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________________ ५७४ ] सिद्धांतसार दीपक अब उत्पन्न होने के बाद घेवगण क्या क्या विचार करते हैं, इसका प्रतिपादन करते हैं:-- सत्रोपपाददेशान्तमरिणशग्यातले मृदौ । प्रागजितमहापुण्यालभन्ते जन्म वासवाः ॥३१॥ ततोऽप्यन्समुहूर्तेन प्राप्य सम्पूर्णयौवनम् । दिल्यमुत्थाय शय्यागः सुप्लोस्थित इस ले ॥३१२॥ विलोक्य तन्महाभूतीः प्रगतामरमण्डलीः । साश्चर्यमानसाश्चित्ते चिन्तयन्तीति चास्मगम् ॥३१३॥ अहो ! केऽमी महादेशाः सुखसम्पद कुलालयाः । के वयं केन पुण्येनानीता वात्र सरास्पदे ॥३१४॥ विनीता के इमे देवा देव्य एता जगत्प्रियाः। कस्येमाः सम्पदः सारा विमानान्तर्गताः पराः ।।३१५॥ इत्यादि चिन्तमानानां तेषां साश्चर्यचेतसाम् । प्रागस्य सचिवा नत्वा पावाब्जान ज्ञानचक्षुषः ।।३१६॥ पूर्वापर सुसम्बन्धं निगवन्ति मनोगतम् । तत्पूर्वाजित पुण्यं च स्वलोकस्थितिमञ्जसा ॥३१७॥ अर्थः-वहाँ पर इन्द्र प्रादि देव पूर्वोजित महा पुण्योदय से उपपाद स्थानों में मणिमय कोमल उपपाद शय्या पर जन्म लेते हैं ।।३११।। तथा जन्म लेने के अन्तर्मुहूर्त बाद ही पूर्ण यौवन अवस्था को प्राप्त कर वे उस दिव्य शय्या पर से ऐसे उठते हैं जैसे मानों सो कर हो उठे हों ॥३१२।। शय्या से उठते ही नम्रीभूत होती हुई देव मण्डली को और वहां की महाविभूति को देखकर मन में प्राश्चर्यान्वित होते हुये वे अपने मन में ऐसा चिन्तन करते हैं कि अहो ! सुख सम्पत्ति से युक्त यह कौनसा देश है ? मैं कौन हूँ, तथा किस पुण्योदय से मैं यहाँ स्वर्ग लोक में उत्पन्न हुआ है । अर्थात् यहां लाया गया हूँ ।।३१३-३१४॥ नम्रीभूत होने वाले, जगत्प्रिय ये सब देव देवियां कौन हैं, एवं विमान स्थित यह समस्त विपुल तथा उत्कृष्ट सम्पत्ति किसको है ? ॥३१५|| इत्यादि अनेक प्रकार का चिन्तन करने वाले और पाश्चर्य युक्त चित्त बाले उन नवीन देवों के मनोगत भावों को अपने अवधिनेत्र से जान कर वहाँ स्थित प्रधान-मन्त्री प्रादि देव उनके समीप पाकर तथा उनके चरणकमलों को नमस्कार
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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