥२६८॥ इति प्रवरदेशेषु लभन्ते जन्मसत्कुले । प्राज्जितशुभा भव्याः सद्गत्याप्त्ये न चेतराः ।।२६६॥ अर्थ.–अढ़ाई द्वीपस्थ विदेहों के एक सौ साठ आर्य खण्ड हैं, उन आर्य खण्डों के एक सौ साट ( १६० ) देशों में जिनेन्द्र भगवान द्वारा कथित श्रावक धर्म और मुनि धर्म के भेद से दो प्रकार के धर्म का एक सदृश प्रवर्तन निरन्तर होता रहता है। अहिंसा लक्षण से लक्षित और स्वर्ग-मुक्ति को देने वाला यह महान् धर्म हानि-वृद्धि से रहित है । वहाँ पर जिसमें जोवों का घात होता है, ऐसा बेद आदि के द्वारा कहा हुआ हिंसामय धर्म नहीं है ।।२५६-२६वहाँ पर धर्म प्रवर्तन के लिये मनुष्यों, देवों और संघों से वन्दनीय एवं पूजनीय केलि भगवन्त, अरहन्त प्रभु, गणधर देव, प्राचार्य परमेष्ठी, उपाध्यायदेव, साधु परमेष्ठो, स्थविर (वृद्धाचार्य अर्थात् तपोभार से युक्त) मुनिराज, प्रवर्तक मुनिराज और धर्मोपदेश रूपी अमृत का पान कराने वाले धर्मोपदेश दाता मुनिराज निरन्तर विहार करते हैं । वहाँ कुलिङ्गी साधु नहीं हैं ।।२६१-२६२॥ बहाँ पर नगरों में, ग्रामों में. वनों में तया और भी अन्य सभी स्थानों में अत्यन्त देदीप्यमान और उत्त ङ्ग जिनालय ही दिखाई देते हैं, जिनमें स्थित स्वर्ण और रत्नमय जिनप्रतिमाएं भव्य जीवों के द्वारा निरन्तर पूजित, वन्दित एवं स्तुत होती हैं। अर्थात् भव्यजीव उन प्रतिमाओं को निरन्तर पूजा करते हैं, दर्शन करके वन्दना करते हैं और अनेक प्रकार की स्तुति करते हैं । वहाँ पर कभी भी नीच देवों के मन्दिर और अशुभ प्रतिमाएं दिखाई नहीं देती ।।२६३२६४॥ यहाँ पर योगियों का अनाग्रनिधन निर्ग्रन्थ मोक्षमार्ग निरन्तर प्रवर्तित रहता है । यहाँ स्थित पुण्यशाली जीवों को सुख देने वाला यह क्षेत्र स्वमं के प्रांगन सदृश है ।।२६५|| तीन वर्गों से युक्त एवं Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० ] सिद्धान्तसार दीपक व्रत, शौल, तप और सम्यग्दर्शन से विभूषित यहाँ की प्रजा हमेशा अत्यन्त शुभ जिनधर्म में हो र रहती है | यहाँ ब्राह्मण वर्ण कहीं भी नहीं हैं ।। २६६ ।। यहां स्वप्न में भी कहीं पांच प्रकार का मिथ्यात्व दिखाई नहीं देता । न यहां मिध्यात्व का उपदेश देने वाले उपदेशक ही होते हैं, और न कोई मतान्तर ही हैं, किन्तु पुण्यवान जीवों के तप, दान, व्रत, पूजा और अनेक श्रामिक उत्सवों के द्वारा प्रत्येक गृहों में मात्र एक जंनधर्म ही देखा जाता है ।।२६७-२६८ ।। इस प्रकार के श्रेष्ठ देशों के उत्तम कुलों में स्वर्ग और मोक्ष रूप उत्तम गतियों की प्राप्ति के लिए पूर्वोपार्जित पुण्य से युक्त भव्य जीव ही जन्म लेते हैं, अन्य अर्थात् क्षीण पुण्य वाले नहीं ||२६|| अब मानुषोत्तर पर्वत का सविस्तर वर्णन करते हैं ——— यास्य पुष्करार्धस्य मध्यभागे विराजते । शैलोऽई स्यहार्यः स श्रीमान्मानुषोत्तरः || २७० ॥ चतुर्दशनदीनिर्गमन द्वारादिशालिनः । क्रमह्रस्वस्य चास्याद्ररुदयो योजनंर्मतः ॥ २७१ ॥ एकविंशतिसंयुक्तसमा प्रदशभिः शतैः । भूतले विस्तरो द्वाविंशतियुक्तसहस्रकः ।। २७२ ।। मध्ये व्यासस्त्रयोविंशत्य ग्रसतशतप्रभः । मूर्ध्नि व्यासश्चतुविशाग्र चतुःशतमानकः ॥ २७३ ॥ अवगाहो क्यूत्प्रत्रिशच्चतुःशतप्रमः । श्रीशोषता दिव्यादोप्रास्ति मणिवेदिका || २७४ || नैऋत्यवायुदग्भाग मुक्त्वा षदिविदिक्षु च । स्युस्त्रीणि त्रीणि कूटानि श्रेण्याः पृथग्विधान्यपि ।। २७५ || अग्नीशानदिशोः षट्सु कटेषु दिव्यधामसु । गरुडादिकुमाराश्च मूत्या वसन्ति निर्जराः ।। २७६॥ शेषद्वादशकूटेषु चतुर्दिक्षूच्चसा । वसन्ति दिवकुमार्योऽस्य सुपर्णकुलसम्भवाः || २७७।। तथाष्टदशकूटानां तेषामभ्यन्तरेऽस्य च । चत्वारि सन्ति कूटानि पूर्वादिदिचतुष्टये ||२७८ ।। एषां चतुःसुकूटानां मूनि सन्ति जिनालयाः । स्वर्णरत्नमयास्तुङ्गाश्चत्वारः सुरपूजिताः ॥२७६॥ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमोऽधिकार: [ ३७१ कूटानामुदयो योजनानां पञ्चशतप्रमः । मूले पञ्चशतव्यासश्चाग्ने सार्धशतद्वयः ॥२०॥ केयल्याख्यसमुद्घाताच्चोपपादाद्विनाङ्गिनाम् । अद्रिमुल्लंध्यशक्ता नेमं गन्तु तत्परां भुवम् ॥२१॥ विद्येशाश्चारणा वान्ये प्राप्ताऽनेकद्धयः क्वचित् । ततोऽयं पर्वतो मर्त्यलोकसीमाकरो भवेत् ॥२६२।। अर्था. इस पुष्कराध द्वीप के मध्यभाग में अरहन्त भगवान् के चैत्यालयों प्रादि से अलंकृत, श्रीमान् अर्थात् श्रेष्ठ मानुषोत्तर पर्वत शोभायमान होता है ।।२७०॥ चौदह महानदियों के निर्गमन चौदह द्वारों से सुशोभित और क्रमशः ह्रस्व होते हुये इस मानुषोनर पर्वत की ऊँचाई जिनेन्द्र भगवान् ने १७२१ योजन दर्शाई है । भूतल अर्थात् मूल में इस पर्वत को चौडाई १०२२ योजन, मध्य में चौडाई ७२३ योजन और ऊपर की चौड़ाई ४२४ योजन प्रमाण है ॥२७१-२७३।। मानुषोनर का अवगाह अर्थात् नींव का प्रमाण ४३० योजन और एक कोश है। इस पर्वत के शिखर पर दो कोस ऊँची (और ४०.० धनुष चौड़ी) अत्यन्त देदीप्यमान और दिव्य मणिमय वेदी है ।।२७४।। उस मानुपोनर पर्वत पर नैऋत्य और वायव्य इन दो दिशाओं को छोड़ कर अवशेष पूर्वादि छह दिशाओं में पंक्ति रूप से तीन तीन कूट अवस्थित हैं ।।२७५।। आग्नेय और ईशान दिशा सम्बन्धी छह कूदों के दिव्य प्रासादों में गरुड़ कुमार जाति के देव अपनी समस्त विभूति के साथ निवास करते हैं ।।२७६।। दिशागत अवशेष बारह कूटों के प्रासादों की चारों दिशाओं में सुपर्ण कुलोत्पन्न दिक्कुमारी देवांगनाएँ निवास करती हैं ॥२७७। इन अठारह ( १२+.६ ) कूटों के प्रभ्यन्तर भाग में अर्थात् मनुष्य लोक की ओर पूर्वादि चारों दिशाओं में चार कूट हैं, जिनके शिस्त्र र पर देवताओं से पूज्य और उत्त ङ्ग स्वर्ण एवं रत्नमय जिनालय हैं ।।२७८-२७६।। इन समस्त कूटों की ऊँचाई ५०० योजन, मूल में व्यास ५०० योजन और शिखर पर भ्यास का प्रमाण २५० योजन है ॥२८०1। केवलिसमुद्घात, मारणान्तिक समुद्घात और उपपाद जन्म वाले देवों के सिवाय अन्य कोई भी प्राणी इस मानुषोत्तर पर्यत से युक्त पृथ्वी को उल्लंघन करके नहीं जा सकता ॥२८१।। विद्याधर, चारणऋद्धिधारी तथा अनेक प्रकार को और भी अनेक ऋद्धियों से युक्त जीव भी इस पर्वत का उल्लंघन नहीं कर सकते, इसीलिये यह पर्वत मनुष्यलोक की सीमा का निर्धारण करने वाला है ॥२२॥ अब यह बतलाते हैं कि ढाई द्वीप के प्रागे मनुष्य नहीं हैं, केवल तिर्यञ्च हैं : यतो द्वीपद्वये साः स्युस्तियंञ्चश्च मानवाः । ततोऽपरेष्वसंख्येषु द्वोपेषु सन्ति केवलम् ॥२३॥ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ ] सिद्धान्तसार दीपक तिर्यञ्चो भद्रका नान्ये ततः स कथ्यते श्रुते । तिर्यग्लोकोऽप्यसंख्यातस्तियंग्मृतो नृदूरगः ॥२४॥ अर्थ:-मानुषोत्तर पर्वत ने मनुष्यों की सीमा का निरधारण कर दिया है, इसीलिये अढ़ाई द्वीप में तो मनुष्य और तिर्यञ्च दोनों हैं, किन्तु इसके प्रागे असंख्यात द्वोपों में केवल भद्रपरिणामी तिर्यञ्च ही हैं, अन्य कोई नहीं हैं, इसीलिये प्रागम में इसे तिर्यग्लोक कहा है । यह नियंग्लोक मनुष्यों से रहित है घोर असंख्याततिर्यंचों से भरा हुआ है ॥२८३-२८४।। पब पुष्करवर द्वीप से प्रागे के द्वीप-समुद्रों के नाम और उनके स्वामी कहते हैं : पुष्करद्वीपमावेष्टय तं तिष्ठेत् पुष्करार्णवः। श्रीप्रभश्रीधरौ देवी जलधेरस्य रक्षको ॥२८५।। सतोऽस्ति वारुणोद्वीपोऽस्येमौ स्तो रक्षको सुरौ । वरुणो दक्षिणे मागे ह्य तरे वरुणप्रभः ।।२६६।। ततः स्थात्तबहिर्भागे थारुणीवरसागरः । मध्याख्यमध्यमाभिख्यो भवतोऽस्य सुनायको ।।२७।। तस्मात् क्षीरथरद्वीपो भवेत् ख्यातोऽस्य रक्षको व्यन्तरी पाण्डुराभिस्य पुष्पदन्तौ स्त अजितो ॥२८॥ ततः क्षीरसमुद्रोऽस्ति जिनेन्द्रस्नानकारणः । प्रस्येमौ स्वामिनी स्यातां विमलो विमलप्रभः ॥२६॥ सस्माल् धृतवरद्वीपस्तस्यतो परिपालको । दक्षिणोत्तर भागस्थौ सुप्रभाल्य महाप्रभो ॥२६॥ तिष्ठत्यतस्तमावेष्ट पाम्बुधिघृतवरायः । प्रस्याब्बेः स्तः पती चैतौ कनकः कनकप्रभः ॥२६१॥ तत इश्वरद्वीपो भवत्यस्याभिरक्षको । भवतो व्यन्सरी पूर्णपूर्णप्रभ समाह्वयौ ॥२६२॥ परितस्तं समावेष्टय तिष्ठत्तीभुवरार्णवः । स्यातां गम्धमहागन्धाख्यो देवौ तस्य सस्पती ।।२६३।। अर्था:-पुष्करवरद्वीप को वेधित कर बलयाकार रूप से पुष्करवर समुद्र है, श्रीप्रभ और श्रीधर नाम के दो देव इस समुद्र को रक्षा करते हैं ॥२८॥ इस समुद्र को वेष्टित कर वारुणीवर द्वीप है, Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोऽधिकारः [ ३७३ जिसका रक्षक वरुरण देव दक्षिण भाग में श्रौर वरुणप्रभ उत्तर भाग में निवास करते हैं || २५६|| इस द्वीप के आगे वाणीवर समुद्र है. जिसके अधिनायक मध्य और मध्यम नाम के दो देव हैं ||२८७ ॥ इस समुद्र से आगे क्षीरवरद्वीप है, जिसके रक्षक पाण्डु और पुष्पदन्त नाम के दो देव हैं ||२८|| इस द्वीप को वेष्टित करके भीरवर समुद्र है, जो बाल तोर्थंकर के स्नान का कारण है। इस समुद्र के अधिपति विमल और विमलप्रभ नाम के दो देव हैं ।। २८ ।। क्षीरसमुद्र को वेष्टित कर घृतवरद्वीप है, जिसके दक्षिणउत्तर भाग में क्रम से सुप्रभ और महाप्रभ नाम के दो रक्षक देव निवास करते हैं ||२2011 घुतवर द्वीप को वेष्टित कर तर नाम का समुद्र है, जिसके स्वामी कनक और कनकप्रभ नाम के दो देव हैं ||२१|| इसके श्रागे इक्षुवर नाम का द्वीप है, जिसके अधिनायक पूर्ण और पूर्णप्रभ नाम के दो देव हैं ||२२|| इस द्वीप को समावेष्टित कर इक्षुवर नाम का समुद्र है, जिसके अधिपति गन्ध और महागन्ध नाम के दो देव हैं ।। २६३ || अब नन्दीश्वर नाम के अष्टम द्वीप की प्रवस्थिति और उसके सूची व्यास श्रादि का प्रमाण कहते हैं। --- त्रिष्टशतकोटी लक्षाश्चतुरशीतिकाः । इत्यङ्क योजनव्यास द्वीपो नन्दीश्वरो भवेत् ॥ २६४॥ कोटयः सप्तविंशत्यधिकत्रिशतसम्मितरः । पञ्चषष्टिप्रमालक्षा इति योजनसंख्यया ।। २६५॥ प्राfदसूची भवेदस्य द्वोपस्य धर्मधारिणः । द्विपञ्चाशम्महातुङ्ग जिनालयादिशालिनः ॥ २६६॥ योजनानां सहस्रकं हि षड् त्रिश कोटयः । द्विलक्षाः सहेस्र द्वे तथा सप्तशतानि च ॥१२७॥ त्रिपंचाशवथ क्रोशी द्वावित्यङ्कासयोजनः । तस्या विलघु सूच्या श्रादिमा परिधिर्मता ॥ २६८ ॥ षट्शतानि तथा पंचपंचाशत्कोटयः पुनः । त्रयस्त्रशच्च लक्षाणि चेति योजनसंख्यया ॥ २६९॥ प्रतिमा महती सूची प्रोदिता श्रोगणाधिपैः । दीपस्यास्य जिनागारं : जगदानन्दकारिणः ||३०० ॥ द्वासप्ततिसमायुक्तद्विसहस्राणि कोटयः । श्रर्थास्त्रशत्त्व लक्षाश्चतुः पञ्चाशत्सहस्रकाः ॥ ३०१ || Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ ] सिद्धान्तसार दोपक नवत्यग्रशतं क्रोश एक इत्ययोजनः । अन्तिमा परिधि: ह्यन्त्यसूच्या मतागमे ।।३०२।। अर्थः-३शुवर समुद्र को वेष्टित किये हुए नन्दीश्वर नाम का पाठवां द्वीप है, इसका व्यास १६३८४००००० योजन प्रमाण है । अर्थात् जम्बूद्वीप से प्रारम्भ कर पाठवें नन्दीश्वर द्वीप पर्यन्त का वलयव्यास एक सौ श्रेस करोड़ चौरासी लाख प्रमाण है ॥२६४॥ धर्म को धारण करने वाले महा उत्सङ्ग ५२ जिनालयों से सुशोभित नन्दीश्वर द्वीप को आदिम सूचो व्यास का प्रमाण ३२७६५००००० योजन है ।।२६५-२६६।। इस प्रादिम सूची व्यास की परिधि १०३६१२०२७५३ योजन और दो (२) कोस मानी गई है ।।२९७-२६८।। भब्य जिनालयों के द्वारा संसार को आनन्दित करने वाले इस नन्दी. श्वर द्वीप की अन्तिम सूची व्यास का प्रमाण जिनेन्द्र भगवन्तों के द्वारा ६५५३३००००० योजन कहीं गई है ॥२६६-३००11 जिनागम में इस अन्तिम सूची व्यास की परिधि का प्रमाण २०७२३३५४१६० योजन और एक कोस कहा गया है ।।३०१-३०२।। अब अजनगिरि पर्वत और वापिकाओं का अवस्थान एवं उनका व्यास प्रादि कहते हैं :-- तस्य मध्ये चतुर्विक्ष चत्वारोऽजनपर्वताः । राजन्ते पटहाकारा इन्द्रनीलमणिप्रभाः ।।३०३॥ योजनानां सहस्र श्चतुरग्राशीतिसंख्यकः । उन्नता विस्तृता योजनसहस्रावगाहकाः ॥३०४।। लक्षयोजनभूभागं मुक्त्वाद्रीणां पृथग्विधाः । प्रत्येकं च चतुर्विक्षु चतस्रः सन्ति वापिकाः ॥३०५॥ लक्षयोजनविस्तीर्णा चतुरस्राः क्षयातिगाः । सहस्रयोजनागाहा रत्नसोपानराजिताः ॥३०६।। निर्जन्तु जलसम्पूर्णाः पनवेदीतटाकिताः । हेमाम्बुजीघसंछन्ना महावीधीशताकुलाः ॥३०७॥ अर्थः-नन्दीश्वर द्वीप के मध्य में चारों दिशाओं में अजनगिरि नाम के चार पर्वत हैं, जिनका प्राकार ढोल के समान और ग्राभा इन्द्रनीलमणि के सदृश है ॥३०३।। प्रत्येक प्रजनगिरि की ऊँचाई ८४००० योजन, चौड़ाई ८४००० योजन और प्रवगाह १००० योजन है ।।३०४।। प्रत्येक अञ्जन गिरि के चारों ओर एक एक लाख योजन भूमि को छोड़ कर भिन्न भिन्न चारों दिशाओं में चौकोर प्राकार Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमोऽधिकारः [ ३७५ को धारण करने वाली चार चार वापिकाएँ हैं । अर्थात् एक एक अजनगिरि के चारों ओर एक एक अर्थात् कुल सोलह वापिकाएं हैं ।।३०५॥ ये प्रत्येक वापिकाएँ एक लाख योजन विस्तीर्ण, एक हजार योजन गहरी, चौकोर प्राकार वाली, अनादि-निधन, रत्नों की सीढ़ियों से सुशोभित, जीव जन्तु रहित जल से परिपूर्ण, कमलों के समूह से प्राकीर्ण और सैकड़ों महा तरंगों से व्याप्त हैं। इनके तट, पद्मवेदिकानों से अलंकृत हैं ।।३०६-३०७।। अब सोलह वापिकानों के नाम, उनके स्वामियों एवं उनके अन्तरायामों का विग्यर्शन कराते हैं : मन्दा नन्दवती संज्ञा वापो नन्दोत्तराह्वया । नन्दिषेणा च पूर्वाद्र पूर्वादि दिक्ष ताः स्थिताः ॥३०८।। सौधर्मेन्द्रस्य भोग्याधशानेन्द्रस्य द्वितीयका । तृतीया चमरेन्द्रस्थान्तिमा वैरोचनस्य सा ॥३०६।। अरजा विरजाख्या गतशोका वीतशोकिका । दक्षिणाञ्जनशैलस्य पूर्वादिदिक्ष ताः क्रमात ॥३१०॥ प्रायेन्द्रलोकपालानां पूर्वा सा वरुणस्य छ । भोग्या यमस्य सोमस्य क्रमाद वैश्रवणस्य सु ॥३११॥ विजया वैजयन्ती च जयन्ती ह्यपराजिता । एताः पूर्वादि दिक्षु स्युः पश्चिमाञ्जनसगिरेः ।।३१२॥ वेणुदेवस्य भोग्याद्या वेणुतालेद्वितीयका । धरणस्य तृतीया स्याद् भूतानन्दस्य सान्तिमा ॥३१३।। रम्याख्या रमणी सुप्रभोत्तराञ्जनभूभृतः । चरिमा सर्वतोमदा प्राच्यादिदिक्षु च क्रमात् ॥३१४॥ ऐशानलोकपालस्य वरुणस्य यमस्य सा। सोमस्यास्ति कुबेरस्यैकंकवापी च पूर्ववत् ॥३१५।। पंचषष्टिसहस्राः पंचचत्वारिंशदित्यपि । योजनेचष्टवापोनां प्रत्येकमादिमान्तरम् ॥३१६॥ लौकयोजनानां च चत्वारो हि सहस्रकाः । षट्शतानि द्वयाग्राणीति संख्यया परस्परम् ॥३१७॥ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्तसार दोपक भवेन्मध्यान्तरं सर्व वापिकानां पृथक पृथक् । लक्षौ द्वौ च यो विशति सहस्राः शतानि षट् ॥३१८॥ तथैकषष्टिरित्यङ्कानां च योजनसंख्यया । ताता षोडशवापोनां स्युर्बाह्य त्यान्तराणि वै ॥३१॥ अर्थ:-पूर्व दिशा स्थित अजनगिरि की पूर्व प्रादि चारों दिशाओं में क्रमशः नन्दा, नन्दवतो, नन्दोत्तरा और नन्दिषेरणा नाम की चार वापिकाएँ स्थित हैं ।।३०८॥ प्रथम वापिका सौधर्मेन्द्र के भोग्य है, दूसरी ऐशानेन्द्र के, तीसरी चमरेन्द्र के और चतुर्थ वापिका वैरोचन के भोग्य है, ।।३०६।। दक्षिणदिश स्थित प्रजनगिरि को पूर्वादि चारों दिशाओं में क्रमशः अरजा, बिरजा, गतशोका और सीतशोका नाम की चार वापिकाए हैं, इनमें प्रथम वापिका सौधर्मेन्द्र के लोकपालों में से वरुण के भोग्य, द्वितीय वापिका यम के, तृतीय वापिका सोम के और चतुर्थ वापिका वैश्रवण लोकगल के भोग्य है ।।३१०३११।। पश्चिम दिशागत अजनगिरि की पूर्वादि चारों दिशाओं में क्रमशः विजया, वंजयन्ती, जयन्ती और अपराजिता नाम की चार वापिकाएं हैं, इनमें प्रथम वापिका वेणुदेव के, द्वितीय वेगुताल के तृतीय धरणदेव के और चतुर्थ बारिका भूतानन्द देव के भोग्य है ।। ३१२-३१३ ।। उत्तर दिशा गत चतुर्थ अजनगिरि की पूर्वादि चारों दिशाओं में क्रमशः रम्या, रमणी. सुप्रभा और सर्वतोभद्र नाम को वापिकाएं हैं, इनमें प्रथम वापिका ऐशानेन्द्र के लोकपालों में से बरुण द्वारा भोग्य है. द्वितीय वापिका यम के, तृतीय सोम के और चतुर्थ वापिका कुबेर लोकपाल के द्वारा भोग्य है ।। ३ १४-३१५॥ इन सोलह वापियों में से प्रत्येक का आदि ( अभ्यन्तर ) अन्तर ६५५०४५ योजन सर्व वापियों का पृथक् पृथक् मध्य अन्तर १०४६० योजन और इसी प्रकार सर्व वापियों का भिन्न भिन्न बाह्य अन्तर २२३६६१ योजन प्रमाग है ।।३१६-३१६॥ अब दधिमुख पर्वतों की संख्या, उनका प्रवस्थान, वर्ण और व्यास प्रादि कहते हैं : • यापीनां मध्यभूदेशेषु सन्त्यासां दधिप्रभाः । रम्या दधिमुखाभिख्याः श्वेताः षोडशभूधराः ।।३२०॥ पटहाकारिणस्तुङ्गा विस्तृताश्च दशप्रमः । सहस्रयोजनोजनसहनायगाहिनः ।।३२१॥ अर्थ:- इन सब वापियों के मध्य भूप्रदेशपर दधि की प्रभा युक्त, रमणीक और श्वेतवर्ण वाले दधिनुखनाम के १६ पर्वत हैं । इनका प्राकार ढोल सदृश, ऊँचाई दशहजार योजन, चौड़ाई दशहजार योजन और अवगाह (नीव) १.०० योजन प्रमागा है 11३२०-३२१॥ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमोऽधिकार अब व्यास प्रादि से युक्त रतिकर पर्वतों और सर्व जिनालयों का वर्णन करते हैं : तासां समस्तवापीनां प्रत्येकं बाह्यकोणयोः । द्वौ द्वौ रतिकराभिस्थौ भवतः पर्वतों शुभी ॥३२२॥ द्वात्रिंशदत्योऽते तुङ्गाः सहस्रयोजनः । विस्तृताः पटहाकाराः स्योच्चतुर्याशगाहकाः ॥३२३॥ सौवर्णाः शाश्वताः सर्वेऽत्राञ्जनाद्या महाचलाः ।। पिण्डीकृता द्विपञ्चाशद् भवन्त्यतिमनोहराः ॥३२४॥ एषां सर्वमहीन्द्राणां मून्यकक जिनालयम् । शाश्वतं सुरपूजाढ्यं भवेत् त्यक्तोपमं परम् ॥३२५।। सर्वे पिण्डीकृतास्ते द्विपंचाशच्छोजिनालयाः । स्वर्णरत्नमया दिव्याः स्फुरद्दीप्रा मनोहराः ॥३२६॥ पूर्वोक्त वर्णनोपेताः सर्वज्येष्ठा विमान्त्यालम् । देवसंघमहाभूत्या धर्माकरा इवोजिताः ॥३२७।। प्राङ्मुखाः सुरनाथावोनाह्वयन्तः इवानिशम् । - जिनार्चाय शुभाप्त्यै च तुङ्गध्वजकरोत्करैः ।।३२८॥ अर्थाः-उन समस्त चापियों में से प्रत्येक वापी के दोनों वाय कोणों पर अतोच शुभ रतिकर नाम के दो दो पर्वत हैं, इस प्रकार १६ बापियों के दो दो कोणों पर ३२ रतिकर पर्वत हैं, इन सभी पर्वतों की भिन्न भिन्न ऊँचाई १००० योजन, चौड़ाई १००० योजन, अगाध ( नींब ) ऊँचाई का चतु. शि अर्थात् २५० योजन है, अनानिधन इन सब पर्वतों का आकार ढोल सदृश और वसं तपाये हुए स्वर्ण समान है। मन को हरण करने वाले अञ्जनादि सभी पर्वतों का योग (४+१६+ ३२)--५२ होता है ।।३२२-३२४॥ इन सब ५२ पर्नतों के शिखर पर शाश्वत, देवेन्द्रों से पूज्य, उपमा रहित और परमोत्कृष्ट एक एक जिनालय हैं। अत्यन्त कान्तिमय है प्रकाश जिनका ऐसे दिव्य और मनोहर उन स्वर्ण और रत्नमय सब जिनालयों का कुल योग ( ४ + १६+३२ )= ५२ है ।।३२५-३२६।। जो पूर्वोक्त वर्णन से सहित है, उत्कृष्ट अायाम आदि युक्त हैं और धम की खान के समान हैं, ऐसे वे ५२ चैत्यालय महाविभूति युक्त देव समूहों के द्वारा अत्यन्त शोभायमान होते हैं ।।३२७।। वे समस्त चैत्यालय पूर्वाभिमुख हैं, और उन ज व जामों से ऐसे सुशोभित होते हैं मानों ये अपने ध्वजा रूपी हाथों से अहर्निभ परमशुभ जिन पूजा के लिए सुरेन्द्र आदिकों को ही बुला रहे हों ।।३२८।। Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ ] सिद्धांतसार दीपक अब प्रशोक आदि थनों एवं चैत्यक्षों का अवधारण करते हैं :--- वापीनां पूर्वदिग्भागेऽनाशोकं वन मुल्यणम् । एकैकं दक्षिणे भागे सप्तपर्णाह्वयं महत् ।।३२६।। प्रदेशे पश्चिमे स्याच्च चाम्पक सवनं पृथक् । उत्तरायां दिशि प्रोचं वनमाम्राह्वयं परम् ॥३३०॥ बनान्येलानि सर्वाणि नित्यानि भान्ति भूतिभिः । मयूरः कोकिलालापः शुकायश्च द्र मोत्करैः ।।३३१॥ सर्वतु फलपुष्पा पत्यवृक्षः सुरालयः । लक्षयोजनदीर्घारिण दीर्घाधिस्तृतानि च ।।३३२॥ धनानां मध्यदेशेषु तिस्रः स्युर्मणिपीठिकाः । त्रिमेखलाश्रिता दिव्याः प्रत्येकं तुङ्गधिग्रहाः ॥३३३॥ तासां मूनि विराजन्ते चैत्यवृक्षाः स्फुरदुचः । छत्रघण्टाजिनाचौयं विचित्राः प्रोत्रताः शुभाः ॥३३४।। तेषां मूले चतुर्दिस महत्यो जिनमूर्तयः । दोप्राः शक्रादिवन्धााः स्युः पर्यष्कासनस्थिताः ॥३३५।। अर्था:-उन सोलह वापिकाओं की चारों दिशाओं में एक एक वन है। पूर्वभाग में प्रशोक नाम का वन है । दक्षिण दिशा में सप्तपर्ण नाम का महान् वन है ! पश्चिम दिशा में चमक वन और उत्तर दिशा में आम नामक उत्तम वन है ॥३२६-३३०।। ये शाश्वत ६४ ही वन मयूरों, कोकिलायों एवं शुकादिकों के सुन्दर पालापों से एवं द्र मसमूह आदि विभूति से शोभायमान हैं ॥३३१।। सर्ग ऋतुओं के फलों एवं पुष्प आदि से, चैत्य वृक्षों से देवप्रासादों से सुशोभित उन सभी वनों का पृथक पृथक विस्तार पचास हजार योजन और दोघेता ( लम्बाई ) एक लाख योजन प्रमाण है ।१३३२।। उन सभी वनों के मध्यभाग में मरिगमय तीन तीन पीठिकाएँ हैं । प्रत्येक पीठिका तीन तीन दिव्य और उत्त ङ्ग मेखलामों ( कटनियों ) से अलंकृत हैं। उन पीठिकानों के ऊपर नाना प्रकार के छत्र, घण्टा और जिनार्चा आदि से युक्त प्रोन्नत, शुभ और फैलती हुई शु ति से युक्त चैत्यवृक्ष सुशोभित होते हैं। ॥३३३-३३४॥ उन चैत्य वृक्षों के मूल में पूर्वादि चारों दिशाओं में कान्तिमान, इन्द्रादि देवों से बंदनीय एवं प्रचनीय तथा पद्मासन स्थित प्रभावशाली जिन मूर्तियाँ हैं ।। ३३५।। अब वनों में स्थित प्रासादों के प्रायाम प्रादि का तथा अष्टाह्निको पूजा का वर्णन करते हैं : Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमोऽधिकारः [ ३36 चतुःषष्टिबनानां च मध्ये सन्ति मनोहराः । सत्प्रासादाश्चतुःषष्ठिवननामसुराश्रिताः ॥३३६।। द्विषष्टि योजनोत्सेधा पायामबिस्तरान्विताः । एकत्रिशस्प्रमाणश्च योजनेरि भूषिताः ॥३३७।। प्राषाढे कातिके मासे फाल्गुने च निरन्तरम् । प्रतिवर्ष सुरैः सार्ध चतुनिकायवासत्राः ।।।३३८।। स्वस्वसद्वाहनारूढाः सकलत्राः शुभाशयाः। विभूत्या परया भक्त्यागत्यारभ्याष्टमीविनम् ॥३३६।। प्राष्टाह्निको महापूजां कुर्वन्ति पुण्यमातृकाम् । त्रिजगन्नाथमूर्तिनां विश्वचैत्यालयेषु च ।।३४०॥ अभिषेकं महग्नित्यं सुरनाथाः सुरैः समम् । द्विद्विप्रहरपर्यन्तमेककदिशि शान्तये ॥३४१।। कनकाञ्चकुम्मायभिगतनिभलाभिः । महोत्सवशतैर्वाद्यैर्जयकोलाहलस्वनः ॥३४२॥ नित्यं प्रकुर्वते भूत्या विश्वविघ्नहरं शुभम् । जिनेन्द्रविष्यविम्बानां गीतनृत्यस्तवैः सह ।।३४३।। अर्थः-६४ वनों के मध्य में वनों के सदृश नाम वाले देवों के प्रति मनोहर ६४ प्रासाद हैं। इन प्रासादों में से प्रत्येक प्रासाद ६२ योजन ऊँचे, ६२ योजन लम्बे, ३१ योजन चौड़े और द्वार आदि से विभूषित हैं ॥३३६-३३७|| प्रतिवर्ष निरन्तर आसाढ़, कातिक और फाल्गुन मास में चतुनिकाय के इन्द्र, देवों एवं देवांगनात्रों के साथ अपने अपने उत्तम बाहनों पर चढ़ कर परम विभूति और परमोत्कृष्ट भक्ति से अष्टमी को नन्दीश्वर द्वीप जाकर सर्व चैत्यालयों में स्थित जिनबिम्बों की पुण्य की भाता सदृश अष्टाह्निकी नाम की महापूजा करते हैं ॥३३८-३४७।। महा महोत्सव पूर्वक सैकड़ों वाद्यों एवं जयजयकार शब्दों के कोलाहल से युक्त, महाविभूति से, गीत, नृत्य और सहस्रों स्तुतियां गाते हुए, स्वर्ण और रत्नों के पड़ों से निकलती हुई निर्मल जल को धारा द्वारा, अन्य देव समूहों के साथ साथ सर्व इन्द्र, आत्म शान्ति के लिए नित्य ही प्रत्येक दिशा में दो दो पहर जिनेन्द्रों की दिव्य प्रतिमानों का सर्व विघ्न नाशक और वाल्याणप्रद महा अभिषेक करते हैं ॥३४१-३४३॥ अब चारों प्रमख इन्द्रों के द्वारा एक ही दिन में चारों दिशानों को पूजन का विधान कहते हैं :--- Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० ] सिद्धान्तसार दीपक इत्येकेन दिनेनात्र चतुर्दिग्जिनबेश्मसु । एका स्यान्महत्ती पूजा सम्पूर्णा च सुरेशिनाम् ॥३४४।। पूर्वाशायां जिनर्चानां सौधर्मेन्द्रो महामहम् । अष्ट भेदं सुरैः साधं विव्यानः करोति च ।।३४५।। पश्चिमाशास्थगेहेषु प्रतिमान भित्रिनाम् । विधत्ते परमा पूजामंशानेन्द्रोऽमरावृतः ॥३४६।। दक्षिणाशाप्रदेशस्थ चैत्यालयेषु भक्तितः । कुरते जिनमूर्तीनां चमरेन्द्रो महार्चनम् ॥३४७॥ उत्तराशामहोभागे शक्रो वैरोचनो मुदा । चैत्यालयस्थचत्यानां करोति पूजनं परम् ।।३४८।। इत्यमी प्रत्यहं मख्याश्चत्वारः सुरनायकाः । प्रदक्षिणाविधानेनात्रत्यश्रीजिनधामसु ॥३४६।। निजगद्द वदेवोभिः समं पूजामहोत्सबम् । कर्वते जिनमूर्तीना पूर्णमास्यन्तमञ्जसा 11३५०॥ अर्थ:-इस प्रकार नन्दोश्वर द्वीप स्थित जिन चैत्यालयों में एक ही दिन में चारों दिशानों में देवेन्द्र एक महान पूजा सम्पूर्ण करते हैं 11३४४।। अन्य देव समूहों के साथ साथ सौधर्म स्वर्ग का इन्द्र पूर्वदिशा में स्थित जिनप्रतिमाओं को प्रष्ट प्रकार की महामह पूजा दिव्य द्रव्य के द्वारा करता है ।।३४५।। अनेक देवों से प्रावृत ऐशानेन्द्र पश्चिमदिशागत जिनालयों में स्थित जिनेन्द्र बिम्बों की परम पुनीत पूजा करता है ॥३४६।। दक्षिण दिशागत क्षेत्र के चैत्यालयों में स्थित जिनबिम्बों की महामह पूजा चमरेन्द्र महान् भक्तिभाव से करता है ।। ३४७ ।। इसी प्रकार उत्तर दिशा स्थित चैत्यालयों के जिन बिम्बों की परमोत्कृष्ट पूजा वैरोचन इन्द्र अति प्रमोद पूर्वक करता है ॥३४८।। इरा उपर्युक्त विधि के अनुसार ये चारों प्रधान इन्द्र श्रेलोक्य स्थित देव देवियों के साथ प्रदक्षिणा क्रम मे मन्दीश्वरद्रीपस्थ जिमचैत्यालयों के जिनबिम्बों को पूजा, महामहोसत्र के साथ पूर्णिमा पर्यन्त करते हैं । अर्थात् पूर्वदिशा में सौधर्मेन्द्र, दक्षिण में ऐशानेन्द्र, पश्चिम में चमरेन्द्र और उत्तर में वैरोचन इन्द्र अपने सुरसमुह के साथ दो-दो पहर पूजन करते हैं। दोपहर बाद सौधर्मेन्द्र दक्षिण में प्रा जाते हैं, तब दक्षिगा वाले देव पश्चिम में और पश्चिम वाले उत्तर में तथा उत्तर दिशा वाले देव पूर्व में पाकर ऐन्द्रध्वज आदि महापूजा करते हैं । यह क्रम एक दिन का है, इम प्रकार अष्टमी से प्रारम्भ कर पूणिमा पर्यन्त देवगरण इसी क्रम से महामहोत्सव के साथ महामह प्रादि पूजन करते हैं ।।३४६-३५०।। Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमोऽधिकारः [३८१ उपर्युक्त ५२ चैत्यालयों का चित्रण निम्न प्रकार है : बलिकर सिकर 647 - - - प्रब नन्दीश्वरद्वीप के स्वामी कहते हैं : द्वीपस्य प्रवरस्यास्य स्यातां देवी सुरक्षको । जिमभक्तिपरौ नित्यं शुद्धप्रभमहाप्रभो ॥३५१॥ अर्थ:---जिनेन्द्र भगवान की भक्ति में परायण प्रभ और महाप्रभ नाम के दो देव इस महान नदीश्वर द्वीप की रक्षा करते हैं।।३५१ ।। Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ ] सिद्धान्तसार दोपक अब नन्दीश्वर समुद्र को एवं दो द्वीपों को अवस्थिति कहते हैं : ततस्तं परिवेष्टनास्ति नन्दीश्वरवराम्बुधिः । ततः स्यादरुणो द्वोपोऽरुणप्रभसमाह्वयः ॥३५२॥ अर्थ:-मन्दीश्वर द्वीप को परिवेष्टित करके नन्दीश्वर नामक महासमुद्र है, इसके आगे बां अरुण द्वीप और १० वा अरुणप्रभ नाम के द्वीप हैं ।।३५२।। अब फुण्डलद्वीपस्थ कुण्डलगिरि के ध्यास प्रावि का प्रमाण कहते हैं :-- अर्थकादशमो द्वीपो विख्यातः कुण्डलाभिधः । कण्डलाकारसंस्थानकुण्डलाचलभूषितः ।।३५३।। योजनानां सहस्राणि पञ्चसप्ततिरुन्नतिः । सहस्रपोजनामाहोऽस्याले च विस्तरः ॥३५४॥ सहस्रदशसंख्याविशाग्रद्विशतप्रमः । मध्ये च द्विशतत्रिंशद्य क्तसप्तसहस्रकः ॥३५५।। अग्रे व्यासः सहस्राणि चत्वारि द्वे शते तथा । योजनानि च चत्वारिंशत्कुण्डलमहीभृतः ॥३५६॥ इत्युक्तोत्सेधविस्तारः स्वर्णाभः कुण्डलाचलः । द्वीपस्य मध्यभागेऽस्ति कुण्डलाकृतिमाश्रितः ॥३५७।। अर्थ:--अरुणप्रभद्वीप के बाद ग्यारहवां कुण्डल नाम का विख्यात द्वीप है, जो कुण्डल के साकार वाले कुण्डलाचल पर्वत से विभूषित है ॥३५३।। यह पर्वत ७५००० योजन ऊँचा, १००० अवगाह ( नींव ) से युक्त, मूल विस्तार १०२२० योजन, मध्यविस्तार ७२३० योजन और शिखर विस्तार ४२४० योजन है ।।३५४-३५६।। कुण्डलद्वीप के मध्यभाग में कुण्डलाकृति का धारक उपर्युक्त उत्सेध एवं विस्तार से युक्त और स्वर्णाभा के सदृश कान्ति वाला कुण्डलाचल पर्वत है ।।३५७।। अब कुण्डलगिरिस्थ कूटों का अवस्थान, संख्या एवं व्यास प्रादि के प्रमाण का दिग्दर्शन कराते हैं : प्रस्यान मस्तके सन्ति कुटानि दिक्चतुष्टये । चत्वारि विदिशासु स्याद्रम्य कूटचतुष्टयम् ॥३५८।। तासामष्टदिशा मध्यान्तरेष्वष्टसु सन्ति च । अष्टौ महान्ति कटानोमानि कूटानि षोडश ॥३५६॥ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमोऽधिकारः अमीषा दूधष्टकूटानां मूर्धस्थरत्नसासु । पल्यकजीबिनो भूत्या नागवेवा वसन्ति च ।।३६०।। तेषामभ्यन्तरे मागे चतुःपूर्वादिदिक्षु च । चत्वारि मरिणकूटानि सन्ति सेव्यानि निर्जरैः ॥३६१।। कूटानां निराजन्ते चत्वारः श्रीजिनालयाः । देवसङ्घकृतनित्यं पूजोत्सवशतादिभिः ।।३६२।। एषां विशतिकूटानामुदयो योजनानि च । शतानि पञ्चमूले स्वास्सेधेन समविस्तरः ।।३६३॥ प्रने व्यासो मतः साद्विशतर्योजनैरिति । वर्णनः कुण्डलादिः स्यात् सुरसङ्घोत्सवप्रदः ।।३६४।। ___ अर्थ:-कुण्डलगिरि पर्वत पर पूर्वादि चारों दिशाओं में चार कूट हैं, और चारों विदिशानों में भी रमणीक नार फूट हैं ॥३५८|| इन आठों दिशाओं के मध्य आठ अन्तरालों में पाठ महान् बाट हैं । इस प्रकार पाठ दिशात्रों और पाठों अन्तरालों में कुल सोलह कृट हैं ।१३५६ ॥ इन सोलह कूटों के शिखर पर रत्नों के प्रासाद हैं. जिनमें एक पल्य की आयु वाले नागदेव महाविभूति के साथ रहते हैं । ॥३६०। इन दिशागत कूटों के अभ्यन्तर भाग में पूर्वादि चारों दिशाओं में देवों द्वारा सेव्यमान चार कट हैं। इन कूटों के शिखर पर ( प्रत्येक कूट पर एक ) चार जिनालय हैं, जिनमें देव समूहों के द्वारा नित्य ही सहस्रों पूजा महोत्सव किये जाते हैं ॥३६१-३६२।। ये बीसों वट पांच-पांच सौ योजन ऊचे हैं, इनका मूल विस्तार ५०० योजन और ऊर्ध्व-शिस्त्रर का विस्तार २५० योजन प्रमाण है । जहाँ निस्म देवों के द्वारा अनेक महोत्सव होते हैं ऐसे कुण्डलगिरि का वर्णन है ।।३६३-३६४।। अब शङ्खवरद्वीप और रुचकद्वीप को अवस्थिति कह कर रुघागिरि के व्यास प्रादि का प्रमारण कहते हैं :-- ततः शखबरद्वीपस्तस्माच्च रुचकाह्वयः । राजतेऽद्रिजिनागारैस्त्रिदशानन्दकारकः ॥३६॥ प्रस्य द्वीपस्य मध्येऽस्ति घलयाकार अजितः। अचलो रुचकामिख्यः पुण्यकर्मनिबन्धनः ।।३६६॥ प्रादौ मध्येऽचलस्याने सर्वत्र समविस्तरः । प्रोक्तश्चतुरशीतिश्च सहस्रयोजनानि च ।।३६७।। Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ ] सिद्धान्तमार दीपक स्वव्यासेन समोत्सेधो मन्तव्योऽस्य महागिरेः । सहस्रयोजनागाहोऽग्रे स्युः कूटान्य मून्यपि ॥३६८॥ अर्थ:-११ । कुण्डलवर द्वीप के बाद १२ वा शंखवर द्वीप है. और शंखवर द्वीप के आगे १३ वा रुचकवर द्वीप है, जो जिनेन्द्र भगवान के जिनालयों से देवों को प्रानन्द कारक है, ऐसे रुचकगिरि ( पर्वत ) से सुशोभित है ॥ ३६५ ॥ इस रुचकवर द्वीप के मध्य में शाश्वत और वलयाकार पुण्यकर्म को आकर्षण करने वाला रुचक नाम का पर्वत है ।। ३६६ ॥ इस पर्वत का प्रादि, मध्य और शिखर का सर्वत्र विस्तार समान है । अर्थात् सर्वत्र ८४००० योजन प्रमाण है ॥३६७॥ इस रुचक पर्वत की ऊँचाई भी अपने विस्तार के सदृश अर्थात् ८४००० योजन प्रमाण ही है, तथा अवगाह १००० योजन है । इस महागिरि के ऊपर अनेक कूट भी हैं ।।३६८।। अब रुचकगिरि पर स्थित कुटों का अवस्थान, संख्या, स्वामी और उनके कार्यों एवं व्यास प्रादि के प्रमाण का निधारण करते हैं : पूर्वाद्यासु चतुर्विश्वष्टौ कूटानि पृथक् पृथक् । प्रत्येक रुचकाल्या बहिर्भागे च मूर्धनि ।।३६६।। पूर्वाशास्थाष्टकूटेषु दिक्कुमार्यो वसन्ति ताः । याः शृङ्गारविधायिन्यो जिनमातुर्भवन्ति च ।।३७०॥ दक्षिणाशाष्टकूटाग्रस्थ सौधेषु वसन्ति च । मरिणदर्पणधारिण्योऽष्टौ तस्या दिक्कुमारिकाः ॥३७१।। पश्चिमाशाष्ट कूटेषु तिष्ठन्ति दिक्कुमारिकाः । मूर्यष्टौ छत्रधारिण्यो जिनाम्बाया मुवागताः ॥३७२॥ उत्तराशाष्टकूटेषु दिक्कुमार्यो वसन्ति ताः । जिनमातुरिहायाताश्चामराण्युत् क्षिपन्ति याः ॥३७३॥ तथास्याश्चतुदिक्षु पङ्क्त्या फूटानि सन्ति च । त्रीणि श्रीणि मनोज्ञानि प्रत्येकं हि ततोऽन्तरे ।।३७४॥ चतुःकूटेषु तिष्ठन्ति दिक्कुमार्यश्चतुःप्रमाः । ता या जिनजनन्याश्च निकटे संवनोत्सुकाः ॥३७५॥ अमीषां मध्यभागेषु चतुःकूटस्थयेश्मसु । वसन्ति दिक्कुमारीणां सन्महतरिकाः पराः ॥३७६।। Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमोऽधिकारः ३८५ तेषां मध्ये बसकटेषु चतस्रो वसन्ति ताः । . . या महत्तरिकारचाहमातकर्माणि कुर्वते ॥३७७॥ अमीषां सर्वकटानामन्तर्भाग भवन्ति च । चत्वारि मणिकूटानि चतुर्दिक्षु महान्त्यपि ।।३७८।। एतेषां मूनि राजन्से देवोत्थासर्बोत्सवोत्करैः। चैत्यालया जिनेन्द्राणां चत्वारो मणिभास्वराः ॥३७६॥ एषां समस्तकूटानामुदयां विस्तरो द्विधा । मलेग्ने च भवेत्कुण्डलस्थकूटः समानकाः ॥३०॥ अर्थ:-रुचक नाम के इस पर्णत के कार बहिर्भाग में पूर्ण, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर इन चारों दिशाओं में से पृथक पृथक् दिशा में पाठ आठ कुट हैं। अर्थात् कुल ३२ फूट हैं ॥३६६॥ पूर्व दिशागत पाठ कूटों में दिक्कुमारी देवियां रहती हैं, और ये जिनमाता के शृंगार आदि को क्रियाएँ करती हैं ।।३७०॥ दक्षिण दिशागत लटों के ऊपर स्थित प्रासादों में मरिणमय दर्पण धारण करने वाली आठ दिक्कुमारियां निवास करती हैं ॥३७१॥ पश्चिम दिशागत कष्टों के ऊपर स्थित प्रासादों में श्वेत छत्र धारण कर हर्षित मन से जिनमाता की सेवा करने वाली पाठ दिक्कुमारियाँ रहती हैं ॥३७२!! उत्तर दिशागत कूटों पर पाठ दिवकुमारियां रहती हैं, जो यहाँ जिनमाता के पास प्राकर चंवर ढोरती है ।। ३७३॥ तथा इसो पर्वत पर पूर्व प्रादि चारों दिशाओं में से पृथक् पृथक् दिशा में (पूर्वोक्त कूटों के अभ्यन्तर की ओर ) पंक्तिबद्ध प्रति मनोज्ञ तीन तीन कूट हैं ॥३७४॥ इनमें से चारों दिशाओं के चार कूटों ( एक एक कूट ) में चार दिक्कुमारियां रहती हैं. जो जिनमाता के निकट पाकर हर्षोल्लास पूर्वक सेवा करती हैं ॥३७५।। उपर्युक्त तोन तीन बूटों के मध्य में स्थित चारों दिशामों के चार कुटों पर जो प्रासाद हैं, उनमें अति निपुण महत्तरिका दिक्कुमारियां निवास करती हैं ।।३७६।। उन मध्य स्थित चार कूटों में जो चार महत्तंरिका निवास करती हैं, वे तीर्थकर के जन्म समय में जात कर्म करती हैं ।। ३७७।। इन सर्व कूटों के अभवन्तर की भोर चारों दिशाओं में जो रत्नमय चार महान कुट हैं, उनके शिखर पर देवों द्वारा किये हुए महान उत्सवों से युक्त और मणियों को प्रभा सदृश भास्वर जिनेन्द्र भगवान के चार फूट शोभायमान होते हैं ॥३७६॥ इन समस्त ( ३२+१२= ४४ ) कूटों की ऊँचाई तथा मूल और शिखर भाग के विस्तार का प्रमाण कुण्डलगिरि स्थित कुटों के समान है। अर्थात् इन समस्त कूटों का मूल विस्तार ५०० योजन, शिखर विस्तार २५० योजन और उस्सेध भी ५०० योजन प्रमाण है ।।३८०।। ( रुचकगिरि के क्लटों आदि का चित्रण अगले पृष्ठ पर देखें।) Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्तसार दीपक रुचकगिरि के कूटों आदि का चित्रण निम्न प्रकार है :-- Rania HAN SESA JAN 46.Net Lt-na AADSHAD A HARIHAR Matar --:-. -IAF 44AY .RA.R/ eo 44 ANDH SMSION alsr L Trol UAEAda U-AR कर. sammar ONEY सब कुछ द्वीप समुद्रों के नाम और व्यास कह कर उनको प्रकृत्रिमता बतलाते हैं : प्रथास्ति भुजगदीपस्ततः कुमावराभियः । द्वीपः कोऽधवराभिस्यो द्वीपो मनः शिलाख्यकः ॥३१॥ हरितालाहयो द्वीपो द्वीपः सेन्दुरसंज्ञकः । श्यामाको जनकद्वीपो हिगुलाख्यश्च रूप्यकः ॥३२॥ द्वीपः सुवर्णनामाथ द्वीपो बञाभिधानकः । वैडूर्यसंज्ञको भूतवरो यक्षवराभिषः ॥३८३॥ देवद्वीपस्तथाप्यन्ये शुभसामान आजताः। द्विगुणद्विगुणन्यासा द्वीपाः स्युः संख्पवजिताः ॥३४॥ समस्तद्वीपराशीनां सर्वेष चान्तरेषु । स्वस्यद्वीपोत्यनामानोऽसंख्येयाः सन्ति सागराः ॥३८५।। एते द्वीपाब्धयोऽसंख्या म केनापि विनिर्मिताः । किन्त्वविनावरा विश्वे सन्त्यनाचमनोहराः ॥३६॥ Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमोऽधिकार: [ ३८७ अर्थ:-रुचकावर द्वीप ने डर भुजगदीप, बाद कुमार नामक दोग, पश्चात् क्रौंचवर द्वीप, पश्चात् मनःशिल द्वीप, पश्चात् हरिताल द्वीप, पश्चात् सेन्दुर द्वीप, श्थामाङ्क द्वीप, प्रजन द्वीप, हिंगुल द्वीप, रूप्यक द्वीप, सुवर्ण द्वीप, वज नामक द्वीप, वडूयं द्वीप, भूतकर द्वीप. यक्ष द्वीप और देव द्वोप हैं, इस प्रकार आगे आगे शुभ नाग वाले और पूर्व पूर्व समुद्रों से दूने दूने विस्तार वाले असंख्यात द्वीप हैं ।।३८२-३८४॥ इन समस्त द्वीपों के अन्तरालों में अपने अपने द्वीप के नाम सदृश नाम वाले प्रसंख्यात ही सागर हैं ।।३८५।। ये सर्व असंख्यात द्वीप समुद्र अकृत्रिम हैं, अर्थात् किन्हीं के द्वारा बनाये नहीं गये, ये समस्त मनोहर द्वीप समुद्र शाश्वत अर्थात् अनाद्यनन्त हैं ॥३८६।। अब अन्तिम द्वीप एवं समुद्र का नाम, अवस्थान तथा व्यास प्रादि कहते हैं :-- सर्वद्वीपाधि राशीनां द्वीपो ज्येष्ठोऽस्ति चान्तिमः । मध्यलोकस्य पर्यन्ते स्वयम्भूरमणाह्वयः ।।३८७।। बहिमि तमावेष्टय स्वयम्भूरमणार्णवः । असंख्ययोजनध्यासो रज्जुसूचीयुतोऽस्ति च ॥३८८।। अर्थः-समस्त द्वीप समुद्रों में अर्थात २५ कोडाकोहि पल्योपम रोम प्रमाण द्वीप समुद्रों में सबसे बड़ा अन्तिम स्वयम्भूरमग नाम का द्वीप है, यह मध्यलोक के अन्त में अवस्थित है। इस द्वीप के बहिर्भाग में स्वयम्भूरमण द्वीप को वेष्टित किये हुए असंख्यात योजन वाला स्वयम्भरमण समुद्र है, इसका सूची व्यास एक राजू प्रमाण है ।।३८७-३८८॥ अब नागेन्द्र पर्वत, नियंग्लोक के अन्त में अवस्थित कर्मभूमि और उसमें रहने वाले तिर्यञ्चों का कथन करते हैं : - स्वयम्भूरमणद्वीपस्याऽस्ति वलयाकृतिः। श्रीप्रभात्यो महान शैलो भोग भूमिधराङ्गतः ॥३८६।। ततोऽचलादबहिर्भागे द्वीपाधै सकलेऽम्बुधौ । वर्तते कर्मपथ्येका चतुर्गतिकराङ्गिनाम् ।।३६०॥ पत्रोऽत्र सन्ति तिर्यञ्चः करा व्रतादिदूरगाः । संयतासंयताः केचित्पशवो सततत्पराः ।।३६१॥ अर्थ:--अर्घस्वयम्भूरमण द्वीप में अर्थात् स्वयम्भूरमण समुद्र के मध्य में, भोगभूमि को धरा से युक्त अर्थात् भोगभूमि में बलय के प्राकार को धारण करने वाला श्रीप्रभ (नागेन्द्र) नाम का महान् पर्वत है ॥३८६।। इस श्रीप्रभ नामक पर्वत के बाहर अर्ध स्वयम्भूरमण द्वीप और सम्पूर्ण स्वयम्भूरमण Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ } सिद्धान्तसार दोपक समुद्र में यहाँ स्थित जीवों को चारों गतियां प्रदान करने वाली एक कर्म भूमि है । यहाँ पर व्रत प्रादि से रहित और प्रायः क्रू र स्वभाव वाले तिर्यञ्च रहते हैं। इनमें कुछ तिर्यञ्च संयतासंयत अर्थात् देशबती हैं, जो अपने यतों में तार रहते हैं ।।३६०-३६१|| अब बाह्य पुष्कराध के रक्षक देव और मानुषोत्तर पर्वत की परिधि का प्रमारण कहते हैं :-- चक्षुष्मान् हि सुचक्षुश्चेमो देवौ परिरक्षकौ । मानुषोत्तरशैलस्य पुष्करार्धान्तिमस्य च ।।३६२॥ एकाकोटीद्विचत्वारिंश लक्षारिण सहस्रकाः। षनिशच्च शतान्येव सप्त स्फुट त्रयोदश ।।३६३ । योजनानां च गन्यूत्येकमिति प्रोक्तसंख्यया । परिधिः स्यादबहिर्भागे मानुषोत्तरसगिरेः ॥३६४।। तस्यैव परिधे ह्यभागेषु शाश्वता: स्थिताः । स्वयं प्रभाविपर्यन्ता ये द्वीपाः संख्यजिताः ॥३६५।। प्रर्थः-चक्षुष्मान् और सुचक्षुष्मान् ये दो देव बाह्य पुष्कराध द्वीप के अधिपति हैं । पुष्कराध के अन्त में अवस्थित मानुषोत्तर पर्वत को परिधि १४२३६७१३ योजन और एक कोस प्रमाण कही गई है। परिधि का यह प्रमाण मानुपोत्तर पर्वत के बाह्य भाग का है। इस ही परिधि के बाह्यभाग से प्रारम्भ कर स्वयंप्रभ ( नागेन्द्र ) पर्णत पर्यन्त असंख्यात द्वीप हैं ॥३९२-३६५।। सेषु द्वीपेष्यसंख्येषु जघन्याभोगभूमयः । सम्बन्धिन्यस्ति रश्चां स्युः केवलं संख्यदूरगाः ॥३६६।। पातु सर्वासु लिर्यञ्चो गर्भजा भद्रकाः शुभाः । युग्मरूपाश्च जायन्ते पञ्चाक्षाः करतातिगाः ॥३६७।। एकपल्योपमायुष्का मृगावि शुभजातिजाः । कम्पमसमुत्पन्नभोगिनो वैरबजिताः ।।३६८।। मन्दकषायिणोऽप्येते मृत्वा यान्ति सुरालयम् । ज्योतिर्भावन भौमेषु न स्वर्ग दर्शनं बिना ॥३६६।। कुपात्रवानपुण्यांशात् कुत्सिताभोगकांक्षिणः । केवलं दग्वतातीता जायन्तेऽत्राबुधाङ्गिनः ।।४००। Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमोऽधिकारी [ ३८६ न सन्त्यासु समस्ताशु यस जन्लव, श्यचित् । कृमिकुन्थ्वादिदंशाधाः क्रूरा वा विकलेन्द्रियाः ॥४०१॥ अर्थ:--मानुषोत्तर पर्वत के बाह्य भाग से नागेन्द्र पर्वात पर्यन्त जो असंख्यात द्वीप हैं, उनमें जघन्य भोगभूमि की रचना है। इस जघन्य भोगभूमि में मात्र तिर्यंच रहते हैं, उनको सपा असंख्यात है, अर्थात् असंख्यात तिथंच रहते हैं ।। ३६६ ।। इन द्वीपों में रहने वाले सभी तिर्यच गर्भज, भद्र', शुभ परिणति से युक्त, पंचेन्द्रिय और फरता रहित होते हैं । इनका जन्म युगल रूप से हो होता है ।।३६७। यहाँ जो तिथंच उत्पन्न होते हैं, वे मृग ग्रादि शुभ जातियों में उत्पन्न होते हैं, एक पल्य को प्रायु के धारक एवं वर मात्र से रहित होते हैं, तथा कल्पवृक्षों से उत्पन्न भोग भोगते हैं ॥३६॥ ये जीव मन्द कषायी होते हैं. अतः मर कर स्वर्ग हो जाते हैं। जिन्हें सम्यग्दर्शन नहीं होता वे भवनत्रिक में उत्सन्न होते हैं ।।३६६|| जो मूड जीव सम्यग्दर्शन और व्रतों से रहित हैं, तथा कुपात्रदान से उत्पन्न कुछ पुण्य, उससे जो कुत्सित भोगों को बांछा करते हैं, वे जीव मरकर इस भोगभूमि में उत्पन्न होते हैं ॥४००॥ इस जघन्य भोगभूमि की समस्त धरा पर कृमि, कुन्थु एवं मच्छर आदि तुच्छ जन्तु, क्र र परिणामी जीव एवं विकलेन्द्रिय जीव कभी भी उत्पन्न नहीं होते ॥४०१॥ अब विकलेन्द्रिय जीवों के एवं मत्स्यों के उत्पत्ति स्थान बतलाकर तीनों समुद्रों में उत्पन्न होने वाले महामत्स्यों के व्यास आदि दर्शाते हैं :-- किन्तु ते विकलाक्षाः स्युः सार्धद्वये सदा । स्वयम्भूरमणार्धे च स्वयम्भूरमणाद्वहिः ।।४०२।। लघणोदे च कालोदे स्वयम्भूरमणार्णवे । मत्स्या जलचरामन्ये भवन्ति करमानसाः ॥४०३॥ शेषासंख्यसमुद्रेषु मत्स्याद्या जातु सन्ति न । भोगक्ष्मामध्यभागे स्थितेनु वयक्षादयो न था ॥४०४।। स्वयम्भूरमणाम्भोधेस्तीरे पञ्चशतायताः । योजनानां महामत्स्याः सन्ति सन्मूर्छनोद्भवाः ।।४०५॥ सहस्रयोजनायामा अन्धेरभ्यन्तरे स्थिताः । मत्स्याः सन्मूर्छनोत्थास्तदर्धायामाश्च गर्भजाः ॥४०६॥ नद्यास्ये लवणाम्भोधौ मत्स्याः सन्मूच्र्छनोद्भवाः । नवयोजन दीर्घाङ्गास्तदर्धाङ्गाश्च गर्भजाः ॥४०७।। Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० ] सिद्धान्तसार दीपक अस्यवाभ्यन्तरे तेऽष्टादशयोजनसम्मिताः । सम्मन्छनभवा गर्भजा योजननवायताः ॥४०८।। योजनाष्टावशायामाः कालोदस्य नदीमुखे । सम्मन्छनजदेहास्ते गर्भजा नव योजनाः ॥४०६।। कालोदाभ्यन्तरे मत्स्याः शिद्योजनायताः। सन्मच्छनोभवाश्चान्ये योजनाष्टादशायताः ॥४१०॥ सहस्रयोजनायामा ये पञ्चशतविस्तृताः । ते सार्धद्विशतोत्सेधाः स्युश्चेति सर्वमत्स्यकाः ॥४११।। व्यास: स्यात् सर्वमत्स्यानां स्वाङ्गदीर्घाद्ध मेव च । व्यासाङ्गस्य यवध स उत्सेधोऽन्यत्र चेत्यपि ॥४१२॥ अर्थ:--किन्तु वे विकलेन्द्रिय जीव जम्बूद्वीप आदि अढाई द्वीप में, अर्धस्वयम्भूरमण द्वीप में और स्वयम्भूरमण समुद्र के बाह्य प्रदेश में होते हैं। लवणोदधि समुद्र में, कालोदधि समुद्र में और स्वयम्भूरमण समुद्र में अन्य जलचर जीव और कें र मन वाले मत्स्य रहते हैं । शेष असंख्यात समुद्रों में मत्स्य प्रादि जीव कभी भी नहीं पाये जाते। भोगभूमि क्षेत्रों में द्वीन्द्रिय प्रादि जीव पैदा नहीं होते १४०२-४०४३ स्वयम्भूरमण समुद्र के किनारे पर सम्मुच्र्छन जन्म और ५०० योजन आयाम वाले महामत्स्य पाये जाते हैं ।।४०५।इसी समुद्र के मध्य में सम्मूर्छन जन्म से उत्पन्न १००० योजन लम्बे मत्स्य रहते हैं, और गर्भन मत्स्य ५०० योजन लम्बाई वाले रहते हैं ॥४०६।। लवणसमुद्र के नदी मुख पर ह योजन लम्बे सम्मूच्र्छन जन्म वाले और ४३ योजन लम्बे गर्भजन्म बाले मत्स्य रहते हैं। ॥४०७।। इसी समुद्र के मध्य में १८ योजन लम्बे सम्मूद्धं न जन्म वाले और ६ योजन गर्भ जन्म वाले मत्स्म रहते हैं ॥४०८।। कालोदधि समुद्र के नदो मुख पर १८ योजन लम्बे सम्मूच्र्छन जन्म वाले और ह योजन लम्बे गर्भ जन्म वाले मत्स्य रहते हैं ।।४०६।। कालोदधि के मध्य में ३६ योजन लम्बे सम्मूच्र्छन जन्म वाले और १० योजन लम्बे गर्भ जन्म वाले मत्स्य रहते हैं ।।४१०।। स्वयम्भूरमण समुद्र के महामत्स्यों का शरीर १००० योजन लम्बा, ५०० योजन चौड़ा और २५० योजन ऊँचा है ।।४११।। अन्य शेष समुद्रों के मत्स्यों के अपने अपने शरीर को जितनी लम्बाई होती है, व्यास उससे प्राधा होता है, तथा व्यास के अधं भाग प्रमाण शरीर की ऊँचाई होती है ।।४१२।। ___ अब एकेन्द्रिय ( कमल ) और विकलेन्द्रिय जीवों के शरीर का पायाम मादि कहते हैं :-- सहस्रयोजनःर्घा योजनव्याससंयुताः । पद्माः सन्ति महाम्भोधौ द्विक्रोशाय : किलान्तिमे ।।४१३।। Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमोऽधिकारः [ ३६१ योजनद्वादशायामा मुखे चतुष्कयोजनः । व्यासान्विताः स्वदीर्घस्य पञ्चभागकृतात्मनाम् ॥४१४॥ भागश्चतुभिरत्सेधयुसाः शङ्खा भवन्ति च । त्रिकोशायामसंयुक्तास्तदष्टमांशविस्तराः ।।४१५॥ नयासम्पार्धाशलोत्मेधा गोभीनां सन्ति चोचमाः । भृङ्गा योजनदीर्घाडाः क्रोशत्रितयविस्तृताः ।।४१६॥ कोशद्वयसमुत्तुङ्गा उत्कृष्टाङ्गा भवन्ति च । द्वीपाऽन्तिमाधी स्युविकलाख्या इमे या ॥४१७॥ शङ्खानामायामः द्वादशयोजनानि मुखे व्यासश्चत्वारि योजनानि, स्वायामस्य पञ्चभागानामुदयश्चत्वारो भागा । गोभीनामायामस्त्रयः क्रोशा: व्यासः क्रोशस्यष्टभागानां त्रयोभागाः, उदयः क्रोशाष्ट भागानां साधैंकोभागः। अर्थ:-अन्तिम स्वयम्भूरमण समुद्र में १००. योजन लम्बा, एक योजन व्यास वाला तथा को कोस की कणिका से युक्त कमल है ।।४१३॥ उत्कृष्ट अवगाहना वाले शंख की लम्बाई १२ योजन, मुख ध्यास ४ योजन और १२ योजन प्रायाम के १२ भागों में से ५ भाग अर्थात् ५ योजन का चौथा भाग (१-१ योजन) ऊँचाई (उत्सेध) है । तेंद्रिय गोभी को उत्कृष्ट लम्बाई ३ कोस, चौड़ाई (३४३) ३ कोस तथा ऊँचाई व्यास ( है ) का प्राधा अर्थात् (x)-4 कोस प्रमाण है । चतुरिन्द्रिय भौरे की उत्कृष्ट लम्बाई एक पोजन, चौड़ाई ३ कोस और ऊँचाई दो कोस प्रमाण है । स्वयम्भूरमण समुद्र के अन्तिम अर्ध भाग में ये तीनों प्रकार के विकलेन्द्रिय जीव होते हैं ॥४१४-४१७।। प्रय समुद्रों के जलों के स्वाद का निर्धारण करते हैं : लवणाधौ जलं क्षारं लवणस्वादमस्ति च । वारणी दरवाधौँ स्यादुदकं मद्यसनिमम् ॥४१८॥ क्षीराब्धीक्षीरसुस्वासशाम्भो भवेन्महत् । घृतस्वादुसमं स्निग्धं जलं स्यात् घतवारिधौ ।।४१६॥ कालोवे पुष्कराम्भोधी स्वयम्भूरमणार्णवे । केवलं जलसुस्वावं जलौघं च भवेत्सदा ।।४२०॥ एतेभ्यः सप्तवाद्विभ्यो परेऽसंख्यातसागराः । भवन्तोक्षुरसस्वावसमानामधुराः शुभाः ।।४२१॥ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतसार दीपक अर्थ-लवण समुद्र के जल का स्वाद नमक के सदृश खारा है । वारुणीवर समुद्र के जल का स्वाद मद्य के स्वाद सदृश है। क्षीरवर समुद्र के जल का स्वाद दूध के स्वाद समान है और घृत वर समुद्र के जल का स्वाद एठां स्निग्धता घी के सदृश है ।।४१५-४१९।। कालोदधि पुष्करवर समुद्र और स्वयम्भूरमण समुद्रों के जल का स्वाद सुमधुर जल के स्वाद सरश है। इन सात समुद्रों को छोड़ कर अवशेष असंख्यात समुद्रों के जल का स्वाद अत्यन्त स्वादिष्ट शारस के सदृश मधुर और सुस्वादु है ।।४२०-४२१॥ अब सर्व द्वीप समुद्रों के व्यास से स्वयम्भूरमण समुद्र के व्यास की अधिकता का प्रमाण कहते हैं : समस्तद्वोपयार्थीनां व्यासात पिण्डीकृताद्भवेत् । स्वयम्भूरमणश्चाधिकच्यासो लक्षयोजनैः ॥४२२॥ इति प्रारद्वोपवाधिभ्योऽपरोद्वीपोऽथ चाम्बुधिः।। भवेवधिकविष्कम्भो लक्षकयोजनः स्फुटम् ॥४२३॥ अर्थः-समस्त द्वीप समुद्रों का व्यास एकत्रित करने पर जितना प्रमाण होता है, उससे स्व. यम्भूरमण समुद्र का व्यास एक लाख योजन अधिक है । इसी प्रकार पूर्व पूर्व द्वीप और समुद्रों के व्यास से आगे प्रागे के द्वीप मोर समुद्रों का व्यास भी एक एक लाख योजन अधिक होता है ॥४२२-४२३।। अब मध्यलोक के वर्णन का उपसंहार एवं प्राचार्य अपनी लघुता प्रगट करते हैं :-- इत्येवं विविधं जिनेन्द्रगदितं श्रीमध्यलोक परम्, किञ्चिच्छास्त्रधिया मया च विधिना संवणितं मुक्तये । धर्मध्याननिबन्धनं सुनिपुणाः सद्धर्मसंसिद्धये, सध्या वचसा पठन्तु विमलं कृत्वा च तनिश्चयम् ॥४२४॥ अर्थ:-इस प्रकार भगवान् जिनेन्द्र के द्वारा कहा हा मध्य लोक का नाना प्रकार का उत्कृष्ट वर्णन मैंने मुक्ति की प्राप्ति के लिए पागमानुसार विधिपूर्वक किया है. यह वर्णन धर्मध्यान का निबंधक है । इसमें यदि कहीं कुछ भूल हुई हो तो सज्जन पुरुष उत्तम धर्म ( शिव ) को प्राप्ति के लिए इसे अपनी बुद्धि से शुद्ध करके पढ़ें ॥४२४।। अधिकारान्त मङ्गलाचरण :-- येऽस्मिन् सन्ति सुमध्यलोकसकले श्रीमब्जिनेन्द्रालयाः, श्रीनिर्वाणसुभूमयो बुधनुताः श्रीधर्मतीर्थाधिपाः । Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमोऽधिकारः प्रस्मात् सिद्धिपदं गता प्रवपुषोऽनन्तास्त्रिधा साधव स्तान सर्वात सुगुणैः स्तुपेऽहमनिशं वन्दे च तब्भूतये ॥४२५॥ इतिश्री सिद्धांतसारदीपकमहामन्थे भट्टारक श्रीसकलकोति विरचिते मध्यलोकवर्णनो नाम दशमोऽधिकारः । अर्थ:-इस उत्तम मध्यलोक में श्री जिनेन्द्र भगवान के जितने भी जिन मन्दिर हैं उन सबको, धर्म तीर्थ के अधिपति जहाँ से मोक्षपद को प्राप्त हुए हैं, ऐसे समस्त निर्माण क्षेत्रों को और सिद्ध पद प्राप्त करने वाले अनन्त आचार्य उपाध्याय और सर्व साधुनों को मैं उनके उत्तम गुणों के साथ साथ मोक्ष विभूति की प्राप्ति के लिए अहर्निश स्तुति करता हूँ, और नमस्कार करता हूँ॥४२५।। इस प्रकार भट्टारक सकलकीति विरचित सिद्धान्तसारदीपक नाम महामन्य में मध्यलोक का वर्णन करने वाला दशवाँ अधिकार समाप्त ।। Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशोऽधिकारः मङ्गलाचरण :-- श्रीमतस्त्रिजगन्नाथान स्वर्मक्तिश्रीकरानसतास् । वन्दे धर्माधिपान पञ्चपरमेष्ठिन जत्तमात ।।१!! अर्थः—जो तीन जगत के नाथ हैं, सज्जन पुरुषों को स्वर्ग और मोक्ष लक्ष्मी प्रदान करने वाले हैं तथा धर्म के अधिनायक हैं, ऐसे परमोत्कृष्ट पंचपरमेष्ठियों को मैं नमस्कार करता हूँ ॥१॥ अब वक्ष्यमारण विषय की प्रतिज्ञा करते हैं :---- अथ यैः पूरितो लोकः क्वचित्मचित्त्रसाङ्गिभिः । सर्वत्र स्थाबरैर्जीव नामेवश्च भूरिभिः ॥२॥ प्रायुः कायाक्षसंस्थानजातिबेदकुलादिभिः ।। तांस्त्रसान् स्थावरान् सर्वान् वक्ष्ये सतां दयाप्ततये ॥३॥ अर्थः—यह लोक कहीं कहीं अस जीवों से भरा हुआ है, किन्तु स्थावर जीवों से तो सर्वत्र भरा हुआ है, अतः सज्जन पुरुष दया पालन कर सकें. इसलिए मैं सर्व त्रस और स्थावर जीवों के नाना प्रकार के भेद-प्रभेद, आयु, काय, इन्द्रियाँ, संस्थान, जाति, वेद और कुल आदि का विवेचन करूगा ।।२-३|| अब जीव के भेद और सिद्ध जीव का स्वरूप कहते हैं :-- सिद्ध संसारिभेदाभ्यां स्युद्विधा जीवराशयः । सिद्धामेदादिनिष्क्रान्ता अनन्ता ज्ञानमूर्तयः ।।४।। अर्थ:-सम्पूर्ण जीव राशि सिद्ध और संसारी के भेद से दो प्रकार की है, जिसमें सिद्ध जीव भेद-प्रभेदों से रहित और अनन्त ज्ञान मूर्ति स्वरूप हैं ॥४॥ अब संसारो जोय के भेद कर स्थावर जीवों के प्रकार बतलाते हैं :-- त्रसस्थावर भेवाभ्यां द्विधा संसारिणोऽङ्गिनः । पृथिव्याविप्रकारेश्व पञ्चधा स्थावरा मताः ॥५॥ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशोऽधिकार [ ३६५ अर्थः:- स और स्थावर के भेद से संसारी जीव दो प्रकार के हैं, उनमें से स्थावर जीव पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति कायिक के भेद से पांच प्रकार के हैं ॥१५॥ प्र स और स्थावर जीवों की पृथक् पृथक् संख्या कहते हैं। :-- पृष्ठयप्तेजोऽग्निमरुन्नित्येतर कायमयात्मनाम् । सप्तसतंय लक्षारिण प्रत्येकं सन्ति जातयः ||६|| जातयो दशलक्षाणि वनस्पतिशरीरिणाम् । प्रत्येकं द्विद्विलक्षारिण द्वित्रितुर्येन्द्रियात्मनाम् ॥७॥ तिर्यग्नारदेवानां प्रत्येकं स्युश्च जातयः । चतुर्लक्षाणि लक्षाणि चतुर्दशनृजातयः ||८|| इत्थं चतुरशीतिश्च लक्षाणि जीवजातयः । प्रधुना विस्तरेषां काञ्चिज्जाति ब्रुवे पृथक् ॥६॥ अर्थ :- पृथ्वीकायिक, जलकायिक, श्रमिकायिक, वायुकायिक, नित्यनिगोद और इतरनिगोद इन छह प्रकार के जीवों में से प्रत्येक की सात-सात लाख जातियाँ ( योनियाँ ) होतीं हैं । वनस्पति कायिक जीवों की दश लाख, द्वीन्द्रिय जीवों को दो लाख, त्रेन्द्रिय की दो लाख चतुरिन्द्रिय की दो लाख, पंचेन्द्रिय तिर्यंचों की चार लाख, नारकियों की चार लाख, देवों की चार लाख और मनुष्यों की चौदह लाख जातियाँ होती हैं । इस प्रकार सम्पूर्ण संसारी जीवों की कुल जातियाँ (७ ला० + ७ ला० + ७ ला०+७ला० + ७ ला० + ७ ला०+१० ला० + ६ ला० + ४ ला०+४ ला०+४ ला० + १४ ला०)=८४००००० अर्थात् चौरासी लाख जातियाँ ( योनियाँ ) होती हैं । अब इन जातियों में से कुछ जातियों का पृथक् पृथक् विस्तार पूर्वक कथन करते हैं ।।६-६ ।। अब पृथ्वी के चार भेद और उनके लक्षण कहते हैं :-- पृथिवी पृथिवीकायः पृथिवीकायिकस्तथा । पृथिवीजीव इति ख्याता पृथ्वीभेदाश्चतुविधाः ॥१०॥ मार्गपदिता धूलिः पृथिवी प्रोच्यते बुधैः । निर्जीव इष्टिकादिश्च पृथिवीकायो मतः श्रुते ॥११॥ सजीवा पृथिवी सर्वा पृथिवोकायिको भवेत् । विग्रहाध्वानमापन्नोऽङ्गो पृथ्वीजीव उच्यते ॥ १२ ॥ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ ] सिद्धान्तसार दीपक श्रर्थः पृथ्वी के चार भेद कहे गये हैं, पृथ्वी, पृथिवोकाय, पृथिवोकायिक और पृथ्वीजीव ॥ १०॥ विद्वानों के द्वारा मार्ग की उपमदित धूल को पृथिवी कहा गया है। तथा आगम में निर्जीव ईंट आदि को पृथिवीकाय, सम्पूर्ण सजीव पृथ्वी को पृथिवीकायिक और पृथिवीकायिकों में जाते हुए, पृथिवी कार्यिक नामकर्म के उदय से युक्त विग्रहगति में स्थित जीव को पृथिवी जीव कहा है ।।११-१२ ।। नोट :- पृथ्वी और पृथ्वीकाय यद्यपि दोनों प्रचित्त हैं, तथापि पृथ्वी में पुनः जीव उत्पन्न हो सकता है किन्तु पृथ्वीकाय में पुनः पृथ्वी जीव उत्पन्न नहीं हो सकता । : इसी प्रकार अब जल, अग्नि और वायु के चार-चार भेद और लक्षण कहते हैं :अप् तथैवाशरीरं चाऽपकायिकोऽजीव इत्यपि । भेदाश्चत्वार श्राम्नाता जिनश्कायकात्मनाम् ॥ १३ ॥ जल मान्दोलितं लोकंः सकर्वमं तथाप मदेत् । उष्णोदकं च निर्जीवमन्यद्वाय्काय उच्यते ॥ १४ ॥ जलकाययुतः प्राणी चापकायिको निगद्यते । अप्कायं नेतुमागच्छन् जीवोऽपूजीवो गतौ मयेत् ।।१५।। पूर्व तेजश्च तेजः कायस्तेजः कायिकस्तथा । तेजोजोव इमे भेवाश्चत्वारस्तेजसां मताः ॥१६॥ भस्मनाच्छादितं तेजो मात्रं तेजः प्ररूप्यते । जीवोज्झितं च भस्मादि तेजःकाय इहोच्यते ॥१७॥ तेजःकायमयो देही तेजःकायिक इष्यते । तेजोऽङ्गार्थं व्रजन्मार्गे तेजोजीष मतो बुधैः ॥ १८॥ वायुश्च वायुकायोऽथ तृतीयो वायुकाधिकः । वायुजीव इमे भेदाश्चत्वारो वायुदेहिनाम् ॥१६॥ रजःपुञ्जमयो वायुभ्रं मन् वाजिनः स्मृतः । जीवातीतो मरुत्पुद्गलो वायुकाय ईरितः ||२०|| वायुः प्राणमयः प्राणी प्रोदितो वायुकायिकः । बाताङ्गयं व्रजन्मार्गेऽङ्गी वायुजीब उच्यते ॥ २१ ॥ श्रर्थः - जिनेन्द्र भगवान् ने जलकाय जीवों के जल, जलकाय, जनकायिक और जलजीव इस प्रकार चार भेद कहे हैं || १३ || लोगों के द्वारा ग्राडोलित एवं कीचड़ सहित जल को जल कहते हैं । उष्ण निर्जीव जल को जलकाय, जलकाय युक्त जीव को जलकायिक तथा जलकाय में जन्म लेने के Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशोऽधिकार [ ३९७ लिए जाते हुए विग्रहगति में स्थित जीव को जलजीव कहते हैं ॥१४-१५। पूर्ववत् तेज काय जीवों के तेज, तेजकाय, तेजकायिक और तेज जीव इस प्रकार चार भेद कहे हैं ।। १६ ॥ भस्म से आच्छादित अग्नि को अर्थात् किञ्चित उष्ण भस्म को तेज कहते हैं। जिसमें से जीव निकलकर चला गया है, उस भस्मादि को तेज काय कहते हैं। तेज काय सहित जीव को तेजकायिक और तेजनाम कर्म से युक्त जो जीव विग्रहगति में स्थित हैं उन्हें विद्वानों ने तेजजीव कहा है ।।१७-१८।। बायु जीवों के वायु, वायुकाय, वायुकायिक और वायुजीव इस प्रकार चार भेद होते हैं ।।१६।। धूलपुञ्ज से युक्त भ्रमण करती हुई वायु ( प्राधियों ) को जिनेन्द्र देव न वायु कहा है । जीव से रहित पंखे आदि को पोद्गलिक वायु देह को वायु काय कहते हैं। प्राण युक्त बाय का वायुकायिक और वायुगति में आने वाले विग्रह गति स्थित जीव को वायु जोष कहते हैं 11२०-२१॥ मन वनस्पति के चार भेद कह कर उनके भिन्न भिन्न लक्षण बतलाते हैं :-- प्रादौ वनस्पतिश्चाथ बनस्पतियपुस्ततः । वनस्पत्यादिकः कायिको वगरपतिबीयवार :२॥ घनस्पत्या प्रमी भेदाश्चत्वारः कीर्तिता जिनः। अन्तर्जीक्यतोबाह्यत्यक्तजीवो वनस्पतिः ॥२३॥ वनस्पतिवपुः स्मृतः छिन्नभिन्न तृणादिकम् । वनस्पत्यङ्गयुक्तोऽङ्गीस्यादनस्पतिकायिकः ॥२४॥ प्राकशरीरपरित्यागे वनस्पत्यसिद्धये ।। प्रारणान्तेऽङ्गी गति गच्छन स्याद्वनस्पतिजीयवाक ॥२५॥ अर्थः--वनस्पति, वनस्पतिकाय, वनस्पतिकायिक और वनस्पति जीव ऐसे वनस्पति के चार भेद जिनेन्द्र देव के द्वारा कहे गये हैं । अभ्यन्तर भाग जीव युक्त है और बाह्य भाग जीव रहित है. ऐसे वृक्ष प्रादि ( कटे हुए हरे वृक्ष ) को बनस्पति कहते हैं ॥२२-२३॥ छिन्नभिन्न किये हुए तृणादिक को वनस्पति काय माना गया है, जीव सहित वनस्पति काय को वनस्पति कायिक कहते हैं, और पाय के अन्त में पूर्व शरीर को त्याग कर जो जीव बनस्पति काथिकों में उत्पन्न होने के लिये विग्रहगति में जा रहा है, उसे वनस्पति जीव कहते हैं ।।२४-२५॥ अब इन पंच स्थावरों के चार चार भेवों में से कितने चेतन और किसने प्रचेतन हैं इसका निर्धारण करते हैं :-- एतेषां प्राक्तनो भेदःकिश्चित्प्राणाश्रितो मतः । पृथ्व्यादीनां द्वितीयस्तु केवलं जीषपूरगः ॥२६॥ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ ] सिद्धान्तसार दीपक जीवयुक्तस्तृतीयश्चचतुर्थो भेद ईरितः । स्यक्तप्राग्वपुषां भाविपृथ्व्याद्यङ्गाय गच्छताम् ॥२७।। एतान् भेदान् बुधैत्विा सचेतनानचेतनान् । पृथ्ख्यादीनां सुरक्षाय कर्तव्यं यत्नमासा ।।२।। अर्थः-इन पंच स्थावरों के चार चार भेदों में से प्रथम भेद किंचित् जीव युक्त होता है । द्वितीय भेद मात्र अजीव होता है, तृतीय भेद जीव सहित होता है, और चतुर्थ भेद में जीव पूर्व शरीर को छोड़ कर पृथ्वी आदि शरीर को धारण करने के लिये जाता है अतः यह चेतन ही है । इस प्रकार विद्वानों के द्वारा कहे हुये भेदों में चेतन अचेतन भेदों को जान कर पृथ्वी आदि पंच स्थावरों की रक्षा के लिए यत्न करना चाहिए ॥२६-२८।। अब पृथ्वीकायिक जोवों में से मृटुपथ्वीकायिक जोवों के भेदों का निरूपण फरते हैं : मृत्तिका वालुका लोहं लवणं सागरादिजस । तान रूप्यं स्वर्ण च विपुषः सीसकं तथा ॥२६॥ हिङगुलं हरितालं च मनःशिलाथ सस्यकम् । प्रजनं ह्यभ्रकं चाभ्रवालुकामी हि षोडश ॥३०॥ मेदा मृदुपश्चोकायात्मनां प्रोक्ता जिनागमे । इशानी खरपृथ्वीनां भेदान मण्यादिकान् अवे ॥३१।। अर्थ:-मिट्टी, बालुका, लोहा, समुद्र आदि में उत्पन्न होने वाला नमक, ताम, चाँदी, स्वर्ण, त्रिपुष (कथीर या रांगा), सोसा, हिंगुल, हरताच, मनःशिला, जस्ता, प्रजन (नौलाथूथा या सुरमा), अभ्रक और भोडल ये सोलह भेद जिनागम में कोमल पृथ्वोकायिक जीवों के कहे गये हैं, अब खर पृथ्वी के मरिण आदि भेदों को कहते हैं ।।२९-३१॥ अब खर पृथ्वी के भेदों का निरूपण करते हैं :-- प्रवालं शर्करा वन शिलोपलं ततः परम् । कर्केतनमरिणाम्ना रजकाख्यो मणिस्ततः ॥३२॥ चन्द्रप्रभोऽथ बैडूर्यकोमणिः स्फटिको मणिः । जलकान्तो मणिःसूर्यकान्तश्च गैरिको मरिणः ॥३३॥ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशोऽधिकाराः [ ३६६ चलनः पारामाग्यो मणिर्मरकताड्यः । वको मोचो मरिणमसृरणपाषाणसंज्ञकः ॥३४।। एते विशतिसभेवाः पृथ्वीकायमयात्मनाम् । खराख्यारणां सुभध्यानां दबायेगरिणभिर्मताः ॥३५॥ अर्थः–प्रवाल, शर्करा, हीरा, शिला, उपल ( पत्थर ), कर्केतनमणि, रजकमरिण, चन्द्रप्रभमणि, बड्यंमणि, स्फटिकमरिण, जलकान्तमणि, सूर्यकान्तमणि, गरिकमणि, चन्दनमणि, पद्मराग, मरकतमरिण, वकमणि, मोचमरिण, वैमसृरण और पाषाण खर पृथ्वी स्वरूप पृथ्वीकायिक जीवों के ये बीस भेद भव्य जीवों के दया पालनाधं गणधर देवों के द्वारा कहे गये हैं ।।३२-३।। अब पृथिवीकायिक पृथ्वी से बने हुए पर्वत एवं प्रासादों आदि का कथन करते हैं : रत्नप्रभादयः सप्तपृथ्व्यश्चंत्यद्र माखिलाः । मेर्वाद्याः पर्वताः सर्वे वेविकातोरणादयः ॥३६।। त्रिलोकस्थ विमानानि जम्वाधाः सकलाद्र माः। नुविद्येशसुराणां च प्रासादाः कमलानि च ॥३७॥ स्तूपरत्नाकराद्या पृथ्वीकायमयाश्च ते । सर्वे ह्यन्तर्भवन्त्येषु पृथ्वीभेवेषु नान्यथा ॥३८॥ एतान् पृथ्वीमयान् जीवान पृथ्वीकायाश्रितान बहून् । सम्यग्ज्ञात्वा प्रयत्नेन रक्षन्तु साधवोऽनिशम् ।।३६॥ प्रर्श:-रत्नप्रभा आदि सातों पृथिवियाँ, सम्पुर्ण चैत्यवृक्ष, मेरु प्रादि सर्व पर्वत, वेदिकाएँ एवं तोरण आदि, त्रैलोक्य स्थित विमान, जम्बू आदि समस्त वृक्ष, मनुष्यों, विद्याधरों और देवों के प्रासाद, पन यादि सरोवरों में स्थित कमल, स्तूप और रत्नाकर आदि ये सब पृथ्वीकायमय है, और इन सबका अन्तर्भाव पृथ्वीकाय के भेदों में ही होता है, अन्य में नहीं। पृथ्वीकाय के आश्रित रहने वाले इन सत्र पृथ्वीमय जीवों को भली प्रकार जान कर सज्जन पुरुषों को अहर्निश इनको रक्षा प्रयत्नपूर्वक करना चाहिए ।।३६-३६॥ अब जलकायिक जीवों के भेदों का प्रतिपादन करते हैं :-- प्रवश्यायजलं रात्रिपश्चिमाहरोब्भयम् । हिमाख्यं जलकायं च जतबन्धनसम्भवम् ।।४०॥ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्तसार दीपक महिकाख्यं जलं धूमाकाराम्बु च हरजलम् । स्थूलविन्दुजलं चाणुः सूक्ष्मविन्दुजलं तथा ॥४१॥ शुद्धाम्बुचन्द्रकान्तोत्थमुदकं निराविजम् । सामान्याम्बुधनाख्याम्भोऽब्धिगहमेघवातजम् ॥४२।। सरित्कूपसरःकुण्डनिझराब्धिहदादयः । एष्वप्कायेषु सर्वेऽन्येऽन्तर्भवन्त्यम्बुकायिकाः ॥४३॥ एतानकायसभेवानप्कायाश्रितान् बहून् । । जोवान विज्ञाय यत्नेन पालयन्त्वात्मवत्सवा ॥४४॥ अर्थ:-रात्रि के पिछले पहर में उत्पन्न होने वाला प्रोस जल, हिम नाम का जलकाय, मेष जलकाय, कोहरे का जल, धूम ग्राकार ( धुन्ध ) जल, डाभ को ग्रामी पर स्थित जल, स्थूल विन्दु जल, जलकरण, सूक्ष्म विन्दु जल, शुद्ध जल, चन्द्रकान्तमणि से उत्पन्न जल, झरनों आदि से उत्पन्न जल, सामान्य जल, धन जल ( घनोदधि ), ब्रहजल, मेघ से उत्पन्न जल, घनवातज जल, नदी, कूप, सालाव, कुण्ड, झरना, समुद्र एवं सरोवर आदि सर्व जल का जलकाय में अन्तर्भाव होने से यह सब जलकायिक ही है ! इन सब जलकाय के भेदों को तथा जलकाय के आश्रित रहने वाले असंख्यात जीवों को अपनी मात्मा के सदृश जान कर प्रयत्न पूर्वक निरन्तर उनकी रक्षा करना चाहिए ॥४०-४४।। अब अग्निकायिक जीवों का प्रतिपादन करते हैं : अङ्गाराणि ज्वलज्ज्वालाह्यचिर्दीपशिखादिका । मुर्मराख्यो हि कार्षाग्निः शुद्धाग्निर्बहुभेदभाक् ।।४५।। विद्युत्पाताग्निवज्राग्निसूर्यकान्तादिगोचरः । पग्निसामान्यरूपाग्निनिर्धूमो वाडयादिजः ।।४६॥ नन्दीश्वरमहाधूमकुण्डिकामुकुटादिजाः । अग्निकाया प्रमोष्वन्तर्भवन्त्यनलयोनिषु ॥४७।। इमास्तेजो मयान जीवांस्तेजःकायान् श्रितान परान् । विदित्वा सर्वयत्नेन रक्षन्तु मुनयोऽनिशम् ॥४॥ अर्थ:-अंगार रूप अग्नि, ज्वालाग्नि, अचि अग्नि, दीपशिखाग्नि, मुर्मराग्नि, काग्नि, और बहुत प्रकार की शुद्धाग्नि, विद्युत्पाताग्नि, वनाग्नि, सूर्यकान्त आदि से उत्पन्न अग्नि, सामान्य अग्नि, निधूमाग्नि, वडवाग्नि, नन्दीश्वरद्वीपस्थ महाधुम कुण्डों की अग्नि तथा मुकुट आदि से उत्पन्न अग्नि, Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशोऽधिकार: [ ४०१ अग्निकाय होने से इन सब अग्नियों का अनिलयोनियों में अन्तर्भाव हो जाता है । तेजकाय के आश्रित रहने वाले सर्व तेजकायिक जीवों को भली प्रकार जानकर मुनिजन इनकी अहनिश प्रयत्न पूर्वक रक्षा करते हैं ।।४५-४८॥ अब वायकायिक जीवों के स्थानों का वर्णन करते हैं :-- यातः सामान्यरूपश्चोभ्रमर्जवं भ्रमन व्रजेत् । उत्कलिमंण्डलिपृथ्वीलग्नो भुमन प्रगच्छति ॥४६॥ गुजावातो महावातो वृक्षादिभङ्गकारकः । घनादधिश्च नाम्ना घनानिलस्ततुवातवाक् ।।५।। उदरस्थविमानाधारपृश्यधस्तलाश्रिताः । त्रिलोकाच्छादका बाता प्रत्रवान्तभवन्ति च ॥५१॥ एतान् घाताङ्गभेदांश्च जीवान बातवपुः श्रितान् । ज्ञात्वा नित्य प्रयत्नेन पासयन्नु स्वचादिः अर्थ:-सामान्य रूप वायु, उद्मम वायु, ऊार भ्रमण करने वाली वायु, उत्कलि बायु, मण्डल वायु, पृथ्वी स्पर्श कर भ्रमण करने वाली वायु, गुजाबात, वृक्षों प्रादि को नष्ट करने वाली महावायु, घनोदधि वायु, घन वायु, तनु वायु, उदरस्थ वायु, विमान जिसके आधार हैं, वह वायु, पृथ्वीतल के प्राश्रित वायु और लोक्य पाच्छादक वाय, ये सर्व वाय इन्हीं पवनों में अन्तर्भूत होती हैं । ये सब भेद वायुकाय के कहे गये हैं। वायु कायिक जो इसी वायकाय के प्राधित रहते हैं, ऐसा जानकर विद्वज्जनों को इन्हें अपनो आत्मा के सदृश समझ कर नित्य ही इनकी दया का प्रयत्नपूर्वक पालन करना चाहिए ।।४६-५२।। अब वनस्पतिकायिक जीवों के भेद कहते हैं :-- असाधारणसाधारण मेराभ्यां जिनागमे । कीर्तिता द्विविधाः संक्षेपादनस्पतिकायिकाः ॥५३।। प्रत्येकं द्विप्रकारास्ते साधारणतराङ्गिनः । उदकाद्यश्च जोवोत्थ सन्मूच्छिमद्विभेदतः ।।५४।। मूलाग्रपोरकन्वस्कन्धवीजोमयदेहिनः । स्वपत्राणि प्रवालानि पुष्पाणि च फलान्यपि ॥५५॥ गुल्छागुल्मानि वल्ली च तृण पर्वादि कायिकाः । प्रत्येकादि चतुर्भेदानां सभेदा मता इमे ।।५६॥ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ ] सिद्धान्तसार दोपक अर्थ:-जिनागम में असाधारण ( प्रत्येक ) वनस्पतिकायिक और साधारण वनस्पतिकायिक के भेद से बनस्पति कायिक जीवों के संक्षेप से दो भेद कहे गये हैं ॥५३॥ इनमें से असाधारण अर्थात् प्रत्येक वनस्पति सप्रतिष्ठित ( साधारण सहित ) और अप्रतिष्ठित ( साधारण रहित ) के भेद से दो प्रकार को है । ( मिट्टी और ) जल आदि के सम्बन्ध से होने वाली सम्मूछेन जन्म वाली वनस्पतियां भी सप्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठित के भेद से दो प्रकार की होती हैं। मूल, अग्न, पोर, कन्द, स्कन्ध और बीज से उत्पन्न होने वाले वनस्पतिकायिक जीव, तथा त्वक् पत्र, प्रवाल, पुष्प, फल, गुच्छा, गुल्म, बल्ली, तृण प्रौर पर्व आदि प्रत्येक के वनस्पति, वनस्पतिकाय, वनस्पतिकायिक और वनस्पति जीव ये चार भेद माने गये हैं ॥५४-५६॥ प्रमोषां सुखबोधाय व्याख्यानमाह !-- येषां मूलं प्रादुर्भवति ते आद्रं कहरिद्रादयः मूलजोवाः। येषामग्र प्ररोहति ते कोरन्टगल्लिकादयः अनजीवाः । येषां पोर प्रदेशः प्ररोहति ते इझुवेत्रादयः पोरजोवाः । येषां कन्ददेशः प्रादुर्भवति ते कदलिपिण्डालुकादयः कन्दजोवाः । येषां स्कन्धदेश: प्रारोहति ते शल्यको पालिभद्रपलाशादय: स्कन्धजौवाः । येषां क्षेत्रजलादि सामग्र या प्ररोहस्ते यथगोधूमादयः बोजजीवाः। त्वा वृक्षादि बहिबल्कलं सैवलं युतकादिकं । येषां पत्राण्येव भवन्ति न पुष्पाणि न फलानि तानि पाण्युच्यन्ते । पत्राणां पूर्वावस्था प्रबाल: स्यात् । यासां वनस्पतीनां पुष्पाण्येवं सन्ति न फलादीनि ताः पुष्पाणि निगद्यन्ते । येषां पुष्पेभ्यो विना फलानि जायन्ते ते द्रमाः फलानि कथ्यन्ते । गुच्छा: बहूनां समुदाया एककालोद्. भवाः । जातिमल्लिकादयः गुल्मानि । करज कन्यारिकादोनि वल्लीस्यान्मालत्यादिका । तृणानि नानाप्रकारामिण । पर्वग्रन्थिकयोमध्यवेत्रादि । __ अर्थः--इन वनसतियों के भेदों का सुख पूर्वक बोध प्राप्त करने को कहते हैं : जिनको मूल से उत्पत्ति होती है, वे मूल' जोव हैं, जैसे :- अदरख, हल्दी प्रादि । जो अग्र ( टहनी ) से उत्पन्न होते हैं, वे अग्र जीव हैं। यथा-केतकी, गुलाब, आर्यका, मोगरा आदि । जो पर्व के प्रदेश ( गांठ ) से उत्पन्न होते हैं, वे पोर जीव हैं । यथा-ईख, वेत आदि । जो कन्द से उत्पन्न होते हैं, वे कन्द जीव हैं । यथा-सकरकन्दी, पिण्डालू ( सूरण ) आदि। जिनकी उत्पत्ति स्कन्ध से होती है, वे स्कन्ध जीब हैं, यथा-सल्लगी ( साल ), कट को, बड़, पीपल, पलाश, देवदारु आदि । जिन बीजों की भूमि एवं जल आदि सामग्री के सहयोग से उत्पत्ति होती है, वे बीज जीव हैं। यथा-जव, गेहूँ प्रादि । वृक्ष प्रादि को बाह्य छाल को त्वक और युतक ( काई ) आदि को सैवल कहते हैं। जिसमें केवल पत्ते ही होते हैं, पुष्प और फल नहीं होते, उसे पत्र वृक्ष कहते हैं । पत्तों की पूर्व अवस्था को प्रवाल कहते हैं । जिन वनस्पतियों में मात्र पुष होते हैं, फल आदि नहीं होते, उसे पुष्प वनस्पति कहते हैं। पुष्प के विना जिसमें केवल फल उत्पन्न होते हैं। उन्हें फल वृक्ष कहते हैं। एक समय में उत्पन्न Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशोऽधिकारः [ ४०३ होने वाले बहुत के समुदाय को गुच्छा कहते हैं । मोगरा, मल्लिका प्रादि को गुल्म और करंज, कंथारी आदि को वल्जी कहते हैं । मालती सादिक नाना प्रकार के तृण हैं पर्व और ग्रन्थि के मध्य वैत आदि प्रब साधारण वनस्पति कायिक जीवों के लक्षण प्रादि कहते हैं :-- एते प्रत्येककायाः स्युः केचिच्चानन्तकायिकाः । कोचिबीजोद्भवाः केचित् सम्मूच्छिका हि देहिनः ॥७॥ नित्येतरनिकोताम्यां द्विधा साधारणामताः । अनन्तकायिका जीवा अनन्तकाक्ष संकुलाः ॥५८।। यत्रकोम्रियते प्राणी तवानन्सजन्मिनाम् । मरणं चककालेन तत्सम यककायतः ॥५६॥ यत्रैको जायते जीवस्तत्रोत्पत्तिभवेत्स्फुटम् । अनन्तदेहिनां साधं तेन तत्क्षणमञ्जसा ॥६॥ ततस्तेऽनन्तजीवात्ताः प्रोक्ता अनन्तकायिकाः । युगपन्मरणोत्पत्तेरनन्तै केन्द्रियात्मनाम् ॥६१।। तोमिथ्यादियुक्त यमद्भिर्दुर्भयाटवीम् । अनन्तां प्राणिभिर्घोरदुःकर्मग्रसितात्मभिः ।।६२।। अनन्तकायवर्गेषु न त्रसत्वं कदाचन । प्राप्त तेऽनन्तकायात्ताः मता नियनकोतकाः ।।६३।। अनन्तकायिका एते पञ्चभेदामता इति । जम्बूद्वीपादि दृष्टान्तः स्कन्धा डरादयो जिनः ।।६४।। अर्थः—ये पूर्व कथित जीव प्रत्येक काय हैं, इनमें कोई कोई अनन्तकाय हैं, कोई बोज से उत्पन्न होने वाले हैं, और कोई जोव सम्मूच्र्छन जन्म वाले हैं ।। ५७।। साधारणवनस्पति कायिक जीवों के नित्य निगोद और इतरनिगोद ये दो भेद हैं। ये अनन्तकायिक अर्थात् साधारण प्रनन्त एकेन्द्रिय जीव एक साथ (संकुला) बंधे हुये हैं ।। ५८ ।। साधारण जीवों में जहां एक जोव का मरण होता है, वहाँ एक काय होने से एक ही समय में एक साथ अनन्त जीवों का मरण होता है, और जहाँ एक जीव उत्पन्न होता है, वहीं उसी क्षण एक साथ अनन्त जीव जन्म लेते हैं 11५६-६०॥ इन अनन्त एकेन्द्रिय जीवों का एक ही साथ मरण और एक ही साथ जन्म होता है, इसीलिए उन अनन्त जीवों के समूह को अनन्तकायिक कहते हैं ।।६।। जो तोष मिथ्यात्व प्रादि से युक्त और घोर दुःकर्मों से ग्रसित हैं, ऐसे अनन्ता Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ ] सिद्धान्तसार दोपक नन्त प्राणी भयावह संसार रूपी अटवी में भ्रमण करते हैं ।। ६२॥ अनन्तकाय जीवों के समूह में दो जीव कभी भी अस पर्याय को प्राप्त नहीं करते उन्हें नित्यनिगोदिया कहते हैं । इन अनन्तकायिक जीवों के पांच भेद माने गये हैं, जो जिनेन्द्र के द्वारा जम्बूद्वीप आदि के दृष्टान्तों से स्कन्ध, अंडर ग्रावास पुलवि और शरीर आदि के रूप में प्रतिपादन किये गये हैं ।। ६३-६४॥ अब जम्बूद्वीप आदि के दृष्टान्तों द्वारा स्कन्ध, अण्डर आदि का प्रतिपादन करते हैं : जम्बूद्वीपे यथा क्षेत्रं भारतं भारतेऽस्ति च । कोशलः कोशले देशेऽयोध्यायां सौघपङ्क्तयः ॥ ६५॥ तथा स्कन्धा असंख्येयलोक प्रदेशमात्रकाः । एकैकस्मिन् पृथक् स्कन्धे ह्यण्डरा गदिता जिनंः ॥ ६६ ॥ श्रसंख्यलोकतुल्याब्दे कैकस्मिनण्डरे स्मृताः । श्रावासेभ्यो हथसंख्यात लोकमात्रा न संशयः ॥६७॥ एकैकस्मिन् तथावासे प्रोक्ता पुलवयोऽखिलाः । असंख्य लोकमाना एकैकस्मिन् पुलवौ भवे ।। ६६ ।। असंख्यात शरीराणि लोकमानानि सन्ति च । एकैकस्मिन्निकोतानां शरीरे प्राणिनो ध्रुवम् ॥ ६६ ॥ श्रतीतानन्त कालोत्थानन्त सिद्धभ्य एव च । सर्वेभ्य श्रागमे प्रोक्ता वाण्यानन्तगुला जिनैः ॥७०॥ अर्थ - जैसे जम्बूद्वीप में भरतक्षेत्र है, भरतक्षेत्र में कोशल देश है, कोशल देश में प्रयोध्या नगरी हैं और एक एक अयोध्या नगरी में अनेक प्रासाद ( महल ) पंक्तियाँ हैं. उसी प्रकार असंख्यात लोक प्रमाण पुद्गल परमाणुत्रों का एक स्कन्ध और एक एक स्कन्ध में असंख्यात लोक असंख्यात लोक प्रमाण अण्डर जिनेन्द्र द्वारा कहे गये हैं ।। ६५-६६॥ पृथक् पृथक एक एक अण्डर में असंख्यात - श्रसंख्यात लोक प्रमाण आवास हैं, इसमें कोई संशय नहीं है ॥६७॥ पृथक् पृथक् एक एक ग्रावास में श्रसंख्यातलोक असंख्यात लोक प्रमारा पुलवियां हैं, एक एक पुलवि में असंख्यात लोक असंख्यात लोक प्रमाण शरीर हैं और पृथक् पृथक् एक एक निगोद शरीर में जिनेन्द्र भगवान के द्वारा आगम में अतीत और आगामी अनन्तकाल में होने वाले सर्व अनन्त सिद्धों के अनन्तगुणी जोव राशि कही गई है । अर्थात् प्रतीत और अनागत में होने वाली सर्व सिद्ध राशि का जितना प्रमाण है, उससे अनन्तगुणे जीव एक निगोद शरीर में रहते हैं ।। ६८-७० ॥ Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशोऽविकारः अब बादर अनन्तकाय जीवों का कथन करते हैं : शैवालं पणकनाम केणुगः कवगस्तथा । पुष्पित्यादयः सन्त्यनन्तकायाश्च वादराः ॥७१॥ अस्य भाष्यमाह : शैवालं जलगतहरितरूपं, पणक भूमिगत शैवाल, इष्टकादि प्रभवं च, केणुकः, पालम्बकछत्राणि शुक्लहरितनीलरूपाणि अपस्करोद्भवानि कबगः शृगालं वकछवाणि । पूष्पिका पाहारकनिकादि गताः । इत्याद्याः स्थूला अनन्तकायिकाः स्युः ।। अर्थः-सवाल, परणक, केणुग, कवंग और पुष्पक इत्यादि ये सब वादर अनन्तकायिक वनस्पति हैं ।।७१।। अब इसी को भाष्य रूप में कहते हैं :--- जल में जो हरी हरी काई होती है, उसे सवाल, भूमि में जो हरी हरी काई होती है उसे पएक, ईंट आदि में जो उत्पन्न होती है उसे केशुक, श्वेत, हरे और नील वरणं के छत्र रादश को पालम्वक ( कुकुरमुत्ता), मल या कचरे में उत्पन्न होने वाले को कवग, धक छत्र को शृगाल कहते हैं ( एक प्रकार का कुकुरमुत्ता जिसकी डंठल टेडी होती है )। पाहार कांजी आदि के ऊपर उत्पन्न होने वाली फफूदी को पुष्पिका कहते हैं। इस प्रकार सेवालादि अनेक बादर अनन्तकायिक वनस्पतियाँ होती हैं ।। अब साधारण, प्रत्येक, सुक्ष्म एवं बादर जीवों के लक्षण और उनके निवास क्षेत्र आदि का कथन करते हैं :-- गूढानि स्युः सिरासन्धि पर्वाणि जन्मिनां भुवि । येषां स्यान्समभङ्ग चाहीरुकं सूत्रसलिभम् ।।७२।। छिन्नभिन्नशरीराणि प्रारोहन्त्यप्यनन्ततः। तेन साधारणा जीयाः प्रत्येकास्तविपर्ययाः ॥७३॥ एते स्युर्वादराजोवाः क्वचिल्लोके पथचिन्न छ । पृथ्ब्यादि कापमापन्नाः पञ्चधाः स्थावराः परे ।७४।। सूक्षमाः पृथ्ष्यादयः पञ्चस्थावरा दृष्टयगोचराः । एते तिष्ठन्ति सर्वत्र प्रपूर्य भुवन त्रयम् ॥७॥ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ ] सिद्धांतसार दीपक वनस्पत्याङ्गिनोऽन्ये च स्थावराः सूक्ष्मवादराः । अनन्ताधिविधा एते रक्षणीयाः सदाबुधः ॥७६॥ न प्रतिस्खलनं येषां गत्यादी सूक्ष्मदेहिनाम् । पृथ्वीजलाग्निवाताद्यैर्जातु से सूक्ष्मकायिकाः ॥७७॥ प्रतिस्खलन्ति ये स्थूलाः स्थावरा गमनादिषु । केचिश्मा समाते बादः श्रीजिनर्मताः ।।७।। अर्थ:-जिनकी शिरा-बहिः स्नाय, सन्धि-रेखाबन्ध और पर्व-गांठ अप्रगट हों और जिन वनस्पतियों का भंग करने पर समान भंग हो, दोनों भंगों में परस्पर सूत्र-तन्तु न लगा रहे तथा शरीरों को छिन्न भिन्न कर देने पर भी जो ऊग जाते हैं तथा वृद्धि प्रादि को प्राप्त होते हैं ऐसे अनन्तकायिक वे सब जीव यहाँ पर साधारण कहे गये हैं। जो जीव इन चिह्नों से रहित हैं, वे प्रत्येक (अप्रतिष्ठित) बनस्पतिकायिक हैं ।।७२-७३॥ पृथ्वो आदिक पांच कायों को धारण करने वाले पांचों बादर स्थावर जीव इस लोक में कहीं हैं और कहीं नहीं है, किन्तु दृष्टि अगोचर पृथ्वीकात्यादि पांचों सूक्ष्म स्थावर जीव तीनों लोकों को परिपुर्ण करते हुए सर्वत्र रहते हैं ॥७४-७५|| विद्वानों को अन्य अनन्त प्रकार के सूक्ष्म और बादर वनस्पतिकायिक व स्थावर जीवों की रक्षा करना चाहिए ॥७६।। सूक्ष्मनामकर्म के उदय से युक्त पृथ्वी, जल अग्नि और वायु कायिक प्रादि के द्वारा जिन जीवों की गति आदि कभी भी रुकती नहीं है उसे सूक्ष्मकायिक कहते हैं ।।७७।। जिन स्थावर जीवों की गति आदि दूसरों से रुकती है और दूसरों को रोकती है, उन्हें जिनेन्द्र भगवान् ने बादर जीव कहा है इनमें कुछ जीव दृष्टि गोचर होते हैं कुछ दृष्टि अगोचर रहते हैं ।।७८।। अब त्रस जीवों के भेद आदि कहते हैं :-- प्राणिनो विकलाक्षाश्च सकलाक्षास्ततः परे । इत्यमी द्विविधाः प्रोक्तास्त्रसा उद्वेगिनोऽसुखात् ।।७।। द्वित्रितर्यात्य भेदावे स्त्रिविधा विकलेन्द्रियाः ।। स्युः कृम्याद्या नृगीरिणतिर्यञ्चः सकलेन्द्रियाः ।।०॥ कृमयः शुक्तिकाः शङ्काः बालकाश्च कपटु काः । जलूकाधा मताः शास्त्रो द्वीन्द्रिया हीन्द्रियाडिताः ॥१॥ कुन्थयो मत्कुणा यूका वृश्चिकाश्च पिपीलिकाः । उद्देहिका हि गोम्यायास्त्रीन्द्रियास्त्र्यक्षसंयुताः ।।२।। Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशोऽधिकारः [ ४०७ मशका भमरा वंशाः पतङ्गा मधुमक्षिकाः। मक्षिका कीटकायाः स्युश्चतुरिन्द्रियजातयः ॥१३॥ जलस्थलनभो गामिनस्तिर्यञ्चो नरामराः । नारकाः श्रीजिनः प्रोक्ताः पञ्चाक्षाः सफलेन्द्रियाः ॥४॥ एतास्त्रसाङ्गिनः सम्यग्ज्ञात्वा गृहितपोधनाः । पालयन्तु समित्याः सर्वत्र स्वमिवान्यहम् ॥५॥ इति पृथ्च्यादिकायानां जातिभेदान जिनागमान् । प्राख्यायातः सतां वक्ष्ये कुलानि विविधानि च ।।६।। अर्थ:-दुःख से उद्धे गित त्रस जीब विकलेन्द्रिय और सकलेन्द्रिय के भेद से दो प्रकार के होते हैं ।।७६।। इनमें से कृमि आदि द्वोन्द्रिय, श्रीन्द्रिय और चतुरोन्द्रिय के भेद से विकलेन्द्रिय जीव तीन प्रकार के होते हैं । मनुष्य, देव और तिर्थञ्च ये सकलेन्द्रिय अस हैं ।।६०॥ कमि, सीप, शंख, वालुका, कौंडी और जोंक प्रादि दो इन्द्रियों से चिह्नित इन जीवों को द्वीन्द्रिय जीव कहते हैं ॥८॥ कुन्थु, खटमल, जू, विच्छ, चींटी, दीमक और कानखजूरे श्रादि तीन इन्द्रियों से युक्त जीवों को केन्द्रिय जीव कहते हैं । ८२ ॥ मच्छर, भौंरा, डांस. पतङ्गा, मधुमक्खी, मक्खी और कोटक प्रादि चतुरिन्द्रिय जीव कहलाते हैं ॥३॥ जल-स्थल एवं नभनर तियंञ्च, मनुष्य, देव और नारकी ये जीव पंचेन्द्रिय होते हैं, इन्हें ही जिनेन्द्र भगवान ने सकलेन्द्रिय कहा है ।।१४। इस प्रकार त्रस जीवों के भेद प्रभेदों को भली प्रकार जान कर श्रावकों एवं तपोधनों को समितियों आदि के द्वारा अपनी आत्मा के सदृश ही सर्वत्र अस जीवों की रक्षा करना चाहिए ।।८।। इस प्रकार जिनागम से पृथ्वीकाय आदि छह काय के जीवों के जाति भेदों को कह कर अब अनेक प्रकार के कुल भेदों को कहूँगा ।1८६|| अब भिन्न भिन्न जीयों की कुलकोटियां कहते हैं :-- द्वाविंशकोटिलक्षाणि पृथ्वीनां स्युः कुलानि च । अपकायासु मतां सप्तकोटी लक्षारिण तेजसाम् ॥१७॥ कुलत्रिकोटिलक्षागि वायूनां च कुलान्यपि । स्युः सप्तकोटिलक्षाणि धनस्पस्यङ्गिनां तथा ॥८॥ कलानि कोटिलक्षाणि ह्यष्टाविशतिरेव हि । द्वीन्द्रियाणां तथा सप्तकोटीलक्षकुलानि च ।।६।। श्रीन्द्रियाणां भवन्त्यष्टकोटिलक्षकलान्यपि । तुर्याक्षाणां नवच स्युः कोटिलक्षकलानि च ।।६011 Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ ] सिद्धान्तसार दीपक अप्चराणां हि लक्षाणि सार्धद्वादशकोटयः । कुलानि पक्षिणां द्वादशकोटिलक्षकानि च ॥६१।। दशैव कोटिलक्षाणि कुलानि स्यश्चतुष्पदाम् । नवव कोटिलक्षाण्युरः सर्पाणां कुलानि च ॥१२॥ पड्विंशकोटिलक्षाणि कुलानि स्युः सुधाभुजाम् । पञ्चविंशतिकोटी लक्षाणि नारकजन्मिनाम ॥६॥ प्रायोग मोगामिभनुष्याणां कुलानि च । द्विसप्तकोटिलक्षाणोति सर्वेषां च देहिनाम् ||१४|| एकवकोटिकोटोनवतिः सार्धनवाधिका । कोटीलक्षारिण सिद्धान्ते कुलसंख्या जिनोदिता ।।६।। इत्यङ्गकुलजात्यादौन सम्यग्ज्ञात्वा बुधोत्तमः । षङ्गिनां दया कार्या धर्मरत्नखनी सदा ॥६६॥ अर्थः--(शरीर के भेदों को कारण भूत नाना प्रकार की नोकर्म वर्गणानों को कूल कहते हैं) पृथ्वीकायिक जीवों की बाईस लाख कोटि, जलकायिक जीवों की सात लास्त्र कोटि, अग्निकायिक जीवों की तीन लाख को टि, वायुका यिक जीवों को सात लाख कोटि, वनस्पतिकायिक जीवों की २८ लाख कोटि, द्वीन्द्रिय जीवों की सात लाख कोटि. श्रीन्द्रिय जीवों को पाठ लाख कोटि, चतुरिन्द्रिय जीवों को ६ लाख कोटि, जलचर जीवों को साढ़े बारह लाख कोटि, पक्षियों को बारह लाख कोटि, चतुष्पद (पशुओं) की दश लाख कोटि, छाती के सहारे चलने वाले सर्प आदिकों की नव लाख कोटि, देवों को २६ लाख कोटि, नारकी जीवों को २५ लाख कोटि तथा आर्य मनुष्य, म्लेच्छ मनुष्य और विद्याधरों ( इन सब) की चौदह लाख कोटि, इस प्रकार सम्पूर्ण कुल कहे गये हैं ।।८७-६४॥ जिनेन्द्र भगवान ने पागम में पृथिवीकायिक से लेकर मनुष्य पर्यन्त सम्पूर्ण संसारी जीवों के कुल कोटि की संख्या का योग एक करोड़ निम्यानबे लाख पचास हजार कोटि ( १६६५.००००००००००० ) कहा है ।।१५।। इस प्रकार विद्वानों को जीवों के कुल और जाति आदि के भेदों को भली प्रकार जान कर धर्म रूपी रत्नों को खान के सदृश निरन्तर छह काय जीवों की दया में उपक्रम करना चाहिए ॥६६॥ अब योनियों के भेद, प्रभेव, प्राकार और स्वामी कहते हैं :--- सचित्ताचित्तमिथास्याः शीतोष्णमिश्रयोनयः । संवृता विवृता मिश्राश्चेत्येता मवयोनयः ॥१७॥ Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशोऽधिकारा देवानां नारकाणां चाचित्तयोनि विचेतना | गर्भजानां सचित्ताचित्तयोनिश्चेतनेतरा ॥६८॥ एकाक्षद्वीन्द्रियाणां च यक्षतुर्येन्द्रियात्मनाम् । नानापञ्चाक्षसम्मूर्च्छकानां केषाञ्चिदेव च ॥६॥ सचिकास्ति केषाञ्चिदचित्तायोनिरञ्जसा । केषाञ्चिन्मियोनिश्चेति त्रिधा योनयो मताः ॥१००॥ देवानां नारकाणां च केषां चिच्छीत योनयः । उष्णयोनिश्च केषां चिदिति द्विविध योनयः ॥ १०१ ॥ तेजोनिः स्याच्छीयोनिर्जलाङ्गिना । शेषाणां पृथिवोवायुवनस्पतिशरीरिणाम् ॥ १०२ ॥ एक द्वित्रिचतुः पञ्चाजगर्भेतरजन्मिनाम् । पृथक रूपेण शोताद्याः स्युस्त्रियोनयः ॥ १०३ ॥ नारकंकाक्षदेवानां संवृत्तायोनिरस्ति च । विवृता विकलाक्षाणां मिश्रा सा गर्भजन्मिनाम् ॥ १०४ ॥ पुनर्गर्मायोनीनां शुभाशुभोभयात्मनाम् । सविशेषास्त्रिधा योनीवक्ष्ये योन्यघहानये ||१०५ ।। शङ्खार्ताह्वया योनिः पराकुर्मोनताभिषा । तृतीया वंशपत्राख्यात्रेति त्रिविधयोनयः ॥ १०६॥ ताश्चक्रिणो रामा वासुदेवाश्चत द्विषः । कूर्मोन्नत महायोनौ जायन्ते स्फटिकोपमे ।। १०७ ॥ वंशपत्राख्य योनौ चोत्पद्यन्ते भोगभूमिजाः । द्वियोन्योः प्राणिनोऽन्ये शङ्खार्तवंशपत्रयोः ॥ १०८ ॥ शङ्खार्तयोनी च नियमेन विनश्यति । गर्भोऽशुभङ्गनामेतयोनीनां लक्षणं भवेत् ॥१०६ ॥ [ જન્મ अर्थः- सचित्त, अचित्त एवं सवित्ताचित्त, शीत, उष्ण एवं शीतोष्ण, संवृत, विवृत एवं संवृतविवृत (मिश्र) इस तरह योनियाँ नो प्रकार की हैं ॥६७॥ देव और नारकियों की योनियाँ श्रात्मप्रदेशों से रहित प्रचित होती हैं, तथा गर्भज जोवों के सचित्ताचित (मिश्र) योनि होती है ||१८|| एकेन्द्रिय, हीन्द्रिय त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और सम्मूच्छेन जन्म वाले पंचेन्द्रिय जीवों में से किन्हीं जीवों की सचित्त Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० ] सिद्धान्तसार दोपक योनि है, किन्हीं को अवित योनि है और किन्हीं जीवों के सचित्ताचित्त (मिश्र) योनि है । इस प्रकार - सम्मूर्च्छन जन्म वालों के तीनों प्रकार की योनियाँ मानी गई हैं ॥ ६६-१००॥ देव और नारकियों में किन्हीं की शीत योनियाँ, किन्हीं की उष्ण योनियों और किन्हीं की शीतोष्ण योनियां होतीं हैं ॥१०१॥ नायक जोवों की उष्ण योनि, जलकाधिक जीवों की शीत योनि होती है। शेष पृथ्वी, वायु और वनस्पतिकायिक जीवों के तथा एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय, वेन्द्रिय और सम्मूर्च्छन जन्म वाले पंचेन्द्रिय जीवों के पृथक् पृथक् एक एक रूप से शीत भादि तोनों योनि होती है। अर्थात् किन्हीं जोवों के शीत किन्हीं के उष्ण और किलों के मिश्र इस प्रकार तीनों योनियाँ होती हैं ॥। १०२-१०३॥ देव, नारकी और एकेन्द्रिय जीवों के संवृत योनि होती है। विकलेन्द्रिय जीवों के विवृत ( प्रगट ) योनि और गर्भज जीवों के नियम से संवृत-विवृत्त ( मिश्र ) योनि होती है ।। १०४॥ | इसके पश्चात् योनि सम्बन्धी पाप नाश के लिए शुभ अशुभ कर्मोदय से युक्त गर्भज जीवों के विशेषता पूर्वक तोन प्रकार की योनियाँ कहूँगा || १०५।। प्रथम शेखावत, द्वितीय कूर्मोन्नत और तृतीय वंशपत्र नामक तीन प्रकार की योनियाँ होती हैं ।। १०६ ।। स्कटिक की उपमा को धारण करने वाली कूर्मोन्नत नाम की महायोनि में तीर्थकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव और प्रतिवासुदेव उत्पन्न होते हैं ।। १०७ ॥ वंशपत्र नाम की योनि में भोगभूमिज और शंखावर्त एवं वंश इन दोनों में कर्मभूमिज आदि अन्य साधारण मनुष्य जन्म लेते हैं, किन्तु शंखावर्त नामक कुयोनि में नियम से गर्भ का विनाश होता है क्योंकि वह गर्भ अशुभ होता है । इस प्रकार जीवों की इन योनियों का लक्षण कहा है ।। १०८ - १०६ ।। :― अब जीवों के शरीरों की श्रवगाहना का प्रतिपादन करते हैं। पृथ्थ्यप्तेजो मरुत्कायानां सूक्ष्मवादरात्मनाम् । श्रङ्गुलस्याप्यसंख्यात भागतुन्यं वपुर्भवेत् ॥ ११० ॥ सूक्ष्मपर्याप्तजातस्य निकोतस्याङ्गिनी मतम् । तृतीये समये सर्वजघन्याङ्ग जगत्त्रये ॥ १११ ॥ सर्वोत्कृष्टशरीरं स्यान्मत्स्यानां महतां भुवि । तपोमध्ये परेषां स्युर्माना देहानि देहिनाम् ।। ११२ ।। अर्थ:-- सूक्ष्म और बादर पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक जीवों के शरीर को अवगाहना अंगुल के प्रसंख्यातवें भाग प्रमाण होती है ।। ११० ।। त्रैलोक्य में सर्व जघन्य ग्रवगाहना सुक्ष्मनिगोदिया लब्ध्यपर्यातक जीवों के उत्पन्न होने के तीसरे समय में होती है और शरीर की सर्वोत्कृष्ट अवगाहना महामत्स्यों के होती है। इन दोनों (जघन्योत्कृष्ट ) के बीच में अन्य जीवों के शरीय की मध्यम श्रवगाहना विविध प्रकार की होती है ।। १११-११२।। Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशोऽधिकार प्रब जीयों के संस्थानों का कथन करते हैं : पृथ्व्यदिनां च संस्थान मसरिकाकणाकृतिः । अप्कायानां हि संस्थानं वर्भाग्नविन्दुसन्निभम् ।।११३॥ तेजः कायात्मनां तत् स्यात् सूचीकलापसम्मितम् । संस्थानं वायुकायानां पताकाकारमेव च ।।११४॥ समादिचतुरस्र च न्यग्रोधस्वातिकुब्जकाः । धामनाख्यं हि हुण्डाख्यं संस्थानानाति षड्भुवि ।।११५॥ मनुष्याणां च पश्चाक्षतिरश्चां सन्ति तानि षट् । देवानामादिसंस्थान द्वारका हि हुण्डकम ।।११६।। द्वित्रितुर्येन्द्रियाणां च सर्वेषां हरिताङ्गिनाम् । अनेकाकारसंस्थान हुण्डाख्यं स्याद् विरूपकम् ॥११७॥ अर्थ:-पृथिवीकायिक जीवों के शरीर का प्राकार मसूर के का। सश, जलवायिक जीवों के शरीर का आकार डाभ के अग्रभाग पर रखी हुई जलविन्दु के सदश, अग्नि कायिकों का खड़ी सुइयों के समूह सदृश और वायुकायिक जीवों के शरीर का संस्थान वजा के सदृश होता है ॥११३-११४।। समचतुर संस्थान, न्यग्रोध, स्वाति, कुब्जक, वामन और हुण्डक ये छह संस्थान संसारी जीवों के होते हैं ।। ११५।। मनुष्यों और पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के छहों संस्थान होते हैं। देवों के समचतुरस्र एवं नारकियों के हूण्डक संस्थान ही होते हैं ॥११६।। द्वीन्द्रिय, शेन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के तथा सम्पूर्ण बनस्पतिकायिक जीवों के विविध प्राकारों को लिए हुए विरूप आकार वाला हुण्डक संस्थान होता है ।।११७।। अब संसारी जोवों के संहननों का विवेचन करते हैं :--- म्लेच्छविधेशमानां संज्ञिपञ्चेन्द्रियात्मनाम् । कर्मभूतिरश्चां च सन्ति संहनानि षट् ॥११८॥ असंजिविकलाक्षाणां लब्ध्यपर्याप्तदेहिनाम् । अशुभं चान्तिमं होनं षष्ठं संहननं भवेत् ॥११६।। वत्रर्षभादिनाराचं वज्रास्थिभयवेष्ठितम् । आद्यं च वज्रनाराचं वज्रास्थिजं द्वितीयकम् ॥१२०॥ नाराचं त्रीणि चेमानि सन्ति संहननानि च । परिहारविशुद्धयाख्पसंयमाप्तमुनीशिनाम् ॥१२१।। Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ ] सिद्धान्तसार दोपक चतुर्थमर्धनाराचं कोलिकाख्यं च पश्चमम् । असम्प्राप्तामृपाद्याविक निसंहनानि च ॥१२२।। इमानि स्युः स्फुटं कर्मभूमिजद्रव्ययोषिताम् । भोगभूमिजनुस्त्रीणामाद्यं संहननं परम् ॥१२३।। मिथ्यात्वाधप्रमत्तान्तगुणस्थानेषु सप्तसु । प्रवर्तमानजोयानां सन्ति संहननानि षट् ॥१२४॥ अपूर्वकरणाभिख्येऽनिवृत्तिकरणाहये । सूक्ष्मादिसाम्परायाख्ये हा पशान्तकषायके ॥१२५।। श्रेण्यामुपशमाख्यायां तिष्ठतां योगिनां पृथक् । नोरिण संहननानि स्रादिमानि इटानि च ॥१२६।। अपुर्वकरणाख्ये चारितिकरणाभिने । सूक्ष्मादिसाम्परायाख्ये क्षीण कषायनामनि ।।१२७।। सयोगे च गुणस्थानेत्राद्य संहननं भवेत । केवलं क्षपकश्रेण्यारोहणकृतयोगिनाम् ॥१२॥ अयोगिजिननाथानां देवानां नारकात्मनाम् । पाहारफमहर्षीणामेकाक्षाणां धषि च ॥१२६।। यानि कार्मणकायानि बजता परजन्मनि । तेषां सर्वशरीराणां नास्ति संहननं क्वचित् ॥१३०॥ अर्थ:--म्लेच्छ मनुष्यों, विद्याधरों, मनुस्यों, संज्ञो पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों और कर्म भूमिज तिर्य चों के छहों संहनन होते हैं ।।११।। असंज्ञी तिर्यों के, विकलेन्द्रिय जोवों के और लमध्यपतिक जीवों के अन्तिम असम्प्राप्त सृपाटिका नाम का छटवाँ अशुभ संहनन होता है ॥ ११६ ॥ वज्रमय वर्षभ, कोलं एवं अस्थि से युक्त और वचमाय बेपन से देष्ठित पहिला वर्षभनाराच संहनन, वचमय नाराच (कोलों) व अस्थियों से युक्त दूसरा वचनाराच संहनन है और तीसरा नाराच सहनन है । ये तीनों संहनन परिहार विशुद्धि संयम से युक्त मुनिराजों के होते हैं ॥१२०-१२१।। चौथा अर्धनाराच, पांचवां कोलक और छठवां असम्प्रामसूपाटि का ये तीनों संहनन वार्मभूमिज द्रव्य वेदी स्त्रियों के होते हैं । भोगभूमिज मनुष्यों और स्त्रियों के आदि का एक उत्कृष्ट संहनन होता है ।।१२२-१२३॥ मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर सप्तम गुणस्थान पर्यन्त सात गुणस्थानों में प्रवर्तमान जीवों के छहों संहनन होते हैं ।।१२४॥ उपशम श्रेणी गत अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसांपराय और उपनान्तकपाय गुरणस्थानों में प्रवर्तमान मुनिराजों Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशोऽधिकारः [ ४१३ के आदि के तीन दृढ संहननों में से कोई एक होता है। क्षपक श्रेणीगत अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसापराय, क्षीणकषाय और सयोगकेवलि गुणस्थानों में प्रवर्तमान मुनिराजों के आदि का मात्र एक वर्षभनाराच संहनन ही होता है ।।१२५-१२८॥ अयोगी जिनों के, देवों के, नारकियों के, पाहारक शरीरी महा ऋषियों के एकेन्द्रिय जीवों के और ग्रागामी पर्याय में जन्म लेने के लिए विग्रह गति में जाने वाले कार्मरण काय युक्त जीवों के संहनन नहीं होता । अर्थात् इन जोवों का शरीर छहों संहननों से रहित होता है ।।१२६-१३०॥ अब संसारी जीवों के वेदों का कथन करते है: एकाक्षविकलाक्षाणां सर्वेषां नारकात्मनाम् । सन्मर्छनजपञ्चाक्षाणां वेदको नपुसकः ।।१३१॥ भोगभूमिभवार्याणां चतुविधसुधाभुजाम् । विश्वानां भवतो वेदी द्वौ स्त्रीपुसंज्ञको भुवि ॥१३२॥ शेषाणां गर्भजानां च तिरपचो मनुजात्मनाम् । स्त्रीपुनपुंसकाभिस्याः सन्ति वेदास्त्रयः पृथक ॥१३३॥ अर्थः-सम्पूर्ण एकेन्द्रिय जीवों के, विकलेन्द्रिय जीवों के, नारको जीवों के और सम्मूर्छन पंचेन्द्रिय जीवों के एक नपुसक वेद ही होता है ।।१३१॥ भोगभूमिज पार्यों के तथा चारों निकायों के देवों के स्त्री और पुवेद नाम वाले दो ही वेद होते हैं ।। १३२॥ शेष सम्पूर्ण मनुष्यों एवं नियंत्र जीवों के पृथक् पृथक्, स्त्रीबेद, पुवेद और नपुसकबेद नाम के तीनों वेद होते हैं ।।१३३।। अब जीवों की उत्कृष्ट और जघन्य प्राय का प्रतिपादन करते हैं :-- मृनुपृथ्वीशरीराणामुत्कृष्टमायुर असा । द्विषड्वर्षसहस्रागि खरपृथिवीमयात्मनाम ।।१३४॥ द्वाविंशतिसहस्राणि वर्षाणां जीवितं परम् । सप्तसहस्रवर्षाण्यप्कायानां सुष्ठुजीवितम् ।।१३५॥ तेजोमय कुकायानामायुदिनत्रयं भवेत् । त्रीणि वर्षसहस्राणि ह्यायुर्वाताङ्गिनां परम् ॥१३६।। दशवर्षसहस्त्राण्यायुर्वनस्पति देहिनाम् । वर्षाणि द्वादशवायुः प्रवरं द्वीन्द्रियाङ्गिनाम् ।।१३७।। श्रीन्द्रियाणां तथैकोनपञ्चाशद्दिनजीवितम् । षण्मासप्रमितायुष्कं चतुरिन्द्रियजन्मिनाम् ॥१३८।। Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ ] सिद्धांतसार दीपक मत्स्यानां परमायुः स्यात्पूर्वकोटिप्रमाणकम् । सरीसृपाङ्गिनामायुर्नवपूर्वाङ्गसम्मितम् ॥१३६॥ द्वासप्ततिसहस्राब्दप्रममायुश्चपक्षिणाम् । उरगाणां द्विचत्वारिंशत्सहस्राब्दजीवितम् ॥१४०।। एकाक्षद्वित्रिर्याक्षाणां जघन्यायुरिष्यते । कृताष्टादशभागानामुच्छ वासस्येक भागकः ॥१४१॥ संज्ञिनामल्पमृत्यादियुतापुण्यनृणां भवेत् । अन्तर्मुहूर्तमायुष्यं सर्वजघन्यमत्र च ।।१४२॥ अर्थः-मदु पृथ्वीकायिक जीवों को उत्कृष्ट प्राय बारह हजार वर्ष की, खर पृथ्वोकायिक जीवों की बाईस हजार वर्ष की, जलकायिक जीवों की उत्कृष्टायु सात हजार वर्ष की, अग्निकायिक जीवों की तीन दिन को और घायुकायिक जीवों की तीन हजार वर्ष की उत्कृष्ट प्रायु है ।।१३४-१३६।। वनस्पतिकायिक जीवों की उत्कृष्ट प्रायु दश हजार वर्ष की, हीन्द्रिय जीवों की बारह वर्ष, त्रेन्द्रिय जीवों ! की उन्चास (४६) दिन को और चतुरिन्द्रिय जीवों को उत्कृष्ट प्रायु छह मास प्रमाण होती है ।।१३७१३८॥ महामत्स्यों को उत्कृष्ट प्रायु एक कोटि पूर्व की, सरीसृप जीवों को नवपूर्वांग अर्थात् सात करोड़ ५६ लाख वर्षों को, पक्षियों को बहत्तर हजार वर्षों को और सर्पो को व्यालीस हजार वर्षों की उत्कृष्ट प्रायु होतो है ।।१३९-१४०।। एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय तथा चतुरिन्द्रिय जीवों की जघन्य प्राय स्वांस के अठारह भागों में से एक भाग प्रमारण होती है ॥१४१।। गर्भज संज्ञी जीवों को अल्पायु और पुन्य हीन गर्भज मनुष्यों की सर्व जघन्य आयु मात्र अन्तर्मुहूर्त प्रमाण को होतो है ।। १४२।। नोट :-लब्ध्यपर्याप्तक, संज्ञो, असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों की तथा लध्यपर्याप्तक मनुष्यों की जघन्यायु श्वास के अठारहवें भाग होती है। अब स्पर्शन प्रावि पांचों इन्द्रियों को प्राकृति दर्शाते हैं :-- श्रोत्रेन्द्रियस्य संस्थानं यवनालसभाकृतिः । चक्षरिन्द्रियसंस्थानं वृत्तं मसूरिकाप्समम ॥१४३॥ संस्थानं घ्राणखस्यास्त्यतिमुक्तपुष्पसन्निभम् । जिहन्द्रियस्य संस्थानमर्धचन्द्रसमानकम् ॥१४४।। स्पर्शेन्द्रियसंस्थानमनेकाकारमस्ति च । समादिचतुरस्रादि भेवभिन्नं च षड्विधम ||१४५।। Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशोऽधिकारः [ ४१५ अर्थः-कर्णेन्द्रिय का प्राकार यव की नाली के सदृश, चक्षुरिन्द्रिय का प्राकार मसूर सहमा (गोल) घ्राणेन्द्रिय का आकार तिल के पुष्प सदृश और जिह्वा इन्द्रिय का आकार अर्ध चन्द्र सदृश कहा गया है ।।१४३-१४४।। स्पर्शनेन्द्रिय का आकार अनेक प्रकार का होता है क्योंकि समचतुरस्र आदि के भेदों से संस्थान छह प्रकार के होते हैं ।।१४।। प्रब इन्द्रियों के भेद प्रभेद कहने हैं :-- हल्यावविभेदाणामिन्द्रियं हिविध स्मृतम् । अन्तनिवृत्ति बाह्योपकरणाद्रव्यखं द्विधा ।।१४६।। लब्ध्युपयोग भेदाभ्यां द्विधा भावेन्द्रियं मतम् । अन्तरात्मप्रदेशोत्थं कर्मक्षयसमुद्भवम् ।।१४७॥ प्रीः-द्रव्येन्द्रियों और भावेन्द्रियों के भेद से इन्द्रियाँ दो प्रकार की होती हैं । इनमें अभ्यन्तर में रचना और बाह्य में उपकरणों के भेद से द्रव्येन्द्रियाँ दो प्रकार को तथा लब्धि एवं उपयोग के भेद से कर्मों के क्षयोपशम से प्रात्म प्रदेशों में उत्पन्न होने वाली भान्द्रियां भी दो प्रकार की हैं ।।१४६-१४७॥ अब पाँचों इन्द्रियों के विषयों का स्पर्श कहते हैं :-- पृथिव्यादिवनस्पत्यन्तकाक्षाणां मतः श्रुते । स्पर्शाख्यो विषयो लोके धनुःशतचतुष्टयम् ।।१४।। द्वीन्द्रियाणां भवेत्स्पर्शविषयो दूरतो भजन । स्पर्शारण विषयार्थान् धनुरष्टशतप्रमः ।।१४६।। विषयो रसनाख्योत्थश्चतुःषष्टि धनुः प्रमः । त्रीन्द्रियासमता स्पर्श विषयः स्पर्शन क्षमः ॥१५०।। स्पर्थािनां च चापानां स्यात्षोडशशतप्रमः । जिह्वाक्ष विषयश्चापशताष्टाविंशतिभवेत् ।।१५१॥ ब्राणाक्षविषयव्याप्तिधनुषां शतमानकः । चतुरिन्द्रियजीवानां विषयः स्पर्शनाक्षजः ।।१५२॥ द्वात्रिंशच्छतचापानि विषयो रसनाक्षजः । धनुषां द्विशते षट् पञ्चाशदनरसादिवित् ॥१५३।। प्राणाख्यविषयश्चापशतद्वयप्रमाणकः । विषयश्चक्षुरक्षोत्यो दूरार्थवर्शको भवेत् ।।१५४।। Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ ] सिद्धान्तसार दीपक चतुःपञ्चाशद कोनत्रिशच्छतयोजनः । प्रसंज्ञिपञ्चखानां च विषयः स्पर्शनप्रजः ॥१५॥ चापानां हि चतुःषष्टिः शतानि रसनाक्षजः । विषयो धनुषां द्वावशाप्रपञ्चशतानि च ॥१५६।। विषयो घ्राणरवोत्पन्नो धनुः शतचतुः प्रमः । चक्षुरिन्द्रियसंजात विषयो रूपिदर्शकः ।।१५७॥ योजनानां किलाष्टा कोनषष्टिशतप्रमः । श्रोत्राक्ष विषयश्चापाष्टसहनप्रमाणकः ॥१५८।। संज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां च स्पर्शाक्षस्याखिलोत्तमः । रसनाक्षस्य हि ब्राणेन्द्रियस्य विषयो भुधि ॥१५६।। प्रत्येक वर्तते स्वस्वार्थेयोजननवप्रमः । सहस्राः सप्तचत्वारिंशस्त्रिषष्टयधिके शते ॥१६॥ द्वे महायोजनानां चैकक्रोशो धनुषां तथा । दण्डपञ्चदशारारिण द्वादशैव शतानि च ॥१६१॥ हस्तैको यवतुशाग्रेद्वेऽङ्गुलेऽखिलोत्तमाः । इत्यस्ति संजिनां चक्षुविषयो दूरदर्शकः ।।१६२।। श्रोत्रस्य विषयो ज्येष्टो योजनद्वादशप्रमः । पञ्चते विषयोत्कृष्टा ज्ञेया महषिचक्रिणाम् ।।१६३॥ अर्थ:-पागम में पृथिवीकायिक से लेकर बनस्पतिकायिक पयंन्त एकेन्द्रिय जीवों के स्पर्श का उत्कृष्ट विषय क्षेत्र ४०० धनुष कहा है ।। १४८ ।। द्वीन्द्रिय जीवों के स्पर्श का विषय क्षेत्र ८०० धनुष है॥१४॥ और इन्हीं द्वीन्द्रिय जीवों के रसनेन्द्रिय का उत्कृष्ट विषय क्षेत्र ६४ धनुष प्रमाण है। पीन्द्रिय के स्पर्शनेन्द्रिय का विषय क्षेत्र १६०० धनुष, रसनेन्द्रिय का विषय क्षेत्र १२८ धनुष और घ्राणेन्द्रिय का विषय क्षेत्र १०० धनुष प्रमाण है। चतुरिन्द्रिय जीवों के स्पर्शनेन्द्रिय का विषय क्षेत्र ३२०० धनुष, रसनेन्द्रिय का विषयक्षेत्र २५६ धनुष, घ्राणेन्द्रिय का विषयक्षेत्र २०. धनुष और चक्षुरिन्द्रिय का उत्कृष्ट विषयक्षेत्र २६५४ योजन प्रमाण होता है । असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों का स्पर्शनेन्द्रिय का विषयक्षेत्र ६४०० धनुप, रसनेन्द्रिय का ५१२ धनुष, घ्राणेन्द्रिय का ४०० धनुष, चक्षुरिन्द्रिय का उत्कृष्ट विषयक्षेत्र ५६० योजन और श्रोत्रेन्द्रिय का उत्कृष्ट विषय क्षेत्र ८०० घनुष प्रमाण होता है। ॥१५०-१५८॥ संज्ञो पंचेन्द्रिय जीवों के स्पर्शनेन्द्रिय का उत्कृष्ट विषयक्षेत्र ६ योजन, रसनेन्द्रिय का . Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशोऽधिकारः [ ४१७ योजन, नाणेन्द्रिय का ह योजन, चक्षुरिन्द्रिय का विषय क्षेत्र ४७२६३. योजन १ कोस, १२१५ धनुष, १४ हाथ २ अंगुल और यव प्रमाण है, तथा श्रोशेन्द्रिय का उस्कृष्ट विषय क्षेत्र १२ योजन प्रमाण है, चक्षुरिन्द्रिय आदि का यह उत्कृष्ट विषय क्षेत्र ऋद्धिवान् मुनिराजों एवं चक्रवर्तियों के ही होता है ।।१५६-१६सा अब एकेन्द्रियादि जीवों की संख्या का प्रमाण कहते हैं :--- अर्थकाक्षाविजीवानां प्रमाणं पृथगुच्यते । धनस्पती निकोतानिनोऽनन्ताः प्रोविता जिनः ॥१६४।। पृथिवीकायिका प्रकायिकास्तेजोमयाङ्गिनः। वायकाया इमे सर्वे प्रत्येक गदिता जिनः ॥१६॥ असंख्यलोकमात्राश्चासंख्थलोकस्य सन्त्यपि । यावन्तोऽत्रप्रदेशास्तावन्मात्राः सूक्ष्मकायिकाः ॥१६६।। पुनस्ते पृथियोकायायापचतुविध वादराः । पृथग धासंस्थमात्रा प्रबं विशेषोऽस्ति चागमे ।।१६७॥ द्वोन्द्रियास्त्रीन्द्रियास्तुर्येन्द्रियाः पञ्चेन्द्रिया मताः । प्रत्येकं चाप्यसंख्याताः श्रेण्यः परमागमे ॥१६८।। प्रतरागुलसंमस्यासंख्येयभाग सम्मिताः । प्रथ वक्ष्ये गुणस्थानः संख्याश्वभ्रादिजाङ्गिनाम् ॥१६॥ अर्थ:--अब एकेन्द्रिय प्रादि जीवों का पृथक् पृथक् प्रमाण कहते हैं । वनस्पतिकायिक जीवों में जिनेन्द्र भगवान् ने निगोद जीवों को अनन्तानन्त कहा है । १६४॥ जिनेन्द्र देव के द्वारा बादर पृथ्वीकायिक, बादर जलकायिक, बादर अग्निकायिक और बादर वायुकायिक जीव असंख्यातलोक मात्र अर्थात् असंख्यातासंख्यात कहे गये हैं, और प्रसंख्यातलोक के प्रदेशों का जितना प्रमाण है पृथक पृथक उतने ही प्रमाण सूक्ष्म पृथ्वीकायिक, सूक्ष्मजलकायिक, सूक्ष्मअग्निकायिक तथा सूक्षम वायुकायिक जीव कहे गमे हैं ॥१६५-१६६।। पुनः बादर पृथ्वी, जल, अग्नि और वायुकायिक जीव पृथक् पृथक् असंख्यात-असंख्यात ही हैं, आगम में यह विशेष है ।।१६७।। परमागम में द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय एवं पंचेन्द्रिय जोत्रों का पृथक् पृथक् प्रमाण असंख्पात घेणी कहा गया है। अर्थात् द्वीन्द्रिय जीव असंख्यात श्रेपो प्रमाण हैं, श्रीन्द्रिय जीव असंख्यात श्रेणो प्रमाण हैं, इत्यादि (परन्तु पूर्व पूर्व द्वीन्द्रियादिक की अपेक्षा उत्तरोत्तर त्रीन्द्रियादिक का प्रमाण क्रम से होन होन है और इसका प्रतिभागहार प्रावलि का असंख्यातवां भाग है) । असंख्यात घेणी का प्रमाण प्रतरांगुल का असंख्यातवा Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्तसार दीपक भाग माना गया है। अब मैं गुणस्थानों के माध्यम से नरकादि गतियों में उत्पन्न जीवों की संख्या कहूँगा ।।१६८-१६॥ अब प्रत्येक गतियों के गुणस्थानों में जीवों का प्रमाण कहा जाता है :-- नरकगठौ प्रथमपृथ्व्या मिथ्यादृष्टयः नारका-प्रसंख्याताः श्रेणय: बनाङ गुलस्य किञ्चिदून द्वितीयवर्गमूल मात्रा:, द्वितीयादिषु सप्तमान्तेषु श्वभ्रेपु मिथ्यादृष्टयो नारकाः श्रेण्यसंख्येय भागमात्राः, सर्वासु नरकभूमिषु सासादनसम्यग्मिध्यादृष्टयसंयत नारकाः पल्योपमासंहयातभागप्रमाः। तिर्यग्गता मिथ्याष्टयः जोवाः अनन्ताः । सासादन सम्याग्मिथ्यादृष्टयसंयता देशसंयतजीवाः पल्योपमा संख्येयभागमात्राः । मनुष्यगतो मनुष्याः मिथ्यादृष्टयः श्रेण्यसंख्येयभाग प्रमाणा:, स चासंख्येयभागः असंख्याता: योजनकोटिकोट्यः । सासादनमुणस्थानतिनः द्विपञ्चाशत्कोटिप्रमाः स्युः। तृतीय गुणस्थान वतिनः सम्यग्मिय्यादृष्टयः चतुरधिकशतकोटिमात्राः। अविरतगुणस्थानस्थः अविरतसम्यग्दृष्टयः सप्तशतकोटी सम्मिताः। देशविरतगुणस्थानाधिताः । संयतासंयताः त्रयोदशकोटी मात्राः उत्कग सन्ति । प्रमत्तगुणस्थानस्थाः प्रमत्तसंयताः पंचकोटिविनवति लक्षाष्टनवतिसहस्रद्विशतषट्प्रमाणा उत्कृष्टेन सन्ति । अप्रमत्तगुणस्थानका अप्रमत्तसंयताद्विकोटिषणवतिलक्षनवनवति सहस्र कशत त्रिसंख्याना: भवति । अपूर्वक रणगुणस्थानस्थिता उपमिकाः भवनवत्यधिकद्विशतप्रमाः स्युः । क्षपकण्याधित्ताः पक्राः अष्ठानवत्य धिकपञ्चशतप्रमागाश्च । अनिवृत्तिगुणस्थानवर्तिनः उपशमिकाः नवनवत्यमद्विशतप्रमाः स्युः । क्षपकाः अष्टानबत्यधिकपञ्चशतसम्मिताश्च । सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानस्थिता उपशमण्यारोहिता उपमिका मुनयः नवनवत्यधिकद्विशतमानाः भवन्ति । सपकण्यारोहिताः क्षपकाः यतयः अष्टानबत्यधिकपञ्चशतसंख्यकाश्च। उपशांतकषाय गुणस्थान स्था उपशमिकाः नवनवतियुतद्विशतप्रमाःस्युः। क्षीणकषायगुरगस्थानवर्तिनःक्षपकाः अष्टानवतियुक्तपञ्चशतसम्मिताश्च । सयोगगुणस्थानाश्रिताः सयोगिजिनाः अष्टलक्षाष्टानब ति सहस्रपञ्च. शत द्विप्रमाणा: भवेयुः । प्रयोगगुणस्थानस्थिताः अयोगिजिनाः अष्टानवतियुतपञ्चशत प्रमाः उत्कृष्टेन स्युः। एते सर्वे पिण्डीकृताः प्रमत्ताद्ययोगिगुगास्थानपर्यंत बतिनस्तपोधना: त्र्यूननवकोटिप्रमा: उत्कृष्टेन साधंद्वीपद्वये चतुर्थकाले भवन्ति । देवगतो मिथ्याघटयो ज्योतिरकथ्यन्तरादेवाः असंख्याताः अंगाय: प्रतरासंख्येयभागप्रमिता।। भवनवासिनः मिथ्यादृष्योऽमरा: असंख्याता धेरणय: घनाङ्ग लप्रथमवर्गमूल प्रमाणाः स्युः । सौधर्मेशानवासिनो नाकिनः मिथ्यादृष्टयः असंख्याताः श्रे गायः घनाङ गुलतृतीयवर्गमूलप्रमिताः । सनत्कुमारादि कल्पकल्पातीत वासिनो मिथ्यादृष्टयोऽमरा: श्रेण्य संख्येयभागप्रमिताः प्रसंख्यातयोजनकोटीप्रदेशमात्रा स्युः। ज्योतिष्कष्यन्तरा: भवनवासिनः सौधर्मशानमाकिनः । सनत्कुमारादिकल्पकल्पातीतयासिन: सासादन सम्यस्मिथ्यादृष्टयविरता: प्रत्येक पल्योपमासंख्येयभाग प्रमाणा: सन्ति । अर्थ:-नरकगतिगत प्रथमनरक में मिथ्यादृष्टि नारकी जीव असंख्यात श्रेणी प्रमाण हैं, जो धनांगुल के कुछ कम द्वितीय वर्गमूल प्रमाण है। द्वितीय पृथिवी से सप्तम पृथिवी पर्यन्त के छह नरकों Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशोऽधिकार [ ४१६ में मिध्यादृष्टि जीब श्रेणी के श्रसंख्यातवें भाग प्रमाण हैं । सातों नरक भूमियों में सासादन सम्यग्दृष्टि, सभ्य मिध्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवों का पृथक् पृथक् प्रमाण पत्योपम के श्रसंख्यातवें भाग है । तिर्यंचगति में मिथ्यादृष्टि जीव अनन्त हैं । सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, श्रसंयत सम्यग्दृष्टि श्रीर देशसंयत जीव पृथक् पृथक् पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। मनुष्यगति में मिध्यादृष्टि मनुष्य श्रेणी के श्रसंख्यातवें भाग प्रमाण हैं, और वह श्री का असंख्यातवां भाग प्रसंख्यात कोडाकोडो योजन प्रमाण है । सासादन गुणस्थानवर्ती जीव ५२ करोड़ प्रमाण हैं । तृतीय गुणस्थानवत समिध्यादृष्टि मनुष्य १०४ करोड़ प्रमारण, चतुर्थगुणस्थान में अविरतसम्यग्दृष्टि मनुष्य ७०० करोड़ प्रमाण. पंचम मेंदेतुः १३ करो प्रमाण हैं । प्रमत्तगुणस्थान में प्रमत्तसंयंत मुनिराज उत्कृष्टत: ५६३६८२०६ हैं । श्रप्रमत्त गुरणस्थान में अप्रमत्तसंयत मुनिराज २९६६६१०३ हैं । श्रपूर्वकरणगुणस्थान में उपशम में लोगत योगी २६६ हैं और क्षपक श्रेणीगत क्षपक जीव ५६८ हैं । अनवृत्तिकरण गुणस्थान में उपशम ध गित जीव २६६ और क्षपक श्र े रिगत ५६८ हैं । सूक्ष्मसाम्पराय गुगस्थान में उपशम थे णि श्रारोहित मुनिराज २६६ हैं और क्षपक गित सुनिराज ५६८ हैं। उपशान्तकषाय गुणस्थान स्थित मुनिराजों का प्रभाग २६६ है तथा क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती योगियों का प्रमाण ५६८ है । सयोगगुणस्थान में सयोगिजिनों की सर्वोत्कृष्ट संख्या प्रमाण ८६८५०२ है । अयोगगुणस्थान स्थित प्रयोगिजिनों का प्रमाण उत्कृष्टत: ५६८ होता है । चतुर्थकाल में अढ़ाई द्वीप स्थित छठवें गुणस्थान से १४ वें गुणस्थान पर्यन्त के सर्व योगिराजों का योग करने पर सर्व तपोधनों का उत्कृष्ट प्रमाण ८६६६६६६७ अर्थात् तीन कम नौ करोड़ प्राप्त होता है । देवगति में ज्योतिष्क और व्यन्तर देवों का प्रमाण प्रसंख्यात श्र ेणी स्वरूप प्रतर के असंख्यातवें भाग प्रमाण और भवनवासी मिथ्यादृष्टि देव असंख्यात श्र ेणी स्वरूप अर्थात् घनांगुल के प्रथम वर्गमूल प्रमाण श्र ेणी हैं । सौधर्मेशान स्वर्गों में मिध्यादृष्टि देव श्रसंख्यात श्रेणी स्वरूप अर्थात् घनांगुल के तृतीय वर्गमूल प्रमाण श्रेणियाँ हैं । सानत्कुमारादि कल्पों में और कल्पातीत स्वर्गो में मिध्यादृष्टि देव श्रेणी के प्रसंख्यातवें भाग अर्थात् असंख्यात योजन करोड़ क्षेत्र के जितने प्रदेश हैं उतनी संख्या प्रमाण हैं । ज्योतिष्कों, व्यन्तरवासी देवों, सौधर्मेशान स्वर्गो, सानत्कुमारादि कल्पों और कल्पातीत विमानों में सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि देवों का प्रत्येक स्थानों में पृथक् पृथक् प्रमाण पत्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र है । I अब जीवों के प्रमाण का प्रत्ययहुत्व कहते हैं :-- चतुर्गतिषु संसारे मध्ये स्युः सकलाङ्गिनाम् । अत्यल्पा मानवाः श्रेण्यसंख्येयभागमात्रकाः ।।१७० ॥ Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२. ] सिद्धान्तसार दोपक मनुष्येभ्योऽप्यसंख्यातगुणानरकयोनिषु । नारकाः स्युरसंख्याताः श्रेणयो दुःखविह्वला: ॥१७१॥ नारकेभ्योऽप्यसंख्यातगुणादेवाश्चतुर्विधाः । भवन्ति प्रतरासंख्येयभागसम्मिताः शुभाः ॥१७२।। देवेभ्यः सिद्धनाथाः स्युरनन्तगुणमानकाः । सित भ्योऽपिलसिधा सामगन्ताः ॥१७३।। अर्थः-इस चतुर्गति संसार में पंचेन्द्रिय जीवों में मनुष्य सबसे स्तोक हैं, इनका प्रमाण श्रेगो के असंख्यातव भाग मात्र है ।। १७० ॥ नरक भूमियों में दुःख से विह्वल नारको जीव मनुष्यों से असं. ख्यातगुणे हैं, जो असंख्यात श्रेणी प्रमाण हैं ।।१७१।। नारकियों से असंख्यातगुणे चतुनिकाय के देव हैं, जो प्रतर के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं ।। १७२ ।। देवों से अनन्तगुणे सिद्ध भगवान हैं, और सिद्धों से अनन्तगुरणे तियं च जीव हैं ।।१७३।। अब नरफमति अपेक्षा अल्पबहुत्य कहते हैं :-- सप्तमे नरके सन्ति सर्वस्तोकाश्च नारकाः। तेभ्योऽपि नारकेभ्यः स्युरुपयुपरिवर्तिषु ।।१७४।। षट्पृथिवी नरकेष्वत्र नारकाः सुखदूरगाः । असंख्यातगुणाः प्रत्येक दुःखाम्बुधिमध्यगाः ॥१७॥ अर्थ:--सप्तम नरक में नारको जीव सबसे स्तोक हैं। सप्तम नरक के नारकियों से ऊपर ऊपर की छहों नरक पृथिवियों में दुःख रूपी समुद्र के मध्य डूबे हुए अत्यन्त दु:खी नारकी जीव असंख्यातगुणे असंख्यातगुणे अधिक अधिक हैं । अर्थात् सप्तम नरक के नारकियों से छठवें नरक के नारकी असंख्यानगुरणे, छठवें से पांचवें में असंख्यातगुणे इत्यादि ॥१७४-१७५।। अमीषां सप्तनरकपृथ्वीषु व्यासेन पृथक् पृथक् संख्यानिगद्यते :-- सप्तम्यां पृथिव्यां सत्रं स्तोका: नारकाः । श्रेण्य संख्येयभागप्रमाणाः श्रेणि द्वितोयवर्गमूले न खण्डितश्रेणिमात्राः तेभ्यः सप्तमपृथिवीनारके म्यः । षष्टयां पृथ्व्यां नारकाः असंख्थातगुणाः, अंगितृतीयवर्गमूलेनापहृत्य श्रेणि मात्राः स्युः, षष्टपृथ्वो नारके म्यः । पञ्चम्यां पृथ्टयां मारकाः असंख्येयगुणाः, श्रेणि षष्ट वर्गमूलापहृतस्य श्रेणिमात्राश्च पञ्चमपृथ्वीनारकेभ्यः । चतुर्या पृथ्व्या नारकाः असंख्यातगुणाः, श्रेण्यष्टमवर्गमूलापहृत श्रणिसम्मिताः चतुर्थपृथिवी नारकेभ्यः । तृतीयायां पृथिव्यां नारकाः असंख्येयगुणाः,णि दशमवर्गमूलापहृत श्रेणि लब्धमात्राः, तृतीयपृथिवी नारकेभ्यः। द्वितीयायां पृथ्व्यां नारका: Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकाविहार [ ४२१ असंख्यातगुणाः श्रेणिद्वादशवर्गमूलखण्डित श्रेण्यकभाग परिमिताः स्युः द्वितीय पृथिवी नारकेभ्यः प्रथमायां पृथिव्यां नारवा असंख्यातगुणाः, घनाङ गुलबर्गमूलमायाः श्रेणयो भवन्ति । अर्थ:--सतम पृथ्वी में नारकी जीव सबसे कम आर्थात श्रेणी के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं । (सात राजू को भगी होती है) श्रेणी के दूसरे वर्गमूल से श्रेणी को भागित करने पर जो लब्ध प्राम होता है, उतने प्रमाण सम नरक के नारकी जीवों की संख्या है । सप्तम पृथ्वी से छठवीं पृथ्वो में नारकी जोब असंख्यात गुरखे हैं। श्रेणी के तृतीय वर्गमूल से श्रेणी को अपहुल ( भागित ) करने पर जो लब्ध प्राप्त हो उतने प्रमाण नारको जीव छठवीं पृथ्वी में हैं। छठवीं पृथ्वी से पांचवीं पृथ्वी के नारकी जीव असंख्यातगुरणे हैं । अंगो के छठवें वर्गमूल से श्रेणी को भागित करने पर जो लब्ध प्रान हो उतने प्रमाण पाँचवे नरक के नारको जीवों को संख्या है। पांचवीं पृथ्वी से चतुर्थ पृथ्वी में नारको जीव असंख्यातगुरणे हैं 1 घेणी के अष्टम वर्गमूल से श्रेणी को भाजित करने पर जितना लब्ध प्राप्त होता है, उतने ही प्रमाण चतुर्थ पृथ्वी के नारकी जीवों का है । चतुर्थ पृथ्वो से तृतीय पृथ्वी के नारकी जीव असंख्यात गुणे हैं। श्रेणी के दशवें वर्गमूल से वेणा को भाजित करने पर जो लब्ध प्राप्त हो उतनी संख्या प्रमाग जीव तृतीय पृथ्वो में हैं । तृतीय पृथ्वी से द्वितीय पृथ्वी के नारको जोव असंख्यात गुणे हैं। श्रेणो के बारहवें वर्गमूल' से श्रेणी को भाजित करने पर जो खब्ध प्राप्त हो, उतने प्रमाण जोव द्वितीय पृथ्वी में हैं, वे श्रेणों के एक भाग प्रमाण प्राप्त होते हैं। द्वितीय पृथ्वी से प्रथम पृथ्वी के नारको जीव असंख्यात गुरगे हैं, वे संख्या में घनांगल के वर्ग मूल प्रमाण श्रेणियों के बराबर हैं, अर्थात् श्रेणी को घनांगुल के वर्गमूल से गुणित करने पर जो संख्या प्राप्त हो तत्प्रमाण (प्रथम पृथ्वी में नारको ) हैं। अब तियंचगति को अपेक्षा अन्पबहुत्व कहते हैं :-- पञ्चेन्द्रिया हि तिर्यश्चः सर्वस्तोका महीतले । भवन्ति प्रतरासंस्वातमाग प्रमितास्ततः ॥१७६॥ पञ्चाक्षेभ्यश्चतुर्याक्षाः स्युविशेषाधिका भुवि । स्वकीयराश्यसंख्यातभागमात्रेण दुःखिनः ।।१७७।। तुर्याक्षेभ्यस्तथा द्वीन्द्रियाः विशेषाधिका मताः । विशेषाः स्वस्वराशेश्चासंख्यातभागमात्रकाः ॥१७॥ द्वीन्द्रियेभ्यस्तथा त्रीन्द्रिया विशेषाधिकाः स्मृताः । विशेष: स्वस्वराशेरसंख्येयभागमात्रकाः ॥१७६।। Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ ] सिद्धान्तसार दीपक श्रोन्द्रियेभ्यस्तथैकाक्षा अनन्तगुणसम्मिताः। प्रथ वक्ष्ये नृणां संस्थापबहुत्वं यथागमम् ॥१०॥ अर्थः-तियं च राशि की अपेक्षा संसार में पंचेन्द्रिय तियंत्र जीव सर्व स्तोक अर्थात् प्रतर के ' असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं । पंचेन्द्रिय तिर्यचों से अत्यन्त दुःख से युक्त चतुरिन्द्रिय जीव विशेष अधिक हैं । अर्थात् पंचेन्द्रिय तिर्यचों की राशि के असंख्यातवें भाग प्रमाण अधिक हैं। चतुरिन्द्रिय जीवों मे वीन्द्रिय जीव विशेष अधिक है । वह विशेष का प्रमाण अपनी अपनी राशि अर्थात् चतुरिन्द्रिय राशि का असंख्यातों भाग है। द्वीन्द्रिय जीव राशि से त्रीन्द्रिय जीव विशेष अधिक है । विशेष का प्रमाण अपनी अपनी राशि अर्थात् द्वीन्द्रिय जीव राशि का असंध्यातवाँ भाग मात्र है । श्रीन्द्रिय जीव राशि के प्रमाण से एकेन्द्रिय जोव राशि अनन्तगुणी अधिक है। अब मैं पागम के अनुसार मनुष्यों की संख्या का अल्पबहुत्व कहूँगा ।।१७६-१८०।। अब मनुष्य गति में स्थित मनुष्यों का प्रल्पबहुत्व कहते हैं :-- भवन्ति नृगतौ सर्वस्तोकाः संख्यातमानवाः । अन्तर्वीपेषु विश्वेषु पिण्डिताम्तेभ्य एव च ॥११॥ अन्तर्वीपमनुष्येभ्यः संख्यातगुणसम्मिताः। दशसूत्कृष्ट सदभोग भूमिषु प्रवरा नराः ॥१२॥ तेभ्यो मांश्च संख्यातगुणाधिका जिनः स्मृताः। हरिरम्यक वर्षेषु द्विपञ्चसु सुभोगिनः ॥१३॥ तेभ्य मार्याश्च संख्यातगुणा दशसु सन्ति वै । सु हैमवतहैरण्यवतान्त भोगभूमिषु ॥१४॥ तेभ्योऽपि भरत रावतेषु द्विपञ्चसु स्फुटम् । कर्मभूमिषु संख्यातगुणा नराः शुभाशुभाः ॥१८॥ तेन्यः पञ्चविवेहेषु संख्यासगुणमानवाः । तेभ्यः सन्मूच्र्छनोत्पना असंख्यातगुणा नराः ॥१६॥ भवन्ति श्रेष्यसंख्यातकभागमात्रका अपि । स च श्रेणेरसंख्यातभाग पाण्यात प्रागमे ।।१८७॥ असंख्ययोजन: कोटोकोटिप्रवेशमात्रकाः । एते स्पर्लबध्यपर्याप्ता माः सन्मूर्छनोद्भवाः ॥१८॥ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशोऽधिकारः [ ४२३ नामौस्तनान्तरे योनौ कक्षायां च निसर्गतः । सूक्ष्मा नरा इमे स्त्रीणां जायन्ते दृष्यगोचराः॥१८६॥ शेषा ये गर्भजा माः पर्याप्तास्ते न चेतराः । अथ देवगतो वक्ष्येऽल्पबहुत्वं जिनागमात् ।।१६।। अर्थ:- मनुष्यगति में लवणोदधि और कालोदधि समद्रों में स्थित ६६ अन्तर्वीपों के मनुष्यों का प्रमाण एकत्रित करने पर भी वे सर्व स्तोक हैं । अन्तद्वीपों के मनुष्यों से पंचमेरु सम्बन्धी दश उत्कृष्ट भोगभूमियों के मनुष्य संख्यातगुणे हैं ॥१८१-१८२॥ उत्कृष्ट भोगभूमियों के मनुष्यों से पंचमेर सम्बन्धी हरि-रम्यक नगमक दश मध्यम भोगभूमियों के मनुष्य संख्यातगुणे हैं ।।१८३।। मध्यम भोगभूमियों से हैमवत हैरण्यवत नामक १० जघन्य भोगभूमियों के मनुष्य संख्यात्तगुणे हैं, और जघन्य भोगभूमियों के प्रमाण से पांच भरत, पंच ऐरावत नामक दश कर्मभूमियों में शुभ अशुभ कर्मों से युक्त मनुष्य संख्यातगुणे हैं ॥१८४-१८५३ कर्मभूमिज मनुष्यों के प्रमाण से पंचविदेह क्षेत्रों के मनुष्य संख्यातगणे हैं और विदेहस्थ मनुष्यों के प्रमाण से सम्मूर्छन मनुष्यों का प्रमाण असंख्यात गुणा है ।।१६।। जो श्रेणी के असंख्यात भागों में से एक भाग मात्र हैं। प्रागम में उस श्रेणी के असंख्यातवें भाग का प्रमाण असं. व्यात कोटाकोटी योजन क्षेत्र के जितने प्रदेश होते हैं, उतने प्रमाण कहा है अत: सम्मच्छंन जन्म वाले लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्यों का भी यही प्रमाण है 11 १८७-१८८ ।। दृष्टि अगोचर ये सूक्ष्म लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य कर्मभूमिज स्त्रियों को नाभि, योनि, स्तन और कांख में स्वभावतः उत्पन्न होते हैं ॥१८६।। इन अपर्यापक मनुष्यों से अवशेष गर्भज मनुष्य पर्याप्त ही होते हैं, अपर्याप्तक नहीं । अब आगमानुसार देवगति में अल्पबहुत्व' कहते हैं ।।१६०।। अब देवगति अपेक्षा अपबहुत्व कहते हैं :-- विमानवासिनः स्तोकादेवा देव्यो भवन्ति च । तेभ्योऽसंख्यगुणाः सन्ति दशधा भावनामराः ॥१६१।। तेभ्योऽसंख्यगुणा देवा व्यन्तरा अष्टघा मताः । तेभ्यः पञ्चविधा ज्योतिष्काः संख्यातगुणाः स्मृताः ॥१२॥ अर्थः-देवगति में विमानवासी देव देत्रियों का प्रमाण सर्व स्तोक है। विमानवासी देवों के प्रमाण से दश प्रकार के भवनवासी देवों का प्रमाण असंख्यातगुणा है। भवनवासी देवों से आठ प्रकार के व्यन्तर देवों का प्रमाण असंख्यातमरणा है और ध्यन्तर देवों से पांच प्रकार के ज्योतिषी देवों का प्रमाण संख्यातगुणा है ॥१६१-१६२।। Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ ] सिद्धांतसार दीपक पुनर्देवानां प्रत्येकमल्पबहुत्वमुच्यते : सर्वार्थ सिद्धौ स्तोका अहमिन्द्रमराः स्युः । तेभ्यो विजयवैजयन्तजयन्तापराजितानवानुत्तरेषु अहमिन्द्राः असंख्यातगुणाः पल्योपमासंख्यातभागप्रमिताश्च । तेभ्यो नवग्रंवेयकानतप्राणतारणाच्युतेषु देवाः असंख्यातगुणाः पल्योपमासंख्यातभागसम्मिताः । तेभ्यः शतारसहस्रार कल्पयो किनः असंख्यात. गुणाः, श्रेरिणचतुर्थवर्गमूलखण्डित श्रेण्येकभाग प्रमाः तेभ्यः शुक्रमहाशुक्रयोर्देवा असंख्यातगुणा, भेरिण पञ्चमवर्गमूलखण्डित श्रेण्ये कभागसम्मिताः। तेभ्यः लान्तवकापिष्टयोगीर्वाणा असंख्यातगुणा', श्रेणिसप्तमवर्गमूलखण्डित श्रेण्येकभागप्रमिताः । तेभ्यो ब्रह्मब्रह्मोत्तरयोरमराः असंख्यातगुणाः, श्रेणिनवमवर्गमूलखण्डित श्रेण्येकभागमात्राः । तेभ्यः समत्कुमारमाहेन्द्रयोदेवा: असंख्यातगुणाः, थे ण्येकादशमवर्गमूलख पिडत अंकभागमापाः सौनशाको गीर्वाणा: असंख्याताः । एते सर्वे सौधर्मादि सर्वार्थसिद्धिपर्यन्तविमानवासिनोऽमराः असंख्यातोरण मात्राः घनाङ गुलतृतीयवर्गमूल मात्रा: साधिका: श्रणयः । तेभ्यः प्रसंख्यातगुणाः दशविधा भवनवासिन: मसंख्यातश्रेणयः घनाङ गुलप्रथमवर्गमूल मात्रा: श्रेण्यः । तेभ्यः असंख्यातगुणाः, अष्टप्रकाराः व्यन्त रामराः प्रतरासंख्यातभागमात्राः संख्यातप्रतराङ गुलै: रोर्भागे हृते यल्लब्ध तावन्मात्रा:श्रेणयो भवन्ति । तेभ्यः पञ्चविधाज्योतिष्काः संख्यातप्रमाः प्रतरासंख्यातभागमात्राः पूर्वोक्त संख्यातगुग्गहीनसंख्येयप्रतराङ गुलःश्रेणे गे हते तावा. मात्राः घेण्यो भवन्ति । अब वेषों का भिन्न भिन्न अल्पबहुत्व कहते हैं :-- देवगति गत सर्वार्थ सिद्धि के अहमिन्द्र देव सबसे स्तोक हैं । इनसे विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित में तथा नवोत्तर विमानों में स्थित सर्व अहमिन्द देव असंख्यातगणे अर्थात् पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। इनसे नवग्न वेयक, पानत, प्राणत, पारण और अच्युत स्वर्गों के देव संख्यातगणे अर्थात् पल्योपम के प्रसंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। इनसे शतार-सहस्रार स्वर्ग के देव असंख्यातगुरो अर्थात् श्रेणी के चतुर्थ वर्गमूल का श्रेणी में भाग देने पर जो लब्ध प्राप्त हो उसके एक भाग प्रमाण हैं। इनसे शुक्र-महाशुक्र कल्प के देव असंख्यातगुरो अर्थात् श्रेणी के पंचम वर्गमूल से भाजित श्रेणो के एक भाग प्रमाण हैं । इनसे लान्तव-कापिष्ट कल्प के देव असंख्यातगुरणे अर्थात् थेरणी के सप्तम वर्गमूल से खण्डित श्रेणी के एक भाग प्रमाण हैं। इनसे ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर कल्प के देव श्रेणी के नवम वर्गमूल से खण्डित श्रेणी के एक भाग प्रमाण हैं। इनसे सनत्कुमार-माहेन्द्र कल्प के देव असंख्यातगुणे अर्थात् श्रेणी के ग्यारहवें वर्गमूल से खण्डित श्रेणी के एक भाम प्रमाण हैं । इनसे सौधर्मशान कल्प के देवों का प्रमाण असंख्यातगुणा है। सौधर्म स्वर्ग से सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त के सर्व विमानवासी देव असंख्यात श्रेणो प्रमाण हैं अर्थात् घनांगुलके तृतीय वर्गमूल से कुछ अधिक प्रमाण श्रेणियाँ हैं । इनसे असंख्यात गुरणे दशप्रकार के भवन बासी देव हैं, जो प्रसंख्यात श्रेणी प्रमाण अर्थात् घनांगुल Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशोऽधिकारः [ ४२५ के प्रथम वर्गमूल का जितना प्रमाण है, उतनी श्रेणियों के प्रमाण हैं । इनसे असंख्यातगुणे माठ प्रकार के व्यन्तरदेव हैं, वे जगत्प्रतर के असंख्यातवें भाग प्रमाण अर्थात् संख्यात प्रतरांगुलों से श्रेणी को भाजित करने पर जो लब्ध प्राप्त हो उतनी घरिणयों प्रमाण हैं । इनसे संख्यातगुरणे पाँच प्रकार के ज्योतिषी देव हैं। वे ज्योतिष देव जगत्प्रसार के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं । अर्थात् पूर्वोक्त संख्यातप्रत रांगुलों से संख्यातगुण हीन प्रतरांगलों द्वारा श्रेणी को खण्डित करने पर जो प्रमाण प्रावे उतनी श्रेणियाँ हैं। अब जीवों की पर्याप्ति और प्राणों का कथन करते हैं :-- पाहारोऽथ शरीरं चेन्द्रियानप्राणसंज्ञको । भाषा मन इमाः षट्स्युः पर्याप्तयोऽत्र संजिनाम् ॥१६३॥ असंजिविकलाक्षाणां स्युस्ताः पञ्च मनो विना । एकाक्षाणां चतमश्च पाप्तिसो वचो विना ।।११४॥ पञ्चेन्द्रियाह्वयाः प्राणा मनोवाक्कायजास्श्रयः । प्रानप्राणस्तथायुश्चामी प्राणा दश संजिनाम् ॥१६॥ असंज्ञिनां नवप्राणास्ते भवन्ति मनो विना । चतुरिन्द्रियजीवानामष्टो श्रोत्रं विनापरे ।।१६६॥ त्रीन्द्रियाणां च ते प्राणाः सप्त चक्षविना स्मृताः। द्वीन्द्रियाणां च षट प्राणाः सन्ति नाणेन्द्रियं विना ।।१६७।। पृथिव्यादि वनस्पत्यन्तपञ्चस्थावरात्मनाम् । एकाक्षाणां चतुःप्रारणा रसनाक्ष वचोऽतिगाः ॥१६८।। पञ्चेन्द्रियाह्वयाःप्राणा प्रायुः शरीरमित्यमी । सप्तप्राणा अपर्याप्तसंज्ञि पश्चाक्षजन्मिनाम् ।।१६।। पञ्चाक्षायुः शरीराख्याः प्राणाः सप्तभवन्ति च । असंज्ञिनामपर्याप्तपञ्चेन्द्रियात्तदेहिनास ॥२००। चत्वारइन्द्रियः प्राणा प्रायुः काय इमे मताः । प्रारणाः षट् भुव्यपर्याप्तचतुरिन्द्रिय जन्मिनाम् ।।२०१।। स्पर्शाक्षरसनघ्राणाक्षायुः काया अपोत्यमी । प्रारणाः पञ्चह्यपर्याप्तत्रीन्द्रियासुमतां स्मृताः ।।२०२॥ Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ ] सिद्धान्तसार दीपक स्पर्शजिह्वाक्षकायायुः प्राणाश्चत्वार एव हि । प्रागमे फोतिता द्वीन्द्रियापर्याप्ताङ्गिनां जिनैः ॥२०३॥ स्पर्शन्द्रियशरीरायुः प्राणास्त्रयो मता जिनः । अपर्याप्तपृथिध्यादिपञ्चस्थावर जन्मिनाम् ।।२०४॥ · अर्थ:- गृहीत आहार वर्गणा को खल-रस प्रादि रूप परिणामाने की जीव की शक्ति के पूर्ण होने को पर्याप्ति कहते हैं ।) पाहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा और मन इस प्रकार पर्याप्ति के छह भेद हैं। संजो पंचेन्द्रिय जीवों के छहों पर्यानियां होती हैं ।। १६३॥ असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के और विकलेन्द्रिय-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीवों के मन पर्याप्ति के बिना पांच तथा एकेन्द्रिय जीवों के मन और वचन के बिना चार पर्याप्तियाँ होती हैं ॥१६४।। प्राण :-( जिनके सद्भाव में जीव में जीवितरने का और वियोग होने पर मरणपने का व्यवहार हो उन्हें प्राण कहते हैं ) । पाँच इन्द्रिय (स्पर्शन. रसना, नाणा, चक्षु, कर्ण ) प्राण, मनोबल, बचनबल और कायबल के भेद से तोन बल प्राण, एक श्वासोच्छ्रवास और एक प्रायु इस प्रकार दश प्राण होते हैं 11१६५।। प्रसंज्ञो पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों के मनोबल को छोड़ कर शेष नव प्राण होते हैं । चतुरिन्द्रिय जीवों के श्रीन्द्रिय को छोड़ कर पाठ प्राण, श्रीन्द्रिय जीवों के चक्षु को छोड़कर सात प्राण और द्वीन्द्रिय जीवों के प्राणेन्द्रिय को छोड़ कर शेष छह प्रारण होते हैं ।।१९६-१९७। पृथिवी कायिक से लेकर वनस्पति कायिक पर्यन्त पांचों स्थावर जोवों के रसनेन्द्रिय और वचनश्ल को छोड़कर शेष चार प्राण होते हैं ॥१९॥ संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्यातक जोवों के पाँच इन्द्रियाँ. कायबल और आयु इस प्रकार सात प्रारण होते हैं ॥१६॥ असंज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक जोबों के पांच इन्द्रियाँ. कायबल और प्रायु ये ही सात प्राण होते हैं ।।२०।। अपर्याप्तक चतुरिन्द्रिय जीवों के चार इन्द्रियाँ. प्रायु और काय बल ये छह प्राण होते हैं ।। २०१॥ अपर्याप्तक त्रीन्द्रिय जीवों के स्पर्शन, रसना और प्राण ये तीन इन्द्रियाँ, आयु और कायबल ये पांच प्रारण होते हैं ।। २०२ ।। जिनेन्द्रों के द्वारा श्रागम में अपर्यापक वीन्द्रिय जीवों के स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, प्राय और कायबल ये चार प्रारण कहे गये हैं ।।२०३।। जिनेन्द्र के द्वारा स्पर्शनेन्द्रिय, कायबल और प्रायु ये तीन प्राण अपर्याप्तक पृथिवो आदि पांच स्थावर जीवों के कहे गये हैं ।। २०४॥ अब जीवों की गति-प्रागति का प्रतिपादन करते हैं :-- ये पृथ्वीकायिकाप्कायिका वनस्पतिदेहिनः । द्विश्रितुर्याक्षपदाक्षा लब्ध्यपर्याप्तकाश्च ये ॥२०॥ पृश्यादिकवनस्पत्यन्ताः सूक्ष्माः निखिलाश्च ये । जोवाः पर्याप्तकापर्याप्ताप्लेजोवायुकायिकाः ॥२०६॥ Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशोऽधिकारः [ ४२७ सूक्ष्मवादरपर्याप्तापर्याप्ताः सकलाश्च ये । प्रसंज्ञिनश्च सर्वेषां तेषां मध्ये विथेशात् ।।२०७॥ उत्पद्यन्ते प्रतातीतास्तिर्यञ्चो मानवाः अधात् । तस्मिन्नेव भने मृत्वा स्थातिध्यानकुलेश्यया ।।२०।। पृथ्वीकायास्तथाप्कायिका बनस्पतिकायिकाः । सूक्ष्मवादरपर्याप्तपर्याप्ताविकलेन्द्रियाः ॥२०६॥ एते कर्मलघुत्वेन जायन्ते तवे मृताः । नृतिर्यग्भवयोर्मध्ये काललब्ध्या न संशयः ॥२१०।। सूक्ष्मवावरपर्याप्तापर्याप्तनलकायिकाः । सूक्ष्मवादरपर्याप्तपर्याप्तवायुकायिकाः ॥२११।। न लभ्यन्ते मनुष्यत्वं मृत्था तस्मिन् भवे क्वचित् । किन्त्वेते केयलं तिर्यग्योनि यान्ति कुकर्मभिः ॥२१२।। प्रत्येकाख्य वनपत्यङ्गिषु पृथ्व्यम्युयोमिषु । वादरेषु च पर्याप्तेषु जायन्ते विधेवंशात् ॥२१३।। प्रार्तध्यानेन वुमृत्यु प्राप्य संक्लिष्टमानसाः । तिर्यञ्चो मानवा देवास्तस्मिन्भवे वतातिगाः ।।२१४।। नृगतौ भोगभूम्यादि वजितायां सुरेषु च । भावनव्यन्तर ज्योतिष्कजेषु नरकादिमे ।।२१५॥ कर्मभूमिजतिर्यग्योनिषु सर्वासु तद्भवे । तिर्यञ्चोऽसंजिपर्याप्ता उत्पद्यन्ते स्वकर्मणा ॥२१६॥ तिर्यञ्चो मानवा भोगभूजास्तद्भोगजास्तथा । पान्ति देवालयं सर्वे नूनं मन्दकषायिणः ॥२१७॥ अर्थः-पृथिवोकायिक, जलकायिक, वनस्पतिकायिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय इन लब्ध्यपर्याप्तक जीवों में पर्याप्त एवं अपर्याप्तक सूक्ष्मकाय पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पतिकायिक जीवों में, समस्त अग्निकायिक, वायुकायिक जीवों में तथा सम्पूर्ण असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक अपर्याप्तक जीवों में पापकर्म के वशीभूत होते हुए प्रत रहित तिथंच और मनुष्य उत्पन्न होते हैं तथा आर्तध्यान एवं कुलेश्याओं से युक्त सुक्ष्म-वादर पर्याप्तक और अपर्याप्तक पृथिवी कायिक, जलकायिक, बनस्पतिकायिक जीव एवं पर्याप्तक-अपर्याप्तक विकलेन्द्रिय जीव इन पर्यायों से मर कर कर्मों Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ ] सिद्धान्तसार दीपक के कुछ मंदोदय से एवं कालल ब्धि से मनुष्यों तथा तिर्यंचों में उत्पन्न होते हैं ।।२०५-२१०।। सूक्ष्म, बादर, पर्याप्तक मोर अपर्याप्तक अग्निकायिक जीव तथा सूक्ष्म-बादर पर्याप्तक और अपर्याप्तक बायु कायिक जीब इन भवों से मरकर कभी भी मनुष्य पर्याय प्राप्त नहीं करते, दुष्कर्मों के कारण मात्र तियंच योनियों में ही उत्पन्न होते हैं।२११-१२। कोजानियमों के युद्ध तथा बतरहित तिर्यच, मनुष्य और देव प्रात्त ध्यान एवं कर्मोदय के वश से दुमृत्यु को प्राप्त होकर बादर पर्याप्तक पृथिवीकायिक, जलकाथिक और प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीवों में उत्पन्न होते हैं ।।२१३-२१४।। अपने कर्मों के वशीभूत होते हुए असंज्ञो पर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यंच मरकर भोगभूमिज मनुष्यों को छोड़ कर मनुष्यगति में, भवनवासी, ब्यन्तरवासो और ज्योतिष्क रूप देवगति में, प्रथम नरक में तथा कर्म भूमिज तियंच योनि में उत्पन्न होते हैं ।।२१५.-२१६|| भोगभूमिज तिथंच और मनुष्य नियम से देवों में ही उत्पन्न होते हैं, क्योंकि वे स्वभाव से मन्दकषायी होते हैं ॥२१॥ अब धर्म प्राप्ति के लिये जीव रक्षा का उपदेश देते हैं :-- इति विविध सुभेदर्जीक्योनौविदित्वा गतिकुलवपुरायः स्थानसंख्याधनेकः । स्वपरहित वृषाप्स्य प्रोदिता ज्ञान दृष्टया, सचरणशिवकामाः स्वात्मवत्पालयन्तु ॥२१८।। अर्थ – इस प्रकार उत्तम चारित्र के साथ साथ मोक्ष की इच्छा करने वाले सज्जन पुरुषों को स्वपर हितकारी धर्म की प्राप्ति के लिए जीवों की गति, कुल, शरीर, आयु संस्थान और संख्या आदि के द्वारा नाना प्रकार के भेदों को ज्ञान चक्षु से भलीप्रकार जानकर अपनी प्रात्मा के सदृश ही जीवों की रक्षा करना चाहिए ।।२१८।। अधिकारान्त मङ्गल : यीयादिपदार्थधमंसकलाः सम्यक् प्रणीता जिनगै तत्पालनतो गताः शिवगति ये सरयः प्रत्यहम् । तद्रक्षा भुवने वदन्ति सविदो जीवाविरक्षाय ये, तनिष्ठा मुनयोऽखिला मम च ते दधुः स्तुताः स्वान्गुणान् ॥२१॥ इलिश्री सिद्धांतसारदीपकमहाग्रन्थे भट्टारक भोसकलकोति विरच्यते जीवजातिकुलकायायुः संख्याल्पबहुत्वादि वर्सनोनामैकादशोऽधिकारः॥ Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशोऽधिकार : [ ४२६ अर्थः- जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा सम्यक् प्रकार से कहे हुये जीवादि पदार्थों एवं सम्पूर्ण धर्मों का पालन करके जो जीव मोक्ष गये हैं, जो प्राचार्य प्रादि जीध रक्षा के लिए जीव रक्षा का उपदेश देते हैं और जो ज्ञानवान् समस्त मुनिजन उस उपदेश की परम श्रद्धा करते हैं, वे सब पूज्य पंचपरमेष्ठी मुझे अपने अपने गुण देवें । अर्थात् उनके गुण मुझे प्राप्त हों ।।२१६।। इस प्रकार भट्टारक सकलको ति विरचित सिद्धान्तसारदीपक नाम महाग्रन्थ में जीवों को कुल-काय-पायुसंख्या एवं अल्पबहुत्व आदिका वर्णन करने वाला ग्यारह्वा अधिकार समाप्त ।। Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशोऽधिकारः मङ्गलाचरण :-- सद्वासप्ततिलक्षांश्च सप्तकोटिजिनालयान् । भावनामरवन्धावान् वन्दे तत्प्रतिमाः स्तुवे ॥१॥ अर्थ:-भवनदासी देवों के द्वारा वन्दनीय और पूजनीय सात करोड़ बहत्तर लाख जिनालयों को मैं वन्दना करता है, तथा उनमें स्थित प्रतिमानों को स्तुति करता हूँ ॥१॥ प्रतिज्ञा सूत्र कहते हैं : अथ वक्ष्ये समासेन भावनादिपुरस्सरान् । देवांश्चतुर्विधान नृणां सद्धर्मफलव्यक्तये ॥२॥ अर्थः—प्राप्त किया है समीचीन धर्म का फल जिन्होंने ऐसे मनुष्यों के लिये भवनवासी आदि हैं, आगे जिनके ऐसे चार प्रकार के देवों का संक्षेप से वर्णन करूंगा ॥२॥ अब देवों के मूल चार भेद और उन चारों के प्रवस्थान का स्थान कहते हैं :-- भावना व्यन्तरा ज्योतिरुकाः कल्पवासिनोऽमराः । इमे चतुविधाः प्रोक्ताः प्राप्तधर्मफला जिनैः ॥३॥ भावनव्यन्तराणां चाधोलोके भवनानि । मध्यलोके गृहा: सन्ति यावत्सुदर्शनानकम् ।।४।। वशोनाष्टशतान्यूध्वं गत्वा चित्रामहीतलात् । योजनानां विमानानि ज्योतिष्काणां भवन्ति च ॥५॥ चित्राभूमितलाक्षेत्रं सौधर्मस्वसंश्रितम् । तदाश्रयान्मतास्तेऽपि स्वर्गलोकाश्रिताः सुराः ॥६।। Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशोऽधिकारः अथवा वेत्रलोक'त्वादूर्ध्वलोकाश्रिताः स्मृताः । यथास्थानस्थितान् वक्ष्ये क्रमात् तान् सह नाकिभिः ॥७॥ [ ४३१ अर्थ :- जिनेन्द्र भगवान ने धर्म का फल प्राप्त करने वाले देव चार प्रकार के कहे हैं - १ भवन बासी, २ व्यन्ता, ३ ज्योतिषी और ४ कल्पवासी (विमानवासी ) ||३|| भवनवासो भोर व्यंतरों के भवन अधोलोक में हैं किन्तु व्यन्तरों के गृह - प्रवास मध्यलोक में मेरु पर्वत के अग्रभाग पर्यन्त भी हैं। विशेषार्थः - त्रिलोकसार में व्यन्तरों के निवास तीन प्रकार के कहे हैं - १ भवनपुर, २ श्रावास और ३ भवन द्वीप समुद्रों मे जो स्थान हैं उन्हें भवनपुर कहते हैं । तालाब, पर्वत आदि पर जो निवास हैं उन्हें आवास कहते हैं और चित्रा पृथिवो के नीचे जो स्थित हैं उन्हें भवन कहते हैं ||४|| ज्योतिषी देवों के विमान चित्रा पृथिवी के ( ऊपरी ) तल से ७६० योजन की ऊंचाई से लेकर ऊपर (नो सौ योजन ) तक हैं ||५|| चित्रा पृथिवी के तल से सौधर्म श्राश्रित क्षेत्र है, उसके श्राश्रय से रहने बाले देव भी स्वर्ग लोक प्राश्रित जानना चाहिए। अथवा चित्रा पृथिवी तल पर देव रहते हैं इसलिए इसको ऊर्ध्वलोक प्राश्रित कहा गया है। देवों के स्थान कहां पर स्थित हैं उसका और उनके साथ देवों का यथाक्रम से वर्णन करूँगा ।।६-७ ।। अब भवनवासी देवों के स्थान विशेष का वर्णन करते हैं। : चित्राभूमि विहायाधः खरांशे भवनेशिना । नागादीनां नवानां स्युर्महान्ति भवनानि च ॥ ततोऽसुरकुमाराणां स्फुरद्रत्नमयान्यपि । भवनान्येव विद्यन्ते पङ्कभागे द्वितीयके ॥६॥ चित्राभूमेरो भागेऽद्धियुक्त सुधाशिनाम् । योजनद्विसहस्रान्तं भवन्ति शाश्वता गृहाः ॥ १० ॥ योजनानां द्विचत्वारिंशत्सहस्रान्तभूतले । महद्धियुतदेदानां विद्यन्ते प्रवरा गृहाः ।।११।। लक्षयोजनपर्यन्तं चित्राभूमेरधस्तले । मध्यमद्धियुतानां स्युर्वेधानां विपुलालयाः ॥ १२ ॥ अर्थ :- चित्रा भूमि को छोड़ कर (चित्रा के ) नीचे खर भाग में नागकुमार आदि नव प्रकार के भवनवासी देवों के महान वैभवशाली (त्रिमान ) भवन हैं, और असुरकुमारजाति वाले भवनवासी देवों के रत्नमयो भवन दूसरे पङ्कभाग में है !s - चित्रा पृथ्वी के अधोभाग से दो हजार योजन नीचे १. इमे देवां सन्ति तेन काश्रिता भवन्तु । Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ ] सिद्धांतसार दीपक तक अल्पऋद्धि धारक भवनवासी देवों के शाश्वत भवन हैं ।। १०॥ भूतल में बयालीस हजार तक महाऋद्धि धारक भवनवासी देवों के उत्तम भवन हैं, और चित्रा भूमि से नीचे एक लाख योजन तक मध्यम ऋद्धि धारक विमानवासी देवों के विपुल भवन है ।।११-१२। अब भवनवासी देवों का प्रमास्य दर्शाते हैं :-- घनाङ्गुलस्य यन्मूलं प्रथमं श्रेणिसंगुणस् । तत्समा जातिभेदेन दशधा भावनामराः ॥ १३ ॥ श्रर्थः -- घनांगुल के प्रथमवर्ग मूल को जगत्छ्र ेणी से गुरिंगत करने पर जो प्रमाण प्राप्त होता है, उतने ही दश प्रकार की जाति भेद से युक्त भवनवासी देवों का प्रमाण है || १३|| अब भवनवासियों के दश जातियों के नाम और उनकी कुमार संज्ञा को सार्थकता का दिग्दर्शन करते हैं। -: असुरानागदेवाः सुपर्णाद्वीपास्तथाब्धयः । विद्युतः स्तनिताख्या दिक्कुमारा अग्निसंज्ञकाः ॥१४॥ वाताभिधा हमे देवा दशभेदाः स्वजातितः । नाना सम्पद्युताः प्रोक्ता भावना श्रागमे जिनैः ।। १५ ।। कुमारा इव सर्वत्र क्रीडन्त्येते ततो मताः । असुरादिकुमाराश्च सर्वे सार्थकनामकाः ||१६|| अर्थ :--- जिनेन्द्र भगवान ने आगम में अनेक प्रकार की सम्पत्ति से युक्त भवनवासी देवों के असुरकुमार, नागकुमार, सुपर्णकुमार, द्वीपकुमार, उदधिकुमार, विद्युतकुमार, स्तनितकुमार, दिवकुमार, अग्निकुमार और वायुकुमार नामक देश भेद कहे हैं ||१४-१५|| ये सभी देव कुमारों के सदृश सर्वत्र क्रीड़ा करते हैं, इसलिये इनके असुर कुमार यादि दसों कुलों के अन्त में कुमार शब्द सार्थक नामवाची है || १६|| अब दसों कुलों में प्रवस्थित असुरकुमारादि देवों के वर्ण और चिह्न कहते हैं :प्रसुराः कृष्णसद्वर्णा नागाब्धयश्च पाण्डुराः । स्तनिता दिवकुमाराः स्युः सुपर्णाः काञ्चनप्रभाः ॥१७॥ विद्युद् द्वीपाग्नयो नीलवर्णा प्रत्यन्तसुन्दराः । अरुणा मरुतोऽत्रेति वर्णभेदान्विता इमे ॥१८॥ Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशोऽधिकारः [ ४३३ मणि गस्ततो दीप्तो गरुडो गजसत्तमः । मकर: स्वस्तिक बन्न सिंहाच कलशस्ततः ॥१६॥ तुरगोमूनि चिह्नानि राजन्ते मुकटे क्रमात । दशमेगामिनीप्राणि हा भारतामनाम् । १.! अर्थः-सभी असुरकुमार देव कृष्ण वर्ण के, नागकुमार और उदधिकुमार पाण्डु वर्ण के स्तनित कुमार, दियकुमार और सुपर्ण कुमार, काञ्चन वर्ण के. विद्युत्कुमार द्वीपकुमार एवं अग्निकुमार ये सभी देव अत्यन्त सुन्दर नीलवर्ण के हैं और वायुकुमार के देव लालवर्ण के होते हैं इनमें इस प्रकार वर्ण भेद हैं ।।१७-१८।। दसों कुलों में उत्पन्न असुरकुमार आदि भवनवासी देवों के मुकुटों में कम से चूड़ामणि, नाग, गरुड़, उत्तम हाथी, मगर, स्वस्तिक, वच, सिंह, कलश और अश्व ये देदीप्यमान दश चिह्न सुशोभित होते हैं ।।१९-२०॥ अब भवनवासी वेधों के भवनों को पृथक पृथक् संख्या कहते हैं :-- असुराणां चतुःषष्टि लक्षाणि भवनानि च । नागानां चतुरनाशीतिलक्षप्रमिता ग्रहाः ॥२१॥ द्वासप्ततिश्च लक्षाणि सुपर्णानां गृहास्ततः । द्वीपानामुदधीनां च विद्युतां स्तनितात्मनाम ॥२२॥ दिगाख्यानां तथाग्नीनां प्रत्येकं भवनानि च । स्युः षट्सप्तति लक्षाणि वातानां गृहसत्तमाः ॥२३॥ स्युः षण्णवति लक्षाण्यमी सर्वे पिण्डिता गहाः । द्वासप्ततिश्च लक्षाणि सप्तकोटियुतानि च ॥२४॥ अर्थः--असुरकुमार देवों के चौंसठ लाख भवन हैं। नागकुमार देवों के चौरासी लाख, सुपर्णकुमार के बहत्तर लाख, द्वीपकुमार के ७६ लाख, उदधिकुमार के ७६ लाख, विद्युत्कुमार के ७६ लाख, स्तनितकुमार के ७६ लाख, दिक्कुमार के ७६ लाख, अग्निकुमार के ७६ लाख और वायुकुमार के ६६ लाख भवन हैं ॥२१-२३॥ इन दस कुलों के सर्व भवनों का एकत्रित योग (६४ ला+८४ ला० + ७२ ला० + (७६ ला०४६)+६६=) ७७२००००० अर्थात् सात करोड़ बहत्तर बाख है ॥२४॥ अब वश कुल सम्बन्धी बीस इन्द्रों के नाम, उनका विशागत अवस्थान और प्रतीन्द्रों की संख्या कहते हैं :--- प्रथमश्चमरेन्द्राख्यो वैरोचनो द्वितीयकः । भूतानन्दस्तृतीयेन्द्रो धरणानन्दसंज्ञकः ॥२५॥ Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ ] सिद्धान्तसार दीपक वेणुश्च घेणुधारी हि पूर्णो वशिष्ठनामकः । इन्द्रो जलप्रभाभिख्यो जलकात्यमिधानकः ॥२६॥ हरिषेणो हरित्कान्तोऽग्निशिखी चाग्निवाहनः । इन्द्रोऽभितगतिर्नाम्ना तथेन्द्रोऽमितवाहनः ॥२७।। घोषाख्येन्द्रो महाघोषो वेलाञ्जनः प्रभजनः । एतेऽखिलामराभ्या विध्यालङ्कारभूषिताः ॥२६॥ प्रसुरादिफलानां च क्रमेण द्वि वि संख्यया । भवन्ति विशतिश्चेन्द्राः स्त्रीमहद्धिसरान्विताः ।।२९॥ दक्षिणायां दिशि स्वामी चमरेन्द्रो वसेन्महान् । उत्तरादिग्विभागे च वैरोचनोऽमरैः समम् ॥३०॥ एवं शेषौ पती द्वौ द्वौ दक्षिणोत्तरयोदिशो। इन्द्रो च भवतः छत्रसिंहासनाद्यलकृती ॥३१॥ दशानामसुरादीनां द्वौ द्वौ चेन्द्रो प्रतिस्फुटम् । स्याता द्वौ द्वौ प्रतीन्द्रौ च दिव्यसम्पत्सुरावृतौ ॥३२॥ सर्वे पिण्डीकृता ज्ञेयाः प्रतीन्द्रा विशतिप्रमाः । दिव्यरूपधरा दिव्याणिमाद्यष्टद्धिमण्डिताः ॥३३।। अर्थ:-चमर-वैरोचन; भूतानन्द-धरणानन्द ; वेणु-वेणुधारी; पूर्ण-वशिष्ठ; जलप्रभ-जनकान्त; हरिषेण हरित्कान्त; अग्निशिखी-अग्निवाहन ; अमितगति-अमितवाहन; घोष-महाघोष; वेलंजन और प्रभंजन ये क्रम से असुरकुमारादि दश कुलों के दो दो इन्द्र हैं । ये बोसों इन्द्र समस्त भवनवासी देवों से सम्मानित, दिव्य अलंकारों से विभूषित, अनेक देवियों और महाऋद्धिधारी देवों से समन्वित रहते हैं ।।२५-२६।। इनमें चमरेन्द्र दक्षिण दिशा का स्वामी होने से दक्षिण में रहता है और वैरोचन उत्तर दिशा का स्वामी होने से अनेक देवों के साथ उत्तर में निवास करता है ।।३०।। इसी प्रकार छत्र, सिंहासन प्रादि से अलंकृत शेष नव कुलों के दो दो इन्द्र क्रमश: दक्षिण और उत्तर दिशा में निवास करते हैं ।।३१।। जिस प्रकार असुरकुमार प्रादि दश कुलों के दो दो इन्द्र होते हैं, उसी प्रकार दिव्य वैभव और अनेक देवों से परिवेष्ठित प्रत्येक कुल के दो दो प्रतीन्द्र होते हैं ।।३२॥ दिव्य रूप को धारण करने वाले और प्रणिमा आदि आठ दिव्य ऋद्धियों से मण्डित इन सर्व प्रतीन्द्रों की एकत्रित संख्या भी बीस ही है, ऐसा जानना चाहिए ।।३३॥ Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दादा पवार [ ४३५ अब दक्षिणोन्द्रों और उत्तरेन्द्रों के भवनों की भिन्न भिन्न संख्या कह कर उन भवनों का विशेष व्याख्यान करते हैं :-- प्रागुक्त भवनानां चासुरादिजाति भागिनाम् । मध्ये स्युश्चमरेन्द्रस्य रस्नोच्चभवनान्यपि ॥३४॥ चतुस्त्रिशच्चलक्षाणि भूतानन्दस्य सद्गृहाः । सन्ति लक्षाश्चतुश्चत्वारिंशवेपोर्ग हाः परे ॥३५॥ अष्टात्रिशच्च लक्षाणि पूर्णाख्यस्य सुरेशिनः । जलप्रभाख्यशकस्य हरिषेणामरेशिनः ॥३६॥ ततोऽग्निशिखिनश्चामितगतेस्त्रिदशेशिनः । घोषेन्द्रस्य पृथग्भूताः प्रत्येकं सन्ति सद्गृहाः ॥३७॥ चत्वारिंशच्च लक्षाणि वेलाचनस्य सन्ति च । पञ्चाशल्लक्षसंख्यानि महान्ति भवनानि च ॥३८॥ वैरोचनस्य धामानि त्रिशल्लक्षाणि सन्ति च ।। धरणानन्दनाम्नश्चत्वारिंशल्लक्षसद्गृहाः ॥३६॥ स्युर्वेणुदारिणो लक्षचस्त्रिशत्पमा ग्रहाः । वशिष्ठाह्वयशक्रस्य जलकान्ति सुरेशिनः ॥४०॥ हरिकान्तामरेन्द्रस्याग्निवाहनामरेशिनः । सधैव ह्यमितायन्तवाहनत्रिदशेशिनः ॥४१॥ महाघोषस्य विद्यन्ते प्रत्येक भवनानि च । षड्विशल्लक्षसंख्यानि प्रभञ्जनामरेशिनः ॥४२।। भवनानि च षड्चत्वारिंशल्लक्षाणि सन्ति । इत्पुक्तसंख्ययुक्तानि नानारत्नमयानि च ॥४३॥ एकजिनचंत्यालयालङ्कृतोलतान्यपि । दिव्यश्चैत्यद मेनिस्तम्भः कूटध्वजोत्करः ॥४४॥ भूषितानि भृतानि स्त्रीवृन्दसैन्यामरादिभिः । गीतनर्तनवाद्यादि जिनार्थोत्सवकोटिभिः ॥४५।। रम्याणि विस्फुरच्छुद्धमणिभित्तिमयान्यपि । दिव्यामोदप्रपूर्णानि सर्वाक्षसुखदानि वै ॥४६।। Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्तसार दीपक इत्युक्तवर्णनंश्चान्यरागमोक्तसवर्णनः । राजन्ते भवनान्युच्चैदिव्यसम्पत्समुच्चयैः ।।४७॥ सर्वाणि च समस्तानां दक्षिणाशामरेशिनाम् । दशानां चोत्तरेन्द्राणां भोग्यानि पुण्यपाकतः ॥४८॥ अर्थः-पूर्व में असुरकुमार आदि दश कुलों के प्राश्रित भवनों की जो संख्या कही है, उन्हीं के मध्य में इन्द्रों के भवन अवस्थित हैं । रत्नों से निर्मित चमरेन्द्र के उच्च भवनों की संख्या ३४ लाख है। भूतानन्द के भवनों को संख्या ४४ लाख, वेणु के ३८ लाख, पूर्ण के ४० लाख, जलप्रभ इन्द्र के ४० लाख, हरिषेण के ४० लाख, अग्निशिखी के ४० लाख, अमितगति के ४० लाख पोर घोष नामक ! इन्द्र के भी ४० लाख भवन हैं, तथा वेलाजन के उत्तम भवन ५० लाख हैं ।।३४-३८।। उत्तरेन्द्रों में। वरोचन के भवनों को संख्या ३० लाख, धरणानन्द के ४० लाख, वेणुधारी के ३४ लाख, वशिष्ठ इन्द्र क ३६ लास्त्र, जलकान्त के ३६ लाख, हरिकान्त के ३६ लाख, अग्निवाहन के ३६ लास्त्र, अमितवाहन के ३६ लाख, महाधोष इन्द्र के ३६ लाख और प्रभंजन इन्द्र के ४६ लाख भवन हैं । इस प्रकार उपयुक्त १७७२ लाख) संख्या से युक्त ये सभी भवन रत्नमय हैं ।।३६-४३।। ये प्रत्येक भवन उन्नत चैत्यालयों से अलंकृत हैं. दिव्य चैत्यवृक्षों, मानस्तम्भों, कूटों और ध्वजा समूहों से विभूषित हैं. देवांगनाओं के समूहों से एवं देवों को सैन्य समूहों से भरे रहते हैं, गीत, नृत्य एवं वाद्य प्रादि से और जिन पूजन के करोड़ों उत्सवों से रम्य हैं, देदीप्यमान उनम मणियों को भित्तियों से निर्मित हैं, दिव्य प्रामोदों से परिपूर्ण हैं और पांचों इन्द्रिय के सम्पूर्ण सुखों को देने वाले हैं ॥४४-४६।। इस प्रकार उपर्युक्त वर्णनों से, प्रागमोक्त एवं अन्य वर्णनों से तथा अति विशाल दिव्य सम्पत्ति समूहों से वे दक्षिण दिशागत सम्पूर्ण भवन अत्यन्त शोभायमान होते हैं ।।४७।। यह सब वर्णन दक्षिण दिशागत समस्त (१०) इन्द्रों का है, उत्तर दिशागत दसों इन्द्रों के भी पूर्व पुण्य के फल से सर्व भोग्य पदार्थ इसी प्रकार जानना चाहिए ।।४॥ अब उस्कृष्ट, मध्यम और जघन्य भवनों का प्रमाण तथा जिनेन्द्र प्रतिमा युक्त दस प्रकार के कल्पवृक्षों का वर्णन करते हैं : जम्बूद्वीपप्रमध्यासा जघन्या सद्गृहा मताः । संख्पयोजनविस्ताराः केचिच्च मध्यमाः शुभाः ।।४।। प्रसंख्ययोजनव्यासा उत्कृष्टा भवनोत्कराः । क्रमेणैतेऽसुरादीनां दशधा चत्यपादपाः ॥५०॥ प्रश्वत्थः सप्तपर्णाख्यः शाश्वतः शाल्मली उमः । जम्बूश्च वेतसोवृक्षोऽथप्रियङ्गुः पलाशकः ॥५१॥ Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशोऽधिकाशा [ ४३७ शिरीषाख्यः कदम्बश्च राजद्र म इमे शुमाः । रत्नपीठाश्रिता रत्नमया रत्नांशुदीपिताः ।।५२॥ असुरादिदशानां दशविधा चैत्यपादपाः । रत्नोपकरणोपेता दीप्ता भवन्ति शाश्वताः ॥५३।। मूलेऽमोषां चतुर्दिक्षप्रत्येक सुरपूजिताः । पञ्च पञ्च प्रमाः सन्ति जिनेन्द्रप्रतिमाः पराः ॥५४॥ अर्थ:-भवनवासियों के जघन्य भवनों का व्यास जम्बूद्वीप प्रमाण अर्थात् एक लाख योजन है। मध्यम भवनों का व्यास संख्यात योजन और उत्कृष्ट भवनों का विस्तार असंख्यात योजन प्रमाण है । असुरकुमार आदि दस कुलों के क्रम से अश्वत्थ-पीपल, सप्तपणं, शाल्मलि-सेमल, जम्बू-जामुन, वेतस-वेत का वृक्ष, प्रियंगु, पलाश-ढाक, शिरीष-सिरस, कदम्त्र और राजगुम-कृतमाल वे दश चैत्यवृक्ष हैं। रत्नपीठ पर स्थित, रत्नमय, रत्नकिरणों से देदीप्यमान, प्रकाशमान रत्न के उपकरणों से युक्त, अत्यन्त रमणीक और शाश्वत ये दस प्रकार के चैत्यवृक्ष असुरकुमार आदि दस कलों में से क्रमश: प्रत्येक के एक एक हैं ।।४९-५३॥ इन प्रत्येक चैत्य वृक्षों के मूल में चारों दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में देव समूहों से पूज्य परमोत्कृष्ट पांच पांच जिनेन्द्र प्रतिमा हैं ।।५४।। अब मानस्तम्भों का वर्णन करते हैं :-- पञ्चपञ्चप्रमाणाः स्युर्मानस्तम्भा महोन्नताः । रत्नपीठाश्रिता हेमघण्टाध्वजादि शोभिताः ।।५।। तीर्थेशप्रतिमासारः शिरोभागविराजिताः । मणिधीप्ताश्च सर्वेषां भवनानां दिशं प्रति ॥५६।। अर्थः–सम्पूर्ण भवनों ( चैत्यवृक्षों) को प्रत्येक दिशा में तीर्थकरों की सर्वोत्कृष्ट प्रतिमाओं से जिनके शिरोभाग विभूषित हैं ऐसे देदीप्यमान मरिणयों से निर्मित, स्वर्णमय घण्टानों एवं ध्वजारों से सुशोभित, रत्नपीठ पर स्थित महा उन्नत पांच पांच मानस्तम्भ हैं ॥५५-५६।। अब इन्द्राविक के भेव कहते हैं :-- प्रतीन्द्रो लोकपालाश्च त्रास्त्रिशसुरास्तप्तः । सामान्यकाह्वया अङ्गरक्षाश्च परिषरसुराः ।।७।। सप्तानीकामरा वै प्रकीर्णका प्राभियोगिकाः । किल्विषिका इति प्रोक्ता दशभेदाः परिच्छताः ।।५।। Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ ] सिद्धांतसार दीपक अर्थ:--प्रत्येक कलों में एक एक इन्द्र के परिवार में प्रतीन्द्र, लोकपाल, पायस्त्रिश, सामानिक, ।। अंगरक्षक, तोन प्रकार के परिषद, अनोक देव, प्रकीर्णक देव आभियोग्य और किल्विषिक ये दस दस भेद होते हैं ॥५७-५८।। अब इन्द्रादिक पदवियों के दृष्टांत कहते हैं :--- एकैकस्यापि शक्रस्य पृथग्भूताः स्वपुण्यजाः । इन्द्राः सर्वेऽमरैः सेव्या राजतुल्या महद्धिकाः ॥५६॥ युवराजसमा विश्वे प्रतीन्द्राः सुरसेविताः । स्वप्रधानसमा लोकपाला देवाः प्रकीर्तिताः ॥६॥ पुत्रादिसमसस्नेहास्त्रास्त्रिशसरा मताः । मान्यपासालानाः स्युः सवालमाननिदाः ॥दए। अङ्गारक्षसमा अङ्गरक्षा इन्द्रान्ततिनः । अन्तर्मध्यान्तभेदेन त्रिविधाः परिषत्सुराः ॥६२।। सेनातुल्या अनीका: प्रकीर्णका नागरोपमाः । भृत्यवाहनसादृश्या प्राभियोगिक निर्जराः ॥६३।। स्वपापपुण्यमोक्तारः किल्विषिका इवान्त्यजाः । इत्यमी कार्यकर्तार इन्द्राणां च पृथग्विधाः ॥६४।। अर्थः-अपने अपने पुण्य कर्मोदय से एक एक इन्द्र के पृथक् पृथक् प्रतीन्द्र प्रादि दस दस प्रकार के देव होते हैं। इनमें सर्व देवों से सेव्यमान महाऋद्धि का धारक इन्द्र राजा सहश होता है । सवं प्रतीन्द्र युवराज सदृश, सर्व लोकपाल मन्त्री सदृश, सर्व त्रायस्त्रिंश देव स्नेह के भाजन स्वरूप पुत्र आदि के सदृश, सर्व सामानिक देव मान्यपात्र अर्थात् सम्माननीय व्यक्तियों सदृश, इन्द्र के समीप रहने वाले अंगरक्षक देव राजाओं के अंगरक्षक सदृश, तीनों प्रकार के पारिषद् देव, राजा की अभ्यन्तर, मध्य और बाह्य सभा के सहश, अनोक जाति के देव सेना सश, प्रकीर्णक देव नागरिक-प्रजा सदृश, आभियोग्य देव दास एवं सवारो सहा और किल्वि षिक जाति के देव चाण्डालों आदि के सहश होते हैं। अपने अपने पाप और पुण्य के फलों को भोगते हुये ये सभी देव इन्द्र का पृथक् पृथक कार्य करते हैं ॥५६-६४।। अब इन्द्रादिक पाँच प्रकार के देवों में विभूति प्रादि की समानता-असमानता दर्शाते हुये चारों लोकपालों का अवस्थान कहते हैं :-- Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशोऽधिकार [ ४३६ इन्द्रतुल्यः प्रतीन्द्रः स्यात्त्रायस्त्रिंश सुरास्तथा । लोकपालाश्च सामान्यका इमे त्रिविधामराः ॥६५॥ विभूत्येन्द्र समानाः स्युः किञ्चिदूनातपत्रकाः । सोमः पूर्वतिर मामी दक्षिाशात ६६ वरुणः पश्चिमाशास्यः कुबेर उत्तराधिपः । चत्वारोऽमो हि दिग्नाथा जिनाघ्रिनम्रमौलयः ॥६७॥ अर्थ:--प्रायस्त्रिंश देव, लोकपाल और सामानिक ये तीन प्रकार के देव विभूति (आयु, परिवार, ऋद्धि और विक्रिया) आदि में इन्द्र के सदृश ही होते हैं। केवल इनके छत्र नहीं होता, किन्तु प्रतीन्द्र इन्द्र तुल्य ही होते हैं । जिनेन्द्र प्रमु के चरणों में नम हैं मुकुट जिनके ऐसे चारों लोकपालों में से सोम पूर्वदिशा के, यम दक्षिण के, बरुण पश्चिम के और कुबेर उत्तर दिशा के स्वामी हैं ।।६५-६७।। अब प्रत्येक इन्द्रों के प्रायस्त्रिश सामानिक और अंगरक्षक देवों की संख्या कहते हैं :-- सर्वेन्द्राणां प्रयस्त्रिशत् प्रास्त्रिशसुराः पृथक् । सामानिकाश्चतुःषष्टिसहलाश्चमरस्य च ॥६॥ सन्ति वैरोचनेन्द्रस्य सहस्राः षष्टिसम्मिताः । षट्पञ्चाशत्सहस्राणि भूतानन्दस्य सन्ति ते ।।६।। शेषसप्तदशानां धरणानन्दादिकात्मनाम् । प्रत्येक सन्ति सामानिकाः पञ्चाशत्सहस्रकाः ॥७०। चमरेन्द्रस्य पार्श्वस्था विद्यन्ते तनुरक्षकाः । षट्पञ्चाशत्सहस्राग्रलक्षद्वय प्रमारणकाः ॥७१॥ भवन्त्येवाङ्गरक्षाश्च पैरोचनसुरेशिनः । चत्वारिंशत्सहस्त्रायद्विलक्षसंख्यसम्मिताः ॥७२॥ भूतानन्दसुरेन्द्रस्य भवन्ति चाङ्गरक्षकाः । चतुविश सहस्राधिकलक्षद्वयसंख्यकाः ॥७३॥ घरणानन्दमुख्यानां शेषसप्तशात्मनास । प्रत्येकमगरक्षाः स्युद्धिलक्षप्रमिताः पृथक ॥७४॥ Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० ] सिद्धान्तसार दीपक अर्थ.-सभी इन्द्रों के प्रायस्त्रिश देव पृथक पृथक् तेतीस ही होते हैं। चमरेन्द्र की सभा में सामानिक देवों की संख्या ६४००० है । वैरोचन के ६००००, भूतानन्द के ५६००० और धरणानमा आदि अवशेष सत्रह इन्द्रों में से प्रत्येक इन्द्र के सामानिक देवों की संख्या ५०, ५० हजार प्रमाण है। ॥६८-७०।। चमरेन्द्र के अङ्गरक्षक देवों का प्रमाण दो लाख ५६ हजार, वैरोचन के दो लाख ४० हजार, भूतानन्द के दो लाख २४ हजार और धररणामन्द आदि सत्रह इन्द्रों के पृथक पृथक् दो, हो, लाख तनुरक्षक देव होते हैं ।।७१-७४।। प्रब पारिषद देवों की संख्या कहते हैं :-- चमराणसुरेशागण जान्तादिति स्फुटम् । भवन्ति परिषद्देधा अष्टाविंशसहस्रकाः ।।७।। मध्यपरिषवि प्रोक्ता स्त्रिशत्सहस्रनिर्जराः । बाह्य परिषदिद्वात्रिंशात्सहस्रामरा मताः ॥७६॥ वैरोचनस्य चान्तः परिषदि प्रोदिताः सुराः। पविशति सहस्राणि शक्राज्रिन समस्तकाः ।।७७।। मध्यपरिषदिल्यातास्तेष्टाविंशसहस्रकाः। बाह्य परिषदि प्रोक्तास्त्रिशत्सहस्र निर्जराः ।।७।। भूतानन्दस्य चान्तः परिषदि श्रीजिनोदिताः । प्राधन्त परिषद वाः षट्सहस्रप्रमाणकाः ।।७।। सुरा प्रष्टसहस्राः स्युर्मध्यपरिषदिस्थिताः । सहस्रदशगीर्वाणा बाह्यापरिषदिस्थिताः ।।८०॥ शेषाणां धरणानन्दादि सप्तदशभागिनाम् । चतुःसहस्रक्षेवाः पृथगन्तः परिषत्स्थिताः ॥१॥ षट्सहस्रप्रमा देवा मध्यपरिषदि स्मृताः । अष्टौ सहस्रगीर्वाणा बाह्मपरिषदि श्रिताः ॥८२।। अन्तः परिषदो देव समित्याख्योऽस्ति नायकः । मध्यापरिषदः स्वामी चन्द्रदेवोऽमरावृतः ।।३।। बाद्या परिषदो मुल्यो यदुनामामरोत्तमः । इत्युक्ता परिषत्संख्या शकारणामागमे जिनः ॥४॥ Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशोऽधिकार : [ ४४१ अर्थः-चमरेन्द्र को अन्तः परिषद् में पारिषद् देवों की संख्या २८ हजार, मध्य परिषद् में ३० हजार और बाह्य परिषद् में ३२ हजार है ॥७५-७६॥ वैरोचन के अन्त: परिषद् के देव २६ हजार, मध्य परिषद् के इन्द्र के चरणों में नतमस्तक होने वाले पारिषद देव २८ हजार और बाह्य परिषद् के देव ३० हजार कहे गये हैं ।।७७-७८।। भूतानन्द के अन्तः परिषद् के देव जिनेन्द्र भगवान् ने छह हजार मध्य परिषद् के पारिषद् देव पाठ हजार और बाह्य परिषद् के दश हजार देव कहे हैं ।।७६-८०॥ धरणानन्द प्रादि सत्रह इन्द्रों के पृथक पृथक् अन्तः परिषद् के देव चार, चार हजार, मध्य परिषद् के छह छह हजार और "हा परिषद के पारिएद देत पाठ-पाठ लार हैं।८१-८२।। भगवान् जिनेन्द्र के द्वारा प्रागम में अन्तः परिषद् के अधिनायक देव का नाम समित्, मध्यपरिषद् के अधिप देव का नाम चन्द्र और बाह्य परिषद् के अधिनायक देव का नाम यदु कहा है । प्रागम में प्रत्येक इन्द्रों के पारिषद देवों की संख्या भी पूर्वोक्त प्रकार ही कही गई है ।।८३-८४।। अब अनीक देवों के भेद और चमरेन्द्र के महिषों की संख्या कहते हैं :-- महिषाः प्रवरा अश्वा रथा गजाः पदातयः । गन्धर्वा वरनर्तक्य इमे सप्तविधा मताः ॥५॥ अनोका: पुण्यजाः सप्त सप्तकक्षान्विताः पृथक् । प्रत्येकं प्रीतिदाः प्रीता प्रसुरेन्द्रस्य सर्वदा ।।६।। नावाच परुडा हस्तिनो महामकरास्तथा । उष्ट्राश्च खगिनः सिंहाः शिविका तुरगा इमे ॥७॥ नवभेदा अनीकाः प्रत्येकं सुरेन्द्रपुण्यमाः । सुरबिक्रियजाः सप्त सप्तकक्षाश्रिताः शुभाः ॥५॥ मुख्या प्राधाश्च नागादीनां नवानां सुधाशिनाम् । अनुक्रमेण शेषाणां शक्रप्रीतिकराः पराः ॥८६॥ शेषा ये चासुरेन्द्रस्प प्रागुक्तास्तुरगादयः । षडनीकास्त एव स्यु गादीनां यथाक्रमम् ।।६।। चमरस्यादिमेऽनीके चतुःषष्टिसहस्रकाः । महिषाः सन्ति चोत्तुङ्गा दीप्ताङ्गाः सुरमण्डिताः ॥६॥ तेभ्यः शेषेषु सर्वेषु महिषानीकषट्स्वपि । प्रत्येक महिषाः सन्ति द्विगुणद्विगुणप्रमाः ॥६२|| Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ ] सिद्धान्तसार दोषक अर्थ :- असुरेन्द्र के पूर्व पुण्य के फल से उत्पन्न होने वाली, प्रोति उत्पन्न कराने वालीं और पृथक् पृथक् सात-सात कक्षाओं से युक्त महिष, श्रेष्ठ अश्व, रथ, गज, पदाति, गन्धर्व और नर्तकी ये सात श्रनीक- सेनाएँ (देव) होतीं हैं ।। ८५-८६ ।। श्रवशेष नागकुमार ग्रादि नव भवनवासी इन्द्रों के पुण्य फल स्वरूप, देवों की विक्रिया से उत्पन्न, इन्द्रों को प्रीति उत्पन्न कराने वाली और सात-सात कक्षाओं से युक्त श्रनीक ( सेनाएँ ) होतीं हैं। इन अनीकों में प्रत्येक इन्द्र के अनुक्रम से नाव, गरुड़, गज, महामत्स्य, ऊँट, खड्गी ( गेंडा ) सिंह, शिविका और घोड़ा ये प्रमुख होतीं हैं, शेष छह प्रनीकें पूर्व में जैसे श्रसुरेंद्र के क्रमश: घोड़ा, रथ, हाथों आदि कहे हैं उसी प्रकार नागकुमार श्रादि तव इन्द्रों के भी यथा क्रम से जामना चाहिए। यथा १. असुरकुमार - महिष, घोड़ा, रथ, हाथी, प्यादे गन्धर्व और नर्तकी । २. नागकुमार - नाव, घोड़ा, एव, हावी, पान्थ और नको । ३. सुपर्णकुमार गरुड़, घोड़ा, रथ, हाथी, पयादे, गन्धर्व और नर्तकी । ४. द्वीपकुमार - हाथी, घोड़ा, रथ, हाथी, पधादे, गन्धर्व और नर्तकी | ५. उदधिकुमार मगर, घोड़ा, रथ, हाथी. पयादे, गन्धवं श्रौर नर्तको । ६. विद्युत्कुमार- ऊँट, घोड़ा, रथ, हाथी, पया, गन्ध और नर्तक । ७. स्वनितकुमार खड्गी, घोड़ा, रथ, हाथी, पयादे, गन्धवं और नतंकी । ८. दिवकुमार सिंह, घोड़ा, रथ, हाथी. पयादे गन्धर्व और नर्तकी । ६. अग्निकुमार - शिविका, घोड़ा. रथ, हाथी, पयादे, गन्धर्व और नर्तकी । १०. वायुकुमार - अश्व, घोड़ा, रथ, हाथी, पयादं गन्धवं और नतंकी ।। ८५-६०।। ( सुरकुमार के ) चमरेन्द्र के प्रथम अनीक में देदीप्यमान शरीर वाले, देवताओं से मण्डित और ऊँचे ऊँचे ६४ हजार महिष हैं। इन्हीं चमरेन्द्र को शेष छह कक्षों में से प्रत्येक कक्ष में महिषों की संख्या का प्रमाण दूना दूना होता गया है ॥६१-६२॥ एषां सप्तमहिषानीकेषु प्रत्येकं महिषाणां संख्या प्रोच्यते : -- मरेन्द्रस्य प्रथमे अनीके महिषाश्चतुःषष्टि सहस्राणि द्वितीये चँकलक्षाष्टाविंशतिसहस्राणि । तृतीये द्विलक्षषट्पञ्चाशत्सहस्राणि । चतुर्थे पञ्चलक्षद्वादशसहस्राणि । पञ्चमे दशलक्ष चतुर्विंशतिसहस्राणि षष्ठे विंशतिलक्षाष्ट चत्वारिंशत्सहस्रारिण सप्तमे अनीके महिषाश्चत्वारिशल्लक्ष षण्णवति सहस्राणि । सर्वे अमी सप्तानीकानां पिण्डीकृताः महिषाः एकाशीतिल आष्टाविंशतिसहस्राणि भवन्ति । श्रर्थः:- अब सात कक्षों में से प्रत्येक कक्ष के महिषों की पृथक् पृथक् संख्या कहते हैं। चमरेन्द्र की प्रथम कक्ष में ६४ हजार महिष हैं । द्वितीय कक्ष में एक लाख २८ हजार तृतीय कक्ष में दो लाख ५६ हजार, चतुर्थ कक्ष में ५ लाख १२ हजार, पञ्चम कक्ष में १० लाख २४ हजार, -} Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशोऽधिकार [ ४४३ षष्ठ कक्ष में २० लाख ४८ हजार और सप्तम कक्ष में महिषों की संख्या ४० लाख ६६ हजार है । इस प्रकार चमरेन्द्र के सातों अनीकों ( कक्षानों) के महिषों का एकत्रित योग ८१ लाख २८ हजार (८१२८०.० ) होता है ।। अब चमरेन्द्र के अनीकों को सम्पूर्ण संख्या और पैरोचन के महिषों की संख्या कहते हैं :-- इत्येवं महिषानीक समानास्तुरगादयः। प्रोक्ता गणनयाशेषाः षडनीका पृथक् पृथक् ॥१३॥ पञ्चकोटयोऽष्टषष्टिश्च लक्षाः षण्णवतिस्तथा । सहस्रा इति संख्या: प्रोविता गणना जिनः ॥१४॥ पिण्डिता चमरेन्द्रस्य सिद्धान्ते निखिला सताम् । महिषाश्वादि सप्तानामनीकानां शुभाप्तये ।।६।। वैरोचनस्य चानीके प्रथमे महिषा मताः । पष्टिसहस्रसंख्याश्च तेभ्योऽनीकेषु षट्स्वपि ॥६६।। शेषेषु महिषाः प्रोक्ता द्विगुणाद्विगुणाः पृथक् । पूर्ववत्पुनरेतेषां संख्या व्यासेन चोच्यते ॥१७॥ अर्थः- इसप्रकार चमरेन्द्र की सातों कक्षाओं के महिषों की जितनी संख्या कही गई है, उतनी हो संख्या अश्व मादि अवशेष छह अनीकों की पृथक् पृथक् कही गई है ।। ६३ ॥ जिनेन्द्र भगवान ने पागम में सज्जनों को शुभ (कल्याण) की प्राप्ति के लिये चमरेन्द्र की महिष, अश्व आदि सातों अनीकों की एकत्रित संख्या का योग पांच करोड़ ६८ लाख ६६ हजार ( ५६८६६००० ) कहा है ।।१४-१५॥ वैरोचन को प्रथम अनीक में महिषों की संख्या ६० हजार है। इनके शेष छह कक्षों में महिषों की पृथक् पृथक् संख्या दुगनी दुगनी है, जो पृथक् पृथक् कही जाती है ।।६६-६७।। अब वैरोचन की प्रत्येक कक्षाओं को भिन्न भिन्न संख्या कहते हैं :-- वैरोचनेन्द्रस्य प्रथमे अनीके महिषाः षष्टिसहस्राणि । द्वितीये चैकलक्षविंशतिसहस्राणि । तृतीये द्विलक्षचत्वारिंशत्सहस्राणि । चतुर्थे चतुर्लक्षाशीतिसहस्राणि । पञ्चमे नवलक्षषष्टिसहस्राणि । षष्ठे एकोनविंशतिलक्षविंशति सहस्राणि । सप्तमे अनीके महिषाः अष्टत्रिशल्लक्ष चत्वारिंशत्सहस्राणि । सर्वे एकत्रीकृताः सप्तानीकानां महिषाः षट्सप्तति लक्षविंशति सहस्राणि भवेयुः। अर्थः-वैरोचनेन्द्र की प्रथम अनीक में ६० हजार महिष, द्वितीय में एक लाख २० हजार, तृतीय में दो लाख ४० हजार, चतुर्थ में ४ लाख ८० हजार, पंचम में १ लाख ६० हजार, षष्ठ में १६ Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ ] सिद्धांतसार दीपक लाख २० हजार और सप्तम अनीक में ३८ लाख ४० हजार महिष हैं। इन सातों अनीकों के एकत्रित महिषों का योग ७६ लाख २० हजार (७६२०.००) है । इत्थंभूता बुधे या समाना गणनाखिला। संख्या च शेषषण्णां हयश्वाधनीकात्मनां पृथक् ॥६॥ पञ्चकोटघस्त्रयस्त्रिशल्लक्षास्तथा सहस्रकाः । चत्वारिंशदिति ज्ञेया संख्या पिण्डोकृताखिला ॥१६॥ सप्तानां महिषादीनां सैन्यानां श्रीजिनागमे । पुण्योदयेन जातानां वैरोचनामरेशिनः ॥१०॥ भूतानन्दस्य नायः स्युरनीके प्रथमेऽपराः । षट्पञ्चाशत्सहस्राणि ताभ्यः क्रमेण पूर्ववत् ॥१०१॥ द्विगुणा द्विगुणा नायः शेषानीकेषु षट्स्वपि । सुखबोधाय चैतेषां पृथक् संख्या निगद्यते ॥१०२।। अर्थ:-इस प्रकार विद्वानों के द्वारा शेष अश्व प्रादि छह अनीकों की पृथक पृथक संख्या महिषों की संख्या के सदृश हो जानना चाहिये ||१८ जिनागम में वैरोचन इन्द्र के पुण्योदय से उत्पन्न होने वाले महिष प्रादि सातों अनीकों का एकत्रित प्रमाण पाँच करोड़ तेतीस लाख चालीस हजार ( ५.३.३४००००) जानना चाहिए ।।१-१००। भूतानन्द इन्द्र के प्रथम अनीक में ५६००० नाब हैं, इसके बाद अयशेष छह कक्षों में क्रम से यह संख्या दुनी दूनी होती गई है। सुख पूर्वक ज्ञान करने के लिये यह संख्या पृथक पृथक् कहते हैं ॥१०१-१०२।। प्रय भूतानन्द को सातों अनीकों में नाव को संख्या पृथक् पृथक् कहते हैं :--- भूतानन्देन्द्रस्य प्रथमानीके नावः षट्पञ्चाशत्सहस्राणि । द्वितीयानोके चैकलक्षद्वादशसहस्राणि । तृतीये द्विलक्षचतुर्विंशतिसहस्राणि । चतुर्थे चतुर्लक्षाष्टचत्वारिंशत्सहस्राणि । पञ्चमे अष्टलक्षषण्णवतिसहस्राशि । षष्ठे सप्तदशलक्ष द्विनवतिसहस्राणि । सप्तमे सैन्ये नावः पञ्चनिशल्लक्षचतुरशीतिसहसारिण एताः सप्तानीकानां सर्वा नाव एकत्रीकृताः एकसातिलक्षद्वादमासहस्रागि भवन्ति । अर्थः-भूतानंद की प्रथम कक्ष अनीक की प्रथम कक्ष में ५६ हजार नाव हैं, द्वितीय में एक लाख बारह हजार, तृतीय में दो लाख २४ हजार, चतुर्थ में ४ लास्त्र ४८ हजार, पंचम में ८ लाख ६६ हजार, षष्ठ में १७ लाख ६२ हजार और सप्तम अनीक में ३५ लाख ५४ हजार नाव है। इन सातों कक्षों को सर्व नावों का एकत्रित योग ७१ लाख १२ हजार (७११२०००) है। Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशोऽधिकारः [४४५ अब भूतानन्द की शेष अनीकों को एवं धरणानन्द की प्रथम अनीक की संख्या कहते हैं :-- षण्णामश्वादिसैन्यानां शेणाणां नौसमा मता। संख्या पृथक् पृथग् भूता नर्तक्यन्ता न संशयः ।।१०३॥ चतस्रः कोटयो लक्षाः सप्ताग्रनवतिप्रमाः। सहस्राश्चतुरग्राशीतिश्चैषां पिण्डिताखिला ॥१०४।। सतां संख्या मता सप्तसन्यानां श्रीजिनेशिना । पूर्वपुण्योदयोत्यानां भूतानन्दसुरेशिनः ॥१०५।। शेषसप्तदशानां धरणानन्दादिकात्मनाम् । अनीके प्रथमे नौप्रमुखानि बाहनानि च ॥१०६॥ प्रागुक्तानि पृथक पञ्चाशत्सहस्राणि सन्ति वै । तेभ्यः संख्यान्यसौन्यानां द्विगुरणा द्विगुणा पृथक् ॥१०७॥ अर्थ:--भूतानन्द इन्द्र की अश्व से लेकर नतंको पर्यन्त की शेष छह अनौकों का पृथक् पृथक् प्रमाण नाव के प्रमाण सदृश ही है, इसमें संशय नहीं ।। १०३ ॥ जिनेन्द्र भगवान् ने भूतानन्द इन्द्र के पूर्व पुण्योदय से उत्पन्न सातों अनीकों की एकत्रित संख्या चार करोड़ संतान्नवे लाख चौरासी हजार (४६७८४००० ) प्रमाण कही है ॥१०४-१०५॥ धरणानन्द आदि अवशेष सत्रह इन्द्रों के पूर्व कही गई नौ पृथक् पृथक् प्रमुख अनीकों की प्रथम कक्ष में वाहनों को संख्या पचास हजार प्रमाण है, इनसे आगे प्रागे अवशेष छह कक्षों में दूनी दुनी कही गई है ।।१०६-१०७।। अमीषां विस्तरेण बालावबोधाय व्याख्यानं क्रियते : घरणानन्दादि शेष सप्तदशेन्द्राणां नौगरुडादिप्रागुक्तवाहनानि क्रमात-प्रथमे अनीके पञ्चाशत्सहस्राणि । द्वितीये चकोलक्षः । तृतीये द्वौ लक्षौ । चतुर्थे चत्वारो लक्षाः । पञ्चमे ग्रष्टी लक्षाः । षष्ठे षोडशलक्षाः । सप्तमे द्वात्रिशल्लक्षाणि नी गरुडादि वाहनानि सैन्ये भवन्ति । इमानि सर्वाति नौ प्रमुखवाहनानि सप्तानीकानां पिण्डीकृतानि प्रतिशत त्रिषष्टिलक्षपञ्चाशत्सहस्राणि भदेषुः । अब इनका पथक पथक प्रमाण कहते हैं :-- अर्थ:-धरणानन्द प्रादि अवशेष सत्रह इन्द्रों के पूर्व कहे हुये नाव, गरुड़ आदि वाहन क्रम से प्रथम अनीक के प्रथम कक्ष में ५० हजार, द्वितीय में एक लाख, तृतीय में दो लाख, चतुर्थ में ४ लाख, पंचम में ८ लाख, षष्ठ में १६ लाख और सनम में नाब एवं गरुड आदि वाहनों की संख्या ३२ लाख Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्तसार दीपक प्रमाण है । इस प्रकार एक एक इन्द्र के पास नाव हैं प्रमुख जिनमें ऐसे सातों वाहनों का एकत्रित प्रमाए सठ लाख पचास हजार ( ६३५०००० ) है। अब प्रत्येक इन्द्र को प्रनीकों का एकत्रित योग और उनके महत्तर श्रादि कहते हैं: षट्शेषाश्चाविकानीकानां संख्यागणना समा । प्राधानीकेन विजेया विशेषान्तरवजिता ॥१८॥ चतुःकोटघाचतुश्चस्वारिंशल्लक्षाः सहस्रकाः । पञ्चाशरचेति विज्ञेया संख्या गणितकोविदः ।।१०।। सर्वेकत्रीकृता सम्मानोकानां नादि । सप्त सप्त पृथक् कक्षायुक्तानां प्रवरागमे ॥११॥ षण्णां कमाघनीकानां स्वामी महत्तरोऽमरः । नर्तकोनामनोकेऽन्त्ये देवीमहत्तरी प्रभुः ॥१११॥ देवाः प्रकीर्णका प्राभियोग्याः किल्विषिकाः पृथक् । स्वल्पसम्पत्सुखोपेताः संख्यातीताः स्मृता जिनः ॥११२।। अर्थः–प्रश्व आदि छह अनीकों को संख्या का प्रमाण प्रथम अनीक प्रमाण हो जानना चाहिए, इसमें कोई अन्तर नहीं है ।। १०८ ।। जिनागम में गणितज्ञ पुरुषों के द्वारा सात सात कक्षामों से युक्त सातों पनीकों का पथक् पृथक एकत्रित योग चार करोड़ नवालीस लाख पचास हजार (४४४५००००) कहा गया है. यह प्रमाण एक एक इन्द्र का अलग अलग है ।। १०६-११० ॥ क्रम से छह अनीकों के स्वामी महिष, घोड़ा, रथ, गज, पयादे और गन्धर्व महत्तर देव हैं. तथा नृत्यको नामक सप्तम मनीक की स्वामी महत्तरी ( प्रधान ) देवी होती है ॥ १११ । प्रत्येक इन्द्र के पास अल्प सम्पत्ति और अल्प सुख से युक्त प्रकीर्णक पाभियोग्य और किल्वि षिक जाति के पृथक पृथक् प्रसंख्यात असंख्यात देव होते हैं, ऐसा जिनेन्द्र ने कहा है ।।११२।। प्रब असुरकुमारादि वेवों को देवांगनाओं, बन्लभिकानों और विक्रिया देवांगनापों का प्रमारग कहते हैं : असुराणां च षट्पञ्चाशत्सहस्राणि योषितः । वेच्यो बालभिकाः सन्ति सहस्रषोडशप्रमाः ॥११३॥ दिव्याः पञ्चमहादेव्यः पञ्चेन्द्रियसुखप्रदाः । नागानां च स्त्रियः पञ्चाशत्सहस्रप्रमास्तथा ।।११४॥ Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशोऽधिकारः प्रीता वल्लभिकाबेग्यः सहस्रदशसम्मिताः । विश्यरूपा महादेव्यः पञ्चशर्मादिखानयः ॥११५॥ सुपर्णानां चतुश्चत्वारिंशत्सहस्रदेवताः । देयो चलभिका रम्याश्चतुः सहस्र सम्मिताः ॥ ११६ ॥ महाग्यो कृपाविरसखानयः । शेष द्वीपादिसप्तानामिन्द्रादीनां सुराङ्गनाः ॥११७॥ स्युर्द्वात्रिशत्सहस्राणि प्रत्येकं चारुमूर्तयः । तथा बल्लभका देव्यो द्विसहस्रप्रमाः प्रियाः ।। ११८ ।। रम्याः पञ्चमहादेव्यो मनोनयनवल्लभाः । असुरादि त्रयाणामेकैका देवी निजेच्छ्या ॥ ११६ ॥ विक्रियद्ध घा सहस्राष्टदिव्यरूपाणि योषिताम् । विकरोति विनामूलशरीरं च पृथक् पृथक् ।।१२० ॥ शेषद्वीपादि सप्तानामेकैका देवता क्षणात् । प्रत्येक पट्सहस्राणि स्त्रीरूपाणि सृजेत्स्वयम् ॥१२१॥ [ ४४७ अर्थ :- असुरकुमारों के ५६००० देवांगनाएँ. १६००० वल्लभकाएं और पांचों इन्द्रियों को सुख प्रदान करने वालीं पांच महादेवियां होतीं हैं। नागकुमारों के ५०००० देवांगनाएँ, १०००० वल्ल भिकाएँ और पंचेन्द्रियों के सुख की खान स्वरूप, दिव्यरूप धारण करने वालीं पांच महादेवियाँ हैं ।।११३-११५।। सुपर्णकुमार देवों के ४०००० देवांगनाएँ प्रत्यन्त रम्य ४००० वल्लभकाएं और रूप एवं रस की खान स्वरूप पाँच महादेवियाँ हैं । द्वीपकुमार श्रादि शेष सात इन्द्रों में से प्रत्येक इन्द्र की देवियां ३२०००, सुन्दर प्रकृति से युक्त वल्ल भिकाएँ २००० और मन एवं नेत्रों को प्रिय लगने वाली प्रत्यन्त रम्य महादेवियाँ पाँच होती हैं । असुरकुमार, नागकुमार और सुपकुमार इन्द्रों की एक एक देवी अपनी इच्छा से मूल शरीर को छोड़ कर पृथक् पृथक् दिव्य रूप को धारण करने वाली प्राठ-प्राठ हजार देवांगना रूप विक्रिया करती हैं। शेष द्वीपकुमार आदि सात इन्द्रों की एक एक देवी अपनी इच्छा से मूल शरीर को छोड़कर पृथक् पृथक् छह छह हजार विक्रिया रूप का सृजन करतों हैं ॥। ११६-१२१ ॥ अब चमरेन्द्र आदि इन्द्रों के पारिषद, अंगरक्षक और अनीक श्रादि देवांगनाओं का प्रमाण कहते हैं : चमरेन्द्रस्य चान्तः परिषत्स्थित सुधाभुजः । एकैकस्य पृथक् सन्ति देव्यः सार्धंशतद्वयम् ॥ १२२ ॥ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ ] सिद्वान्तसार दीपक द्वितीया परिषद वस्य स्त्रियो द्विशतप्रमाः । तृतीया परिषद् गीर्वाणस्य सार्धशतस्त्रियः ॥१२३।। वरोचनस्य चान्तः परिषत्स्थितामृताशिनः ।। एकेकस्य पथाभूता देव्यस्त्रिशतसम्मिताः ॥१२४।। द्वितीया परिपत्स्थस्य साद्विशतयोषितः । तृतीया परिपत्स्थस्य शसद्वयसुराङ्गनाः ॥१२॥ नागेन्द्रस्यादिमायां परिषद्यवस्थितस्य च । एगा चिरस्य प्रत्यक यः शतद्वयम् ॥१२६॥ मध्यमायां सुरकस्य षष्टयनशतयोषितः । अन्तिमायां च ताश्चत्वारिंशवग्रशस्त्रियः ॥१२७।। सुपर्णस्यादिमायां परिषद्यप्यमरस्य च । एकैकस्याङ्गनाः प्रत्येकं षष्टयनशतप्रमाः ।।१२८।। मध्यमायां च चत्वारिंशद्यक्तशतयोषितः। अन्तिमायां सुरैकस्य विंशत्यग्रशतस्त्रियः ॥१२६।। शेषद्वीपादिसप्तानामन्तः परिषदि स्फुट । देवैकैकस्य चत्वारिंशत्संयुक्तशताङ्गनाः ।।१३०॥ मध्यमापरिषस्थस्य विशत्यग्रशताङ्गनाः। अन्तिमा परिषद वैकस्य सन्ति शतस्त्रियः ॥१३१॥ सेनामहत्तराणां चाङ्गरक्षाणां सुराङ्गनाः । प्रत्येकं शतसंख्याः स्युः स्वपुण्यपरिपाकजाः ॥१३२॥ संन्यकानां च पञ्चाशस्त्रियः प्रत्येकमञ्जता । सर्वनिकृष्टदेवानां स्यु त्रिशत्सराङ्गनाः ॥१३३।। अर्थ:-चमरेन्द्र की अन्तः परिषद् में जितने देव हैं, उनमें एक एक देव की पृथक पृथक् डेढ़, डेढ़ सौ ( १५०) देवियाँ हैं ।।१२२।। द्वितीय परिषद् के देवों के दो, दो सौ (२००) और तृतीय परिषद् के देवों के साढ़े तीन, साढ़े तीन ( ३५० ) सौ देवियाँ हैं ॥ १२३ ।। वैरोचन इन्द्र की अन्तः परिषद् में जितने देव हैं, उनमें एक एक देव के पृथक् पृथक् तीन, तीन सौ ( ३०० ) देवियाँ हैं ॥१२४।। द्वितीय परिषदस्थ देवों में प्रत्येक के पास ढाई, ढाई सौ ( २५० ) देवियाँ हैं और तृतीय परिषद् के Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादकारः [ ४४e पारिषदों के पास दो दो सौ देवियाँ हैं ।।१२५१ नागेन्द्र की प्रथम परिषदस्थ पारिषद देवों में एक एक देव के अलग-लग दो-दो सौ (२०० ) देवियाँ हैं। मध्यम परिषदस्थ देवों के पृथक् पृथक् एक सौ साठ, एक सौ साठ और अन्तिम परिषदस्थ पारिषदों के एक सौ चालीस ( १४० ) देवियाँ हैं ।। १२६१२७|| सुपर इन्द्र को प्रथम सभा के देवों में एक एक के पृथक पृथक् एक सौ साठ एक सौ साठ देवियाँ हैं। मध्यम परिषद् के देवों की एक सौ चालीस एक सौ चालीस और अन्तिम परिषदस्य पारिषदों की पृथक् पृथक् एक सौ बीस, एक सौ बीस देवियाँ है ।१२८-१२६। श्रवशेष द्वीपकुमार यादि सातों प्रकार . के इन्द्रों की अन्तः परिषदस्थ देवों में प्रत्येक देव के एक सौ चालीस (१४०) देवियाँ हैं ।। १३० ।। मध्यम परिषदस्थ पारिषदों में प्रत्येक देव की एक सौ बीस, एक सौ बीस देवांगनाएं हैं, तथा अन्तिम परिषदस्थ पारिषदों में प्रत्येक देव की सौ सौ ( १०० ) देवांगनाएँ हैं ।। १३१ ।। अनीक देवों के प्रत्येक सेना aftarsi ( महत्तरों में प्रत्येक सेनापति के और प्रत्येक अंगरक्षक के अपने अपने पूर्व पुण्य के फल से उत्पन्न होने वाली सौ सौ देवांगनाएँ हैं ।। १३२ ।। प्रत्येक अनीक देवों के पचास पचास और हीन से होन देवों के बत्तीस बत्तीस देवांगनाएँ होती हैं ।। १३३ ।। सुरेन्द्र आदि दसों इन्द्रों की प्रायु का कथन करते हैं :—— असुराणां भवेदायुरुत्कृष्टं सागरोपमम् । दशवर्षसहस्राणि जघन्यायुनं संशयः ॥ १३४ ॥ नागानां परमायुः स्यात्पन्योपम श्रयप्रमम् । गरुडानां भवत्याः सार्धंपन्यद्वयं परम् ॥ १३५ ॥ दीपानामायुरुत्कृष्टं पल्यद्वयमखण्डितम् । शेषाध्याद्विषण्णां स्यात्सार्थं पन्येकजीवितम् ॥१३६॥ अर्थ :- सुरकुमारों की उत्कृष्ट प्रायु एक सागरोपम और जयन्यायु दश हजार वर्ष प्रमाण है । नागकुमारों की तीन पल्पोपम और गरुड़कुमारों की उत्कृष्ट प्रायु २३ पल्योपम प्रमाण है । द्वीपकुमारों की उत्कृष्ट ग्रायु दो पत्योपम तथा शेष छह उदधिकुमारादिकों की उत्कृष्ट घायु डेढ (१३ ) पत्योपम प्रमाण है ( जघन्य प्रायु दश हजार वर्ष है ) ।। १३४ - १३६ ।। अब इन्द्रादिकों की और उत्तरेन्द्रों की श्रायु आदि का निरूपण करते हैं :-- इन्द्राणां च प्रतोद्राणां लोकपालामृताशिनाम् । प्रायस्त्रिशसुराणां च सामानिकसुधाभुजाम् ॥१३७॥ उत्कृष्टायुरिवं ख्यातं तेषां मध्ये सुधाभुजाम् । उत्तरेन्द्रस्य सिद्धान्ते तदायुः साधिकं मतम् ॥ १३८ ॥ Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० ] सिद्धान्तसार दीपक पूज्याः सर्वे प्रतीन्द्राश्च लोकपालामरास्तथा । त्रास्त्रिशसुराः सामानिका एते समानकाः ॥१३६॥ महान्सः स्वस्वशक्रणायुः सम्पदृद्धिशर्मभिः । विक्रियाज्ञानदेवायः किचिनातपत्रकाः ॥१४०।। मर्श:-इन्द्रों की, प्रतीन्द्रों की, लोकपाल देवों को, वायस्त्रिश देवों की और सामानिक को उत्कृष्ट प्रायु समान होती है। इनमें उत्तरेन्द्रों की मायु सिद्धान्त में ( दक्षिणेन्द्रों से ) कुछ प्रति कही गई है ।।१३७-१३८॥ अन्य देवों द्वारा पूज्य समस्त प्रतीन्द्र सथा लोकपाल देव, त्रापस्बिश देखा और सामानिक देवों के छत्र इन्द्र के छत्र से कुछ छोटे होते हैं शेष आयु सम्पत्ति, ऋद्धि, सुश, विनिाई शक्ति, मान भौर देवों के समूह आदि में ये सब अपने अपने इन्द्र के सदृश ही होते हैं ॥११६-१४ पब चमरेन्द्र पावि इन्द्रों को वेवांगनाओं की प्रायु का प्रतिपादन करते हैं : चमरेन्द्रस्य देवीनां सार्धपद्विजीवितम् । बरोचनस्य च स्त्रीणामायुः पन्यत्रयं महत् ॥१४१।। नागेन्द्रस्यङ्गनानां हि पल्याष्टमांशजीवितम् । सुपर्णस्यामरस्त्रीणां त्रिकोटिपूर्वजीवितम् ।।१४२।। छोपाविशेषसप्तानां पत्नीनामायुरुत्तमम् । प्रल्पमृत्युधिनिःक्रान्तं त्रिकोटिवर्षसम्मितम् ।।१४३॥ अर्थ:-पमरेन्द्र की देवांगनामों की उस्कृष्ट प्रायु अढ़ाई ( २) पल्य, वैरोचन की देवियों की तीन पल्य, नागकुमारेन्द्र की देवांगनामों की पल्य के ८ वे भाग, सुपर्णकुमारेन्द्र की देवियों को पाए। तीन पूर्व कोटि और अपघात मृत्यु से रहित द्वीपकुमार मादि शेष सात इन्द्रों की देवियों की उत्कृष्ट प्रायु तीन करोड़ ( ३०००००००) वर्ष की होती है ॥१४०-१४३।। प्रब चमरेन्द्र श्रावि इन्द्रों के अंगरक्षकों, सेना महप्तरों और मनोक देवों को प्राय चमरस्याङ्गारक्षाणां से नामहत्तरात्मनाम् । प्रायः पन्य तथा सैन्यकाना पल्याधजीवितम् ।।१४४॥ तथा वैरोचनस्याङ्गरक्षकाणां स्वजोषितम् । सेनामहत्तराणां हि स्वायुः पल्यं च साषिकम् ॥१४॥ Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशोऽधिकारः सैन्यानां च पयार्ध साधिकं जीवितं मतम् । नागेन्द्रस्याङ्गरक्षाणां सेनामहत्तरात्मनाम् ॥१४६॥ पूर्वकोटिप्रमाणायः संग्यकानामखण्डितम् । वर्णकोटिप्रमं चायुस्ततोऽपि गरुडस्य वै ।। १४७ ।। अङ्गरक्षकसेनानांमहत्तराणां च जीवितम् । कोटिवर्णप्रमं सैन्यकानां लक्षाब्दजीवितम् ॥ १४८ ॥ शेषद्वीपादिसप्तानामङ्गमरक्षामृताशिनाम् । सेना महत्तराणां चायुर्लक्षवर्णमानकम् ॥१४६॥ अनीकाह्वयद्देवानामायुः खण्डविषजतम् । वर्षाणां प्रवरं पञ्चाशत्सहस्रप्रमाणकम् ॥ १५०॥ अर्थ :-- चमरेन्द्र के श्रङ्गरक्षकों और सेना महत्तरों की आयु एक पल्प प्रमाण तथा श्रनीक (सेना) देवों की या पल्य प्रमाण है || १४४ ॥ वैरोचन इन्द्र के अंगरक्षकों और सेना महत्तरों की श्रायु एक पल्य से कुछ अधिक तथा अनीक देवों की आयु अर्ध पल्य से कुछ अधिक है। नागकुमार इन्द्र के अंगरक्षकों और सेनामहत्तरों की आयु एक कोटि पूर्व की और श्रमीक देवों की कोटि वर्ष प्रमाण आयु है । गरुड़कुमार इन्द्रों के अंगरक्षकों श्रीर सेनामहत्तरों को ग्रायु कोटि वर्ष प्रमाण तथा सेन्यकों की एक लाख वर्ष प्रमाण है ।। १४५ १४८ ।। शेष द्वीपकुमार श्रादि सात इन्द्रों के अंगरक्षक देवों और सेना महत्तरों की उत्कृष्ट आयु एक लाख वर्ष प्रमाण तथा अनीक देवों की अपघात रहित उत्कृष्ट श्रायु पचास हजार (५०००० ) वर्ष प्रमाण है ।। १४६ - १५० ।। [ ४५१ अव चमरेन्द्र श्रादि इन्द्रों के पारिषद देवों की आयु का निरूपण कहते हैं :-- चमरस्य सुराणामाध्धायां परिषदि स्फुटम् । सापन्यद्वयं चायुद्वितीयायां सुधाभुजाम् ॥ १५१ ॥ पल्यद्वयं तृतीयायां तत्सार्धपल्यसम्मितम् । रोचनस्य देवानामाद्यायां परिषद्यपि ।।१५२।। त्रिपन्यायुद्वितीयायां सार्धद्विवन्यजीवितम् । तृतीयायां सुराणां चायुद्वल्योपमं मतम् ।। १५३ ॥ नागस्य निर्जराणां प्रथमायां परिषद्यपि । श्रायः पन्याष्टमो भागो द्वितीयायां सुरात्मनाम् ॥ १५४ ॥ । C Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ ] सिद्धान्तसार दीपक पल्यषोडश भागानामेकोभागोऽस्ति जीवितम् । तृतीयापरिषस्थानी गीर्वाणानामखण्डितम् ॥१५॥ द्वात्रिशद्विहताशानां पन्यस्यकांशजीवितम् । वैनतेयश्य चायाय परिषद्यमृताशिमाम् ॥१५६।। त्रिकोटिपूर्वमानायुर्वितीयायां च जीवितम् । द्विकोटिपूर्वमन्त्यायो कोटिपूर्वायुरिष्यते ॥१५७।। द्वीपादिशेषसम्मानां देवानां परिषद्यपि । प्रथमायां भवेदायु स्त्रिकोटिवर्णसम्मितम् ॥१५८।। द्वितीयायां सुराणां च द्विकोटिवर्षजोषितम् । तृतीयापरिषत्स्थानां कोटिवर्षायुरुत्तमम् ॥१५॥ अर्थः-चमरेन्द्र की प्रथम परिषदस्थ पारिषदों को उत्कृष्ट प्राय दाई (२१) पल्य, द्वितीय परिषद् के पारिषदों की आय दो पल्य को और तृतीय परिषद् के पारिषदों की प्रायु डेढ़ (१३) पल्य को होती है। वैरोचन इन्द्र की प्रथम परिषद् के पारिषदों को प्रायु तीन पल्य, द्वितीय परिषद् के पारिषदों की वाई पल्य और तृतीय परिषद् के पारिषदों की मायु दो पल्य प्रमाण है ।।१५१-१५३।। मागकुमार इन्द्र की प्रथम परिषद् के पारिषदों की प्रायु पल्य के प्राठवें भाम, द्वितीय परिषद के पारिषदों की प्राय पल्य के सोलहवें भाग और तृतीय सभा के देवों की आयु पल्य के बत्तीसवें भाग प्रमाण होती है। गरुणकुमार इन्द्र को प्रथम सभा के देवों की प्रायु तीन पूर्व कोटि को, द्वितीय सभा के देवों की दो पूर्व कोटि की और तृतीय सभा के देवों की एक पूर्व कोटि की प्रायु होती है ।। १५४-१५७ ॥ द्वीपकुमार आदि शेष सात इन्द्रों की प्रथम परिषद् के पारिषदों की प्रायु तीन करोड़ ( ३०००००००) वर्ष, द्वितीय परिषद् के पारिषदों की दो करोड़ (२०००००००) वर्ष और तृतीय परिषद् के पारिषदों को उत्कृष्ट प्रायु एक करोड़ ( १०००००००) वर्ष प्रमाणहोती है ।।१५५-१५६।। प्रश्न असुरकुमार आदि इन्बों के शरीर को ऊंचाई, उच्छवास एवं प्राहार के क्रम का निरूपण करते हैं :-- प्रसुराणां तनुत्सेधश्चापानि पञ्चविंशतिः । नागादिनवशेषाणां यशचापोच्चविपहः ।।१६०॥ असुराणां हृवाहारो गते वर्षसहस्रके । उच्छ्वासः स्याद् गते पक्षे नागानां गरुशात्ममार ॥१६१॥ Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशोऽधिकार द्वीपानां मानसाहारः सार्थद्वादशभिदिनः । उच्छवासोऽपि मुहूर्तेश्च सार्धंद्वादशसंख्यकैः ॥ १६२॥ अधीनां विद्युवाख्यानां स्तनितानां सुधाभुजाम् । भवेच्च मानसाहारो गर्तर्द्वादशभिदिनः ॥ १६३ ॥ दिव्यामोवमयोच्छ्वासो मुहूर्तेर्द्वादशप्रमैः । दिवकुमारसुराणां चाग्नीनां वातामृता शिनाम् ॥१६४॥ मानसाहार एवस्ति साधं सप्तदिनं गतः । स्यादुच्छ्वासो मुहूर्तेश्व सार्घसप्तप्रमैर्गतः ॥ १६५ ॥ अर्थ :- असुरकुमार इन्द्र के शरीर का उत्सेध पच्चीस धनुष प्रमाण और शेष नागकुमार आदि नव इन्द्रों के शरीर का उत्सेध दस दस धनुष प्रमाण है ।। १६० ।। असुरकुमार देव एक हजार वर्ष व्यतीत हो जाने पर मनसा आहार करते हैं, और एक पक्ष व्यतीत हो जाने पर श्वासोच्छ्वास लेते हैं। नागकुमार, गरुड़कुमार और द्वोषकुमार १२३ दिनों में मानसिक आहार करते हैं और १२३ मुहूर्त में उच्छ्वास लेते हैं ।। १६० १६२ ।। उदधिकुमार, विद्युत्कुमार और स्तनितकुमार देव १२ दिन व्यतीत होने पर प्रहार ग्रहण करते हैं और १२ मुहूर्त व्यतीत होने पर दिव्य एवं सुगन्धमय उच्छवास लेते हैं। दिक्कुमार श्रग्निकुमार और वायुकुमार देव ७३ दिन व्यतीत हो जाने पर श्राहार ग्रहण करते हैं और ७३ सुहूर्त व्यतीत हो जाने पर श्वासोच्छ्वास ग्रहण करते हैं ।। १६३-१६५।। घ भवनवासी देवों के अवधिज्ञान का क्षेत्र कहते हैं : श्रसुराणामुत्कृष्टं चावधिज्ञानं भवोद्भवम् । योजनानामसंख्यात कोटधो भवान्तरादिवित् ॥१६६॥ नागादिनवशेषाणां चासंख्यात सहस्त्रका: 1 योजनानि जघन्यं तत्सर्वेषां पञ्चविंशतिः ॥ १६७ ॥ बहु स्तोक इतिख्यातोऽधिश्च दिक्चतुष्टये । श्वभ्रभूत्रय पर्यन्तमषोभागेऽवधिर्भवेत् ॥ १६८ ॥ [ ४५३ मेरोः शिखरपर्यन्तमूर्ध्वलोकेऽवधिर्मतः । भावनामरसर्वेषां लक्षयोजन सम्मितः ॥ १६९ ॥ अर्थः- प्रसुकुमार देवों का अवधिज्ञान का उत्कृष्ट क्षेत्र प्रसंख्यात करोड़ योजन है । ये अपने भवान्तरों को भी जानते हैं ।। १६६ ।। श्रवशेष नागकुमार श्रादि नव इन्द्रों का उत्कृष्ट क्षेत्र प्रसंख्यात Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ ] सिद्धांतसार दीपक हजार योजन है। सभी इन्द्रों का जघन्य अधिक्षेत्र २५ योजन प्रमाण है ।।१६७।। चारों दिशाओं में यह अवधि क्षेत्र अति अल्प कहा गया है, वैसे सभी भवनवासी देव अपने अवधिज्ञान से नीचे तीसरे नरक पर्यंत और ऊपर एक लाख योजनों से सम्मित मेरु पर्वत के शिखर पर्यंत जानते हैं ॥१६८-१६६।। अब चमरेन्द्र प्रादि इन्द्रों के परस्पर स्पर्धा स्थानों का कथन करते हैं : सौधर्मेन्द्रण चित्ते चमरेन्द्र कुरते वृथा । सहाकिञ्चित्करामोष्या क्षेत्रसदभाववतनात् ॥१७०॥ तथेशानसुरेन्द्र ण सहेष्या निःफलां मुधा। हृवि देवदेन्द्रोप करोति सपकारिणीम् ७१॥ अर्थ:-क्षेत्रगत निमित्त कारण से चमरेन्द्र अपने चित्त में सौधर्मेन्द्र से वृथा ही कुछ ईर्ष्या करता है ।। १७०। इसी प्रकार वैरोचन भी अपने हृदय में ऐशानेन्द्र से पापोत्पादक भौर निष्फल ईर्ष्या करता है ॥१७१॥ अब इस सिद्धान्तसार रूप श्रुत को पढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं :-- इत्येव करणानुयोगकथक सर्वशवाण्युदभव, धर्मध्याननिबन्धनं शुभनिर्षि व्यावरणनोत्थं परम, श्रीमभावनसंज्ञकामृतभुजां सिद्धान्तसारं श्रुतम् । धर्मध्यानशुमाप्तये मुनिविदो यत्नात पठन्स्यवहम् ।।१७२॥ अर्थ:-इस प्रकार जो करणानुयोग को कहने वाला है, सर्वज्ञ की वाणी से नि:सृत है, धमध्यान का हेतु है. शुभ का खजाना है तथा जिसमें भवनवासी देवों का महान वर्णन है ऐसे इस सिद्धान्तसार ग्रन्थ का मुनिजन धर्मध्यान रूपी शुभ परिणामों की प्राप्ति के लिये प्रयत्नपूर्वक निरन्तर अध्ययन करें॥१७२।। अधिकारान्त मङ्गल :-- ये तीर्थेशजिनालया मणिमया नागामरैः पूजिताः स्तुत्या भक्तिभरेण पुण्यनिषयो मेरोरधो भूतले, या दिव्या जिनमूतंयोऽति सुभगाश्चत्या मेषु स्थिता स्तास्तानित्यसुखाप्तयेऽहमनिशं बन्दे स्तुवे मक्तितः ॥१७३।। इतिश्री सिद्धांतसारवीपकमहामन्थे भट्टारक श्रीसकलफोति विरचिते दविधभवनवासिदेव वर्णनोनामद्वादशोऽधिकारः ।। Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशोऽधिकारः [ ४५५ अर्थः- मेक पर्वत के नीचे पृथ्वीतल पर नागकुमार शादि के द्वारा पूजित और भक्ति के भार से स्तुत्य जो जितेन्द्र भगवान् के मणिभय जिनालय हैं, तथा जो चैत्य वृक्षों पर स्थित पुष्य की निषि स्वरूप, दिव्य और प्रति सुभग जिन प्रतिमाएँ स्थित हैं उन समस्त प्रतिमानों की मैं सुख प्राप्ति के लिये भक्ति भाव से प्रहनिश वन्दना करता है और स्तुति करता हूँ ।। १७३॥ इस प्रकार भट्टारक सकलकोति विरचित सिद्धान्तसारदीपक नाम महाग्रन्थ में दश प्रकार के भवनवासी देवों का वर्णन करने वाला Great अधिकार समाप्त ॥ Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशोऽधिकारः मङ्गलाचरण एवं प्रतिज्ञा :-- असंख्यध्यन्तरावासस्थितान् सर्वान् जिनालयान् । व्यन्तरामरवन्धादि प्रतिमाभिः सह स्तुवे ||१|| अथ पञ्चगुरुन्नत्वा विश्वकल्याणसिसिदान् । करिष्ये वर्णनं सिद्धय ह्यष्टधाभ्यन्तरात्मनाम् ॥२॥ अर्थ:-व्यन्तर देवों से वन्दनीय और पूजनीय व्यन्तर देवों के असंख्यात भावासों में स्थित प्रतिमानों सहित सम्पूर्ण जिनालयों का मैं स्तवन करता है। इसके बाद विश्व का कल्याण करने वाले और सिद्धि प्रदान करने वाले पंचपरमेष्ठियों को नमस्कार करके अब मैं प्रात्म सिद्धि के लिये पाठ प्रकार के व्यन्तर देवों का वर्णन करूगा ।।२।। व्यन्तर देवों के पाठ भेद : माविमाः किन्नरादेवाः किम्पुरुषा महोरगाः। गन्धर्वाख्यास्ततो यक्षा राक्षसा मूतनिर्जराः ॥३॥ पिशाचाश्च हमी ज्ञेया अष्टधा व्यन्तरामराः । अमीषां वर्णभेदादीन् पृथग्वक्ष्येऽधुनाचिदे ॥४॥ अर्थः-किन्नरदेव, किम्पुरुषदेव, महोरग, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच ये पाठ प्रकार के व्यन्तर देव हैं। अब ज्ञान प्राप्ति के लिये इनके शरीर का वर्ण और इनके भेद अलग अलग कहता हूँ॥३-४॥ अब व्यन्तर देवों के शरीर का वर्ग कहते हैं :-- प्रियगुफलभाः किन्नराश्च किम्पुरुषाः सिताः। महोरगा हि कृष्णाङ्गा गन्धर्वयक्षराक्षसाः ॥५॥ हेमप्रभास्त्रयो भूताः कृष्णवर्णाः पिशाचकाः । बहुलप्रभसद्गात्रा अमीषां मेद उच्यते ॥६॥ Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशोऽधिकार। [४५७ अर्थ:-किन्नर देवों के शरीर का वर्ण प्रियंगुफल सदृश नील पणे, किम्पुरुषों का धवल वर्ण, महोरगों का कृष्ण वर्ण, गन्धर्व, यक्ष और राक्षसों का स्वर्ण सदृश वर्ण, भूतों का कृष्ण वर्ण और पिशाच जाति के देवों का पंक' सदृश वर्ण होता है। अब इन पाठों देवों के भिन्न भिन्न भेद कहते हैं ॥५-६|| अब व्यन्तर देवों के मुख्य पाठ कुलों के प्रवान्तर भेव कहते हैं :-- किन्नरा दशमेवाह किम्पुरुषा द्विपश्वधा । महोरंगाश्च तावन्तो गन्धर्वाः स्युर्दशारमकाः ॥७॥ प्रोक्ता द्वावशषा यक्षाः सप्तप्रकारराक्षसाः।.. भूताः सप्तविधााच द्विसप्तमेवाः पिशाचकाः ।।८।। अर्थः-किलर देवों के दश भेद, किम्पुरुषों के दश भेद, महोरगों के दश भेद गन्धर्वो के दश भेद, यक्षों के बारह, राक्षसों के सात, भूतों के सात और पिशाचों के चौदह भेद होते हैं ।।७-८।। अब किन्नर और किम्पुरुष कुलों के प्रवान्तर भेदों के नाम कहते हैं : पादिमाः किन्नरादेवाः किम्पुरुषास्ततोऽमराः। हृदयङ्गमगीर्वाणाः स्वरूपाः पालकामराः ॥६॥ किन्नर किन्नराः किन्नरनिन्याभिनिखराः । ततः किन्नरमान्याः किन्नरादिरम्यसंज्ञकाः ॥१०॥ किन्नरोत्तमसंज्ञाश्चैते किन्नरा द्विपश्वधाः । प्राद्याः सत्पुरुषा देवा महापुरुषसंतकाः ॥११॥ देवाः पुरुषनामानः पुरुषोत्तमनिर्जराः । पुरुषप्रभगीर्वाणास्तथासिपुरुषामराः ॥१२॥ घायवो मरुदेवाख्या मरुत्प्रभाभिधानकाः। यशोमन्त इमे किम्पुरुषा बशविधा मताः ॥१३॥ अर्थ:-प्रथम किन्नर नाम के व्यन्तर देवों में किन्नर और किम्पुरुष ये दो इन्द्र, हृदयङ्गम मौर स्वरूप ये प्रतीन्द्र हैं, शेष पालक किन्नकिन्नर, किन्नरनिन्ध, किन्नरमान्य, किन्नररम्य और किन्नरोत्तम ये दश प्रकार के किन्नर देव हैं । सत्पुरुष ( इन्द्र), महापुरुष (इन्द्र), पुरुषनाम (प्रतीन्द्र), पुरुषोत्तम (प्रतीन्द्र), पुरुषप्रभ, अतिपुरुष, मस्त, मरुदेव, मरुस्प्रभ और यशोमन्त नाम के दश प्रकार के किम्पुरुष अन्तर देव होते हैं ॥४-१३॥ Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिवारासार यांचा प्रब महोरग, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच व्यन्तर देवों के प्रवान्सर नाम प्रावि कहते हैं :--- अतिकाया महाकाया भुजगाभिनिर्जराः। ततो भुजगशाल्याख्याः स्कन्धशाल्यभिधानका ॥१४॥ मनोहराश्च प्रशिनाख्या महासुराह्वयामराः । गम्भीराः प्रियदर्याख्या दशधैते महोरगाः ॥१५॥ प्राधो गीतरतिर्नाम्ना गीतकीतिसमाह्वयः । हाहात्यकोऽय हूहूसंनो मारवश्व तुम्बुरः ॥१६॥ कन्यवो वासवाभिल्यो महास्वरोऽथ धवतः । गन्धर्वकुलनामानि दशधेमानि सन्ति च ॥१७॥ प्राविमो मणिभवस्तु पूर्णभद्राह्वयस्ततः। शलभद्रो मनोभद्रो भद्रकाल्यः सुभद्कः ॥१८॥ सर्वभद्रो मनुष्योऽथ धनपालः स्वरूपकः । यक्षोत्तमो मनोहारी यक्षा द्वादशधा ह्यमी ॥१६॥ प्रायो भीमो महाभीमो विघ्नहारि समाह्वयः । उबडो राक्षसाभित्यो महाराक्षसनामकः ॥२०॥ ब्रह्मराक्षसनामामी सप्तधा राक्षसा मताः । स्वरूपः प्रतिरूपाख्यो भूतोत्तमाभिधोमरः ॥२१॥ प्रतिभूतो महाभूतस्ततः प्रच्छन्नसंज्ञकः । आकाशभूत इत्येते सप्तधा भूतजातयः ॥२२॥ कालाख्योऽथ महाकालः कूष्माण्डो राक्षसोऽमरः । यक्षः सम्मोहकाभिरुप स्तारकश्चाशुचिः शुचिः ।।२३॥ सतालो देहनामाथ महादेहाभिधानकः । पूर्णः प्रषचनाख्योऽमी पिशाचारच द्विसप्तधा ॥२४॥ अर्थः-अतिकाय (इन्द्र), महाकाय (इन्द्र), भुजगा (प्रतीन्द्र ), भुजगशाल्य ( प्रतीन्द्र ), स्कंधशाल्य, मनोहर, प्रशनि, महासुर, गम्भीर और प्रियदर्शी ये दस प्रकार के महोरग व्यन्तर देव हैं ॥१४१५॥ गीतरति ( इन्द्र ), गीतकीति ( इन्द्र }, हा हा (प्रतीन्द्र), हू हू (प्रतीन्द्र), नारद, तुम्बुर, कन्दव, वासव, महास्वर और धैवत ये इस प्रकार के गन्धर्व कुल के व्यन्तर देव हैं ॥१६-१७|| मरिणभद्र (इन्द्र), Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशोऽधिकार [ ४५६ पूर्णभद्र ( इन्द्र ), शैलभद्र (प्रतीन्द्र ), मनोभद्र ( प्रतीन्द्र ), भद्रक, सुभद्रक, सर्वभद्र, मनुष्य, धनपाल, स्वरूपक, यक्षोत्तम और मनोहारी ये बारह प्रकार के यक्ष कुल के व्यन्तर देव हैं ।। १८-१६ ।। भीम (इन्द्र ), महाभीम ( इन्द्र ), विघ्नहारी ( प्रतीन्द्र), उदङ्ग (प्रतीन्द्र), राक्षस, महाराक्षस और ब्रह्मराक्षस ये सात प्रकार के राक्षस व्यन्तर देव हैं । स्वरूफ (इन्द्र), प्रतिरूप ( इन्द्र ), भूतोत्तम ( प्रतीन्द्र ), प्रतिभूत ( प्रतीन्द्र ), महाभूत, प्रच्छन्न और आकाशभूत ये सात प्रकार के भूत जाति के व्यन्तर देव हैं ॥२०-२२।। काल ( इन्द्र), महाकाल ( इन्द्र ), कूष्माण्ड ( प्रतीन्द्र), राक्षस ( प्रतोन्द्र ), यक्ष, सम्मोहक, तारक, अशुचि, शुचि, सताल, देह, महादेह, पूर्ण और प्रवचन ये चौदह प्रकार के पिशाच जाति के व्यन्तर देव हैं ।।२३-२४॥ अब प्रत्येक कुलों के इन्द्रों के नाम, प्रतीन्द्रों की संख्या और दो दो बल्लभिकानों के नाम कहते हैं :-- प्रायौ द्वौ द्वाविनाविन्द्रौ पूज्यावेकं फुलं प्रति । पृथग्भूतो प्रतीन्द्रौ च द्वौ द्वौ देवाचितौ परौ ॥२५॥ मायेन्द्रः किन्नरो नाम्ना किम्पुरुषो द्वितीयकः । ततः सत्पुरुषेन्द्रोऽय महापुरुषदेवराट् ॥२६॥ प्रतिकायो महाकायः शक्रो गीतरविस्ततः । मीतकीति समाख्यो माणिभद्रः पूर्णभद्रकः ॥२७॥ भीम इन्द्रो महाभीमः स्वरूपः प्रतिरूपकः । कालेन्द्रोऽथ महाकाल इमे षोडश बासवाः ।।२।। षोडशैव प्रतीन्द्राः स्युः षोडशाना सुरेशिनाम् । है तथा सहस्र स्युर्देव्यः प्रत्येकमूजिताः ॥२६॥ किन्नरस्या वंतसाख्या वेदो केतुमती भवेत् । शची किम्पुरुषस्यास्ति रतिसेना रतिप्रिया ॥३०॥ स्यातां सत्पुरुषेन्द्रस्य रोहिणी नवभोस्त्रियो । हरिता पुष्पवत्यौ स्तो महापुरुषनायिके ॥३१॥ अतिकायस्य चन्द्राणी भोगा भोगवती भवेत् । महाकायस्य देवो पानिन्दिता पुष्पगन्धिनी ॥३२॥ शची गीतरतीन्द्रस्य स्वरसेना सरस्वती । नन्दिनी प्रियदर्शा स्याद् गीतकीर्तेश्च वल्लभा ॥३३॥ Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० ] सिद्धान्तसार दीपक माणिभद्रस्य वेवी स्यात्कुन्दाख्या बहुरूपिणी । पूर्णभद्रस्य सद्दकी तारका चोत्तमा भवेत् ॥३४॥ भीमस्य वसुमित्रास्ति सुपद्या प्राणवल्लभा । रत्नप्रभा सुवर्णाभा महाभीमस्य चाङ्गना ||३५॥ स्वरूपस्य महादेवी स्वरूपा बहुरूपिणी । प्रतिरूपस्य चेन्द्राणी सुसीमास्ति शुभानना ।। ३६॥ कालस्य कमलादेवी मवेच्च कमलप्रभा । महाकालस्य देवी स्यादुत्पला च सुदर्शना ||३७॥ एते द्वे द्वे महादेव्यों रूपसौभाग्यभूषिते । प्रत्येकं वासवानां स्तो द्वात्रिंशत्ताश्च पिण्डिताः ॥ ३८ ॥ अर्थ :--- एक एक कुल में अन्य देवों से पूज्य दो दो इन्द्र होते हैं और प्रत्येक कुल में देवों से पूजित दो दो प्रतीन्द्र होते हैं । रि५ ।। प्रथम कुल में किन्नर और किम्पुरुष दो इन्द्र हैं । द्वितीय किम्पुरुषों के कुल में सत्पुरुष और महापुरुष ये दो इन्द्र हैं ।। २५-२६ ।। इसके आगे तृतीय आदि कुलों में प्रतिकाय, महाकाय, गोतरथ, गीतकीर्ति, मणिभद्र, पूर्णभद्र, भीम, महाभीम, स्वरूप, प्रतिरूपक काल और महाकाल ये सोलह इन्द्र होते हैं। सोलहों इन्द्रों के सोलह ही प्रतीन्द्र होते हैं। इन सभी इन्द्रों और प्रतोन्द्रों में से प्रत्येक के भिन्न भिन्न दो-दो हजार देवांगनाएँ होती हैं ।।२७-२६|| किन्नर इन्द्र के अवतन्स और केतुमली दो शची हैं । किम्पुरुष के रतिसेना और रतिप्रिया मे दो शची हैं ||३०|| सत्पुरुष के रोहणी और नवमी तथा महापुरुष के हरित और पुष्पवती पे शची हैं ||३१|| प्रतिकाय इन्द्र के भोगा और भगवती तथा महाकाय इन्द्र के प्रनिन्दिता और पुष्पगन्धिनी ये दो दो इन्द्राशियाँ हैं ।। ३२ ।। गोतरति इन्द्र के स्वरसेना और सरस्वती तथा गीतकीर्ति के नन्दिनी और प्रियदर्शा नाम की दो दो इन्द्राणियाँ हैं ।। ३३ ।। मणिभद्र देव के कुन्दा और बहुरूपिणी एवं पूर्णभद्र के तारका और उत्तमा ये दो दो बल्ल भिकाएँ हैं || ३४ || भीम इन्द्र के वसुमित्रा तथा सुपद्मा और महाभीम के रत्नप्रभा एवं सुवर भा ये दो दो इन्द्रारियाँ हैं ||३५|| स्वरूप इन्द्र के स्वरूपा, बहुरूपिणी तथा प्रतिरूप के सुसीमा और शुभनना ये दो दो इन्द्राशियाँ हैं || ३६ || काल इन्द्र कमलादेवी, कमलप्रभा तथा महाकाल इन्द्र के उत्पला और सुदर्शना ये दो दो महादेवियाँ हैं ||३७|| इस प्रकार रूप एवं सौभाग्य से विभूषित दो, दो महा इन्द्रारियां प्रत्येक इन्द्रों के भिन्न भिन्न हैं । इस प्रकार सोलह इन्द्रों के बत्तीस इन्द्रारियां हैं ॥ ३८ ॥ अब व्यन्तर देवों के निवास का एवं उनके पुरों ( नगरों ) आदि का वर्णन करते हैं :-- Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशोऽधिकारा [ ४६१ रत्नप्रभाक्षितेः सन्ति खरमागे महागृहाः । चतुर्दशसहस्राणि भूतानामविनश्वराः ॥३६॥ रत्नप्रभावनेः पङ्कभागे रत्नमयाः शुभाः । प्रावासा राक्षसाना स्युः सहस्रषोडशप्रमाः॥४०॥ शेषव्यन्सरदेवाना मध्यलोकेऽचलादिषु । सर्वतः सन्ति चावासाश्चत्यालयविराजिताः ॥४॥ प्रचनो वज्रधातुश्च द्वीपः सुवर्णनामकः । द्वपा मनाशिलाभिख्यो द्वीपो वासमाह्वयः ।।४२॥ रजतो हिङगुलद्वीपो हरितालाभिषातकः । अद्वोपेषु चैतेषु समभागे समावनौ ॥४३॥ अष्टाना व्यन्तरेन्द्राणां प्रत्येक शाश्वतानि च। जम्बूद्वीपसमानानि पञ्चपञ्चपुराण्यपि ॥४४॥ पूर्वा:विक्षु विद्यन्ते मानस्तम्भजिनालयः । चत्यक्षेश्च युक्तानि स्वस्वेन्द्रनामभिः स्फुटम् ॥४५॥ अमीषां मध्यभागस्थं स्वेन्द्रनामयुतं पुरम् । प्रभ चावतंक कान्तं मध्यमं चेति विक्ष्वपि ॥४६॥ अर्थ:--रत्नप्रभा पृथिवोके खरभाग में भूतनामक व्यन्तर देवों के शाश्वत चौदह हजार महा. गृह हैं ।।३६॥ रत्नप्रभा पृथिवी के पंक भाग में राक्षस कुल व्यन्तरों के रत्नमयी और अत्यन्त रमणोक सोलह हजार प्रमाण पाबास हैं ।।४०1। शेष व्यन्तर देवों के चैत्यालयों से विभूषित प्रावास तिर्यग्लोक के पर्वतों पर सर्वत्र हैं ।।४१ ।। अंजन, बनधातु, सुवर्ण, द्वीप, मनः शिल द्वीप, वच द्वीप, रजत द्वीप, हिंगुल द्वीप और हरिताल द्वीप, इन पाठ द्वीपों में चित्रा भूमि पर समभाग में अर्थात् भूमि के नीचे या पर्वतों के ऊपर नहीं जा बूद्वीप सदृश समतल भूमि पर पाठ प्रकार के व्यन्तर देवों में से प्रत्येक इन्द्र के जम्बूद्वीप सदृश प्रमाण वाले पांच-पांच नगर हैं। ४२-४४ ।। ये नगर मानस्तम्भों, जिनालयों और चैत्य वृक्षों से युक्त तथा अपने अपने इन्द्रों के नाम से संयुक्त पूर्वादि चारों दिशाओं में हैं । इन नगरों में से अपने अपने इन्द्रों के नाम से युक्त पुर नाम का नगर मध्य में स्थित है, अवशेष किन्नरप्रभ, किन्नरावर्त, किन्नरकान्त और किन्नरमध्य ये चारों नगर क्रमशः पूर्व प्रादि चारों दिशाओं में अवस्थित हैं ।।४५-४६।। एतेषां पृथग्नामानि प्रोच्यते :-- Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ ] सिद्धान्तसार दीपक एषां पुराणां मध्यस्थपुरस्य किन्नरपुराख्यं नाम स्यात् । पूर्वभागस्थितपुरस्य किन्नरप्रभाग नामास्ति । दक्षिणदिग भागस्थपुरस्य किन्नरावर्तपुराभिधं नाम स्यात् । पश्चिमाशास्थपुरस्य किन्नरकान्तपुरसंजनामास्ति। उत्तरादिग स्थितपुरस्य किन्नर मध्यमाह्वयं नाम भवेत् । तथा अन्येषां सार द्वीपस्थ सर्वपुराणां अनया रीत्या स्व स्वेन्द्रनामपूर्वाणि प्रभावर्तकान्त मध्यमान्तानि नामानि भवन्ति ।। अब इन नगरों के पृथक् पृथक् नाम कहते हैं :--- अर्थः-अंजन द्वीप के मध्य स्थित नगर का नाम किन्नरपुर है। पूर्व दिशा स्थित नगर का नाम किन्नरप्रभ है । दक्षिणदिग् स्थित नगर का नाम किन्नरावर्त है। पश्चिम दिश् स्थित नगर का नाम किन्नरकान्त है और उत्तर दिश् स्थित नगर का नाम किन्नरमध्य है। इसी प्रकार सातों द्वीपों में अपने अपने इन्द्रों के नाम हैं पूर्व में जिनके ऐसे पुर, प्रभ, यावर्त, कान्त और मध्य नाम के नगर इसी रीति से पूर्वादि दिशाओं में अवस्थित हैं। अब प्राकार, द्वार, प्रासाद, सभामण्डप एवं चैत्य वृक्षों आदि का प्रमाण पूर्वक वर्णन करते हैं।-- प्राकारा नगरेषु स्य: शाश्वताः प्रोन्नताः शुभाः। द्विकोशाषिकसप्तत्रिंशद्योजनश्च विस्तृताः ॥४७॥ मूले कोशवयाग्रद्वादशसंख्यैश्च योजनः । सार्धद्वियोजन च्याग मूनि द्वारादिभूषिताः ॥४८॥ द्वाराणामुक्योऽमीषां सार्धद्विषष्टियोजनः । विस्तारः क्रोशसंयक्त कशिद्योजनप्रमः ॥४६॥ द्वाराणां मस्तकेऽमीषां प्रासादामणिसङ्कुलाः। विद्यन्ते प्रोन्नता रम्याः पञ्चसप्ततियोजनैः ॥१०॥ विस्तृताः क्रोशसंयुक्त कत्रिंशद्योजनैः शुभाः। तेषां मध्ये सूधर्मात्यो राजते मणिमण्डपः ॥५१॥ योजनानां नवोत्तुङ्गः सार्धद्वादशयोजनः । प्रायतो विस्तृतः क्रोशाधिकषभिश्च योजनः ।।२।। तस्य द्वाराणि रम्याणि द्वियोजनोन्नतानि च । योजनम्यासयुक्तानि मण्डपस्य भवन्त्यपि ॥५३॥ इत्येवं वर्णना ज्ञेया सर्वेन्द्राणां पुरेषु च । नगराणां चतुर्विक्षु चत्वारश्चत्यपादपाः ॥५४॥ Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशोऽधिकारः रत्नपीठाश्रिता मूले चतुर्दिक्षु विराजिताः । भौमेन्द्र पूजिताभिः स्यूजिनेन्द्रदिव्यमूर्तिभिः || ५५ ॥ मानस्तम्भारच चत्वारो मणिपीठत्रिकोर्ध्वगाः । शालत्रय युताः सन्ति सिद्धबिम्बादघशेखराः ॥५६॥ [ ४६३ चौड़ाई है। अर्थः- उम प्रत्येक नगरों में ३७ योजन २ कोस ऊँचे, मूल में १२३ योजन चौड़े, ऊपर २३ योजन चौड़े, शाश्वत, शुभ और द्वारों आदि से विभूषित प्राकार हैं ।।४७-४८ ।। इन प्राकारों में स्थित द्वारों में से प्रत्येक द्वार की ऊँचाई ६२३ योजन इन द्वारों के ऊपर ७५ योजन ऊंचे और ३११ योजन चौड़े मणिमय प्रासाद हैं । जिनके मध्य में सुधर्मा नाम के मणिमय मण्डप सुशोभित होते हैं ।। ५०-५१ ।। जो ६ योजन ऊंचे १२३ योजन चौड़े और ६ योजन चौड़े हैं | | उस सभा मण्डप के द्वारा अत्यन्त रमणीक, दो योजन ऊँचे और एक योजन चौड़े हैं। ११५३ ॥ इसी प्रकार का वर्णन सर्व इन्द्रों ( दक्षिणेन्द्रों और उत्तरेन्द्रों ) के नगरों में जानना चाहिए । नगरों की चारों दिशाओं में (एक एक ) चार चैत्य वृक्ष हैं। जिनके मूल में चारों दिशाओं में रत्नपीठ के श्राश्रित, व्यन्तर देवों से पूजित जिनेन्द्र भगवान के दिव्य मूर्तियाँ हैं । ५४-५५ ।। इन्हीं चारों वृक्षों के सामने तीन तीन मणिमय के ऊपर तीन कोट से युक्त चार मानस्तम्भ हैं, जिनके शिखर सिद्ध भगवान के विम्बों से युक्त हैं ||२६|| श्रम पिशाचादि व्यन्तर देशों के चेत्य वृक्षों के भिन्न भिन्न नाम, उनमें स्थित प्रति बिम्ब एवं मानस्तम्भों का वर्णन करते हैं : प्रशोकश्चम्पको नागस्तुम्बुरुश्च घटद्रुमः । बदरी तुलसी वृक्षः कदम्बोटहिया इमे ॥५७॥ मणिपीठाग्रभागस्थाः पृथ्वीसारमयोन्नताः । भवनेषु क्रमात्सन्तिष्टानां व्यन्तरात्मनाम् ॥ ५८ ॥ हेषां मूले चतुर्दिक्षु चतस्रः प्रतिमाः पृथक् । चतुस्तोरणसंयुक्ता दीप्ता दिव्या जिनेशिनाम् ॥५६॥ मानस्तम्भोऽस्ति चैकैकः एकैकां प्रतिमां प्रति । मुक्तास्रग्मणिघण्टादयस्त्रिपीठशाल सूषितः ॥६०॥ अर्थ :- किन्नर, किम्पुरुष, महोरग, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच इन आठों व्यन्तर देवों के क्रम से अशोक, चम्पक, नाग ( केसर ), तुम्बरु, बट, बदरी, तुलसी और कदम्ब नाम वाले चैत्यवृक्ष होते हैं । ये ऊँचे ऊँचे वृक्ष पृथ्वी के सारमय ( पृथ्वीकायिक ) और मरिगपीठ के अग्रभाग पर Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्तसार दीपक स्थित होते हैं। इन वृक्षों के मूल में चारों दिशाओं में जिनेन्द्र भगवान की चार चार तोरण द्वारों से युक्त, देदीप्यमान और दिव्य पृथक् पृथक् चार प्रतिमाएँ हैं। तथा एक एक प्रतिमा के प्रति मुक्तादामों एवं मणिमय घण्टानों से युक्त, मणिमय तीन तीन पीठ और प्राकार से युक्त एक एक मानस्तम्भ है ।।५७-५॥ अब नगरों की चारों दिशाओं में स्थित बनों एवं विदिशाओं में स्थित नगरों का कथन करते हैं : पुराणां च चतुर्विन त्यक्त्वा च सहस्रके । योजनानां हि चत्वारि वनानि शाश्वतान्यपि ॥६॥ लक्षयोजनदीर्घाणि लक्षार्धविस्तृतानि छ । अशोकसप्तपर्णाम्र-चम्पकाढयानि सन्ति च ।।६२॥ मध्येऽमीषां हि चत्वारो राजन्ते चैत्यपादपाः ।। प्रशोक-सप्तपर्णाम्र-चम्पकाल्या जिनार्चनेः ॥६३॥ विदिक्ष नगराणा स्युर्गणिकानां पुराणि च । सहस्त्रचतुरशीतियोजनविस्तृतानि वै ॥६४॥ वृत्ताकाराणि नित्यानि प्राकारादियुतान्यपि । पुराणि शेष भौमानामनेफद्वीपवार्षिषु ।।६।। अर्थ:-नगरों की चारों दिशाओं में दो-दो हजार योजन छोड़कर अशोक, सरपर्ण, प्राम पौर चम्पक नाम के चार चार शाश्वत वन हैं, जो एक एक लाख योजन लम्बे तथा पचास-पचास हजार योजन चौड़े हैं। इन वनों के मध्य में जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमाओं से युक्त अशोक, सप्तपर्ण पान और चम्पक नाम के चार-चार चैत्य वृक्ष शोभायमान होते हैं ॥६१-६३॥ नगरों को चारों विदिशापों में गणिकाओं के वलयाकार, शाश्वत और प्राकार प्रादि से युक्त नगर हैं, जो ८४००० योजन लम्बे और ८४००० योजन ही चौड़े हैं। शेष ध्यन्तर देवों के नगर अनेक द्वीपों एवं अनेक समुद्रों में हैं ॥६४-६शा अब किन्नर प्रावि सोलह इन्द्रों की ३२ गणिका महत्तरों के नाम कहते हैं : इन्द्रप्रति विमे स्तो महत्तरिके सुराङ्गने । गणिकासंज्ञिके वे द्वे पृथक पन्यकजीविते ॥६६॥ माधुरी मधुरालापा देवी घ मधुरस्वरा । पुरुषादिप्रियाल्या पृथका सोमाया ततः ॥६॥ Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E त्रयोदशोऽधिकारः प्रदर्शनी हि भोगाख्या भोगावती भुजङ्गनी । नागप्रिया सुतोषाय घोषाल्या विमलप्रिया ॥ ६८ ॥ सुस्वरानिन्दितादेवी बेवी भद्रा सुभद्रका । मालिनी पद्ममालाख्या सर्वश्री सर्वसैनिका ॥ ६९ ॥ care दद्रवर्शाख्या मूतकान्ता समाह्वया । सूतमूतप्रिया देवी दत्ता महाभुजङ्गिनी ॥७०॥ अम्विकाय करालाख्या सुरसेना सुदर्शना । इन्द्राणां स्युरिमा देव्यो द्वात्रिंशद्विश्वपिण्डिताः ॥७१॥ [ ४६५ अर्थः-- सोलह इन्द्रों में से प्रत्येक को गरिएका नाम की दो दो प्रधान देवांगनाएँ हैं, इनमें से प्रत्येक की आयु एक-एक पल्य प्रमाण है ।। ६६ । माधुरी, मधुरालाप, मधुरस्वरा, पुरुषप्रिया, पृथुका, सोमा, प्रदर्शनी, भोगा, भोगवती, मुजङ्गिनी, नागप्रिया, सुतोषा, घोषा, विमल प्रिया, सुस्वरा, श्रनिंदिता, भद्रा, सुभद्रका, मालिनी, पद्ममाला, सर्वश्री, सर्व सैनिका, रुद्रा, रुद्रदर्शा भूतकान्ता, भूतप्रिया दत्ता, महामुजङ्गिनी, अम्बिका कराला, सुरसेना और सुदर्शना ये ३२ गरिएका महत्तरिकाएँ व्यन्तरवासी इन्द्रों की हैं ।। ६७-७१ ॥ अब व्यन्तर देवों के तीन प्रकार के निवास स्थानों का अवस्थान सूचित कर उनके नगरों एवं कूटों का प्रमाण कहते हैं :-- श्रष्टानां व्यन्तराणां स्युः पुराणि भवनानि च । श्रवासा इति विज्ञेयास्त्रिविधाः स्थानकाः शुभाः ॥ ७२ ॥ मध्यलोकस्थद्वीपाधि महीषु स्यु पुराणि च । खरांशे पङ्कभागे वाघोलोके भवनान्यपि ॥७३॥ प्रावासाः सन्ति चेतेषामूर्ध्वलोके क्षयोज्झिताः । पर्वताग्रेषु कूटेषु वृक्षाग्रेषु हृदादिषु ॥७४॥ वृत्तोत्कृष्टपुराणां स्याद् व्यासो लक्षैकयोजनः । जघन्यनगराणां किलंकयोजनविस्तरः ॥ ७५ ॥ उत्कृष्ट भवनानां हि सकलोस्कृष्टविस्तरः । योजनद्विशताग्रस्यसहस्रद्वादशप्रमः ॥७६॥ जघन्यभवनानां स्वाद् विस्तरोऽतिजघन्यकः । योजनानामधोलोके पञ्चविंशतिमानकः ॥७७॥ Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्तसार दीपक विष्कम्मो निखिलोत्कृष्टावासानां श्रीजिनागमे । योजनानां जिनः प्रोक्तः सहस्रद्वादशप्रमः ॥७८।। प्रावासानां जघन्यानां ध्यासः कोशत्रयं भवेत् । उस्कृष्टभवनावीना मध्ये कुटोऽस्ति भास्वरः ॥७९॥ योजनत्रिशतव्यासः शतंकयोजनोन्नतः । जघन्यभवनावीना मध्ये कूटो जघन्यकः ॥८॥ एकगव्यूतिविस्तारो हेमरत्नमयोऽक्षयः। क्रोशकस्य विभागानामेकभागसमुन्नतः ॥१॥ मर्थ:--पाठों प्रकार के व्यन्तर लेवों के रहने र स्थान पुर, भवन और आवास के भेद से तीन प्रकार के जानना चाहिए ।।७२।। मध्यलोक में (सम) पृथ्वी पर स्थित द्वीप समुद्रों में व्यन्तर देवों के जो निवास स्थान हैं उन्हें पुर कहते हैं । अधोलोक में खर और पङ्क भाग में जो स्थान हैं उन्हें भवन कहते हैं, तथा ऊर्ध्वलोक में अर्थात् पृथ्वीतल से ऊपरी भामों में पर्वतों के अग्नभामों पर, कूटों पग, वृक्षों के अग्नभागों पर, और पर्वतस्थ सरोवरों यादि में जो स्थान हैं उन्हें प्रावास कहते हैं । ये तीनों प्रकार के निवास स्थान हानि-क्षय से रहित अर्थात् शाश्वत हैं ।। ७३-७४ ।। उत्कृष्टपुर वृत्ताकार और एक लान योजन विस्तार वाले हैं तथा जघन्य पुर एक योजन विस्तार वाले हैं ।।७५।। समस्त उत्कृष्ट भवनों का उत्कृष्ट विस्तार १२२०० योजन प्रमाण है ।१७६॥ अधोलोक स्थित जघन्य भवनों का जघन्य विस्तार २५ योजन प्रमाण है ।७७। जिनागम में जिनेन्द्र भगवान के द्वारा सम्पूर्ण उत्कृष्ट प्रावासों का विष्कम्भ १२००० योजन कहा गया है, तथा जघन्य प्रावासों का व्यास तीन कोस कहा गया है। उत्कृष्ट भवन मादि के मध्य में देदीप्यमान कूट हैं, जो ३०० योजन चौड़े और १०० योजन ऊँचे हैं। जघन्य भवनों आदि के मध्य में जघन्य कूट हैं, जो स्वर्ण और रत्नमय हैं, शाश्वत हैं तथा एक कोस चौड़े और कोस ऊँचे हैं ॥७८-१|| ___ अब कूटों का अवशेष वर्णन करते हए क्यन्तर देवों के निवास (प्रावासों प्रावि का) स्थानों का विभाग दर्शाते हैं :-- प्रमोषां सर्वकूटानां मध्यमागे च मूर्धनि । स्फुरव्रत्ममयस्तुङ्ग एकंकः श्रीजिनालयः ।।२।। ज्येष्ठानां भवनाधीनामुत्कृष्टा वेक्षिका मता। प्रतोलीतोरणाचा घा कोशद्वयोच्छितोजिता ॥३॥ लधूनां भवनादीनां लध्वी सद्वेदिका भवेत् । . पचविशतिचापोच्चा गोपुरादिविभूषिता ॥४॥ Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशोऽधिकारः I केषाञ्चिद् भौमदेवानामावासाः सन्ति केवलम् । केषाञ्चिद मवनः सार्धमावासाः स्युः सुधासुजाब ।।५।। पुराणि भवनान्युच्चाबासा एते त्रयः शुभाः । भवन्ति वसतिस्थानाः कषावित्पुण्यपाकप्त: ।।६॥ तथेतित्रिविषस्थानानि स्पु वनवासिनाम् । नवानामसुराणां च केवलं भवनान्यपि ।।८७॥ अर्थः-इन उत्कृष्ट एवं जघन्य सर्व कूटों के ऊपर मध्य भाग में देदीप्यमान रत्नमय एक एक उत्त जिनालय हैं ।।८२॥ उत्कृष्ट भवनों आदि की उत्कृष्ट वेदियों प्रतोली तथा तोरणों आदि से युक्त दो कोस ऊंची हैं, तथा जघन्य भवनों आदि की जघन्य वेदियो गोपुर प्रादि से विभूषित और २५ धनुष ऊँची हैं ।।८३-८४॥ पूर्व पुण्योदय से किन्हों किन्ही व्यन्तर देवों के मात्र प्रावास ही हैं, किन्हीं के प्रावास और भवन दोनों हैं ।।८॥ तथा किन्हीं किन्हीं व्यन्तर देवों के आवास, भवन और पुर ये तीनों प्रकार के अत्यन्त शुभ निवास स्थान होते हैं ।। ६६ ।। भवनवासी देवों में असुरकुमारों के मात्र भवन होते हैं, अन्य शेष भवनवासयों के तीनों प्रकार के निवास स्थान होते हैं ॥७॥ अब व्यस्तरेन्द्रों के परिवार देवों का विवेचन करते हैं : प्रतिशकं भवेदेकैकः प्रप्तीन्द्रोऽमरावृतः। प्रत्येक किन्नरादीनां सर्वेन्द्राणां भवन्ति च ॥ll चत्वार्यय सहस्राणि देवाः सामानिकाह्वयाः । अङ्गरक्षामराः सन्ति सहस्रषोडशप्रमाः ।।८।। प्राविमापरिषत्स्थाः स्यर्देवा प्रष्टशतानि च।। मध्यमापरिषदेवाः सहलप्रमिता मता: 10॥ प्रन्तिमापरिषत्स्थामरा द्वादशशसप्रमाः। गजा अश्वा रथास्तुङ्गा वृषभाश्म पदातयः ॥१॥ गन्धर्वाः सुरनर्तक्यः सप्तानीकान्यमूनि च । प्रत्येकं सर्वयुक्तानि कक्षाभिः सप्तसप्तभिः ॥१२॥ गजानां प्रथमेऽनोकेऽष्टाविंशति सहस्रकाः । गजावच बितोये षट्पञ्चाशत्सहनहस्तिनः ॥६॥ इत्येवं च तृतीयायनीकेषु द्विगुणोत्तराः। सप्समानीकपर्यन्तं विद्यन्ते हस्तिनः क्रमास् ॥६॥ Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्तसार बीपक सप्तानीकगजाः सर्वे सरिस पिण्डीकृता सुषेः । पञ्चनिशस्चलक्षाणि षट्पञ्चाशत्सहलकाः ॥॥ इत्थं गणनया नेया ह्यश्वसंख्यागजप्रमा । तथारथाधनीकानि गजसंख्यासमानि च ॥१६॥ है कोटपो चाष्टचत्वारिंशल्लक्षाणि सहस्रकार। दूधधिका नवतिश्चेति संख्यासर्वाजिनमंता ॥६॥ पिण्डीकृताऽप्यनीकानां सप्तानां श्रीजिनागमे । सप्ससप्तप्रकाराणां गजादीनां सुरेशिनाम् ।।६८|| प्रकीर्णकाया देवा प्राभियोगिकसंज्ञकाः । फिस्विषिकास्त्रयोऽते झसंख्याता भवन्ति च IIEI प्रायस्त्रिासुरा लोकपालाः सन्ति न जातुचित् । ततोऽसित व्यन्तरेन्द्राणां परिवारोऽखिलोऽधा ॥१०॥ अर्थः-किन्नर, किम्परुष आदि प्रत्येक इन्द्र के परिवार में देवों से वेष्टित एक एक प्रतीन्द्र देव होते हैं । सामानिक देव चार (४०००) हजार मोर पंगरक्षक देव १६.००हमार होते हैं ॥८८-८९ अभ्यन्तर परिषद् के देव ८०० मध्यम परिषद के १००० और बाह्य परिषद् के देव १२०० होते हैं । प्रत्येक इन्द्र के हाथी, घोड़ा, उत्तु न रथ, वृषभ, पदाति, गन्धर्व और नर्तको ये सात अनीक सात सात कक्षाओं से युक्त होती हैं ॥६०-६२|| सातों अनीकों में से हाथियों की अनीक को प्रथम कक्ष में २८००० हाथी, द्वितीय में ५६००० हाथी होते हैं। इस प्रकार तृतीय कक्ष से सरम कक्ष पर्यन्त क्रम से दूने दुने संख्या प्रमाण हाथी होते हैं ।। ६.३-६४ ।। गणधर देवों के द्वारा सातों कक्षों के हाथियों का एकत्रित योग ३५५६००० कहा गया है | इसी प्रकार सातों कक्षों के घोड़ों की संख्या तथा रथ आदि शेष पांचों की संख्या गजों की संख्या के प्रमाण हो जानना चाहिए ।१६। जिनेंद्र भगवान के द्वारा सात सात कक्षाओं से युक्त सातौ अनीकों की सम्पूर्ण संख्या का योग ( ३५५६०००४७ )=२४८६२००० कहा गया है ||७|| जिनागम में सात सात कक्षाओं से युक्त गज आदि सातो अनौकों के देवों का एकत्रित २४८६२.०० योग प्रत्येक व्यन्तरेन्द्रों के पृथक पृथक् कहा गया है ।।९।। प्रत्येक इन्द्र के परिवार में प्रकोणक, प्राभियोगिक और किल्यि षिक नामक तीनों प्रकार के देव प्रसंख्याते होते हैं। व्यतरेन्द्रों के परिवार में प्रायसिंवश भौर लोकपाल देव कभी नहीं होते, इसलिये इन सभी इन्द्रों का परिवार प्रतीन्द्र, सामानिक, अंगरक्षक, पारिषद्, अनीक, प्रकीर्णक, भाभियोगिक और किल्विष के भेद से आठ प्रकार का होता है १६६-१.०॥ Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशोऽधिकारस :-- sue नित्योपादादि वानव्यन्तर देवों का निवास क्षेत्र कहते हैं एकं हस्तान्तरं त्यक्त्वा ह्याद्यचित्रामहीतले । नित्योत्पादक नामानो वसन्ति व्यन्तरामराः ॥१०१॥ सतो दशसहस्त्राणि हस्तानां च विहाय च । सन्ति विम्वासितस्त्यक्त्वा स्मादोवंश सहस्रान् ॥ १०२ ॥ वसन्त्यन्तरवासाख्याः पुनर्दशसहस्रकाम् । कस्त्यक्त्वा च कूष्माण्डास्तिष्ठन्त्यतो विमुच्य च ॥१०३॥ हस्तविंशसहस्राणि वसन्त्युत्पन्न निर्जराः । ततो विशसहस्राणि करारणां प्रविहाय च ॥ १०४॥ सम्स्यनुत्पद्मगीर्वाणास्तस्माद् विशसहलकान् । करान् मुक्त्वा वसन्त्येव प्रमाणकाभिधाः सुराः ॥ १०५ ॥ ३ ततो विशसहस्राणि हस्तानां परिमुच्य च । तिष्ठन्ति गन्धगीर्वाणास्तस्माद् विशसहस्रकात् ॥१०६॥ हस्तांस्त्यक्त्वा महागन्धाः पुनविमुच्य विशति । सहस्राणि कराणां स्युर्भुजगाच्या विहाय च ॥१०७॥ पुनवशसहस्राणि हस्तानां निवसन्ति च । प्रीतिङ्करास्ततस्त्यक्त्वा करविंशसहस्रकात् ॥१०६॥ प्रकाशोत्सनामानो देवा वसन्ति भूतले । एते द्वादशधा देवा विज्ञेया वानव्यन्तराः ॥१०६॥ [ ४६९ अर्थ :- चित्रा पृथ्वी के ऊपर एक हाथ का अन्तराल छोड़ कर निस्योत्पादक नाम के व्यन्तर देव रहते हैं ।। १०१ ।। इनसे १०००० हाथ छोड़ कर दिग्वासी देव, इनसे १०००० हाथ छोड़ कर अन्तरवासी नाम के देव रहते हैं । इनसे १०००० हाथ छोड़कर कूष्माण्ड देव रहते हैं । इनसे २०००० हाथ छोड़ कर उत्पन्न देव तथा इनसे २०००० हाथ छोड़ कर श्रनुत्पन्न देव रहते हैं । इनसे २०००० हाथ छोड़ कर प्रमाणक देव, इनसे २०००० हाथ छोड़ कर गन्ध देव, इनसे २० हजार हाथ छोड़ कर महागन्ध नाम के देव, इनसे २० हजार हाथ छोड़ कर भुजग नामक देव, इनसे २० हजार हाथ छोड़कर प्रीतिकर और इनसे २० हजार हाथ छोड़ कर आकाशोत्पन्न नाम के देव निवास करते हैं। इस प्रकार भूतल पर इन बारह प्रकार के व्यन्सर देवों का निवास जानना चाहिए ।।१०२-१०६।। Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७.1 सिमान्तसार दीपक नित्योपावकदेवानामखण्डायुजिनमतम् । दशवर्षसहस्राणि दिग्यासिनां च जोषितम् ॥११०॥ विंशस्यब्दसहलाण्यन्तरवासिसुधाभुजाम् । त्रिंशद्वर्षसहस्राणि कूष्माण्डानां च जीवितम् ॥१११॥ . . परवारिंशसहस्राब्धमुत्पन्नात्यामृताशिनाम् । परमायुभवेत् पञ्चाशत्सहस्राब्दमानकम् ।।११२।। अनुत्पन्नात्मना षष्टिसहस्रवर्षजीवितम् । प्रमाणकात्मनां सप्ततिसहलाब्दसंस्थितिः ॥११॥ गन्धाख्यानां तथाशीतिसहस्रवर्षमीवितम् । महागन्धास्यवेपानां धृते चायुमंतं जिनः ।।११।। : : वर्षाणां चतुरपाशीतिसहस्रप्रमाणकम् । भुजगानां भवेदाय पन्य कमाणकः ॥१॥ प्रीतिङ्करात्मनां पल्यस्य चतुर्थाशजीवितम् । प्राकाशोत्पन्नदेवानामायुः पल्यार्थसम्मितम् ॥११६।। अर्थ:-जिनेन्द्र भगवान के द्वारा नित्योत्पादक देवों की प्रखण्ड प्रायु दश हजार वर्ष दिग्वासियों । की २० हजार वर्ष, अन्तरवासी देवों की ३० हजार वर्ष, कूष्माण्ड देवों की ४० हजार वर्ष, उत्पन्न देवों की ५० हजार वर्ष, अनुत्पन्न देवों की ६० हजार वर्ष, प्रमाणक देवों की ७० हजार वर्ष, गन्ध देवों की ८० हजार वर्ष और महागन्ध देवों को उत्कृष्ट प्रायु ८४ हजार वर्ष कही गई है, तथा जिनागम में भुजग देवों की आयु पल्य का ८ वी भाग, प्रीतिङ्कर देवों की पल्य का चौथाई भाग और आकाशोत्पन्न . देवों की आयु अर्घ पल्य प्रमाण कही गई है ।।१२०-११६॥ - अब ज्यन्तर देवों को जघन्योत्कृष्ट प्राय, अवगाहना, प्राहार, श्वासोच्छवास और .. अवधिज्ञान के विषय का प्रमाण कहते हैं : उत्कृष्टं व्यन्तराणां स्यादायुः पस्योपमं क्रमात् । यशवर्षसहस्राणि सर्वजघन्यजीवितम् ॥११७॥ बशचापोणतः कायः समस्त व्यन्तरात्मनाम् । मानसाहार एषास्ति सापञ्चदिनं गतः ॥११॥ Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशोऽधिकार सार्षपञ्चमुहूर्त निक्रान्तरपछवास एव च । व्यन्तराणामसंख्यातयोजनाम्यवधिर्मतः ।।११६॥ उत्कृष्टोहि जघन्यश्च पञ्चविंशतियोजनः । ऊर्ध्वाधोऽपि कियन्मात्रो भवप्रत्ययसम्भवः ॥१२०॥ अर्थः-श्यन्तर देवों की उत्कृष्ट प्रायु एक पल्य प्रमाण और जघन्य प्रायु दश हजार वर्ष प्रमाण होती है ॥११७॥ समस्त व्यन्तर देवों के शरीर की ऊँचाई दश धनुष प्रमाण है। ५६ दिन व्यतीत हो जाने के बाद व्यन्तर देव मनसा ग्राहार करते हैं और ५३ मुहूर्त व्यतीत हो जाने के बाद श्वासोच्छवास लेते हैं । व्यन्तर देवों का उत्कृष्ट अवधि क्षेत्र असंख्यात योजन प्रमाण और जघन्य अवधिक्षेत्र २५ योजन प्रमाण है। ये ऊर्ध्व और प्रध: कुछ भवों को भी यथा सम्भव जानते हैं ॥११८-१२०।। अब प्राचार्य करणानुयोग पढ़ने की प्रेरणा देते हैं : एतद् व्यन्तरजातिमेदविभस्थित्यादिसंसुनकम् । धर्मध्याननिबन्धनं ह्यघहरं चाहन्मुखाब्जोद्भवम् ॥ सिद्धान्तं फरणानुयोगममलं चित्ताक्षवन्त्यङ्कुशम् । सचानाय सुयोगिनः सुविधिना नित्यं पठन्वावरात् ॥१२॥ अर्थ:-इस प्रकार व्यन्तर देवों के जाति, भेद, वैभव और स्थिति आदि को संसूचन करने वाला, धर्मध्यान का हेतु. पापनाशक, अर्हन्त भगवान् के मुख रूपी कमल से उत्पन्न तथा मन और इन्द्रिय रूपी हाथी को वश करने के लिये अंकुश के सदृश इस सिद्धान्तसार रूप निर्मल करणानुयोग को उत्तम ध्यान की सिद्धि के लिये उत्तम योगीनन विधिविधान से प्रादर ( विनय ) पूर्वक नित्य ही पड़ो॥१२१॥ अधिकारान्त मङ्गल :--- ये श्रीमद्भवनेषु विश्वनगरेष्वावास सर्वेषु चाधो मध्योर्ध्वसुभूमिसर्वगिरिषु श्रीमजिनेन्द्रालयाः। तत्रस्था जिनमूर्तयोऽतिसुभगाश्चत्यमादिस्थिता या स्तास्ताः शिवशर्मभूतिजननोर्वन्चे स्तुवे मुक्तये ॥१२२॥ इतिश्री सिद्धांतसारदीपफमहाप्रन्थे भट्टारक श्रीसकलकोतिविरचित व्यन्तरदेवस्थितिभेवभूत्पादिवर्णनोनामत्रयोदशमोऽधिकारः ॥ Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ ] सिद्धान्तसार दोपक अर्थः-समस्त भवनों, नगरों एवं पावासों में, अबो, मध्य और ऊर्ध्व लोकों में. सर्व सुदर्शन मेरु प्रादि पर्वतों पर तथा अत्यन्त शोभा युक्त चैत्य प्रादि वृक्षों पर स्थित भव युक्त जितने जिन मन्दिर हैं, उन मन्दिरों में स्थित कल्याण और सुख को उत्पन्न करने के लिये माता के सदृश जो जिन प्रतिमाएँ हैं, उन सबका मैं मुक्ति प्राप्ति के लिये स्तवन करता हूँ, वन्दना करता हूँ ॥१२२॥ इस प्रकार भट्टारक सकलकीर्ति विरचित सिद्धान्तसार दीपक नाम महामन्य में आठ प्रकार के भेद वाले व्यन्तर देवों की स्थिति प्रादि का प्ररूपण करने वाला तेरहवां अधिकार समाप्त। Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मङ्गलाचरण : चतुर्दशोऽधिकारः ज्योतिर्देयविमानस्थासंख्यातश्रीजिनालयान् । जिनबिम्बान्वितान् बन्धे स्तुये नित्यान् शिवाय च ॥ १ ॥ :- ज्योतिर्देवों के विमानों में स्थित जो असंस्थात जिनालय हैं, उन जिनालयों में स्थित जिन प्रतिमाओं के समूह की मैं मोक्ष प्राप्ति के हेतु नित्य ही वन्दना करता हूँ और उनका स्तव करता है ॥१॥ अब ज्योतिषी देवों के भेदों का प्ररूपण करते हैं : चन्द्राः सूर्या ग्रहा नक्षत्राणि प्रकोरतारकाः । एते पञ्चविधाः प्रोक्ता ज्योतिष्कदेवतागणाः ॥ २ ॥ श्रर्थ:- चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और प्रकीर्णक तारा, इस प्रकार ज्योतिषदेवों के समूह पांच प्रकार के कहे गये हैं ॥२॥ अब तारा आदि ज्योतिर्देशों के स्थान का निर्देश करते हैं :-- दशोनाष्टशतान्यस्माद्योजनानि महीतलात् । tear सन्ति विमानानि तारकाणां नभोंग ॥३॥ ततोप्ययनभो मुक्त्वा दशयोजन सम्मितम् । श्रादित्यानां विमानानि विद्यन्ते शाश्वतान्यपि ॥४॥ श्रशीतियोजनान्युवं पुनस्त्यक्त्वा भवन्ति खे । चन्द्राणां सविमानान्यतो योजनचतुष्टयम् ||५|| मुक्त्वा नक्षत्रदेवानां विमानानि च सन्त्यनु । त्यक्त्वा योजनचत्वारि बुधानां स्युबिमानकाः ||६ ॥ Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्तसार दीपक मुक्त्वातोयोजनत्रीणि शुक्राणां स्युर्विमानकाः । त्यक्त्वाथ योजनत्रीणि बृहस्पतिविमानकाः ॥७॥ मुक्त्वानु योजनत्रीणि मङ्गलानो विमामकाः । त्यक्त्वातो योजनत्रीणि शनैश्चरविमानकाः ।।८।। ज्योतिः पटलबाहुल्यमित्थं दशोतरं शतम् । योजनानां भवेत्सर्व विमानव्याप्तखाङ्गणे ॥६॥ चित्रामहीतलायोजनानां नवशतान्तरे । सर्वज्योतिष्कदेवानां विद्यन्ते हि विमानकाः ॥१०॥ अर्थः-चित्रा पृथ्वी से ७६० योजन ऊपर जाकर आकाश में तारात्रों के विमान हैं ।। ३॥ नभ में गणशयोजन अपरय शाश्वत विमान है, इनसे ८० योजन ऊपर प्राकाश में चन्द्र विमान है। चन्द्र से धार योजन ऊपर मात्र विमान, इससे पार योजन ऊपर बुष विमान, इससे ३ योजन ऊपर शुक्र विमान, इससे तीन योजन ऊपर गुरु विमान, इससे तीन योजन ऊपर मंगल विमान और मंगल से तीन योजन ऊपर शनि का विमान है ।। ४-८॥ इस प्रकार ज्योतिर्पटल के सर्व विमान आकाश में पिण्ड रूप से ११० योजन क्षेत्र को व्याप्त करके रहते हैं ॥६॥ समस्त ज्योतिषी देव चित्रा पृथ्वी के तल से (७९० योजन को ऊँचाई से प्रारम्भ कर ) ६०० योजन (७६०+११०-१००) की ऊंचाई तक स्थित हैं ।।१०॥ चित्रा पृथ्वी से ज्योतिबिम्बों की ऊँचाई को तालिका :-- क्रम | ज्योतिबिम्बों के नाम ! मीलों में ऊँचाई तारागण सय चन्द्र नक्षत्र पृथ्वी से योजनों में ऊँचाई चित्रा पृथ्वी से ७६० योजन ऊपर ७६०+१०-८०० ॥ ॥ ८००+१०८८८० ८८०+४ =८८४ " " ८८४+४ 2015 ८८८+३ =५६१ ८६१+३=५९४ ८९४+३=५७ ८६७+ ३०९.. बुध शुक्र ३१६०००० मील ऊपर ३२००००० , , ३५२०००० , , ३५३६००० , ३५५२००० ३५६४००० ३५७६००० , ३५८५००० , . .३६०००००, Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशोऽधिकार। [४७५ प्रब ज्योतिविमानों का स्वरूप कहते हैं :-- उत्तानगोलकार्धन समानाकृतयः शुभाः। वृत्ताकाराविमानाः स्युः श्वेतरत्नमयोजताः ॥११॥ मध्येऽभीषो पुराणि स्युर्भूषितानि जिनालयः । देवीदेवभूतानि श्रीसौधानोकाशितानि च ॥१२॥ अर्श:-ऊध्र्वमुख अर्ध गोल { गेंद ) के प्राकार सदृश शुभ प्राकृति वाले सर्व ज्योतिविमान गोलाकार, श्वेतरत्नमय और उन्नत हैं ॥ ११॥ इन विमानों के मध्य में जिनालयों से विभूषित, देव देवियों से भरी हुई और लक्ष्मी युक्त प्रासादों से अलकृत रमणीक नगरिया है ।।१२॥ सूर्य, चन्द्र विमानों की प्राकृतियों का चित्रण : चन्द्र निमान LAMजर अब सूर्य चन्द्र प्रादि ज्योतिर्विमानों के व्यास का प्रमाण कहते हैं :-- कृतकषष्टिभागानां योजमस्य विमानकम् । निशाकरस्य षट् पञ्चाशद्भागविस्तरं भवेत् ॥१३॥ प्रयः क्रोशापचतुश्चत्वारिंशवनशतानि च । प्रयोदशेव चापानामिति किञ्चित्तथाधिकम् ॥१४॥ व्यासं चन्द्रविमानस्य प्रोक्त जैनागमे जिनः । कृतकषष्टिभागानां योजनस्य विमानकम् ॥१५॥ स्यात्सूर्यस्याष्ट चत्वारिंशद्भागविस्तरान्वितम् । विमानं शुक्रदेवस्य क्रोशकविस्तृतं भवेत् ॥१६॥ बहस्पतिविमानं स्यात् पादोनक्रोशविस्तरम् । मङ्गलस्प बुषस्यैव शनैश्चरस्य कोविदः ।।१७॥ प्रत्येकं सविमानस्य मताधकोशविस्तृतिः । तारकाणां विमानाश्च केचित्सर्वजपत्यकाः ॥१८॥ Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૬ ] सिद्धान्तसाथ दीपक क्रोकस्य चतुर्भागविस्तरा मध्यमा क्रमात् । क्रोशार्थं विस्तृताः केचित् पादोनक्रोशविस्तराः ॥१६॥ केचिच्च सकलोत्कृष्टाः क्रोशव्यास विमानकाः । इति ताराविमानानां त्रिधाविष्कम्भ उच्यते ॥ २० ॥ नक्षत्राणां विमानाः स्युः सर्वे क्रोशंकविस्तृताः । सर्व ज्योतिविमानानां व्यासार्थं स्थूलता भवेत् ॥२१॥ अर्थः- चन्द्र विमान का विस्तार एक योजन के ६१ भागों में से ५६ भाग प्रमाण अर्थात् ३३ योजन प्रमाण है || १३|| जिनागम में जिनेन्द्र भगवान् द्वारा चन्द्र विमान का व्यास तीन कोस और १३४४ धनुष से कुछ ( दे धनुष ) अधिक कहा गया है। सूर्य के विमान का विस्तार एक योजन के ६१ भागों में से ४८ भाग अर्थात् ई योजन प्रमाण और शुक्रदेव के विमान का विस्तार एक कोस प्रमाण है ।। १४- १६ ॥ वृहस्पति देव के विमान का विस्तार पनि कांश तथा मङ्गल, बुध और शनि देवों के विमानों का विस्तार विद्वानों के द्वारा अर्थ अघं कोस प्रमाण कहा गया है। तारागरणों के कुछ विमान जघन्य हैं, जिनका विस्तार एक कोश का चतुर्थ भाग अर्थात् कोश है, मध्यम विमानों में किन्हीं का प्रमाण (३) कोश और किन्हीं का फोन कोश ( ३ ) है । उत्कृष्ट विमानों का प्रमारा एक कोश है, इस प्रकार तारागणों के विमानों का विष्कम्भ तीन प्रकार का कहा गया है । सर्व नक्षत्रों के विमानों का व्यास एक एक कोश है। सर्व ज्योतिविमानों की मोटाई अपने अपने विस्तार के अर्धभाग प्रमारग है ।। १७ - २१ । श्रमीषां विस्तरेण व्याख्यानं प्रोच्यते - चन्द्रविमानस्य स्थौल्यं योजनस्यैक पष्टिभागानां श्रष्टाविंशतिभागप्रमाणं स्यात् । सूर्य विमानस्थ योजनं कषष्टिभागानां चतुर्विंशतिभागप्रमबाहुल्यं भवेत् । शुक्रविमानस्य क्रोशाधं स्थूलतास्ति । वृहस्पतिविमानस्य क्रोशाष्टभागानां त्रिभाग सम्मितं बाहुल्यं स्यात् । मङ्गलबुधशनैश्चरविमानानां प्रत्येकं क्रोशचतुर्थांशस्थूलता भवेत् । तारकविमानानां जघन्यं स्थीत्यं क्रोशस्याष्टमो भागः स्यात् । मध्यमं च क्रोशचतुर्थांशः क्रोशाष्टभागानां विभागप्रमं स्यात् । उत्कृष्ट क्रोशार्धं च । नक्षत्रविमानानां स्थौल्यं क्रोशा भवति । अब ज्योतिविमानों के बाहुल्य (मोटाई) का व्याख्यान विस्तार से करते हैं चन्द्र विमान की मोटाई योजन, सूर्य विमान की योजन, शुक्र विमान की है कोश, गुरु के विमान की कोश तथा मंगल, बुध और शनि के विमानों की मोटाई पृथक पृथक् पाव ( 3 ) कोश प्रमाण है । तारांगणों के अन्य विमानों की मोटाई है कोश, मध्यम विमानों में से किन्हीं '-- Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशोऽधिकारा [४७७ की मोटाई ३ कोश और किन्हीं की है कोश, उत्कृष्ट विमानों की मोटाई और नक्षत्रों के विमानों की मोटाई अर्व-अर्ध कोश प्रमाण है ।। सर्व ज्योतिविमानों का एकत्रित व्यास एवं बाहल्य निम्न प्रकार है :-- क्रम| ज्योतिबिम्बों के| योजना व्यास (विस्तार)ीलों में | योजना बाहल्य (मोटाईमीलों में १ चन्द्र विमान भयोजन ३६७२र्श मील योजन १८३६ मोल २ सूर्य विमान ई योजन ३१४७३३ मील योजन .. १५७३ मौल ३ शुक्र विमान १ कोश १००० मोल कोश ५०० मील ४ गुरु विमानकोश ७५० मील कोश ३७५ मोल ५ बुध विमान ३ कोश ५०० मील कोश २५० मोल ६ मंगल विमान काश ५०० मील कोश २५० मील ७ शनि विमानकोश . .. . ५०० मील कोश - २५० मौल ८ तारागणों का अध. १ कोश' । २५० मील कोश १२५ भोल . . , मध्यम , कोश व र कोश ५०० व ७५० मी० ३ व ६ कोश २५० व ३७५ मी. , ., उत्कृष्ट १ कोश १००० मोल कोश ५०. मोल ११ नक्षत्र विमान - १ कोश १००० मील १२ राहु विमान १३ केतु विमान अब सूर्घ चन्द्र आदि ग्रहों की किरणों का प्रमाण एवं उनका स्वरूप कहते हैं : सूर्यस्य सूर्यकान्ताश्मविमानस्य महान्ति च । । द्वादशैव सहस्राणि सन्त्यष्णकिरणान्यपि ॥२२॥ चन्द्रस्य चन्द्रकान्ताश्मविमानस्य भवन्त्यपि । द्विषटसहस्रसंख्यानि सच्छीतकिरणानि च ॥२३॥ Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ ] सिद्धान्तसार दीपक स्युः शुक्रस्य विभागस्य पञ्चविंशशतांशयः । अन्ये ज्योतिष्कदेवानां विमाना मन्वरोचिषः ॥ २४ ॥ अर्थ:-सूर्य का विमान सूर्य कान्त मरिण से निर्मित है। सूर्य को १२००० किरणें हैं जो उष्ण हैं ॥ २२ ॥ चन्द्रमा का विमान चन्द्रकान्त पत्थर ( मरिण ) से निर्मित है। इसकी भी किरणें १२००० ही हैं किन्तु वे शीतल हैं ॥ २३ ॥ शुक्र के विमान की २५०० किरण हैं । ( जो प्रकाश से उज्ज्वल हैं ) शेष अन्य ज्योतिष्क देवों के विमानों की किरणें मन्द प्रकाशवाली हैं ||२४|| अब सारागणों का लिग अन्सर चन्द्र-सूर्य के ग्रहण का कारण एवं चन्द्रकलाओं मैं हानि वृद्धि का कारण कहते हैं :-- तारकारण जघन्यं स्यात्तिर्यगन्तरमेव च । १६ क्रोशस्य सप्तमो भागः पञ्चाशद्योजन प्रमम् ॥२५॥ मध्यमं सकलोत्कृष्टं सहस्रयोजनप्रमम् । निशाकर विमानस्य विनको अन्तरं प्रविधायाषो भागे राहुविमानकम् । गच्छद्गतेश्च षण्मासैः पर्यान्ते चन्द्रमण्डलम् ॥२७॥ प्राच्छादयति चेत्येवं ख्यातं तद्ग्रहणं भुवि । तथा सूर्यविमानस्य किञ्चिद्धीनैकयोजनम् ॥ २८ ॥ कृत्वान्तरमधोभागे कृष्णं केतु विमानकम् । व्रजन्निः कान्त षण्मासैः पर्यान्ते भानुमण्डलम् ||२६|| आच्छादयति चातत्सूर्यग्रहणमुच्यते । राहुश्यामविमानस्य ध्वजोपरि विहाय से ||३० ॥ चतुरङ्गुष्ठविमानान्तरं स्याच्चन्द्र विमानकम् । अरिष्टस्य विमानस्य केतुपरि विमुच्य खे ॥३१॥ चतुरङ्गुष्ठमात्रान्तरं स्याद् भानुविमानकम् । चन्द्रमण्डल पूर्णस्य कृष्णपक्षे दिनं प्रति ॥ ३२ ॥ कृषोडशभागानामेकैकांशः प्रहीयते । प्रतिपद्दिनमारभ्याधःस्थ राहुगतेवंशात् ||३३|| तथा चन्द्रविमानस्य शुक्लपक्षे दिनं प्रति । घर्धते भागएकैकः पूर्णमास्यन्तमञ्जसा ||३४|| Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशोऽधिकारः [ ४४ . अर्थ:-एक तारा से दूसरी तारा का तिर्यग नपन्य मन्तर एक कोश · का सातवा भाग अर्थात कोश (१४२ मील) है। तिमंग मध्यम अन्तर ५० योजन (ो लाख मील ) मोर उत्कृष्ट अन्तर १०० योजन ( ४ लाख मील है। कुछ कम एक योजन व्यास वाला राहु का विमान चन्द्र विमान के अघोभाग में कुछ अन्तराल से गमन करता हुमा प्रत्येक छह मास बाद पर्व (पूणिमा) के अन्त में चन्द्र के विमान को प्राच्छादित कर लेता है। लोक में यही आच्छादन किया चन्द्र ग्रहण के नाम से प्रसिद्ध है। इसी प्रकार कुछ कम एक योजन व्यास वाला कृष्णवर्ण केतु का विमान सूर्य विमान के अधोमाग में कुछ अन्तराल से गमन करता हुँमा प्रत्येक छह मास बाद पर्व ( अमावस्या) के अन्त में सूर्य के विमान को आच्छादित कर लेता है, लोक में इसी को सूर्य ग्रहण कहते हैं । श्यामवर्ण राहु विमान को ध्वजा दण्ड से चार प्रमाणांगुल ऊपर आकाश में अन्द्र बिमाम अवस्थित है, इसी प्रकार श्यामवर्ण केतु विमान को ध्वजा दण्ड से चार प्रमारपांगुल ऊपर साकास में सूर्य विमान अवस्थित है। चन्द्र विमान के नीचे स्थित अंजन वर्ण राह के गमन विशेष के वश से कृष्णपक्ष में प्रतिपदा से प्रारम्भ कर अमावस्या पर्यन्त चन्द्र की सोलह कलाओं में से एक एक अंश प्रतिदिन घटता जाता है । अर्थात् कृष्ण रूप होता जाता है। उसी प्रकार शुक्ल पक्ष में प्रतिपदा से प्रारम्भ कर पूर्णिमा पर्यन्त एक एक मंश प्रतिदिन वृद्धिंगत होता जाता है । अर्थात् शुक्लरूप होता जाता है ।।२५-३४॥ प्रब अन्य प्रकार से चन्द्र कलाओं को हानि वृद्धि का कथन करते हैं: शुक्लपक्षे सदा राहुः स्वयं मन्दगतिर्भवेत् । चन्द्रस्यैव निसर्गेण शीघ्रा गतिश्च सत्यपि ॥३५॥ कृष्णपक्षे सदा राहोर्मता शीघ्र गतिर्बुधः । स्वभावेन च चन्द्रस्य मन्दागतिदिनं प्रति ॥३६॥ एवं गतिवशाच्चन्द्र कलानां प्रत्यहं भवेत् । षोडशानां कलंकका हानिधिद्विपक्षयोः ॥३७॥ अर्थ:-शुक्लपक्ष में राहु को गति हमेशा स्वभाव से ही मन्द होती जाती है और स्वभावतः हो चन्द्र की गति तेज होती जाती है। इसी प्रकार कृष्णपक्ष में प्रतिदिन राहु को स्वभावतः शोन गति हो जाती है और चन्द्र की मन्दगति होती जाती है, ऐसा विद्वज्जनों के द्वारा कहा गया है ॥३५३६॥ इस प्रकार गति विशेष के वश से दोनों पक्षों में प्रतिदिन चन्द्र की सोलह कलानों में हानि-वृद्धि होती है ॥३७।। प्रब चन्द्राविक ज्योतिषी देवों के विमान वाहक देवों के प्राकार और संकमा का विवेवन करते हैं : Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ ४८० ] सिद्धांतसार दीपक सिंहरूपपरा देवाः चतुःसहस्रसम्मिताः । लगित्वा पूर्व दिग्भागे नयन्तीन्दुविमानकम् ॥३८॥ गजवेषषरास्तुङ्गास्तावन्तो चाहनामराः। तद्दक्षिणदिशि स्थित्वा व्योम्नि तच्चालयन्ति च ॥३६॥ सुरा वृषमरूपेण चतुःसहनमानकाः । पश्चिमाशां सवाश्रित्य नयन्ति चन्द्रमण्डलम् ॥४०॥ दिव्याश्वनिक्रिया पन्नाश्चतुः सहसमिर्जराः । लगिस्वोत्तरदिग्मागे सविमाना व्रजन्ति खे ॥४१॥ एवं सूर्यविमानेऽपि सिंहादिवेषधारिणः । सन्ति वाहनगीर्वाणा: सहस्रषोडशप्रमाः ॥४२॥ तथाशेषग्रहाणां स्युर्विमानवाहकाः सुराः।। प्रत्येक व चतुविक्षु लग्ना द्विद्विसहलकाः ॥४३॥ पिण्डीकृता इमे सर्वे ज्ञेया वाहननिर्जराः । एफैकस्य ग्रहस्यापि पृथक् चाष्टसहस्रकाः ।।४४॥ सहस्रसम्मिताः सिंहास्तावन्तो गजसत्तमाः । सहस्रवृषभास्तावन्तोऽश्वाश्चवाहनामराः ॥४॥ एते पिण्डोकृताः सर्वे चतुःसहस्रमानकः । नक्षत्राणां विमानेषु चतुर्विक्षु पृथक् पृथक् ॥४६॥ तारकाणां विमानेषु सिंहाः पञ्चशतप्रमाः। तावन्तो दन्तिनः पञ्चशतानि वृषभामराः ॥४७॥ तावन्तोऽश्वा इमे सर्वेऽल्पपुण्या वाहनामराः । सिंहादिविक्रियापन्ना ज्ञेया विमानवाहकाः ॥४८॥ अर्थ:-पूर्व दिशा में सिंह के आकार को धारण करने वाले ४००. देव चन्द्र विमान में लग कर उसे चसाते हैं ॥३८॥ उन्नत गज श्राकार को धारण करने वाले वाहन जाति के ४००० देव दक्षिण दिशा में स्थित होकर चन्द्र विमान को आकाश में चलाते हैं ।। ३६ ॥ पश्चिम दिशा में वृषभ प्राकार को धारण करने वाले ४०.० देव चन्द्र विमान में जुत कर उसे चलाते हैं, तथा उत्तर दिशा में विक्रिया युक्त ४००० देव दिव्य अश्व के रूप को धारण और उसमें जुत कर विमान को चलाते हैं। Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशीऽधिकारः [ ४८१ ||४० - ४१॥ इसी प्रकार सिंह, हाथी, वृषभ और अश्व रूप को धारण करने वाले १६००० वाहन जाति के देव सूर्य विमान में भी होते हैं || ४२ ॥ इसी प्रकार अवशेष शुक्र, गुरु, बुध, शनि और मंगल के विमानों में प्रत्येक विमानों की चारों दिशाओं में दो-दो हजार वाहन जाति के देव जुतते हैं ||४३|| इन सबका योग करने पर प्रत्येक ग्रह के पृथक् पृथक् वाहन जाति के देव साठ-पाठ हजार हैं ।। ४४ ।। वाहन जाति १००० सिंह रूप धारी देव, १००० गज रूप धारी, १००० बृषभ रूप धारी और १००० अश्व रूप धारी देव प्रत्येक नक्षत्र विमानों की चारों दिशाओं में पृथक् पृथक् होते हैं, और इनका योग करने पर एक एक नक्षत्र विमान के सर्व देव चार चार हजार होते हैं ।। ४५-४६ ।। तारागणों के प्रत्येक विमानों की चारों दिशाओं में क्रमशः ५०० सिंह, ५०० हाथी, ५०० बैल और ५०० घोड़े होते हैं, इन प्रत्येक विमानों के देवों का एकत्रित प्रमाण दो-दो हजार होता है। सिंहादिक की विक्रिया युक्त, विमान वाक इन वाहन जाति के देवों को अल्प पुण्याधिकारी जानना चाहिए ॥४७-४८ ॥ अब मनुष्य लोक में स्थित चन्द्र-सूर्यो की संख्या का निरूपण करते हैं :— जम्बूद्वीपे पृथक् स्थातां द्वौ चन्द्रो द्वौ दिवाकरौ । लवणोदे च चतुश्चन्द्राश्चत्वारो भानवो मताः ॥ ४६ ॥ पातकीखण्डे चन्द्राद्वादशसंख्यकाः । तावन्तो भानवः कालोदधौ चन्द्रमसः स्मृताः ॥ ५० ॥ द्विचत्वारिशदावित्यास्तावन्तः पुष्करार्धके । द्विसप्ततिप्रमाइचन्द्रास्तावन्तः स्युदिवाकराः ॥ ५१ ॥ इमे पिण्डीकृताः सर्वे द्वात्रिंशदधिकं शतम् । चन्द्राः सूर्याश्व तावन्तो नृक्षेत्रे सकले मताः ||५२ ॥ अर्थ :- जम्बुद्वीप में पृथक् पृथक् दो चन्द्र और दो सूर्य है । लवणोदधि में चार चन्द्र एवं चार सूर्य हैं ॥४६॥ धातकी खण्ड में १२ चन्द्र तथा १२ ही सूर्य हैं । कालोदधि में ४२ चन्द्र धौर ४२ ही सूर्य हैं हैं, इसी प्रकार पुष्करार्धवर द्वीप में ७२ चन्द्र एवं ७२ सूर्य पर सम्पूर्ण मनुष्य क्षेत्र में ( २+४+ १२ + ४२ + ७२ = ।।५२) ।। जैसे: ।।५०-५१ ।। इन सबका एकत्रित योग करने १३२ सूर्य और १३२ हो चन्द्रमा हैं । ( चित्रण अगले पृष्ठ पर देखें | ) Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२ ] विदेह पश्चिम सिद्धान्तसार दीपक विधिसागर जी पूर्व विदेह ( चित्रण में जिस प्रकार जम्बूद्वीप लवरण समुद्र और धातकी खण्ड के चन्द्र सूर्य दर्शाये गये हैं उसी प्रकार कालोदक एवं पुष्करार्ध क्षेत्र में भी जानना चाहिए । अब एक चन्द्र के परिवार का निरूपण करते हैं : चन्द्र ेन्द्रस्य भवेत्सूर्यः प्रतीन्द्रो मिलिता ग्रहाः । श्रष्टाशीतिश्च नक्षत्राण्यष्टाविंशतिरेव व ॥ ५३ ॥ षट्षष्टिश्च सहस्राणि तथा नवशतान्यपि । पञ्चसप्ततिसंख्यानाः कोटीकोटयो हि तारकाः ।। ५४ ।। अर्थः- चन्द्रमा इन्द्र है | इसके परिवार में सूर्य प्रतीन्द्र ( एक ), ग्रह ८८ श्रभिजित् सहित अश्विनी आदि नक्षत्र २८ एवं छयासठ हजार नौ सौ पिचहत्तर कोड़ाकोड़ी अर्थात् ६६९७५०००००००००००००० सारागरण हैं ।।५३-५४।। די मद जम्बूद्वीपस्थ भरतादि क्षेत्रों और कुलाचलों को ताराधों का विभाजन दर्शाते हैं : Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशोऽधिकार तेभ्यो हिमवाद्यद्रिवर्षेषु द्विगुणोत्तराः । भवन्ति तारका यावद्विदेहक्षेत्र मुसमम् ||५६ ॥ विदेहक्षेत्रतोऽर्धातास । ऐरावतान्तमेवाद्रि नीलाख्य रम्यकादिषु ||५७।। [ ४८३ ( जम्बूद्वीपस्थ भरतक्षेत्र से विदेह क्षेत्र पर्यन्त की शलाकाएँ क्रमशः दुगुनी दुगुनी होती गई हैं। और विदेह से आगे क्रमशः दुगुरण हीन होती गई है, तथा इन सर्व शलाकाओं का कुल योग ( १+२+ ४+८+१६+३२+ ६४ + ३२+१६+८+४+२+१ } = १६० है, इसलिए श्लोक मैं १६० का भाग देने को कहा गया है | ) अर्थः- छ्यासठ हजार नौ सौ पिचहत्तर कोड़ाकोड़ी तारागणों के प्रमाण को १६० से भाग देने पर जो एक भाग प्राप्त हो उतनी ताराएँ भरतक्षेत्र के ऊपर हैं, उनसे हिमवन् श्रादि कुलाचलों एवं विदेह पर्यंत के क्षेत्रों पर तारागणों का प्रमाण क्रमशः दुगुना दुगुना होता गया है, तथा विदेह क्षेत्र से, ऐरावत है अन्त में जिसके ऐसे रम्यक यादि क्षेत्रों पर और नील आदि कुलाचलों के ऊपर इन तारागणों का प्रमाण क्रमशः अर्ध अर्ध हीन होता गया है ।। ५५-५७ ।। तारकाणां विवरणं क्रियते : भरतक्षेत्रस्मोपरि ताराः सप्तशत पञ्चोत्तर कोटी कोट्यः भवन्ति । हिमवतः उपरिदशाधिक चतु दशशतकोटी कोट्यश्च हैमवतवर्षस्योपरि ताराः विशत्यग्राष्टाविंशतिकोटीकोटयः । महाहिमवतः उपरि पञ्चसहस्रषट्शतचत्वारिंशत्कोटो कोटघरच | हरिवर्षस्योपरितारा एकादश सहस्र द्विशताशोति कोटीकोट्यः निषधस्योपरि तारा द्वाविंशतिसहस्र पंचशतष्टिकोटी कोटयः । विदेहक्षेत्रस्योपरि ताराः पञ्चचत्वारिंशत्सहस्रक शतविशति कोटीकोटयः भवेयुः । नीलस्योपरि तारा द्वाविंशतिसहस्रपञ्चशतषष्टिकोटी कोटयः । रम्यकस्योपरि तारा एकादश सहस्रद्विशताशी तिकोटी कोट्यः सन्ति । रुक्मिरणः उपरिताराः पञ्चसहस्रषट्शतश्चत्वारिंशत्कोटी कोटयः सन्ति । हैरण्यवतस्योपरि द्विसहस्राष्टशतविंशति कोटीकोटयश्च । शिखरिणः उपरि एकसहस्र चतुःशतदशोत्तरकोटी कोटयश्च । ऐरावतस्योपरि ताराः पञ्चोतरसतशत कोटी कोट्यः सन्ति । एवं पिण्डीकृताः जम्बूद्वीपे सर्वे तारकाः एकलक्षत्रयस्त्रिशत्सहस्रनवशतपञ्चाशत्कोटो कोट्यो भवन्ति । ( उपर्युक्त गद्य का अर्थ तालिका में अगले पृष्ठ पर दिया गया है ।) Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ ] क्रम क्षेत्र और पर्वतों के नाम भरतक्षेत्र के ऊपर हिमवत् पर्वत के ऊपर १४१० ३ हैमवत क्षेत्र के ऊपर २८२० ४ महाहिमवन् पर्वत के ऊपर ५६४० हरिक्षेत्र के ऊपर ११२८० निषेध पर्वत के ऊपर २२५६० विदेह क्षेत्र के ऊपर १ २ ५ ६ ७ सिमान्तसार दीपक गद्य का सम्पूर्ण श्रथं निम्नांकित तालिका में निहित है :-- | तारागणों का प्रमारण ७०५ कोड़ाकोड़ी ८ होते हैं : 57 17 " 31 at נו " ४५१२०, " 13 12 क्रभ £ १० ११ १२ १३ क्षेत्र और पर्वतों के नाम नील पर्वत के ऊपर २२५६० कोड़ाकोड़ी योग - ८६५३५ = कुल योग :- जम्बूद्वीप में कुल तारागर ८१५३५ - ४४४१५ - १३३९५० हैं । तारागणों का प्रमाण रम्यक क्षेत्र के ऊपर ११२८० रुक्मि पर्वत के ऊपर हैरण्यवत क्षेत्र के ऊपर शिखरी पर्वत के ऊपर ऐरावत क्षेत्र के ऊपर ५६४० २६२० १४१० ७०५ योग - ४४४१५ " " 21 20 ין 1P 12 "1 23 12 दाईद्वीपस्थ प्रत्येक द्वीप के ज्योतिविमानों की पृथक् पृथक् संख्या दर्शाते हैं :सार्थद्वीपद्वयोश्चाध्योद्वयोज्योतिष्कनिगः । प्रागुक्तमवधा प्रवर्धन्ते निखिला प्रपि । अर्थः- श्रढ़ाई द्वीप और दो समुद्रों में समस्त ज्योतिष्क देव पूर्वोक्त क्रम वृद्धि से ही वृद्धिङ्गत प्रमीषां विस्तरः निगद्यते :-- जम्बूद्वीपे द्वौ चन्द्रो हो सूर्यो, ग्रहा षट्सप्तत्यग्रशतं । नक्षत्राणि षट्पञ्चाशत्, ताराः एकलक्षश्रयस्त्रिशत्सहस्र नवशतपञ्चाशत्कोटीकोटचः । लवणसमुद्रे चन्द्राश्चत्वारः । सूर्याश्चत्वारः ग्रहाः द्विपञ्चाशदग्रविशतानि । नक्षत्राणि द्वादशाधिकशतं । ताराः द्विलक्षसप्तषष्टिसह नवशतकोटी कोटयः । धातकीखण्डद्वीपे द्वादश निशाकराः । द्वादशादित्याः । दशशतषट्पञ्चाश ग्रहाः । त्रिशतषङ्घ्रिशन्नक्षश्राणि । अष्टलक्षत्रिसहस्र सप्तशतकोटीकोटघः तारकाः स्युः । कालोदधौ चन्द्रमसः द्विचत्वारिशद्दिवाकरा द्विचत्वारिंशत् । ग्रहाः त्रिसहस्रषट्शत षण्णवतिश्च । नक्षत्राणि एकादशशत षट्सप्ततिसंख्यानि । तारा Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशोऽधिकार [ ४८५ अष्टाविंशतिलक्षद्वादशसहस्र नवशतपञ्चाशत्कोटीकोटथः । पुष्कराद्वीपे चन्द्राः द्वासप्ततिः । भानवः द्वासप्ततिः 1 ग्रहाः षट्सहस्र त्रिशतषत्रिंशत् । नक्षत्राणि षोडशाग्रविशतिशतानि । ताराः श्रष्टचत्वारिंशल्लक्ष. द्वाविंशतिसहस्र द्विशतकोटी कोटधः सन्ति । अढ़ाई द्वीप और दो समुद्रों के ऊपर निवास करने वाले समस्त ज्योतिष्क देवों का प्रमाण भिन्न भिन्न दर्शाते हैं नोट:- उपर्युक्त गद्य का अर्थ निम्नांकित तालिका में अवधारित किया गया है । द्वीप एवं समुद्रों के नाम क्रम १ २ ३ ४ ५ जम्बूद्वीप - लवण समुद्र धातकीखण्डद्वीप कालोबधि समुद्र पुष्करार्थं द्वीप योग चन्द्र सूर्य २ २ ४ १२ ४ ४२ १२ १०५६ ३६६६ ७२ ७२ ६३३६ ग्रह १७६ ४२ ३५२ १३२ १३२ ११६१६ नक्षत्र ५६ ११२ ३३६ ११७६ २०१६ ३६६६ तारागण १३३९५० कोड़ाकोड़ी २६७६०० ६०३७०० २८१२६५० ४८२२२०० " " 25 विधोः शेषपरिवारसुराः सामान्यकादयः । अष्टभेदा हि पूर्वोक्ताः प्रतीन्द्रप्रमुखाः सदा ॥५६॥ त्रास्त्रिसुरैर्लोकपालविना भवन्ति च । सार्धद्वीप पङ्क्त्या ज्योतिर्देवा भ्रमन्त्यमी ॥६०॥ मानुषोत्तरतो बाह्यं तिष्ठन्ति ज्योतिषां गणाः । ये संख्यवजितास्तेषामचलत्वं भवेत्सदा ॥ ६१॥ #7 " 11 " ८८४०७०० कोड़ाकोड़ो श्रव चन्द्रमा के अवशेष परिवार देवों के नाम, तृलोक में ज्योतिर्देवों का गमन क्रम और मानुषोत्तर के आगे ज्योतिदेवों को प्रवस्थिति कहते हैं अर्थ:-- पूर्वोक्त दश भेदों में से त्रास्त्रिश और लोकपाल देवों के विना, प्रतीन्द्र है प्रमुख जिनमें ऐसे सामानिक आदि भाठ भेद वाले देव चन्द्र के अवशेष परिवार में होते हैं । अर्थात् ज्योतिष्क देवों Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ सिद्धान्तसार दीपक का इन्द्र चन्द्रमा है, इसके परिवार में प्रतीन्द्र, सामानिक, तनुरक्षक, पारिषद, मनीक, प्रकीर्णक प्राभिबोल और मिम्पिषिक प्यास के देव होते हैं। अढाई द्वीप में ज्योतिर्देवों का गमन पंक्ति पूर्वक होता है 11५६-६०॥ मानुषोत्तर पर्वत के आगे असंख्यात ज्योतिष्क देवों के समूह हैं, जो निरन्तर अचल ही रहने हैं, अर्थात् कभी गमन नहीं करते ॥६१।। पब मनुष्यलोक को ध्रुव ताराओं का प्रमाण कहते हैं : जम्बूद्वीपे च षटत्रिशत्प्रमारणास्तारका ध्रधाः। लवणाधौ तथैको न चत्वारिंशद्युतं शतम् ॥६२॥ तारकाः धातकीखण्डे सहस्र दशसंयुतम् । कालोदेचेक चत्वारिंशत्सहस्त्रास्तथा शतम् ॥६३॥ विंशत्यध्रवाः सन्ति तारकाः पुष्करार्धके ।। त्रिपञ्चाशत् सहस्राणि त्रिंशदन शतद्वयम् ॥६४॥ ध्र वाः स्युस्तारका एषां चलनं जातु नास्त्यपि । तिर्यग्लोके समस्ताश्च ध्र वाज्योतिष्कनिर्जराः ॥६५॥ अर्थ:-जम्बूद्वीप में ३६ ध्रुव ताराएँ हैं । लवण समुद्र में १३६ धातकी खण्ड में १.१०, कालोदधि के ऊपर ४११२० और पुष्कराध के ऊपर ५३२३० ध्रुवताराएँ हैं ।।६२-६४।। इसप्रकार अढाई द्वीप में ( ३६ + १३६ + १०१० + ४११२० + ५३२३०= ) ९५५३५ ध्रुवताराएँ हैं, ये कभी भी चलायमान नहीं होती। अर्थात् गमन नहीं करतीं । तिर्यग्लोक में अर्थात् अढ़ाई द्वीप से बाहर के सभी ज्योतिर्देव ध्रुव हैं । अर्थात् कभी गमन नहीं करते ।।६५।। अब मेरु से ज्योतिष्क देवों की दूरी का प्रमाण, उनके गमन का क्रम और एक सूर्य से दूसरे सूर्य का एवं सूर्य से बेदी के अन्तर का प्रमाण कहते हैं :-- एकः विशाधिककादश शर्योजनश्च खे । तिर्यग्मेरु विहार्यते परिभ्रमन्ति सर्वतः ।।६६।। सर्वज्योतिष्कवृन्दार्धाः स्वस्वद्वोपाम्बुधि श्रिताः । ज्योतिष्का मर्त्यलोकस्यैकस्मिन् भागे चलन्ति च ॥६७।। अन्ये ज्योतिर्गणार्धा ज्योतिष्कामराभ्रमन्त्यपि । खे स्वस्वसद्विमानस्था भागेऽन्यस्मिनिरन्तरम् ॥१८॥ Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशोऽधिकारा [ ४७ लवणाद्याः स्वविष्कम्भाः सूर्याधमण्डलोनिताः । स्वसूर्याधन संमक्तास्तदन्तरं द्विसर्ययोः ॥६६॥ सूर्यान्तरं यदेवात्र तस्यार्धमन्सरं हि तव । विकासन्नमार्गस्य दिवाकरस्य जायते ॥७०॥ अर्थ:-सर्व ज्योतिगंण सुदर्शन मेरु को तिर्यग् रूप से ११२१ योजन (४४८४००० मील) छोड़ कर प्रदक्षिणा रूप से मेरु के चारों कोर आकाश में परिभ्रमण करते हैं ॥६६॥ मनुष्यक्षेत्रस्थ द्वीप समुद्रों में से अपने अपने द्वीपःसमुद्रों के ऊपर ज्योतिष्क देवों के जो देव समूह अवस्थित है, उनका प्रधं । अर्ध भाग अपने अपने द्वीप समुद्र के एक भाग में और अन्य दूसरा अर्ध भाग दूसरे एक भाग में संचार (गमन) करता है ।।६७-६८॥ लवण समुद्र एवं धातकी खण्ड आदि स्थानों में जितने जितने सूर्य हैं, उनके अर्ध अर्ध सूर्य बिम्बों के विष्कम्भ को लवण समुद्रादि के स्व स्व विष्कम्भों में से घटाकर अवशेष में स्वकीय सूर्यों के अर्धभाग का भाग देने पर एक सूर्य से दूसरे सूर्य का अन्तर प्राप्त होता है, तथा वेदी से निकटवर्ती सूर्य का अलर उपयुक्त अन्तर का अर्घ प्रमाण होता है । अर्थात् लवण समुद्र में चार सूर्य हैं, इनके अधं ( २ ) सूों के विष्कम्भ का प्रमाण (४२= ) योजन हुआ, इसे लवण समुद्र के २००००० योजन में से घटाने पर ( २००१००-11)-१२१११५०४ योजन अवशेष बचता है । इसमें लवण समुद्र के सूर्यो (४) के अर्ध भाग (२) का भाग लेने पर (१११९०४) EEEEEN योजन लब्ध प्राप्त होता है । यही एक सूर्य से दूसरे सूर्य के अन्तर का प्रमाण है, और वेदी से निकटवर्ती सूर्य का अन्तर उपर्युक्त अन्तर का अर्थ ( ४६६६६३ योजन) प्रमाण है । अर्थात् लवण समुद्र की अभ्यंतर वेदी से प्रथम सूर्य ४६REET योजन ( १९६९९८४२६१ मील ) दूर रहता है। इस सूर्य से दूसरा सूर्य ECREEN यो० { ३९६६६६८५२३६ मील ) दूर है, और इस सूर्य से लवण समुद्र की बाह्य वेदी ४६६६E* यो दूर है ।।६९-७०॥ अस्य व्यक्तं व्याख्यानं क्रियते :-- ___ लवणाधी सूर्ययोरन्तरं नवनवतिसहन नक्शत नवनवतियोजनानि योजनस्यक षष्टिभागानां प्रयोदशभागाः । धातकोखण्डे सूर्ययो रन्तरं षष्टिसहस्रषट्शतपञ्चषष्टि योजनानि योजनस्य श्यशीत्यप्रशतभागानां एकषष्ट्यधिकशतभागाः ॥ कालोदधौ सूर्ययोरन्तरं अष्टत्रिशत्सहस्र चतुर्णवति योजनानि, योजनस्य काशीति युत वादशशतभागानां प्रष्टसप्तत्यप्रपञ्चशतभागाः । पुष्कराचे सूर्ययोरन्तरं द्वाविंशतिसहस्रद्विशतकविंशतियोजनानि । योजनस्य षणवत्यक विशतिशत भागानां षट्पञ्चाशदधिकनदशतभागाः। प्रष इन अन्तरालों का स्पष्ट व्याख्यान करते हैं : Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ सिद्धान्तसार दीपक लवण समुद्र में एक सूर्य से दुसरे सूर्य के प्रन्सर का प्रमाण EEEEEN योजन है। घातकोखण्ड में एक सूर्य से दूसरे सूर्य का अन्तर ६६६६५१ योजन है । कालोदधि समुद्र में सूर्य से सूर्य का अन्तर ३८०६४,१०० योजन है, और पुष्कराध द्वीप में सूर्य से सूर्य का अन्तराल २२२२१ या ३॥ योजन प्रमाण है। अब मानुषोत्तर पर्वत के बाह्य भाग में सूर्य चन्द्र प्रादि ग्रहों के प्रवस्थान का निरधारण करते हैं :-- मानुषोत्तरतो बाह्य भागे लक्षार्धयोजनान् । मुक्त्वा ज्योतिष्कदेवानां प्रथमं वलयं भवेत् ॥७१।। बलयेऽस्मिश्चतुश्चत्वारिंशदाशत प्रमाः । स्युश्चन्द्रस्तिस्समाः सूर्याः सर्वे ग्रहादयः क्रमाव ।।७२।। ततो हि योजनानां च लक्षे लक्ष गते सति ।। ज्योतिषां पुष्कराधे च वलयं स्यात्पृथक् पृथक् ॥७३॥ किन्तु चन्द्राश्च चत्वारो वलये वलये क्रमात । वर्धन्ते भानदो यावद्वलयं सप्तमं भवेत् ॥७४॥ पिण्डीकृतानि सर्वाणि सन्त्यष्टौ वलयान्यपि । मानुषोत्तरशैलार्बाह्यस्थ पुष्करार्धके ॥७॥ ततो योजनलक्षाधं प्रविश्य पुष्कराम्बुधौ । तदेवीमूलतस्तेषां नवमं वलयं भवेत् ॥७६॥ बलयेऽस्मिन् भवन्त्यष्टाशीत्याद्विशतप्रमाः । चन्द्रास्तावन्त प्रादित्याः समभागे व्यवस्थिताः ॥७७॥ ततोऽत्र योजनानां च लक्ष लक्ष गते क्रमात । पूर्वक्षेत्रं समावेष्टचारत्येक वलयं पृथक् ॥७॥ प्रत्रापि पूर्ववच्चन्द्राश्रत्वारो भानवस्तथा । पर्धन्तेऽमीग्रहायश्च वलयं वलयं प्रति ।।७।। अनेन विधिना सन्स्यसंख्यद्वीपाधिषु स्फुटम् । प्रसंख्यवलयान्येव चन्द्राविज्योतिषां क्रमात् ।।८०॥ Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चत्तुदंशोऽधिकारः [ ४८६ योजनामा तयकलमान्तराम्वितान्यपि । मध्यलोकान्तपर्यन्तं घान्तिमाध्यन्तमञ्जसा ॥१॥ एषु द्वीप समस्येषु तारेवा भावनालया। वर्धन्तेऽन्योज्य चत्वारएफक बलयं प्रति ॥१२॥ अवस्था भास्कराः पुष्य नक्षत्रेषु प्रतिष्ठिताः। सर्वे चन्द्राश्च तिष्ठन्त्यमिजिस्सुसंख्य जिताः ॥३॥ स्वकीयस्य स्वकीयस्य स्वस्वेन्द्रभानुसंख्यकः । घलयस्य विभक्तस्य यदन्तरं परस्परम ॥४॥ तदेवान्तरमेव स्यामचन्द्रासचन्द्रमसः पृथक् । सूर्यास्सूर्यस्य चान्यस्मात्सर्षोषान्तरस्थितिः ॥५॥ अर्थ:-मानुषोत्तर पर्वत के बाह्य भाग में पर्वत से पचास हजार योजन प्रागे जाकर सूर्य-चन्द्र आदि ज्योतिष्क देवों का प्रथम वलय है ७१॥ इस प्रथम वलय में १४४ चन्द्र एवं १४४ सूर्य हैं, अन्य ग्रहों की अवस्थिति भी इसी क्रम से जानना चाहिए ॥७२॥ इस प्रथम वलय से एक एक लाख योजन कम से भागे जाते हुए पुष्कराई द्वीप में ज्योतिष्क देवों का पृथक् पृथक् एक एक वलय है, तथा प्रत्येक यलय में कम से चार चार चन्द्र और चार चार सूर्यों की अपने अपने परिवार देवों के साथ जब तक सातवा बलय प्राप्त नहीं होता, तब तक अभिवृद्धि होती रहती है। इस प्रकार मानुषोत्तर के बाह्य भाग से पुष्कराध पर्यन्त के सर्व वलयों का एकत्रित योग पाठ है ।।७३-७५। इसके प्रागे पुष्कराई द्वीप की अन्तिम वेदी से प्रारम्भ कर पुष्करवर समुद्र में पचास हजार योजन भीतर जाकर ६ वा वलय है ॥७६। इस ह वें वलय में २८८ चन्द्र और २८८ सूर्य समान भाग में अवस्थित हैं ॥७७॥ यहां से क्रमशः एक एक लाख योजन आगे प्रागे पुष्करार्ध द्वीप को समावेष्टित करते हुये पृथक् पृथक एक एक वलय है ।७८॥ यहाँ भी पूर्व के ही सदृश अपने अपने ग्रह प्रादि परिवार देवों के साथ प्रत्येक वलय में चार चार चन्द्र और पार चार सूर्यों की वृद्धि होती है ।। ७६ ।। इसी विधि से असंख्यातद्वीप समुद्रों में क्रमश: चन्द्र मादि ज्योतिष्क देवों के असंख्यात वलय हैं ।।०॥ वलय मध्यलोक के अन्त में अवस्थित स्वयम्भूरमरा समुद्र पर्यन्त हैं, तथा इन सभी में एक एक लाख योजन का अन्तर है ।।८।। इन असंख्यात द्वीप समुद्रों में प्रथस्थित प्रसंख्यात वलयों में से प्रत्येक वलय में अपने अपने परिवार सहित चार-चार चन्द्रों और चार-चार सूर्यों की अभिवृद्धि होतो है (किन्तु इस वृद्धि का सम्बन्ध अपने अपने द्वीप समुद्र पर्यन्त ही होता है, अन्य द्वीप समुद्रों से नहीं । अन्य द्वीप समुद्रों के प्रथम वलय में तो इनकी संख्या पूर्व द्वीप समुद्र के प्रथम वलय से नियमतः दुगुणी हो जाती है । जैसे:-बाह्य पुष्कराध द्वीप में कुल पाठ वलय हैं । प्रथम वलय में १४४ चन्द्र हैं, इसके आगे प्रत्येक वलय में चार चार की Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० ] सिद्धान्तसार दीपक वृद्धि होते हुए १४८, १५२. १५६, १६०, १६४, १६८ और ८ वें वलय में १७२ चन्द्रों की प्राप्ति हुई, किन्तु पुष्करवर सा में कवस्थिः ह क प ने ली संसारका है, जो पुष्कराध द्वीप स्थित प्रथम क्लय से दूनी है । इसी प्रकार सर्वत्र जानना ।) ॥२॥ इन असंख्यात वलय में अवस्थित असंख्यात सूर्य स्व स्व परिवार सम्बन्धी पुष्य नक्षत्रों पर अवस्थित हैं और असंख्यात चन्द्र अभिजित् नक्षत्रों पर अवस्थित हैं ।। ६३ ।। अपने अपने बलय ( को परिधि के प्रमाण ) को स्व स्व बलय स्थित सूर्य चन्द्रों की संख्या से भाजित करने पर जो अन्तर प्राप्त होता है वही अन्तर अपने बलय में एक चन्द्र से दूसरे चन्द्र का और एक सूर्य से दूसरे सूर्य का होता है [ यथामानुषोत्तर पर्वत का सूची व्यास (३+२+४++८=२२३४२-) ४५ लाख योजन है, इसमें बाह्य पुष्कराध के दोनों ओर का पचास-पचास हजार मिला देने से बाह्य पुष्कराध के प्रथम वलय के सूची व्यास का प्रमाण (४५ + १ )-४६ लाख योजन और इसकी सूक्ष्म परिधि का प्रमाण १४५४६४७७ योजन हुआ, इसमें प्रथम क्लय में अवस्थित :१४४ चन्द्रों का भाग देने पर एक चन्द्र से दूसरे चन्द्र का अन्तर प्रमाण (१४५४६४७७१४४ ) =१०१०१७११ योजम प्राप्त हा ! इसी प्रकार सर्वत्र ज्ञातव्य है ] अन्य सर्वत्र भी परस्पर का अन्तर निकालने की यही प्रक्रिया है अर्थात् अन्तर को अवस्थिति इसी प्रकार है ॥८४-८५।। - पत्र व्यासेन बलयेषु परिधिश्चन्द्रान्तरादीनां व्याख्यानं क्रियते : मानुषोत्तराद्रेः पुष्कराघस्य प्रथमे वलये परिधिः एका कोटी पञ्चमत्वारिंशल्लक्षषट्चत्वारिंशसहस्रचतुःशतसप्तसप्ततियोजनानि । चतुश्चत्वारियादधिकशतचन्द्राः तावन्त आदित्याः स्युः । द्वयोश्चन्द्रयोः सूर्ययोश्चान्तरं एकलौकसहस्रसप्तदशयोजनानि, योजनस्य चतुश्चत्वारिंशदनशतभागाना एकोन त्रिंशद्भागाश्च । द्वितीये बलये परिधिः एका कोटचं कपञ्चाशल्लक्षाष्टसप्ततिसहस्रनवशतद्वात्रिशद्योजनानि । प्रष्ट वत्वारिंश दधिकशतनिशाकराः। तावन्तो दिवाकराश्च । चन्द्रयोः सूर्ययोश्चान्तरं एकलक्षद्विसहस्रपञ्चशतषष्टि योजनानि योजनस्य सप्तत्रिंशद्भागानां योभागाः । तृतीये वलये परिधिः एकाकोट्यष्टपञ्चाशल्लकादशसहस्रविशताष्टाशोति योजनानि । द्विपञ्चाशदधिकशतेन्दवः स्युः । तावन्तो दिनकराश्च । चन्द्रयोः सूर्ययो योश्चान्तरं एकलक्षचतुःसहस्रद्वाविंशतियोजनानि । योजनस्याष्टादशभागानां एकादशभागाः। चतुर्थे वलये परिधिः एककोटोचतुःषष्टि लक्षत्रिचत्वारिंशत्सहस्राष्टशतत्रिचत्वारिंशयोजनानि । षट्पञ्चाशदग्नशतचन्द्रमसः। तत्प्रमा प्रादित्याश्चचन्द्रयोः सूर्ययोई योरन्तरं एकलक्षपञ्चसहस्र चतुःशतनवयोजनानि क्रोशैकश्च । अनया गणनयापरेष्वसंख्य बलयेषु चन्द्रयोः सूर्ययोरन्तरमानेतव्यं ॥ अब व्यास के द्वारा वलय में परिधि व चन्द्रमा का अन्तर प्रादि कहते हैं : Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशोऽधिकारः [ ४११ मानुषोत्तर पर्वत से आगे बाह्य पुष्करार्ध द्वीप के प्रथम वलय की परिधि का प्रमाण १४५४६४७७ योजन है । उस वलय में चन्द्रों की संख्या १४४ और सूर्यो की संख्या भी १४४ है । एक चन्द्र से दूसरे चन्द्र का और एक सूर्य से दूसरे सूर्य का अन्तर १०१०१७६४४ योजन है। दूसरे वलय की परिधि का प्रमाण १५१७८९३२ योजन है । चन्द्र संख्या १४८ और सूर्य संख्या १४८ है । एक चन्द्र से दूसरे चन्द्र का अन्तर १०२५६० योजन है। तीसरे वलय की परिधि का प्रमाण १५०११३८८ योजन है। चन्द्र १५२ और सूर्य १५२ हैं । एक चन्द्र से दूसरे चन्द्र का अन्तर १०४०२२ योजन और एक सूर्य से दूसरे सूर्य का अंतर १०४०२२ योजन है । चतुर्थं वलय की परिधि का प्रमाण १६४४३८४३ योजन है । इस वलय में चन्द्र संख्या १५६ और सूर्य संख्या १५६ है । एक चन्द्र से दूसरे चन्द्र का अन्तर १०५४०६ योजन एवं एक सूर्य से दूसरे सूर्य का अन्तर १०५४०६ योजन एक कोस प्रमाण है । इसी प्रकार की गणना से श्रागे के प्रसंख्यात वलयों में अवस्थित एक एक चन्द्र से दूसरे चन्द्रों के एवं एक एक सूर्यं से दूसरे सूर्यो के पत्र का प्रमाण निकान लेना चाहिए । प्रत्येक द्वीप समुद्रों में वलयों का प्रमाण पृथक् पृथक् कहते हैं : पुष्कर द्वीप शेषार्थेऽह सन्ति वलयानि च । पुष्कराब्धौ क्रमेरव द्वात्रिंशद् वलयान्यपि ॥ ६६ ॥ वलया वारुणोद्वीपे चतुःषष्टिप्रमाणकाः । वरुणान्ध तथाष्टाविंशत्यग्रशतसंख्यकाः ॥८७॥ इत्येवं द्वीपसर्वेषु चासंख्येऽधिषु क्रमात् । द्विगुणा द्विगुणा ज्ञेया वलयासंख्य वर्जिताः ||८|| अर्थःई:-- बाह्य पुष्करार्धद्वीप में ८ वलय हैं। पुष्करवर समुद्र में ३२, वारुणीवर द्वीप में ६४ श्रीर वारसीवर समुद्र में १२८ वलय हैं। इसी प्रकार असंख्यात द्वीप समुद्रों में श्रसंख्यात वलय हैं, जिनका प्रमाण क्रमश: दुगुणा दुगुरणा जानना चाहिए ॥ ६६-६६।। अब सूर्य चन्द्र के चार क्षेत्रों का प्रमाण, उनका विभाग एवं उनकी वोथियों का प्रमाण कहते हैं ——— प्रचारक्षेत्रमेवैकं सूर्यस्य योजनानि च । सूर्यस्य विम्बयुक्त दशाग्रपञ्चशतान्यपि ॥८६॥ प्रचारक्षेत्रमिन्दोरण चन्द्रविम्बयुतं सुधि । योजनानां जिनोक्त दशाग्रपञ्चशतप्रमम् ॥६०॥ Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२] सिद्धान्तसार दीपक तन्मध्ये योजनानां घाशीत्यग्रशतसम्मितम् । इन्वो नोस्तथा चारक्षेश द्वीपादिमे पृथक् ॥१॥ तथाधौ योजनानां स्यात्रिशदनशतत्रयम् । दिवाकरस्य चन्द्रस्य चारक्षेत्र किलादिमे ॥२॥ सूर्यचन्द्राविमो चाद्यद्वीपाध्यो भ्रमतोऽन्यहम् । नरक्षेशे भमन्त्यन्ये स्वस्वद्वीपाब्धिगोचराः ॥३॥ शतं चतुरशीत्यनमार्गाः सूर्यस्य सन्ति च । चारक्षेत्रोऽखिला इन्दोर्मार्गाः पञ्चदशप्रमाः ॥४॥ एषां मध्य ब्रजदेक मार्ग दिन दिन प्रति । दिननाथस्तथा चन्द्रः क्रमेणेषां सदागतिः ॥६५॥ अर्थ:--( सूर्य-चन्द्र के गमन करने की क्षेत्र गली को चार क्षेत्र कहते हैं। दो चन्द्रों और दो सूर्यो के प्रति एक एफ चार क्षेत्र होते हैं । ) सूर्य बिम्ब के विस्तार (1) प्रमाण से अधिक ५१० योजन अर्थात् ५१० योजन ( २.४३१४७३६ मील ) विस्तार वाला एक चारक्षेत्र सूर्य का है ।।६।। सथा जिनेन्द्र द्वारा चन्द्र विम्ब के विस्तार (१ यो० ) से अधिक ५१० योजन अर्थात् ५१.११ पोजन ( २०४३६७२४६ मील ) विस्तार वाला एक चारक्षेत्र चन्द्र का है।। ६० ॥ चन्द्र-सूर्यों के अपने अपने चारक्षेत्रों के विस्तार में से जम्बूद्वीप में इनके चार क्षेत्र का प्रमाण मात्र १५० योजन ( ७२०००० मील ) है । अवशेष ३३० योजन प्रमाण वाला चार क्षेत्र लवणसमुद में है । अर्थात् जम्बूद्वीपस्थ चन्द्रसूर्य जम्बूद्वीप के भीतर १८० योजन में ही विचरते हैं। शेष ३३० योजन लवण समुद्र में विचरण करते हैं ॥६१-६२॥ इस प्रकार मनुष्यक्षेत्र में जम्बूद्वीप सम्बन्धी चन्द्र सूर्य जम्बूद्वीप और लवरण समुद्र इन दोनों में भ्रमण करते हैं, किन्तु अवशेष धातकीखण्ड को प्रादि कर पुष्कराध पर्यन्त द्वीप समुद्र सम्बन्धी चन्द्र सूर्यों का भ्रमण अपने अपने द्वीप समुद्रों में ही होता है, उसके बाहर नहीं । अर्थात् वहाँ के चन्द्र सूर्यों के चारक्षेत्र अपने अपने द्वीप समुद्रों में ही हैं ।।१३।। अपने अपने प्रमाण वश्ले चारक्षेत्रों में चन्द्र की १५ गलियों तथा सूर्य को १८४ गलियाँ हैं ।।६४॥ इन अपनी अपनी गलियों के मध्य अनुक्रम से निरन्तर गमन करते हुए प्रतिदिन दो-दो सूर्य और दो-दो चन्द्र संचार करते हैं । अर्थात् प्रामने सामने रहते हुए दो सूर्य प्रति दिन एक गली को पूर्ण कर लेते हैं ।।६.५३। अधुना बालावबोधाय संस्कृतभाषयादित्यस्य किश्चिद्विवरण विधीयते :-- तेषां मार्गाणां मध्ये जम्बूद्वीपाभ्यन्तरे श्रावणकृष्णपक्षादिदिने कर्कटसंक्रान्ति दिवसे दक्षिणायन प्रारम्भे निषधकुलपर्वतस्योपरिप्रथममार्गरविः प्रथमोदयं करोति । तदादित्यविमानध्वजस्तम्भार. Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशोऽधिकार [ ४६३ स्थितो स्फुरद्रत्नमयी महतीं जिनेश्वरप्रतिमा बोक्ष्य प्रत्यक्षेणायोध्या नगरस्थचको निर्मलसम्यक्त्वानुरामेण जिनभक्त्या च पुष्पाञ्जलिम क्षिप्य नुतिपूर्वकमर्घ ददाति । अभिजित्नक्षत्रचन्द्रयोः संयोगे धावणे मासि कृष्णपक्षस्य प्रतिपदिने युगस्यादिः स्यात् । आगमोक्त दिनानयन विधिना वर्षस्य षट्पष्टयधिकत्रिशतदिवसाः भवन्ति तस्य दिनसमूहाईस्य यदा जम्बूद्वीपाभ्यन्तराद्दक्षिणेन धहि गेषु भास्करो गच्छति तदा तस्य दक्षिणायन संज्ञा। यदा पुनलंबणसमुद्रात्सकाशादुतरेणाम्यन्सरमार्गेषु भानुरायाति तदास्योत्तरायण संज्ञेति तत्र यटा जम्बद्वीपाभ्यन्तरे प्रथममार्गे परिधी कर्कट संक्रान्तिदिने दक्षिणायनप्रारम्भे दिनकरस्तिष्ठति तथा चतुर्नवतिसहस्र पञ्चशतपचविंशतियोजनप्रमाणः उत्कर्षणादित्य विमानस्य पूर्वापरेणातप विस्तारः प्रसर्पति । शतयोजनप्रम ऊतिपश्च । अधस्तापोऽष्टादश शतप्रमाणो जायते । अष्टादशमुहर्त दिवसो भवति । द्वादशमहतः रात्रिश्च ततः क्रमेणातपहानी सत्यां महतंव्यस्यक षष्टि भागकृत्तस्यैको भागो दिवस मध्ये दिनं दिन प्रति हीयते । यावल्लवणाधी अवसानमार्ग माघमासे मकरसंक्रान्ती उत्तरायण दिने षोडशाधिक विषष्टिसहस्र योजनप्रमो जघन्येन सर्यविमानस्यातपो विस्सरति । द्वादशमुहूदिवसो भवेत् । अष्टादशमुहूर्तरात्रिश्च । प्रम मन्द बुद्धि जनों को जान कराने के लिये सूर्य का कुछ विवरण करते हैं : उन १४ गलियों में से जम्बूद्वीप की अभ्यन्तर (प्रथम ) वीथि (मार्ग ) में प्रवेश करते हुए श्रावण मास, कृष्णपक्ष की प्रतिपदा को कर्क संक्रान्ति के दिन दक्षिणायण के प्रारम्भ में निषध कुलाचल पर्वत के तट से ( १४६२१३५ योजन) ऊपर पाने पर सूर्य प्रथम मार्ग में प्रथम उदय करता है । ( अर्थात् पंचवर्षीय युग की समाप्ति के बाद दूसरे युग के प्रारम्भिक सूर्य उदय को प्रथम उदय कहते हैं। ) उस समय सूर्य विमानस्थ ध्वजस्तम्भ के अग्रभाग पर स्थित देदीप्यमान रनमयी जिनेन्द्र भगवान् की महान प्रतिमा को प्रत्यक्ष देख कर अयोध्या (नगरस्थ अपने ८४ खण्ड के महल के ऊपर) स्थित प्रथम चक्रवर्ती क्षायिक सम्यक्त्व के अनुराग से तथा जिनेन्द्र भक्ति से पुष्पाञ्जलि देकर नमस्कार पूर्वक { भगवान को) अर्घ चढ़ाता है। अभिजित् नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का संयोग होने पर श्रावण मास, कृष्णपक्ष को प्रतिपदा के दिन पंचवर्षीय युग का प्रारम्भ होता है । आगम (त्रिलोकसार गाथा ४०८४०६ ) में कही हुई दिनानयन विधि के अनुसार एक वर्ष में ३६६ दिन होते हैं। एक प्रनयन में इस दिन समूह का अर्धभाग अर्थात् १५३ दिन होते हैं । जम्बूद्वीप की अभ्यंतर वीथी से प्रारम्भ कर जब सूर्य दक्षिण को ओर बाह्य भागों में गमन करता है, तब उसकी दक्षिणायन संज्ञा है और जब सूर्य लवणसमुद्र से उत्तर की ओर अभ्यंतर की पोर आता है तब उसकी उत्तरायण संज्ञा है, इस प्रकार जब सूर्य अम्बुद्वीप के भीतर प्रथम मार्ग की परिधि में ककं संक्रान्ति के दिन दक्षिणायन का प्रारम्भ करता हुमा ठहरता है, तब उत्कृष्ट रूप से सूर्य, विमान के प्रागे (पूर्व में) और पीछे (पश्चिम में) ताप क्षेत्र ६४५२५ योजन ( ३७८१००००० मील ) पर्यन्त फैलाता है । (तया उत्तर में ४६८२० योजन और दक्षिण में ३३५ Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ ] सिद्धान्तसार दीपक १३ योजन तक फैलाता है ) इसीप्रकार ऊपर की ओर श्रातप का विस्तार १०० योजन ( ४००००० मील) पर्यन्त है ( क्योंकि सूर्य बिम्ब से ऊपर १०० योजत पर्यन्त हो ज्योतिर्लोक है और नीचे की ओर प्रातप का प्रमाण १८०० योजन (७२००००० मील) पर्यन्त है [ क्योंकि सूर्य बिम्ब चित्रा पृथ्वी ८०० योजन ( ३२००००० मोल ) नीचे है और १००० योजन चित्रा की जड़ है, अतः योग ( १००० + ५०० ) - १८०० योजन होता है । ] उस समय अर्थात् दक्षिणायन के प्रारम्भ में १८ मुहूर्त ( १४ घं० २४ मिनिट ) का दिन और १२ मुहूर्त ( ६ घं० ३६ मि० ) की रात्रि होती है। प्रथम बीथों से जब सूर्य श्रागे बढ़ता है तब क्रम से श्रातप के प्रसारण में हानि होती जाती है और इसीलिये प्रत्येक दिन मुहूर्त ( १३५ मि० ) की हानि होने लगती है । अर्थात् युग के प्रारम्भ में श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के दिन सूर्य प्रथम वीथी में था. उस दिन १६ मुहूर्त का दिन और १२ मुहूर्त की रात्रि थी, किन्तु दोज के दिन जब सूर्य दूसरी गली में पहुंचा तब ने मुहूर्त कम हो गये और दोज को (४) १७३३ मुहूर्त का दिन होगा। इसी प्रकार आतप को हानि के साथ साथ हने मुहूर्त हानि होते हुए जब सूर्य लवणसमुद्र की अन्तिम वीथी में पहुँच कर माघ मास में मकर संक्रान्ति के दिन उत्तरायण का प्रारम्भ करता है, तब जघन्य से सूर्य के प्रातप का विस्तार ६३०१६ योजन होता है और उस दिन १२ मुहूर्त का दिन तथा १८ मुहूर्त की रात्रि होती है । ( यहीं से प्रतिदिन मुहूर्त की वृद्धि प्रारम्भ हो जायगी ) । !-- श्रम रवि शशि के गमन प्रकार को दृष्टान्त द्वारा कह कर एक वीथी से दूसरी वीथी के अन्तर प्रमाण प्रावि के जानने का साधन बतलाते हैं। श्रादिमार्गाश्रितौ मन्दौ बहिः शीघ्रो च निर्गमे । सो मार्गान् समकालेन सर्वान् साधयतः क्रमात् ॥ ६६ ॥ श्रादिमार्गे गजाकारा गतिर्मध्याध्वनि स्मृताः । श्ववद्गतिरन्ताध्वनि सिहाभा गतिस्तयोः ॥७॥ सूर्यचन्द्रमसोश्चान्यद्वीथी बोध्यन्तरादिकम् । लोकानुयोग सिद्धान्ते ज्ञेयं परिधिलक्षणम् ||८|| अर्थ :- सूर्य एवं चन्द्र प्रथम अभ्यन्तर ) बोधी में मन्द गति से गमन करते हैं, किन्तु वे जैसे जैसे बाहर (द्वितीयादि गलियों में ) की ओर बढ़ते जाते हैं वैसे ही उनकी गति क्रमशः तेज होती जाती है । वे दोनों समकाल (६० मुहूर्त ) में ही होनाधिक प्रमाण वाली सर्व गलियों को पूरा कर लेते हैं । प्रथम श्रादि गलियों में उन दोनों की चाल हाथी सदृश, मध्यम वीथी में अश्व सदृश श्रीर भन्तिम में सिंह के सहश है ।।६६-६७।। चन्द्र और सूर्यों को वीथियों का पारस्परिक अन्तर तथा इनकी Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशोऽधिकार [ ४६५ परिधियों का प्रमाण प्रादि करणानुयोग ( त्रिलोकसार गा० ३७७-३७८-३८५-३८६-३८७ प्रादि) से ज्ञात कर लेना चाहिये ॥८॥ . प्रब २८ नक्षत्रों के नामों का दिग्दर्शन कराते हैं : कृतिकारोहणोनाम ततो मृगशिरस्तथा । पार्दा पुनर्वसुर्नाम्ना पुष्याश्लेषा मघायाः ।।६६ पूर्वादि फाल्गुनी चोत्तरफाल्गुनी समाह्वयम् । हस्ता चित्रा तथा स्वाति विशाखाभिधमेव च ॥१०॥ अनुराधास्यक ज्येष्ठा नक्षयं मूलसंज्ञकम् । पूर्वाषाढामिधं चोत्तराषाढाख्योऽभिजित्ततः ॥१०॥ श्रवणाख्यं धनिष्ठा शतभिषा नामक ततः । पूर्वाभाद्रपदाख्यं चोत्तरभाद्रपदाल्यकम् ॥१०२॥ रेवतीसंज्ञनक्षत्रमश्विनी भरणीति च । अष्टाविंशति नामानि नक्षत्राणामनुक्रमात् ॥१०॥ अर्थ:- कृतिका, २ रोहणी, ३ मृगशीर्षा, ४ पार्दा, ५ पुनर्वसु, ६ पुष्य, ७ पाश्लेषा, ८ मघा, र पूर्वाफाल्गुनी, १० उत्तराफाल्गुनी, ११ हस्त, १२ चित्रा, १३ स्वाति, १४ विशाखा, १५ अनुराधा, १६ ज्येष्ठा, १७ मूल, १५ पूर्वाषाढा, १६ उत्तराषाढा, २० अभिजित्, २१ श्रवण, २२ धनिष्ठा, २३ शतभिषा, २४ पूर्वाभाद्रपद, २५ उत्तराभादपद, २६ रेवती, २७ अश्वनी और २८ भरणी नाम वाले ये २८ नक्षत्र अनुक्रम से हैं ।।१६-१०३।।। अब प्रत्येक नक्षत्र के ताराओं की संख्या और कृतिका प्रादि नक्षत्रों की परिवार तारामों का प्रमाण प्राप्त करने की विधि कहते हैं :-- ताराः षट्पश्चतिस्रस्तु ह्य काषतिन ईरिताः । षट्चतस्रोऽपि कश्यन्ते द्वे पञ्च ततः परम् ॥१०४॥ एकैकाथ चतस्रोपि बदतिस्रो नवतारकाः । चतवस्तु चतस्रोपि तिनस्त्रिस्त्रस्तु पश्च च ॥१०॥ शतकमेकादशाने च द्वे द्वे द्वात्रिंशदीरिताः। पञ्च तिस्रोप्यमूस्तारासंख्यभान क्रमाद्विदुः ॥१०६॥ Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९६ सिद्धान्तसार दीपक एकादशसहस्राणि स्वस्वताराहतानि च । स्मृतं परिजनस्येवं संख्यानं कृतिकाविषु ॥ १०७॥१ अर्थ :- कृतिका आदि २८ नक्षत्रों के ताराम्रों की संख्या क्रमशः छह, पाँच, तीन, एक, छह, तीन, छह, चार, दो, दो, पाँच, एक, एक, चार, छह, तीन, नौ, चार, चार, तीन तीन पाँच, एक सौ ग्यारह दो, दो, बत्तीस, पाँच और तीन है ।। १०४ १०६॥ एक हजार एक सौ ग्यारह को अपने अपने ताराओं के प्रमाण से गुरिणत करने पर कृतिका आदि नक्षत्रों के परिवार ताराम्रों का प्रमाण प्राप्त हो जाता है ।। १०७ ।। विशेषार्थ : -- ११११ को अपने अपने ताराओं के प्रमाण से गुणा करने पर परिवार ताराम्रों का प्रमाण प्राप्त होता है । जैसे :-- नक्षत्र परिवार ताराओं की संख्या मक्षत्र कृ० ११११×६ = ६६६६ मा पूर्वा शे० ११११४५ - ५५५५ फा० परिवार ताराओं की संख्या नक्षत्र मृग० | ११११४३३३३३ उफा ११११x२=२२२२ मार्द्रा | ११११×१ = ११११ हस्त ११११४५ ० ५५५५ पुत० ११११x६६६६६ चित्रा १११११ = ११११ पुष्य ११११४३-३३३३ स्वाति ११११४१ = ११११ आ० ११११x६६६६६ विश. ११११ x ४ = ४४४४ परिवार तारामों की संख्या नक्षत्र I ११११x४ = ४४४४ अनु० ११११x६ - ६६६६ घ नि० ११११४२२२२२ ज्येष्ठा ११११× ३ – ३३३३ प्रात परिवार ताराओं की संख्या ११११४५ - ५५५१ ११११४१११ १२३३२१ मूल ११११५९९९९९.पू. भा. ११११x२= २२२२ I पू. बा ११११ x ४ = ४४४४ उ.मा. ११११ x २ - २२२२ उषा ११११x४ - ४४४४ रेवती |११११४३२ = ३५५५२ मभि. | ११११× ३ ३३३३ ग्रश्वि. ११११५ – ५५५५ भव. ११११४३ = ३३३३ भरणी ११११ × ३ ३३३१ नोट :- इस प्रकार प्रत्येक नक्षत्र सम्बन्धी ताराओं का प्रमाण प्राप्त हो जाता है । Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : चतुर्दशोऽधिका [ ४१७ अब जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट नक्षत्रों के नाम एवं संख्या कहते हैं :-- पुनर्वसु विशाखारोहिणी चोत्तरफाल्गुनी । उत्तराषाढसंज्ञं चोचरभाद्रपदाह्वयम् ||१०८ || एतानि षड् जघन्यानि नक्षत्राणि भवन्त्यपि । श्राश्लेषा मरणो चार्द्रा स्वातिज्येष्ठाभिधानकम् ॥ १०६ ॥ ततः शतभिषैतानि षडुतमानि सन्ति च । शेष षोडशनक्षत्राणि मध्यमानि निश्चितम् ॥ ११० ॥ अर्थ:- पुनर्वसु, विशाखा, रोहिणी, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढा और उत्तराभाद्रपद ये ६ नक्षत्र जघन्य संज्ञक हैं । प्राश्लेषा, भरणी, श्रार्द्रा, स्वाति, उमेष्ठा और शतभिषक् नाम वाले ये छह नक्षत्र उत्कृष्ट संज्ञक हैं, तथा शेष अश्वनी, कृतिका, मृगशीर्षा, पुष्य, मघा, हस्त, चित्रा, अनुराधा, पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढ़ा, पूर्वाभाद्रपद, मूत्र, श्रवण, धनिष्ठा और रेवती नाम वाले ये पन्द्रह नक्षत्र मध्यम संज्ञक हैं ।। १०८ - ११० ॥ Mr कृतिका प्रावि ताराम्रों के प्राकार विशेष कहते हैं :-- यञ्जनं शकटाकारं मृगशीर्षा हि दीपिका । तोरणाभं सितच्छत्रं वल्मीकसन्निभं तथा ॥ १११ ॥ . रेखा गोमूत्रजा हारो युगहस्तोऽम्बुजं ततः । परिखिकाहारो वीणाशृङ्ग हि वृश्चिकः ||११२ ॥ भग्नवापीनिभं सिंहों गजकुम्भस्यलोपमः । सृवङ्गार्भ पतत्पक्षी सेनेभ- गात्रसञ्चयः ॥ ११३॥ नौ: पाषाणस्तथा चुन्ली चेत्याकारा इमे क्रमात् । प्रोदिताः कृत्तिकादीनां नक्षत्राणां जिनेश्वरः ॥११४॥ अर्थः- कृतिका आदि नक्षत्रों की ताराएं क्रमश: बीजना सहश, गाड़ी की उद्धिका सदृश, मृग के शिर सदश, दीपक, तोरण. छत्र वल्मीक ( बांबी ) गोमूत्र, हार, युग, हाथ, उत्पल ( नील कमल ), दीप, धोंकनी, वरहार, बीणाशृङ्ग, वृश्चिक ( विच्छु), नष्टत्रापी, सिंह, कुम्भ, गज कुम्भ, सुरज ( मृदङ्ग ), गिरते हुए पक्षी, सेना, हाथी के पूर्व शरीर, हाथी के उत्तर शरीर, नाव, पत्थर और चुल्हे के सदृश आकार वाली होती है ।। १११-११४|| Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिखाया कि . विशेष दिन पनि नाम की मंशा नाना पाकार निम्न प्रकार हैं: firmayorg !| FRIVATE PATTES : I P E TIFFEEKSEE * fant ar benge सारामों के प्राकार वर (उत्कृष्ट) हार सदृश वीणा सश नाव यस्थर " 110Kg E EPREAT " FFERatingfTETTPSE AFT.RE HERITY : " REE T FIF APFREE FIR ISFE FITE : का -IP FIVERSITY , FIF IFP PAT Arif;IF .IFE: HTTETTE ti FTF F M FJF f SR T E TOETS FE HY ISIPIET trzett भरणी - -- PEET HTER TRITIS STREET ER" १५ १६ | तारानों के माका वीजनः सदृश गाड़ी को उद्धिक्क RRIITNE FREE FREE FIER FirefRM TE TEETIREE Shantaram same frif; २८ ___ उत्पल (नील कमल २६ दीप सदश पटेरा या धोकनी तारामों संख्या IFRIETFEEPTEff FATHERE B FIFE I N FRIP . . Pleaf FEDEFA .. . PIPE IFE nि fSITE TEETE IFETE :TT HIST: FATERI ITE: 1 हो---... AIR FEEPTEPTEMPLEfil ( 1 TE ४ , | | tr wap FETE IFE 13-15 FTTH TIME IF IT for E rn x x ४५१-HICH THE ) [ Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'चतुर्दशोऽधिकार [ ४६E अब ज्योतिषी देवों की उत्कृष्ट और जघन्य प्रायु का कथन करते हैं : लक्षवर्षाधिक पल्यमायुश्चन्द्रस्य कौतितम् ।। सहस्रवर्षसंयुक्त पल्यं सूर्यस्य जीवितम् ॥११॥ शुक्रस्यायुश्च पल्पक शतवर्षाधिक मतम् । बृहस्पतेश्च पल्यैकमखण्डं जीवितम् भवेत् ॥११६॥ मङ्गलस्य बुधस्यापि शनैश्चरस्य जोचितम् । स्यात्प्रत्येकं च पल्या तारकारणां तथोत्तमम् ॥११७॥ प्रायुः पन्यचतुर्थाशः सर्वजघन्यमेव तत् । पन्ौकस्पाष्टमोभागः सर्वनोचामृताशिनाम् ॥११॥ अर्थ:-चन्द्रमा को उत्कृष्ट प्रायु एक पल्य और एक लाख वर्ष, सूर्य को एक पल्य और एक हजार वर्ष, शुक्र की एक पल्य और १०० वर्ष तथा बृहस्पति की उत्कृष्ट प्रायु एक पल्य प्रमाण है। ॥११५-११६॥ मङ्गल, बुध और शनिश्चर में प्रत्येक की उत्कृष्ट प्रायु अर्ध-मध पल्य प्रमाण है। तारागणों को उत्कृष्ट मायु पाव (1) पल्य है । सूर्यादि ग्रहों की जघय प्रायु पाब 11) पल्य प्रमाण है । सर्व नीच देवों की आयु पल्य के प्राठवें भाग अर्थात् पल्य प्रमाण होती है ॥११७-११८।।। अब सूर्यचन्द्र की पट्टदेवियों एवं परिवार देविय की संख्या कह कर देवियों को प्रायु का प्रमाण बतलाते हैं :-- चन्द्रप्रभा सुसीमाल्या प्रभावयचिमालिनी । चन्द्रस्येमाश्चतस्रः स्युर्महादेच्यो ममःप्रिया ॥११॥ देवी इन्द्रप्रभा सूर्यप्रभाघनकराह्वया । तथाचिमालिनी भानोश्चतस्रो बल्लभा इमाः ॥१२०॥ प्रासामष्टमहादेवीनां प्रत्येकं पृथक पृथक् । देव्यो द्वि द्वि सहस्राणि स्युः परिवारसंज्ञिकाः ॥१२।। स्वकीयानां स्वकीयानां देवानामायुरस्ति यत् । तस्याधं स्थस्वदेवीनां ज्योतिष्काणां च जीवितम् ॥१२२॥ अर्थ:-चन्द्रप्रभा, सुसीमा, प्रभावतो और अचिमालनी ये चारों मन को प्रिय लगने वाली चन्द्रमा को महादेवियाँ हैं ॥११६॥ इन्द्रप्रभा, सूर्यप्रभा, घनकरा ( प्रभङ्करा ) और अचिमालनी ये चार महादेवियों सूर्य की है ।। १२० ॥ इन पाठों महादेवियों में से प्रत्येक महादेवी को पृथक् पृथक् दो दो Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० सिद्धान्तसार दीपक हजार परिवार देवियाँ हैं ।। १२१ ॥ पाँचों ज्योतिष देवों के समुदाय में अपने अपने देवों की आयु का जो प्रमाण है, उनकी देवियों की आयु का प्रमारण उनसे (अपने अपने देवों से ) आधा श्राधा है ।। १२२सा अब ज्योतिष्क देवों के अवधिक्षेत्र और भवनत्रिक देवों के गमन क्षेत्र का कथन करते हैं: — संख्यातीतसहस्राणि योजनानां परोऽवधिः । ज्योतिष्काणां जघन्यश्च तिर्यक् संख्यातयोजनः ।। १२३ ।। कियन्मानोऽवधिस्तेषामधोलोकेऽपि जायते । भावना व्यन्तरा ज्योतिष्का गच्छन्ति स्वयं क्वचित् ॥ १२४ ॥ तृतीय क्षितिपर्यन्तमधोलोके स्वकार्यतः । सौधर्मेशान कल्पान्तमूर्ध्वलोके निजेच्छया ।। १२५ ।। तेऽपि सर्वे सुरैनीता भाववाद्यास्त्रयोऽमराः । षोडशवर्गपर्यन्तं प्रीत्या यान्ति सुखासये ।। १२६॥ श्रर्यः - ज्योतिष्क देवों का उत्कृष्ट श्रवधि क्षेत्र श्रसंख्यात योजन प्रमाण है । तिर्यग् रूप से जघन्य क्षेत्र संख्यात योजन प्रमाण है और इन देवों का अधोलोक में भी कुछ मात्रा तक अवधि क्षेत्र है । भवनवासी, व्यन्तरवासी और ज्योतिषी देव अपने कार्य वशात् अधोलोक में तीसरी पृथ्वी पर्यन्त जाते हैं । ऊर्ध्वलोक में स्व इच्छा से तो सौधर्म -ऐशान स्वर्ग तक ही जाते हैं, किन्तु सुख प्राप्ति के लिए मित्र श्रादि अन्य महद्धिक देवों द्वारा प्रीति पूर्वक सोलह स्वर्ग पर्यन्त ले जाये जाते हैं ।।१२३ - १२६॥ अब ज्योतिष्क देवों के शरीर का उत्सेध, निःकृष्ट देवों की देवांगनाओं का प्रमाण और भवनश्रय में जन्म लेने वाले जीवों के प्राचरण का विवेचन करते हैं :--- समचा पतनूर से घः सर्वज्योतिः सुधाभुजाम् । सर्वनिकृष्टदेवानां स्युर्द्वात्रिंशस्त्रमाङ्गनाः ॥ १२७॥ उन्मार्गचारिणो येऽत्र बिराधितसुदर्शनाः । अकामनिर्जरायुक्ता बाला बालतपोऽन्विताः ॥१२८ || शिथिलाधमंचारित्रे मिथ्यासंयमधारिणः । पञ्चाग्निसाधने निष्ठाः सनिदानाश्च तापसाः ॥ १२६ ॥ अज्ञानक्लेशिनः शैवलिङ्गिनो ये नरादयः । भावनादि त्रयाणां ते यान्ति नीचगति श्रयम् ॥ १३० ॥ Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशोऽधिकारः [ ५०१ ये नीचदेव संशता नीचा नीचगुरु श्रिताः । नीचधर्मरता नीचपाखण्डिभाक्तिकाः शठाः ॥१३॥ नीचसंयमदुर्वेषा नीचशास्त्रतपोन्विताः । तेऽहो सर्वत्र नीघाः स्युर्देवत्वेऽन्यत्र वा सवा ॥१३२॥ मस्वेति जैनसन्मार्ग स्वर्मोक्षवं सुखाथिभिः । विमुच्य श्रेयसे जातु न ग्राह्य दुःपथं खलम् ॥१३३॥ अर्थः-सर्व ज्योतिष्क देवों ( सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु, केतु, नक्षत्र और तारागणों) के शरीर की ऊंचाई सात धनुष प्रमाण है। सर्व नि:कृष्ट अर्थात् पुण्य हीन देवों में से प्रत्येक के ३२-३२ ही देवोगनाएं होती हैं ॥१२७।। जो जीव यहां उन्मार्ग का पाचरण करते हैं, सम्यादर्शन के विराधक हैं, अकाम निर्जरा से युक्त हैं, अज्ञानी हैं, बाल अर्थात् मज्ञान तप को तपने वाले हैं, धर्माचरण में शिथिल हैं, खोटे संयम के धारी हैं, पञ्चाग्नि श्रादि तपों में श्रद्धा रखते हैं, निदान सहित तप तपते हैं, अज्ञान तप से शरीर को कष्ट देते हैं तथा शिवलिंग प्रादि के उपासक हैं वे मनुष्य मादि मर कर भवनत्रय में जन्म लेते हैं एवं अन्य भी तोन नीच गतियों में जन्म लेते हैं ।।१२८-१३०। जो कुदेवों में संशक्त हैं, खोटे गुरुत्रों का पाश्रय ग्रहण करते हैं, खोटे धर्मों में संलग्न रहते हैं, नीच और पाखण्डी गुरुत्रों के भक्त हैं, मूर्ख हैं, खोटे संयम को धारण कर नाना प्रकार के खोटे वेष बनाते हैं, खोटे शास्त्र और खोटे तप से युक्त हैं. खेद है कि वे सब नीच देवों ( भवनत्रिक आदि ) में उत्पन्न होते हैं, तथा अन्यत्र भी नीच गतियों में ही निरन्तर उत्पन्न होते हैं ।। १३१-१३२॥ ऐसा मान कर सुखार्थी जीवों को स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करने वाले जैन धर्म स्वरूप समीचीन मार्ग को छोड़ कर दुःख देने वाले खोटे मार्ग का प्राश्रय कभी भी ग्रहण नहीं करना चाहिए ॥१३।। करणानुयोग शास्त्रों के अध्ययन को प्रेरणा: एतस्पुण्यनिधानकं जिनमुखोद्भूतं सुधर्माकरम, धर्मध्यान निबन्धनं ह्यघहरं लोकानुयोगश्रुतम् । ज्योतिएकामरभूतिवर्णनकर भव्यात्मना बोषकम् सारं ज्ञानशिवाधिनोप्यनुदिनं सिद्धयं पठन्स्वावरात् ॥१३४।। अर्थ:-इस प्रकार जिनेन्द्र भगवान् के मुखारविन्द से उद्भूत, पुण्य का निधान, समीचीन धर्म का प्राकर, धर्मध्यान का निबन्धक, पाप का नाशक, भव्य जीवों को बोध देने वाले, सारभूत पौर ज्योतिष्क देवों की विभूति आदि के वर्णन से युक्त इस करणानुयोग शास्त्र को केवल ज्ञान एवं मोक्ष के Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ ] तिसार दीपक अर्थी भव्यजन श्रात्म सिद्धि के लिये प्रतिदिन श्रादर पूर्वक पढ़ें। अर्थात् प्रतिदिन इसका स्वाध्याय करना चाहिये ।। १३४५ अधिकारान्त ङ्गलाचरण :-- ज्योतिर्भावन मौमनाकभवनेष्वेव त्रिलोके च ये । श्रीमच्चैत्यगृहा नृदेवमहिता नित्येतराः पुण्यदाः । श्रोतीर्थेश्वर मूर्तयोऽति सुभगा याः श्री जिनाद्याश्च ये । तान् सर्वान् परमेष्ठिनः सुविधिना वन्देऽर्चयेऽर्चाश्च ताः ॥ १३५ ॥ इति श्रीसिद्धांतसारदीपकमहाग्रन्थे भट्टारक श्रीसकलको तिविरचिते अनो नाम चतुर्दशोऽधिकारः ॥ ज्योतिर्लोक अर्थ :- भवनवासी, व्यन्तरवासी, ज्योतिषी और कल्पवासी देवों के भवनों में तथा तीन लोक 'में मनुष्य और देवों द्वारा पूजित, पुण्य प्रदान करने वाले अकृत्रिम और कृत्रिम जिन चैत्यालयों की, अत्यन्त सुभग तीर्थंकरों की प्रतिमाओं की तथा साक्षात् जिनेन्द्र देव आदि पंच परमेष्ठियों की और उन सब प्रतिभाओं की मैं विधि पूर्वक पूजन करता हूँ, बन्दना करता हूँ और अर्चना करता हूँ ।। १३५ ।। इस प्रकार भट्टारक सकलकीर्ति विरचित सिद्धान्तसार दीपक नाम महाग्रन्थ में ज्योतिर्लोक का प्ररूपण करने वाला चौदहवाँ अधिकार समाप्त ॥ Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FFEF MITTER [ ४४ SHARELATER UIt fr : : सा : :: :: :: ::TR FIFTHEFTE FTE: :: T.. .:. ; THE ARE HIRसहलानारामविलक्षथानमालपात् ।...TET Ki योनितिसंयुक्ताल बन्द, अन्यानरामरे-११ yie Tre is 10-21 प्राय: मनुष्यों श्री देवों द्वारा पदनीक बौरासी लाख सलाम हजार तेईस जिनालयों को मैं (सक्वकीयांचाई) नमस्कार करता है Hasir FIF fig Fr प्रतिज्ञा : 13 Herry RTE AREpiii प्रयोलोकभागात स्वर्मन, कसका हिस्सा इन्द्रादिनाकिना अतिरितिबल्या विज्ञान को अर्थ:-अब ऊर्ध्वलोक में स्थित सीप कि वर्ग मोरान स्थिति प्रादि को तथा इन्द्रादिक देवों की विभूति एवं हिपनि प्रादि को कहता हूँ । Efire अब सोलह स्वामें के नाम और काममाया कहते हैं - सौधर्मशानकन्यौ हौदक्षिणीतरयो स्थिती सनत्कुमारमाहेमो ब्राह्मनालाल बह्रयो । ... स्वगौ लास्तरकापिष्टौ दक्षिणोत्तरविकृषितो _iftin को प. शुक्रमहाशुको स्मरूपयवस्थितो:017 !!:: । T.fi... " दो शतारमहलामावालतमामासाभियो ::::15---। :: :: :: आरसाच्यातनामानौ चैतेश्वरचा पोरस HIR FIF , अर्थ:--सौधर्म और ऐशान कल्प, क्रमशः दक्षिस और उत्तर में प्रस्त , सनत्कार माहेन्द्र, ब्रह्मा-ब्रह्मोत्तर तथा लपन्नव और कापिष्ट ये स्वर्ग भी दिया जाना विमानों के माश्रित अवस्थित है । शुक्र और महाशुक्र ये युग्म रूप अवस्थित हैं ।। ३-४॥ शतार सहवार, प्रानत-प्राएत तथा प्रारण और अच्युत ये भी एक के बाद एक युग्म रूप से अवस्थित है, इस प्रकार से सोलह स्वर्ग ऊध्वं. REETITIHAR सालह स्वग ऊच. लोक में अमित Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ ] सिद्धान्तसार दोपक अब इन्द्रों का प्रमाण दर्शाते हैं : चतुर्यामाधनाकानां धत्त्वारो वासवा पृथक् । चतुः स्वर्मध्ययुपमानां चत्वारः स्वर्गमायका ।।६।। चतुस्तदननाकानाभिन्द्राश्चत्वार अजिताः । इतीन्द्रसंख्यया कल्पाः कथ्यन्ते द्वादशागमे ॥७॥ अर्थ:-आदि के चार स्वर्गों के पृथक् पृथक् चार इन्द्र हैं । अर्थात् सौधर्म, ऐशान, सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्गों में से प्रत्येक में एक एक इन्द्र हैं। मध्य के चार मुगलों ( आठ स्वर्गों) के चार इन्द्र है। अर्थात् ब्रह्म, लान्तव, महाशुक और सहस्रार स्वर्गों में से प्रत्येक में एक एक इन्द्र है । ब्रह्मोतर, कापिष्ट, शुक्र और शतार स्वर्गों में इन्द्र नहीं हैं। शेष ऊपर के पानत, प्राणत, पारण और अच्युत में से प्रत्येक में एक एक इन्द्र है। इस प्रकार प्रागम में बारह इन्द्र और बारह ही कल्प कहे गये हैं ।६.७।। अब इन्द्रों के नाम और उनको दक्षिागेन्द्र संज्ञा प्रादि का विवेचन करते हैं: सौधर्मेन्द्रायः शक्रः सनत्कुमारदेवराट् । ब्रह्मन्द्रो लान्तवेन्द्रश्चानतेन्द्र प्रारणाधिपः ॥८॥ षडेते दक्षिणेन्द्राः स्युननमेकावतारिणः । ... पूजितमहापुण्यजिनभक्तिभराङ्किताः ॥६॥ __ ईशानेन्द्रो हि माहेन्द्रः शुक्रेन्द्रः शुक्रनाकभाक् । शतारेन्द्रस्ततः प्राणतेन्द्रोऽच्युतेन्द्र उत्तमः ॥१०॥ एते षडुत्तरेन्द्राः स्युजिनपूजापरायणाः । सम्यग्दर्शनसंशुद्धाः समिरनतकमाः ॥११॥ अर्थ:--सौधर्म, सनत्कुमार, ब्रह्म, लान्तव, प्रानत और धारण नाम के ये छह इन्द्र दक्षिणेन्द्र हैं । ये छहों एक भवातारी, पूर्वोपार्जित महापुण्य से युक्त और जिनेन्द्र भगवान की अपूर्व भक्ति के रस से सहित होते हैं ॥८-६॥ सर्व देवों से नमस्कृत, सम्यग्दर्शन से शुद्ध और जिनेन्द्र की पूजा में तल्लीन रहने वाले ईशान, माहेन्द्र, शुक्र स्वर्ग का शुक्र, शतार प्राणत और अच्युत नाम के ये छह इन्द्र उत्तरेन्द्र हैं ॥१०-११॥ अब कम्प-कल्पातीत विमानों का और सिद्ध शिला का प्रवस्थान बतलाते हैं : उपर्युपरि सन्त्येते स्वर्गाः षोडशसम्मिताः । दक्षिणोत्तरदिग्भागस्या युग्मरूपिणः शुभाः ॥१२॥ .. Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचदशोऽधिकारः स्वर्गाणामुपरि स्युश्वाद्याधोरां देयकास्त्रयः । तेषामुपरिसन्त्येव मध्यग्रं वेयकास्त्रयः ॥ १३॥ एषामुपरि तिष्ठन्ति चोर्ध्वग्रं वेयास्त्रयः । अमीषामुपरि स्यामच नवानुविनामकम् || १४ ॥ तस्य सन्ति चतुर्दिक्षु चश्वारश्च विमानकाः । विदिक्षु तेsपितान्तो मध्ये हच कं विमानकम् ।।१५।। तस्योपरि च पञ्चानुत्तराख्यं पटलं भवेत् । तच्चतुर्दिक्षु चत्वारि विमानानि भवन्ति वे ||१६| मध्ये सर्वार्थसिद्धघाख्यं स्याद्विमानं च्युतोपमम् । ततो मुक्तिशिलाविच्या गत्वा द्वादशयोजनान् ॥१७॥ [ ५०५ अर्थ :- दक्षिण और उत्तर दिशाओं में षोडश स्वर्ग युग्म रूप से ऊपर ऊपर अवस्थित हैं, अर्थात् एक युगल के ऊपर दूसरा, दूसरे के ऊपर तीसरा इत्यादि ||१२|| सोलह स्वर्गो के ऊपर तीन अधायकों की (एक के ऊपर एक ) अवस्थिति है। इनके ऊपर तीन मध्यम ग्रैवेयक और उनके ऊपर तीन ऊर्ध्व वेयक स्थित हैं। इन ग्रंवेयकों के ऊपर चार दिशाओंों में चार, चार विदिशानों में चार और एक मध्य में इस प्रकार नव अनुदिशों की अवस्थिति है ॥१३ - ११ नव अनुदिशों के ऊपर पांच अनुत्तर विमान हैं, जो चार दिशाओं में चार हैं और मध्य में उपमा रहित सवार्थसिद्धि नामक विमान अवस्थित है। सवार्थ सिद्धि विमान से बारह योजन ऊपर जाकर दिव्य रूप वाली सिद्धशिला अवस्थित है ।।१६-१७ ॥ अब मेरु तल से कल्प और करुणातीत विमानों के अवस्थान का प्रमाण कहते हैं: मेरोस्तलाच साधेंका रज्जुपर्यन्तमादिमों । स्यातां स्वर्गौ ततोऽन्यौ द्वौ सार्धरज्ज्वन्तमञ्जसा ||१८|| अर्धा रज्जुपर्यन्तं शेषषट्स्वर्गयुग्मकाः । प्रत्येकं स्युः पृथग्भूतास्ततो वेयकादयः ॥ १६ ॥ सर्वार्थसिद्धिमोक्षान्ता एक रज्ज्वन्तमाश्रिताः इस्यू लोककल्पाद्याः स्युः सप्तरज्जुमध्यमाः ॥ २० ॥ अर्थ ः—मेश्तल से डेढ राजू में सौधर्मेशान स्वर्ग है, इसके ऊपर डेढ़ राजू में सानत्कुमार माहेन्द्र स्वर्ग हैं, इसके ऊपर ऊपर प्रत्येक अर्ध अर्ध राजू की ऊँचाई में क्रम से अन्य छह युगल अवस्थित Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्तसार दीपक हैं । इस प्रकार छह राजू में सोलह स्वर्ग स्थित हैं। इनके ऊपर एक राजू में नौ वेयक, नव अनुदिश, पाच अनुत्तर और सिद्ध शिला अवस्थित है । इस प्रकार मेरु तल से ऊर्ध्वलोक के सात राजू क्षेत्र में स्वर्गादिक हैं॥१८-२०॥ यथा -- -- पी - na-pueing-in-AN बाग 1 r- अब पटलों का प्रमाण कहते हैं: श्राद्ये स्वर्युगले चैक विशस्युः पटलाग्यपि । द्वितीये तानि सप्तव चत्वारि तृतीये ततः ॥२१॥ चतुर्थे युगले द्वे स्तः पटले पञ्चमे भवेत् । पटल के युगे षष्ठे हय के सत्पटलं मतम् ॥२२॥ सप्तमे युगले त्रोण्यष्टमे त्रिपटलान्यपि । प्रोण्येव पटलानि स्पुरधो बेयकत्रये ॥२३।। सन्ति त्रिपटलान्येव मध्यग्रं देयकत्रये । ततस्त्रिपटलानि स्युरुर्ध्वग्न वेयकत्रिके ॥२४॥ नवानुदिशसन स्यात्पटलकं ततः परम् । पञ्चानुत्तरनामैकं पटलं चेति तान्यपि ॥२५॥ पिण्डीकृतानि सर्वाणि त्रिषष्टि पटलानि वै । स्युरुपर्युपरिस्थानि कम्पकल्पातिगानि च ॥२६॥ Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - - - - - - पंचदशोऽधिकार। [ ५०७ शा... सौधर्म नाममा प्रा में २१ पटल है । दूसरे सानत्कुमार युगल में सात. तीसरे ब्रह्म युगल में पार, चौथे लान्तव युगल में दो, पांचवें शुक्र युगल में एक, छठवें शतार युगल में एक, सातवें पानत युगल में तीन, आठवें पारण युगल में तीन, अधोवेयक में तीन, मध्यम प्रवेयक में तीन, ऊध्र्व ग्रं वेयक में तीन, नव अनुदिशों में एक और पांच अनुत्तरों में एक पटल है। इस प्रकार सौधर्म स्वर्ग से ऊपर ऊपर कल्प और कल्पातीत सर्व स्वों के पटलों की संख्या एकत्रित करने पर (३१+७+४+२+१+१+३+३+३+३+३+१+१= ) ६३ होती है । अर्थात् कुल ६३ पटल हैं ॥२१-२६ प्रव सौधर्मादि स्वर्गों के विमानों का प्रमाण कहते हैं: सौधर्मे स्युर्विमानानि लक्षा द्वात्रिंशवेव च । ऐशाने सद्विमाना लक्षा प्रष्टाविंशति प्रमाः ।।२७।। सनत्कुमारकल्पे द्वादशलक्षविमानका; । विमानाः सन्ति माहेन्द्र चाष्टलक्षप्रमाणकाः ॥२८॥ ब्रह्माकल्पे द्विलक्षेमा षणवत्या सहस्रकः । ब्रह्मोत्तरे व ते लक्षकं सहस्रचतुर्युतम् ॥२६।। लान्तवे सद्विमानानि द्विचत्वारिंशता समम् । पचविंशति संख्यानि सहस्राणि भवन्ति च ।।३०॥ कापिष्टे स्युविमानानि हष्टपञ्चाशता सह । नवसंख्यशतैर्युक्ताश्चतुर्विशसहस्रकाः ॥३१॥ शुक्रेविंशतियुक्तानि सहस्राणि तु विंशतिः । विमानानि महाशुक्रेशोत्यानवशतैर्युताः ॥३२।। एकोनविंशसंख्यानसहलाः स्युः शतारके । एकोनविंशसंयुक्तत्रिसहस्रा विमानकाः ॥३३।। सहस्रारे तथंकोनविंशोनत्रिसहस्रकाः । मानतप्राणताभिख्यकल्पद्वयोविमानकाः ॥३४॥ चतुःशतानि चत्वारिंशद् युतान्यारणाच्यते । विमानाः षष्टि संयत शतद्वयप्रमाणकाः ॥३५॥ Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८ ] क्रमांक ३ ४ ५ ६ ७ ५ ६ १० सिद्धान्तसार दीपक ततः सन्ति विमानानि ह्यधो वैकत्रिके । एकादशोत्तरं चैकशतं ततो विमानकाः ॥३६॥ शतकं सप्तसंयुक्तं मध्यग्र वेयकत्रिये । एकानवतिसंख्याना ऊर्ध्व वेपत्रिके ॥३७॥ ततो नवविमानानि नवानुदिशसंज्ञके । पञ्चदिव्यविमानानि पञ्चानुत्तर नामके ॥३८॥ अर्थः- उपर्युक्त १२ श्लोकों का समस्त प्रर्थं निम्नाङ्कित तालिका में निहित है । स्वर्गों के नाम विमानों की संख्या स्वर्गों के नाम सौधर्म ३२ लाख (३२०००००) ११ ऐशान २८ लाख (२६०००००) १२ १२ लाख (१२०००००) १३ ८ लाख (८०००००) १४ २६६००० १५ सानत्कुमार माहेन्द्र ब्रह्म ब्रह्मोत्तर लान्तव कापिष्ट 1000/ १०४०००१ २५०४२ २४६५८ २००२० (४ लाख) ܘܬܐ देख (५० हजार) }(xo क्रमाक (४० हजार) १६ १७ १८ १६ शतार शुक्र महाशुक्र ब सोलह स्वर्गों के इन्द्रक विमानों के नाम कहते हैं: सहस्रार अनंत प्राणत प्रारण अच्युत ३ स्तन ग्रैवेयक ३ मध्यम ३ उपरिम अनुदिश अनुत्तर " " विमानों की संख्या श्राद्यस्वर्गयुगे चाद्यमुड्वास्थं विमलाभिधम् । चन्द्र' वल्गु च बोराख्य मरुणं नन्दनाह्वयम् ॥३६॥ नलिनं काञ्चनं रोहिचचञ्चाल्यं महदाख्यकम् । ऋदृशं भयं ततो रुकनामकम् ||४०|| ३०१६ २६६१ ४४० २६० } (६ हजार) ( ७०० ) १११ १०७ ५. ६१ £ योगफल – ८४९७०२३ है । Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचदशोऽधिकारः [ ५०६ रुचिराभिवमङ्कास्यं स्फाटिकं तपनीयकम् । मेघमन तु हारि पद्माभिधानकं ततः ॥४१॥ लोहिताख्यं ततो बज्रनन्यावर्त प्रभाकरम् । पिष्टकं च गजाभासं मित्राख्यं प्रभसंझकम् ॥४२॥ इत्युक्तशुभनामान एकत्रिंशत्प्रमेन्द्रकाः। मध्यस्थाः पटलानां स्युः सौधर्मशान कल्पयोः ॥४३॥ अञ्जनं वनमालाख्यं नागं च गरुडाह्वयम् । लाडलं बलभद्रास्यं चक्र सप्तेन्द्रका प्रमी ॥४४॥ सनत्कुमार माहेन्द्र कल्पयोः श्रेरिणमध्यगाः । अरिष्टं देयसीमाख्यं ब्रह्मब्रह्मोत्तराख्यकम् ॥४५॥ ब्रह्मबह्मोत्तरे सन्ति चत्वार इन्द्रका इमे। ब्रह्मादिहृदयाभिख्यं लान्तवं चेन्द्रकाविमौ ॥४६॥ द्वौ स्तो लान्तबकापिष्टे शुक्राख्यकोऽस्ति घेन्द्रकः । शुक्रद्वये शताराख्येन्द्रकः शतारकद्धये ॥४७॥ मानतं प्राणतं पुष्पमिमे स्युरिन्द्रकास्त्रयः । उपर्यु परिभागेष्वानतप्राणतयोयोः ॥४८॥ सातकं चारणाभिख्यमच्युतायाममे त्रयः । इन्द्रकाः क्रमतः सन्स्यारणाच्युत्तद्विकल्पयोः ॥४६॥ अर्थः-सौधर्मशान नामक प्रथम युगल में १ ऋतु, २ विमल, ३ चन्द्र, ४ वल्गु, ५ वीर, ६ अरुण, ७ नन्दन, ८ नलिन, ६ काञ्चन, १० रोहित, ११ चञ्च, १२ मात्, १३ ऋद्धीश, १४ वैडूर्य १५ रुचक, १६ रुचिर, १७ अङ्क १८ स्फटिक, १६ तपनीय, २० मेघ, २१ अभ्र, २२ हारिद्र, २३ पद्म, २४ लोहित, २५ वन, २६ नन्द्यावर्त, २७ प्रभाकर, २८ पृष्ठक, २६ गज, ३० मित्र और ३१ प्रभ ये शुभ नाम वाले ३१ इन्द्र के विमान पटलों के मध्य में अवस्थित हैं ॥३६-४२।। १ अञ्जन, २ वनमाल, ३ नाग, ४ गरुड, ५ लाङ्गल, ६ बलभद्र और ७ चक्क ये सात इन्द्रक विमान सनरकुमार-माहेन्द्र कल्प में स्थित श्रेणीबद्ध बिमानों के मध्य में अवस्थित हैं । अरिष्ट, देवसोम, ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर नाम के ये चार इन्द्रक ब्रह्म युगल में, ब्रह्महृदय और लान्तब ये दो इन्द्रक लान्तवकापिष्ट युगल में, शुक्र नामक इन्द्रक शुक्र-महाशुक्र युगल में, शतार नामक इन्द्रक शतार-सहस्रार यगल में पानत, प्राणत और Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१. 1 सिद्धान्तसार दीपक पुष्पक ये तीन इन्द्रक आनत प्राणत स्वर्गों के उपरिम भागों में तथा शातक, पारणा और अच्युत ये। तोन इन्द्रक पारण-प्रच्युत इन दो कल्पों में अवस्थित हैं ।।४३-४६it सुदर्शनममोघाख्यं सुप्रबुद्ध यशोधरम् । सुमन्न सुविशालं तु सुमनस्काभिधानकम् ॥५०॥ सौमनस्काह्वयं प्रीतिङ्करमेते नवेन्द्रकाः । नवग्ने धेयकेन्वेव सन्त्युपर्युपरि क्रमात् ॥५१॥ प्राच्यामचित्रिमानं दक्षिणदिश्यचिमालिनी । वैरोचनमपाच्या चोत्तराशायां प्रभासकम् ।।५२।। प्राग्नेयदिशि सौमास्यं नैऋत्यां सौम्यरूपकम् । वायच्यामङ्कनामशानकोणे स्फाटिकाभिधम् ।।५३॥ एषां मध्येऽस्ति चादित्यमालिन्याख्य विमानकम् । विमानानि नवतानि स्युर्नवानुदिशाभिधे ।३५४।। विजयं पूर्व दिग्भागे वंजयन्तं च दक्षिणे। जयन्तं पश्चिमाशायामुत्तरेऽस्त्यपराजितम् ॥५५॥ अमीषां मध्यमागे स्यात्सर्वार्थसिद्धिनामकम् । एते पञ्चविमानाः स्युः पञ्चानुत्तरसंज्ञके ॥५६।। अर्थ:-नव वेयकों में क्रमशः ऊपर ऊपर सुदर्शन, अमोघ, सुप्रबुद्ध, यशोधर, सुभद्र, सुविशाल, सुमनस, सौमनस और प्रीतिङ्कर नाम के ये नव इन्द्रक विमान हैं ॥५०-५१॥ नव अदिशों को पर्व दिशा में अचि विमान, दक्षिण में अचिमालिनी, पश्चिम में वैरोचन, उत्तर में प्रभास, आग्नेय दिशा में सौम, नंऋत्य में सौम्य रूप, वायव्य में अङ्क और ईशान कोण में स्फटिक नामक विमान हैं, इन पाठों विमानों के मध्य में प्रादित्य मालिनी नामक इन्द्रक विमान है। इस प्रकार नवअनुदिशों में नव विमान हैं ॥५२-५४|| पञ्चानुत्तर की पूर्व दिशा में विजय, दक्षिण में वैजयन्त, पश्चिम में जयन्त और उत्तर दिशा में अपराजित नामक विमान हैं। इन सबके मध्य में सर्वार्थसिद्धि नामक इन्द्रक विमान है । इस प्रकार पञ्चानुत्तर में पांच विमान हैं ॥५५-५६॥ Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचदशोऽधिकार! [ ५११ अब ऋतु इन्द्रक को अवस्थिति एवं इन्द्रों के स्वामित्व की सीमा का विवेचन करते हैं: सुदर्शनमहामेरोश्चूलिकोवनभस्तले । रोममात्रान्तरं मुक्त्वा तिष्ठत्वाख्य इन्द्रकः ।।५७॥ स्वस्वान्स्यपटलेष्वन्स्य स्वस्वेन्द्रकस्य यच्च यत् । ध्वजान तत्र तत्र स्थितेन्द्रस्य स्वामिता भवेत् ॥५८।। अर्थः-सुदर्शन मेरु की चूलिका के ऊपर प्रकाश में बाल के अग्रभाग प्रमाण अन्तर छोड़कर ऋतु नाम का प्रथम इन्द्रक विमान है 11५७।। अपने अपने अन्तिम पटल के अन्तिम इन्द्रक के ध्वजादण्ड पर्यन्त वहाँ स्थित अपने अपने इन्द्रों का स्वामित्व है। जैसे- सौधर्म इन्द्र का स्वामित्व प्रभा नामक अन्तिम इन्द्रक के ध्वजदण्ड पर्यन्त है । इसो प्रकार आगे भी जानना ॥५॥ प्रब इन्त्रक विमानों का प्रमाण कहते हैं: नरक्षेत्रप्रमाणं स्यावास्यं प्रथमेन्द्रकम् । सर्वार्थसिद्धिनामान्त्यं जम्बूद्वीपसमानकम् ॥५६॥ शेषाणामिन्द्रकाणां स्यादेकोनेन्द्रकसंख्यया । विभक्तर्योजनैः शेषः क्रमहासो हि विस्तरः ॥६०॥ ' अर्थः-प्रथम ऋतु इन्द्रक विमान का विस्तार मनुष्य क्षेत्र (ढाई द्वीप) के बराबर और सर्वार्थ सिद्धि नामक अन्तिम इन्द्रक का प्रमाण जम्बूद्वीप के बराबर है । उन दोनों के प्रमाण को परस्पर घटा कर शेष में एक कम इन्द्रक प्रमाण का भाग देने पर हानि-वृद्धि चय का प्रमाण प्राप्त होता है । जैसे:--ऋतु नामक प्रथम इन्द्रक का प्रमाण ४५००००० योजन और सर्वार्थ सिद्धि इन्द्रक का प्रमाण १७०००० योजन है । इन दोनों को परस्पर में घटा कर एक कम इन्द्रक का भाग देने से (४५०००११-२०००००= )७०९६७३३ योजन हानि चय का प्रमाण है ।।५६-६०॥ ६३ इन्त्रक विमानों के विस्तार का प्रमाण निम्न प्रकार है: Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ ] सिद्धांतसार दीपक । क्रमांक इन्द्रकों के विमानों का नाम विस्तार क्रमांक | इन्द्रकों के ] इन्द्रक विमानों नाम । का विस्तार | इन्द्रकों के | इन्द्रक विमानों G नाम | का विस्तार शुक्र वल्गु अरुण प्रभाकर २६५ पृष्ठक । मित्र पारण ऋतु । ४५००००० यो २२ हारिद्र | ३००६६७७३ यो०४३) ब्रह्मदघ १५१६३५४॥ यो. ४४२६०३२ , २३पा । | २६३८७०९३, dr सान्तव | ३४८३८७३। विमल ४३५८० ६४३,४ लोहित | २८६७७४१३ ॥ १३७७४१६ , | ४२८७०९५ .२५ वन २७२६७७४११, तार १३.६४५१३१. वोर ४२१६१२९ , २६ नन्द्या० | २७२५८०६१ , मानत १२३५४८३३ | ४१४५१६१२७ प्रागत ११६४५१६ , नन्दन ४०४४१९३१ , २० | २५८३८३०३, पुष्पक ! १०६३५४८९२ ॥ नलिन | ४००३२२५३॥ .. २६ मज | २५१२१.०३४ , शातक १०२२५८०३१ काञ्चन | | ३९३२२५८३, ३० २४४१६३५३५ ॥ १५१६१२३ ॥ रोहित ३८६१२९०१॥ .. ३१/ प्रभा | २३७०९६७३३ अच्युत ८८०६४५४१ ॥ ११ चन्च ५७६०३२२१७ .. ३२ अन्जन | २३००००० , ५३/ सुदर्शन | ८०९६७७ . १२ महत् वनमाल | २२२६०३२४, अमोघ | ७३८७०६३ . ऋद्धीश ३६४८३८७४ ३७ | २१५८०६४ ५५ सुप्रबुद्ध | ६६७७४१३ ॥ वैडूर्य | ३५७७४१९४३ .. ३५| गरुड़ | २०८५०९६९ , यशोधर | ५६६७७४१ ॥ .रुचक ३५.०६४५१३६ लाङ्गल | २०१६१२९४ , सुभद्र । ५२५८०६ . कचिर | ३४३५४८३३१, ३७ बलभद्र | १९४५१६१३८ । मुविशाल ४५४८३८३३ ॥ अंक ३३६४५१५४,३८ चक्र १८७४१६३ , सुमनस् | ३८३८७०३ , स्फटिक | ३२६३५४-११,३९ अरिष्ट १८०३२२५२१ ॥ सौमनस् | ३१२६०३३ । सपनीय | ३२२२५८०३१... सुरस | १७३२२५८३, ६१ प्रीतिकर २४१६३५४२ । मेघ । ३१५१६१२३६.४१/ ब्रह्म १६६१२९०१, ६२/ प्रादित्य | १७०६६७ । २९ अभ्र | ३०८०६४५३५,४२' ब्रह्मोत्तर' १५९०३२२38, सर्वार्थसिद्धि १..... योजन नाग Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचदशोऽधिकार: [५१३ ' पब भेणीबद्ध विमानों के प्रवस्थान का स्वरूप कहते हैं:-- प्रायेन्द्रकस्य विद्यन्ते चतुदिक्षु विमानकाः । श्रेणीबद्धा द्विषष्टिस्तु महान्तोऽनुक्रमात् पृथक् ॥६१॥ प्राधेन्द्रकाच्चतुर्दिक्षु सर्वोध्यपटलेष्वपि । श्रेणीबद्धाः प्रहीयन्ते चतुश्चतुप्रमाः क्रमात् ॥६२।। यावच्चानुदिशाभिस्ये पटले दिक्चतुष्टये । श्रेणीबद्धा हि तिष्ठन्ति प्रान्स्याश्चत्वारइन्द्रका ॥६३।। अर्थ:-प्रथम ऋतु इन्द्रक विमान की चारों दिशाओं में अनुक्रम से पृथक पृथक् बासठ-बासठ श्रेणीबद्ध विमान अवस्थित हैं । इसके ऊपर द्वितोयादि पटलों के इन्द्रकों को चारों दिशाओं में क्रम से प्रथम इन्द्रक के श्रेणीबद्धों के प्रमाण से चार-चार श्रेणीबद्ध तब तक हीन हीन होते जाते हैं, जब तक अन्तिम पटल की प्राप्ति नहीं हो जाती । इसीलिये अनुदिश ( और अनुत्तर) इन्द्रक की चारों दिशाओं में (प्रत्येक दिशा में एक एक ) चार ही श्रेणीबद्ध विमान हैं 1३६१-६३।। प्रत्येक स्वर्ग के श्रेणीबद्ध विमानों का प्रमाण निम्न प्रकार है:-- 357x३=४५; (१८६-४५) ४३१=४३७१ सौधर्म स्वर्ग के श्रेणी का प्रमाण है। 125x१=१५; (६२-१५)४३१= १४५७ ऐशान स्वर्ग के श्रेणी का प्रमाण है। "'x=8; (६३-६)x७=५५८ सानत्कुमार स्वर्ग के श्रेणीबद्धों का प्रमाण है। ४१=३; (३१-३)x७=१९६ माहेन्द्र , , , , *'४४ - ६; (१६–६) ४४-३६० ब्रह्मब्रह्मोत्तर , . , Os'x४-२; (२०-२)४२-१५६ लान्तव कापिष्ठ , '४४=0; (७२-०}x१-७२ शुक्रमहाशुक्र । 'F' ४४=="; (६८-०) x १ = ६८ शतार सह .. Fx४= १०; (६४-१०) x ६- ३२४ मानतादि ४ . . . Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ ] सिद्धांतसार दीपक '÷'४४=४; (४०– ४) ४३ - १०८ प्रधो वैयक ३३'४४=४; (२८ - ४ ) x ३ = ७२ मध्य '='X४=४; (१६– ४ ) ४३ = ३६ 'इ' ×४=*; (४–०१x१ = ४ अब प्रकोक विमानों का स्वरूप और प्रवस्थान कहते हैं: " उपरिम, अनुदिशों ני 73 12 Pr श्रेणीबद्धान्तरेषु स्युश्चतुविदिक्षु सर्वतः । इन्द्रकाः श्रेणिसम्बन्धक्रमहीना इतोऽमुतः ||६४ ॥ प्रकीर्णक विमानाश्च पुष्पप्रकीर्णका इव । पञ्चानुत्तरसंज्ञे तथाधोरां नेयकत्रये ॥ ६५ ॥ प्रकोरक विमानानि न सन्त्यन्येषु सन्ति च । एकोनधिसंख्येषु तेषु प्रकीर्णकाः ||६६ || "J " +3 " it 13 ܪ " 17 " 32 73 簽 " " — अर्थः- अहो ! श्रंणीबद्ध के अन्तरालों की चारों विदिशाओं में सब ओर इन्द्रक मौर श्रेणीबद्ध के सह क्रम से रहित पुष्पों के सरा यत्र तत्र स्थित विमानों को प्रकीर्शक विमान कहते हैं । पाँच अनुत्तर ( के एक पटल ) में और अधोग्रैवेयक ( के सुदर्शन, अमोध और सुप्रबुद्ध इन तीन पटलों में कोक विमान नहीं होते । शेष [ ६३ – (३+ १ ) ] = ५६ पटलों में प्रकीर्णक विमान होते हैं ।।६४-६६ ।। पुनरमीषां इन्द्रकणीबद्ध प्रकोरक विमानानां पृथक् पृथक् संख्या निगद्यतेः संख्यासंख्यविष्कम्भाश्च सौधर्मेन्द्रका एकत्रिशत् । श्रेणीबद्धाः एक सप्तत्यग्र त्रिचत्वारिंशच्छतानि । प्रकोंका : एकत्रिशल्लक्ष पञ्चनवतिसहस्र पश्चशताष्टानवति प्रमाः स्युः । ऐशानस्वर्गे इन्द्रकाः शुन्यं । श्र ेणीबद्धाः सप्तपञ्चाशदधिक चतुर्दशशतानि । प्रकोरकाः सप्तविंशतिलक्षाष्टानव तिसहस्रपञ्चशत त्रिचत्वारिंशत् प्रमाणाः सन्ति । सनत्कुमारे इन्द्रकाः सप्त । श्र ेणीबद्धाः अष्टाशीत्यग्रपश्वशतानि । प्रकीर्णकाः एकादशलक्ष नवनवति सहस्रचतुःशतपश्वसंख्या: भवन्ति । माहेन्द्रे इन्द्रकाः शून्यं ( नास्ति ) | श्रेणीबद्धाः षण्णवत्यप्रशतप्रमाश्च । प्रकीर्णकाः सप्तलक्षनवनवति सहस्राष्टशतचतुः प्रमाणाः सन्ति । ब्रह्मस्वर्गे इन्द्रकाश्चत्वारः श्रीबद्धाः सप्तत्यये द्वे शते । प्रकीर्णकाः द्विलक्षपवनवति सहस्र सप्तशत षडविंशतिसंख्या: स्युः ब्रह्मोत्तरे श्र ेणीबद्धाः नवतिरेव । प्रकीर्णकाः एकलक्ष Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचदशोऽधिकारः [ ५१५ त्रिसहस्रनवरातशत्रनि । सइन्द्रको हो । श्रेणीबद्धाः सप्तदशायं शतं । प्रकीर्णकाः चतुविशति सहस्रनवशत त्रयोविंशति संख्याः स्युः । काविष्टे श्र सीबद्धाः एकोनचत्वारिंशत् । प्रकीर्णकाः विशति सहस्रनवशकोनविंशति प्रमाः सन्ति । शुक्रे इन्द्रक एकोस्ति । श्रेणीबद्धाः चतुःपश्चाशत् प्रकीर्णकाः एकोनविंशतिसहस्रनषशतपश्वषष्टि संख्याः सन्ति । महाशुक्रे श्ररणीबद्धा प्रष्टादश । प्रकीर्णकाः एकोनविंशति सहस्र नवशतद्विषष्टि प्रमाणाः स्युः । शतारस्वर्गे इन्द्रकः एकः । श्रेणीबद्धाः एकपञ्चाशत् । प्रकीर्णकाः द्विसहस्रनवशतषट्षष्टिप्रमिताः भवन्ति । सहस्रारे श्रेणीबद्धाः सप्तदश । प्रकीर्णकाः द्विसहस्रनवशतपञ्चषष्टिसम्मिताः स्युः । श्रानतप्रापतयोः इन्द्रकाः त्रयः । श्रेणीबद्धाः श्रशीत्यधिकशतं । प्रकीर्णकाः सप्तपञ्चादग्रे द्वे शते । प्रारणाच्युतयोः इन्द्रकास्त्रयः । श्रेणीबद्धाः चतुश्चत्वारिंशद्युतं शतं । प्रकीर्णकाः त्रयोदशाग्रशतं । प्रधी वेयकत्रिषु इन्द्रकास्त्रयः । श्रेणीबद्धाः अष्टोत्तर शतं । प्रकीर्णकाः शून्यं । मध्यन वेयक त्रिषु इन्द्रकास्त्रयः । श्रेणीबद्धाः द्वासप्ततिः । प्रकीर्णका: द्वात्रिंशत् । ऊर्ध्व वैयत्रिषु इन्द्रकास्त्रयः । श्रशीबद्धाः त्रिंशत् । प्रकीर्णकाः द्विपञ्चाशत् । नवानुदिशे एकेन्द्रकः । श्र ेणीबद्धाश्चत्वारः । प्रकीर्णकाश्चत्वारः । पञ्चानुत्तरेन्द्रक एकः । श्रणीबद्धाश्वश्वारः । अर्थः-- प्रत्येक स्वर्ग के इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीरणंक विमानों की पृथक् पृथक् संख्या कहते हैं । ( श्रङ्क तालिका अगले पृष्ठ पर देखें ) Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१६ ] क्रमांक स्वर्गों के नाम १ २ ३ 製 ε १० ११ १२ १३ १४ १५ १६ सिद्धान्तसार दीपक उपर्युक्त संस्कृत गद्य का सम्पूर्ण अर्थ निम्नाति तालिका में निहित है । १७ १५ १६ सौधर्म ऐशान सानत्कुमार माहेद्र ब्रह्म ब्रह्मोत्तर लालब कापिष्ट शुक्र महाशुक्र शतार सहस्रार धानत-प्राणत धारण-व्युत मधो वैयक मध्यर्थ देवक वैयक अनुदिश अनुसर विमानों की संख्या इन्द्रक सं० श्रेणीबद्धों को सं० प्रकीकों की सं० ३२००००० २५००००० १२००००० 500000 २९६००० १०४००० २५०४२ २४९४८ २००२० १९९५० २०१६ २९८१ **p २६० १११ . ११ ││ - ――― T २१ + to ७ + D + ४ + o 4 २ + + १ + + o १ + + ३ + ३ + ३ + ३ + १+ १ + ? + ४३७१ १४५७ = ५६८ - १९६ २७० ६० = ११७ = ३१ = ५४ = १५ = ५१ = १७ १५० १४४ - १०८ ७२ S B ३६ = ४ Y = ३१९५४९० २७९६५४३ ११२९४०५ UE5OY २९५७२६ १०३९१० २४९११ २४९१९ १९९६५ १९९६२ २९६६ २९६५ २५७ ११३ ३२ १२ Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचदशोऽधिकारः [ ५१७ पब इन्द्रक श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक विमानों के प्रमाण का कथन करते हैं: संख्ययोजनविस्तारा इन्द्रकाः सकला मताः । भी पीवता संस्मातकोतीयोजन विस्तराः ॥६७।। केचित्प्रकीर्णकासंख्य कोटोयोजन विस्तृताः । केचिदसंख्यकोटीन योजनविस्तरान्विताः ॥६॥ अच्युतान्तस्थ सर्वेषां विमानानां हि पञ्चमः । भागः संख्येय कोटिप्रमाणयोजनविस्तृतः ।।६६॥ ततः शेषा हि चत्वारो भागाः सर्वेषु सन्ति च । विमानानामसंख्यातकोटीयोजनविस्तराः ॥७॥ संख्यातयोजनध्यासा अधोग वेयक त्रये । सन्तोन्द्रक विमानास्त्रयः श्रेणीमध्यभागगाः ॥७१॥ अष्टादशविमानाः स्युर्मध्यनवेयक त्रिके । संख्ययोजनविष्कम्भाः प्रकीर्णकेन्द्रकोभयोः ॥७२॥ संख्येययोजनध्यासाः ऊर्ध्वग्र वेषक त्रये । स्युः सप्तदशसंख्याना विमानारत्नशालिनः ॥७३।। नयातुविशसंझे च पञ्चानुत्तरनामनि ।। संख्ययोजनविस्तार एकक इन्द्रकः पृथक् ।।७४॥ एतेभ्यो ये परे सन्ति श्रेणीबद्ध प्रकीर्णकाः । ते सर्वे स्युरसंख्यातकोटीयोजन विस्तृताः ।।७।। अर्थः-समस्त इन्द्रक विमान संख्यात योजन बिस्तार वाले और श्रेणीबद्ध विमान असंख्यात योजन कोटि विस्तार वाले हैं ।।६७।। प्रकीर्णक विमानों में से कुछ प्रकीर्णक संख्यात करोड़ योजन विस्तार बाले और कुछ प्रकीर्णक असंख्यात कोटि योजन विस्तार वाले हैं ॥६॥ सौधर्म स्वर्ग से अच्युत स्वर्ग पर्यन्त के कल्पों में अपनी अपनी विमान राशि के पांचवें भाग प्रमाण विमान संख्यात करोड़ योजन विस्तार वाले हैं, इनसे अवशेष विमान असंख्यात करोड़ योजन विस्तार वाले हैं। अथवा अपनी अपनी राशि के वे भाग प्रमाण विमान प्रसंख्यात करोड़ योजन विस्तार वाले हैं। जैसे—सौधर्म कल्प की कुल विमान राशि ३२०००००-६४०००० संख्यात योजन व्यास बाले Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्तसार दोपक २५६०००० असंख्यात यो० न्यास वाले हैं । अथवा ३२००६°oxv==२५६०००० विमान असंख्यात यो० व्यास वाले हैं |७०।। तीनों अधोग्रेवेयकों में श्रेणीबद्ध विमानों के मध्य अवस्थित रहने वाले तोन इन्द्रक विमान संख्यात योजन विस्तार वाले हैं ॥७१।। तीनों मध्यम वेयकों में इन्द्रक और प्रकीर्णक दोनों मिला कर १८ विमान संख्यात योजन विस्तार वाले हैं ।।७२।। तीनों ऊर्ध्व ग्रंवेयकों में रत्नमई १७ विमान संख्यात योजन विस्तार वाले हैं ॥७३॥ नव पनुदिशों और पञ्चानुत्तरों में जो एक-एक इन्द्रक हैं, वे ही संख्यात योजन विस्तार वाले हैं ॥७४।। संख्यात योजन व्यास वाले प्रकीर्णकों से रहित अन्य प्रकीर्णक और सर्वश्रेणीबद्ध विमान प्रसंख्यात कोटि योजन विस्तार वाले हैं ।७५|| . अब इसी अर्थ को विशेष रूप से पृथक् पृथक् दर्शाते हैं: सौधर्म विमाना षड्लक्षचत्वारिंशत् सहस्रा: संख्येय योजनविस्ताराः । पञ्चविंशतिलक्षषष्टिसहस्राः असंख्येय कोटीयोजनव्यासाश्च । ईशानकल्पे विमानाः पञ्चलक्षषष्टिसहस्राः संख्यात योजनविष्कम्भाः । द्वाविंशतिलक्षचत्वारिंशत्सहस्राः असंख्यात कोटियोजन विष्कम्भाः । सनत्कुमारे विमानाः द्विलक्षचत्वारिंशत्सहस्राः संख्यात योजन विस्तृताः । नबलक्षषष्टिसहस्रा: असंख्यातयोजनकोटिविस्तृताश्च । माहेन्द्रे विमानाः एकलक्षष्टिसहस्राः संख्यातयोजनविस्तारा: । षड्लक्षचत्वारिंशत्सहस्राः असंख्यातकोटियोजनविस्तारा: 1 ब्रह्मन्नरोत्तरयोविमानाः अशीतिसहस्राः संख्ययोजनब्यासाः । त्रिलक्षविशतिसहस्राः असंख्य कोटीयोजनव्यासा: । लान्तवकापिष्टयोदशसहस्रविमानाः संख्यातयोजनविष्कम्भाः । चत्वारिंशत्सहस्रविमानाः असंख्यातकोटियोजनविष्कम्भाः। शुक्रमहाशुक्रयोः प्रष्टसहस्रविमानाः संख्येषयोजन विस्ताराः । द्वात्रिंशत्सहस्रविमानाः असंख्येयकोटीयोजन विस्ताराः । शतारसहस्त्रारयोः द्वादशशतविमानाः संख्ययोजनधासाः । अष्टचत्वारिशच्छत विमाना: असंख्ययोजनकोटिव्यासाः। प्रानतप्राणतयोः अष्टाशीतिविमानाः संस्थातयोजनविष्कम्भाः । विशतद्विपञ्चाशद्विमाना: असंख्यातकोटीयोजनविष्कम्भाः। पारणाच्युतयोः द्विपञ्चाश द्विमानाःसंख्यातयोजनध्यासाः । अष्टायद्विशतविमाना: असंख्यकोटीयोजनव्यासाः । अधोवेयकत्रिकेविमानास्त्रयः संख्येययोजनविस्ताराः । अष्टोत्तरशतं असंख्येययोजनकोटि विस्ताराः । मध्यग्नैवेयकत्रये अष्टादश विमानाः संख्यातयोजनविस्तारा: नवाशीति विमानाः प्रसंख्यातयोजनकोटिविस्ताराः । ऊर्ध्व ग्रंबेयकत्रिकेसातदक्षा विमानाः संख्ययोजनविष्कम्भाः । चतुःसप्ततिविमानाः असंख्यकोटीयोजन विष्कम्भाः । नवानुदिशपटले विमानक; संख्ययोजनविस्तारः । अष्टौविमानाः असंख्ययोजनकोटीविस्ताराः । पञ्चानुत्तरे एको विमानः संख्यातयोजनविष्कम्भः । चत्वारो विमाना: असंख्यातकोटियोजनविष्फम्भाः। Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थान संख्या ሂ ६ ८ al & १० ११ पंचदशोऽधिकार ――― उपर्युक्त गद्य का सम्पूर्ण अयं निम्नलिखित तालिका में निहित है: क्रमांक २ ३ ४ ५. १७ ८ £ १४ स्वर्ग पटल श्रानतादि २ १० आरण-अच्युत ११ तीनों अधोवे० 10 १२ तीनों मध्य १३ सौधर्म ऐशान सानत्कुमार माहेन्द्र ब्रह्म ब्रह्मोत्तर लान्तव कापिष्ठ शुक्र महाशुक शतार-सह० १५ " तीनों उपरि, नव अनुदिश पंच अनुत्तर इन्द्रक + संख्यात० वाले प्रकीर्णक = संख्यात कोटि योजन वाले विमानों का कुल प्रमाण ३१+६३९९६९= ६४०००० ५६०००० प्रकीक ७ + २३९९९३-२४०००० १६०००० प्रकीर्णक ४+७६६६६८०००० २+६६६६= १०००० १+७९९९८००० १ + ११६९ = १२०० ३+८५६६ १+४९=५२ ३+३ ३+१५-१८ ३+१४=१७ १ + ० = १ १+०= १ श्रेणीबद्ध + श्रसंख्यात० वाले प्रकीर्णक प्रसंख्यात कोटि योजन बाले विमानों का कुल प्रमाण [ ५१९ ४३७१+२५१५६२९ = २५६०००० (१४५७+ २२३८५४३ ) = २२४०००० (५८८ + ६५६४१२ ) = १६०००० ( १९६+६३६००४) = ६४०००० (३६० + ३१९६४० ) = ३२०००० (१५६ + १६८४४) = ४०००० (७२ + ३१९२८) = ३२००० {६८+४७३२) =४८०० ( १८० + १७२ ) = ३५२ (१४४ + ६४) = २०८ (805+0)=?05 ( ७२+१७) = ८९ (३६ + ३८) =७४ (४+४) == (४+ ०) = ४ Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२. ] सिंहासार दीपक अब विमानों के आधार-स्थान का निरूपण करते हैं:-- सौधर्मेशानयोः षष्टिलक्षसंख्याविमानकाः । जलापारेण तिष्ठन्ति शाश्वता नमसि स्वयम् ॥७६।। सनरकुमारमाहेनयोदिमाना विवौकसाम् । सम्ति-विंशतिलक्षाः खे वाताधारण केवलम् ॥७७॥ ब्रह्मादिकसहस्त्रारान्ताष्टानां स्युविमानकाः । वण्णवतिसहस्रान चतुर्लक्षप्रमाणकाः ॥७॥ जलवातद्वयाधारेणैव व्योम्नि मनोहराः । शेषानतादिकल्पानां चतुर्णा च विमानकाः ॥७६।। ग्रंयकाविपश्चानुत्तरान्तानां भवन्ति खे। निराधारास्त्रयो विशाग्रसहस्रप्रमाः स्वयम् ॥८॥ ...: अर्थ:-सौधर्मेशान कल्प' के (३२ लाख+२८ लाख)= ६० लाख विमान प्रकाश में स्वयमेव जल के प्राधार अवस्थित हैं ॥७६॥ सानत्कुमार-माहेन्द्र स्वर्गस्थ देवों के ( १२ लाख+८ लान) -२० लाख विमान आकाश में मात्र वायु के प्राधार अवस्थित हैं ॥७७|| ब्रह्म स्वर्ग से लेकर सहस्रार स्वर्ग पर्यन्त अर्थात् माठ स्वर्गों के अति मनोज्ञ (४०००००+ ५००००+ ४०००० + ६०००) -४६६००० विमान याकाश में जल-वायु ( उभयाघार ) के प्राधार अवस्थित हैं । शेष आनतादि चार कल्पों के, नवग्रं वेयकों के नव अनुदिशों के और पांच अनुत्तर विमानों के (७००+१११+१.७ +६१+t+५)= १०२३ विमान निराधार हैं । अर्थात् शुद्ध प्राकाश के आधार ही अवस्थित हैं ।।७८-८०॥ अब स्वर्गस्थ विमानों के वर्ण का विवेचन करते हैं: कृष्णनीलास्तथा रक्ताः पीताः शुक्ला इति द्वयोः । सौधर्मशानयोः पञ्चवर्णा विमानतद्गृहाः ।।१।। नीला रक्तास्तथा पीताः शुक्ला इमे विमानकाः । सनत्कुमारमाहेन्द्रयोश्चतुवर्णभूषिताः ॥२॥ रक्ता पीताः सिता एते त्रिवर्णाश्च विमानकाः । • ब्रह्मादिकचतुर्णास्युर्विश्याः प्रासादपङ्क्तयः ॥३॥ Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचदशोधिकार | शुक्रादीनां चतुर्णां स्युः पीताः शुक्ला शेषानतादि कन्पेषु सर्व वेयकादिषु ||८४|| विमानकाः । केवलं शुक्ल वर्णा विमानप्रासादपङ्क्तयः । स्फुरद्रत्नांशु संघातैरुचोलित दिशाम्बराः ||८५॥ अर्थः- सौधर्मेशान इन दो स्वर्गों के एवं उनमें वह करे नीले, पीले श्री श्वेत अर्थात् पञ्च वर्ण वाले हैं ।। ८१ ॥ सनत्कुमार माहेन्द्र कल्प के विमान कृष्ण के विना धार वर्ण के अर्थात् नीले, लाल, पीले और श्वेत वर्ण के हैं ॥५२॥ ब्रह्मब्रह्मोत्तर-लांतन और कापिष्ट स्वर्ग के विमान एवं दिव्य प्रासाद पंक्तियाँ लाल, पीले और श्वेत इस प्रकार तीन वर्ण वाले हैं ||५३ || शुक्र - महाशुक्र, शतार और सहस्रार इन चार स्वर्गो के विमान पीत और शुक्ल वर्ण के हैं। इसके आगे शेष श्रान्त आदि कल्पों में, सर्व ग्रेयकों में, नव अनुदिशों में और पाँच अनुत्तरों में देदीप्यमान रत्नों की किरणों के समूह से नभमण्डलस्थ दिशाओं को प्रकाशित करने वाली विमान एवं प्रासाद पंक्तियाँ मात्र शुक्ल वर्ण की हैं ।।८३-८५ ।। [ ५२१ . सर्व श्रेणिविमानार्थ स्वयम्भूरमणोपरि । द्वीपान्धीनां ततोऽन्येषामर्धिषुपरिस्थितम् ॥ ८६ ॥ अब प्रथम इन्द्रक के एक दिशा सम्बन्धी श्रेणीबद्ध विमानों का श्रवस्थान कहते हैं: - श्रर्थः - सर्व श्र ेणीबद्ध ( ऋतु इन्द्रक की एक दिशा गत ६२ श्र ेणीबद्ध ) विमानों का प्र भाग (३१) स्वयम्भूरमण समुद्र के ऊपर अवस्थित है। तथा शेष प्र ( ३९ ) भाग का प्र अ भाग स्वयम्भूरमण समुद्र से अर्वाचीन द्वीप समुद्रों के ऊपर अवस्थित है || ६६ ॥ श्रस्यविस्तारमाहः I एकत्रिशछणीबद्ध विमानानि स्वयम्भूरमणाम्बुधेरुपरि तिष्ठन्ति । षोडश विमानानि स्वयम्भूद्वीपस्योपरि सन्ति । अष्टी विमानास्ततोऽभ्यन्तरस्थवारिधेरुपरिभवन्ति । चत्वारो विमानास्तदन्तः स्थित द्वीपस्योपरि स्युः । द्व े विमाने तदभ्यन्तरभागस्थाम्बुवेरुपरि तिष्ठतः । विमानंकमसंख्पद्वीपवार्धीनामुपरि तिष्ठति । ऋजु विमानं नरक्षेत्रस्योपरि तिष्ठेत् । अर्थ :- ऋतु इन्द्रक विमान की एक दिशा में ६२ श्रीबद्ध विमान हैं, इनके श्राधे (३१) बणीबद्ध विमान स्वयम्भूरमण समुद्र के उपरिम भाग में अवस्थित हैं । १६ श्रेणीबद्ध विमान Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ ] सिद्धान्तसार दीपक स्वयम्भूरमण द्वीप के ऊपर स्थित हैं । ८ श्रेणीबद्ध स्वयम्भूरमणद्वीप के अभ्यन्तर भाग में स्थित अहीन्द्रवर समुद्र के ऊपर अवस्थित हैं। ४ श्रेणीबद्ध उस समुद्र के अभ्यन्तर भाग में स्थित अहीन्द्रया द्वीप के ऊपर हैं। दो श्रेणीबद्ध अहोन्त्रवर द्वीप के अभ्यन्तर भाग में स्थित देववर समुद्र के ऊपर हैं, और अवशेष एक श्रेणीबद्ध विमान [ देववर द्वीप से लेकर बाह्यपुष्कराध द्वीप पर्यन्त ] असंख्यात द्वीप-समुद्रों के ऊपर अवस्थित है, तथा प्रथम ऋतु इन्द्रक विमान मनुष्य क्षेत्र अर्थात् जम्बूद्वीप, लबरण समुद्र, धातकी खण्ड, कालोदधि समुद्र और मानुषोत्तर के पूर्व प्रघं पुष्कर वर दीप के ऊपर अवस्थित है यथा-- स्वयं. समुद्र के ऊपर ] स्वयं. दीप ।के ऊपर ग्रहीन्द्रवर समुद्र प्रहीन्द्रवर द्वीप ] देववर समुद्र । प्रसंख्यात र क्षेत्र-प्रदाई | केसपर । के ऊपर के ऊपर | द्वीप+समुद्र । बीप के ऊ. ३१ घेणीबद्ध | १६ श्रेणीबद्ध | ८ श्रेणीबद्ध | ४ श्रेणीबद्ध | दो श्रेणोबस | १ श्रेणीबद्ध | ऋतु इन्द्रक प्रब दक्षिोन्द्र और उत्तरेन्द्र के इन्द्रक, श्रेणीबद्ध एवं प्रकीर्णक विमानों का । विभाग दर्शाते हैं:-- - स्वामी च दक्षिणाशायाः पूर्वपश्चिमयोविंशोः । श्रेणीबद्ध विमानेषु ह्यग्निनैऋत्यकोणयोः ।।७।। प्रकीर्णकविमानेषु सौधर्मेन्द्रो महान भवेत् । सर्वेषु पटलेष्वेवं सौधर्मशान कल्पयोः ॥८॥ पतिरस्त्युत्तरश्रेण्या वायव्येशानयोदिशोः । श्रेणीबद्धप्रकोणेषु चैशानेन्द्रोऽमरावृतः ॥१६॥ इत्येवं स्याविमानानां स्वामित्वं च पृथक पृथक् । सनत्कुमारमाहेन्द्रकल्पनायकयोयोः ॥६॥ ब्रह्मन्द्राद्याश्चत्वारश्चतुर्युग्मेषु नायकाः | चतुःश्रोणिविविक सर्वविमानानां भवन्ति च ॥१॥ Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचदशोऽधिकारी मानतेन्द्रादयः शेषारचातुः कम्पेषु नायकाः । ज्येष.णिविदिग् द्वि द्वि विमानानां च पूर्ववत् ।।६२॥ अर्थ:-सोधर्मेशान कल्प के सर्व पटलों सर्व इन्द्रक (३१), पूर्व, दक्षिण और पश्चिम दिशा, माग्नेय एवं वायव्य विदिशा सम्बन्धी सर्व (४३७१) श्रेणीबद्ध विमानों एवं सर्व प्रकीर्णक विमानों में सौधर्मेन्द्र का ही स्वामित्व है । अर्थात् इनमें सौधर्म इन्द्र की प्राज्ञा का प्रवर्तन होता है ।।८७-८८।। उत्तर दिशा सम्बन्धी और वायव्य एवं ईशान कोण सम्बन्धी श्रेणीबद्धों एवं प्रकीर्णक विमानों में ईशान इन्द्र का स्वामित्व है ।।८६। इसी प्रकार सानत्कुमार-माहेन्द्र कल्पस्थ विमानों में सनत्कुमार माहेन्द्र इन्द्रों का पृथक् पृथक् स्वामित्व है ॥६॥ ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर, लान्तव-कापिष्ट, शुक्र-महाशुक्र और शतार-सहस्रार इन चार युगल सम्बन्धी इन्द्र क, चारों दिशा विदिशा सम्बन्धी श्रेणीबद्धों और प्रकीर्णक विमानों के स्वामी ब्रह्म, नान्तव, शुक्र और शतार नाम के चार इन्द्र हैं ॥१॥ मानत आदि दो कल्पों में पूर्व, दक्षिण और पश्चिम इन तीन दिशाओं के प्राध्नेय और वायव्य इन दो विदिशाओं के श्रेणीबद्धों एवं प्रकीर्णक विमानों का स्वामी प्रागत इन्द्र है, तथा उत्तर दिशागत, वायव्य ईशान कोण गत श्रेणीबद्धों एवं सर्व प्रकीर्णक विमानों का स्वामी मानत नाम का इन्द्र है । अर्थात् स्वामित्व की जो व्यवस्था प्रथम युगल में है, उसी प्रकार यहां जानना चाहिए ॥२॥ अब इग्न स्थित श्रेणीबद्ध विमानों का कथन करते हैं: वसतश्चादिकल्पेशाबन्तिमे पटले निजे । प्रष्टादशे विमाने हि दक्षिणोत्तरयोविंशोः ।।६।। सनकुमारमाहेन्द्री तिष्ठतः पटलेऽन्तिमे । विमाने षोडशे श्रेण्योदक्षिणोत्तर भागयोः ॥४॥ ब्रह्मन्द्रो दक्षिणाशायां चरमे पटले बसेन । मुदा चतुर्वशे विव्ये श्रेणीबद्ध विमानके ॥६५॥ तिष्ठेद्दक्षिणविभागे द्वितीये पटलेऽनिशम् । लान्तवेन्द्रो विमाने द्वादशमे स्त्रोतुरावृतः ॥६६॥ शुक्रेन्द्रो वशमे रम्ये विमाने वसति स्वयम् । दक्षिणरिणभागस्थ पटलस्यामरैः समम् ॥१७॥ शतारेन्द्रो वसेत्साधं देव्याः पटले निजे। दक्षिणीणि सम्बन्ध विमाने प्रवरेकमे 18| Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ ] सिद्धान्तसार दीपक प्रानतेन्द्रादयः शेषाइयत्वारा पटलेंन्तिमे | दक्षिणोत्तरविक् श्रेण्योः सन्ति षष्ठे विमानके ॥६॥ अच्युतस्वर्गपर्यन्तमिन्द्राः सन्ति पृथक् पृथक् । अहमिन्द्रस्ततोऽप्यूर्वे सर्वेन वेयकादिषु ।।१००॥ अर्थ:--प्रथम युगल के प्रभ नामक अन्तिम पटल की दक्षिण दिशा में स्थित १८ वें श्रेणीबद्ध विमान में सौधर्म इन्द्र रहता है, और इसी पटल की उत्तर दिशा गस १८ वें श्रेणीबद्ध विमान में ईशान इन्द्र निवास करता है ।।६३॥ द्वितीय युगल के चक्र नामक अन्तिम पटल की दक्षिण दिशा गत १६ वें श्रेणीबद्ध में सनत्कुमार इन्द्र और इसी पटल को उत्तर दिशा गत १६ वें श्रेणीबद्ध में माहेन्द्र इन्द्र निवास करता है ।।१४।। तृतीय युगल के मझोलर नाम अन्तिम पटल को दक्षिण दिशा गत १४ ३ श्रेणीबद्ध विमान में ब्रह्मोत्तर नाम इन्द्र का अवस्थान है ।।६५|| चतुर्थ युगल के लान्तव नामक द्वितीय ( अन्तिम ) पटल की दक्षिण दिशागत १२ वें श्रेणीबद्ध विमान में लान्तव इन्द्र अपनी देवांगनाओं और अन्य देवों से वेष्ठित लान्तव इन्द्र निरन्तर निवास करता है ॥९६|| पंचम युगल के शुक्र नामक पटल की दक्षिण दिशागत १० वें श्रेणीबद्ध विमान में अन्य देव गणों के साथ शुक्र इन्द्र निवास करता है ।।१७।। षष्ठ युगल के शतार पटल की दक्षिण दिशागत ८ वे श्रेणीबद्ध विमान में अनेक देव देवियों के साथ इतार इन्द्र निवास करता है ।।१८।। सप्तम और अष्टम युगल के मानत पटल की दक्षिण दिशागत ६ ३ श्रेणीबद्ध में पानत इन्द्र और उत्तर दिशागत ६ वें श्रेणीबद्ध में प्रारणत इन्द्र रहता है, तथा प्रारण पटल की दक्षिण दिशागत ६ ३ श्रेणीबद्ध में प्रारण इन्द्र और इसी पटल की उत्तर दिशागत ६ वै श्रेणीबद्ध विमान में अच्युत इन्द्र निवास करता है ।।६६॥ अच्युत स्वर्ग पर्यन्त ही पृथक् पृथक् इन्द्र हैं। इन फल्पों के ऊपर प्रेयेयक प्रादि सर्व विमानों में सभी अहमिन्द्र हैं ॥१०॥ अब सौधर्मादि देवों के मुकुट चिन्हों का निरूपण करते हैं:--- अधुना मौलिचिह्नानि प्रवक्ष्यामि पृथक् पृथक् । सौधर्ममुख्यकम्पस्येन्द्रादिसर्वसुधाभुजाम् ॥११॥ सौधर्मे मुकुटे चिन्हं बराहोऽस्ति विधोकसाम् । ऐशाने मकरो मौलि चिन्हं च विस्फुरत्प्रभम् ॥१०२॥ सनकमारनाक स्यान्महिषो मौलिलाञ्छनम् । माहेन्द्रऽस्ति शकादीनां मत्स्यचिन्हं च शेखरे ॥१०३॥ Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचदशोऽधिकारा [ ५२५ ब्रह्मस्वर्गेऽमरेशाधीनां कच्छपोऽस्ति लाञ्छन । .. . ब्रह्मोत्तरे भवेभिचन्हं सुकुटे दर्दुरो महात् ।।१०४।। लान्तवे तुरगचिम्ह कापिष्टं च गजः शुमः । शुक्रेऽस्ति चन्द्रमा नागो महाशुक्रऽस्ति लाञ्छनम् ।।१०५॥ शतारे लाञ्छनं खड्गी स्थाविन्द्राद्यमृताशिनाम् । सहस्रारे भवेच्छागो मौलि चिन्हं दिवौकसाम् ।।१०६॥ प्रानतप्राणतस्वर्गयोश्चिन्हं वृषभोस्ति च । प्रारणाच्युतयोश्चिन्हं कल्पवृक्षः सुधाभुजाम् ॥१०७॥ अहमिन्द्रसमस्तानां मौलि चिन्हानि जातु न । वक्ष्ये ऽथात्रामरेशानां वाहनानि पृथक पृथक् ।।१०।। अर्थ :-अब मैं ( प्राचार्य ) सौधर्मादि कल्पस्थित सर्व देवों के मुकुट स्थित चिन्हों को पृथक पृथक् कहूँगा ॥१०१ । सौधर्म स्वर्गस्थ देवों के मुकुटों में वराह का चिन्ह तथा ऐशान स्वर्गस्थ देवों के मुकुटों में मगर का चिन्ह है ।।१०२॥ सनत्कुमार स्वर्ग के देवों के मुकुटों में महिष का चिन्ह और माहेन्द्र स्वर्ग स्थित इन्द्रादि देवों के मुकुटों में मत्स्य का लाञ्छन है ॥१०३|| ब्रह्म स्वर्ग स्थित देवों के मुकुटों में कछुए ( कच्छप ) का तथा ब्रह्मोत्तर स्वर्ग स्थित देवों के मुकुटों में मेंढ़क का चिन्ह है ॥१०४।। लान्तव स्वर्ग स्थित देवों के घोड़े का कापिष्ट स्वर्ग में हाथी का, शुक्र स्वर्ग में चन्द्रमा का और महाशुक्र स्थित देवों के दृकुटों का चिन्ह सर्प है ।।१०५॥ शतार स्वर्ग स्थित हन्द्रादि सर्व देवों के मुकुटों में खड्गो का और सहनार स्वर्ग स्थित देवों के मकुटों में बकरी का चिन्ह है ॥१०६॥ प्रानत-प्राणत स्वर्ग स्थित देवों के मुकुटों में बैल का तथा प्रारण-अच्युत स्वर्ग स्थित देवों के मुकुटों में कल्पवृक्ष का चिन्ह है ॥१०७।। कल्पातीत स्वर्गों में स्थित सर्व अहमिन्द्रों के मुकुटों में कोई भी चिन्ह नहीं हैं । अब मैं ( प्राचार्य ) सौधर्म प्रादि इन्द्रों के वाहनों का कथन करूंगा ॥१०॥ अब इन्द्रों के वाहनों का निरूपण करते हैं: सौधर्मे देवराजस्य गजेन्द्रो वाहनं महत् । ईशाने सुरगः स्यात्सनत्कुमारे मृगाधिपः ॥१०६॥ माहेन्द्र वृषभो ब्रह्मस्वर्गे सारसबाहनम् । अझोत्तरे पिकः प्रोक्तो लान्तवे हंसवाहनम् ॥११०॥ Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ ] सिद्धान्तसार दीपक कापिष्टे कोक एवास्ति शुक्र गरडवाहनम् । महाशुक्रे च देवानां मकरो वाहनं भवेत् ॥१११।। शतारे च मयूरः स्यात्सहस्रारेऽम्बुजं भवेत् । प्रानताविचतुष्केषु विमानं पुष्पकाह्वयम् ॥११२।। अर्थ:-सौधर्म स्वर्ग में इन्द्र का वाहन गजेन्द्र है, ईशान स्वर्ग में बोला, मसुमार स्वर्ग में सिंह, माहेन्द्र में बैल, ब्रह्म स्वर्ग में सारस, ब्रह्मोत्तर में कोयल, लान्तव में हंस, कापिष्ट में चक्रवाल, शुक्र में गरुड़, महाशुक्र में मगर, शतार में मयूर, सहस्रार में कमल और पानतादि चार स्वर्गों में कल्पवृक्ष का वाहन है ।।१०६-११२॥ प्रब दक्षिणेन्द्र-उत्तरेन्द्र के प्रमुख विमानों की चारों दिशाओं में स्थित विमानों के नामों का निरूपण करते हैं:-- स्वस्वेन्द्रविमानस्य स्वस्वकल्पायस्य च । स्युश्चत्वारि विमानानि पूर्वादि विक चतुष्टये ॥११३॥ प्राचं घड्यं साराख्यं रौप्यसाराभिधं ततः । अशोकसारसंक्षं च मिश्रसारमिमान्यपि ॥११४॥ पूर्वाधासु चतुर्दिा चत्वारः स्युबिमानकाः | सर्वेषां दक्षिणेन्द्राणां विमानानामनुक्रमात् ॥११॥ रुचकं मन्दरामिख्यमशोक सप्तपर्णकम् । चत्वारोऽमो विमानाः स्युः प्राच्यादि विक् चतुष्टये ॥११६॥ ईशानेन्द्रादि सर्वोत्तरेन्द्राणां क्रमत्तः परे । विमानानामयं शेयः क्रमोऽच्युतान्समञ्जसा ॥११७॥ अर्थ:--अपने अपने कल्प का नाम ही अपने अपने इन्द्र स्थित विमान का नाम है । इन्द्र स्थित विमान की पूर्व दक्षिण आदि चारों दिशाओं में क्रम से वैडूर्य सार, रौप्य सार (रजत), अशोक सार और मिश्र सार ( मृषत्कसार ) नाम वाले चार विमान अवस्थित हैं ॥११३-११४॥ सर्व दक्षिणेन्द्रों के विमानों की पूर्वादि चारों दिशाओं में अनुक्रम से उपर्युक्त नाम वाले चार चार विमान हैं ॥११॥ ईशान इन्द्र प्रादि सर्व उत्तरेन्द्रों के विमानों को पूर्वादि चारों दिशामों में अनुक्रम से रुचक, Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचदशोऽधिकारः [५२७ मन्दर, अशोक और सप्तपर्ण नाम के धार चार विमार है . दक्षिणेतरेन्द्रों को नागों की व्यवस्था क्रमशः अच्युत कल्प पर्यत जानना चाहिए ।।११६-११७।। अब विमानों के तल बाहुल्य (मोटाई) का निरूपण करते हैं: षट् युग्मशेषकल्पेषु प्रधेयकत्रिक त्रिषु । शेषेषु च विमानानां तलबाहुल्यमुच्यते ॥११८।। योजनान्येकविंशाग्नशतान्येकावशक्रमात् । ततो नवनवत्या होनान्युपर्यु परिस्फुटम् ॥११६।। अर्थ:-सौधर्मादि छह कल्पों में, अवशेष पानतादि चार कल्पों में, अधो आदि तीन-तीन अंबेयकों में तथा अन्य शेष अनुदिशों प्रादि में स्थित विमानों का तल बाहुल्य कहते हैं ॥११॥ सौधर्म स्वर्ग स्थित विमानों का तल बाहुल्य ११२१ योजन प्रमाण है, इसके बाद ऊपर-ऊपर क्रमश: EL, CE योजन हीन होता गया है ।।११।। अस्य विशेषव्याख्यानमाहा---- सौधर्मशानयोविमानानां तलबाहुल्यं योजनानामेकविंशत्यधिकैकादशशतानि । सनत्कुमारमाहेन्द्रयोश्च द्वाविंशाग्रदशशतानि । ब्रह्मब्रह्मोत्तरयोस्त्रयो विशाग्रनवशतानि | लान्तवका पिष्टयोश्चतुविशत्यधिकाष्टयोजनशतानि । शुक्रमहाशुक्रयोः पञ्चविंशत्य प्रसप्तशतानि । शतारसहस्रारयोः षड्विशतियुतषट्शतानि । पानतप्राणतारणाच्युसानां विमानानामधस्तलबाहुल्यं सप्तविंशस्यग्रपञ्चशतयोजनानि । अधोग्रंवेयक त्रिषु विमानानां तलपिण्डबाहुल्यं योजनानामष्टाविंशत्यधिकचतुः शतानि । मध्यवेयक त्रिषु एकोनत्रिशदधिकत्रिशतानि च । ऊर्ध्वग्रेवेयक त्रिषु त्रिशद द्वे शते । भवानुदिशपञ्चानुत्तरयोविमानानां तलस्थूलता एक विशद प्रशतयोजनानि । अर्थः-उसी बाहुल्य का विशेष कथन करते हैं:-सौधर्मशान स्वर्ग स्थित विमानों के तल भागों की मोटाई ११२१ योजन, सानत्कुमार-माहेन्द्र स्थित विमानों के सल की मोटाई १०२२ योजन ब्रह्मब्रह्मोत्तर की १२३ योजन, लान्तव-कापिष्ट की ८२४ योजन, शुक्र-महाशुक्र की ७२५ योजन, शतार-सहस्रार की ६२६ योजन, आनत-प्राणत-पारण और अच्युत स्वर्गों की ५२७ योजन, तीन प्रधो वेयक स्थित विमानों की तल मोटाई ४२८ योजन, तीन मध्य ग्रंवेयकों की ३२६ योजन, तीन ऊध्र्वग्रंवेयकों के विमानों की तल मोटाई २३० योजन तथा नव अनुदिशों एवं पचोत्तर स्वर्ग स्थित विमानों के तल भागों को मोटाई १३१ योजन प्रमाण है। Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८ ] सिद्धान्तसार दीपक प्रब सौधर्मादि इन्द्रों के नगरों के विस्तार का कथन करते हैं:-- सौधर्मादि चतुःस्वर्ग चतुयुग्मेष्वतोऽग्रतः । शेषेषु चतुरस्त्राणां पुराणां वम विस्तरम् ।।१२०॥ प्रशीतिश्चतुरग्रा स्यात्सहस्राणामथोनता । घस्वार्यो सहस्राणि योजनानामनुक्रमात् ॥१२१॥ द्वे सहने ततोऽप्यूने शेषेषु च शोनता। प्रमोषां सुखबोधाय च्याल्यानं पुनरुच्यते ॥१२२॥ अर्थ:-सौधर्मादि चार स्वर्गों में, इनसे आगे के चार युगलों में और इसके आगे शेष मानतादि स्वर्गों में स्थित इन्द्रों के समचरन नगरों का विस्तार : हूँ ।।१२०॥ सोधर्मादि कल्पों में नगरों का विस्तार क्रमश: ८४ हजार योजन, बार हीन अर्थात् ८० हजार योजन, पाठ हजार योजन हीन अर्थात् ७२ हजार योजन, दो हजार होन अर्थात् ७० हजार योजन, शेष चार स्वर्गों में दश-दश हजार होन अर्थात् ६० हजार योजन, ५० हजार योजन, ४० हजार योजन और ३० हजार योजन है। शेष स्वर्गों में नगरों का विस्तार २०-२० हजार योजन प्रमाण है । सुगमता पूर्वक समझने के लिए अब इसी विषय का व्याख्यान पुनः किया जाता है ।।१२०-१२२।। सौधर्म नगराणां समचतुरस्राणां विष्कम्भः योजनानां चतुरशीति सहस्राणि । ऐशाने घाशीतिसहस्राणि । सनत्कुमारे द्वासप्ततिसहस्राणि । माहेन्द्रे सप्तति सहस्राणि । ब्रह्मब्रह्मोत्तरयोः पुराणां विस्तारः योजनानां षष्टिसहस्राणि । लान्तवकापिष्टयोश्च पञ्चाशत्सहस्राणि । शुक्रमहाशुक्रयोश्चत्वारिंशत्सहस्राणि । शतारसहस्रारयोस्त्रिशसहस्राणि । आनतप्राणतारणाच्युत्तेषु समचतुरस्रपुराणां व्यास: विशति सहस्र योजनानि । अर्थः-सौधर्म स्वर्ग स्थित चतुरस्र नगरों का विष्कम्भ ८४ हजार योजन, ऐशान स्वर्ग में ८० हजार योजन, सनत्कुमार स्वग में ७२ हजार योजन और माहेन्द्र स्वर्ग में ७० हजार योजन है। ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर युगल में स्थित नगरों का विस्तार ६० हजार योजन, लान्तव-कापिष्ट युगल में ५० हजार योजन, शुक्र-महाशुक्र युगल में ४० हजार योजन और शतार-सहस्रार युगल में ३० हजार योजन है । प्रानत-प्राणत-प्रारण और अच्युत स्वर्गों के चतुरस्र नगरों का व्यास २०-२० हजार योजन है। Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचदशोऽधिकारः अब उक्त नगरों के प्राकारों की ऊँचाई का प्रमाण कहते हैं: त्रिशतान्याद्ययुग्मे तत्प्राकाराणां समुच्छ्रयः । योजनानां त्रिनुग्मेषु पश्चाशत् पृथगूनता ॥ १२३ ॥ शहितानि च । षष्ठे युग्मे च षेषु हीनानि विंशतिः पृथक् ॥ १२४॥ [ ५२६ अर्थ :--- प्रथम युगल में प्राकारों की ऊँचाई ३०० योजन है, श्रागे के तीन युगलों में पृथकपृथक् ५०-५० योजन हीन है, पांचवें युगल में ३० योजन होन, छठवें युगल में और शेष (आनतादि स्वर्गो में पृथक् पृथक् २०-२० योजन होन है ।।१२३ - १२४॥ अब इसी ऊंचाई को विस्तार पूर्वक कहते हैं: श्रस्य विस्तरमाह :-- सोधर्मेशानयोः नगरस्थ प्राकाराणामुत्सेधः त्रिशतयोजनानि । सनत्कुमारमाहेन्द्रयोः सार्धं • द्विशतयोजनानि । ब्रह्मब्रह्मोत्तरयोर्योजनां द्वे शते । लान्तवकापिष्ठयो सार्वशतं । शुक्रमहाशुकयोः विशाग्रं शतं । शतारसहस्रारयोः प्राकारोदयः शतयोजनानि । श्राततप्राणतारणाच्युतकल्पेषु नगराणां प्राकारोत्सेधः प्रशीतियोजनानि । अर्थ :-- सौधर्मेशान कल्प में स्थित नगरों के प्राकारों की ऊँचाई ३०० योजन, सानत्कुमार माहेन्द्र कल्प स्थित प्राकारों की २५० योजन, ब्रह्मब्रह्मोत्तर में २०० योजन, लान्तव कापिष्ट में १५० योजन, शुक्र- महाशुक्र में १२० योजन, शतार- सहस्रार के प्राकारों की १०० योजन और प्रान्तप्रारणत-भाररण और अच्युत स्वर्गो में स्थित नगरों के प्राकारों की ऊँचाई ८०-८० योजन प्रमाण है । उन्हीं प्राकारों के गाघ ( नींव ) और व्यास का प्रमाण कहते हैं: षट्सु युग्मेषु शेषेषु सप्तस्थानेष्वितिक्रमात् । प्राकाराणां पृथग्ग्यासोऽवगाहश्चाभिधीयते ।। १२५ ।। योजनानां च पञ्चाशत्ततोऽर्धार्धं पृथक् त्रिषु । ततः क्रमेण चत्वारि त्रीणि सार्धे द्वि योजने ॥ १२६ ॥ Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३० ] सिद्धांतसार दीपक चतुस्त्रिद्वयसंगुण्यं शतषष्टयधिकं शतम् । विशत्या त्रिषु तद्धीन गोपुराणां समुन्नतिः ।।१२७।। योजनानां शतं ध्यासस्ततो बशोनता पृथक । विशोनं पञ्चमे स्थाने दशोनं च पृथक् द्वये ॥१२८॥ अर्थः-छह युगलों के यह स्थान और प्रबशेष मानतादि स्वर्गों का एक स्थान इस प्रकार ७ स्थानों में उपयुक्त प्राकारों के पृथक् प्रणम् नास मोर माह का मान कहते हैं ।।१२।। प्रथम युगल में प्राकारों की नींव और व्यास का प्रमाण ५० योजब प्रमाण है, उसके प्रागे तीन स्थानों में क्रमशः इसका प्राधा प्राधा है । पाँचवें स्थान का ४ योजन, छठवें स्थान का ३ योजन और सातवें स्थान का प्रमाण २३ योजन है ।।१२६।। सातों स्थानों के प्राकारों की चारों दिशामों में उनको ऊंचाई का प्रमाण कमश: ४०० योजन, ३०० योजन, २०० योजन, १६० योजन, १४. योजन, १२० योजन और १०० योजन है ।। १२७॥ इन्हीं सातों स्थानों के गोपुरों का विस्तार क्रमश: १०० योजन, ६० योजन, ८० योजन, ७० योजन, ५० योजन, ४० योजन और ३० योजन प्रमाण है ।।१२८|| अमीषां विशेषव्याख्यानमाहः-- सौधर्मेशानयोः प्राकाराणां विष्कम्भोवगाहश्च पश्चाशद्योजनानि । प्राकारस्थ गोपुराणामुत्सेधश्चतुःशतयोजनानि विष्कम्भः शतयोजनानि। सनत्कुमारमाहेन्द्रयोः प्राकाराणां व्यासोऽवगाहरचपञ्चविंशतियोजनानि । तद्गोपुराणामुदय: त्रिशतयोजनानि । विस्तारः नवतियोजनानि । ब्रह्मब्रह्मोत्तरयोः प्राकाराणां विस्तृतिः अवगाहन सार्घद्वादशयोजनानि । तत्प्रतोलीनां उत्सेधः द्विशतयोजनानि । विस्तृतिरशीतियोजनानि । लान्तवकापिष्टयोः प्राकाराणां विस्तारावगाही क्रोशाग्नषट्योजनानि । तद्गोपुराणामुदय: षष्टधप्रशतयोजनानि : विस्तारः सप्रतियोजनानि । शुक्रमहाशुक्रयोः प्राकाराणां व्यासोऽवगाहत्वं च चत्वारियोजनानि । तद्गोपुराणामुच्यायः चत्वारिंशदधिकशतयोजनानि । ध्यास: पञ्चाशद्योजनानि । शतारसहसारयोः प्राकाराणां विष्कम्भावगाही त्रीणियोजनानि । तद्गोपुराणामुदयः विंशत्यग्नशतयोजनानि । विष्कम्भः चत्वारिंशद्योजनानि । आनतप्राणतारणाच्यूतेषु प्राकाराणां विस्तारः गाहत्त्वं च साधंयोजन द्वे प्राकारस्थप्रतोलीनामुत्सेधः शतयोजनानि । व्यासः त्रिंशद्योजनानि । अर्थ:-अब इसी को विशेषता से कहते हैं Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचदशोऽधिकारः [ ५३१ उपर्युक्त गद्य का अर्थ निम्नाहित तालिका में निहित है । प्राकारों एवं गोपुरों का प्रमाण योजनों और भीलों में दर्शाया गया है। प्राकारों (कोट) का विवरण गोपुर द्वारों का प्रमाणादि ऊंचाई बाहुल्य गाध (नीव) को गहराई सत्सेध व्यास सात स्थान प्रमांक योजनों में मीलों में योजनों में भीलों में योजनों * योजनों में मोलों में पोजनों मोलों में सौधर्मशान * - सा०, मा० ब्रह्म-ब्रह्मो० लालका शुक्र-म. शतार-सह " --- ... मानतादि अब सौधर्मादि बारह स्थानों में गृहों को ऊँचाई, लम्बाई एवं चौड़ाई का प्रतिपावन करते हैं:-- षट्सु युग्मेषु शेषेषु ग्रंधेयकत्रिक त्रिषु । नवानुदिशिपञ्चानुत्तरे पृथग्गृहोदयः॥१२६॥ योजनां शतान्येव षट सतः शतपञ्चकम् । शता) तरणं शेषारणामन्ते पञ्चविंशतिः ॥१३०॥ हयारणामुदयस्यास्यायामोऽस्ति पञ्चमाशकः । विष्कम्भो दशमो भागः सर्वत्र व्यवस्थितिः ॥१३॥ अर्थ:-सौधर्मादि छह युगलों में अवशेष पानतादि स्वर्गों में, अधो, मध्य एवं उपरिम इन नव अनुदिशों में एवं पंचानुत्तरों में अर्थात् (६-५-१+३+१+१-) १२ स्थानों में गृहों की पृथक् Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ ] सिद्धांतसार दीपक पृयक ऊँचाई कहते हैं राप्रम युगल में गृहों की ऊंचाई ६०० योजन और दूसरे युगल में ५०० योजन है । इसके आगे ११ वें स्थान तक ५०-५० कम होते हुये क्रमशः ४५०, ४००, ३५०, ३००, २५०, २००, १५०, १०० और ५० योजन है । अन्तिम स्थान के गृहों की ऊँचाई २५ योजन है ॥१३०।। प्रत्येक स्थानों के गृहों की लम्बाई अपनी अपनी ऊँचाई का पांचवाँ ( १° = १२०) भाग है और प्रत्येक स्थानों के गृहों को चौड़ाई अपनी अपनी ऊँचाई का १० वा (१९६०) भाग प्रमाण है ।।१३.१।। जैसे:-लम्बाई क्रमशः १२० योजन, १००, ६०, ८०, ७०, ६०, ५०, ४०, ३०, २०. १०, और ५ योजन प्रमाण है । इसी प्रकार चौड़ाई क्रमशः ६०, ५०, ४५, ४०, ३५, ३०, २५, २०, १५, १०, ५, और २० योजन प्रमाण है। एतेषां उत्सेधायामविष्कम्भाः पृथक् पृथक् व्यासेन प्रोस्यन्ते:--- सौधर्मशानयोः प्रासादानामुत्सेधः षट्शसयोजनानि । आयाम: विंशत्यग्र शतयोजनानि, । विष्कम्भः षष्टियोजनानि । सानत्कुमारमाहेन्द्रयोः गृहाणा मुनयः पञ्चशतयोजनानि, दीर्थता शतयोजनानि, व्यास: पञ्चाशद्योजनानि । ब्रह्मब्रह्मोत्तरयोः सोधानामुन्नतिः साधंचतुःशतयोजनानि, थायाम: नवति योजनानि, विस्तृतिः पञ्चचत्वारिंशद्योजनानि । लान्तवकापिष्टयोः प्रासादानामुत्सेध: चतुःशतयोजनानि, पायामः अशीतियोजनानि, विस्तारः चत्वारिंशद्योजनानि । शुक्रमहाशुक्योः गृहाणामुन्नति: साविशतयोजनानि, दीर्घता सप्तति योजनानि, विष्कम्भ : पञ्चत्रिशद्योजनानि । शतारसहस्रारयोः प्रासादानामुदयः त्रिंशतयोजनानि, आयाम: षष्टि योजनानि, व्यासः त्रिशद्योजनानि मानतप्राणतारणाच्युतेषु हाणामुत्सेधः साधंद्विशतयोजनानि, पायामः पञ्चाशद्योजनानि, विस्तारः पञ्चविंशतियोजनानि । अधोग्नवेयक विषु प्रासादानामदय: द्विशतयोजनानि, दीर्घता चत्वारिंदातयोजनानि, विष्कम्भः विशति योजनानि । मध्यप्रैबेयक त्रिषु गृहाणामुत्सेधः सार्धशतयोजनानि, दीर्घता त्रिशद्योजनानि, व्यासः पञ्चदशयोजनानि । ऊध्र्वग्र वेयकत्रिषु सौधानामुछयः शतयोजनानि, आयाम: विशतियोजनानि, विस्तारः दशयोजनानि । नवानुदिशे प्रासादानामुत्सेधः पञ्चाशद्योजनानि, आयामः दशयोजनानि, व्यासः पञ्चयोजनानि पञ्चानुत्तरे प्रासादानामुत्सेवः पञ्चविंशतियोजनानि । मायामः पञ्चयोजनानि, व्यासः सार्धे व योजने । (तालिका अगले पेज पर देखें) Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचदशोऽधिकार: [ ५३३ गद्य का अर्थ:-- देवों के गृहों का लम्बाई उत्सेध चोराई - चोडाई क्रमांक स्थान योजनों में | मीलों में | योजनों में | मीलों में | योजनों में | मीलों में सौषमैं शान ४६०० ४८० सानत्कुल-माहेन्द्र ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर ३६० लान्तष-वापिष्ट ३२०० ३२० | २८० तार-सहस्रार २४०० PYA मानतादि चार २००० २०० अधो अवेयक १६० मध्य । १२०० उपरिम, ८० ४०० १२ अनुदिशा अनुत्तर । २२ । २० अन इन्द्र के नगर सम्बन्धी प्राकारों की संख्या और उनके पारस्परिक अन्तर का प्रमाण कहते हैं:-- इन्द्र क्रीडानियासस्य प्राकारात्प्रथमावहिः । प्राविशालसमन्यासोत्सेधाश्चत्वार जिताः ॥१३२।। महान्तोऽन्ये च विद्यन्ते प्राकारा अन्तरान्तरे । प्राकारस्याधिमस्येव योजनानां फिलान्तरम् ॥१३३॥ Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४ ] सिद्धान्तसार दीपक त्रयोदशैव लक्षाणि द्वितीयस्यास्य घान्तरम् । त्रिषधिरेव लक्षाणि तृतीयस्य तथान्तरम् ॥१३४।। चतुःषष्टिस्तु लक्षारिण तुयंशालस्य चान्तरम् । लक्षारिण योजनानां चतुरशीतिप्रमाणि वै ॥१३॥ अर्थः-इन्द्र के क्रीड़ा निवास (अर्थात् नगर) के प्रथम प्राकार से बाहर समुन्नत (व्यास के समान उन्नत ) एवं महान् एक दूसरे के अन्तराल से, चार प्राकार और हैं । जिनका व्यास एवं उत्सेध प्रथम प्राकार के सदृश है । प्रथम कोट (प्राकार ) से दूसरे कोट का अन्तर १३ लाख योजन (१०४०.००० मील) है । दूसरे कोट से तोसरे कोट का अन्तर ६३ लाख योजन (५०४००००० मील) है। तीसरे कोट से चौथे कोरमा अन्तर २४ लाख योजन (५१२००००० मील) है, और चौथे कोट से पांचवें कोट का अन्तराल ६४ लाख योजन (६७२००००० मील) प्रमाण है ।।१३२-१३५।। प्रब कोटों के अन्तरालों में स्थित देवों के भेद कहते हैं:-- प्राद्यप्राकारभूमध्ये सैन्यनाथा वसन्ति च । शालान्तरे द्वितीयस्याङ्गरक्षकसुधाभुजः ॥१३६॥ तृतीयशालभूभागे निर्जराः परिस्थिताः । अन्तरे तुर्यशालस्य सामानिका वसन्ति च ॥१३७।। अर्थः-प्रथम कोट के मध्य में सेनापति और दूसरे कोट के मध्य में अङ्गरक्षक देव रहते हैं ॥१३६॥ तोसरे कोट के मध्य में परिषद् देव तथा चौथे कोट के अन्तराल में सामानिक देव निवास करते हैं ॥१३६-१३७।। अब सामानिक, तनुरक्षक और अनीक देवों का प्रमाण कहते हैं: चतुरामाध नाकानामशीतिश्चतुरुत्तरा । सहस्राणामशीतिश्च द्विसप्ततिस्तुसप्ततिः ॥१३८।। चतुर्णामूवयुग्मानां सहस्राण्ययुतं विना । शेषाणां स्युः सहस्राविंशतिः सामान्यकामराः ।।१३६।। तेभ्यश्चतुर्गुणाः सन्ति ह्यङ्गरक्षकनाकिनः । वृषभाधाः पृथक् सप्तसप्तानीकाः क्रमाविमे ॥१४०॥ Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचदशोऽधिकारः [ ५३५ वृषभाः प्रवरा अश्वा रथा गजा पदातयः । गन्धर्वा देवनर्तक्यः सप्सानीका प्रमो पृथक् ।।१४।। सप्तानामादिम सैन्यं स्वस्वसामानिकः समम् । स्युः शेषाः षड्वरानीका द्विगुरगा हिगुणाः पृथक् ॥१४२॥ अर्थ:--प्रादि चार अर्थात् सौधर्म, ऐशान, सनत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्गों में सामानिक देवों का प्रमाण क्रमशः ८४०००, ८००००, ७२००० और ७०००० है ॥१३८।। इनके ऊपर के चार युगलों में दश-दश हजार हीन हैं । अर्था तृतीय युगल में ६००००, चतुर्थे युगल में ५००००, पंचम युगल में ४०००० और षष्ठ युगल में ३०००० सामानिक देव हैं, तथा शेष प्रानतादि चार कल्पों के एक स्थान २०००० सामानिक देव हैं ।।१३६।। प्रत्येक स्थान में अगर देवों का प्रमाला सामानिक देवों के प्रमाण से चतुगुणा है। जैसे-सौधर्म स्वर्ग में ८४०००४४-३३६००० अङ्गरक्षक, ऐशान में ८००००४४= ३२०००० अङ्गरक्षक इत्यादि । प्रथम आदि स्वर्गों में वृषभ को आदि लेकर क्रमशः पृथक् पृथक् सात-सात अनीक सेनाएँ होती हैं, ।। १४०॥ श्रेष्ठ एवं अनुपम वृषभ. अक्छ, रथ, हाथी, पदाति, गन्धर्व और नर्तकी, ये पृथक् पृथक् सात अनीक सेनाएँ नव स्थानों में होती हैं ॥१४१।। इन सातों सेनाओं में से जो वृषभ नाम की सात प्रकार को प्राद्य सेना है, उसमें वृषभों का प्रमाण अपने अपने सामानिक देवों के प्रमाण सदृश है तथा अवशेष छह अनोकों में वृषभों का प्रमाण पृथक पृथक क्रमश: दूना-दूना होता गया है ।। १४२।। अब दक्षिणेन्द्र और उत्तरेन्द्र के अनीक नायकों के नाम कहते हैं:-- दामाख्यो हरिदामाख्यो मातलिनामकस्ततः । ऐरावताह्वयो वायुनामारिष्टयशरेभिधः ॥१४३३॥ नोलाजनामरी चैते सप्तसेनमहत्त राः । षण्णां स्युर्दक्षिणेन्द्राणां सप्तसैन्यानिमाः पृथक् ॥१४४॥ महादामाभिधः स्वेच्छगामी च रथमन्यनः । पुष्पदन्तो महावीर्यो गीतप्रीतिमहामतिः ॥१४॥ इमे महत्तराः सप्त सन्ति स्वसैनिकाग्रिमाः । क्रमेण सप्त संन्यानामुत्तरेन्द्रा खिलात्मनाम् ।।१४६॥ अर्थः-- छह दक्षिणेन्द्रों के सात अनोक सेनामों के प्रागे भागे चलने वाले पृथक् पृथक् दाम, हरिधाम, मातलि, ऐरावत, वायु, अरिष्टयशा और नोलाजना नाम छह दक्षिणेन्द्रों के ये सात सात Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३६ ] सिद्धान्तसार दीपक प्रधान हैं ।।१४३-१४४।। इसी प्रकार छह उत्तरेन्द्र अपनी अपनी सेनाओं के आगे धागे चलने वाले क्रमशः महादाम, स्वेच्छगामी (अमितगति), रथमन्थन, पुष्प दन्त, महावीर्य, गीतप्रीति और महापति नाम के ये सात-सात प्रधान छहों उत्तरेन्द्रों के पृथक् पृथक् हैं ।1१४५-१४६।। अब नवों स्थानों में तीनों परिषदों का पृथक् पृथक् प्रमाण कहते हैं:-- क्रमात परिषदा संख्येयं द्वादश चतुर्दश । षोडशव सहस्राणि नवानां प्रथमे पदे ॥१४७।। सतो नि वि सहस्रोनं यावत् षष्ठं पदं ततः। अधिक्रमतो हीनं स्याद्यावन्नवमं पदम् ।।१४। अर्थ:--सौधर्म स्वर्ग आदि के नव स्थानों में से प्रथम स्थान में अभ्यन्तर परिषद् में देवों की संख्या १२०००. मध्य परिषद् में १४००० और बाह्य परिषद् में १६००० है ॥१४७।। इसके आगे छह पदों तक इस प्रमाण में क्रमश: दो-दो हजार की हानि होती गई है, तथा इसके मागे नवम पद पर्यन्त यह संख्या क्रमशः अर्ध-अर्थ प्रमाण होन होती गई है ।।१४॥ प्रथामोषां सुखबोधाय विशेषव्याख्यानमाहः सौधर्मेन्द्रस्य सामान्य कामराः चतुरशीतिसहस्राणि । अक्षरशाः त्रिलक्षषट्त्रिंशत्सहस्रारिण । घृषभानां प्रथमे अनीके वृषभाश्चतुरशीति सहस्राणि । द्वितीये च एकलक्षाष्टषष्टिसहस्राणि । तृतीये विलक्षषट्त्रिंशत्सहस्राणि । चतुर्थे षड्लक्षद्वासप्ततिसहस्राणि पश्चमे त्रयोदशलक्ष चतुश्चत्वारिंशत्सहस्राणि षष्ठे षड्विंशतिलक्षाष्टाशीति सहस्राणि । सप्तमे अनीके वृषभा त्रिपश्चाशल्लक्षषट्सप्ततिसहसारिण। समानीकस्थाः पिण्डीकृताः सर्वे वृषभा: एकाकोटीषड्लक्षाष्टषष्टिसहस्रारिग भवन्ति । शेषाः अवाद्याः सप्त सप्तभेदाः । षडनीकाः वृषभानीक समानाः विज्ञेयाः । अमीषां वृषभादि सप्तानीकाना एकत्रीकृताः समस्तवृषभादि नर्तक्यन्ताः सप्तकोटिषट्चत्वारिशल्लक्षषट् सप्ततिसहस्राणि स्युः । प्रादिपरिषदि देवा द्वादशसहस्राणि । मध्यपरिषदि, सुरा: चतुर्दशसहस्राणि । बाह्यपरिषदिगीर्वाण: षोडशसहस्राणि ।। ऐशानेन्द्रस्य सामान्यकाः अशीतिसहस्राणि । अङ्गरक्षा: त्रिलक्षविंशतिसहस्राणि । वृषभारणां प्रथमानीके वृषभाः प्रशीतिसहस्राणि तत: पूर्ववत् शेषषडनीकेषु द्विगुणा द्विगुणा वृषभाः विज्ञेयाः । सप्तानीकानां सर्वे पिण्डीकृताः वृषभाः एकाकोट्येकलक्षष्टि सहस्राणि : शेषाः प्रश्वादयः षट्वृषभगणनासमानाः स्युः । एते सर्वे सप्तानीफानां पिण्डीकृता: वृषभादय: नर्तक्यन्ताः सप्तकोट्येकादशलक्षविशतिसहस्राणि भवेयुः । आधिपरिषदि देवाः दशसहस्राणि । मध्यपरिषद द्वादशसहस्राणि। Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचदशोऽधिकारा [५३७ बाह्य परिषदि सुराः चतुर्दशसहस्राणि ।। सनत्कुमारेन्द्रस्य सामानिकाः द्विसप्तसिसहस्राणि अङ्गरक्षाः द्विलक्षाष्टाशीतिसहस्राणि । प्रथमे वृषभानीके वृषभाः द्वासप्ततिसहस्राणि ततः शेषषट्सैन्येषु द्विगुणा द्विगुणा वृषभाः सन्ति । सप्तानीकस्थाः सर्वे पिण्डीकृताः वृषभाः एकनबतिलक्षचतुश्चत्वारिंशत्सहस्रारिए भवन्ति । शेषाः अश्वादयः षट् वृषभसमाः मन्तव्याः । अमो सप्तानोकानां विण्डोकृताः सर्वे वृषभादयः षट्कोटि चत्वारिंशल्लक्षाष्टसहस्राणि भवन्ति । प्रादि परिषदिगीर्वाणा: अष्टसहस्राणि । मध्यपरिषद देवाः दशसहस्राणि । बायपरिषदि त्रिदशा: द्वादशसहस्राणि ॥ माहेन्द्रस्य सामानिका: सप्ततिसहत्राणि । अङ्गरक्षा: द्विलक्षापीतिसहस्राणि । प्रथमे वृषभानीके वृषभाः सप्त तिसहस्राणि । ततो द्विगुण द्विगुण वृद्धया सप्तानीकानां विश्वे पिण्डीकृताः वृषभा: अष्टाशीतिलक्षनवतिसहस्राणि भवन्ति । अश्वादयः प्रत्येक तावन्त एव विज्ञेयाः । सप्तानोकानां सर्वे पिण्डीकृताः वृषभादयः पट्कोटिद्वाविंशतिलक्षत्रिंशत्सहस्राणि विद्यन्ते । प्रादिपरिषदि निर्जराः षट्सहस्रारिण, मध्यपरिषदि, देवा: अष्टसहस्राणि, बाह्यपरिषदि सुराः दशसहस्राणि ॥ ब्रह्मन्द्रस्य सामानिकाः षष्टिसहस्राणि, अङ्गरक्षा द्विलक्षचत्वारि. शत्सहस्राणि । प्राद्ये वृषभानीके वृषभाः षष्टिसहस्राणि । ततो द्विगुण द्विगुण वद्धिताः सर्वे सन्तानीकस्था: पिण्डीकृताः वृषभाः षट्सप्ततिलक्षविशति सहस्राणि स्युः । अश्वादयः शेषाः पृथग्भूता वृषभतल्याज्ञातव्याः । सप्तानी कानामेकत्रीकृताः सर्वे वृषभादयः पञ्चकोटि त्रयस्त्रिशल्लक्षचत्वारिशत्सहस्राणि । आदिपरिषदिदेवाः चत्वारि सहस्राणि । मध्यपरिषदिगोवणाः षट्सहस्राणि, बाह्यपरिषदि सुरा अष्टसहस्राणि ।। लान्तवेन्द्रस्य सामानिकाः पञ्चाशत्सहस्राणि । अङ्गरक्षाः द्व लक्षे । वृषभाणा प्रथमानीके वृषभाः पञ्चाशासहस्राणि, ततो हिगुण द्विगुण वृद्धया बधिताः वृषभाः एकत्रीकृताः त्रिषष्टिलक्षपञ्चासत्सहस्राणि स्युः । अश्वादयोऽपि रामस्तास्तत्समा विज्ञयाः । सप्तानीकानां सर्वे पिण्डीकृता: वृषभादयः चतुःकोटिचतुश्चत्वारिंशल्लक्षपञ्चाशत् सहस्राणि भवन्ति । प्रादि परिषदि देवाः द्वे सहस, मध्यपरिषदि सुरा: चत्वारिंशत्सहसारिण, बाह्यपरिषदिगीर्वाणाः षट्सहसारिण ।। शुकेन्द्रस्य सामानिकाः चत्वारिंशत्सहसाणि । अङ्गरक्षाः एकल क्षषष्टिसहसारिण। वृषभारणां प्रथमानीके वृषभाः चत्वारिंशत्सहसाणि । ततो द्विगुण द्विगुण वृद्धया क्रमेण बधिताः । सप्तानीकवृषभाः पिण्डिताः पञ्चाशल्लक्षाशीति सहसारिण भवेयुः । तावन्तः पृथक पृथक् अश्वादयो ( वृषभादयः इति पाठः ) ज्ञातव्याः । सर्वे सप्तानीकानां पिण्डीकृताः वृषभादयः त्रिकोटिपञ्चपञ्चाशल्लक्षषष्टिसहस्राणि भवन्ति । आदि परिषदिदेवाः सहस' मध्यपरिषदि सुरा: द्वे सहस , बाह्मपरिषदिगीर्वाणाः चत्वारि सहस्राणि ॥ शतारेन्द्रस्य सामानिकास्त्रिशशन् सहसागि अङ्गरक्षाः एकलक्षविंशतिसहसारिण । वृषभाणां प्रथमानीके वृषभाः त्रिशत्सहसारिण । सतो द्विगुण द्विगुण वृद्धिक्रमेण वर्द्धमाना।। विश्वे वृषभाः प्रष्टत्रिशल्लक्षदशसहस्राणि भवन्ति । अश्वादयः षदसंख्यया वृषभसमानाः ज्ञातव्याः। सप्तानीकानां विश्वे वृषभादयः पिण्डीकृताः द्विकोटिषट्षष्टिलक्षसप्तत्ति सहस्राणि भवन्ति 1 श्रादि परिपदिदेवाः पञ्चशतानि । मध्यपरिषदिसुराः सहस के च । बाह्यपरिषदि अमराः द्वे सहस । Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५.३८ ] सिद्धान्तसार बोक श्रानतप्राणतारणाच्युतेन्द्राणां प्रत्येकं सामानिकाः विंशतिसहस्राणि । अङ्गरक्षा प्रशीतिसहस्राणि । वृषभाणां प्रथमे प्रनीके वृषभाः विंशतिसहस्राणि । द्वितीये चत्वारिंशत्सहस्राणि । इत्यादि द्विगु द्विगुण वृद्धचा वर्षिताः विश्वे सप्तानीकस्थाः वृषभाः एकत्रीकृताः पञ्चविंशतिलक्षचत्वारिंशत्सहसारिण । शेषाः प्रवादयः ( वृषभादयः अपि पाठः ) षडनीकाः पृथक् भूताः वृषभसमानाः वेदितव्याः । वृषभादिसप्तानीकानां सर्वे पिण्डीकृता। वृषभादिनर्तक्यन्ताः एकाकोटिसप्तसप्ततिलक्षाशीतिसहस्राणि प्रदिपरिदिदेवाः सार्धद्विशते । मध्यपरिषदित्रिदशाः पश्वशतानि बाह्यपरिषदि अमराः सहस्र के अर्थः- सौधर्म आदि नव स्थानों के सामामिक देव, अंग रक्षक, अनोक श्रीर अभ्यन्तर आदि परिषदों के देवों का प्रमाण विस्तार रूप से है:- सधर्म स्वर्ग में सामानिक देवों का प्रमाण ८४०००, अंगरक्षकों का तीन लाख छत्तीस हजार ( ३३६०००), वृषभों की प्रथम अनीक में बैलों का प्रमाण ८४०००, दूसरी कक्ष में १६८०००, तीसरी कक्ष में ३३६०००, चतुर्थ कक्ष में ६७२०००, पांचवीं कक्ष में १३४४०००, छठवीं कक्ष में २६८०००० और सातवीं कक्ष में ५३७६००० बैलों का प्रमाण है । इन सातों कक्षाओं के समस्त बैलों को एकत्रित करने से १०६६८००० प्रमाण ( मात्र बैलों का ) होता है । शेष अश्व, गज श्रादि श्रनीकों के भी सात-सात भेद हैं, जिनकी अनीकों का प्रमाण वृषभ अनीकों के सहश ही जानना चाहिये । इन वृषभ आदि लातो प्रतीकों में वृषभ से लेकर नर्तकी पर्यन्त का सर्व प्रमाण एकत्रित करने पर ७४६७६००० होता है । इसी प्रकार अन्यत्र जानना चाहिये । उपर्युक्त सम्पूर्ण गद्य का अर्थ निम्नलिखित तालिका में निहित किया गया है । अन्तर केवल इतना है विस्तार भय से तालिका में सातों कक्षाओं का पृथक् पृथक् प्रमाण नहीं दिया गया, प्रत्येक स्थान की केवल प्रथम कक्ष का प्रमाण दिया गया है। इसी प्रभाग को दूना, दुना करके अन्य कक्षाओं का प्रमाण प्राप्त कर लेना चाहिए । ( तालिका अगले पेज पर देखें ) Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नव स्थानों में सामानिक-तनुरक्षक-सातों प्रनीक-एवं तीनों परिषदों का प्रमाण सामानिक अनीक सैनामों का प्रमाण परिषदों का प्रमाण नव स्थान | देवों का | तनरक्षक देवों का प्रभारण बनों को एक प्रनीक की | सातों अनोकों की अभ्यन्तर| मध्य ! बाह्य सम्पूर्ण संख्या । सम्पूर्ण संख्या परिषद् । परि० परित प्रथम कक्ष में प्रमाण सौधर्म | २४.. (प्रथम कक्ष की सख्या से १२७ गुणी है।) ३३६००० [तीन ला,३६६.] | ८४000 १०६६८००० ३२००००[३ ला. २० ह.] | 50000 १०१६०००० | २८००० [२ ला. ८८ ह.] |७२०००, ८१४४००० ७४६७६००० | १२०००/ १४००० | १६००० २. ईशान ७११२०००० १००००/१२००० १४००० पंचदशोऽधिकार। सानत्कुमार ७२००० ६४००5000 5000 १०००० १२००० ४ माहेन्द्र ७०००० २८०००० [२ ला. ८० ह.] ७०००० ८८६०००० ६२२३०००० । ६००० 5000 १०००० ५. ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर | ६०००० ५३३४०००० |४००० | ६००० 5000 २४००००[२ ला. ४० इ.] | ६०००० / ७६२०००० २०००00 [ दो साख ५0000 ! ६३५0000 ६ लान्सन-कापिष्ट ५०००० ४४५०००० २००० ४००० ६००० ७ शुक्र-महाशुक्र ४०००० ३५५६०००० १००० | २००० |1000 घातार-सहस्रार ३०००० १६०००० [१ ला. ६० ह.] | 10000, ५०८0000 १२०००० [१ ला, २० ह.] | ३०००० | ३८१०००० 50000 [ ८० हजार ] २०००० | २५४०००० २६६७०००० 00 | १००० २००० आनतादि चार | २०००० १७७८0000 २५० । १००० [ ५३६ Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४० ] सिद्धांतसार दीपक अब वनों का नाम, प्रमाण, चैत्यवृक्षों के स्वरूप एवं उनमें स्थित जिन बिम्बों का अवस्थान कहते हैं:--- तत इन्द्रपुराबाय चसुदिक्षु विमुच्य च । लक्षाध योजनानां स्युश्चत्वारिंशदनान्यपि ॥१४६।। प्रशोक सप्तपर्णात्यं चम्पकाह्वयमाम्रकम् । इति नामाङ्कितास्येव शाश्वतानि बनान्यपि ॥१५०॥ योजनानां सहस्र गायतानि विस्तृतानि च । सहस्त्रार्धन रभ्याणि भवन्ति सफलानि व ॥१५॥ अमीषा मध्यभागेषु चत्वारश्चैत्यपादपाः । जम्बूद्र मसमानाः स्युरशोकाचा मनोहराः ॥१५२॥ एषां मले चतविक्ष जिनेतपतिमाः शुभाः। देवाळ बद्धपर्यताः सन्ति भास्वरमूर्तयः ॥१५३॥ एषु बनेषु सर्वेषु सन्त्यावासा मनोहराः । चाहनादिक देवानां योषिद्धृन्दसमाश्रिताः ।।१५४॥ अर्थः–इन्द्रों के नगरों से बाहर पूर्वादि चारों दिशाओं में पचास-पचास हजार योजन छोड़ कर अशोक, सप्तपर्ण, चम्पक और पाम्र नाम के शाश्वत चार वन हैं ।।१४६-१५०।। उत्तम फलों से युक्त इन प्रत्येक रमणीक वनों की लम्बाई एक हजार योजन और चौड़ाई पांच सौ योजन प्रमाण है ॥१५१॥ इन चारों वनों के मध्य भाग में जम्बू वृक्ष सदश प्रमाण वाले, अत्यन्त मनोहर अशोक आदि चार चैत्य वृक्ष हैं ॥१५२।। इन चारों वृक्षों में से प्रत्येक वृक्ष के मूल में चारों दिशाओं में, देव समूहों से पूज्य, पद्मासन एवं देदीप्यमान शरीर की कान्ति से युक्त जिनेन्द्र भगवान् की एक-एक प्रतिमाएँ हैं ॥१५३।। इन चारों वनों में देवाङ्गनानों के समूह से युक्त वाहन मादि जाति के देवों के मनोहारी प्रावास हैं ॥१५४॥ अब लोकपालों के नगरों का स्वरूप एवं प्रमाण कह कर लोकपालों के नामों का उल्लेख करते हैं:-- ततो मुक्त्वा चतुर्विक्षु बहूनि योजनानि च । चतुर्णा लोकपालानां प्रासादाः सन्ति शाश्वताः ।।१५।। Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचदशोऽधिकारः [ ५४१ पञ्चविंशसहस्रानलक्षयोजन विस्तृताः । इन्द्रस्याथ यमस्येव वरुणाल्यकुबरया: ॥९५६।। अर्थ:-चारों दिशाओं में उन बन खण्डों को बहुत दूर छोड़ कर अर्थात् वनों से बहुत योजन आगे जाकर इन्द्र (सोम), यम, वरुण और कुवेर इन चारों लोकपालों के शाश्वत प्रासाद हैं, जिनका विस्तार १२५०००० (साढ़े बारह लाख) योजन प्रमाण है ।।१५५-१५६।। प्रब गणिका महत्तरियों के नाम एवं उनके आवासों के प्रमाण प्रादि कहते हैं: प्राग्नेयादिविविक्षुस्युरावासाः काञ्चनोभवाः । गणिकामहत्तरीणां विस्तारायामसंयुताः ।।१५७।। लौक योजनःप्रा देवोनिकर संश्रिताः। कामाख्या प्रथमादेवी कामिनी पनगन्धिनी ॥१५८।। अलम्बुषेति नामान्यासां चतमख्य योषिताम् । एष एव क्रमोज्ञेयः सर्वेन्द्राणां पुरादिषु ॥१५॥ अर्थ:--जहाँ लोकपाल देवों के नगर हैं, वहीं आग्नेय प्रादि चारों विदिशाओं में गरिएका महत्तरियों के स्वर्णमय प्रावास' ( मगर । हैं, जो एक-एक लाख योजन लम्बे, एक-एक लाख योजन चौड़े, देदीप्यमान एवं देवियों के समूहों से युक्त है । इन चारों चारों विदिशात्रों में स्थित चार प्रधान गणिका महत्तरियों के नाम कामा, कामिनी, पयगन्धिनी एवं अलम्बुषा है । सर्व इन्द्रों के नगरों प्रादि का क्रम इसी प्रकार जानना चाहिए ॥१५७-१५६।। इन्द्र नगर के चारों ओर स्थित पांच प्राकारों, प्रशोक प्रादि चार वनों,: सोम मादि चार लोकपालों एवं गरिएका महत्तरियों के नगरों की अवस्थिति का चित्रण निम्न प्रकार है:-- (चित्र अगले पेज पर देखें) Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४२] ליד मह विजिले SH सिद्धांतसार दीपक उत्तः युकेए . START..ला यम PENINS Th... Fa महा Forf7 नही अब प्रत्येक स्थानों के इन्द्रों को वल्लभाम्रों का प्रमाण एवं उनके प्रासादों की ऊँचाई प्रादि का प्रमाण कहते हैं: - षड् युग्मेष्वानताश्चेषु सप्तस्थानेष्विति क्रमात् । एकैकस्य सुरेन्द्रस्य देवी संख्योच्यते पृथक् ॥ १६०॥ स्युर्द्वात्रिंशत्सहस्राणि ततोऽष्टौ वे सहस्रके । सहस्रार्ध तब विषष्टि वल्लमस्त्रियः ।। १६१। विद्यन्ते पूर्वदिग्भागे देवेन्द्रस्तम्भसचनः । बलभान मनोज्ञाः सत्प्रासावा मणिमूर्तयः ॥ १६२॥ तत्प्रासादोदयः पूर्वो योजनः शतपञ्चभिः । तद्धीनश्च शतार्थेन व्यासायामौ हि पूर्ववत् ॥१६३ अर्थः--सौधर्मादि छह एवं श्रानतादि का एक, इस प्रकार सातों स्थानों में स्थित एक एक इन्द्र की वल्लभादेवाङ्गनाओं का पृथक् पृथक् प्रमाण क्रमशः कहते हैं ।। १६० ।। प्रत्येक स्थान की संख्या क्रमश: ३२०००, ८०००, २०००, ५००, २५०, १२५ और ६३ है ।।१६१ ।। प्रत्येक इन्द्रों के स्तम्भ मन्दिरों (प्रासादों ) की पूर्व दिशा में वल्भभदेवांगनाओं के प्रति मनोज्ञ मणिमय प्रासाद है Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचदशोऽधिकार [ ५४३ ।। १६२ || इनमें प्रथम स्थान के प्रासाद की ऊंचाई ५०० योजन है, इसके प्राये क्रमशः पचास-पचास योजन होन होतो गई है । इन प्रासादों का व्यास और श्रायाम भी पूर्ववत् जानना चाहिए ।। १६३ ॥ अब प्रत्येक इन्द्रों को बल्लभाओं के और उनके प्रासादों की ऊंचाई आदि के प्रमाणों का पृथक् पृथक् व्याख्यान करते हैं: आसां विशेषव्याख्यानमुच्यतेः- सौधर्मशानेन्द्रयोः प्रत्येक वल्लभा देव्यः द्वात्रिंशत्सहस्राणि । बल्लभानां प्रासादानामुदनः पञ्चशतयोजनानि । प्रायामः शतयोजनानि । विष्कम्भः पञ्चाशत् योजनानि । सानत्कुमार माहेन्द्रयोः पृथग् बल्लभाङ्गनाः अष्टसहस्राणि । तत्प्रासादानामुत्सेधः साधंचतुः शतयोजनानि दीर्घता नवतियोज - नानि, व्यासः पञ्चचत्वारिंशद्योजनानि । ब्रह्मन्द्रस्य वल्लभा देव्यः द्वे सहसू तासां भवनानामुन्नतिः चतुः ०० योजनानि, प्रायामः श्रशीतियोजनानि, विस्तारः चत्वारिंशद्योजनानि । लान्तवेन्द्रस्य वल्ल - भाङ्गनाः पञ्चशतानि, आसां प्रासादानामुदयः सार्वत्रिशतयोजनानि । श्रायामः सप्तति योजनानि । विस्तार: पञ्चत्रिंशद्योजनानि । शुक्रेन्द्रस्य वल्लभा योषितः सार्धं द्वे शते । तत्प्रासादानामुच्छ्रायः त्रिशतयोजनानि दीर्घता षष्टियोजनानि, विस्तृतिस्त्रिशद्योजनानि । शतारेन्द्रस्य वल्लभाङ्गनाः पञ्चविज्ञत्ययं शतं तासां भवनानामुत्सेधः सार्धंद्विशतयोजनानि । श्रायामः पञ्चाशद्योजनानि विष्कम्भः पञ्चविंशतियोजनानि । मानवप्रारणतारणाच्युतेन्द्राणां प्रत्येकं वल्लभा देव्यः त्रिषष्टिरेव वल्लभा प्रासादानामुदयः योजनानां द्वे शते । श्रायामः चत्वारिंशद्योजनानि, विस्तारः विंशतियोजनानि । 7 " श्रर्थः -- उपर्युक्त गद्य का सम्पूर्ण श्रर्थ निम्नलिखित तालिका में निहित है । विशेष इतना है कि प्रत्येक स्थानों में जो प्रमाण दर्शाया जा रहा है, वह प्रमाण सौधर्मादि प्रत्येक इन्द्रों का पृथक् पृथक् समझना चाहिए। ( तालिका अगले पेज पर देखें ) Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४४ ] सिद्धान्तसार दीपक क्रमांक वल्लभानों का प्रमाण उत्सेध _देवांगनाओं के गृहों का | लम्बाई चौड़ाई मोजमों में मीलों में योजनों में मोनों में योजनों । सौधमशानेन्द्र ३२००० सानत्कु०-माहेन्द्र २००० सांतवेन्द्र ५०० शुक्रन्द्र शवारेन्द्र १२५ | २५० | २००० | २०० । १६०० मानतादि ४ इन्द्रों की अब प्रत्येक इन्द्र की पाठ-पाठ महादेवांगनानों के नाम कह कर उनकी विक्रियागत देवांगनानों का और परिवार देवांगनाओं का प्रमाण दिखाते हैं: सप्तस्थानेषु सर्वेषामिन्द्राणां दिव्यमूर्तयः । प्रत्येक स्युमंहादेव्योऽष्टौ विश्वाक्षसुखप्रदाः ।।१६४।। शची पमा शिवा श्यामा कालियो सुलसार्जुना। भानेति दक्षिणेन्द्राणां देवीनामानि सर्वतः ॥१६॥ श्रीमती संजिका रामा सुसीमा विजयावती । जयसेना सुषेणारया सुमित्राय वसुन्धरा ॥१६६।। सर्वत्रवोत्तरेन्द्राणां देवोनामान्यमून्यपि । एकेका च महादेवी विक्रियषि प्रभावतः ॥१६७॥ विना मूलशरीरं चाघे युग्मे विकरोत्यपि । स्वसमानि सहस्रारिग बिक्रियाङ्गानि षोडश ॥१६॥ Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचदशोऽधिकारः [ ५४५ तेभ्य ऊर्वेषु षट्स्थानेष्वकैकावासबाङ्गना । द्विगुण द्विगुणान्याशु कुर्यात् रूपाणि योषिताम् ।।१६।। एकैकस्या महादेव्याः परिवारवरस्त्रियः । स्युः षोडशसहस्राणि प्रीता प्रथम युग्मके ॥१७०॥ ततः स्थानेषु शेषेष परिवारसुराङ्गनाः । अर्धार्धाः स्युः कमानेकैक शच्या विनयाङ्किताः ॥१७१।। अर्थ:--सातों स्थानों में प्रत्येक इन्द्रों के दिव्य मूर्ति को धारण करने वाली एवं समस्त इन्द्रियों को सुस्त्र प्रदान करने वाली पाठ-पाठ महा देवियां हैं ।।१६४।1 समस्त दक्षिणेन्द्रों की पाठपाठ महादेवियों के नाम शची, पदा, शिपा. श्यामा, मालिटी, सुलमा अर्जुना शौर भान हैं ।।१६५।। तथा सर्व उत्तरेन्द्रों की महादेवियों के नाम श्रीमती, रामा, सुसीमा, विजयाक्ती, जयसेना, सुघणा, सुमित्रा और वसुन्धरा हैं । प्रथम युगल में पृथक् पृथक् एक एक महादेवी बिक्रिया ऋद्धि के प्रभाव से मूल शरीर के विना अपने समान सोलह सोलह हजार विक्रिया शरीर को धारण करने वाली हैं ।११६६-१६८॥ प्रथम युगल से ऊपर छह स्थानों में प्रत्येक इन्द्र की एक एक महादेवी दूनी दूनी विक्रिया धारण करती हैं 11१६६॥ प्रथम युगल में एक एक महादेवी की सोलह-सोलह हजार परिवार देवियाँ हैं। तथा शेष छह स्थानों में कम से एक एक महादेवी की विनय से युक्त परिवार देवांगनाओं का प्रमाण क्रमशः अर्ध-प्रधं होता गया है ।।१७०-१७१।। प्रासां विस्तारमाहः सौधर्मेशानेन्द्राष्टमहादेवीनां पृथग्विक्रियाङ्गानि षोडश सहस्राणि । परिवारदेव्यः षोडशसहस्राणि । सनत्कुमारमाहेन्द्रमहादेबीनां विक्रियाशरीराणि द्वात्रिंशत्सहसारिण । परिवारदेव्योऽष्टसहसारिण। ब्रह्मन्द्राष्टमहादेबीनां प्रत्येक विक्रियारूपाणि चतुःषष्टिसहस्राणि परिवारदेव्यः चतुःसहस्राणि। लान्तवेन्द्रमहादेवीनां विक्रियाशरीराणि एकलक्षाष्टाविंशतिसहस्राणि । परिवारदेव्यः । सहस्र । शुक्रन्द्रस्य शचीनां विक्रियाङ्गानि द्विलक्ष षट् पञ्चाशत्सहस्राणि, परिवारदेव्यः सहस्र कं । शतारेन्द्रागीनां विक्रिया स्त्रीरूपाणि पञ्चलक्षद्वादशसहस्राणि, परिवारसुराङ्गनाः पञ्चशतानि । प्रानतप्रारणसारणाच्युतेन्द्र केकमहादेवीनां विक्रियादेवीशरीराणि पृथग्भूतानि स्वशरीरसमानानि दशलक्षचतु. विशतिसहस्राणि, परिवारदेव्यः सार्धे द्वे शते । अर्थः-प्रत्येक स्थानों में स्थित विक्रिया धारी एवं परिवार देवांगनाओं का पृथक् पृथक प्रमाण कहते हैं:-- Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४६ ] सिद्धान्तसार दीपक उपर्युक्त गद्य का सम्पूर्ण भर्थ निम्नाङ्कित तालिका में निहित है । विशेष इतना है कि एक एक महादेवियों की परिकार प्रादि देवांगनानों का एकत्रित प्रमाण भी दर्शा दिया है। क्रियिक शरीर परिवार देवांगनाएँ क्रमांक अनदेधियों का प्रमाण एक महा देवी का | पाठों महा देवी का | एक महा- पाठों महा देवां देवो को | गनाओं की सौधर्मशानेन्द्र मूल शरीर रहित १६००० १२८००० १६००० १२८००० २ साo-मा० " ॥ ३२००० २५६००० ८००० ६४००० ब्रह्मन्द्र ६४००० ५१२००० ४००० ३२००० लान्तवेन्द्र १०२४००० २००० १६००० ,, १२८००० ,, २५६००० २०४८००० १००० 5000 शतारेन्द्र ४०६६००० ५०० Yooo [मामतादि ४ इन्द्र | , , , १०२४००० ८१९२००० | २५० । २००० अब समस्त महावेवियों के प्रासादों को ऊँचाई आदि का प्रमाण कहते हैं:-- महादेवीसमस्तप्रासादानामुदयोधिकः । विशत्यायोजनानां स्यादवल्लभाभवनोदयात् ॥१७॥ प्रासादानां तथायामः स्वोत्सेधात् पञ्चमांशकः । पूर्षयदशमो भागो विष्कम्भः सर्वतो भवेत् ॥१७३।। अर्थ:-समस्त महादेवियों के प्रासादों की ऊँचाई वल्लभा देवांगनाओं के प्रासादों की ऊंचाई से बीस-बीस योजन अधिक है, पायाम अपनी अपनी ऊंचाई का पांचर्चा भाग और विष्कम्भ पूर्व के सदश अपनी अपनी ऊँचाई के दश भाग प्रमाण है ।।१७२-१७३।। (तालिका अगले पेज पर देखें) Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थान १ २ ₹ ४ ५ ६ ७ विशेष विवरण -- प्रासादों की ऊंचाई ५२० योजन ४७० ४२० ३७० ३२० २७० २२० 25 "P "S נו " 12 पंचदशोऽधिकार लम्बाई १०४ योजन ६८ ८४ ७४ ૪ ૪ ४४ ני " 15 " " " चौड़ाई अब इन्द्र के प्रस्थान मण्डप का प्रवस्थान एवं प्रमाण कहते हैं: मध्येऽमरावतीसंज्ञे पुरस्यैशानसद्दिशि । इन्द्रस्तम्भगृहस्यास्ति सभास्थानसुमण्डपः ॥ १७४॥ सुधर्म संस्तुङ्गः पञ्चसप्ततियोजनः । शर्तक योजनायामः पञ्चाशद्विस्तरान्वितः ।। १७५।। ५२ योजन ४७ पूर्वोत्तरविशोदक्षिणाशायां तस्य सन्ति च । द्वष्टयोजनङ्गानि विस्तृतान्यष्ट योजनेः ॥१७६॥ ४२ " ३७ ३२ २७ 22 २२ " " " 11 [ ५४७ अर्थ :- अमरावती नामक नगर के मध्य में इन्द्रस्तम्भ प्रासाद की ईशान दिशा में सभा स्थान नामक सुन्दर मण्डप है, जिसका नाम सुधमं सभा है । इस सुधर्म सभा की ऊंचाई ७५ योजन ( ६०० मील ), लम्बाई १०० योजन ( ८०० मील) और चौड़ाई ५० योजन ( ४०० मील ) प्रमाण है ।। १७४ - १७५ ।। श्रम प्रस्थान मण्डप के द्वार, उनका प्रमाण एवं इन्द्र के सिंहासन का अवस्थान कहते हैं: Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४८ विलास बीप रत्नद्वाराणि बेथ्योधेदु गंमाणि सुरोत्करैः । सन्मध्ये स्वर्गमाथस्य दिव्यं स्याद्धरिविष्टरम् ॥ १७७॥ अर्थः :- प्रस्थान मण्डप की पूर्व, उत्तर और दक्षिण दिशा में १६ योजन ऊंचे और ५ योजन चौडाई के प्रमाण को लिए हुए, एक एक दरवाजा है। ये द्वार रत्नों से निर्मित और देव देवियों के समूह से लङ्घनीय है । मण्डप के मध्य भाग में इन्द्र का एक दिव्य सिंहासन है ।।१७६-१७७।। अब महादेवियों के, लोकपालों के और अन्य देवों के सिहासनों का प्रवस्थान कहते हैं: तस्य सिंहासनस्यात्र तिष्ठन्ति सन्मुखानि च । प्रष्टानां तन्महादेवानां महान्त्यासनान्यपि ॥१७८॥ पूर्वादिदिक्षु तिष्ठन्ति लोकपालासनानि च । अन्येषां देवसङ्घानां यथाईमासनान्यपि ॥१७६॥ अर्थ:- :- उस सिंहासन के सम्मुख ( श्रागे ) अष्ट महादेवांगनाओं के महान श्रासन अवस्थित हैं ।। १७८|| महादेवियों के श्रासनों से बाहर पूर्वादि दिशाओं में चारों लोकपालों के प्रासन हैं, तथा दक्षिण श्रादि दिशाओं में श्रन्य देवों के योग्य आसन हैं । अर्थात् इन्द्र के सिंहासन की आग्नेय, दक्षिण और मैऋत्य में अभ्यन्तर आदि परिषदों के नैऋत्य में श्रायत्रश देवों के, पश्चिम में सेना नायकों के, वायव्य एवं ईशान में सामाजिक देत्रों के तथा पूर्वादि चारों दिशाओं में अङ्गरक्षक देवों के प्रासन हैं ॥१७६॥ इनका चित्रण निम्न प्रकार है ( चित्र अगले पेज पर देखें ) Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक्षिण परिषद देवो २४००० अरसको परिषर पंचदशोऽधिकारः और 本 २० योजन पश्चिम मन अंगों के २००० संनायक के आसन 000 & प बरुण सौधर्मेन्द्र कौ आसन सोल अङ्गरक्षकी के आसन सामाजिक टेके के ४२००० अमर दाराव्य अङ्गरक्षको ४००० आसन 09(घ) सामादिक देवो के भजन ईशान उत्तर १०० योजन अब प्रस्थान मण्डप के श्रम स्थित मानस्तम्भ का स्वरूप प्रमाण एवं उस पर स्थित करण्डों का प्रवस्थान आदि कहते हैं:-- तस्या रत्नपीठस्थो मानस्तम्भोऽस्ति मानहृत् । त्रिंशद्योजनोत्तुङ्गो योजनव्यास ऊजितः ॥ १८० ॥ वज्रकायः स्फुरत्कान्तिर्महाध्वजविभूषितः । मस्तके जिनबिम्बादयः स्वांशूदद्योतित दिग्मुखः ॥। १८१|| itiesविस्तीर्ण कोटिद्वादश राजितः । प्रोभागे विहायास्य क्रोशोन योजनानि षट् ॥ १८२ ॥ [ ve ऊर्ध्वभागे परित्यज्य कोशाप्रयोजनानि षट् । तिष्ठन्ति मणिमञ्जूषा रत्नरज्जु विलम्बिता: ॥ १८३ ॥ Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्तसार दोपक क्रोशायाम युताः क्रोशचतुर्थभागविस्तृताः। सुभूषणा जिनेन्द्राणां विद्यन्ते तास सञ्चिताः ॥१४॥ भरतराबतोस्पन्नानां सरत्नमयाः परे। निपल्या नावासानकल्पपोः ॥१५॥ पूर्वापरविवेहोत्थाहता विभूषणा इति । समस्कुमारमाहेन्द्रयोः सन्ति रत्नशालिनः ॥१८६।। अर्थः-उस सभामण्डप के प्रागे रत्नमयी पीठ पर मान को हरण करने वाला, ३६ योजन ( २८८ मील ) ऊँवा. एक योजन ( ८ मोल ) चौड़ा, वज्रमयी देदोप्यमान कान्ति वाली महायजा से विभूषित, शिखर ( मस्तक ) पर जिन बिम्बों से युक्त एवं अपनी किरणों से दशों दिशाओं को प्रकाशित करने वाला एक मानस्तम्भ है ।।१८०-१८१।। इसमें क्रमशः एक एक कोश विस्तार वाली सूर्य सहश प्रकाशमान बारह धाराएं हैं । इन ३६ योजन ऊंचाई वाले मानस्तम्भों के अधोभाग में पौने छह योजन और उपरिम भाग में सवा छह योजन छोड़ कर शेष मध्य भाग में रत्नमयी रस्सियों के सहारे लटकते हुए मणिमय करण्ड (पिटारे ) हैं ॥१८२-१८३॥ इन पिटारों की लम्बाई एफ कोश एवं चौड़ाई पाय कोश प्रमाण है। इन करण्डों में जिनेन्द्रदेवों ( सोएंकरों के पहिनने योग्य अनेक प्रकार के प्राभरण आदि संचित रहते हैं ॥१८४|| भरत क्षेत्र में उत्पन्न होने वाले तीर्थंकरों के उत्तम रत्नमयी एवं उपमा रहित आभूषण सौधर्म स्वर्गस्थ मानस्तम्भ पर, ऐरावत क्षेत्रोत्पन्न तीर्थकरों के, ऐशान स्वर्गस्थ मानस्तम्भों पर, पूर्व विदेह क्षेत्रोत्पन्न तीर्थंकरों के सानत्कुमार स्वर्गस्य मानस्तम्भ पर एवं पश्चिम विदेह क्षेत्रोत्पन्न तीर्थंकरों के रत्नमयी प्राभूषण माहेन्द्र स्वर्गस्थ मानस्तम्भों पर स्थित मञ्जूषानों में अवस्थित रहते हैं ॥१८५-१८६॥ जिसका चित्रण निम्न प्रकार है। (चित्र अगले पेज पर देखें) Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचदशोऽधिकार: [ ५५१ त्रिलोकसार से उद्धृत A- 6 ENHAfor POLPUR ' . +CN .. . AL T . । .. 423 PARAN . waliसनहसईदतमीजमानमाला दारयाराजाछिस्तक का गरुडार्विचारोगसदीरजादातरजमासिक वास्यामिकाभ्यास AAKi. MyRudry MANNAR YA ". LEMA - --.. LA. Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५२ ] सिद्धान्तसार दीपक अब इन्द्रों की उत्पत्ति गृह का अवस्थान एवं प्रमाण प्रादि कहते हैं:-- तस्य पार्वेऽस्ति शशमायागृहाणिवाद । प्रष्टयोजनविस्तारायामोन्नति युतं परम् ॥१८७।। तस्मिन्गृहान्तरे रत्नशिलायुग्मं च विद्यते । शिलासम्पुटयोगर्भ रत्लशय्यातिकोमला ।।१८८।। कृतपुण्यस्य शक्रस्य तस्यां जन्मसुखाधिगम् । सुखेन जायतेऽङ्गं सम्पूर्णमन्तमुहूर्ततः ॥१८६।। अर्थः-मानग्तम्भ के पाठवभाग में ८ योजन नौडा, ८ योजन सम्बर, ८ योन चर एवं प्रान अष्ठ इन्द्र का उपपाद गृह है ।।१८७॥ उस उपपाद गृह के भीतर रलों को दो शिलायें हैं. तथा उन शिलाओं के मध्य में अत्यन्त कोमल रत्न शय्याएँ हैं। उन शय्यानों पर पूर्व भव में किया है पुण्य ।। जिन्होंने ऐसे इन्द्रों की उत्पत्ति सुख पूर्वक होती है, तथा उनका सुख समुद्र सदृश सम्पूर्ण शरीर अन्तमुहूर्त में पूर्ण हो जाता है ।।१८५-५८६।। अब कल्पवासी देवांगनानों के उत्पत्ति स्थान कहते हैं:-- षड्लक्षसद्विमानानि सौधर्म सन्ति केवलम् । स्वर्गदेवीसमुत्पादस्थानानि शाश्वतानि च ।।१६०॥ ईशाने स्युश्चतुर्लक्ष विमानाः सुरयोषिताम् । लभन्ते केवलं येषु जन्म देव्यो न चामराः ॥१६॥ एभ्य स्ताः स्वस्वसम्बंधिनीदेवीश्च समुद्भवाः । सनत्कुमारकल्पाद्यच्युतान्सवासिनोऽभराः ॥१२॥ स्वस्थास्थानं नयन्त्याशु विज्ञायावधिना निजाः । शेष कल्पेषु वेवीनामुत्पादो नास्तिजाचित् ॥१६॥ सौधर्मशानयोः शेषा ये विमाना हि तेषु च । प्राप्नुवन्ति निजं जन्म देवा देव्यः शुभोदयात् ॥१४॥ अर्थः-सौधर्म स्वर्ग में उत्तम और शाश्वत छह लाख विमान शुद्ध हैं, जिनमें (अच्युत स्वर्ग पर्यन्त के दक्षिण कल्पों की ) मात्र देवांगनाओं की उत्पत्ति होती है, तथा ईशान स्वर्ग में चार लाख Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचदशोऽधिकारः [ ५५३ विमान शुद्ध हैं, जिनमें (उत्तर कल्पों की ) मात्र देवांगनाओं का जन्म होता है, इन (दश लाख) विमानों में देवों की उत्पत्ति नहीं होती ।।१९०-१६१॥ उत्पत्ति के तुरन्त बाद ही सनत्कुमार कल्प से अभ्युत कल्प पर्यन्त के देव अपनी अपनी नियोगिनी देवांगनाओं को अधिज्ञान से जान कर अपने अपने स्थानों पर ले जाते हैं। सौधर्मशान स्वर्गों को छोड़ कर शेष स्वर्गों में देवांगनाओं की उत्पत्ति कदापि नहीं है ॥१६२-१९३।। सौधर्म स्वर्गस्थ अवशेष ( ३२ लाख–६ लाख २६ लाख } विमानों में तथा ऐशान स्वर्गस्थ अवशेष ( २८ लाख-४ लाख-२४ लाग्न ) विमानों में शुभ कर्मोदय से युक्त देव एवं देवांगनामों-कोनों की उत्पत्ति होती है ।।१६४॥ अब कल्पवासी देवों के प्रवीचार का कथन करते हैं:-- सौधर्मेशानयोर्कोतिष्कभीमभावनेषु च । सुखं कायपवीचारं देवा देख्यो भजन्ति च ॥१६॥ सनत्कुमारमाहेन्द्रवासिवेस्त्रियां भवेत् । सुखं स्पर्शप्रवीचारमालिङ्गनाविजं महत् ।।१९।। मानहानि गर्गस्थ बहारयोषिताम् । सुखं रूपप्रवीचारं रूपाविदर्शनोद्भवम् ॥१९॥ ततः शुक्रादिकल्पेषु चतुर्षु सुरपोषिताम् । सुखं शब्दप्रवीचारं भवेद् गीतस्वराविजम् ।।१६।। मानताविचतुःस्वर्गवासिदेवो दिवौकसाम् । सुखं मनःप्रवीचारं स्यादेवी स्मरणोद्भवम् ॥१६॥ प्रहमिन्द्राः परे विश्वे प्रवीचार सुखातिगाः । कामदाहोज्झिताः सन्ति महाशर्माब्धिमध्यगाः ॥२०॥ अर्थ:-[ काम सेवन को प्रवीचार कहते हैं ] सौधर्मेशान कल्पों, ज्योतिष्कों, भवनवासियों और व्यन्तरवासियों में देव एवं देवांगनाएँ काय ( शरीर ) प्रवीचार पूर्वक सुख भोगते हैं। प्रर्थात देव अपनी देवांगनाओं के साथ मनुष्यों के सदृश काम सेवन करते हैं किन्तु उनके वीर्य स्खलन नहीं होता क्योंकि उनका शरीर सर धातुओं से रहित है ॥१६५शा सानत्कुमार माहेन्द्र कल्पों के देव अपनी देवांगनामों के प्रालिंगन प्रादि से उत्पन्न होने वाले स्पर्शप्रवीचार रूप सुख का अनुभव करते हैं ||१९६u ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर और लांतव-कापिष्ठ कल्पों के देव अपनी देवांगनाओं के रूपादिक के अवलोकन से उत्पन्न होने वाले रूप प्रवीचार रूप सुख का अनुभव करते हैं ॥१६७।। शुक्र-महाशुक्र पौर शतार-सहस्त्रास Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५४ ] सिद्धांतसार दीपक स्वों के देव अपनी देवांगनाओं के गीत एवं स्वर आदि के सुनने से उत्पन्न होने वाला शब्द प्रयीचार रूप सुख भोगते है ।१९। तथा पानतादि चार कल्पों के देव देवियों के स्मरण मात्र से उत्पन्न होने वाले मनः प्रवीचार रूप सुख का अनुभव करते हैं॥१६६। इसके आगे नववेयकों से सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त के सभी देव महमिन्द्र हैं। ये प्रबोचार ( काम वासना ) से रहित, कामदाह से रहित एवं अप्रवीचार जन्य महासुखसमुद्र के मध्य प्रवगाहन करते हैं ॥२०॥ - प्रब वैमामिक देवों के प्रवधिज्ञान का विषय देश एवं विशिमा मि में प. का कथन करते हैं:-- सौधर्मशानकापस्था देवाः पश्यन्ति चावधेः । प्रथमक्षितिपर्यन्तान रुपिद्रव्यांश्चराचरात् ॥२०१॥ सनत्कुमारमाहेन्द्रवासिनोऽवधिना स्वयम् । लोकयन्ति द्वितीया क्ष्मा पर्यन्त वस्तुसञ्चयान ॥२०२॥ ब्रहास्पादिचतुःस्वर्गस्थाः प्रपश्यन्ति निर्जराः। तृतीयभूमिपर्यन्तस्थितद्रव्याणि चावधेः ॥२०३॥ शुक्रादिक चतुःस्वर्गवासिनोऽवधिनेत्रतः। चतुर्थी क्षिति सीमान्ताल्लोकन्ते द्रव्यसन्चयान ॥२०४।। मानतादिचतुःकल्प बासिनः स्वावधेबलात् । पञ्चमीक्ष्मान्तगाम रुपिद्रध्यान पश्यन्ति चाखिलान् ॥२०॥ मषन वेयकस्थाहमिन्द्रा पालोकयन्ति च । पदार्थान् रूपिणः षष्ठीपरान्तस्थान निजावधेः ॥२०६।। नवानुदिशपञ्चानुत्तरमास्यहमिन्द्रकाः। रूपिद्रव्यान प्रपश्यन्सि सप्तमी क्ष्मान्तमञ्जसा ॥२०७॥ लोकनाडीगतान् विश्वान रूपिद्रव्यांश्चराचरान् । लोकन्तेऽवषिनेत्रेण पञ्चानुचरवासिनः ॥२०॥ सौधर्ममुख्य पञ्चानुत्तरवासि सुधाभुजाम् । प्रथमापृथिवीमुख्यलोकनाड्यन्तमध्यगाः ॥२०॥ अवधिज्ञानतुल्यास्तिबिक्रियाद्धरनेकधा । सप्तमी क्षितिपर्यन्तगमनागमन क्षमा ॥२१०।। मतिश्रुतावधिज्ञानानि सदृष्टिदिवौकसाम । सम्यग्मयन्ति रूप्यर्थप्रत्यक्षमायकान्यपि ॥२१॥ Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचदशोऽधिकार मिथ्याष्टिकुदेवानां विपरीतानि तानि च । कुजम्नाति प्रजायन्ते विपरीतार्थं वेदनात् ॥ २१२ ॥ [ ५५५ अर्थ :- सौधर्मेशान कल्प स्थित देव अपने अवधि ज्ञान से नरक की प्रथम पृथ्वी पर्यन्त के रूपी द्रव्यों को चराचर दखते हैं ||२०१ ॥ सनत्कुमार- माहेन्द्रकल्प स्थित देव अपने अवधि नेत्र से दूसरी वंशा पृथ्वी पर्यन्त के समस्त रूपी द्रव्यों को जानते हैं ॥। २०२ || ब्रह्मादि चार स्वर्गस्य देव तीसरी मेघा पृथ्वी पर्यन्त के रूपी द्रव्यों को अवधि द्वारा जानते हैं ||२०३ || शुक्रादि चार स्वर्गस्थ देव अपने अवधि नेत्र से चौथी श्रञ्जना पृथ्वी पर्यन्त के सकल रूपी द्रव्यों को जानते हैं ॥२०४॥ प्रानतादि चार स्वर्गस्थ देव अपने अवधिज्ञान के बल से पांचवीं अरिष्टा पृथ्वी पर्यन्त के समस्त रूपी द्रव्यों को देखते हैं ||२०५ || नवयं वेयक स्वर्गो में स्थित देव छठवीं मघवी पृथ्वी पर्यन्त के सकल रूपी द्रव्यों को अपने अवधिज्ञान से जानते हैं ||२०६|| नव अनुदिश एवं पांच अनुत्तर अर्थात् चौदह विमानों में स्थित ग्रहमिन्द्र सातवीं माघवो पृथ्वी पर्यन्त के रूपी द्रयों को जानते हैं || २०७|| श्री पांच अनुत्तर विमानवासी देव अपने अवधि नेत्र से लोकनाड़ी पर्यन्त के सर्व रूपी द्रव्यों को अपने अवधि नेत्र से चराचर देखते हैं ।। २०८ || सौधर्म स्वर्ग से लेकर पांच अनुत्तर पर्यन्त के देव क्रमश: नरक की प्रथम पृथ्वी से लोकनाड़ी के भीतर सप्तम पृथ्वी पर्यन्त अवधिज्ञान के सदृश हो श्रनेक प्रकार की विक्रिया करने की शक्ति से सम्पन्न होते हैं, तथा इसी प्रकार सप्तम पृथ्वी पर्यन्त गमनागमन की शक्ति से भी सयुक्त होते हैं ।।२०६ - २१० ।। स्वर्गो में सम्यग्दृष्टि देवों के मति श्रुत एवं अवधिज्ञान समीचीन होते हैं, जिससे ये रूपी पदार्थों को प्रत्यक्ष जानते हैं ।। २११ ।। किन्तु मिथ्यारष्टि ढेबों के ये तीनों ज्ञान मिथ्या होते है, क्योंकि वे ( कारणादि विपर्यास के कारण ) पदार्थों ( तत्वों ) को विपरीत जानते हैं अतः उनका ज्ञान कुज्ञान कहलाता है || २१२ ॥ ―― * वैमानिक देवों के जन्ममरण के अस्तर का निरूपण करते हैं:सौधर्मेशानयोः प्रोक्तमुत्पत्ती मरणेऽन्तरम् । उत्कृष्टेन च देवानां विनानि सप्त नान्यथा ॥ २१३॥ सनत्कुमारमाहेन्द्रवासिनां कर्मपातः । सम्भये मरख्यातं पक्षैकमन्तरं परम् ॥ २१४॥ अन्तरं ब्रह्मनाकावि चतुःस्वर्ग निवासिनाम् । उत्पत्तौ च्यवने स्याच्च महत्मासैकमेवहि ॥ २१५ ।। अन्तरं मरणोत्पत्तौ भवेच्च नाकिनां विधेः । मासौ द्वौ परमं शुक्रादिकस्वर्ग चतुष्टये ॥ २१६ ॥ Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५६ ] सिद्धान्तसार दोपक मानतादि चतुःस्वर्गवासिनामुत्तमान्तरम् । चातुर्मासावधियं मरणे सम्भवे तथा ॥२१७॥ नव वेयकाधेषु मरणे च समुद्भवे । सर्वेषामहमिन्द्रागां मासषट्कं परान्तरम् ॥२१८॥ अर्थ:-[ उस्कृष्टता से जितने काल तक किसी भी जीव का जन्म न हो उसे जन्मान्तर और मररण न हो उसे मरणान्तर कहते हैं 7 सौधर्मेशान इन कल्पों में यदि कोई भी जीव जन्म न ले तो अधिक से अधिक सात दिन पर्यन्त न ले । इसी प्रकार मरण न करे तो सात दिन पर्यन्त न करे, इसलिये वहाँ देवों के जन्म-मरण का अन्तर सात दिन कहा गया है ॥२१॥ सनत्कुमार-माहेन्द्र कल्पवासी देवों के कर्म उदयानुसार जन्म-मरण का उत्कृष्ट अन्तर एक पक्ष है ॥२१४॥ ब्रह्म आदि चार स्वों के देवों के जन्म-मरण का उत्कृष्ट अन्तर एक माह है ।।२१।। शुक्र आदि चार स्वर्गों के देवों के जन्म-मरण का उत्कृष्ट अन्तर दो मास है ।।२१६॥ पानतादि चार स्वगों में निवास करने वाले देवों के जन्म मरण का उत्कृष्ट अन्तर चार माह का जानना चाहिये ।।२१७॥ नववेयक आदि उपरिम सर्व विमानों में उत्पन्न होने वाले सर्व अहमिन्द्रों का उत्कृष्ट जन्मान्तर एवं मरणान्तर छह माह का है ।२१८।। अब इन्द्राविकों के जन्म-मरण का उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं: इन्द्रस्य च महादेश्या लोकपालस्य दुस्सहः । जायते विरहो मासषटकं हि पक्ने महान् ॥२१६॥ प्रायस्त्रिशसुराणां च सामानिकसुधाशिमाम् । अगरक्षकदेवानां च्यवने सति दुस्सहम् ।।२२०।। परिषत्रयदेवानां वियोगोद्भवमन्तरे । मानसं जायसे दुःखं चतुर्मासान्तमुत्तमम् ।।२२१।। अर्थ:-इन्द्र, इन्द्र की महादेवी और लोकपाल इनका दुस्सह उत्कृष्ट विरहकाल छह माह प्रमाण है । अर्थात् इनका मरण होने पर कोई अन्य जीव उस स्थान पर अधिक से अधिक छह माह तक जन्म नहीं लेगा ॥२१॥ वायस्त्रिश, सामानिक, अङ्ग रक्षक और पारिषद देवों का भरण होने के बाद उनके दुस्सह वियोग से उत्पन्न होने वाला मानसिक दुःख उत्कृष्ट रूप से चार माह पर्यन्त होता है । अर्थात् इनका उस्कृष्ट विरह काल चार माह है ॥२२०-२२१॥ Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचदशोऽधिकार [ ५५७ प्रब देव विशेषों के अन्तिम उत्पत्ति स्याभों का प्रतिपादन करते हैं:-- ईशानान्तं प्रजायन्ते कन्दर्पाः कुत्सिताः सुराः । लान्तवस्वर्गपर्यन्तं नीचाः किल्यिषिकामराः ॥२२२॥ अच्युतान्तेषु कल्पेषुत्पद्यन्ते बाहनामराः । प्राभियोगिकसंज्ञाश्च स्वपापपुण्यपाकतः ।।२२३॥ अर्थ:-( कान्दर्प परिणामी मनुष्य ) अपने अपने पाप एवं पुण्योदय से कुत्सित परिणामी कन्दर्प जाति के देवों में ईशान कल्प पर्यन्त, (कैल्विषिक परिणामी मनुष्य ) नीच परिणामी किल्विष जाति के देवों में लान्त व फल्प पर्यन्त और ( अभियोग्य भावना से युक्त मनुष्य ) भाभियोगिक है नाम जिनका ऐसे वाहन जाति के देवों में अच्युत कल्प पर्यन्त उत्पन्न होते हैं, इससे ऊपर नहीं ( इनकी उत्पत्ति क्षेत्र सम्बन्धी जघन्यायु होती है ) ॥२२२-२२३॥ प्रब प्रथमादि युगलों में स्थित देवों को स्थिति विशेष कहते हैं: प्रायुः पल्यं जघन्यं स्यादुत्कृष्टं सागराधकम् । सौधर्मस्याविमेऽन्ते पटले साधौ द्विसागरौ ॥२२४।। सनत्कुमारमाहेन्द्रयोः सार्धसप्तसागराः । अझनझोत्तरे चायुमहत्साधंदशाब्धयः ।।२२५।। पायुलन्तिधकापिष्टे सार्धद्विसप्तवार्धयः । तथा शुक्रमहाशुक्रयोः सार्धषोडशाब्धयः ॥२२६॥ शताराविद्वये चायुः सार्धाष्टादशसागराः । मानतप्राणतस्वर्गे प्रोत्कृष्ट विंशवायः ॥२२७॥ प्रारणाच्युतयोर्देवानां तद् द्वाविंशसागराः । सतः सागर एकक प्रादिग्न वेयकाक्षिषु ॥२२८।। वर्धते चाहमिन्द्राणां यावद् ग्रंयकान्तिमे । मायुस्तिष्ठति वार्थीनामेकत्रिशन्मितं परम् ॥२२६।। नवानुदिशदेवानामायुद्वात्रिंशशब्धयः । पञ्चानुत्तरदेवानां त्रयस्त्रिशच्च सागराः ।।२३०॥ Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५८ ] सिद्धांतसार दीपक इस्पुत्कृष्टं पृथक् प्रोक्तमायुश्च माकिनां फ्रमात् । अधःस्थे पटले ज्येष्ठं यत्तदृध्वंजघन्यकम् ॥२३१।। अर्थ:--सौधर्मशान कल्प के प्रथम पटल में जघन्य आयु एक पल्य और उत्कृष्ट प्रायु अर्धसागर प्रमाण तथा अन्तिम पटल में उत्कृष्ट प्रायु २१ सागर प्रमाण है ॥२२४॥ सनत्कुमार-माहेन्द्र की उत्कृष्ट प्रायु ७६ सागर तथा ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर की १०३ सागर प्रमाण है ।।२२५।। लान्तव-कापिष्ट कल्पों की १४३ सागर एवं शुक्र-महाशुक युगल की उत्कृष्ट प्रायु १६: सागर प्रमारण है ॥२२६।। शतारसहस्रार की १८३ सागर और प्रानत-प्रारपत युगल की उत्कृष्ट आयु २० सागर प्रमाण है ॥२२७।। प्रारण-अच्युत स्वर्गों की उत्कृष्ट प्रायु २२ सागर मगा है । इसाहे. गे स्मानि मायनों में स्थित अहमिन्द्रों की प्रायु में क्रमश: एक-एक सागर की वृद्धि (२३, २४, २५, २६, २७, २८, २९, ३० सागर ) होते हुये अन्तिम अवेयक की उत्कृष्ट प्रायु ३१ सागर प्रमाण है ॥२२८-२२६।। नव अनुदिश स्थित देवों की प्रायु ३२ सागर, तथा पंच अनुत्तरों में स्थित देवों को उत्कृष्ट प्रायु ३३ सागर प्रमाण है ।।२३०।। इस प्रकार देवों की पृथक् पृथक् उत्कृष्ट प्रायु क्रमश: कही गई है । नीचे नीचे के पटलों ( कल्पों) की जो उत्कृष्ट प्रायु होतो है, ऊपर ऊपर के पटलों को वही जघन्य आयु कही जाती है ॥२३१॥ (नोट-१२ वे स्वगं तक की प्रायु में जो माधा प्राधा सागर अधिक कहा है, वह घातायुष्क की अपेक्षा कहा है। प्रब प्रत्येक पटलों में स्थित देवों की प्रायु पृथक् पृथक कहते हैं:पुनविस्तरेण पटलं पटलं प्रति देवानां पृथगायुरुच्यतेः सौधर्मशानयो: प्रथमे पटले देवानां जघन्यायु: पल्योपम, उत्कृष्ट अर्धसागरः द्वितीये चोत्कृष्टमायः सागरत्रिंशद् भागानां सप्रदशभागाः । तृतीये विशद् भागानां एकोनविंशतिभागाश्च । चतुर्थ प्रायस्त्रिशद् भागानां एकविशतिभागाः । पञ्चमे चायु: विशद् भागामां त्रयोविंशतिभागा: । षष्ठे त्रिंशद् भागानां पञ्चविंशति भागाश्च सप्तमे विमाभागानां सप्तविंशतिभागाः । अष्टमे सागरत्रिशद्भागानां एकोनत्रिंशद् भागाः । नघमे चायु: सागरंकः, सागरस्य त्रिंशद्भागानामे कोभागः । दशमे सागरका सागरत्रिंशद् भागानां त्रयो मागाः । एकदशमे प्रायुः सागरैकः सागरप्रिशद्भागानां पञ्चभागाः। द्वादशमे सागरैक: सागरत्रिंशद् भागानां समभागाश्च त्रयोदशमे सागरंकः सागरविंशद् भागानां नवभागाः । चतुर्दश में सागरेकः सागर त्रिंशद्भागानां एकादशभागाः । पञ्चदशे प्रायः सागरेकः सागर त्रिशद्भागानां त्रयोदशभागाः । षोडशे सागरैक: सागरत्रिशद्भागानां पञ्चदशभागाः । सप्तदशे सागरकः सागरत्रिंशद्भागानां सप्तदश भागाः। अष्टादशे सागरंक: सागत्रिशद्भागानां एकोनविंशतिभागाः । एकोनविशे सागरकः सागरप्रिंशद्भागानां एकविशति भागाः । विशे सागरक: सागरप्रिंशद् भागानां त्रयोविंशतिभागाः । एकविशे सागरेकः सागरत्रिंशद् भागानां पञ्चविंशतिभागाः। Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालोऽधिकार: [ ५५९ द्वाविशे सागरकः सागर त्रिंशद् भागानां सप्तविंशति भागाः । त्रयोविशे सागरकः सागरत्रिंशद्भागानां एकोनविंशभागाः । चतुविशे प्रायः सागरी द्वो सागरत्रिंशद्भागानामेको भागः । पञ्चविशे द्वी सागरी सागरत्रिंशद्भागानां योभागाः । षड्विशे दो सागरी सागरत्रिंशद्भागानां पञ्चभागाः । सप्तविशे द्वौ सागरौ सागर त्रिंशद् भागानां सप्तभागाश्च 1 अष्टाविशे दो सागरी सागरत्रिंशद्भागानां नवभागाश्च । एकोनविंशत्पटले द्वौ सागरी सागत्रिंशदभागानां एकादशभागाः । त्रिंशत्संख्य के द्वो सागरी सागरप्रिंशद्भागानां त्रयोदशभागाः । अन्तिमे पटले देवानामुत्कृष्टमायुश्च साधौ दो सागरो। सनत्कुमारमाहेन्द्रयोः नाकिनामादिमे पटले प्रायुरुत्कुष्टं त्रयोऽब्धयः,अन्धि चतुर्दशभागानां त्रयोभागाः । द्वितीये चायः सागरास्त्रयः सागरचतुर्दशभागानां त्रयोदशभागाः । तृतीये प्रायुश्चत्वार: सागराः सागरचतुर्दशभागानां नवभागाः । चतुर्थे पञ्चसागराः सागरचतुर्दशभागाना पचभागाः । पञ्चमे घट सागराः सागर चतुर्दशभागानामेको भागः। षष्ठे षट्सागराः सागरचतुर्दशभागानां एकादशभागाः। सम्मे पटले देवानां परमायुः सार्धसप्तसागराः । ब्रह्मब्रह्मोत्तरयो: प्रथमे पटले देवानामुत्कृष्टमायुः सपादा प्रती सागरा: । द्वितीये चायुनंवसागराः । तृतीये पादोन दशसागराः । चतुर्थे पटले नाकिनामुत्कृष्टास्थितिः सार्धदशसागरोपमानि । लास्तव-कापिष्टयोरमराणामुत्कृष्टमायुः प्रथमे पटले सार्धद्वादशाध्यः। द्वितीये चायः सार्धचतुदंशसागरोपमानि । शुक्रमहाशुक्रयोः पटलैकस्मिन् नाकिनां परमायुः सार्धषोडशभागरोपमाणि । शतारसहस्रारयोरेकस्मिन् पटले देवानां ज्येष्ठमायुः सार्धाष्टादशसागरोपमाणि । मानतप्राणतयोः प्रथमे पटले देवानां परास्थितिरेकोन विंशतिवाधयः । द्वितीये च साकोनविंशतिसागराः । तृतीये नाकिनां परमायुः विंशतिसागरोपमानि । प्रारणाच्युतयोरुत्कृष्टमायुः स्वगिरणां प्रथमे पटले सागराः विशतिः सागर विभागीकृतस्य द्वो भागो । द्वितीये घायुरेकविंशतिसागराः सागरस्य ननीयो भागः । ततीये पटले देवानां परास्थिति: द्वाविंशतिसागरोपमारिण । ततः अधः प्रथम वेयके अहमिन्द्राणां परमायस्त्रयो विशतिबाधयः अधो द्वितीय वेयके घायश्चविंशतिसागराः । प्रस्ततीय देयके परास्थितिः पञ्चविंशति जलधयः । मध्यप्रथम वेयके चायः षड्विंशतिवार्धयः । मध्य द्वितीयनवेय के चायुः सप्तविंशतिसागराः, मध्यतृतीयन वेयके परास्थितिरष्टाविंशतिसागरोपमाणि । कर्ध्वप्रथम येयके परमायुरेकोनत्रिशद्वार्धयः । ऊर्ध्वद्वितीय ग्रंथेयके चास्त्रिशत्सागराः । ऊवतत्तीयग्ने वेयके अहमिन्द्राणां परा स्थितिः एकत्रिंशत्सागरोपमाणि । नबानुदिशे अहमिन्द्राणां परमायविंशत्सागरोपमाणि । पञ्चानुत्तरे अहमिन्द्राणां परास्थितिस्त्रयस्त्रिशत्सागरोपमारिण अधःस्थ पटले यदुत्कृष्टायुः तदूर्ध्वपटले सर्वत्र देवानां जघन्यं ज्ञातव्यं ।। अर्थः-उपर्यत संस्कृत गद्य में प्रत्येक कल्पों के प्रत्येक पटलों की उत्कृष्ट आयु का पृथक पृथक् दिग्दर्शन कराया गया है, जिसका सम्पूर्ण अर्थ निम्नाङ्कित तालिका में निहित है (तालिका अगले पेज पर देखें) Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० ] क्रमांक १ २ ३ Y ५. ६ ७ ८ ९ १० ११ १२ १३ * १५ १६ १७ १५ १९ २० एकत्रित दिग्दर्शन: पटल नाम ऋतु विमल चन्द्र गु वीर अरुण नन्दन नसिन कावन रोहित अश्वत् महत् ऋद्धीप ड्रयं दचक दचिर मङ्क स्फटिक तपनीय भेष उत्कृष्टायु ३० +/- 31 14 १५ १० १३३ १३५ २३० ,, " ,, " ,, १. २८ iye २१ ३० " 33 33 "P " 21 t " ▸▸ 27 بط 11 " २२ २३ २४ २५. २६ २७ ३१ १ २ ३ ४ ५. ६ ७ १ २ सिद्धान्तसार दीपक पटल नाम अभ्र हरित पद्म मोहित वज्र नन्द्या● प्रभङ्कर पृष्टक नय मित्र प्रभ कुन वनमाल नाय गरुड़ লাङ्गল यसभन्द्र च प्ररिट सुरस उत्कृष्टायु 4 4 4 4 in we we we १ ર २० २५० २ ૨ २ मा २३ सा. + ॐ केश * ५४ ६५४ ६ ८ ॥ ९ सा० क्रमांक ४ x 1 १ २ १ १ ove Eve १ २ a १ २ ३ १ २. ३ १ २ ३ पटन नाम ब्रह्म ब्रह्मोत्तर २ चारस ब्रह्म हृदय मान्तव शुक्र शतार मानत प्राणत पुष्पक सातक श्रच्युत सुदर्शन प्रमोध सुप्रबुद्ध यशोधर सुभव सुविशाल सुमनस सौमनस प्रीतिकर उत्कृष्टायु १०३ सा. +२= १२ सा. १४३ " +3= १६३, +२= स +3 १६ सा. १६३ २० + २०३ ” २१ २३ "P २२ सा. २४ २५ २६ " २७ २८ ।। RE, ३० ३१ Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ বয়ংঘিকা; [ ५६१ अवशेष अर्थ:-नव अनुदिशों में स्थित प्रहमिन्द्रों की उत्कृष्ट प्रायू ३२ सागर प्रमाण एवं पांच अनुत्तरों में स्थित प्रहमिन्द्रों की उत्कृष्ट प्रायु ३३ सागर प्रमाण होती है। - सौधर्मशान कल्प के प्रथम पटल में स्थित देवों की जघन्याय एक पल्योपम प्रमाण होती है। इसके आगे नोचे नीचे के पटलों की जो उत्कृष्ट मायु होती है, वही ऊर्ध्व ऊर्ध्व पटलों में स्थित देवों को जभन्यायु जानना चाहिए। अब देवों में प्रायु को हानि एवं वृद्धि के कारण तथा उसके प्रमाण का दिग्दर्शन कराते हैं: ससम्यक्त्वस्य देवस्य सागराधं हि वर्धते । प्रायुवित्सहस्रारं मिथ्यात्वारिविघातनात् ॥२३२॥ मिथ्यात्वागत देवस्थ सम्बकत्वरसाशात् । होयते सागरार्धायुरिति स्थितिश्च नाकिनाम् ।।२३३॥ ज्योतिर्भावनभौमेषु सम्यक्त्वाप्राप्तितोऽणिनः । किञ्चिद् व्रततपः पुण्यादुत्पद्यन्ते भवाध्वगाः ॥२३॥ सम्यक्त्वप्राप्तिधर्मेण स्वायुर्भवनवासिनाम् । सागरा) प्रवर्धत मिथ्यात्वशघातनात् ॥२३५।। ज्योतिष्कष्यन्तराणां चायुः पल्या प्रवर्धते । मिथ्यात्वारिविनाशेन सम्यक्त्वमणिलाभतः ॥२३६॥ सर्वत्र विश्वदेवानां मिथ्यात्वषिषोभनात् । सम्यक्स्वामृत पानेन स्वायुः सम्वर्धतेतराम् ॥३३७॥ पल्यैकस्याप्यसंख्यातभागप्रममिति स्फुटम् । स्थिति वदन्ति देवानामागमे स्थितिवेदिनः ।।२३८।। प्रथ:-सौधर्म स्वर्ग से सहस्रार स्वर्ग पर्यन्त मिथ्यात्व रूपी शत्रु का नाश करने वाले सम्यग्दृष्टि देवों की प्रायु में प्रधं सागर की वृद्धि होती है ।।२३२॥ तथा सम्यक्त्व रूपी रत्न का नाश होने से मिथ्यात्व को प्राप्त हुए देवों की आयु में से यह प्रधं सागर हीन हो जाती है ॥२३३। जिन मनुष्यों को सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं हुई, वे किञ्चित् व्रत एवं तप आदि से उपाजित पुण्योदय से ज्योतिषी, भवनवासी एवं यन्तर वासी देवों में उत्पन्न होते हैं, और पुनः संसाररूपी मार्ग में भ्रमण - - Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ ] सिद्धान्तसार दोपक करते हैं ।।२३४॥ मिथ्यात्व रूपी शत्र के नाश से तथा सम्यक्त्व प्राप्ति रूप धर्म से भवनवासी देवों की अपनी अपनी प्रायु में अर्ध सागर की वृद्धि होती है, तथा मिथ्यात्व रूपी शत्रु के विनाश एवं सम्यक्त्व मरिण के लाभ से ज्योतिष्क तथा व्यन्तर वासी देवों को प्रायु में प्रध पल्य की वृद्धि होती है ।।२३५२३६।। स्थिति आदि को जानने वाले गणधरादि देवों ने प्रागम में मिथ्यात्व रूपो विष को छोड़ने और सम्यक्त्व रूपी अमृत के पान से युक्त सर्वत्र अर्थात् बारहवें स्वर्ग पर्यन्त समस्त देवों को अपनी अपनी (धात ) प्रायु में पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण (जघन्य) वृद्धि कही है ॥२३७-२३८।। ' अब कल्पवासी देवांगनाओं की उत्कृष्ट प्राय का प्रमाण कहते हैं:-- सौधर्मे च जघन्यायुः पादानपन्यसंख्यकम् । वेवोनामायस्कृष्टं पञ्चपन्योपमानि च ।।२३६॥ ईशाने सप्तपल्यानि ज्येष्ठायुदेवयोषिताम् । सनत्कुमारकल्पे च नवपल्योपमान्यपि ॥२४०॥ माहेन्द्र योषितामायुः पत्यकादशसम्मितम् । ब्रह्मकल्पे परायुश्च पल्मोपमास्त्रयोदश ॥२४१॥ ब्रह्मोसरे स्थितिः स्त्रीणां पल्यपञ्चदशप्रमा । लान्तवे च परायष्फ पल्यं सप्तदशप्रमम् ॥२४२।। कापिष्टे जीवितं पल्योपमान्येकोनविंशतिः । शुक्र स्त्रीणां परायश्च पल्यानि ो कविंशतिः ।।२४३॥ महाशक स्थिति: पल्पश्रयोविंशतिसम्मिता । शतारे योषितामाघः पल्यानि पञ्चविंशतिः ॥२४४।। सहस्रारे स्थितिः स्त्रीया पल्यानि सप्तविंशतिः । प्रानते जीवितं पन्यचतुस्त्रिशत्प्रमं भवेद् ॥२४५।। प्राणते जीवितं पल्यैफचत्वारिंशदुत्तमम् । पारण योषिता पन्याष्टचत्वारिंशदूजितम् ॥२४६।। अच्युते पञ्चपञ्चाशत्पल्यान्यायुश्च योषिताम् । पुनरामा ब्रु बेऽध्यायुरन्यशास्त्रोक्तमञ्जसा ।।२४७) अर्थः-सौधर्म स्वर्ग में स्थित देवियों की जघन्य प्रायु १६ पत्य एवं उत्कृष्ट भायु पांच पल्प प्रमासा होती है ।।२३६।। ईशान स्वगस्थ देवियों की आयु सात पल्य एवं सनरकुमार कल्प स्थित Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यद्यपिका [ ५६३ देवियों की उत्कृष्ट आयु नव पल्य होती है ॥ २४० ॥ माहेन्द्र स्वर्गस्थ देवियों की आयु ग्यारह पल्य तथा ब्रह्मकल्प स्थित देवियों की उत्कृष्ट श्रायु तेरह पत्य प्रमाण होती है ॥२४१ || ब्रह्मोत्तर स्वर्ग स्थित देवांगनाओं की उत्कृष्ट आयु पन्द्रह पल्य प्रमाण होती है जया लान्स स्वर्गस्थ देवांगनाओं की श्रायु सहपत्य होती है || २४२ ॥ कापिष्ट कल्प स्थित देवा गनाओ की उत्कृष्ट श्रायु उन्नीस पत्य एवं शुक्र कल्प में इक्कीस पल्य प्रमाण होती है ।। २४३|| महाशुक्र स्थित की तेईस पल्य तथा शतार कल्प स्थित देवांगनाओं की उत्कृष्ट प्रायु पच्चीस पल्य प्रमाण होती है || २४४॥ सहस्रार कल्प में स्थित देवांग - नानों की उत्कृष्ट श्रायु २७ पल्य, तथा श्रानत कल्प स्थित देवांगनाओं की उत्कृष्ट श्रायु ३४ पल्य प्रमाण है || २४५ || प्रारणत कल्प स्थित देवांगनाओं की उत्कृष्ट आयु ४१ पल्य, तथा भारण स्वर्ग स्थित देवांगनाओं की उत्कृट आयु ४८ पल्य प्रमाण है ।। २४६ ।। और अच्युत कल्प स्थित देवांगनाओं की उत्कृष्ट श्रायु ५५ पल्य प्रमाण होती है । वैमानिक देवांगनाओं की जघन्य उत्कृष्ट प्रायु का चार्ट: कल्प जवन्यायु उत्कृष्टायु सौधर्म सवा पल्य ५ पल्य ऐशान सा. मा. ब्रह्म ब्रह्मोसा. का. शु. म. ग. स. आ. प्रा. प्रा. १४ पल्य ७ ९ ११ १२ १५ १७ १९ २१ २३ २५ २७ ३४ ४१ ७५म झ० | ९ ११ १३ १५ १७ १६ २१ २३ २५ २७ ३४ ४१ ४८ ५५ पल्म पञ्चमे जीवितं चत्वारिंशत्पत्यानि योषिताम् । षष्ठे पम्योपमाः पञ्चचत्वारिंशत् स्थितिः परा ॥ २५० ॥ ४८ पल्य इन वैमनिक देवांगनात्रों की उत्कृष्ट प्रायु, अन्य शास्त्रों के अनुसार पुनः कहते हैं ॥ २४७॥ देवांगनाओं की अन्य शास्त्रोक्त उत्कृष्ट प्रायु का प्रमाण कहते हैं: सौधर्मेशानयोश्चायुर्वेबीनां पत्यपश्चकम् । द्वितीये युगले चायुः पत्यसप्तदशप्रमम् ॥ २४८ ॥ स्थितिर्युग्मे तृतीये च पत्यानि पञ्चविंशतिः । चतुर्थे योषितां पन्याः पञ्चत्रिंशच्च जीवितम् || २४६ ॥ - Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्तसार दीपक सप्तमे युगले स्त्रीणां पञ्चाशस्पल्यजीवितम् । प्रष्टमे पञ्चपञ्चाशत्पल्यायुर्देवयोषिताम् ॥२५॥ ग्राह्य एकोपदेशो मध्येऽनोयरुपदेशयोः । प्रमाणीकृत्य तीर्थेशवचः छमस्थयोगिभिः ।।२५२।। अर्थः- सौधर्मशान नामक प्रथम युगल में देवियों की उत्कृष्ट माय पांच पल्य, एवं द्वितीय युगल में सात पल्य प्रमाण होती है ।।२४८।। तृतीय युगल में २५ पल्य, तथा चतुर्थ यगल में देवांगनाओं की उत्कृष्ट प्राय ३५ पल्य प्रमाण होती है ।।२४६।। पंचम युगल में ४० पल्य और षष्ठ युगल में देवांगनामों को उत्कृष्ट प्राय ४५ पल्प प्रमाण होती है ।२५०।। सप्तम युगल में देवांगनाओं की प्रायु ५० पल्य एवं अष्टम युगल में देवियों की उत्कृष्ट प्राय ५५ पल्य प्रमाण होती है ।।२५१।। तीर्थंकर देव के वचनों को प्रमाण करके छद्मस्थ योगिराजों के द्वारा उपयुक्त दोनों उपदेशों में से एक उपदेश हो ग्रहण करना चाहिये ॥२५२।। अब देवों के शरीर का उत्सेध कहते हैं: सौधर्मेशानयोयदेहः सप्तकरोन्नतः । सनत्कुमारमाहेन्द्रयोर्देवानां च षट्करः ॥२५३॥ स्याद् ब्रह्मादि चतुःस्वर्गे कायः पञ्चकरोच्छ्रितः । शुक्रादिकचतुर्नाके देवाङ्गोरुचः चतु :करैः ॥२५४॥ प्रानतप्राणते देवाङ्गः सार्धत्रिकरोवयः ।। प्रारणाच्युतयोः कायो देवानां त्रिकरोन्नतः ॥२५॥ सार्धद्विकरवेहोच्चोऽस्त्यधोग्रं वेयकत्रिषु । देवानां द्विकराङ्गोच्चो मध्यमे वेयकत्रिषु ।।२५६॥ सार्धकहस्तदेहोच्च ऊर्ध्व धेयकत्रिषु । नवानुदिशसंज्ञेग सपावक करोन्नतम् ॥२५७।। पश्चानुत्तरसंशेऽहमिन्द्राणां विस्फुरत्प्रमा। एकहस्तोन्नतो दिक्ष्यः कायोक्रियिको भवेत् ।।२५८।। अर्थ:-सौधर्मशान कल्प स्थित देवों के शरीर को ऊँचाई सात (७) हस्त प्रमाण एवं सानत्कुमार-माहेन्द्र में ६ हस्त प्रमाण है ॥२५३।। ब्रह्मादि चार स्वर्गों में ऊँचाई ५ हस्त एवं शुक्रादि Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचदशोऽधिकार : [ ५६५ चार स्वर्गों में देवों के शरीर की ऊँचाई ४ हस्त प्रमाण होती है ॥२५४।। प्रानत-प्राणत कल्प में शरीर का उत्सेध ३३ हस्त प्रमाण तथा प्रारण-अच्युत स्वर्ग में देवों के शरीर का उत्सेध ३ हस्त प्रमाण है ।।२५।। तीनों प्रधो ग्रेवेयकों में उत्सेध २३ हस्त तथा तीनों मध्य प्रेवेयकों में देवों के शारीर का उत्सेधान्त प्रमागा है ।।२५६!! नीनों ऊर्ध्व ग्रेवेयकों में देह का उत्सेध १६ हस्त एवं नव अनुदिशों में काय उस्लेध १८ हस्त प्रमाण है ।।२५७/1 पंच अनुत्तरों में अहमिन्द्रों के तेजोमय, दिव्य वैक्रियक शरीर का उत्सेध एक हस्त प्रमाण होता है ॥२५८।। अब वैमानिक देवों के माहार एवं उच्छ्वास के समय का निर्धारण करते हैं:-- सौधर्मादियुगे देवानां द्विसहस्रवत्सरैः । गतराहार उच्छ्यासो भवत्पक्षद्वये गते ॥२५॥ द्वितीये युगले सप्तसहस्राब्दैविनिर्गसः । देवानां मानसाहार उच्छ वासः पक्षसप्तके ॥२६॥ तृतीयेऽब्दसहस्राणां नाकिनां दशभिर्गतः । सुधाहारोऽस्ति चोच्छ्वासो मनाक् पक्षदशातिर्गः ॥२६॥ चतुर्थे युगले वर्षचतुर्दशसहस्रकः । गते राहार उच्छ्वासो द्विसप्तपक्षनिर्गमः ।।२६२॥ पञ्चमे वत्सराणां गतैः षोडशसहस्रकः । सुधाहारो वरोच्छ्वासः पक्षः षोडशभिर्गतः ॥२६३।। षष्ठेऽतिगश्च वर्षाणामष्टादशसहस्रकः । मानसाहार उच्छ्वासः पक्षरण्टावसर्गतः ।।२६४॥ सप्तमे युगले वर्षगतविशसहस्रकः । सुधाहारो लघुच्छ्वासो विशपक्षविनिर्गतः ॥२६५।। अष्टमे नाकिना चाहारो द्वाविंशसहस्रकः । वर्षर्गतः शुभोच्छ्यासः पक्षार्थिनिर्गमः ।।२६६॥ प्राचे प्रयकेऽतीतस्त्रयोविंशसहस्रकः । वराहार उच्छ्वासः पक्षोनवर्षनिर्गमे ॥२६७॥ Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्तसार दीपक द्वितीये चाहमिन्द्राणां चतुर्विशसहस्रकः । पब्वैराहार उच्छ्वासो गर.वर्ष मनाया ॥२६८।। तृतीये स्यात् सुधाहारः पञ्चविंशसहस्रकः । गतः सुझोम्वासः पक्षानवत्सरे गते ॥२६॥ चतुर्थे मानसाहारोऽन्वषड्विंशसहस्रः। गतेःसुगन्धिरुच्छ मासः पक्षः षर्विशतिप्रमः ।।२७०।। पश्चमे वत्सराणां च सप्तविंशसहस्रकैः । गौराहार उच्छवासस्त्रिपक्षान.ब्यानगम ॥२७१॥ षष्ठे अंधेयकेऽष्टाविशाब्दसहस्रनिर्गतः । निम्याहाको लहनामो मासंपचतुवंशप्रमैः ॥२७२।। सप्तमेऽमृतनाहार एकोनविंशवब्दकः । महस्राणां शुमोच्छवासो मासैः सार्धचतुर्दशैः ॥२३॥ अष्टमेऽस्ति हवाहारस्त्रिशद्वर्षसहस्रकः।। गते रच वर उच्छ्वासस्त्रिशत्पक्षातिगमनाक् ॥२७४॥ प्रवेयकेऽन्तिमे घाहारो छ कत्रिशदब्दकैः । सहस्राणां सदुच्छ्वासस्तावत्पक्षश्च निर्गतः ॥२७॥ नवानुदिशदेवानां स्याद्वात्रिंशत् सहस्रकः । वर्षराहार उच्छ्वासो गसमासश्च षोडशः ॥२७६।। पश्चानुत्तरदेयानां प्रयस्त्रिशत्सहस्रकैः । वर्षेश्चाहार उच्छ्वासो मासानां सार्धषोडशः ।।२७७।। अर्थ:-सौधर्मेशान नामक प्रथम युगल में देवों का प्राहार २००० वर्ष बाद एवं उच्छवास दो पक्ष बाद होता है ॥२५६।। द्वितीय युगल में देवों का मानसिक आहार ७००० वर्ष बाद तथा उच्छ वास सप्त पक्ष बाद होता है ॥२६०।। तृतीय युगल में देवों का अमृतमय पाहार १०००० वर्ष बाद और उच्छवास दस पक्ष बाद होता है ।।२६१।। चतुर्थ गल में आहार १४००० वर्ष बाद तथा उच्छ वास १४ पक्ष बाद होता है ।।२६२॥ पंचम युगल में देवों का सुधामय माहार १६.०० वर्ष बाद और Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचदशोऽधिकारः [ ५६७ सभ्छ घास १६ पक्ष बाद होता है || २६३३॥ षष्ठ युगल में मानसिक श्राहार १८००० वर्ष बाद एवं उवास १८ प ( ६ माह ) बाद होता है || २६४ ।। सप्तम युगल में देवों का प्रहार २०००० वर्ष बाद एवं लघु उच्छ बास २० पक्ष ( १० माह बाद होता है ।१२६५।। अष्टम युगल में देवों का आहार २२००० वर्ष बाद एवं उच्छवास २२ पक्ष एवं ( ११ माह ) बाद होता है ।। २६६|| प्रथम वे स्थित महमिन्द्रों के मानसिक आहार २३००० वर्ष बाद एवं उच्छवास ११६ माह बाद होता है ।। २६७ ।। द्वितीय वेयक में श्राहार २४००० वर्ष बाद तथा उच्छवास एक वर्ष बाद होता है। ||२६|| तृतीय वेयक में देवों का प्रहार २५००० वर्ष बाद एवं राष्णुबारक वाट होता है ||२६|| चतुर्थ प्रदेयक में अहमिन्द्रों का श्राहार २६००० वर्ष बाद और सुगन्धित उच्छ् वास एक वर्ष १ माह बाद होता है || २७० || पंचम वेयक में अहमिन्द्रों का आहार २७००० वर्ष बाद एवं उच्छवास एक वर्ष १३ माह बाद होता है वैद्यक में प्राहार २८००० वर्ष बाद तथा उच्छवास एक वर्ष दो माह बाद होता है २७२ ।। सप्तम ग्रैवेयक में अमृतमय श्राहार २००० वर्ष बाद एवं उच्छ बास एक वर्ष २३ माह बाद होता है || २७३ || श्रष्टम ग्रैवेयक में श्रमृताहार ३०००० वर्ष बाद और किंचित् उच्छवास एक वर्ष ३ माह ( १४ वर्ष ) चाद होता है ||२७४॥ अन्तिम नवम वेयक में सुधाहार ३१००० वर्ष बाद एवं उच्छवास ३१ पक्ष प्रर्थात् एक वर्ष ३३ माह बाद होता है ।२७५॥ नव अनुदिशों में ग्रहमिन्द्रों का श्राहार ३२००० वर्ष बाद और उच्छ वास एक वर्ष ४ माह बाद होता है || २७६ || तथा पश्च अनुत्तरवासी ग्रहमिन्द्रों का आहार ३३००० वर्ष बाद एव उच्छ् वास ३३ पक्ष - एक वर्ष ४३ माह बाद होता है || २७७॥ ।१२७१ ॥ षष्ठ ।। श्रम लौकान्तिक देवों के अवस्थान का स्थान एवं उनकी संख्या का प्रतिपादन करते हैं: - वसन्त ब्रह्मलोकान्ते ये लौकान्तिकनाकिनः । तेषां नामानि दिकू संख्या वक्ष्ये संक्षेपतः क्रमात् ॥ २७८ ॥ सारस्वतास्तथादित्या वह्नयोऽरुणसंज्ञकाः । ईशानादि विथि प्रकीर्णेषु वसन्त्यमी || २७६ ॥ प्राच्यादी गर्दतोयाश्च वसन्ति तुषितायाः । अव्यावाधास्ततोऽरिष्टाः श्रेणीबद्ध ष्वनुक्रमात् ॥ २८० ॥ द्विद्वयोः सप्तयुक् सप्तशतानि तु सहस्रकाः । ततो द्वयोर्द्वयोद्धि हो सहस्रो द्वयाधिकौ ॥२८१ ॥ Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८ ] सिद्धांतसार दीपक अर्थ:-ब्रह्मलोक के अन्त में जो लोकान्तिक देव निवास करते हैं उनके नाम, प्रवस्थान की दिशाएं एवं उनकी संख्या का प्रमाण मैं (प्राचार्य ) संक्षेप से किन्तु क्रमशः कहूंगा ।।२७८॥ सारस्वत, मादित्य, वह्नि और प्ररण नाम के लौकान्तिक देव क्रमशः ईशान, प्राग्नेय, नैऋत्य एवं वायव्य विदिशाओं में स्थित प्रकोणक विमानों में रहते हैं ।।२७॥ सथा गर्दतोय, तुषित, मव्याबाध एवं अरिष्ट नाम के लोकान्तिक देव क्रमश: पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशा गत श्रेणोबद्ध विमानों में रहते हैं ।।२८०।। इनमें से सारस्वत देवों का प्रमाण ७०७, प्रादित्य लोकान्तिकों का ७०७, वह्नि देवों का ७००७ तथा प्रण लौकान्तिक देवों का प्रमाण ७००७ है । इसके आगे क्रमशः दो-दो हजार दो की वृद्धि होती गई है । यथागर्वतोय लोकान्तिकों का प्रमाण ६०.६, तुषितों का ६०.६, अन्याबाघ देवों का ११००११ एवं औरष्ट नामक लोकातिक यों का प्रभास ११००११ है ।।२८१।। अब सारस्वतादि दो दो कुलों के अन्तरालों में स्थित लोकान्तिक देवों के कुलों के नाम एवं उनकी संख्या के प्रमाण का दिग्दर्शन कराते हैं:-- अग्निसूर्येन्दु सत्याभादेवाः श्रेयस्कराभिधाः । क्षेमरा बशिष्ठाख्या देवाः कामषराख्यकाः ।।२८२॥ निर्वाणरजसो नाम्ना दिगन्तरकृतोऽमराः। प्रारमरक्षकनामानः सर्वरक्षान बायवः ॥२३॥ बसवोडाचाह्वया विश्वाः षोडशैते सुराः क्रमात् । द्वौ द्वौ सारस्वताबोनां तिष्टतश्चान्तराष्टसु ॥२४॥ संख्यामीषां पृथक सप्ताधिक सप्तसहस्रकाः । ततो ह्यग्रे सहस्र द्वे प्रवर्धते क्रमात पृथक् ॥२८॥ चतुर्लक्षास्तथा सप्तसहस्राश्च शताष्टकम् । विशतिमलिता एते सर्वे लोकान्तिकामताः ॥२६॥ अर्थ:-अग्न्याभ, सूर्याभ, चन्द्राभ, सत्याभ, श्रेयस्कर, क्षेमङ्कर, वशिष्ट, कामघर, निर्वाण रजस्, दिगन्तरक्षक, प्रात्मरक्षक, सर्वरक्षक, मरुत्, वसव, अश्व एवं विश्व नाम के ये सोलह प्रकार के लौकान्तिक देव क्रमश: सारस्वतादि दो दो देवों के अन्तरालों में रहते हैं ॥२८२-२८४।। इनमें से मान्याभ देवों की संख्या ७००७ प्रमाण है । इसके आगे पृथक् पृथक क्रमशः २००२ की वृद्धि होती गई है । इस प्रकार सब लोकान्तिकों को एकत्रित संख्या ४०७६२० प्रमाण मानी गई है ।।२८५-२६६।। Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करते हैं: पंचदशोऽधिकार। [ ५६९ लौकान्तिक वेषों के विशेष स्वरूप का एवं उनकी प्रायु का प्रतिपावन Cam नाविका न च होनास्ते स्वात्मध्यानपरायणाः 1 विरक्ताः कामभोगेषु निसब्रह्मचारिणः ॥२८७॥ चतुर्दशमहापूर्वसमुद्रपारगा विदः । सम्बोधनविधातारो दीक्षा कल्याणकेऽहं ताम् ॥ २८८ ॥ देवर्षयः पः स्तुता वन्द्याः पूज्याश्चेन्द्रादिनाकिभिः । एकावतारिणोऽत्यन्त स्वल्पमोहाः शुभाशयाः ॥ २८६॥ विरागा जिनदीक्षादानेऽति प्रमोदकारिणः । सन्ति लौकान्तिकामराः ॥ २६० ॥ प्रत्यन्त स्त्रीविरक्ता ये तपस्यन्ति विरागिणः । मुनयः प्राग्भवे ते स्युल्लौकान्तिकाः स्त्रियोऽतिगाः ॥ २६२ ॥ सारस्वतादि सप्तानां देवर्षीणां परा स्थितिः । प्रखण्डाः सागरा श्रष्टौ संसाराब्ध्यन्तगामिनाम् ॥२६२॥ प्रायुश्चारिष्टदेवानां नवंय सागरोपमाः । पुनरेषां वे किश्चित् सुखबोधाय वर्णनम् ॥ २६३ ॥ अर्थः- ये सभी लौकान्तिक देव परस्पर में ऋद्धि आदि से होनाधिक नहीं होते, ये भ्रात्मध्यान परायण, काम एवं भोगों से विरक्त तथा निसर्गतः ब्रह्मचारी होते हैं ॥२८७॥ चतुर्दशमहापूर्व रूपी समुद्र के पारगामी, विद्वान एवं दीक्षा कल्याणक के समय ग्रहन्तों को सम्बोधन करने वाले होते हैं ||२८|| इन्द्रादि समस्त देवों द्वारा पूजनोय, वन्दनीय एवं स्तुत्य ये सर्व देवधि संज्ञा वाले देव एकभावतारी, अत्यन्त प्रल्पमोह युक्त एवं शुभ भावनाओं से युक्त होते हैं ॥ २६६॥ राग से रहित जिनेन्द्र भगवान की दीक्षा के समय श्रत्यन्त प्रमोद को धारण करने वाले ये लौकान्तिक देव ब्रह्मकल्प के अन्त में निवास करते हैं ||२०|| पूर्वभव में जो मुनि स्त्री जन्य राग से अत्यन्त विरक्त होते हैं, तथा राग रहित अत्यन्त उग्र तप करते हैं, वे स्वर्ग में श्राकर स्त्रियों के राग से रहित लोकान्तिक देव होते हैं ||२१|| संसार रूपी समुद्र के अन्त को प्राप्त होने वाले सारस्वतादि साल देवर्षियों की उत्कृष्ट श्रखण्ड आयु प्राठ सागर प्रमाण होती है ।। २६२ ॥ श्ररिष्ट नामक लौकान्तिक देवों की उत्कृष्ट श्रायु Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७० ] सिद्धान्तसार दीपक ६ सागर प्रमाण होती है । अब इनके भेद प्रभेदों के प्रमाण का सुख पूर्वक बोध कराने के लिए उसी प्रमाण को पुन: कहते हैं ।।२६३|| अब प्रत्येक कुलों का पृथक् पृथा प्रमाण कहते हैं: सप्ताधिकसप्तशतप्रमाः सारस्वतदेवाः ब्रह्मकल्पान्तस्यैशानदिकस्य प्रकीर्णकेषु वसन्ति । सप्ताग्रसप्तशत संख्या प्रादित्याश्चाग्निदिशास्थ प्रकीर्णक विमानेषु तिष्ठन्ति । सप्ताग्रसप्तसहस्रमिता वह्नयः नैऋत्यदिस्थित प्रकीर्णेषु वसन्ति । सप्ताग्र सप्तसहस्र प्रमा: अरुणाः वायुकोणस्थ प्रकीर्णकेषु भवन्ति । नवाग्रनवसहस्रा: मदतोयाः पूर्वदिक् श्रेणीबद्धेषु वसन्ति । नवाधिक नवसहस्रमानास्तुषितामराः दक्षिणाशास्थ श्रेगोबद्ध विमानेषु तिष्ठन्ति एकादशाग्रेकादशसहस्राः अव्याबाधा: पश्चिम दिक् श्रेणीबद्धषु सन्ति । एकादशयुतकादशसहस्रमिता अरिष्टा उत्तराशाश्रेणीबद्धेषु निवसन्ति । सप्ताग्नसप्तसहस्रा अग्न्याभा, नवाग्रनव सहस्राश्च सूर्याभा: सारस्वतगर्दतोसयोरन्तरे तिष्ठन्ति । एकादशाका दश सहस्राश्चन्द्राभाः, त्रयोदशानत्रयोदशसहस्रा सत्याभाश्च गर्दतोमादित्ययोरन्तरे वसन्ति पञ्चदशाधिकपञ्चदशसहस्रा: श्रेयस्कराः. सप्तदशाग्रसप्तदशसहस्राः क्षेमङ्कराश्चादित्यतुषितयोरन्तरे सन्ति । एकोनविंशत्य ग्रेकोनविंशतिसहस्राः वशिष्ठाः, एकविंशत्यधिककविंशतिसहस्राः वामपराश्च तुषितवह्नयोरन्तरे स्थुः । अयोविंशत्यग्नत्रयोविंशतिसहस्राः निर्धारणरजसः, पञ्चविंशत्यग्रपञ्चविंशतिसहस्राः दिगन्तरकृत: वह्नया व्याबाधयोरन्तरे च वसन्ति । सप्तविंशत्यग्रसप्तविंशतिसहस्रा प्रात्मरक्षकाः, एकोनत्रिशदग्रंकोनत्रिशसहस्राः सर्वरक्षकाश्चाव्यावाधारुणयोरन्तरे तिष्ठन्ति । एकत्रिशदकत्रिंशत्सहस्राः मरुतः, त्रयस्त्रिशदधिक त्रयस्त्रिशसहस्राः वसवश्चारुणारिष्टयोरन्तरे सन्ति । पञ्चत्रिंशदग्रपञ्चविंशत्सहस्राः प्रश्वा मराः, सप्तत्रिंशदग्रसप्तत्रिशसहस्राः विश्वाख्याश्चारिष्ट सारस्वतयोरन्तरे निवसन्ति । एते सर्वे एकत्रीकृताः लौकान्तिकामरा: चतुर्लक्षसमसहस्राष्टशत विशतिप्रमा: भवन्ति । . अर्थ:- सारस्वत नामक लौकान्तिक देवों का प्रमाण ७०७ है ये ब्रह्मलोक के अन्त में ईशान दिशास्थित प्रकीर्णक विमानों में रहते हैं । ७०७ है प्रमाण जिनका ऐसे आदित्य देव आग्नेय दिशागत प्रकीर्णक विमानों में रहते हैं । वह्नि देवी का प्रमाण ७००७ है, ये नैऋत्य दिशागत प्रकीर्णकों में रहते हैं । अरुण देवों का प्रमाण भी ७००७ है, ये वायव्य कोण स्थित प्रकीर्णकों में रहते हैं । पूर्व दिशागत श्रेणीबद्धों में निवास करने वाले गर्दतोय देवों का प्रमाण २००६ है । दक्षिण दिशागत श्रेणीबद्धों में निवास करने वाले तुषित देदों का प्रभारण ६०० ६ है । पश्चिम दिशागत श्रेणीबद्धों में । निवास करने वाले अन्याबाध देवों का प्रमाण ११० ११ है । उत्तर दिशागत श्रेणीबद्ध विमानों में निवास करने वाले अरिष्ट देवों का प्रमाण ११०११ है । ७००७ अग्न्याभ देव और ६००९ सूर्याभदेव, सारस्वत एवं गर्दतोय इन दोनों के मध्य में रहते हैं । ११०११ चन्द्राभ तथा १३०१३ सत्याभ देव, Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचदशोऽधिकारः [ ५७१ गर्दतोय एवं प्रादित्य इन दोनों के मध्य में रहते हैं । १५०१५ श्रेयस्कर तथा १७०१७ क्षेमङ्कर देव, आदित्य एवं तुषित इन दोनों के मध्य में रहते हैं १९०१६ वशिट तथा २१०२१ कामघर देव, तुषित एवं वह्नि इन दोनों के मध्य में रहते हैं । २३०२३ निर्वाणरजस् तथा २५०२५ दिगन्तरकृत देव, वह्नि एवं अव्यावाध देवों के मध्य में निवास करते हैं । २७०२७ आत्मरक्षक श्रीर २९०२६ सर्वरक्षक देव, अव्यावाध एवं अरुण इन दोनों के मध्य में निवास करते हैं । ३१०३१ मरुत् तथा ३३०३३ चसव देव, अरुण और श्ररिष्ट के मध्य में रहते हैं । ३५०३५ प्रश्न देव एवं ३७०३७ विश्व देव अरिष्ट और सारस्वत इन दोनों के मध्य में रहते हैं । इन सब लोकान्तिक देवों का एकत्रित प्रमाण ४०७८ २० होता है । aa किस किस संहनन वाले जीव कहाँ तक उत्पन्न होते हैं ? इसका दिग्दर्शन कराते हैं:-- धर्माद्यष्टनाकेषु षट्संहननसंयुताः । श्रान्ति शुकादिकल्पेषु चतुषु चन्ति बिना ॥ २६४॥ पञ्चसंहनना श्रानताद्येष्वन्य चतुर्षु च । चतुः संहनना जीवा गच्छन्ति पुण्यपाकतः ।। २६५॥ नवप्रवेयकेषु युत्तमसंहननान्विताः । जायन्ते मुनयो दक्षा नवानुदिशनामनि २६६ ॥ अन्त्य द्विसंहननाढया यान्ति रत्नत्रयाजिताः । पञ्चानुत्तरसंज्ञे चादिसंहनन भूषिताः ||२७|| अर्थः- सौधर्मादि श्राट कल्पों में छहों संहनन वाले जीव उत्पन्न होते हैं। शुक्रादि चार कल्पों अन्तिम (असम्प्राप्तरूपाटिका ) संहनन को छोड़ कर पाँच संहनन वाले जीव तथा श्रान्तादि चार कल्पों में असम्प्राप्त और कीलक संहनन को छोड़ कर शेष चार संहनन वाले जीव पुण्योदय से उत्पन्न होते हैं ।। २६४ - २९४ ।। नवग्रैवेयकों में तीन उत्तम संहतनधारी मुनिराज, नव अनुदिशों में प्रादि के दो संहननों से युक्त रत्नत्रयधारो मुनिराज एवं पांच अनुत्तरों में मात्र वस्त्रवृषभनाराच संहनन वाले मुनिराज उत्पन्न होते हैं और इसी संहनन से मोक्ष भी जाते हैं ।। २९६-२६७।। अब वैमानिक देवों को लेश्या का विभाग वर्शाते हैं:-- तेजोलेश्या जघन्यास्ति भावनादित्रयेषु च । सौधर्मज्ञानयोनित्यं तेजोलेश्या हि मध्यमा ॥२८॥ Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७२। सिद्धान्तसार दीपक सनत्कुमारमाहेन्द्रयोदेवानां शुभाशये । सेजोलेश्याखिलोत्कृष्टा पनांशोऽतिजघन्यकः ॥२९॥ ब्रह्मादिषट सुदेवानां पालेश्यास्ति मध्यमा। शतारादिद्वये पभोत्कृष्टा शुक्ला जघन्यवाक् ॥३०॥ मानतादिवतःकल्प नवधेयकेषु च । देवानामहमिन्द्राणां शुक्ललेश्यास्ति मध्यमा ॥३०१।। नवानुदिशसंज्ञे च पञ्चानुत्तरनामके । शुक्ललेश्यामहोत्कृष्टाहमिन्द्राणां भवेत्सदा ॥३०२॥ अर्थः-भवनवासी, व्यन्तरवासी और ज्योतिषी देयों में जघन्य पीत लेश्या होती है । एवं सौधर्मशान कल्प में मध्यम पीत लेश्या होती है ॥२६॥ सनत्कुमार-माहेन्द्र कल्पों (के अधस्तन बहुभाग ) में उत्कृष्ट पीत लेश्या एवं ( उपरिम एक भाग में ) अति जघन्य पद्म लेश्या के अंश होते हैं ॥२६॥ ब्रह्मादि छह कल्पों में देवों के मध्यम एम लेश्या होती है, एवं शतार-सहस्रार कल्पों के देवों में पद्म लेश्या उत्कृष्ट तथा उपरिम एक भाग में जघन्य शुक्ल वैश्या होती है ।। ३००॥ आनतादि चार कल्पों में स्थित देवों में तथा नवग्रेवेयकवासी अहमिन्द्रों में मध्यम शुक्ल लेश्या होती है ।।३०१।। नव अनुदिश तथा पंच अनुत्तरवासी अहमिन्द्रों के निरन्तर उत्कृष्ट शुक्ल लेश्या होती है ॥३०२॥ प्रय वैमानिक देवों के संस्थान एवं शरीर को विशेषता दर्शाते हैं: संस्थानं प्रथम दिव्यं विध्याकारं जगत्प्रियम् । वपुर्वक्रियिकं रम्यं सप्तधातुमलोज्झितम् ॥३०॥ सुगन्धीकृतदिग्भागं शुभस्निग्धाणु निर्मितम् । निरौपम्यं च देवानां निसर्गेरगास्ति सुन्दरम् ॥३०४।। भर्थः-वैमानिक देवों के जगत् प्रिय एवं दिव्य समचतुरस्र नामक प्रथम संस्थान होता है। इनका वैक्रियक शरीर होता है, जो दिव्याकार वाला, अत्यन्त रमणीक, सप्त धातु रहित तथा मल से रहित होता है ॥३०३।। देवों का शरीर स्वभावतः अति सुन्दर, उपमा रहित तथा दशों दिशाओं को सुगन्धित कर देने वाले सौरभ युक्त, शुभ एवं स्निग्ध परमाणुओं से निर्मित तथा उपमा रहित होता है ॥३०४॥ Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचशोऽधिकार [ ५७३ देवों को ऋद्धि प्रादि का तथा स्वर्गस्थ कल्पवृक्षों आदि का वर्तन करते हैं: प्रणिमादिगुणा भ्रष्टौ विक्रियधिभवाः सदा । faraकार्यकराः सन्ति नाकिनां स्वर्गभूमिषु ||३०५ ॥ गावः कामदुघाः सर्वे कल्पवृक्षाश्च पादपाः । स्वभावेन च रत्नानि चिन्तामय एव हि ॥ ३०६ ॥ अर्थ :- स्वर्गो में देवों का समस्त कार्य करने वालो विक्रिया ऋद्धि से उत्पन्न श्रणिमा आदि श्राठ ऋद्धियां हैं ||३०५ ।। तथा वहाँ स्वभावतः कामधेनु गायें हैं, वृक्ष कल्पवृक्ष हैं, और रत्नचिन्तामणि रत्न हैं ॥ ३०६ ॥ वैमानिक देवों का विशेष स्वरूप एवं उनके सुख का कथन करते हैं: नेत्रस्पन्दो न जात्वेषां न स्वेदो न मलादि च । नखकेशादिकं नैव न वार्धक्यं न रोगिता ॥३०७॥ निशादिन विभागो न विद्यते त्रिदशास्पदे । केवलं रत्नरम्यर्घोतो वर्ततेतराम् ॥ ३०८ ॥ वर्षादिः खकृत्काल नाघनं वतुं संक्रमः । नानिष्टसंगमोऽमीषां नाल्पमृत्युनं दीनता ||३०६ ॥ किन्तु शमं प्रवोऽस्त्येकः साम्यकालः सुधाभुजाम् । सम्पदो विविधा बह्वयः सुखं बाघामगोचरम् ||३१०|| अर्थ :- स्वर्गो में देवों के नेत्रों का परिष्पन्दन नहीं होता । उनके न पसीना थाता है, न मल मूत्र यादि होता है, न नख केश आदि बढ़ते हैं, न वृद्धापन आता है और न किसी प्रकार के रोग होते हैं ||३०७ || स्वर्गों में रात्रि दिन का विभाग नहीं है, वहीं निरन्तर केवल रत्न की किरणों के समूहों का उद्योत होता रहता है || ३०८ || वहाँ पर वर्षा श्रातप आदि दुःख के कारण भूत काल एवं ऋतु आदि का परिवर्तन नहीं होता । वहाँ न अनिष्ट वस्तुओं का संयोग होता है, न भल्पमृत्यु होती है श्रोर न दीनता है ॥ ३०६ ॥ किन्तु देवों के निरन्तर सुख प्रदान करने वाले काल का एक सदृश वर्तन होता है । वहाँ पर विविध प्रकार की विपुल सम्पदाएँ हैं, एवं वहाँ का सुख वचन गोचर है ||३१०॥ Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७४ ] सिद्धांतसार दीपक अब उत्पन्न होने के बाद घेवगण क्या क्या विचार करते हैं, इसका प्रतिपादन करते हैं:-- सत्रोपपाददेशान्तमरिणशग्यातले मृदौ । प्रागजितमहापुण्यालभन्ते जन्म वासवाः ॥३१॥ ततोऽप्यन्समुहूर्तेन प्राप्य सम्पूर्णयौवनम् । दिल्यमुत्थाय शय्यागः सुप्लोस्थित इस ले ॥३१२॥ विलोक्य तन्महाभूतीः प्रगतामरमण्डलीः । साश्चर्यमानसाश्चित्ते चिन्तयन्तीति चास्मगम् ॥३१३॥ अहो ! केऽमी महादेशाः सुखसम्पद कुलालयाः । के वयं केन पुण्येनानीता वात्र सरास्पदे ॥३१४॥ विनीता के इमे देवा देव्य एता जगत्प्रियाः। कस्येमाः सम्पदः सारा विमानान्तर्गताः पराः ।।३१५॥ इत्यादि चिन्तमानानां तेषां साश्चर्यचेतसाम् । प्रागस्य सचिवा नत्वा पावाब्जान ज्ञानचक्षुषः ।।३१६॥ पूर्वापर सुसम्बन्धं निगवन्ति मनोगतम् । तत्पूर्वाजित पुण्यं च स्वलोकस्थितिमञ्जसा ॥३१७॥ अर्थः-वहाँ पर इन्द्र प्रादि देव पूर्वोजित महा पुण्योदय से उपपाद स्थानों में मणिमय कोमल उपपाद शय्या पर जन्म लेते हैं ।।३११।। तथा जन्म लेने के अन्तर्मुहूर्त बाद ही पूर्ण यौवन अवस्था को प्राप्त कर वे उस दिव्य शय्या पर से ऐसे उठते हैं जैसे मानों सो कर हो उठे हों ॥३१२।। शय्या से उठते ही नम्रीभूत होती हुई देव मण्डली को और वहां की महाविभूति को देखकर मन में प्राश्चर्यान्वित होते हुये वे अपने मन में ऐसा चिन्तन करते हैं कि अहो ! सुख सम्पत्ति से युक्त यह कौनसा देश है ? मैं कौन हूँ, तथा किस पुण्योदय से मैं यहाँ स्वर्ग लोक में उत्पन्न हुआ है । अर्थात् यहां लाया गया हूँ ।।३१३-३१४॥ नम्रीभूत होने वाले, जगत्प्रिय ये सब देव देवियां कौन हैं, एवं विमान स्थित यह समस्त विपुल तथा उत्कृष्ट सम्पत्ति किसको है ? ॥३१५|| इत्यादि अनेक प्रकार का चिन्तन करने वाले और पाश्चर्य युक्त चित्त बाले उन नवीन देवों के मनोगत भावों को अपने अवधिनेत्र से जान कर वहाँ स्थित प्रधान-मन्त्री प्रादि देव उनके समीप पाकर तथा उनके चरणकमलों को नमस्कार Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचदशोऽधिकार [ ५७५ करके पूर्वोपार्जित पुण्य से स्वर्ग लोक में उत्पन्न होने की स्थिति एवं अन्य पूर्वापर सम्बन्ध आदि कह कर उन नवीन देवों के मनोगत सन्देह को दूर करते हैं ।।३१६-३१७|| अब उत्पन्न होने वाले इन्द्रादि देव पूर्व भव में किये हुए धार्मिक अनुष्ठान प्रादि का और धर्म के फल का जो चिन्तन करते हैं, उसे कहते हैं:-- तता ततक्षणसम्जासायधिशासिताम् । ज्ञात्वा प्रारजन्मधर्मस्य फलं चेति वदन्त्यपि ॥३१॥ अहो ! पूर्वभवेऽस्माभिः कृतं घोरं महत्तपः । हता पञ्चाक्षचौराश्च स्मरवरी निपातितः ।।३१६॥ मनो ध्यानेन संरुद्ध प्रमादा निजिता हृदि । कषायविषवृक्षाश्च छिनाः क्षमायुधेन च ॥३२०॥ जगत्सारा महावीक्षा पालिता जिनपुङ्गवाः । पाराधिता जगन्नाथास्तद्वाक्ये निश्चयं कृतम् ।।३२१।। सर्व यत्नेन सद्धर्मो जिनोक्तो विश्वशर्मदः । अहिंसा लक्षणः सारः क्षमादिलक्षरणकृतः ॥३२२॥ इत्याधैः परमाचारैः सद्धर्मो यः पुराजितः । तेनोवृत्याप्यधापाताद्वयं संस्थापिता इह ॥३२३॥ प्रतो धर्मादिना नान्योऽत्रामुन्न सुहितं करः। किन्तु सद्धर्म एकोऽहो ! स्वर्गमुक्तिसुखप्रदः ॥३२४॥ नरकात् धर्म उद्धृत्य नयेद्विधर्मिणो दिवम् । सहगामी सतां धर्मो धर्मोऽचिन्त्यविभूतिदः ॥३२५।। धर्मः कल्पद्र मो विश्वसंकल्पितसुखप्रदः । धर्मश्चिन्तामणिश्चिन्तितार्थदो विश्वतपंकः ॥३२६।। धर्मो निधिजगत्सारो धर्मः कामदुधा नृणाम् । धर्मोऽसमगुणग्रामो धर्मः सर्वार्थसिद्धिदः ।।३२७।। ईटशोऽहो ! महान धर्मो येन वृसेन चाय॑ते । तत्रात्र सुलभं जातु स्वगिणां सुखभोगिनाम् ॥३२॥ Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७६ ] सिद्धान्तसार दीपक किन्तु स्थर्गे तपो वान्यो व्रतांशो नास्ति जातुचित् । केवलं दर्शनं स्याच्च पूजाभक्तिजिनेशिनाम् ॥ ३२९॥ अतस्तस्वार्थश्रद्धास्तु श्रेयसे नो जगद्धिता धर्मात पूजाभक्तिस्तुतिः परा रुचिः ||३३० ॥ विचिन्त्येति ततः शक्रा ज्ञातधर्मफलोदयाः । धर्मसिद्धयं समुद्युक्ता व्रजन्ति स्नानवाधिकाम् ॥३३१।। अर्थ :- अन्य देवों के द्वारा सम्बोधित किये जाने के क्षण ( समय ) ही उन्हें अवधि ज्ञान उत्पन्न हो जाता है, जिससे वे अपने समस्त पूर्व जन्म को जान कर धर्म का फल विचार करते हुये, इस प्रकार कहते हैं कि - अहो ! हमने पूर्व भव में महान एवं घोर तप किया। पंचेन्द्रिय रूपी चोरों को मारा है, तथा काम रूपी शत्रु को परास्त किया है ।। ३१८-३१६ ॥ शुभ ध्यान के अवलम्वन से मन को हृदय में रोक कर प्रमाद को जर्जरित किया है । एवं क्षमा रूपी श्रायुध से कषाय रूपी विष वृक्ष को किया है ।। ३२०|| जगत् में सारभूत महादीक्षा का यत्न पूर्वक पालन किया है, जिनेन्द्र भगवानों की आराधना की है और तीन लोक में सर्व श्रेष्ठ तीर्थंकरों के वचनों का श्रद्धान किया है || ३२१|| अहिंसा है लक्षण जिसका, जो सम्पूर्ण सुखों को देने वाला है ऐसे जिनेन्द्र द्वारा कथित समीचीन धर्म का मैंने पूर्ण प्रयत्न से उत्तम क्षमादि सारभूत लक्षणों द्वारा धारण किया है || ३२२|| इत्यादि प्रकार से परमोत्कृष्ट चारित्र यादि के द्वारा पूर्व भव में मैंने जो धर्म उपार्जन किया था, उसने मुझे दुर्गति के पतन से रोक कर इस देव लोक में स्थापित कर दिया है || ३२३|| इस लोक और परलोक में धर्म के बिना उत्तम हितकारी अन्य और कोई नहीं है । श्रहो ! एक समीचीन धर्म हो स्वर्ग एवं मोक्ष के सुखों को देने वाला है || ३२४|| विमियों को भी यह धर्म नरक से निकाल कर स्वर्ग ले जाता है । सज्जनों के लिए धर्म ही सहयोगी है । धर्म प्रचिन्त्य विभूति देने वाला है ।। ३२५॥ सम्पूर्ण वाञ्छित सुखों को प्रदान करने के लिए धर्म कल्पवृक्ष है, तथा सम्पूर्ण चिन्तित पदार्थों को प्रदान करने से धर्म ही चिन्तामणि रत्न है || ३२६ || जगत् में सारभूत निधि धर्म ही है । मनुष्यों के लिए धर्म ही कामधेनु है, धर्म ही अतुलगुणों का समूह है तथा सर्व ग्रंथों की सिद्धि प्रदान करने वाला एक धर्म ही है || ३२७।। श्रहो ! मनुष्य लोक में जिस उत्तम चारित्र से यह महान् धर्म उपार्जित किया था वह चारित्र सुख भोगने वाले इन स्वर्ग वासियों को कभी सुलभ नहीं है ।। ३२८ ॥ | किन्तु स्वर्गो में कदाचिद भी तप व व्रतों का अंश नहीं है, यहां तो केवल सम्यग्दर्शन और जिनेन्द्र देवों की पूजा भक्ति मात्र है || ३२६ || इसलिए स्वर्गी में कल्याण का हेतु जगत् की हितकारक एक तत्त्वार्थ की श्रद्धा एवं धर्म का मूल अर्हन्तों की पूजा, भक्ति तथा स्तुति ही है ।। ३३०|| इस प्रकार चिन्तन करके Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचदशोऽधिकार। [ ५७७ एवं इन्द्र प्रादि पदों को धर्म का फल जान कर धर्म सिद्धि के लिये उद्यत होते हुए स्नानवापिका की पोर स्नान हेतु जाते हैं ।।३३१॥ अब इन्द्रादि देवों के द्वारा की जाने वाली जिनेन्द्र पूजन का व्याख्यान करते हैं: तस्यां स्नात्वामरः सार्धमुत्तमं श्रीजिनालयम् । स्फुरन्मरिणमयं यान्ति धर्मरागरसोत्कटा: ।।३३२।। तत्र नत्वोत्तमा नाहन्मूर्तीधर्मसत्खनीः । प्रचंयन्ति महाभूत्या महाभक्त्या महोत्सवः ॥३३३॥ भणिभृङ्गारनालान्तनिर्गताच्छजलोत्करैः। दिव्यामोदनभोध्याप्तजगत्सारविलेपनैः ॥३३४॥ पुण्याकुरसमैर्दीर्घमुक्ताफलमयामतः । कल्पवृक्षोभः दिव्यनांनाफुसुमदाभांमः ॥३३५।। सुधापिण्डसुनंवेद्य रत्नपात्रापितः शुभैः । मणिदोपहतध्वान्तः सुगन्धिधूपसञ्चयः ।।३३६॥ कल्पत मफलः सारैमहापुण्यफलप्रवः ।। दिव्यश्चूर्णेश्च सद्गीतनंतनः पुष्पवर्षणः ॥३३७॥ ततः प्रस्तुत्य तीर्थेशान सार्थस्तद्गुणमूरिभिः । अर्जयित्वा परं पुण्यं ते गत्वा पूजयन्ति च ॥३३॥ वनस्थचैत्यवृक्षेषु जिनेन्द्रप्रतिमाः पराः । स्नपर्यास्त स्तुवन्त्येव प्रणमन्ति वृषाप्तये ॥३३६।। प्रर्थ:-वापिकाओं में स्नान करके, घमंराग रूपी उत्कट रस से भरे हुए वे इन्द्रादि देव अन्य देव समूहों के साथ देदीप्यमान मरिणमय उत्तम जिनालयों में जाते हैं ।।३३२॥ वहां जाकर धर्म की खान स्वरूप प्रहन्त प्रतिमाओं को उत्तमाङ्ग ( सिर ) से नमस्कार करके महाविभूति और अपूर्व भक्ति से महामहोत्सवों के द्वारा पूजा करते हैं ।।३३३॥ मरिणमय भृङ्गार की नाल के मुख से निकलते हुये स्वच्छ जल समूह से, अपनी सुवास से प्रकाश को व्याप्त करने वाले, तथा जगत् के भार स्वरूप दिध्य चन्दन के विलेपन से, पुण्य के अङ्कुर सदृश और दीर्घ मुक्ता फल सदश उत्तम प्रक्षतों से, करूप. वृक्षों से उत्पन्न होने वाले नाना प्रकार के फूलों की मालाओं से, रत्नपात्रों में रखे हुए, कल्पवृक्षों से Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७८.1 सिद्धान्तसार दीपक उत्पन्न और अत्यन्त शुभ नैवेद्य से, अन्धकार को नष्ट करने वाले मणिमय दीपों से, सुगन्धित धूप समूह से, महापुण्य फल प्रदान करने वाले कल्पवृक्षों के सारभूत उत्तम फलों से, दिव्य चूर्ण से, उत्तम गोमा बनाम नता गौ पुष्पवृष्टिमामि से ने देह की पूजा भक्ति करते हैं ॥३३४.३३७।। इसके बाद वे इन्द्र, देव समूहों के साथ तीर्थंकरों की स्तुति, पूजन द्वारा उत्कृष्ट पुण्य उपार्जन करके वहां से जाते हैं और वनों के मध्य चैत्यवृक्षों में स्थित उत्कृष्ट जिनेन्द्र प्रतिमाओं का धर्म प्राप्ति के लिये अभिषेक करते हैं, पूजन करते हैं. स्तुति करते हैं और नमस्कार करते हैं ॥३३८-३३९।। प्रब मिथ्यादृष्टि एवं सम्यग्दृष्टि को पूजन के अभिप्राय का अन्तर पर्शा कर सम्यक्त्व प्राप्ति का हेतु कहते हैं: तत्रोत्पन्नाः सुरा दृष्टिहीनादेवैः प्रबोधिताः । जिनागारे जिनेन्द्रार्चा कुर्वन्ति शुभकाक्षिणः ॥३४०।। सम्या दृष्ट घमरा भक्त्या जिनेन्द्रगुणरञ्जिताः । अचयन्ति जिना दीन कर्मक्षयाय केवलम् ॥३४१॥ निदर्शनाः सुराश्चित्ते मत्था स्वकुलदेवताः । जिनमूर्तीविमानस्थाः पूजयन्ति शुभाप्तये ॥३४२।। ततोत्पन्नामरांश्चान्ये बोधयन्ति सुदृष्टयः । धर्मोपदेशत स्वादि भाषरणर्दर्शनाप्तये ॥३४३।। केचित्त बोधनाच्छीघ्र काललन्ध्या शुभाशयाः । गृह्णन्ति त्रिजगत्सारं सम्यक्त्वं भक्तिपूर्वकम् ।।३४४।। अर्थ:--स्वर्गों में उत्पन्न होने वाले मिथ्याष्टि देव अन्य देवों द्वारा समझाये जाने पर पुण्य की वाञ्छा से जिन मन्दिरों में जाकर जिनेन्द्र भगवान की पूजन करते हैं ॥३४०॥ किन्तु जो सम्यग्दृष्टि देव वहाँ उत्पन्न होते हैं वे जिनेन्द्र भगवान् के गुणों में रम्जायमान होते हुए कम क्षय के .लिए भक्ति पूर्वक जिनेन्द्र देव की पूजा करते हैं ।।३४१।। मिथ्या दृष्टि देव अपने विमानों में स्थित्त जिमप्रतिमाओं को अपने मन में उन्हें कुलदेवता मान कर पुण्य की प्राप्ति के लिये पूजते हैं ॥३४२॥ वहां उत्पन्न होने वाले. मिथ्याष्टि देवों को अन्य सम्यग्दष्टि देव सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हेतु तत्त्व आदि के प्रतिपावन रूप धर्मोपदेश देते हैं, उनमें से कितने ही देव देशना प्राप्त करते ही काललब्धि से प्रेरित होकर शुद्ध चित्त होते हुए, त्रैलोक्य में सारभूत सम्यक्त्व को भक्ति पूर्वक शीघ्र ही प्रहण कर लेते हैं ।।३४३-३४४॥ Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचदशोऽधिकारः अब अकृत्रिम-कृत्रिम जिन बिम्बों के पूजन-अर्चन का वर्णन करते हैं: नन्दीश्वरमहाद्वीपे नियमेन सुराधिपाः ।। वर्षमध्ये त्रिवारं च दिनाष्टावधिभूजितम् ॥३४५।। महामहं प्रकुर्वन्ति भूत्या स्नानाचनादिभिः । जिनालयेषु सर्वेषु प्रतिमारोपितार्हताम् ॥३४६॥ मेवादिविश्वशैलस्थाऽहन्मूर्तीस्तेऽर्चयन्ति च । गत्वा विमानमारम चापराः कृत्रिमेतराः ॥३४७॥ पश्चकल्याणकालेषु महापूजां जिनेशिनाम् । विभूत्या परया गत्वा भक्त्या कुर्वन्ति नाकिनः ॥३४।। स्थानस्था अहमिन्द्राश्च कल्याणपञ्चकेऽनिशम् । भक्त्याहंतः शिवप्राप्त्यं प्रणमन्ति स्तुवन्ति च ॥३४६।। गणेशादीन मुनीन् सर्वान नमन्ति शिरसा सवा । निर्वाणक्षेत्रपूजादीन् भजन्तीन्द्राश्च सामराः ॥३५०॥ जिनेन्द्र श्री मुखोत्पन्नां वारणी शृण्वन्ति ते सदा । तत्त्वगर्भा सुधर्माय परिवारविराजिताः ॥३५१।। अर्थः-सर्व देव समूहों से युक्त होकर इन्द्र नियम से वर्ष में तीन वार (प्रासाढ़, कार्तिक, फाल्गुन ) नन्दीश्वर द्वीप जाते हैं और वहां के सर्व जिनालयों में स्थित प्रहन्त प्रतिमाओं को महाविभूति अष्ट-अष्ट दिन पर्यन्त अभिषेक प्रादि क्रियाओं के साथ साथ महामह पूजा करते हैं ॥३४५३४६॥ अपने अपने विमानों पर प्रारोहण कर इन्द्र आदि देव मेरु मादि सर्व पर्वतों पर जाते हैं और वहां स्थित अकृत्रिम तथा कृत्रिम सर्व प्रतिमाओं की पूजा करते हैं ।।३४७॥ सर्व देव पञ्च. कल्याणकों के समय जाते हैं, और वहाँ पर जाकर विपुल विभूति के साथ भक्ति से जिनेन्द्र देवों को पूजा करते हैं ।।३४८1। पञ्चकल्याणकों के समय सर्व अहमिन्द्र अपने स्थानों पर स्थित रह कर ही कल्याण प्राप्ति के लिये अहंन्त भगवान को भक्ति से प्रणाम करते हैं और अहर्निश उनकी स्तुति करते हैं ॥३४६।। सर्व देवों के साथ इन्द्र, सर्व गणधरों को और मुनीश्वरों को निरन्तर सिर झुका कर नमस्कार करते हैं तथा निर्वास आदि क्षेत्रों की पूजा करते हैं ||३५०॥ इन्द्र सपरिवार समोश रण में जाकर उत्तम धर्म धारण हेतु श्री जिनेन्द्र भगवान के मुख से उत्पन्न तत्व और अर्थ से भरी हुई वाणी को निरन्तर सुनते हैं ॥३५१।। Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ X50 ] सिद्धांता दीपक सब उन इन्द्रादि देवों के इन्द्रिय जम्म सुखों का वर्णन करते हैं:-- इत्यादिविविधाचारैः शुभैः पुण्यं परं समम् । देवैः शक्राश्व देवीमिरजयन्ति सुखाकरम् ।। ३५२ ।। तत्पुण्यजनितान् भोगान् निरौपम्याभिरन्तरम् । भुञ्जन्ति सहदेवीभिः समस्तेन्द्रियतृप्तिदान् ॥ ३५३॥ व्रजन्ति स्वेच्छया देवा असंख्यद्वीपवाधिषु । सद् विमानं मुवारुह्य क्रीडाकामसुखाप्तये || ३५४॥ देवोद्यानेषु सौधेषु नदीक्रीडाचलेषु च । स्वेच्छया स्वस्ववेवीभिः क्रीडां कुर्वन्ति नाकिनः || ३५५ । । श्रृण्वन्ति मधुरं गीतं पश्यन्ति नर्तनं महत् । सुभृङ्गारं विलासं चाप्सरसां ते रसावहम् || ३५६ ।। इति नाना विनोवाद्यैः परमाह्लादकारणम् । प्रतिक्षणं परं सौख्यं लभन्ते नाकिनोऽनिशम् ||३५७।। दीर्घकालं निराबाधं यत्सुखं स्वगिणां भवेत् । केवलं तच्च तेषां स्यानान्येषां हि च्युतोपमम् ॥ ३५८ ॥ प्रर्थ::- इस प्रकार स्वगं स्थित इन्द्र अनेक देव और देवियों के साथ अनेक प्रकार के शुभ चरणों द्वारा सुख की खान स्वरूप उत्कृष्ट पुण्य का उपार्जन करते हैं ।। ३५२ || उस पुण्य फल से उत्पन्न समस्त इन्द्रियों को तृप्त करने वाले अनुपम भोगों को देवियों के साथ साथ निरन्तर भोगते हैं ||३५३|| सभी देव अपनी इच्छा से उत्तम विमानों में श्रारूढ़ होकर काम क्रीड़ा रूप सुख प्राप्ति के लिए असंख्यात द्वीप समुद्रों में जाते हैं ।। ३५४ || स्वर्ग स्थित देव अपनी अपनी देवांगनाओं के साथ स्वइच्छानुसार उद्यानों में, महलों में, नदियों में एवं कुलाचलों पर कीड़ा करते हैं ||३५५।। एवं वै देव कभी अप्सराम्रों के मधुर गीत सुनते हैं, कभी सुन्दर नृत्य देखते हैं, और काम रस को उत्पन्न करने वाली नाना प्रकार के श्रृङ्गार एवं विलास पूर्ण क्रियाएँ करते हैं ।। ३५६ ।। इस प्रकार देव परम श्रल्हाद उत्पन्न करने वाली नाना प्रकार की विनोद पूर्ण क्रियाओं द्वारा प्रतिक्षण निरन्तर परम सुखों को भोगते हैं || ३५७ ॥ दीर्घ काल तक निराबाध और अनुपम, जो सुख स्वर्गवासी देवों को प्राप्त होता है, वह सुख मात्र उन्हीं देवों को ही है, वैसा सुख अन्य किसी को भी प्राप्त नहीं है ||३५८ || Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचदशोऽधिकाराः [५८१ अब उत्तम मनुष्य किन किन क्रियानों के द्वारा स्वर्ग प्राधि सुखों को प्राप्त करते हैं, उसका वर्णन किया जाता हैः ये तपश्चरगोशुक्ता रत्नत्रयधनेश्वराः । व्रतशीलमहाभूषाः सदाचाराः शुभाशयाः ॥३५६।। जिनधर्मरता नित्यं जिनधर्मप्रभावकाः । जिनधर्मकरा ये च जिनधर्मोपदेशकाः ॥३६०॥ जिनाघ्रिपूजका येत्र जिनभक्ता विवेकिनः । जिनवारणीसमासक्ता जिनसद्गुणरजिताः ॥३६१॥ धर्मिणां वत्सला दक्षा धर्मवात्सल्यकारिणः । धर्मे साहाय्यकारोऽन्येषां धर्मे च प्रेरकाः ॥३६२।। धर्मकार्योधता ये च पापकार्थे पराङ्मुखाः । अनीता अध्याय जितेन्द्रिया जिताशयाः ।।३६३॥ निर्मदा निरहङ्कारा बुधा मन्दकषायिणः । निर्लोभाः शुभलेश्याढचा विचारचतुरारच ये ॥३६४।। धर्मशुक्लशुभध्यान परा दुनि दूरगाः । अग्रगा धर्मकार्ये च ये सर्वत्र हितोयताः ॥३६५॥ इत्याद्यन्यैः शुभाचारभूषिता ये नरोचमाः । ते सर्वे धर्मपाकेन प्राणान्मुक्त्वा समाधिना ||३६६।। सौधर्ममुख्यसर्वार्थसिद्धि पर्यन्तमजसा । वअन्ति स्वतपो योग्यं लमन्ते चेन्द्रसस्पदम् ॥३६७।। अर्थ:-जो निरन्तर दुद्धर तप तपते हैं, रत्नत्रय धन के स्वामी हैं, व्रत एवं शील से विभूषित हैं, सदाचारी हैं, जिनके चित्त शुभाशय से युक्त हैं, निरन्तर जिनधर्म में रत रहते हैं, जिनधर्म की प्रभावना करने वाले हैं, जिन धर्म का उद्योत करने वाले हैं और जो जिन धर्म के उपदेशक हैं ॥३५६३६०।। जो यहां जिनेन्द्र भगवान के चरण कमलों की पूजा करते हैं, जिन भक्त हैं, विवेकी हैं, जिनवाणी में जिनका चित्त बासक्त रहता है, जिनका मन जिनेन्द्र के गुणों में रजायमान रहता है, जो धर्मात्माओं से प्रत्यन्त प्रीति रखते हैं, धर्म कार्यों में दक्ष हैं, धर्म एवं धर्मात्माओं में वात्सल्य भाव Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८२] सिद्धान्तसार दोपक रखते हैं, धर्म कार्यों में निरन्तर सहायता करते रहते हैं और अन्य जीवों को भी धर्म कार्यों की प्रेरणा देते रहते हैं ।।३६१-३६२।। जो मनुष्य निरन्तर धर्मकार्य में उद्यत रहते हैं और पाप कार्यों से पराङ्मुख हैं, संसार से भयभीत, शुभ ध्यानों में तत्पर, जितेन्द्रिय, विषय कषायों को जीतने वाले, गर्व रहित, अहंकार रहित, ज्ञानी, मन्दकषायो, निलोभी, शुभलेश्याओं से युक्त और सद् विचारों में चतुर होते हैं ॥३६३-३६४॥ धर्म शुक्ल रूप उस्कृष्ट शुभ ध्यानों में तत्पर, खोटें ध्यानों से दूर रहते हैं, धर्म कायों में अग्रसर एव सर्वत्र सर्व जीवों के हित में उद्यत रहते हैं । इत्यादि प्रकार से तथा और भी अन्य शुभाचारों से जो मनुष्य विभूषित हैं, वे सब नरोत्तम समाधिपूर्वक प्राणों को छोड़कर धर्म के फल से सौधर्म स्वर्ग से लेकर सर्वार्थ सिद्धि पर्यन्त जाते हैं तथा अपने अपने तप को योग्यता के बल से इन्द्रादि के उत्कृष्ट पदों को प्राप्त करते हैं ।।३६५-३६७॥ अब कौन कौन से जीव किन किन स्वर्गों तक उत्पन्न होते हैं, इसका विवेचन करते हैं: भोगभूमिभषा प्रायः सम्यक्त्वषारिणो हि ये । सौधर्मेशानकल्यौ ते यान्ति दृष्टिवृषोदयात् ॥३६८।। भोगभूमिसमुत्पन्ना ये दृष्टिविकला नराः । भाषनावित्रये तेऽतः व्रजन्ति भोगकांक्षिणः ॥३६६।। अज्ञानकष्टपाकेम भद्रा गच्छन्ति तापसाः। प्रायोतिर्लोक पर्यन्तं न स्वर्ग स्वन्पपुण्यतः ।।३७०।। ये परिवाजकास्तेऽत्र स्वोत्कृष्टाचरणेन च । यान्ति ब्रह्मोत्तरं स्वर्ग यावद् भौमादिपूर्वकम् ॥३७१।। भद्रा प्राजीवका दीर्घायुषः कुवेषधारिणः । उत्कृष्टेन सहस्त्रारपर्यन्तं यान्ति तद् प्रतः ।।३७२॥ इतः परं भवेज्जातु गमनं नान्यलिङ्गिनाम् । आयका प्रायिका नार्यस्सियंञ्चो व्रतमूषिताः ॥३७३।। उत्कृष्टेन च गच्छन्ति स्वोत्कृष्टाचरणोचताः । अच्युतस्वर्गपर्यन्तमुस्कृष्टधायकवतः॥३७४।। उत्कृष्टेन सपोवृत्तरभव्या च्यलिङ्गिनः । घिरायुषो वजन्त्यूवं यावदप्रै वेयकान्तिमम् ॥३७५।। Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचदशोऽधिकारा [ ५३. ततः परं प्रगच्छन्ति स्वोत्कृष्टमत्तपोयम।। सर्वार्थसिद्धिपर्यन्तं मुनयो भावलिङ्गिनः ।।३७६।। अर्थ:-भोगभूमि में उत्पन्न होने वाले सभ्यग्दृष्टि प्रार्य मरण कर सम्यग्दर्शन एवं धर्म के प्रसाद से सौधर्मशान कल्प पर्यन्त उत्पन्न होते हैं ।।३६८|| तथा भोगभूमि में उत्पन्न एवं भोगों की आकांक्षा रखने वाले मिष्टि मनुष्य, भवनवासी, ब्यन्तरवासो और ज्योतिषी देवों में उत्पन्न होते है ॥३६६॥ अज्ञान से अनेक प्रकार के कष्ट जिसमें हैं ऐसा तप तपने वाले भद्र तापसी मरण कर भवनत्रिक में उत्पन्न होते हैं । अल्प पुण्य के कारण स्वर्ग नहीं जाते ॥३७०॥ जो परिव्राजक हैं, वे अपने उत्कृष्ट तपश्चरण द्वारा भवन त्रिक से बोत्तर स्वर्ग पर्यन्त उत्पन्न होते हैं ||३७१।। भद्र, दीर्घायु और कुवेषधारी आजीवक नाम का तासा काय क्लेश आदि तपों के द्वारा उत्कृष्ट से सहस्रार स्वर्ग यंन्त जाते हैं ।। ३७२।। सहस्रार स्वर्ग से ऊपर कुलिं गवेषवारी जोवों की उत्पत्ति नहीं होती। अपने अपने उत्कृष्ट चारित्र में उद्यम करने वाले श्रावक, आमिकाएँ यती स्त्रियाँ और व्रत से विभूषित तिर्यञ्च उत्कृष्ट नायक व्रतों के द्वारा उत्कृष्टतः स लहै स्वर्ग पर्यन्त जाते हैं ॥३७३-३७४।। दीर्घायु द्रव्य लिङ्गी मुनि प्रौर अभव्य जीव उत्कृष्ट रीति से पालन किये हुए तप और व्रताचरण के द्वारा नवअवयक पर्यन्त जाते हैं 1|३७५।। सर्वोत्कृष्ट व्रत और तपश्चरण के द्वारा भावलिङ्गी मुनिराज सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त जाते हैं ॥३७६।। प्रम स्वगो से च्युत होने वाले देवों को प्राप्त गति का निर्धारण करते हैं: सौधर्मेन्द्रस्य दृष्टयाप्ता महादेव्यो दिवच्युताः । सर्वे च दक्षिोन्द्रा हि चत्वारो लोकपालकाः ॥३७७॥ सर्वे लौकालिका विश्वे सर्वार्थसिद्धि जामराः । निर्माण हपता यान्ति संप्राप्य नुभवं शुभम् ।।३७८।। नवानुत्तरजा देवाः पञ्चानुत्तरवासिनः । ततश्च्युत्वा न जायन्ते वासुदेवा न तद् द्विषः ॥३७६ ।। तिर्यञ्चो मानवाः सर्वे भावनादि निजामराः । शलाकापुरुषा जातु न भवन्त्यमराचिताः ॥३०॥ विजयादिविनानेभ्योऽहमिन्द्रा एत्य भूतलम् । मयंजन्मस्यं प्राप्य ध्रुवं गच्छन्ति नि तिम् ॥३८१॥ Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिटान्तसार दोप अर्थ:-सम्यग्दर्शन को धारण करने वाली सौधर्म इन्द्र की महादेवी, सर्व दक्षिणेन्द्र, चारों लोकपाल, सर्व लोकान्तिक देव और सर्वार्थ सिद्धि के सर्व देव स्वर्म पर्याय से च्युत होकर उत्तम मनुष्य भव प्राप्त करते हैं और फिर उत्कृष्ट तप से विभूषित होते हुए नियम पूर्वक उसी भव से मोक्ष जाते हैं । ।३७७-३७८॥ ( सर्वार्थसिद्धि को छोड़ कर ) पञ्चपंचोत्तर और नव अनुदिश वासी देव स्वर्ग से च्युत होकर मारायण एवं प्रतिनारायण नहीं होते ॥३७६।। सर्व मनुष्य, सर्व तिरंञ्च और सर्व भवन त्रिकवासी देव अपनी अपनी पर्यायों से मरण कर देवों द्वारा पूजित शलाका पुरुषों में कभी भी उत्पन्न नहीं होते ॥३८ । विजयादि विमानों से च्युत होकर भूतल पर धाये हुए अहमिन्द्र मनुष्य के दो भव लेकर नियम से मोक्ष पद प्राप्त करते हैं ॥३१॥ अब स्वर्ग स्थित मिथ्यादृष्टि देवों के मरण चिह्न, उससे होने वाला प्रार्तध्यान और उस मार्सध्यान के फल का निरूपण करते हैं: यदावतिष्टतेऽल्पायुः शेष षण्मासगोचरम् । देवानां च तदा स्वाङ्गकान्तिगच्छति मन्वताम् ॥३८२॥ उरःस्थपुष्पसन्माला म्लानतां यान्ति दुविधेः । भणयो भूषणानां हि तेजसा मन्दतां तथा ॥३८३।। एतानि मृत्युचिह्नानि योक्ष्य कुदृष्टि निर्जराः। इति शोकं प्रकर्वन्तीष्टवियोगार्तमानसाः ॥३८४।। हा । ईदृशीर्जगत्सारा विमुच्य स्वर्गसम्पदः । नोऽयतारोऽशुभे निन्द्ये स्त्रीदुर्गर्भ भविष्यति ॥३८५।। अधोमुखेन तत्राहो ! गर्भे विष्टाकुमाकुले । दुस्सहा वेदना स्माभिः सोठव्या सुचिरं कथम् ॥३८६॥ इत्यार्तध्यानपापेन दिवश्च्युस्वा ष्टयः । भावनावित्रयस्थाश्च सौधर्मशानवासिनः ॥३८७॥ भवन्ति बादराः पर्याप्ताः पृथ्व्यप्कायिका भुवि । तथा वनस्पतिप्रत्येककायिकाः सुखातिगाः ।।३८८॥ मासहस्रारकल्पस्थाः केचित्प्रच्युत्य नाकतः । प्रार्तध्यानेन जायन्ते दु:खिनः कर्मभूमिषु ॥३६॥ Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचदशोऽधिकारः पञ्चेन्द्रियाश्व पर्याप्तास्तिर्यञ्चो या मरोऽपरे । ततः परं दिवश्च्युत्वानतकल्पादिवासिनः ॥ ३६० ॥ कर्मभूमौ मनुष्यत्वं लभन्ते केवलं शुभम् । तिर्यक्त्वं तु नामीयां तीव्रार्त्ताघाद्यभावतः ||३१| [ ५८५ श्रर्थः :- जब सर्व देवों की छह मास पर्यन्त की अल्पायु श्रवशेष रह जाती है, तब उनके शरीर की कान्ति मन्द हो जाती है । दुर्विपाक से गले में स्थित उत्तम पुष्पों की माला म्लान हो जाती है और मणिमय श्राभूषणों का तेज मन्द हो जाता है ।।३८२-३८३ ।। इस प्रकार के मृत्यु चिह्न देख कर मिथ्यादृष्टि देव अपने मन में इष्ट वियोग श्रार्त्तध्यान रूप इस प्रकार का शोक करते हैं कि - हाय ! संसार की सारभूत स्वर्ग की इस प्रकार की सम्पत्ति छोड़ कर अब हमारा अवतरण स्त्री के अशुभ, निन्द्यनीय और कुत्सित गर्भ में होगा ? ।। ३६४-३६२॥ अहो ! विष्टा और कृमि श्रादि से व्याप्त उस गर्भ में दीर्घ काल तक अधोमुख पड़े रहने की वह दुस्सह वेदना हमारे द्वारा कैसे सहन की जायगी ? ।। ३८६ ।। इस प्रकार के श्रात्तंध्यान रूप पाप से भवनत्रिक और सौधर्मेशान कल्प में स्थित मिष्याष्टि देव स्वर्ग से युत होकर तिर्यग्लोक में दुःखों से पर्यात वृषिलोकायिक, जलकायिक, और प्रत्येक वनस्पति कायिक जीवों में जन्म लेते हैं ( जहां गर्भ का दुःख नहीं होता) ।।३६७-३८८ सहस्रार कल्प पर्यन्त के मिथ्यादृष्टि देव स्वर्ग से च्युत होकर प्रातध्यान के कारण पन्द्रह कर्मभूमियों में, दुःखों से युक्त पंचेन्द्रिय, पर्याप्तक तिर्यञ्च एवं मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं । प्रान्त आदि चार कल्पों के एवं नवप्रवेयकों के मिध्यादृष्टि देव स्वर्गं से च्युत होकर कर्मभूमियों में उत्तम मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं । इन स्वर्गो में तीव्र आर्त्तध्यान का प्रभाव है, अत: यहां के मिथ्याराष्ट देव तिर्यञ्च योनि में कभी भी उत्पन्न नहीं होते ।। ३८६-३६१।। अब मरणचिह्नों को देख कर सम्यग्दृष्ठि देव क्या चिन्तन करते हैं, और उसका उन्हें क्या फल मिलता है ? इसे कहते हैं: मृत्युचिन्हानि बीयान् सम्यग्दृष्टिसुरोत्तमाः । वक्षाः कालुष्यनाशायेमं विचारं प्रकुर्वते ॥३६२॥ शाणामपि चात्राहो न मनाग्नियमं व्रतस् । न तपो न च सद्दानं न शिवं शाश्वतं सुखम् ॥ ३९३॥ किन्तु मत्यभयेन्रीणां तपोरत्नत्रयादयः । व्रतशीलानि सर्वाणि जायन्ते च शिवादिकाः ॥१३६४ ।। Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ ] सिद्धांतसार दोपक श्रतोऽद्याभुत पुण्येन नृभयं प्राप्य सत्कुलम् । सांधनीयं किलास्माभिर्मोक्षोऽनन्तसुखाकरः ॥ ३६५॥ इत्थं विचार्य सहदेवा विधाय विविधाचंनाम् । प्रर्हतां मरणान्ते च चित्तं कृत्वाति निश्चलम् ॥ ३६६॥ व्यायन्तः कुड्मलीकृत्य स्वकरौ परमेष्ठिनाम् । नमस्कारान् परान् पञ्चेहामुत्र स्वेष्टसिद्धिवान् ।।३६७।। तिष्ठन्ति पुण्यसत् क्षेत्रे तदामीषां वपूंषि च । प्रभ्राणीव विलीयन्ते सहसा स्वायुषि क्षये ॥ ३६८ ॥ ततस्ते दृग्विशुद्धघाप्ता देवास्तत्पुण्यपाकतः । तीर्थेशविभवं केचिल्लभन्ते विश्ववन्दितम् ॥ ३९९ ॥ केचिच्चक्रिपदं चान्ये बल- कामादिसत्पदम् I नृभवे सुकुलं केचिद्धनाढ्य धर्मकारणम् ||४०० ॥ अर्थ :-- हिताहित के विचार में दक्ष सम्यग्दृष्टि उत्तम देव मानसिक कलुषता को दूर करने के लिए इस प्रकार विचार करते हैं कि ग्रहो ! यहाँ स्वर्गो में इन्द्रों के भी न किञ्चित यम, नियम हैं और न तप है और न दान आदि हैं, और तप श्रादि के बिना मोक्ष रूप शाश्वत सुख की प्राप्ति हो नहीं सकती, किन्तु मनुष्य भव में मनुष्यों को मोक्ष के साधन भूत तप, रत्नत्रय, व्रत एवं शील भादि सभी प्राप्त हो जाते हैं, अतः आज अद्भुत पुग्यपरिक से हम लोगों को मनुष्य भव और उत्तम कुल को प्राप्ति हो रही है, उसे प्राप्त कर हम लोग प्रनन्त सुख की खान स्वरूप मोक्ष का साधन करेंगे ।।३१२ - ३६५ ।। इस प्रकार के विचार कर उत्तम देव नाना प्रकार से अर्हन्त देव की पूजन करके मरण के अन्तिम समय में अपने चित्त को श्रत्यन्त निश्चल करते हुए अपने दोनों हाथ जोड़ कर पंच परमेष्ठियों का ध्यान करते हैं तथा इस लोक और परलोक में श्रात्म सिद्धि देने वाला नमस्कार करते हैं ।। ३६६-३६७ ।। मरण वेला में किसी पुण्य रूप उत्तम क्षेत्र में जाकर बैठ जाते हैं, वहां प्रयुक्षय होते ही उन देवों का शरीर मेघों सहरा शीघ्र ही विलीन हो जाता है || ३६८ || शुद्ध सम्यक्त्व को धारण करने वाले वे उत्तम देव वहां से चय कर कोई तो पुण्य प्रभाव से विश्ववन्दनीय तीर्थंकर के वैभव को प्राप्त करते हैं, कोई चक्रवर्ती पद को कोई बलदेव पद और कोई कामदेव आदि के उत्तम पद प्राप्त करते हैं, एवं कोई कोई देव मनुष्य भव तथा उत्तम कुल में धर्म के कारणभूत अति धनाढ्य होते हैं ।। ३६६ -४०० ॥ Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचदशोऽधिकार। [ ५७ अब धर्म के फल का प्रतिपादन करते हुए प्राचार्य व्रत तप प्रावि धारण करने को प्रेरणा देते हैं:-- इत्थं धर्मविपाकतश्च विबुधाः स्वर्गेषु नानाविध । सस्सौख्यं चिरकालमक्षजमहो! भुजति बाधातिगम् । ज्ञावेतीह बुधाः प्रयत्नमनसा सारस्तपः सवत धमकं चरतानिशं किमपरैर्व्यर्थश्चधारडम्वरैः ।।४०१॥ अर्थः-ग्रहो ! इस प्रकार विवेकी जीव धर्म के फल से स्वर्गों में चिरकाल तक नाना प्रकार के वाधा रहित इन्द्रिय जन्य उत्तम सुख भोगते है । ऐसा जान कर विद्वान को, मनुष्य भ र भूत उत्तम तप और उत्तम व्रतों के द्वारा निरन्तर मनोयोग पूर्वक एक धर्म के आचरण में ही प्रयत्न करना चाहिये, व्यर्थ क अन्य वचन आडम्बरों से क्या ? ॥४.१॥ धर्म को महिमा:-- धर्मः स्वर्गगृहाङ्गणः सुखनिधिर्धर्मः शिवश्रीप्रदो। धर्मस्वेष्टसमोहितार्थजनको धर्मोगुणाब्धिर्महान् ।। धर्मो धर्मविधायिनां द्विसुगतौ नाना सुभोगप्रव स्ततिक यन्न वक्षाति किं तु कुरुते स्वस्यास्त्रिलोकोपतोर ॥४०२॥ अर्थः-धर्म से स्वर्ग लोक गृह का प्रांगन हो जाता है, धर्म सुख की निधि और मोक्ष लक्ष्मी को देने वाला है, धर्म अपने इष्ट एवं चिन्तित पदार्थों का जनक है धर्म गुणों का सागर है, धर्म धारण करने वाले जीवों को धर्म उत्तम भोग प्रदायी स्वर्ग और मनुष्य गति देता है, धर्म केवल इतना ही नहीं देता किन्तु अष्ट कर्मों को नष्ट करके धर्म त्रैलोक्य पति पद प्रर्थात् मोक्ष पद को भी दे देता है ।।४०२॥ अधिकारान्त मङ्गलाचरण:---- धर्म येऽत्र सृजन्ति तीर्थपतयो धर्माच्छिवं ये गताः। धर्मे ये गणिनो विवरच मुनयस्तिष्ठन्ति धर्माप्तये ॥ ये स्वर्गाविजगत्सत्यनिलया धर्मस्य स तवः तीर्थेशप्रतिमादयः प्रतिदिनं यन्वेऽखिलास्तान स्तुवे ॥४०३।। Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८८ ] सिद्धान्तसार दीपक ॥ इति धो सिमान्तसार दीपक महानन्थे भट्टारक श्री सकलकोतिविरपिते ____स्वर्गाश्रूवलोक वर्णनोनाम पञ्चदशाधिकारः॥ अर्थ:-जो तीर्थकर देव यहाँ धर्म के सृजन करने वाले थे, वे धर्म से ही मोक्ष गये हैं । उन सबको, धर्म में स्थित प्राचार्य, उपाध्याय एवं साधुनों को, स्वर्ग मावि में स्थित धर्म के साधनभूत उप्सम जिनमन्दिरों को पौर लोक में जितनी भी तीर्थकर आदि की प्रतिमाएं हैं, उन सबको मैं प्रतिदिन नमस्कार करता हूँ और उन सबकी स्तुति करता हूँ ॥४०॥ इस प्रकार भट्टारक सकलकीति विरचित सिद्धान्तसार दीपक नाम महाग्रन्थ में ऊर्ध्वलोक का प्ररूपण करने वाला पन्द्रहवां अधिकार समात Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मङ्गलाचरण: -- षोडशोऽधिकारः Pictur श्रथ सिद्धयजानत्वा त्रिजगन्मूदिघ्नसंस्थितम् । सिद्धक्षेत्रं प्रवक्ष्यामि सतां वन्द्यं तदाप्तये ॥ १॥ - सिद्धों के समूह को नमस्कार कर तीनों लोकों के मस्तक पर स्थित तथा सज्जनों अर्थ:के वन्दनीक सिद्ध क्षेत्र का कथन उरुकी प्राप्ति के हेतु करूंगा ||१|| अब श्रष्टम पृथिवो की अवस्थिति और उसका प्रमाण कहते हैं: सर्वार्थसिद्धितो गत्वाप्यय्वं द्वादशयोजनः । लोषयमस्तके तिष्ठेत् महती वसुधाष्टमी ||२|| दक्षिणोत्तर दीर्घाङ्गा सप्तरज्जुभिरूजिता । पूर्वापरेण रज्ज्येकव्यासा स्थूलाष्टयोजनैः ||३|| अर्थ :- सर्वार्थसिद्धि से बारह योजन ( ४८००० मील) ऊपर जाकर त्रैलोक्य के मस्तक पर ईषत्प्राग्भार नामकी श्रेष्ठ प्रमी पृथ्वी श्रवस्थित है || २ || उस अष्टम पृथिवी की दक्षिणोत्तर लम्बाई सात राजू प्रमाण, पूर्व पश्चिम चौड़ाई एक राजू एवं मोटाई आठ योजन प्रमाण है ||३|| - अब सिद्ध शिला को प्रवस्थिति, माकार एवं उसका प्रमाण प्रावि कहते हैं: तन्मध्ये रजतच्छाया दिव्या मोक्षशिला शुभा । उत्तानगोलकार्धेन समाना दीप्तिशालिनी ॥४॥ क्षेत्रसमवस्ती छत्राकारा विमात्यलम् । मध्येऽष्टयोजन स्थूला कृशान्ते महानित: ।।५।। अर्थ :- ईषत् - प्राग्भार पृथ्वी के ठीक मध्य में रजतमय, दिव्य, सुन्दर, देदीप्यमान और ऊबे रखे हुए गोले के सदृश मोक्षशिला है । यह अत्यन्त प्रभायुक्त त्राकार और मनुष्य लोक के सा Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ ] सिद्धान्तसार दीपक ( ४५ लास योजन ) विस्तार बाली है । इस शिला को मध्य की मोटाई पाठ योजन है आगे अन्न पर्यन्त क्रमश: हीन होती गई है ।।४-५।। अब सिद्ध भगवान का स्वरूप कहते हैं: तस्यां सिया जगद्वन्यास्तनुवातान्तमस्तकाः । मनन्तमस्त्रसलीना नित्यान्टगुणमूषिताः ।।६।। कायोत्सर्गममाः केचित् पर्यङ्कासन सनिभाः । केचिच्च विविधाकारा अमूर्ता ज्ञानदेहिनः ।।७।। गतसिक्स्थकमूषायां प्राकाशाकारधारिणः । प्राक्कायायामविस्तार विभागोनप्रदेशकाः ।।।। लोकोत्तमाः शरण्याश्च मजलविश्वकारकाः । अनन्तकालमात्माप्तास्तिष्ठन्त्यन्तातिगाः सदा ॥६॥ इमे सिद्धा मया ध्येया बन्या विश्वमुनीश्वरः । स्तुताश्च मम कुर्वन्तु स्वगति स्वगुणैः समम ॥१०॥ अर्थः-तनुवातवलय के अन्त में हैं मस्तक जिनके ऐसे त्रिजगद्वन्दनीय, अनन्त सुख में निमग्न पौर नित्य ही अष्ट गुणों से विभूषित सिद्ध परमेष्ठी उस सिद्ध शिला से ऊपर अवस्थित हैं ॥६।। मान हो है शरीर जिनका ऐसे वे अमूर्तिक सिद्ध कोई कायोत्सर्ग से और कोई पद्मासन से नाना प्रकार के भाकारों से प्रदस्थित हैं ।।७।। पुरुषाकार मोम रहित सांचे में जिस प्रकार आकाश पुरुषाकार को धारण करके रहता है, उसी प्रकार पूर्व शरीर के आयाम एवं विस्तार में से एक त्रिभाग कम पुरुषाकार प्रदेशों से युक्त, लोकोत्तम स्वरूप, शरण स्वरूप और समस्त विश्व को मंगल स्वरूप सिद्ध भगवान् अन्तरहित अनन्तकाल पर्यन्त अपनी प्रात्मा में ही रहते हैं ||-६॥ इस प्रकार के सिद्ध भगवान् विश्व के समस्त परहंतों और मुनीश्वरों के द्वारा वन्द्य तथा स्तुत्य हैं, मैं भी उनका ध्यान करता हूँ. वे मुझे अपने गुणों के सदृश अपनी सिद्ध गति प्रदान करें ।।१०।। भब सिद्धों के सुखों का वर्णन करते हैं इन्द्राहमिन्द्रदेवानां चक्रवादिभूभुजाम् । भोगभूमिभवार्याणां सर्वेषां व्योमगामिनाम् ।।११॥ Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोशाधिकार [ ५६१ भूतं भावि सुखं सर्व वर्तमानं जगत्त्रये । यदेकत्रीकृतं स्याच्च विषयोत्थत्रिकालजम् ।।१२।। तस्मादक्षसखात्कृत्स्नादनन्तगुणितं सुखम् । एकेन समयेनैव सिद्धा भुञ्जन्ति शाश्वतम् ॥१३॥ स्वात्मोपावानसजातं वृद्धिह्रासोज्झितं परम् । परद्रव्य मिरपेक्ष समस्तोत्कृष्टमञ्जसा ।।१४।। निगबाघ निरौपम्यं दुःखदूरं सुखोद्भवम् । प्रत्यक्षमतुलं सारं विश्वशर्माप्रसंस्थितम् ।।१५।। अर्थ:-तीनों लोकों में चतुनिकाय के सर्व देवों, इन्द्रों, अहमिन्द्रों, पदवीधारी चक्रवर्ती प्रादि सर्व राजानों, भोगभूमिज युगलों और सर्व विद्याधरों के भूत, भविष्यत, वर्तमान के सर्व सुख को एकत्र कर लेने पर भी त्रिकालज विषयों से उत्पन्न होने वाले इस इन्द्रिय जन्य समस्त सुखों से (विभिन्न जाति का) अनन्तानन्त गुणा शाश्वत एवं प्रतीन्द्रिय सुख सिद्ध परमेष्ठी एक समय में भोगते हैं ॥११-१३॥ लोक के प्रम भाग में स्थित सिद्ध परमेष्ठी अपनो नात्मा के उपादान से उत्पन्न, वृद्धि ह्रास से रहित, पर द्रव्यों से निरपेक्ष, सर्व सुखों में सर्वोत्कृष्ट, बाधा रहित, उपमा रहित, दुःख रहित, अतीन्द्रिय, अनुपम सुख से उत्पन्न और समस्त सुखों में जो सारभूत है, ऐसे सुख का उपभोग निरन्तर करते हैं ॥१४-१५।। अब अधोलोक जन्य प्रत्येक भूमियों का भिन्न भिन्न घम फल कहते हैं:-- अथ पूर्वोक्तलोकस्य घनाकारेण रज्जुभिः । अधोमध्यो_भागेषु पृथक संख्या निगद्यते ॥१६॥ रत्नप्रभामहीभागे रज्जवो दशसम्मिताः । शर्कराश्वभ्रभूदेशे रज्जयः षोडशप्रमाः॥१७॥ वालुका भूतलेद्वाविंशति संख्याश्च रज्जबः । पडूप्रभावनिक्षेत्रे हृष्टाविंशति रज्जयः॥१८॥ धूमप्रमाक्षितौ रज्जव: चस्त्रिशवजसा । नमःप्रभाखिलेक्षेत्र चत्वारिंशच्च रज्जयः ॥१९॥ Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२] सिद्धतिसार दीपक महातमः प्रभान्ते षड्चत्वारिशच्च रज्जवः। इत्यधोलोकरसूनां परणवत्यधिकं शतम् ॥२०॥ अर्थ:-अब सिद्धों के सुखों का बएंन करने के बाद पूर्व में जो लोक का ३४३ धन राजू क्षेत्रफल कहा गया था, उसी को अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्वलोक इन तीन भागों में विभाजित करके अधोलोक सम्बन्धी प्रत्येक पृथ्वी के घनफल की पृथक पृथक् संख्या कहते हैं ।।१६।। रत्नप्रभा पृथिवी ( उपरिम प्रथम भाग ) का घन फल १० घन राजू प्रमाण है । शर्करा पृथ्वी ( द्वितीय भाग ) का १६ घन राजू प्रमाण, बालुका प्रभा ( तृतीय भाग ) का २२ घन राजू, पङ्क प्रभा ( चतुर्थ भाग ) का २८ घन राजू, धूम प्रभा ( पचम भाग) का ३४ घन राजू. तमः प्रभा ( षष्ठ भाग) का ४० घन राजू और महातमः प्रभा पृथ्वी (सप्तम भाग) का घन फल ४६ घन राजू प्रमाण है । इस प्रकार अधोलोक का सर्व घन फल (१०+१६+२२+२८+ ३४+४० + ४६-) १६६ घन राजू प्रमाग है।।१६-२०॥ विशेष:-किसी भी क्षेत्र की लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई या मोटाई का परस्पर में गुरगा करने से उस क्षेत्र का घनफल प्राप्त होता है । अथवा--मुख और भूमि को जोड़कर उसका प्राधा करके मोटाई एवं ऊंचाई से गुणा करने पर घनफल प्राप्त होता है । यथा:- प्रथम पृथ्वी ( उपरिम भाग) का पूर्व-पश्चिम व्यास राजू है, जो भूमि स्वरूप हुआ । मुख १ राजू है.+H-x=x *x-१० घन राजू । इसी प्रकार सर्वत्र जानना चाहिए । अब प्रत्येक स्वर्गों का भिन्न भिन्न घनफल कहते हैं:-- सौधर्मयुगले रज्जवः सार्धंकोनविंशतिः । द्वितीयेयुगले सार्घसप्तत्रिंशच्च रज्जयः ।।२१।। ब्रह्माविशययुग्मे च अर्यास्त्रशच्च रज्जयः । शुक्रावियुगले सन्ति सार्धनिसप्तरज्जवः ।।२२।। शातारयुगलेसार्धद्वादशप्रमरज्जवः। अानतप्राणते सार्धदशरज्जव एव हि ।।२३॥ प्रारणाव्युत मूक्षेत्रे सार्धाष्ट रज्जयो मताः । प्र वेयकादिलोकान्ते ह्य कादशव रज्जवः ॥२४॥ इति त्रिविषलोकस्य घनाकारेण पिण्डिताः । रज्जयः स्युस्त्रिचत्वारिंशदप्रतिशतप्रमाः ॥२५॥ Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षोडशोऽधिकाश [ ५६३ अर्थ:-सौधर्म युगल का घनफल १६३ घन राजू प्रमाण है । दूसरे युगल का ३७१ घनराजू, ब्रह्मादि यो चुगों का पनपा ६५-३ , शुक्र-महाशुक्र युगल का १४६ घन राजू, शतार युगल का १२२ घन राजू, प्रानत-प्राणत स्वर्ग का १०३ राजू, प्रारण-अच्युत युगल का धन लाजू तथा ग्रेवेयकों से लेकर लोक के अन्त पर्यन्त का धनफल ११ धन राजू प्रमाण है। इस प्रकार ऊध्वं लोफ का सर्व घनफल ( १६३+३७३+३३+१४+१२३+१०+ +११=)१४७ घन राजू प्रमाण है, और तीनों लोकों का एकत्र धन फल ( १६६ + १४७) = ३४३ धन राजू प्रमाण है ।।२१-२५॥ विशेष:---ऊर्ध्व और अधोलोक के घनफल में ही मध्यलोक गभित है । यह लोक का ३४३ घनराजू घनफल वातवलयों सहित है। अब लोक और लोकोत्तर मानों का वर्णन करते हैं:-- अथ मानं प्रवक्ष्यामि नानाभदं जिनागमात् । व्यासोत्सेधादिसंख्या विधालोकस्य सर्वतः ।।२६।। मानं लौकिकलोकोत्तर मेवाभ्यां मतं विषा । लोकशास्त्रानुसारेण लौकिकं विविधं भवेत् ॥२७॥ एको दश शतं सस्मात्सहस्रमयुतं ततः।। लक्ष तथा प्रयुक्तं च कोटिदशगुणाः क्रमात् ॥२८॥ इत्यङ्को वर्धत युक्त्योतरोत्तराविसंख्यया । तथा प्रस्थतुलादीनि मानानि विविधानि च ।।२९।। कीर्तितानि बुधैर्लोके व्यवहारप्रसिद्धये । प्रत्यलोकोत्तरं मान चतुर्भेदमिति ७ वे ॥३०॥ मादिमं द्रव्यमानं च द्वितीय क्षेत्रमानकम् । तृतीयं कालमानं स्याच्चतुर्थ भावमानकम् ॥३१।। अर्थ:-अब मैं जिनागम से तीन प्रकार के लोक का व्यास, उत्सेध एवं पायाम प्रादि की संख्या का निरूपण करने के हेतु नाना प्रकार के मान को कहूँगा ॥२६।। लौकिक और लोकोत्तर के भेद से मान दो प्रकार का है । लोकशास्त्र के अनुसार ( लोक व्यवहार में ) लौकिक मान अनेक प्रकार का होता है ।।२७।। यह लौकिक मानक्रम से एक, दश, सौ, हजार, दश हजार, लाख, दस लाख करोड़ मोर दस करोड़ आदि अंकों के भेद से उत्तरोत्तर संख्या रूप से वृद्धिंगत होता जाता है। तथा लोकव्यवहार की सिद्धि के लिए विद्वानों द्वारा प्रस्थ एवं तुला आदि नाना प्रकार के मान कहे गये हैं। Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्तसार सेपक एवं पन्य अर्थात् लोकोसर मान चार प्रकार का कहा गया है ॥२८-३०।। चार प्रकार के लोकोसर मानों में प्रथम द्रव्यमान, द्वितीय क्षेत्रमान, तृतीय कालमान और चतुर्थ भावमान है ।।३।। प्रब द्रव्यमान के भेव प्रभेदों को कहते हैं:-- संख्योपमादि भेदाभ्यां द्रव्यमानं द्विधास्मृतम् । संख्यामानं त्रिधाख्यातं. उपमामानमष्टधा ॥३२॥ तत्संख्यातमसंख्यातमनन्तं च भदेत विधा । जघन्यमध्यमोत्कृष्ट भेदैः संख्यातक विधा ॥३३॥ परीतासंख्यनामाद्यं युक्तासंख्यं द्वितीयकम् । असंख्यासंख्यक चेत्यसंख्यात विविध मतम् ॥३४॥ जधन्यमध्यमोत्कृष्टप्रकारेस्तत्पृथग्विधम् । प्रत्येक निविघं स्यावसंख्यातं नषधेत्यपि ॥३५॥ परीतानन्तनामाथ युक्तानन्ताह्वयं ततः । अनन्तानन्तसंज्ञं चेत्यनन्तं त्रिविधं भवेत् ।।३६॥ प्रत्येकं त्रिविध तच्च जघन्य मध्यमाभिधम् । उत्कृष्टमित्यनंतस्य स्पुर्भवा नपिण्डिताः ।।३।। एते पिण्डोकता सर्वे भेदाः स्परेकविंशतिः । संख्यासंख्यात्मकानन्तानां नामभिः पृथग्विधः ॥३८॥ अर्थ:-संख्या और उपमा के भेद से द्रव्यमान दो प्रकार का कहा गया है । इसमें संख्या मान तीन प्रकार का और उसमा मान प्रष्ट प्रकार का है ।।३।। संख्यात, असंख्यात और अनन्त के भेद से संख्या मान तीन प्रकार का है । तया संख्यात भी जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट के भेद से तीन प्रकार का है ।।३३।। परीतासंख्यात, युक्ता संख्याल और असंख्यातासंख्यात के भेद से असंख्यात तीन प्रकार का है ।।३४॥ इनमें जघन्य परीतासंख्यात, मध्यम परीतासंख्यात, उत्कृष्ट परीतासंख्यात, जघन्ययुक्तासंख्यात, मध्यम युक्तासंख्यात, उत्कृष्ट युक्तासंख्यात, जघन्य असंख्यातासंख्यात, मध्यम असंख्याता. संख्यात और उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात के भेद से असंख्यात नौ प्रकार का है ॥३५।। परीतानन्त, युक्तानन्त और अनन्तानन्त के भेद से अनन्त तीन प्रकार का है ॥३६।। तथा इन तीनों के भी भिन्न भिन्न जघन्य मध्यम और उत्कृष्ट के भेद से तीन तीन प्रकार होते हैं. इन सबको मिला देने से अनन्तानन्त के भी नो भेद होते हैं ।।३७॥ संख्यात, असंख्यात और अनन्त इन तीनों के पृथक पृथक् सर्व भेदों को जोड़ देने से संख्या प्रमाण के सर्व भेद' (३+६+६)=२१ होते हैं ||३८1। Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५६५ पोरशोऽधिकारा पब इसी संख्या प्रमाण का सविस्तार वर्णन करते हैं:अमीषां सुखबोधाय संस्कृतभाषया पृथक् व्याख्यानं क्रियतेः अनवस्था-शलाका-प्रतिशलाका महाशलाका नामानि लक्षयोजनवृत्त विस्ताराणि सहस्रयोजनावगाहानि चत्वारि कुण्डानि कारयेत् । ततः कश्चिदेवो दानवो बा वृत्तसर्षपैरनवस्थाकुण्डं प्रपूरयेत् । तदनन्तरं कुण्डसर्षपान् तान् गृहीत्वा स एक सर्षपं शलाकाकुण्डे प्रक्षिप्य शेषान् सर्षपान् एकैक रूपेण द्वोपसागरेषु प्रक्षिपेत् । एवं कृते यस्मिन् द्वीपे समुद्र दा अन्तिमः सर्षपोनिक्षिप्तः तावन्मानं सूच्यात्मकं अनवस्थाकुण्डं कृत्वा सपंपैः प्रपूयं ताम् सर्षपानादाय पूर्ववदेक सर्षपं शलाकाकुण्डे निक्षिप्य शेषान् सर्षपान् द्वीपवाधिषु निक्षिपेत् । पुन: यस्मिन् दीपे वाधों वान्त्यः सर्षपो भवति तत्रैव तावन्मात्रं कुण्डं विधाय सर्षपूर्णं कृत्वा प्राग्वदेकं शलाकाकुण्डे क्षिप्त्वा शेषान् गृहीत्वा तान् सर्षपान एकैक रूपेण द्वरेपसागरेषु क्षिपेत् । अनेन विधिना अनवस्थाकुण्डं बारं वारं तावद्विवधं येत् यावत् शलाकाकुण्डं सर्षपः पूर्ण भवति । पुनस्तदन्तिमं द्वीपत्राधिस्थं अनवस्था कुण्ड सर्षपपूर्णं कृत्वा पूर्ववत्तान् सर्षपानादायकं सर्षपं प्रतिशलाकाकुण्डे प्रक्षिप्य शेषांस्तान् एकेक रूपेण क्रमेण द्वीपवादिषु क्षिपेत् । अनेन विधिना मुहुर्मुहुरनवस्था कुण्डं ताबद्धयेत् यावत् प्रतिशलाकाकुण्डं सर्षपः पूर्ण स्थात् । ततः पूर्ववत् तदन्तिमं वर्धमानमऽनवस्थाकुण्डं सर्षपः पूरयेत् । पुनस्तान् सर्षपान् गृहीत्वा एक सर्षपं महाशलाकाकुण्डे क्षिप्रवा शेषान् सर्षपान् एकेक रूपेण द्वीपाम्बुधिषु क्षिपेत् । एवमनवस्थाकुण्डं तावदर्ययेत यावन्महाशलाका कुण्डं सषपः पूर्णता याति । एवं कुण्डलये पूर्ण सति प्रवद्धिते द्वीपसागरस्थे अनवस्था कुण्डे यावन्त: सर्षपाः सन्ति तावन्मानं जघन्यपरीतासंख्यातं कथ्यते । अघन्यपरीता संख्यातादेकस्मिन् सर्ष पेऽपनीते सर्वोत्कृष्ट संख्यातं जायते । यद् रूपद्वयं तज्जघन्य संख्यातं । जघन्योत्कृष्टयोर्मध्ये मध्यम संख्यातं नानाभेदं स्यात् । तानि जघन्यपरीतासंख्यातरूपाणि अन्य जघन्यपरोतासंख्यातरूपगुणितानि कृत्वा यावत्प्रमाणानि रूपाणि तावन्मानं जघन्ययुक्तासंख्यात. मुत्पद्यते । जघन्ययुक्तासंख्यातादेकरूपेऽपनीते परीतासंख्यातमुत्कृष्ट भवति । जघन्यपरीतासंख्यातोत्कृष्टपरोतासंख्यातयोमध्ये मध्यमपरीतासंख्यातं नानाप्रकारं स्यात् । तज्जधन्ययुक्तासंख्यातं अपरेण युक्तासंख्यातजघन्येन गुरिणत्वा तत्र यावन्मात्रारिंग रूपाणि तावन्मानं जघन्यासंख्यातासंख्यातं स्यात् । जधायासंख्यातासंख्यातादेकस्मिन् रूपेऽपनीते उत्कृष्टयुक्तासंख्यातं जायते । जघन्योत्कृष्टयोर्युक्तासंख्या. तयोर्मध्ये मध्यमयुक्तासंख्यातं बहुभेदभिन्न भवति । तज्जघन्यासंख्यातासंख्यातं श्रीन वारान् वगित संगितं च कृत्वा धर्माधर्मकजीवलोकाकाशप्रदेश प्रत्येकशरीर-चादर-प्रतिष्ठितवनस्पति कायिकेषु संयुक्तं कृत्वा पुनरपि त्रीन् बारान् वगितं संवगितं विधाय स्थितिबन्धाध्यबसानस्थानानुभागाध्यवसानोत्कृष्ट योगाविभागप्रतिच्छेदोत्यपिण्यव Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६ ] सिद्धान्तसार दीपक सर्पिणी समयान्वितं कृत्वा जघन्यपरीतानन्तं भवति । जघन्यपरीतानन्लादेकरूपेऽपनीते असंख्यातासंख्यातमुत्कृष्टं जायते । तयोपियोत्कृष्टासस्यातासंस्यालयामध्ये मध्यमासस्यातासंख्यातं नानाभेदं स्यात् । जघन्यपरीतानन्तरूपाणि जघन्य परीतानन्तरूपमात्राणि परस्परं प्रगुण्य यत्प्रमाणं भवति तज्जघन्यं युक्तानन्तं स्यात् । जघन्ययुक्तानन्ताद् रूपंकस्मिन्नपनौते उत्कृष्टपरीतानन्तं जायते । जघन्योस्कृष्टयोः परीतानन्तयोमध्ये मध्यमपरीतानन्तं नाना प्रकारं स्यात् । तज्जधन्ययुक्तानन्तं प्रपरे। जधन्ययुक्तानन्तेन गुरिणतं जघन्यानन्तानन्त भवति । जघन्यानन्तानन्तादेकरूपेऽपनीते उत्कृष्टयुक्तानन्तमुत्पद्यते । जघन्योत्कृष्टयुक्तानन्तयोर्मध्ये मध्य म युक्तानन्तं बहुभेदमस्ति । जघन्यानन्तानन्तं श्रीन वरान वगितं संवगितं च विधाय सिद्ध-निकोतजीव-वनस्पतिकायिक-काब-पुद्गलद्रव्याणु सर्वालोकाकाशप्रदेशान् तन्मध्ये प्रक्षिप्य पुनरपि त्रीन् वारान वर्गितं संवर्गितं च धर्मास्तिफाया गुरुलघुगुणान् प्रक्षिप्य पुनः श्रोन वारान् वगित संगितं च विधाय केवलज्ञानकेवलदर्शने प्रक्षिप्ते सति उत्कृष्टानन्तानन्तं भवति । जघन्योत्कृष्टयोरनन्तानन्तयोर्मध्ये मध्यमानन्तानन्तं विचित्रभेदं स्यात् । यत्र भव्यानां संख्या स्यात् । यत्र यत्रानन्तप्रमाणं प्रोच्यते तत्र तत्राजघन्योत्कृष्टानन्तानन्तं ग्राह्य । यत्राभव्यानां संख्या कथ्यते तत्र जघन्ययुक्तानन्तं ज्ञातव्यं । यत्रावलिका दयः समया: प्रोच्यन्ते तत्र जघन्ययुक्तासंख्यात स्यात् । संख्यातं श्रुतज्ञानस्य विषयं भवति । प्रसंख्यातं अवधिज्ञानस्य प्रत्यक्षं स्यात् । अनन्तं केवलज्ञानस्य युगपत्सकलप्रत्यक्ष सदास्ति । अब संख्या प्रमाण का सुख से बोध कराने हेतु पृथक पृथक व्याख्यान करते हैं: एक लाख योजन व्यास और एक हजार योजन उत्सेध वाले अनवस्था, शलाका, प्रतिशलाका और महाशलाका नाम के चार कुण्डों का स्थापन करना चाहिये । यथा प्रथम अनवस्था प्रति शलाका महा शालाका शलाका कुण्ड इसके बाद कोई देव अथवा असुर इन्हें गोल सरसों से भरे । उसके बाद उस कुण्ड के सरसों को ग्रहण कर वह एक सरसों शलाका कुण्ड में डाल कर शेष सरसों को एक एक द्वीप समुद्र में डालता जावे, जिस द्वीप या समुद्र में अन्तिम सरसों डाली जाय, उतने प्रमाण का एक दुसरा अनवस्था कुण्ड तैयार करके उसे पुनः सरसों से भरे और उन सरसों को ग्रहण कर पूर्ववत् एक सरसों शलाका कुण्ड में डाल कर शेष सरसों को आगे प्रामे के द्वीप समुद्रों में एक एक कर डाले, और जिस द्वीप या Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षोडशोऽधिकार [ ५६७ समुद्र में अन्तिम सरसों पड़े, उतने मात्र सूची व्यास और एक हजार योजन उत्सेध वाला पुन: एक अनवस्था कुण्ड बना कर उसे सरसों से भरे, और पूर्ववत् एक सरसों शलाका कुण्ड में डाल कर शेष सरसों को एक एक कर आगे के एक एक द्वीप समुद्रों में डालता जावे । इसी प्रकार की विधि से बार बार प्रनवस्था कुण्डों को वृद्धि तब तक करता जावे, जब तक कि एक लाख योजन व्यास और एक हजार योजन उत्सेध वाला शलाका कुण्ड, सरसों से पूर्ण न भर चुके । शलाका कुण्ड भरते समय जिस द्वीप या समुद्र में अन्तिम सरसों डाली जाय, उतने क्षेत्र प्रमाण पुनः अनवस्था कुण्ड बना कर उसे सरसों से भरे और फिर उन सरसो को लेकर एक दाना प्रति शलाका कुण्ड में डाल कर शेष को आगे के एक एक द्वीप समुद्र में डाले । इस प्रकार पुनः पुनः अनबस्था कुण्ड को तब तक बढ़ाता जावे अब तक कि प्रति शलाका कुण्ड सरसों से पूर्ण न भर जाय । इसके बाद वृद्धिंगत अन्तिम अनवस्था कुण्ड को सरसों से भरे और उन सरसों को लेकर एक दाना महा शलाका कुण्ड' में डाल कर शेष सरसों को एक एक द्वीप समुद्र में डाले । इस प्रकार अनवस्था कुण्ड तब तक बढ़ाये जब तक कि महाशलाका कुण्ड सरसों से पूर्ण न भर जावे । इसी क्रम से तीनो कुण्ड भर जाने पर बढ़ते हुए जिस द्वीप या सागर पर्यन्त जो अन्तिम अनवस्था कुण्ड बना कर सरसों भरी गई है, वह सरसों जितने संख्या प्रमाण है, उतनी ही संख्या जघन्यपरीतासंख्यात की कही गई है । जघन्यपरीतासंख्यात के प्रमाण में से एक सरसों निकाल लेने पर जो प्रमाण बचता है वही उत्कृष्ट संख्यात का प्रमाण है, तथा दो की संख्या जघन्य संख्यात है । इन अधन्य और उत्कृष्ट संख्यात के मध्य में मध्यम संख्यात नाना भेद वाला है। उस जघन्य परीतासंख्यात के प्रमाण को जघन्यपरोतासंख्यात वार जघन्य परीतासंख्यात के ही प्रमाण से गुणित करने पर जो लब्ध प्राप्त होता है उतने प्रमाण संख्या को जघन्ययुक्तासंख्यात कहते है । जघन्ययुक्तासंख्यात के प्रमाण में से एक अंक कम कर देने पर उत्कृष्ट परीतासंख्यात होता है । जघन्यपरीतासंख्यात और उत्कृष्ट १रोतासंख्यात के मध्य में मध्यम परीतासंख्यात नाना प्रकार का होता है । जघन्ययुक्ता संख्यात को एक अन्य जघन्ययुक्तासंख्यात से गुणित करने पर जितना प्रमाण प्रा होता है, उतना ही प्रमाण जघन्य असंख्यातासंख्यात का होता है। जघन्य असंख्यातासंख्यात के प्रमाण में से एक अंक कम करने पर उत्कृष्ट युक्तासंख्यात होता है। जघन्य और उत्कृष्ट युक्तासंख्यात के मध्य में मध्यमयुक्तासंख्यात अनेक भेदों वाला होता है। जघन्य असंख्यातासंख्यात को तीन बार वगित संगित करके अर्थात् शलाकात्रय की परिसमाप्ति होने पर ( इसकी प्रक्रिया त्रिलोकसार गाथा नं ० ३८, ३६, ४० को टोका में देखना चाहिए ) जो मध्यम असंख्यातासंख्यात स्वरूप राशि उत्पन्न हो उसको (१) धर्म द्रव्य (२) अधर्म द्रव्य (३) एक जीव द्रव्य (४) लोकाकाश के प्रदेश (५) अप्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर वनस्पति और ! ( ६ ) बादर प्रतिष्ठित वनस्पति जीवों के प्रमाण से मिलाकर पुनः पूर्वोक्त रीत्या तीन बार गित. Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८ ] सिद्धान्तसार दीपक संगित करने पर मध्यम असंख्यातासंख्यात रूप जो महाराशि उत्पन्न हो उसमें (१) स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थान ( जो कल्पकाल के समयों से असंख्यातगुणे हैं ) (२) अनुभागबन्धाध्यवसाय स्थान (३) योग के उत्कृष्ट अविभाग-प्रतिच्छेद और (४) उत्सपिणी-अवसर्पिणी स्वरूप कल्प काल के समयों का प्रमाण मिलाने पर ( पुनः पूर्वोक्त रीत्या तीन बार वगित-संगित करने पर ) जो पाशि उत्पन्न हो वह जघन्य परीतानन्त का प्रमाण है । जघन्य परीतानन्त के प्रमाण में से एक अंक निकाल लेने पर उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात का प्रमाण होता है। जघन्य परीतानन्त के प्रमाण को जघन्य परीतानन्त वार जघन्य परोतानन्त के प्रमाण से गुणित करने पर जो लब्ध उत्पन्न होता है, वह जघन्ययुक्तानन्त का प्रमाण है । जघन्य युक्तानन्त के प्रमाण में से एक अङ्क कम कर देने पर उत्कृष्ट परीतानन्त का प्रमाण होता है । जघन्य परीतानन्त और उत्कृष्ट परीसानन्त के मध्य में मध्यम परीतानन्त अनेकानेक प्रकार वाला है। जघन्य युक्तानन्त के प्रमाण को एक अन्य जघन्य युक्तानन्त के प्रमाण से गुणित कर देने पर जघन्य अनन्तानन्त होता है जघन्य अनन्तानन्त के प्रमाण में से एक अंक निकाल लेने पर उत्कृष्ट युक्तानन्त का प्रमाण उत्पन्न होता है । जघन्य और उत्कृष्ट युक्तानन्त के मध्य में मध्यम वृत्तानात गोडाने भेद वान होता है । जघन्य अनन्तानन्त रूप महाराशि को तीन बार वगित-संगित करने पर जो राशि उत्पन्न हो उसमें (१) सिद्ध राशि (२) निगोद राशि (३) वनस्पतिकायिक राशि (४) सम्पूर्ण काल के समयों स्वरूप काल राशि ( ५) पुद्गलद्रव्य रूप सम्पूर्ण अणुओं की राशि और सम्पूर्ण अलोकाकाश के प्रदेशों का क्षेपण करने पर जो प्रमाण प्राप्त हो उसे पुनः तीन बार 'वर्गित-संगित करना चाहिए । इस प्रक्रिया से जो महाराशि उत्पन्न हो उसमें धर्म द्रश्य ( और अधर्म द्रव्य ) के अगुमलघु गुण के अविभागी-प्रतिच्छेदों को मिला कर पुन: - - - - - - १. जिस राशि को वगित-संगित करना हो उसे शलाका, विरलन और देय रूप से तीन जगह स्थापित कर लेना चाहिये । पश्चात विरलन राशि का एक एक अंक विरलन कर, उस प्रत्येक अंक पर देय राशि रख कर ' परस्पर गुणा करके शलाका राशि में से एक घटा देना चाहिए । परस्पर के गुणन से उत्पन्न हुई राशि का पुनः घिरसन कर और उसी राशि का देय देकर परस्पर गुणा करने के बाद शलाका राशि में से दूसरी बार एक अंक पोर घटा बेना चाहिए । इसी प्रकार पुन: पुन: विरलन, देय, गुणन पीर ऋण रूप क्रिया तब तक करना चाहिए जब तक कि शलाका राशि समान न हो जाय (यह एक बार गित संगित हुआ)। इतनी प्रक्रिया बाद जो महाराशि उत्पन्न हो उसे पूर्वोक्त प्रकार विरसन, देय पोर शलाका रूप से तीन जगह स्थापित कर, विरनन राशि का पिरलन कर उस पर देय राशि देय रूप रख कर परस्पर में मुणा कर शलाका राशि में से एक अंक घटा देना चाहिए । यह प्रक्रिया पुन: पुन: तन तक करना चाहिए जब तक शलाका रामि समाप्त न हो जाय ( यह दूसरी बार यगित सर्वागत हुआ)। इस द्वितीय शलाका राशि के समाप्त होने पर जो महाराशि उत्पन्न हो उसकी पुन: पुन: उपयुक्त प्रक्रिया तब तक करना चाहिए, जब तक कि एक एक अक घटाते हुए महाराशि रूप शलाका राशि की परिसमाप्ति न हो जाय (यह तृतीय बार वगित-सर्वागत हुप्रा)। Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ tesfer [xee तीन बार वर्गित संगित करना चाहिए। इस बार की प्रक्रिया से जो विशद महाराशि उत्पन्न हो [ उसे केवलज्ञान के अविभागी प्रतिच्छेदों में से घटा देना चाहिए, तथा जो अवशेष रहे, उस शेष को उसी उत्पन्न हुई विशद् महाराशि में मिला देने से केवलज्ञान के अविभागी प्रतिच्छेद प्रमाण उत्कृष्ट अनन्तानन्त होता है ] उसे केवलज्ञान और केवलदर्शन के अविभागी प्रतिच्छेदों में मिला देने पर उत्कृष्ट अनन्तानन्त का प्रमारण होता है । [ किन्तु यह प्रमाण केवलज्ञान के अविभागी प्रतिच्छेदों से वृद्धिगत ( बढ़ जाने ) हो जाने के कारण उत्कृष्ट अनन्तानन्त के प्रमाण को पार कर जायगा, जो आगम विरुद्ध होगा ] जघन्य ग्रनन्तानंत और उत्कृष्ट अनन्तानन्त के मध्य में मध्यम अनन्तानन्त होता है, जो अनन्तों प्रकार का है। भव्यों की संख्या इसी मध्यम अनन्तानन्त प्रमाण है। जहाँ जहाँ अनन्त का प्रसारण कहा जाता है, वहाँ वहाँ अजघन्य एवं अनुत्कृष्ट अनन्तानन्त ही ग्राह्य है । जहाँ भव्यों की संख्या कही गई है बहाँ जघन्य युक्तानन्त जानना चाहिए । अर्थात् अभव्य राशि जघन्य युक्तानन्त प्रमाण है । जहाँ प्रावली आदि के समय क गये हैं, वहाँ जघन्य युक्तासंख्यात जानना चाहिए। ܀ संख्यास का विषय ( प्रमाण ) श्रुतज्ञान गम्य है, श्रसंख्यात का विषय अवधिज्ञान गम्य है। और अनन्त ( युक्तानन्त आदि ) का विषय सकल प्रत्यक्ष स्वरूप केवलज्ञान का विषय है । अर्थात् मात्र केवलज्ञान गम्य है । अब उपमा मान के आठ भेदों के नाम कहते हैं: पयोऽथ सागरः सूच्यङ्गुलं च प्रतराङ्गुलम् । घनाङ्गुलं जगच्छु लिकप्रतर एव हि ॥ ३६ ॥ लोकोऽमी चोपमामानभेदा अष्टौ मताः श्रुते । प्रमषां विस्तराख्यानं सुखबोधाय कथ्यते ||४०|| अर्थ :- पल्य, सागर, सुकपङ्गुल. प्रतराङ्गुल, घनाङ्गुल, जगच्छ्ररणी जगत्प्रतर और लोक उपमा मान के ये ग्राठ भेद आगम में कहे गये हैं। सुख पूर्वक बोध प्राप्त करने के लिए अब इन पाठों का विस्तार से वर्णन करते हैं ।।३६-४० ॥ अब व्यवहार पल्य और उसके रोगों की संख्या कहते हैं: -- सर्वत्र योजनासो योजनं कावगाहकः । समवृतो महान् कूपः खभ्यते पन्य सिद्धये ॥४१॥ Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०० ] सिद्धान्तसार दीपक सप्ताहोरात्र जातानां मेष बालकजन्मिनाम् । रोमखण्डैरखण्डैस्तं पूरयेत्सूक्ष्मखण्डितैः ॥४२॥ एकैकं रोमखण्डं तद्वर्षाणां च शते शते । गते सति ततः कूपान्निः सायं विचक्षणः ॥ ४३ ॥ यदा स जायते रिक्तः कालेन महता तदा । सरकालस्य प्रमाणं यत्स पन्यो व्यावहारिकः ॥४४॥ चतुरेकत्रिचत्वारः पञ्चद्विषट् त्रिशून्यकाः । त्रिशून्याष्टद्विशून्यं त्र्येकसप्तसप्त सप्तकाः ।।४५|| चतुर्नवाचक द्वयाङ्कक नवद्वयाः । सप्तविंशति रेसेऽङ्काः शून्यान्यष्टादशास्फुटम् ॥ ४६ ॥ प्रमोभिः पश्चचत्वारिंशवङ्कः श्रोजिनाधिपैः । तद् व्यवहारपल्यस्य रोमारणां गणनोबिता ॥४७॥ अर्थ::- पल्य की सिद्धि के लिए एक योजन ( चार प्रमाण कोल ) चौड़ा और एक योजन गहरा एक गोल गड्डा खोदना चाहिए ॥४१॥ तथा उसे ( उत्तम भोगभूमि में ) सात दिन रात के भेड़-बच्चों के रोमों को ग्रहण कर जिसका दूसरा खण्ड न हो सके ऐसे अखण्ड और सूक्ष्म रोम खण्डों के द्वारा उस गड्ढे को भरे तथा प्रत्येक सौ वर्ष व्यतीत होने पर एक-एक रोम खण्ड निकाले इस प्रकार सौ सौ वर्ष में एक-एक रोम निकालते हुए जितने काल में वह गड्ढा खाली हो जाय उतने काल ( के समयों की संख्या } को विद्वानों ने व्यवहार पल्य कहा है ।।४२-४४ ।। ४१३४५२६३०३०८२०३ १७७७४६५१२१६२०००००००००००००००००० इस प्रकार २७ अंकों को १८ शून्यों से युक्त करने पर ४५ प्रङ्क प्रमाण व्यवहार पत्य के रोमों की संख्या श्री जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कही गई है। अर्थात् प्रत्येक सौ वर्ष बाद एक एक रोम के निकाले जाने पर जितने काल में समस्त रोम समाप्त हों, उतने काल के समय ही व्यवहार पत्य के समयों की संख्या है ।।४६-४७।। अब उद्धार पल्य और द्वीप समुद्रों का प्रमाण कहते हैं: पसंख्यकोटिवर्षाणां समये खिताश्च ते । रोमांशावधिताः सर्वे भवन्ति संख्ययज्जिताः ॥ ४८ ॥ Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षोडशोऽधिकार: वककशतेनैव रोमराशेः पृथक क्रमात् । एक हियते रोमं तवन्तं याववजसा ।।४९।। एवं कृते भवेद्यावत्कालः केवलिगोचरः । तावत्कालप्रमाणे सक्लारपज्य एव सः॥५०॥ गतासूचारपन्यानां द्विपञ्चकोटिकोटिषु । द्वीपाब्धिसंख्य हेतुश्च जायेतोद्धारसागरः ॥५१॥ अर्थ:-व्यवहार पल्य के वे रोमांश असंख्यात कोटि वर्षों के समयों द्वारा गुरिणत होकर वृद्धि को प्राप्त हुये असंख्यात हो जाते हैं अर्थात् उन रोमांशों को असंख्यात कोटि वर्षों के समयों से गुणा करने पर जो प्रमाए। प्राप्त होता है, वह असंख्यात होता है ।।४८।। उस असंख्यात रोगों की राशि में से क्रम से प्रत्येक सौ वर्ष बाद एक एक रोम निकालने पर जितना काल होता है, केवलि गोचर उतना ही काल उद्धार पल्य के काल का प्रमाण है ॥४६-५०।। इसी प्रकार के २५ कोटाकोटी उद्धार पल्या अर्थात् २३ उद्धार सागरों के जितने समय हैं, उतनी ही द्वीप समुद्रों की संख्या है। द्वीप समुद्रों की संख्या बतलाने के लिए उद्धार पल्य का कथन किया गया है ॥५१॥ अब प्राधार (अद्धा) पल्य एवं प्राधार सागर का प्रमाण कहते हैं: उद्धारपन्यएवासौ शताब्दसमयः पुनः । गुणितो जायते विद्भिराधारपल्य उत्तमः ॥५२॥ बशस्वाधारपन्यानां गतासु कोटिकोटिषु । जायते सकलोत्कृष्ट प्राधारसागरोपमः ॥५३।। कालायुः कर्मणां यत्र वर्ण्यन्ते स्थितयो बुधैः । तत्रेतो पल्यवा?स्त प्राधाराधारनामको ।।६।। अर्थः-एक उद्धार पल्य के सम्पूर्ण रोमों को १०० (असंख्यात ) वर्षों के समयों से गुणित करने पर जो संख्या प्राप्त हो वही संख्या विद्वज्जनों ने उत्कृष्ट प्राधार ( प्रद्धा ) पल्य की कही है ॥५२।। १० कोटाकोटी प्राधार पल्यों का एक उत्कृष्ट आधार ( श्रद्धा ) सागर होता है ॥५३॥ विद्वानों के द्वारा उत्सपिणी आदि कालों का प्रमाण, प्रायु एवं कर्मों की स्थिति का प्रमाण इन्हीं माधार पल्य तथा प्राधार सागर से किया गया है ।।५४।। Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०२.] सिद्धान्तसार दीपक अब सूच्यगुल से लेकर लोक पर्यन्त का प्रमाण या लक्षण कहते हैं:सूच्यङ्गुलमुच्यतेः-- आधारपल्योपममार्धिन तावत्प्रकर्सव्यं यावद् रोमकं तिष्ठेत् । तत्र यावन्त्यर्घच्छेदनानि प्राधारपल्योपमस्य तावन्मात्राधारपल्यानि परस्परगुरिगतानि यत्प्रमाणं भवति तावन्मात्रा प्राकाशप्रदेशाः ऊर्ध्वमावल्याकारेण रचिताः, तेषां नमःप्रदेशानां यत्प्रमाणं तत्सूच्यङ्गुलं स्यात् । तत्सूच्यङ्गुलमपरेण सूच्यालेन गुरिणतं प्रतराङ्गुलं भवति । प्रतराङगुलं अपरेण सूच्यङगुलेन गुरिणतं घना गुलं कथ्यते । पञ्चविंशतिकोटीकोटीनामुद्धार पल्यानां यावन्ति रूपाणि लक्षयोजनार्धच्छेदनानि च रूपाधिकानि । एकैकं द्विगुणीकृतानि अन्योन्याभ्यस्तानि यत्प्रमाणं सा रज्जुः । सप्तभिर्गुणिता रज्जू जगच्छेरिणरुच्यते । जगच्छ्रेणिरपरया जगच्छ्रेण्या गुणिता लोकप्रतरं स्यात् । लोकप्रतरं जगच्छ ग्या गुणितं लोकः कथ्यते । अर्थः-आधार पल्योपम के इस रीति से प्रधं अर्ध भाग करना चाहिए कि अन्त में मात्र एक रोम रहे । यहाँ प्राधार पल्प के जितने अर्धच्छेद प्राप्त हों उतनी संख्या बार भाधार पल्यों का परस्पर में गुणा करने से जो लब्ध पावे, उतनी संख्या प्रमाण प्राकाश प्रदेशों को कवं पंक्ति के आकार रचना करना चाहिए । उन आकाश प्रदेशों की जितनी संख्या है, वही सूच्यंगुल का प्रमाए है । इस सुच्यड गुल को अन्य सूच्यङ गुल से गुरिणत करने पर प्रतराङ गुल होता है और प्रतराङ गुल सूच्चंगुल से गुणित करने पर धनाङ गुल की प्राप्ति होती है। २५ कोटाकोटी उद्धार पल्य के जितने समय हैं, उनमें एक लाख योजन के अर्धच्छेदों को जोड़ कर अन्य एक अङ्क और मिला देने से जो प्रमाण पावे उतनी बार दो दो रख कर उन दो दो को परस्पर में गुरिणत करने पर जो राशि उत्पन्न होती है, वही राजू का प्रमाण है। विशेषार्थ :--मध्यलोक पूर्व-पश्चिम एक राजू है । उस एक राजू में समस्त द्वीप समुद्र हैं, जिनका प्रमाण २५ कोटाकोटी उद्धार पल्य के समयों के बराबर है, किन्तु प्रत्येक द्वीप व समुद्र परस्पर में एक दूसरे से दुगुणे दुगुणे होते गये हैं, अत: द्वीप समुद्रों को जो संख्या है, वह एक राजू के अर्धच्छेदों से कम है, क्योंकि प्रारम्भ में एक लाख योजन व्यास वाला जम्बूद्वीप है, अतः इस एक लास्त्र योजन के अर्धच्छेद द्वीप-समुद्रों की संख्या में जोड़ देना चाहिए । लवण समुद्र में दो अर्धच्छेद पड़ते हैं, इसलिए एक अङ्क और मिलाया गया है । इस प्रकार द्वीप-समुद्रों की संख्या (२५ कोटाकोटी उद्धार पल्य के समयों ) में एक लाख योजन के अर्धच्छेद व एक अङ्ग और मिलाने से एक राजू के अर्धच्छेद प्राप्त हो जाते हैं । जितने अर्धच्छेद हैं उतने दो दो के अङ्क रच कर परस्पर गुणा करने से राजू का प्रमाण प्राप्त हो जाता है । Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षोडशोऽधिकार। [६०३ रज्म को ७ से गुणित करने पर जगच्छ्रणी होती है। जगच्छणी को अन्य जगच्छणी से गुणित करने पर जगत् प्रतर और जगत्प्रतर को जगच्छणी से गुणित करने पर रोक का प्रमाण होता है। अब अणु का लक्षण कह कर अंगुल पर्यन्त मापों का प्रमाण कहते हैं:-- स प्रदेशोऽप्यमेधस्तु मूतनिन्द्रियगोचरः । स्पर्शादिगुणसंयुक्तः पुद्गलाणुरिहोच्यते ॥५५॥ उत्संज्ञासंज्ञकस्कन्धोऽनन्तानन्ताणुभिर्भवेत् । संहासंज्ञात्मकस्कन्धोऽष्टभिस्तैः कोतितो जिनः ।।५६॥ स्कन्धेस्तरष्टभिः प्रोक्तो व्यवहाराणुरागमे । अष्टभिर्यवहाराणुभिस्त्रमरेणुरुच्यते । ५७॥ रथरेणुरिहाख्यातोऽप्यष्टभिस्त्रसरेणुभिः । रथरेण्यष्टभिः प्रोक्तो बालक: प्रायवेहिनाम् ॥१८॥ उत्कृष्टभोगभूजातानां तैरष्टशिरोरुहैः । केशको मध्यमाभोगभूमिभवार्यजन्मिनाम् ॥५६॥ एतै लाष्टभिः ख्यातो बालकः पिण्डितर्बुधैः । जघन्यभोगमभागोत्पन्नार्याणां शिरोरुहः ।।६।। तेरष्टभिश्च बालकः कर्मभूमिजदेहिनाम् । कर्मभूमिनुबालाष्टकैलिका निगद्यते ॥६१।। लिक्षाष्टभिस्तुयू कैका यूकोष्टभिर्यवो मतः । यवोवराष्टकः प्रोक्तं पर्वमानं गणाधिपः ॥६॥ अर्थः-जो पुद्गल द्रव्य एक प्रदेशी हो, मूर्तिक हो, इन्द्रियों से अग्राह्य हो तथा स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण से युक्त हो उसे पुद्गल प्रणु कहते हैं ।।५५।। ऐसे अनन्तानन्त पुद्गल परमाणुओं से एक उत्संज्ञासंज्ञक स्कन्ध उत्पन्न होता है । जिनेन्द्र भगवान ने पाठ उत्संज्ञासंज्ञकों का एक संज्ञासंज्ञास्मक स्कन्ध कहा है ।।५६।। प्रागम में माठ संज्ञासज्ञात्मक स्कन्ध का एक व्यवहाराणु (टिरेणु) और पाठ श्रुटिरेणुओं का एक त्रसरेणु कहा गया है ।।५७।। आठ त्रसरेणुओं का एक रथरेणु, पौर पाठ रथरेणुनों का उत्तम भोगभूमिज मनुष्यों का एक बाल होता है ॥५८॥ उत्कृष्ट भोगभूमिज Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०४ ] सिद्धान्तसार दीपक मनुष्यों के भाठ बालों का मध्यम भोगभूमिज मनुष्यों का एक बाल होता है ॥ ५६ ॥ मध्यम भोगभूमिज आठ बालों का जघन्य भोगभूमिज मनुष्यों का एक बाल होता है ।। ६० ।। जघन्य भोगभूमिज आठ बालों का कर्मभूमिज मनुष्यों का एक बाल होता है, कर्मभूमिज मनुष्यों के आठ बालों की एक लिक्षा होती है || ६१ ॥ श्राठ लिक्षाओं की एक जु, आठ जु का एक यव और आठ यवों का एक थंगुल होता है, ऐसा गणवरादि देवों द्वारा कहा गया है || ६२ || अब गुलों के भेव और उनका प्रमाण दर्शाते हैं: उत्सेधाङ गुलमेवाचं प्रमाणाङ गुलसंज्ञकस् । प्रात्माङ्गुलमिति प्रोक्तमङ्गुलं त्रिविधं जिनैः ॥ ६३॥ प्रागुक्तमादिमं पञ्चशताभ्यस्तं मनीषिभिः । उत्सेधाङ गुलमेतत्प्रमाणाङ गुलमुच्यते ॥ ६४|| उत्सर्पिण्यवस पिण्योः षट्कालोत्पन्नजन्मिनाम् । वृद्धिह्रासशरीराणां बहुधात्माङ्गुलं भवेत् ।। ६५ ।। अर्थ - श्रा जी (यव) से जो अंगुल उत्पन्न होता है उसके श्री जिनेन्द्र देव ने उत्सेधाङ्गुल, प्रमाणागुल और आत्माङ्गुल के भेद से तीन प्रकार कहे हैं || ६३|| ऊपर जो जो का एक अंगुल कहा गया है, वही उत्सेधांगुल या व्यवहारांगुल कहलाता है। उस उत्सेधांगुल में ५०० का गुला करने से प्रमारांगुल होता है, ऐसा विद्वानों ने कहा है || ६४|| उत्सर्पिणी - श्रवसर्पिणी सम्बन्धी छड् कालों में ह्रस्व, दीर्घ अवगाह्ना को धारण कर जन्म लेने वाले मनुष्यों के अंगुल को श्रात्माङ्गुल कहते हैं ।। ६५ ।। अब किन अंगुलों से किन किन पदार्थों का माप किया जाता है, इसका व्याख्यान करते हैं: चतुर्गतिसमुद्भूतप्राणिनां वपुषां बुधः । उत्सेधाद्या निरूप्यन्ते उत्सेधाङ्गुलमानकैः ।। ६६ ।। द्वीपान्यक्षेत्र देशानां नदी ब्रहाविभूभूताम् । अकृत्रिमजिनागारादीनां व्यासोदयादयः ॥६७॥ प्रारणाङ्गुलमानश्च कीर्तिताः श्रोगणाः । ध्वजच्छत्ररथावा सघटशय्यासनाविषु ||६८ || Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षोडशोऽधिकारा प्रमाणं वहिना पसभास्माइगुलर नेकपः। चतुर्विशाइ गुलरेको हस्तो जायेत जन्मिनाम् ॥६६॥ अर्थ-चारों गतियों में उत्पन्न होने वाले जीवों के शरीर का उत्सेष उत्सेधांगुल के द्वारा किया जाता है, ऐसा विद्वानों ने कहा है ॥६६।। द्वीप, समुद्र, क्षेत्र, देश, नदी, द्रह आदि, कुलाचल और प्रकृत्रिम जिन चैत्यालयों आदि का उत्सेध, पायाम एवं व्यास प्रादि प्रमाणांगुल से किया जाता है, ऐसा गणधर देवों के द्वारा कहा गया है । ध्वज, छत्र, रथ, प्राणियों के प्रावास, घट और शय्या आदि का प्रमाण प्रात्मांगुल से किया जाता है। मनुष्यों के २४ अंगुलों का एक हाथ होता है ।।६७-६६।। अब क्षेत्रमान का ज्ञापन कराने के लिए माप का प्रमाण कहते हैं: चतुःकरैर्धनुः प्रोक्तं धनुष द्विसहस्र कः । क्रोश एक छहाम्नातश्चतुःक्रोशैश्च योजनम् 11७०।। तस्मात्साध्यं च पन्धाधमुपमामानमञ्जसा । क्षेत्रमानमिति प्रोक्तं पूर्वशास्त्रानुसारतः ॥७१।। अर्थ:-२४ अंगुलों का एक हाथ और चार हाथ का एक धनुष होता है । दो हजार धनुष का एक कोश और चार कोश का एक योजन होता है ॥७०॥ इन पल्य, सागर, सूच्या गुल, प्रतरांगुल, घनांगल, जगच्छरणी, जगत्प्रतर और लोक का साधन इन्हीं योजन आदि से होता है । इसप्रकार परम्परागत शास्त्रानुसार क्षेत्रमान का प्रमाण कहा गया है ॥७१॥ अब काल मान के प्रमाण का दिग्दर्शन कराते हैं:-- कालमानमतो वक्ष्ये यथाम्नातं जिनाधिपः । लोकाकाशप्रदेशेषु कालाणयः पृथक पृथक् ॥७२।। तिष्ठन्त्येकक रूपेणा संख्याता रत्नराशिवत् । वर्तनालक्ष गंयेषां जीवपुद्गलयो योः ॥७३।। तं कालाणु लघूल्लंघ्य पुद्गलाण प्रयास्यति । यावत् कालप्रमाणेन स काल: समयाह्वयः ॥७४॥ प्रसंख्यसमपैरेकावलिः प्रोक्ता जिनागमे । संख्यावलिभिरुच्छ्वासः स्तोक उच्छ्वास सप्तभिः ॥७॥ Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्तसार दीपक सप्तस्तोलंबैका सार्धाष्टसित्प्रमाणकः । लबानां घटिकैका च मुहूर्तो विघटीभवा ।।७।। क्षणकोनो मुहूर्तः स्याद भिन्नमुहूर्तनामकः । तस्मादावल्यसंख्येण्भागो यावच्छ हानितः ।।७७।। तावदन्समुहूर्तोऽत्र नानाभेदो निगद्यते । त्रिंशन्मुहूर्तः सद्भिरहोरात्रं मतं श्रुते ।।७।। निशदिनर्भवेन्मासः षण्मासैरयनं स्मृतम् । वघयनाभ्यां भवेद् वर्ष पश्चवर्षेयुगं मतम् ।।७।। अर्थ:-जिनेन्द्रों के द्वारा जैसा कहा गया है, काल मान का वैसा हो वर्णन मैं करता है। लोकाकाश के एक एक प्रदेश पर रत्नों की राशि के सदृश एक एक काल द्रव्य के अणु पृथक् पृथक् स्थित हैं और वे असंख्यात हैं ।।७२।। उन कालाणुओं अर्थात् काल द्रव्य का वर्तना लक्षण है, इसी के निमित्त से जीव भोर पुद्गल में पारणमन अर्थात् नई परानी प्रादि अवस्थाएं होती हैं । पुद्गल का सबसे छोटा अणु उस कालाणु को जितने काल में उल्लंघन करता है, उतने काल प्रमाण को समय कहते हैं ।।७३-७४॥ जिनागम में ऐसे ही असंख्यात ( जघन्ययुक्तासंख्यात ) समयों को एक प्रावली कही गई है । संख्यात प्रावलियों का एक उच्छ बास और सात उच्छ वासों का एक स्तोक होता है ७५।। सप्त स्तोकों का एक लब, ३८१ लवों की एक घड़ी और दो घड़ी का एक मुहूर्त होता है ॥७६|| एक क्षण ( १८ निमेषों की एक काष्टा, ३० काष्टा को एक कला और ३० कला का एक क्षण होता है) कम मुहूर्त ( १२ क्षणों का एक मुहूर्त ) को भिन्न मुहूर्त कहते हैं । इससे कम अर्थात् प्रावली के असंख्यातवें भाग पर्यन्त अन्तर्मुहूर्त कहलाता है। यह अन्तर्मुहूर्त अनेक भेदों वाला कहा गया है। मागम में ३० मुहूर्त का एक दिन कहा गया है । ३० दिनों का एक मास, ६ मासों का एक प्रयन, दो प्रयनों का एक वर्ष और ५ वर्षों का एक युग होता है ।।७७-७९॥ अब व्यवहार काल के भेदों में से पूर्वांग प्रादि के लक्षण कहते हैं:-- प्रथ पूणिपूर्वाशना प्रमाणं निरूप्यते । स्यात् पूर्वाङ्गैकमन्दानां लक्षश्चतुरशीतिकः ।।८।। पूर्वान गुणितं पूर्व लॉश्चतुरशीतिकः । पूर्व चतुरशीतिघ्नं पर्वाङ्गमुच्यते बुधः ॥१॥ Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ভীৱহাৰিক্ষা लक्षश्चतुरशीत्या त वगितं पर्वमिष्यते । पर्व चतुरशीत्या नयुताङ्ग गुणितं भवेत् ॥२॥ नयुतं ताडितं सत स्यालक्षश्चतुरशीतिकः । हतं चतुरशोत्या तत् कुमुवाङ्ग निरूपितम् ॥३॥ लाचतुरशीस्या तद् गुणितं कुमुवं भवेत् । मतं चतुरशीत्या हि पद्मा तच्च ताडितम् ।।८४॥ लक्षश्चतुरशीत्या तद्धतं पन जिनागमे । तद्धतं नलिनाङ्ग स्यात्संख्यश्चतुरशीतिक: 11 गुणितं नलिनं तत्स्याल्लाश्चतुरशीतिकः । हतं चतुरशोत्या तत्कमलाङ्ग स्मृतं बुधैः ॥८६॥ संक्षश्चतुरषोत्यः तम् गितं कमा भोत । हतं चतुरशीत्या तत् त्रुटिताङ्ग निगद्यते ॥७॥ लक्षश्चतुरशीत्यंत गुणितं घटितं मतम् । हतं चतुरशोत्या तदटटाङ्गाभिधं भवेत् ॥५॥ लक्षश्चतुरशोत्या तद् गुणितं वाटटाख्यकम् । हतं चतुरशोत्यंत दममाङ्गाभिधं स्मृतम् 11८६।। प्रममं गुणितं तत् स्याल्लाश्चतुरशीतिकः । तस्यायचतुरशोत्या गुणितं हाहाङ्गसंज्ञकम् ॥१०॥ लक्षश्चतुरशीत्या तद् हतं हाहास्यमुच्यते । भवेच्चतुरशीस्यां तद् हूहांगं गुरिणतं बुधैः ।।६१॥ लक्षश्चतुरशीत्यां तद्धतं हूहू समाह्वयम् ।। भवेच्चतुरशीत्या वगितं विन्दुलताङ्गकम् ॥१२॥ हतं विन्दुलताल्यं तल्लाश्चतुरशीतिकः । हतं चतुरशोत्या सन्महालताङ्गमुच्यते ॥१३॥ लक्षश्चतुरशीत्या तद्धतं महालताद्वयम् । लक्षश्चतुरशीत्या तद्धत शिरः प्रकम्पितम् ॥१४॥ Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० ] सिद्धान्तसार दीपक शिरः प्रकम्पितं नूनं लक्षश्चतुरशीतिकः । वगितं जायते चैव हस्तप्रहेलिकाभिधम् ॥६५॥ लोश्चतुरमीत्या च हस्तप्रहेलिकाभिधम् । गुणितं श्रीजिनः प्रोक्तामचलात्मकसंज्ञकम् ।।६६॥ पिण्डीकृता इमे सर्वेरा एकत्रिशदजसा । पदानां संख्यया प्रोक्ता अन्योन्यगुणनोदभवा ।।६७॥ षयता निखिलाः सन्ति शून्यानि नवतिः स्फुटम् । सर्वेकत्रीकृताः अडाः सार्धशतं च संख्यया ॥१८॥ अर्थ:--अब पूर्वांग एवं पूर्व आदि का प्रमाण कहते हैं । चौरासी लाख वर्षों का एक पूर्वाग होता है ॥५०॥ पूर्वांग को ८४ लाख से गुणित करने पर एक पूर्व (७०५६०००००००००० वर्ष) होता है। पूर्व में १४ का गुणा करने से एक पर्वाङ्ग होता है ऐसा विद्वानों ने कहा है ॥८॥ पर्वाङ्ग को ८४ लाख से गुणित करने पर एक पर्व और पर्व को ८४ से गुणित करने पर एक नयुताङ्ग होता है ॥२॥ नयुतान को ८४ लाख से गुरिणत करने पर एक नयुत और नयुत को ८४ से गुणित करने पर एक कुमुदाङ्ग कहा गया है ।।१३।। कुमुदाङ्ग को ४ लाख से गुणित करने पर एक कुमुद और कुमुद को ८४ से गुणित करने पर एक पाङ्ग होता है ।।४॥ पद्माङ्ग को ८४ लाख से गुरिणत करने पर एक पद्म और पद्म को ८४ से गुणित करने पर एक नलिनाङ्ग होता है, ऐसा जिनागम में कहा है ॥८॥ नलिनाङ्ग को ८४ लाख से गुरिणत करने पर एक नलिन और नलिन को ८४ से गुणित करने पर एक कमलांग होता है, ऐसा विद्वानों के द्वारा कहा गया है ।।१६।। कमलांग को ८४ लाख से गणित करने पर एक कमल और कमन को ८४ से गुणित करने पर एक त्रुटितांग होता है ॥७॥ श्रुटितांग को ८४ लाख से गुणित करने पर एक त्रुटित और त्रुटित को ८४ से गुणित करने पर अटटांग होता है ॥१८अटांग को ८४ लाख से गुणित करने पर एक अटट और अटट को ८४ से गणित करने पर एक अममांग होता है 11८६॥ अममांग को ६४ लाख से गुणित करने पर एक अमम पौर अमम को ८४ से गणित करने पर एक हाहांग होता है ।।६०॥ विद्वानों ने कहा है कि हाहांग को ८४ लास्त्र से गुणित करने पर एक हाहा और हाहा को ८४ से गुणित करने पर एक हूहांग होता है ॥१॥ इहांग को ८४ लाख से गणित करने पर एक हह और हहू को ८४ से गुणित करने पर एक विन्दुलतांग होता है ।।६२सा विन्दुलतांग को ८४ लाख से गुणित करने पर एक बिन्दुलता और विन्दुलता को ८४ से गुणित करने पर एक महालतोग होता है ।।१३।। महालतांग को ८४ लाख से गणित करने पर एक महालता और महालता को ८४ लाख से गुणित करने पर एक शिरः प्रकम्पित होता Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० ] सिद्धान्तसाथ दीपक शिरः प्रकम्पितं नूनं लक्षैमचतुरशीतिकैः । तं जायते चैव हस्तप्रहेलिकाभिधम् ॥५॥ लक्षौश्चतुरशीत्या च हस्तप्रहेलिकाभिधम् । गुणितं श्रीजिनः प्रोक्तामचलात्मक संज्ञकम् ॥६६॥ पिण्डीकृता इमे सर्वेऽङ्का एकत्रिनादञ्जसा । पदानां संख्यमा प्रोक्ता श्रन्योन्यगुणनोद्भवा ॥७॥ षष्घङ्का निखिलाः सन्ति शून्यानि नवतिः स्फुटम् । सर्वत्रीकृताः श्रङ्काः सार्धंशतं च संख्यया ॥६८॥ अर्थ :- अब पूत्र एवं पूर्व आदि का प्रमाण कहते हैं। चौरासी लाख वर्षों का एक पूर्वी होता है ॥८०॥ पूर्वी को ८४ लाख से गुणित करने पर एक पूर्व ( ७०५६०००००००००० वर्ष ) होता है। पूर्व में ८४ का गुणा करने से एक पर्वाङ्ग होता है ऐसा विद्वानों ने कहा है ||१|| पर्वाङ्ग को ८४ लाख से गुरिणत करने पर एक पर्व और पर्व को ८४ से गुणित करने पर एक नयुताङ्ग होता है ||२|| नयुताङ्ग को ८४ लाख से गुणित करने पर एक नयुत और नयुत को ८४ से गुणित करने पर एक कुमुदाङ्ग कहा गया है || ८३॥ कुमुदाङ्ग को ८४ लाख से गुणित करने पर एक कुमुद और कुमुद को ८४ से गुणित करने पर एक पचाङ्ग होता है ||४|| पद्माङ्गको ८४ लाख से गुणित करने पर एक पद्म और पद्म को ८४ से गुणित करने पर एक नलिनाङ्ग होता है, ऐसा जिनागम में कहा है ।। ८५ ।। नलिनाङ्ग को ८४ लाख से गुरिणत करने पर एक नलिन और नलिन को ८४ से गुणित करने पर एक कमलांग होता है, ऐसा विद्वानों के द्वारा कहा गया है ।। ८६ ।। कमलांग को ८४ लाख से गुणित करने पर एक कमल और कमल को ८४ से गुणित करने पर एक त्रुटितांग होता है ॥८७॥ त्रुटितांगको ८४ लाख से गुरिणत करने पर एक त्रुटित और त्रुटित को ८४ से गुणित करने पर टांग होता है ||८|| टांग को ८४ लाख से गुणित करने पर एक टट और टट को ८४ से गुणित करने पर एक श्रममांग होता है ॥६॥ श्रममांग को ८४ लाख से गुणित करने पर एक श्रमम और श्रमम को ८४ से गुणित करने पर एक हाहांग होता है ॥ ६०॥ विद्वानों ने कहा है कि हाहांग को ८४ लाख से गुणित करने पर एक हाहा और हाहा को ८४ से गुपित करने पर एक हूहांग होता है ॥ ६१ ॥ हांग को ८४ लाख से गुणित करने पर एक हूहू और हूहू को ८४ से गुणित करने पर एक विन्दुलतांग होता है ॥२॥ विन्दुलतांग को ८४ लाख से गुणित करने पर एक विन्दुलता श्रीर विन्दुलता को ८४ से गुरित करने पर एक महालतांग होता है || १३|| महालतांग को ८४ लाख से गुणित करने पर एक महालता और महालता को ८४ लाख से गुणित करने पर एक शिरः प्रकम्पित होता Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१० ] सिद्धान्तसार क्षेपक अस्मिस सिसान्तसारे त्रिभुवनकथके शानगूढार्थ पूर्ण । यत् किश्चित् सन्धिमात्राक्षरपवरहितं प्रोदितं स्वल्पबुद्धधा । प्रज्ञानान्च प्रमावादशुभविधिवशावागमे वा विरुद्धम् । तत् सर्वं शारदेश्मा विशदमुनिगणः प्रार्थिता मे क्षमस्व ॥१०४॥ श्रुतसकलसुवेत्तारो हिता मध्य पुंसाम निहितनिखिलदोषालोमगर्वादि दूराः । विशवनिपुणबुद्धया सूरयः शोधयन्तु श्रुतमिदमिहचान्पज्ञानिना सूरिणोक्तम् ।।१०५॥ अर्थ:-यह सिद्धान्तसार दीपक नाम का उत्कृष्ट ग्रन्थ जिनेन्द्र के मुख से उद्भुत है, स्वर्ग, नरक आदि के भेद से अनेक प्रकार के समस्त त्रैलोक्य को उद्योत करने में दीपक के समान है । त्रैलोक्य सार प्रादि अनेक उत्कृष्ट ग्रन्थों का प्राडोलन कर भक्ति से मुझ सकलकोति मुनि द्वारा रचा गया है । अनेक गुण समूहों से यह ग्रन्थ सदा समृद्धिमान हो !॥१.२॥ मैंने यह ग्रन्थ ख्याति-पूजा-लाभ की इच्छा से अथवा कवित्व प्रादि के अभिमान से नहीं लिखा, किन्तु यह ग्रन्थ प्रात्म विशुद्धि के लिए, स्व-पर हित के लिए एवं मोक्ष प्राप्ति के लिए परमार्थ बुद्धि से लिखा है ।।१.३1। तीन लोक के कथन में और ज्ञान के गूढ़ अर्थों से परिपूर्ण इस सिद्धान्तसार दीपक महाग्रन्थ में बुद्धि की स्वल्पता से, प्रज्ञान से, प्रमाद से अथवा प्रशुभ कर्म के उदय से यदि किंचित् भी अक्षर, मात्रा, सन्धि एवं पद आदि को हीनता हो अथवा पागम के विरुद्ध कुछ लिखा गया हो तो मैं प्रार्थना करता हूँ कि जिनवाणी माता और विशिष्ट ज्ञानी मुनिजन मुझे क्षमा प्रदान करें ॥१०४॥ मुझ अल्प बुद्धि के द्वारा लिखे गये इस शास्त्र का सम्पूर्ण श्रुत के ज्ञाता, भव्य जीवों के हितकारो, समस्त दोषों से रहित लोभ एवं गर्व आदि से दूर रहने वाले तथा निर्मल ( समीचीन ) एवं निपुण बुद्धि से युक्त आचार्य शोधन करें ॥१०५।। ग्रन्थ के प्रति प्राशीवचनः-- सिद्धान्तसारार्थनिरूपणाछी सिद्धान्तसाराथं भृतो हि सार्थः । सिद्धान्तसारादिकदोपकोऽयं प्रन्यो धरित्र्यां जयत्तात् स्वसंघः ॥१०॥ अर्थ:-जिनागम के सिद्धान्त के सारभूत अर्थ का निरूपण करने वाला, सिद्धान्त के सारभूत :: Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शोधिकाः [ ६११ अथं से भरा हुआ एवं सार्थक नाम को धारण करने वाला यह सिद्धान्तसार दीपक नामका ग्रन्थ अपने संघों द्वारा पृथिवी पर जयवन्त हो ।। १०६ ॥ इस ग्रन्थ के पठन से किन किन फलों की प्राप्ति होगी ? उसे कहते हैं: ये पठन्ति वरशास्त्रमिदं सद्धोधनाः सुमुनयो गुणरागात् । ज्ञाननेत्रमचिरादिह लब्धा लोकयन्ति जगतां त्रितयं ते ।।१०७॥ तेन हस्ततलसंस्थित रेखावद् विलोक्य नरकादि समस्तम् । यान्ति भीतिमशुभाच्च चरन्ति सपश्चरणम.१० सेन वृत्तविशवा चरणन प्राप्य नाकमसमं सुखखानि । राज्यभूतिमनुभोगविरक्त्या सत्तपश्चरणतोऽवपुषः स्युः ॥१०६ ॥ अर्थ :- जो समीचीन बुद्धि के धारक उत्तम मुनिराज गुरगानुराग से इस ग्रन्थ को पढ़ते हैं, वे शीघ्र ही ज्ञान रूपी अनुपम नेत्र ( केवलज्ञान ) को प्राप्त कर तोन लोक स्वरूप समस्त जगत को देख लेते हैं ।। १०७ ।। वे विद्वान् उस अनुपम ज्ञान से नरकादि समस्त दुःख मय पदार्थों को हस्ततल पर स्थित रेखा के सदृश देखकर समस्त प्रशुभादि क्रियाओं से भयभीत होते हैं, और समीचीन तपश्चरण आदि का श्राचरण करते हैं || १०८|| तथा उस निर्दोष चारित्र के प्राचरण से सुख को खानि स्वरूप स्वर्गी के अनुपम सुखों को प्राप्तकर मनुष्य पर्याय में आकर राज्य विभूति का अनुभोग करके वंराग्य को प्रातं होकर उत्तम तपश्चरण करते हुए सिद्ध पर्याय को प्राप्त करते हैं ॥१०६॥ शास्त्र अत्रण करने से क्या फल प्राप्त होता है ? उसे कहते हैं: तिये बुधजनाः परया त्रिशुद्धया तत्तं त्रिभुवनोरुगृह प्रदीपम् । ते श्वदुःखकलनादधमीतचित्ता धर्मे तपःसुचरणे च परायणाः स्युः ।।११० ।। Y ते ज्ञानहम्मतपश्चरणाविधमें tear gi freri विवि मर्त्यलोके । सम्प्राप्य रागविरति भवभोगकाये सद्दीक्षया सुतपसा च भवन्ति सिद्धाः ॥ १११ ॥ Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१२ ] सिद्धान्तसार दीपक अर्थ :- त्रैलोक्य को प्रकाशित करने के लिए प्रदीप के सदृश इस ग्रन्थ को जो विद्वज्जन मन, वचन और काय की विशुद्धि पूर्वक श्रवण करते हैं, वे नरकों के दुःखों को भलीभांति जान लेते हैं, इसलिए वे पापों से भयभीत चित्त होते हुए धर्म में तप में और सम्यग्चारित्र में दत्तचित्त हो जाते हैं ।।११०।। तथा वे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, यम, नियम और उत्तम तपश्चरण श्रादि धर्म के फल स्वरूप स्वर्ग एवं मध्यलोक के अनुपम सुखों को भोग कर संसार शरीर और भोगों से विरक्त होते हुए जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर उत्तम तप करके सिद्ध हो जाते हैं ।३१११ ।। जो भव्य जन इस शास्त्र को लिखते हैं, उनके फल का दिग्दर्शन कराते हैं: -- येset लिखन्ति निपुणा वरशास्त्रमेतत् तर वृद्धये च पठनाय तरन्ति तूर्णम् । ते ज्ञानवारिधिमनन्तगुणक हेतु सिद्धान्ततीर्थपरमोद्धरणातधर्मात् ॥ ११२ ॥ अर्थ :- शास्त्र की वृद्धि के लिए तथा दूसरों को पढ़ने के लिए जो विद्वज्जन इस उत्तम शास्त्र उद्धार स्वरूप पुण्य से अनन्त गुणों ज्ञानी बन जाते हैं ।। ११२ । प्राप्त होने वाले फल का को अपने हाथों से स्वयं लिखते हैं, वे सिद्धान्त रूप उत्कृष्ट तीर्थ के कारण भूत ज्ञान सिन्धु को शीघ्र ही तर जाते हैं। प्रर्थात् पूर्ण जो घनिक जन इस शास्त्र को लिखायेंगे, उनको दिग्दर्शन करते हैं:-- ये लेखयन्ति धनिनो धनतः किलेदम् सारागमं भुवि सुवर्तन हेतवे । सज्ञानतोर्थविमलोद्धरणात्तपुण्पादप्राप्यमुत्र सकलं श्रुतमाश्रयन्ति ॥ ११३ ॥ अर्थ :--- पृथिवी पर श्रागम के सार को प्रकाशित करने के लिए जो श्रीमान् ( धनवान् ) अपने धन से इस शास्त्र को लिखवाते हैं, वे समीचीन और निर्मल ज्ञाम रूपी तीर्थ के उद्धार स्वरूप पुण्य फल से इस लोक और परलोक में सकल श्रुतज्ञान को प्राप्त कर लेते हैं । अर्थात् श्रुतकेवली हो जाते हैं ।। ११३ ।। Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षोडशोऽधिका जो विद्वज्जन शास्त्र का अध्ययन कराते हैं, उनका फल दर्शाते हैं: ये पाठयन्ति सुविदो वरसंयतादीत् faraiदोकमिमं परमागमं ते । सज्ज्ञानदानजमहानघपुण्यपाकाज् ज्ञातश्रुता जगति केवलिनो भवन्ति ||११४|| [ ६१३ श्रर्थः -- जो विद्वज्जन मुनि, आर्यिका श्रावक एवं श्राविका जनों को सम्पूर्ण अर्थ के प्रकाशन में दीपक सदा इस शास्त्र का अध्ययन कराते हैं अर्थात् पढ़ाते हैं, वे उत्तम ज्ञान दान के फल से उत्पन्न अत्यन्त शुभ पुण्योदय से संसार में सर्व श्रुत के ज्ञाता होकर पश्चात् केवली हो जाते हैं ।॥ ११४॥ इस महान ग्रन्थ की रचना करके श्राचार्य श्री क्या चाहते हैं ? उसका दिग्दर्शन कराते हैं: -L एतज्जैनवरागमं सुरचितं लोकत्रयोद्दीपकस् तद् रागेण मया सुशास्त्ररचना व्याजेन मोक्षाप्तये । हत्वाज्ञानतमो मदीयमखिलं सद्वर्तमानागमम् सर्व मेत्र ततोप्यमुत्र विधिना दद्याच्छु तं केवलम् ॥ ११५ ॥ अस्मिन् ग्रन्थवरे त्रिकालविषये ये वरिताः श्रीजिना प्रन्थादौ च नुताः समस्त जिनपाः सिद्धाश्च ये साधवः । सते येँ कृपया ममाशुविमलं सम्पूर्ण रत्नत्रयम् सर्वान् स्वांश्च गुणान् समाधिमरणं दद्युः स्वशत्रोर्जयम् ॥ ११६॥ श्रर्थः - यह लोक्य दीपक सहश श्रेष्ठ जिनागम, जन कल्याण के राग से मेरे द्वारा शास्त्र की रचना के बहाने मोक्ष प्राप्ति के लिए रचा गया है, इसलिए विद्यमान यह सर्व समीचीन जिनागम मेरे सम्पूर्ण ज्ञान रूपी अंधकार को नष्ट कर विधिपूर्वक इस लोक में श्रुतज्ञान को और परलोक में केवलज्ञान देवें ।।११५।। इस उत्तम ग्रन्थ में जिन जिनेन्द्रों ने तीन लोक का वर्णन किया है तथा ग्रन्थ के प्रारम्भ में जिन श्रन्तों, सिद्धों एवं साधुयों को नमस्कार किया है, ये सब कृपा करके मुझे शीघ्र ही निर्मल एवं सम्पूर्ण रत्नत्रय अपने अपने सर्व गुण. समाधिमरण और स्वरात्रों पर विजय प्राप्त करने की शक्ति देवें ॥ ११६ ॥ Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१४ } सिद्धान्तसार दोपक अब प्राचार्य पुनः मंगल याचना करते हैं: - तीर्थेशाः सिद्धनाथास्त्रिभुवनमहिताः साधवो विश्ववन्द्याः सद्धर्मास्तत्प्रणेतार इह सुशरणाविश्वलोकोत्तमाश्च । दातारो भुक्तिमुक्ती दुरितचयहराः सर्व माङ्गल्यबा ये । ते मे वो वा प्रवद्युनि सकलगुणान् मङ्गलं पापहन्तीन् ॥ ११७ ॥ प्रर्थः - स्वर्ग - मोक्ष प्रदान करने वाले, दुष्कमों के समूह को हरण करने वाले तथा सर्व मंगलों को देने वाले, त्रैलोक्य पूज्य एवं विश्व वन्य अर्हन्त परमेष्ठी, सिद्ध परमेष्ठी सर्व साधु परमेष्ठी एवं केवली प्रणीत सद्धर्म हो लोक मेंउत्तम मंगल हैं, उत्तमोत्तम हैं और परमोत्कृष्ट शरणभूत हैं, श्रतः ये सभी मुझे, आपको एवं सभी को पाप नाशक अपने अपने सभी गुण प्रदान करें ।। ११७ || प्राचार्य इस सिद्धान्त ग्रन्थ के वृद्धि की वाञ्छा करते हैं: एतत्सिद्धान्ततीर्थं जिनदरमुखजं धारितं श्रीगणेशवन्द्यं मान्यं साच्यं त्रिभुवनपतिभिर्दोषदूरं पवित्रम् । अज्ञानध्वान्तहन्तृ प्रवरमिह परं धर्ममूलं सुनेत्रम् विश्वालोके च भव्यैरसमगुणगणैर्यात वृद्धि शिवाय ॥ ११६ ॥ JM अर्थ: यह सिद्धान्त रूपी तीर्थ भगवान् जिनेन्द्र के मुख से निर्झरित है, गणधर देवों द्वारा धारण किया गया है, देवेन्द्र, नागेन्द्र, खगेन्द्र और चक्रवर्ती श्रादि त्रैलोक्य के अधिपतियों द्वारा वन्द्यनीय, आदरणीय एवं सदा पूज्य है । दोषों से दूर, पवित्र, अज्ञान रूपी अन्धकार के नाश में प्रवीण, धर्म का मूल और उत्तम नेत्र है, अतः मोक्ष प्राप्ति के लिए भव्यों के अनुपम गुण समूहों द्वारा यह सम्पूर्ण लोक में निरन्तर वृद्धिंगत होता रहे ॥ ११८ ॥ ग्रन्थेऽस्मिन् पञ्चचत्वारिंशच्छत श्लोक पिण्डिताः । षोडशाग्रा बुधैर्ज्ञेयाः सिद्धान्तसारशालिनि ॥ ११६ ॥ ॥ इति श्री सिद्धान्तसार दीपक महाग्रन्थे भट्टारक श्री सकलकीतिविरचिते पत्यादिमानव नो नाम षोडशोऽविकारः ॥ ॥ इति श्री सिद्धान्तसार दीपकनामाग्रन्थः समाप्तः ॥ Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षोडशोऽधिकार। [ ६१५ पन्थपर्यायन्त्रसमेत ४५१६ ॥ सम्बत् १७८६ वर्षे प्राषाढमासे कृष्णपक्षे तिथौ चतुर्दशी पानिवासरे। लिखितं मानमहात्मा चाटसु मध्ये ।। श्री मूलसंधे बलात्कारगरणे सरस्वतीगच्छे कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भट्टारकजी श्री जगतकीति तत्पट्टे भट्टारक श्रो.........."द्र कीर्तिजी भाचार्यजी बी कनककीतिजी तत् शिष्य पं० रायमल तत् शिष्य पं....................."दजी तत् शिष्य पं० वृन्द्रावनेन सुपठनाथ लिखापितं ॥ लिखितं............................................."ध्ये ॥ यादृशं पुस्तकं दृष्ट्वा तादृशं लिखितं मया । यदि शुद्धमशुद्ध वा मम दोषो न दीयताम् ॥१॥ भग्नपृष्टि कटिग्रीवा वा बद्धमुष्टिधोमुखम् । कष्टेन लिखित अन्यं यत्नेन परिपालयेत् ॥२॥ श्री ।। अर्थः—सिद्धान्त के सार से युक्त इस ग्रन्य में सब मिला कर ४५१६ श्लोक हैं, ऐसा विद्वानों । के द्वारा जानने योग्य है । अर्थात् जानना चाहिये ।।११।। इस प्रकार भट्टारक सकलकोति विरचित सिद्धान्तसार दीएक नाम महाग्रन्थ में पत्य आदि उपमा प्रमाणों का प्ररूपण करने वाला सोलहवां अधिकार समाप्त ॥ Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 「たった ANANOMORROWN