SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 587
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंचदशोऽधिकारः [ ५४१ पञ्चविंशसहस्रानलक्षयोजन विस्तृताः । इन्द्रस्याथ यमस्येव वरुणाल्यकुबरया: ॥९५६।। अर्थ:-चारों दिशाओं में उन बन खण्डों को बहुत दूर छोड़ कर अर्थात् वनों से बहुत योजन आगे जाकर इन्द्र (सोम), यम, वरुण और कुवेर इन चारों लोकपालों के शाश्वत प्रासाद हैं, जिनका विस्तार १२५०००० (साढ़े बारह लाख) योजन प्रमाण है ।।१५५-१५६।। प्रब गणिका महत्तरियों के नाम एवं उनके आवासों के प्रमाण प्रादि कहते हैं: प्राग्नेयादिविविक्षुस्युरावासाः काञ्चनोभवाः । गणिकामहत्तरीणां विस्तारायामसंयुताः ।।१५७।। लौक योजनःप्रा देवोनिकर संश्रिताः। कामाख्या प्रथमादेवी कामिनी पनगन्धिनी ॥१५८।। अलम्बुषेति नामान्यासां चतमख्य योषिताम् । एष एव क्रमोज्ञेयः सर्वेन्द्राणां पुरादिषु ॥१५॥ अर्थ:--जहाँ लोकपाल देवों के नगर हैं, वहीं आग्नेय प्रादि चारों विदिशाओं में गरिएका महत्तरियों के स्वर्णमय प्रावास' ( मगर । हैं, जो एक-एक लाख योजन लम्बे, एक-एक लाख योजन चौड़े, देदीप्यमान एवं देवियों के समूहों से युक्त है । इन चारों चारों विदिशात्रों में स्थित चार प्रधान गणिका महत्तरियों के नाम कामा, कामिनी, पयगन्धिनी एवं अलम्बुषा है । सर्व इन्द्रों के नगरों प्रादि का क्रम इसी प्रकार जानना चाहिए ॥१५७-१५६।। इन्द्र नगर के चारों ओर स्थित पांच प्राकारों, प्रशोक प्रादि चार वनों,: सोम मादि चार लोकपालों एवं गरिएका महत्तरियों के नगरों की अवस्थिति का चित्रण निम्न प्रकार है:-- (चित्र अगले पेज पर देखें)
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy