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पंचशोऽधिकार
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देवों को ऋद्धि प्रादि का तथा स्वर्गस्थ कल्पवृक्षों आदि का वर्तन करते हैं:
प्रणिमादिगुणा भ्रष्टौ विक्रियधिभवाः सदा । faraकार्यकराः सन्ति नाकिनां स्वर्गभूमिषु ||३०५ ॥ गावः कामदुघाः सर्वे कल्पवृक्षाश्च पादपाः । स्वभावेन च रत्नानि चिन्तामय एव हि ॥ ३०६ ॥
अर्थ :- स्वर्गो में देवों का समस्त कार्य करने वालो विक्रिया ऋद्धि से उत्पन्न श्रणिमा आदि श्राठ ऋद्धियां हैं ||३०५ ।। तथा वहाँ स्वभावतः कामधेनु गायें हैं, वृक्ष कल्पवृक्ष हैं, और रत्नचिन्तामणि रत्न हैं ॥ ३०६ ॥
वैमानिक देवों का विशेष स्वरूप एवं उनके सुख का कथन करते हैं:
नेत्रस्पन्दो न जात्वेषां न स्वेदो न मलादि च । नखकेशादिकं नैव न वार्धक्यं न रोगिता ॥३०७॥ निशादिन विभागो न विद्यते त्रिदशास्पदे । केवलं रत्नरम्यर्घोतो वर्ततेतराम् ॥ ३०८ ॥ वर्षादिः खकृत्काल नाघनं वतुं संक्रमः । नानिष्टसंगमोऽमीषां नाल्पमृत्युनं दीनता ||३०६ ॥ किन्तु शमं प्रवोऽस्त्येकः साम्यकालः सुधाभुजाम् । सम्पदो विविधा बह्वयः सुखं बाघामगोचरम् ||३१०||
अर्थ :- स्वर्गो में देवों के नेत्रों का परिष्पन्दन नहीं होता । उनके न पसीना थाता है, न मल मूत्र यादि होता है, न नख केश आदि बढ़ते हैं, न वृद्धापन आता है और न किसी प्रकार के रोग होते हैं ||३०७ || स्वर्गों में रात्रि दिन का विभाग नहीं है, वहीं निरन्तर केवल रत्न की किरणों के समूहों का उद्योत होता रहता है || ३०८ || वहाँ पर वर्षा श्रातप आदि दुःख के कारण भूत काल एवं ऋतु आदि का परिवर्तन नहीं होता । वहाँ न अनिष्ट वस्तुओं का संयोग होता है, न भल्पमृत्यु होती है श्रोर न दीनता है ॥ ३०६ ॥ किन्तु देवों के निरन्तर सुख प्रदान करने वाले काल का एक सदृश वर्तन होता है । वहाँ पर विविध प्रकार की विपुल सम्पदाएँ हैं, एवं वहाँ का सुख वचन
गोचर है ||३१०॥