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________________ नवमोऽधिकारः [ २६३ अर्थ:-असंख्यात उत्सपिणी और अवपिरिणयों के व्यतीत हो जाने पर इह अर्थात् भरतरावत क्षेत्रों में एक हुण्डावसपिणो काल आता है, इसके पूर्व नहीं पाता ॥ १७३ ।। इस हुण्डावसपिरणी काल में पांच प्रकार के पाखण्डों के दर्शन होते हैं । शलाका पुरुष कम अर्थात् ६३ न होकर ५८ होते हैं। जिनशासन के मध्य भी मूलसंघ, काष्ठासंघ आदि अनेक भेद हो जाते हैं। जैनधर्म से अत्यन्त विपरीत प्रवृत्ति वाले अनेक मतान्तरों का जन्म हो जाता है । वस्त्र मादि से युक्त तथा परिग्रह से युक्त अनेक निन्दनीय लिंग को धारण करने वाले साधु बहुत होते हैं । तीर्थंकरों पर उपसर्ग और चक्रवर्ती का मानभङ्ग होता है । खोटे देवों के मठ तथा उनकी मूर्तियाँ, खोटे शास्त्र, खोटा आगम, बोटे मार्ग पर चलने वाले गुरु और काम प्रादि लालसा से युक्त तथा अत्यन्त दयनीय दशा को प्राप्त मनुष्य बहुत होते हैं । इस प्रकार और भी अनेक प्रकार के अनिष्ट और अशुभ कार्य प्रादि इस काल में स्वयमेव उत्पन्न होते हैं ।।१७४-१७७|| अब बारह चक्रवतियों के नाम, उत्सेथ एवं उनकी प्रायु का कथन करते हैं :-- प्रथमो भरतश्चक्रो सगरो मघवाह्वयः । सनत्कुमारचक्रेशः शान्तिकुन्नरचक्रिरणः ॥१७८।। सुभौमश्च महापद्यो हरिषेणो जयोऽन्तिमः । ब्रह्मदत्तोद्विषट् ह्यते हेमामाः सन्ति चक्रिणः ।।१७६।। भरतस्य समुत्सेधो धनुः पंचशतप्रमः । प्रायुश्चतुरशीतिश्च पूर्वलक्षाण्यखण्डितम् ।।१८०।। उन्नतिः सगरेशस्य सार्धशतचतुष्टयम् । चापानां पूर्वलक्षाण्याद्विसप्ततिरेव च ।।१८१।। उच्छितिमघवाख्यस्य धनुः सार्धद्विसंयुता । चत्वारिंशत्प्रमायुश्च पंचलक्षाद सम्मितम् ।।१२।। कायोत्तुङ्गश्च सार्धक चत्वारिंश द्धनुः प्रमः । आयुर्वर्षत्रिलक्षाणि सनत्कुमारचक्रिणः ॥१८३।। शान्तेहोन्नतिश्चत्वारिंशच्चापानि निश्चितम् । प्रायुर्वत्सरलक्षकं जिनकामपदेशिनः ॥१४॥ कुन्थोः शरीरतुङ्गोऽस्ति पंत्रिशतनुः प्रमः । आयुर्वर्षसहस्राणि पंचाग्रनवतिः परम् ॥१५॥
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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