SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 173
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पञ्चमोऽधिकार अर्थ:-पश्चिम समुद्र में जाने वाली सिन्धु नदी के समुद्र प्रवेश द्वार प्रादि में व्यास, अबगाह एवं सोधे प्रवाह आदि का प्रमास गंगा के सदृश है ॥५१॥ प्रय पातशेष नदियों के निगमानना संक्षि गायन करते हैं: रोहिन्महादिपास्य दक्षिणद्वार निर्गता। क्षेत्र हैमवतं प्राप्य गता पूर्वाल्यसागरम् ॥५२।। पद्मस्यास्योत्तरद्वाराद्रोहिताख्या विनिर्गता । जघन्यभोगभूमध्येन पश्चिमाम्बुधिं गता ॥५३।। इत्येवं सरितस्तिस्रः पद्यद्रहाद् विनिर्गताः । पुण्डरीकह्रदात्तिस्रो नद्यः शेषेभ्य एव च ॥५४।। ह्रदेभ्यो निर्गते द्वे व नद्यौ ह्यन्योन्य मिश्रिते । विस्तरं सुखबोधाय संवक्ष्येऽतः पृथक् पृथक् ॥५५॥ अर्थः-रोहित् नदी महापद्म सरोवर के दक्षिणद्वार से निकलकर हैमवत क्षेत्र अर्थात् जघन्य भोगभूमि को प्राप्त करती हुई पूर्व समृद्र में गिरी है। रोहितास्या नदी पनसरोवर के उत्तर द्वार से निकलकर जघन्य भोगभूमि अर्थात् हैमवत क्षेत्र के मध्य में से बहती हुई पश्चिम समुद्र को प्राप्त हुई है। इस प्रकार पद्मद्रह से गंगा, सिन्धु और रोहितास्या ये तीन नदियाँ निकली हैं, और पुण्डरीक सरोवर से सुवर्ण कूला, रक्ता और रक्तोदा ये तीन नदियाँ निकली हैं शेष सरोवरों से एक दूसरे से मिश्रित होती हुई दो दो नदियां निकली हैं । अर्थात् महापध से रोहित और हरिकान्ता, तिगिञ्छ से हरित् और सीतोदा, केसरी से सीता और नरकान्ता तथा महापुण्डरीक से नारी और रूप्यकुला ये दो दो नदियां निकली हैं । (महापद्म से रोहित और हरिकान्ता तथा तिगिच्छ से हरित और सोतोदा आदि का निकलना ही अन्योन्य मिथण है) । सरलता पूर्वक ज्ञान प्राप्त कराने के अभिप्राय से अब इन नदियों का पृथक पृथक् वर्णन किया जा रहा है ॥५२-५शा अथ पद्मद्रहस्य पश्चिम दिग्भागे द्वि क्रोशावगाहं क्रोशाधिक षट्योजन विस्तृत सार्धक्रोशाधिक नव योजनोन्नतं जिनेन्द्रबिम्नदिक्कन्यावासाद्यऽलं कृतं तोरणद्वारमस्ति । तस्मात्तोरणद्वारात् सिन्धुनदी अर्धक्रोशावगाहा, क्रोशाग्रपड्योजनध्यामा निर्मात्य पर्वतस्योपरि ऋज्वी पश्चिम दिशि पञ्चशतयोजनानि गत्वा गव्यूतिद्वयेन सिन्धुकूट विहाय दक्षिणाभिमुखी भूय किञ्चिदधिकार्यक्रोशाग्रपञ्चशत त्रयोविंशतियो- . जनान्येत्यनोशाधिकषयोजनप्यासया द्वि क्रोशाय तया द्वि क्रोशस्थूलया बचप्रणाल्या गिरेस्तटाभूमी पतति ।
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy