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सिद्धान्तसार दीपक के कुछ मंदोदय से एवं कालल ब्धि से मनुष्यों तथा तिर्यंचों में उत्पन्न होते हैं ।।२०५-२१०।। सूक्ष्म, बादर, पर्याप्तक मोर अपर्याप्तक अग्निकायिक जीव तथा सूक्ष्म-बादर पर्याप्तक और अपर्याप्तक बायु कायिक जीब इन भवों से मरकर कभी भी मनुष्य पर्याय प्राप्त नहीं करते, दुष्कर्मों के कारण मात्र तियंच योनियों में ही उत्पन्न होते हैं।२११-१२। कोजानियमों के युद्ध तथा बतरहित तिर्यच, मनुष्य और देव प्रात्त ध्यान एवं कर्मोदय के वश से दुमृत्यु को प्राप्त होकर बादर पर्याप्तक पृथिवीकायिक, जलकाथिक और प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीवों में उत्पन्न होते हैं ।।२१३-२१४।। अपने कर्मों के वशीभूत होते हुए असंज्ञो पर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यंच मरकर भोगभूमिज मनुष्यों को छोड़ कर मनुष्यगति में, भवनवासी, ब्यन्तरवासो और ज्योतिष्क रूप देवगति में, प्रथम नरक में तथा कर्म भूमिज तियंच योनि में उत्पन्न होते हैं ।।२१५.-२१६|| भोगभूमिज तिथंच और मनुष्य नियम से देवों में ही उत्पन्न होते हैं, क्योंकि वे स्वभाव से मन्दकषायी होते हैं ॥२१॥ अब धर्म प्राप्ति के लिये जीव रक्षा का उपदेश देते हैं :--
इति विविध सुभेदर्जीक्योनौविदित्वा गतिकुलवपुरायः स्थानसंख्याधनेकः । स्वपरहित वृषाप्स्य प्रोदिता ज्ञान दृष्टया,
सचरणशिवकामाः स्वात्मवत्पालयन्तु ॥२१८।। अर्थ – इस प्रकार उत्तम चारित्र के साथ साथ मोक्ष की इच्छा करने वाले सज्जन पुरुषों को स्वपर हितकारी धर्म की प्राप्ति के लिए जीवों की गति, कुल, शरीर, आयु संस्थान और संख्या आदि के द्वारा नाना प्रकार के भेदों को ज्ञान चक्षु से भलीप्रकार जानकर अपनी प्रात्मा के सदृश ही जीवों की रक्षा करना चाहिए ।।२१८।।
अधिकारान्त मङ्गल :
यीयादिपदार्थधमंसकलाः सम्यक् प्रणीता जिनगै तत्पालनतो गताः शिवगति ये सरयः प्रत्यहम् । तद्रक्षा भुवने वदन्ति सविदो जीवाविरक्षाय ये,
तनिष्ठा मुनयोऽखिला मम च ते दधुः स्तुताः स्वान्गुणान् ॥२१॥ इलिश्री सिद्धांतसारदीपकमहाग्रन्थे भट्टारक भोसकलकोति विरच्यते जीवजातिकुलकायायुः संख्याल्पबहुत्वादि वर्सनोनामैकादशोऽधिकारः॥