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________________ पंचदशोऽधिकारः [ ५४५ तेभ्य ऊर्वेषु षट्स्थानेष्वकैकावासबाङ्गना । द्विगुण द्विगुणान्याशु कुर्यात् रूपाणि योषिताम् ।।१६।। एकैकस्या महादेव्याः परिवारवरस्त्रियः । स्युः षोडशसहस्राणि प्रीता प्रथम युग्मके ॥१७०॥ ततः स्थानेषु शेषेष परिवारसुराङ्गनाः । अर्धार्धाः स्युः कमानेकैक शच्या विनयाङ्किताः ॥१७१।। अर्थ:--सातों स्थानों में प्रत्येक इन्द्रों के दिव्य मूर्ति को धारण करने वाली एवं समस्त इन्द्रियों को सुस्त्र प्रदान करने वाली पाठ-पाठ महा देवियां हैं ।।१६४।1 समस्त दक्षिणेन्द्रों की पाठपाठ महादेवियों के नाम शची, पदा, शिपा. श्यामा, मालिटी, सुलमा अर्जुना शौर भान हैं ।।१६५।। तथा सर्व उत्तरेन्द्रों की महादेवियों के नाम श्रीमती, रामा, सुसीमा, विजयाक्ती, जयसेना, सुघणा, सुमित्रा और वसुन्धरा हैं । प्रथम युगल में पृथक् पृथक् एक एक महादेवी बिक्रिया ऋद्धि के प्रभाव से मूल शरीर के विना अपने समान सोलह सोलह हजार विक्रिया शरीर को धारण करने वाली हैं ।११६६-१६८॥ प्रथम युगल से ऊपर छह स्थानों में प्रत्येक इन्द्र की एक एक महादेवी दूनी दूनी विक्रिया धारण करती हैं 11१६६॥ प्रथम युगल में एक एक महादेवी की सोलह-सोलह हजार परिवार देवियाँ हैं। तथा शेष छह स्थानों में कम से एक एक महादेवी की विनय से युक्त परिवार देवांगनाओं का प्रमाण क्रमशः अर्ध-प्रधं होता गया है ।।१७०-१७१।। प्रासां विस्तारमाहः सौधर्मेशानेन्द्राष्टमहादेवीनां पृथग्विक्रियाङ्गानि षोडश सहस्राणि । परिवारदेव्यः षोडशसहस्राणि । सनत्कुमारमाहेन्द्रमहादेबीनां विक्रियाशरीराणि द्वात्रिंशत्सहसारिण । परिवारदेव्योऽष्टसहसारिण। ब्रह्मन्द्राष्टमहादेबीनां प्रत्येक विक्रियारूपाणि चतुःषष्टिसहस्राणि परिवारदेव्यः चतुःसहस्राणि। लान्तवेन्द्रमहादेवीनां विक्रियाशरीराणि एकलक्षाष्टाविंशतिसहस्राणि । परिवारदेव्यः । सहस्र । शुक्रन्द्रस्य शचीनां विक्रियाङ्गानि द्विलक्ष षट् पञ्चाशत्सहस्राणि, परिवारदेव्यः सहस्र कं । शतारेन्द्रागीनां विक्रिया स्त्रीरूपाणि पञ्चलक्षद्वादशसहस्राणि, परिवारसुराङ्गनाः पञ्चशतानि । प्रानतप्रारणसारणाच्युतेन्द्र केकमहादेवीनां विक्रियादेवीशरीराणि पृथग्भूतानि स्वशरीरसमानानि दशलक्षचतु. विशतिसहस्राणि, परिवारदेव्यः सार्धे द्वे शते । अर्थः-प्रत्येक स्थानों में स्थित विक्रिया धारी एवं परिवार देवांगनाओं का पृथक् पृथक प्रमाण कहते हैं:--
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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