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________________ ५७२। सिद्धान्तसार दीपक सनत्कुमारमाहेन्द्रयोदेवानां शुभाशये । सेजोलेश्याखिलोत्कृष्टा पनांशोऽतिजघन्यकः ॥२९॥ ब्रह्मादिषट सुदेवानां पालेश्यास्ति मध्यमा। शतारादिद्वये पभोत्कृष्टा शुक्ला जघन्यवाक् ॥३०॥ मानतादिवतःकल्प नवधेयकेषु च । देवानामहमिन्द्राणां शुक्ललेश्यास्ति मध्यमा ॥३०१।। नवानुदिशसंज्ञे च पञ्चानुत्तरनामके । शुक्ललेश्यामहोत्कृष्टाहमिन्द्राणां भवेत्सदा ॥३०२॥ अर्थः-भवनवासी, व्यन्तरवासी और ज्योतिषी देयों में जघन्य पीत लेश्या होती है । एवं सौधर्मशान कल्प में मध्यम पीत लेश्या होती है ॥२६॥ सनत्कुमार-माहेन्द्र कल्पों (के अधस्तन बहुभाग ) में उत्कृष्ट पीत लेश्या एवं ( उपरिम एक भाग में ) अति जघन्य पद्म लेश्या के अंश होते हैं ॥२६॥ ब्रह्मादि छह कल्पों में देवों के मध्यम एम लेश्या होती है, एवं शतार-सहस्रार कल्पों के देवों में पद्म लेश्या उत्कृष्ट तथा उपरिम एक भाग में जघन्य शुक्ल वैश्या होती है ।। ३००॥ आनतादि चार कल्पों में स्थित देवों में तथा नवग्रेवेयकवासी अहमिन्द्रों में मध्यम शुक्ल लेश्या होती है ।।३०१।। नव अनुदिश तथा पंच अनुत्तरवासी अहमिन्द्रों के निरन्तर उत्कृष्ट शुक्ल लेश्या होती है ॥३०२॥ प्रय वैमानिक देवों के संस्थान एवं शरीर को विशेषता दर्शाते हैं: संस्थानं प्रथम दिव्यं विध्याकारं जगत्प्रियम् । वपुर्वक्रियिकं रम्यं सप्तधातुमलोज्झितम् ॥३०॥ सुगन्धीकृतदिग्भागं शुभस्निग्धाणु निर्मितम् । निरौपम्यं च देवानां निसर्गेरगास्ति सुन्दरम् ॥३०४।। भर्थः-वैमानिक देवों के जगत् प्रिय एवं दिव्य समचतुरस्र नामक प्रथम संस्थान होता है। इनका वैक्रियक शरीर होता है, जो दिव्याकार वाला, अत्यन्त रमणीक, सप्त धातु रहित तथा मल से रहित होता है ॥३०३।। देवों का शरीर स्वभावतः अति सुन्दर, उपमा रहित तथा दशों दिशाओं को सुगन्धित कर देने वाले सौरभ युक्त, शुभ एवं स्निग्ध परमाणुओं से निर्मित तथा उपमा रहित होता है ॥३०४॥
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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