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________________ त्रयोदशोऽधिकारा [ ४६१ रत्नप्रभाक्षितेः सन्ति खरमागे महागृहाः । चतुर्दशसहस्राणि भूतानामविनश्वराः ॥३६॥ रत्नप्रभावनेः पङ्कभागे रत्नमयाः शुभाः । प्रावासा राक्षसाना स्युः सहस्रषोडशप्रमाः॥४०॥ शेषव्यन्सरदेवाना मध्यलोकेऽचलादिषु । सर्वतः सन्ति चावासाश्चत्यालयविराजिताः ॥४॥ प्रचनो वज्रधातुश्च द्वीपः सुवर्णनामकः । द्वपा मनाशिलाभिख्यो द्वीपो वासमाह्वयः ।।४२॥ रजतो हिङगुलद्वीपो हरितालाभिषातकः । अद्वोपेषु चैतेषु समभागे समावनौ ॥४३॥ अष्टाना व्यन्तरेन्द्राणां प्रत्येक शाश्वतानि च। जम्बूद्वीपसमानानि पञ्चपञ्चपुराण्यपि ॥४४॥ पूर्वा:विक्षु विद्यन्ते मानस्तम्भजिनालयः । चत्यक्षेश्च युक्तानि स्वस्वेन्द्रनामभिः स्फुटम् ॥४५॥ अमीषां मध्यभागस्थं स्वेन्द्रनामयुतं पुरम् । प्रभ चावतंक कान्तं मध्यमं चेति विक्ष्वपि ॥४६॥ अर्थ:--रत्नप्रभा पृथिवोके खरभाग में भूतनामक व्यन्तर देवों के शाश्वत चौदह हजार महा. गृह हैं ।।३६॥ रत्नप्रभा पृथिवी के पंक भाग में राक्षस कुल व्यन्तरों के रत्नमयी और अत्यन्त रमणोक सोलह हजार प्रमाण पाबास हैं ।।४०1। शेष व्यन्तर देवों के चैत्यालयों से विभूषित प्रावास तिर्यग्लोक के पर्वतों पर सर्वत्र हैं ।।४१ ।। अंजन, बनधातु, सुवर्ण, द्वीप, मनः शिल द्वीप, वच द्वीप, रजत द्वीप, हिंगुल द्वीप और हरिताल द्वीप, इन पाठ द्वीपों में चित्रा भूमि पर समभाग में अर्थात् भूमि के नीचे या पर्वतों के ऊपर नहीं जा बूद्वीप सदृश समतल भूमि पर पाठ प्रकार के व्यन्तर देवों में से प्रत्येक इन्द्र के जम्बूद्वीप सदृश प्रमाण वाले पांच-पांच नगर हैं। ४२-४४ ।। ये नगर मानस्तम्भों, जिनालयों और चैत्य वृक्षों से युक्त तथा अपने अपने इन्द्रों के नाम से संयुक्त पूर्वादि चारों दिशाओं में हैं । इन नगरों में से अपने अपने इन्द्रों के नाम से युक्त पुर नाम का नगर मध्य में स्थित है, अवशेष किन्नरप्रभ, किन्नरावर्त, किन्नरकान्त और किन्नरमध्य ये चारों नगर क्रमशः पूर्व प्रादि चारों दिशाओं में अवस्थित हैं ।।४५-४६।। एतेषां पृथग्नामानि प्रोच्यते :--
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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