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________________ २४२ । सिद्धान्तसार दोपक नद्याः पूर्वे शुभोदेशः पुष्कलाख्योऽविनश्वरः । ग्रामखेटादिभिः पूर्णो जिनर्जेनैश्च धामिकः ॥३२।। औषधी नगरी रम्या तस्य मध्ये विभात्यलम् । औषधीय सतां जन्मजरामृत्यु रुजापहा ॥३३॥ ततः स्यादेक शैलाख्यो वक्षाराद्रिर्मनोहरः । चतु:कूटयु तो मूनि जिनामरालयान्वितैः ॥३४॥ सिद्ध च पुष्कलाख्यं पुष्कलायती समाह्वयम् । एकशैलाह्वयं ह्यतेश्चतुः कूटैः सभात्पलम् ॥३५॥ ततः पूर्वं भवेत् पुष्कलावती विषयो महान् । नद्यद्विग्रामसीमाभूतो धार्मिक योगिभिः ॥३६॥ तन्मध्ये नगरी नित्या राजते पुण्डरीकिणी । तुमचैत्यालयभव्य पुण्डरीकैः सुकर्मभिः ॥३७॥ ततो रत्नमयी दिव्या शाश्वती वनवेविका । पूर्वोक्तवर्णनोपेतोत्सेधच्यासादि तोरणः ॥३८॥ अर्थः-नलिन क्षार के आगे लाङ्गलावर्त नाम का श्रेष्ठ देश है, जो छह खण्डों से मण्डित तथा नदी, वन और पर्वत आदि से युक्त है । इस देश के मध्य में प्रति मनोज्ञ मंजुषा नाम की नगरी सुशोभित है, जो जिनेन्द्रदेव, केवली और धार्मिक मनुष्य रूपी रत्नों को मञ्जूषा ( पेटो ) के सदृश सार्थक नाम वाली है ।।२९-३०।। इसके मागे पकवती नाम की श्रेष्ठ विभङ्गा नदी है, जो दश कोस गहरी और रोहित नदी के सदृश विस्तृत है ।।३१॥ इस विभङ्गा नदी के पूर्व में पुष्कल नाम का विनाश रहित और श्रेष्ठ देश है, जो ग्राम सेट आदि से तथा अन्तिों, जैनों और धर्मात्माजनों से परिपूर्ण है ।। ३२।। जिसके मध्य में औषधी नाम की मनोज नगरी शोभायमान है । जो सज्जन पुरुषों के जन्म, बुढ़ापा, मृत्यु और रोग प्रादि दोषों को दूर करने के लिये औपधि के सदृश है ।।३३।। इसके बाद एक शैत नामका मन कोहरण करने वाला वक्षार पर्वत है, जो शिखर पर जिन चैत्यालय और अन्य देवों के प्रासादों से समन्वित चार कूटों से युक्त है ।।३४३ सिद्धकूट, पुष्कलकूट, पुष्कलावतीकूट और एक शैल इन चार कूटों से वह पर्वत शोभायमान है ॥३५॥ इस वक्षार पर्वत के पूर्व में पुष्कलावती नाम का महान देश है, जो नदी, पहाड़ ग्राम को सीमा प्रादि से तथा मुनिराजों एवं धार्मिक पुरुषों से परिपूर्ण है । इसके मध्य में पुण्डरीकिणी नाम की शाश्वत नगरी सुशोभित होती है, जो उन्नस चैत्यालयों, भष्यों, तीर्थङ्करों, गणघरादि योगियों एवं उत्तम क्रिया करने वाले सज्जन पुरुषोंगे व्याप्त है ॥३६-३७।। इसके बाद शाश्वत, दिव्य और रत्नमय वनवेदिका है, जो पूर्व कथित उत्सेब, एवं व्यासादि वाले तोरणों से युक्त है ॥३८॥
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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