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________________ २३४ ] सिद्धान्तसार दीपक और मनोवाञ्छित पदार्थों को देने वाला कामबृष्टि नाम का गृहपति होता है । जिसे चक्रवर्ती अपने व्यय-उपचय ( हानि-वद्धि या देय प्रादेय या लघु-दीर्घ चिन्तनवत् ) को चिन्ता सौंप कर निश्चिन्त हो जाता है । पर्वत के सदश महाकाय विजयपत नाम का पट्ट हाथी, पदनञ्जय नामका घोड़ा, और उपमा से रहित सुभद्रा नाप की स्त्री होती है। चक्रवर्ती के इन दिध्य रत्नों की रक्षा देवों द्वारा होतो है ।।२७५-२७७।। महान पुण्योदय से चकनी के पास र ग्रङ्ग टागोजह न गाना प्रकार के भोगों के कर्ता हैं। उनके प्रासाद में अन्य और कितने रत्न हैं ? इसकी संख्या कोन बुद्धिमान जान सकता है ? अर्थात कोई नहीं 1॥ २७॥ समद्र के सदृश निर्घोष करने वाली ग्रानन्द नाम की बारह भेरियां हैं, जो अपनो ध्वनि से वारह योजन पर्यन्त समस्त दिशानों को व्या कर देती हैं । इसी प्रकार चक्रग के यहाँ विजयघोष नाम के बारह पर और गम्भीरावतं नाम के चौबोस दाख हैं ।।२७९-२८०।। अब अन्य अवशेष वस्तुओं के नाम कहते हुये उनके भोज्य प्रादि पदार्थों का विधेचन करते हैं :--- दीप्ता वीराङ्गदाभिख्या कटका मणिनिर्मिताः ।. पताका अष्टचत्वारिंशत्कोटयोऽति मनोहराः ।।२८१॥ महाकल्याणकाभिस्टो तुङ्ग दिव्यासनं महत् । अस्यान्यसारवस्तूनि गदितु को बुधः क्षमः ॥२२॥ भक्ष्यायेऽमृतगर्भाख्याः सगन्धस्वादुशालिनः । शक्ता जरयितु तस्य नान्ये तान सुरसोत्कटान् ।।२८३।। स्वाधं चामृतकल्पाख्यं हृद्यास्वादं सुसंस्कृतम् । रसायनरसं दिया पानकं ामृताह्वयम् ।।२८४।। अर्थ:-मरियों से निर्मित और विशाल कान्तिमान् वीराङ्गद नाम का कड़ा है। पड़तालीस करोड़ प्रति मनोज्ञ पताकाएँ होती हैं। महाकल्याण नाम का उन्नत, दिव्य और विशाल प्रासन होता है । चक्रवर्ती के पास और भी अनेक सार वस्तुएँ होती हैं जिनका कथन करने के लिये कौन बुद्धिमान समर्थ हो सकता है ? अर्थात् कोई नहीं ।।२८१-२८२।। चक्रवर्ती के भोजन के लिये उत्तम गन्ध और शुभ स्वाद युक्त अमृतगर्भ नाम के मोदक होते हैं। उत्तम रसों से उत्कट उन मोदकों को पचाने की शक्ति चक्रवर्ती में ही होती है अन्य किसी में नहीं ।।२८३॥ चक्रवर्ती के द्वारा सेव्यमान अमृतकल्प नाम का स्वाद्य पदार्थ हृदय को प्रिय और भली भांति संस्कृत होता है, तथा ममृत नाम के पेय पदार्थ भी दिव्य एवं रसायन रस के सरश होते हैं ॥२४॥ प्रब पकेश को सम्पदा पुण्य का फल है ऐसा दिखाते हुये प्राचार्य धर्म करने की प्रेरणा देते हैं :--
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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