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________________ १८ ] सिद्धान्तसार दीपक लोकस्याधस्तले भागे महातमःप्रभाक्षितेः। पाश्र्वयोरेकरज्ज्वन्तमन्तरेष्वपि सप्तसु ।।२।। सप्तनारक पृथ्वीनां स्थूलत्वं मरुतां मतम् । प्रत्येक योजनानां च सहस्रविशतिप्रमम् ॥५३॥ बण्डाकारा' भवन्त्येते लोकाधोभूतलान्तरे । दण्डाफारा घनीमूता लोकान्ते वाययस्त्रयः ।।८४॥ अर्थ:- लोका काश के अधोभाग में, सातवें नरक से नीचे नीचे अर्थात् दोनों पाश्र्व भागों में नीचे से ऊपर की ओर एक राज़ की ऊँचाई ( निगोद स्थान ) पर्यन्त, लोक के अभ्यन्तर भाग में सातों नरक पृथिवियों के नीचे सातों नरकों की जो सात पृथिवियां हैं ( और ८वीं ईषत्प्राग्भार पृथ्वी के नीचे ) उनमें दण्डाकार ( रज्जू आकार) प्रत्येक पवन बीस बीस हजार योजन की | मोटाई को लिये हुए हैं। इस प्रकार ये तीनों पवन अधोलोक में सातों पृथिवियों के नीचे, लोक के अन्त में अर्थात् लोक के ऊपर प्राग्भार पृथ्वी के नीचे अर्थात् पाठों पृथिवियों के नीचे सघन और दण्ड के आकार को धारण करने वाली हैं ।। ८२-८४ ॥ महातमः प्रभापार्वे वातानां स्थौल्यमञ्जसा । सप्तव पञ्चचत्वारि प्रत्येक योजनान्यपि ॥५॥ नृलोके क्रमहापात्र पञ्चचत्वारि त्रीणि च । स्थौल्यं वातत्रयाणां हि योजनानि पृथक पृथक् ॥८६॥ बाहल्यं ब्रह्मलोकान्ते वायूनां योजनानि च । सप्तपञ्चैव चस्वारि प्रत्येक क्रमवृद्धितः ॥८७॥ क्रमहान्यो लोकान्तेऽमोषां स्थूलत्वमञ्जसा । प्रत्येकं पञ्च चत्वारि श्रोणि सयोजनानि च ।।८।। अर्थ:- सप्तम नरक के दोनों पाश्र्व भागों में घनोदधिवातवलय सात योजन, घनवातवलय पांच योजन और तनुवात वलय चार योजन मोटाई वाले हैं । इसके ऊपर क्रम से घटते हुये मनुष्य (मध्य) लोक के समीप तीनों वातबलय क्रम से पृथक् पृथक पांच योजन चार योजन और तीन योजन बाहुल्य वावै प्राप्त होते हैं, तथा यहाँ से ब्रह्मलोक पर्यन्त क्रमश: बढ़ते हुये सात योजन, पांच योजन और चार योजन मोटाई बाले हो जाते हैं और ब्रह्मलोक से क्रमानुसार हीन होते हुये तीनों पवन लोक के अन्त में अर्थात् ऊर्ध्वलोक के निकट क्रमशः पांच योजन, चार योजन और तीन योजन बाहुल्य वाले हो जाते हैं ।। ८५-८८ ॥ १ एष श्लोकः अ० ज० न० प्रतिषु नास्ति ।
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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