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सिद्धान्तसार दीपक
उत्पन्न और अत्यन्त शुभ नैवेद्य से, अन्धकार को नष्ट करने वाले मणिमय दीपों से, सुगन्धित धूप समूह से, महापुण्य फल प्रदान करने वाले कल्पवृक्षों के सारभूत उत्तम फलों से, दिव्य चूर्ण से, उत्तम गोमा बनाम नता गौ पुष्पवृष्टिमामि से ने देह की पूजा भक्ति करते हैं ॥३३४.३३७।। इसके बाद वे इन्द्र, देव समूहों के साथ तीर्थंकरों की स्तुति, पूजन द्वारा उत्कृष्ट पुण्य उपार्जन करके वहां से जाते हैं और वनों के मध्य चैत्यवृक्षों में स्थित उत्कृष्ट जिनेन्द्र प्रतिमाओं का धर्म प्राप्ति के लिये अभिषेक करते हैं, पूजन करते हैं. स्तुति करते हैं और नमस्कार करते हैं ॥३३८-३३९।।
प्रब मिथ्यादृष्टि एवं सम्यग्दृष्टि को पूजन के अभिप्राय का अन्तर पर्शा कर सम्यक्त्व प्राप्ति का हेतु कहते हैं:
तत्रोत्पन्नाः सुरा दृष्टिहीनादेवैः प्रबोधिताः । जिनागारे जिनेन्द्रार्चा कुर्वन्ति शुभकाक्षिणः ॥३४०।। सम्या दृष्ट घमरा भक्त्या जिनेन्द्रगुणरञ्जिताः । अचयन्ति जिना दीन कर्मक्षयाय केवलम् ॥३४१॥ निदर्शनाः सुराश्चित्ते मत्था स्वकुलदेवताः । जिनमूर्तीविमानस्थाः पूजयन्ति शुभाप्तये ॥३४२।। ततोत्पन्नामरांश्चान्ये बोधयन्ति सुदृष्टयः । धर्मोपदेशत स्वादि भाषरणर्दर्शनाप्तये ॥३४३।। केचित्त बोधनाच्छीघ्र काललन्ध्या शुभाशयाः ।
गृह्णन्ति त्रिजगत्सारं सम्यक्त्वं भक्तिपूर्वकम् ।।३४४।। अर्थ:--स्वर्गों में उत्पन्न होने वाले मिथ्याष्टि देव अन्य देवों द्वारा समझाये जाने पर पुण्य की वाञ्छा से जिन मन्दिरों में जाकर जिनेन्द्र भगवान की पूजन करते हैं ॥३४०॥ किन्तु जो सम्यग्दृष्टि देव वहाँ उत्पन्न होते हैं वे जिनेन्द्र भगवान् के गुणों में रम्जायमान होते हुए कम क्षय के .लिए भक्ति पूर्वक जिनेन्द्र देव की पूजा करते हैं ।।३४१।। मिथ्या दृष्टि देव अपने विमानों में स्थित्त जिमप्रतिमाओं को अपने मन में उन्हें कुलदेवता मान कर पुण्य की प्राप्ति के लिये पूजते हैं ॥३४२॥ वहां उत्पन्न होने वाले. मिथ्याष्टि देवों को अन्य सम्यग्दष्टि देव सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हेतु तत्त्व आदि के प्रतिपावन रूप धर्मोपदेश देते हैं, उनमें से कितने ही देव देशना प्राप्त करते ही काललब्धि से प्रेरित होकर शुद्ध चित्त होते हुए, त्रैलोक्य में सारभूत सम्यक्त्व को भक्ति पूर्वक शीघ्र ही प्रहण कर लेते हैं ।।३४३-३४४॥