SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 196
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५० ] सिद्धान्तसार दोपक घनोपवन केत्वाधर्मङ्गलद्रव्यमूतिभिः । भासमानोऽस्ति सिद्धायतन'कूटोमनोहरः ॥११०।। अर्थः-विजया पर्वत के अग्रभाग पर पूर्व दिशा की ओर जिनेन्द्र भगवान का सिद्धायतन नाम का एक चैत्यालय है । जो दैदीप्यमान प्रभा से युक्त, एककोस लम्बा, अर्धकोस चौड़ा और (पौन) कोस ऊँचा है । वह मन को मोहित करने वाला सिद्धावतन कूट मरिण एवं स्वर्ण बिम्बों से समन्वित, कोट, नाना प्रकार के तोरण द्वार तथा मण्डप प्रादि से अलंकृत, सङ्गीतशाला, नाटयशाला, अभिषेक गृह एवं उत्तम कीड़ागृह आदि से व्यान, मरिणयों, मुक्ताफलों और स्वर्ण मालाओं के समूहों से सुशोभित वन, उपवन आदि से वेष्टित और ध्वजा आदि मङ्गलद्रव्य रूपी विभूति से भासमान है ।।१०७-११०॥ अवशेष कूटों के स्वामी: शेष कूटस्थसौधेषु वसन्ति व्यन्तरामराः । स्व-स्वकूटोत्थ नामाढपा विश्वेषु दीप्तिशालिषु ॥१११॥ अर्थ:-अवशेष समस्त कूटों पर स्थित अपनी दीप्ति से मनोहर भवनों में अपने अपने कूटों के सदृश नाम वाले ध्यन्तर देव रहते हैं ॥१११।। विजयाधं सम्बन्धी वनों का विवेचन चार श्लोकों द्वारा करते हैं: वन द्विकोशविस्तीर्ण नाना माङ्कितं महत् । पूर्वापरान्धिपर्यन्तं स्यावस्योभयपाश्र्वयोः ।।११२।। द्विकक्रोशोन्नतापञ्चशतचापसुविस्तृता । बहुतोरणयुक्तात्र' दीप्तास्तिवनवेविका ॥११३॥ धनमध्येपुराणिस्पर्यन्तराणां महान्ति च । सप्तभूमियुतोत्तुङ्ग रत्नधामाखितान्यपि ॥११४।। चैत्यालययुताम्युसचः शालाधलंकृतानि । इत्येषा वर्णनात्ररावतरूप्याचले भवेत् ।।११५।। मर्थ:--विजया पर्वत के दोनों पार्श्व भागों में पूर्व समुद्र से पश्चिम समुद्र पर्यन्त अर्थात् पर्वतों के बराबर ही लम्बे, दो कोस चौड़े और नाना प्रकार के वृक्षों से संयुक्त महान धन हैं । ये दोनों वन दो कोस ऊँची, ५.०० धनुष चौड़ी, नाना तोरणों से युक्त और प्रकाशमान वनवेदिका से विभूषित है। १. कूटे अ. ज. न. २. दीपा अ.
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy