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________________ ५३४ ] सिद्धान्तसार दीपक त्रयोदशैव लक्षाणि द्वितीयस्यास्य घान्तरम् । त्रिषधिरेव लक्षाणि तृतीयस्य तथान्तरम् ॥१३४।। चतुःषष्टिस्तु लक्षारिण तुयंशालस्य चान्तरम् । लक्षारिण योजनानां चतुरशीतिप्रमाणि वै ॥१३॥ अर्थः-इन्द्र के क्रीड़ा निवास (अर्थात् नगर) के प्रथम प्राकार से बाहर समुन्नत (व्यास के समान उन्नत ) एवं महान् एक दूसरे के अन्तराल से, चार प्राकार और हैं । जिनका व्यास एवं उत्सेध प्रथम प्राकार के सदृश है । प्रथम कोट (प्राकार ) से दूसरे कोट का अन्तर १३ लाख योजन (१०४०.००० मील) है । दूसरे कोट से तोसरे कोट का अन्तर ६३ लाख योजन (५०४००००० मील) है। तीसरे कोट से चौथे कोरमा अन्तर २४ लाख योजन (५१२००००० मील) है, और चौथे कोट से पांचवें कोट का अन्तराल ६४ लाख योजन (६७२००००० मील) प्रमाण है ।।१३२-१३५।। प्रब कोटों के अन्तरालों में स्थित देवों के भेद कहते हैं:-- प्राद्यप्राकारभूमध्ये सैन्यनाथा वसन्ति च । शालान्तरे द्वितीयस्याङ्गरक्षकसुधाभुजः ॥१३६॥ तृतीयशालभूभागे निर्जराः परिस्थिताः । अन्तरे तुर्यशालस्य सामानिका वसन्ति च ॥१३७।। अर्थः-प्रथम कोट के मध्य में सेनापति और दूसरे कोट के मध्य में अङ्गरक्षक देव रहते हैं ॥१३६॥ तोसरे कोट के मध्य में परिषद् देव तथा चौथे कोट के अन्तराल में सामानिक देव निवास करते हैं ॥१३६-१३७।। अब सामानिक, तनुरक्षक और अनीक देवों का प्रमाण कहते हैं: चतुरामाध नाकानामशीतिश्चतुरुत्तरा । सहस्राणामशीतिश्च द्विसप्ततिस्तुसप्ततिः ॥१३८।। चतुर्णामूवयुग्मानां सहस्राण्ययुतं विना । शेषाणां स्युः सहस्राविंशतिः सामान्यकामराः ।।१३६।। तेभ्यश्चतुर्गुणाः सन्ति ह्यङ्गरक्षकनाकिनः । वृषभाधाः पृथक् सप्तसप्तानीकाः क्रमाविमे ॥१४०॥
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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