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अष्टमोऽधिकारः
[ २४३ इसके आगे देवारण्य वन का वर्णन करते हैं :--
तस्याः पूर्वे समुद्रस्यापरेमागे मनोहरम् । नाना T मोघ संकीणं देवारण्याह्वयं वनस् ॥३६।। द्वे सहस्र शतान्येव नवद्वाविंशतिस्तथा । योजनानामिति व्यासः पूर्वापरेण कथ्यते ॥४०॥ बनस्यास्याखिलायामो देशाधायामसन्निमः ।
देवारण्यवने तस्मिन् प्रासादाः सन्त्पनेकशः ॥४१॥ अर्थ:--लस रत्नमय बन वेदी के पूर्व में और लवण समुद्र के पश्चिम में अनेक प्रकार के वृक्ष समूहों से व्याप्त देवारण्य नाम का मनोहर धन है ।।३६।। जिसका पूर्व पश्चिम व्यास दो हजार नौ सौ बाईस ( २६२२ ) योजन प्रमाण है, और पायाम दश के अायाम सदृश अर्थात् १६५६२२ योजन प्रमाण है। इस देवारण्य बन में अनेक प्रकार के प्रासाद हैं ।।४०-४१॥ अब देवारण्यस्थ प्रासादों का वर्णन करते हैं :
नानारत्नमयास्तुङ्गा वनवेद्याद्यलंकृताः । जिनालयाङ्किता दिव्या मणितोरणभूषिताः ।।४२॥ प्रचुराः पुष्करण्यश्च क्रोडाशालाः सभागृहाः । उपपादालयास्तुङ्गा बाह्यान्तमरिणचित्रिताः ॥४३॥ चतुर्विदिक्षुगेहाः स्युरात्मरक्षसुधाभुजाम् । परिषत् त्रयदेवानां प्रासादा दक्षिणादिशि ॥४४॥ सप्तानीकामराणां च दिग्भागे पश्चिमे गृहाः । किल्बिषाह्वयदेवानामभियोगामृताशिनास ॥४५॥ सम्मोहनिर्जराणां च कन्धाख्यसुरात्मनाम् ।
प्रत्येकं स्युः पृथग्भूताः प्रासादाः शाश्वताः शुभाः ॥४६॥ अर्थाः देवारण्य वन में स्थित प्रासाद नाना रत्नमय, उन्नत, वन वेदी आदि से अलंकृत और जिनालयों से विभूषित हैं । वहाँ बहुत से तालाब, क्रीडा शालाएँ, सभागृह और बाह्य एवं अभ्यन्तर में मणियों से रचित तथा उन्नत उपपाद भवन हैं।।४२-४३।। चारों विदिशाओं में आत्मरक्षक देवों के भवन हैं । दक्षिण दिशा में तीनों परिषद् देवों के प्रासाद हैं, और पश्चिम दिशा में सात प्रकार के अनीक