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________________ दशमोऽधिकारः [ ३३३ अाठ विदिशानों में कभी नाश न होने वाले प्रो र ५० योजन विस्तार वाले पाठ द्वीप हैं । समुद्र के दोनों पात्र भागों में हिमवन् कुलाचल, ( भरतक्षेत्र सम्बन्धी) विजयाई पर्वत, शिस्त्ररी कुलाचल और ( ऐरावत क्षेत्र सम्बन्धी ) विजयाध पर्वत, इन प्रत्येकों को छह सौ-छह सौ योजन छोड़ कर दोनों कुलाचलों और दोनों विजयाओं के अन्तिम भागों का आश्रय कर पृथक पृथक् दो दो द्वीप हैं। ये सब एकत्रित कर देने पर आठ द्वीप होते हैं। ये पाठों द्वीप पच्चीस पच्चीस योजन विस्तार वाले और कुभोगभूमिज जीवों से संकुलित हैं। इन समस्त द्वीपों का योग २४ होता है ।।७४-८१॥ समभूमि से नीचे जल की गहराई और समभूमि से जल की ऊँचाई इन दोनों का योग कर देने पर जल के अवगाह का प्रमाण प्राप्त होता है । अर्थात् (वेदी सहित) सर्व द्वीप जल से एक-एक योजन ऊँचे हैं ।।८२।। नोट :- लवरण समुद्र के ( २४+२४ )=४८ द्वीपों का चित्रण श्लोक १०२ में दिया गया है । अब कुभोगभूमिज मनुष्यों को प्राकृति, प्रायु, वर्ण, प्राहार और उनके रहने के स्थान प्रादि का वर्णन करते हैं : एकोरका सश्रृङ्गालांगुलिनोऽथाप्यभाषिणः । पूर्वादिषु चतुर्दिक्षु वसन्त्येते क्रमान्नराः ॥८३।। शशकर्णाः कुमाश्च सन्ति शकुलि फर्णकाः । कर्णप्राधरणा लम्बकर्णाश्चतुर्विदिक्षु वै ।।८४॥ सिंहाश्यमहिषोलूक-व्याघ्र-सूकरगोमुखाः।। कपिवक्त्रा वसन्त्यष्टान्तरदिक्ष कुमानुषाः ॥१५॥ मत्स्यकालमुखा मेघविद्युद्वक्त्रा वसन्ति छ । हिमाद्रविजयाद्धस्य पूर्वपश्चिमभागयोः ।।६।। गजदर्पणमेषाश्व वदनाः कुत्सिता नराः । स्यू रूपाविशिखयोरुभयोः पार्श्वयोः क्रमात् ॥७॥ एषु द्वीपेषु सर्वेषु प्राप्य जन्म सुगर्भतः । दिनरेकोन पञ्चाशत्प्रमलब्ध्या सुयौवनम् ॥१८॥ स्त्रीमध्ययुग्मरूपेण रोगक्लेशादिवजिता । पल्यैकजीविनः पंचवर्णाः क्रोशोग्नता नराः ॥८६॥ नानाकायमुखाकारा भुञ्जन्ति नीचपुण्यतः । नीचान भोगान सका तत्रत्याः कुभोगघरासु च ||१०||
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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