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अब प्रत्येक स्थानों के इन्द्रों को वल्लभाम्रों का प्रमाण एवं उनके प्रासादों की
ऊँचाई प्रादि का प्रमाण कहते हैं:
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षड् युग्मेष्वानताश्चेषु सप्तस्थानेष्विति क्रमात् । एकैकस्य सुरेन्द्रस्य देवी संख्योच्यते पृथक् ॥ १६०॥ स्युर्द्वात्रिंशत्सहस्राणि ततोऽष्टौ वे सहस्रके । सहस्रार्ध तब विषष्टि वल्लमस्त्रियः ।। १६१। विद्यन्ते पूर्वदिग्भागे देवेन्द्रस्तम्भसचनः । बलभान मनोज्ञाः सत्प्रासावा मणिमूर्तयः ॥ १६२॥
तत्प्रासादोदयः पूर्वो योजनः शतपञ्चभिः । तद्धीनश्च शतार्थेन व्यासायामौ हि पूर्ववत् ॥१६३
अर्थः--सौधर्मादि छह एवं श्रानतादि का एक, इस प्रकार सातों स्थानों में स्थित एक एक इन्द्र की वल्लभादेवाङ्गनाओं का पृथक् पृथक् प्रमाण क्रमशः कहते हैं ।। १६० ।। प्रत्येक स्थान की संख्या क्रमश: ३२०००, ८०००, २०००, ५००, २५०, १२५ और ६३ है ।।१६१ ।। प्रत्येक इन्द्रों के स्तम्भ मन्दिरों (प्रासादों ) की पूर्व दिशा में वल्भभदेवांगनाओं के प्रति मनोज्ञ मणिमय प्रासाद है