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________________ एकादशोऽधिकाराः [ ३६६ चलनः पारामाग्यो मणिर्मरकताड्यः । वको मोचो मरिणमसृरणपाषाणसंज्ञकः ॥३४।। एते विशतिसभेवाः पृथ्वीकायमयात्मनाम् । खराख्यारणां सुभध्यानां दबायेगरिणभिर्मताः ॥३५॥ अर्थः–प्रवाल, शर्करा, हीरा, शिला, उपल ( पत्थर ), कर्केतनमणि, रजकमरिण, चन्द्रप्रभमणि, बड्यंमणि, स्फटिकमरिण, जलकान्तमणि, सूर्यकान्तमणि, गरिकमणि, चन्दनमणि, पद्मराग, मरकतमरिण, वकमणि, मोचमरिण, वैमसृरण और पाषाण खर पृथ्वी स्वरूप पृथ्वीकायिक जीवों के ये बीस भेद भव्य जीवों के दया पालनाधं गणधर देवों के द्वारा कहे गये हैं ।।३२-३।। अब पृथिवीकायिक पृथ्वी से बने हुए पर्वत एवं प्रासादों आदि का कथन करते हैं : रत्नप्रभादयः सप्तपृथ्व्यश्चंत्यद्र माखिलाः । मेर्वाद्याः पर्वताः सर्वे वेविकातोरणादयः ॥३६।। त्रिलोकस्थ विमानानि जम्वाधाः सकलाद्र माः। नुविद्येशसुराणां च प्रासादाः कमलानि च ॥३७॥ स्तूपरत्नाकराद्या पृथ्वीकायमयाश्च ते । सर्वे ह्यन्तर्भवन्त्येषु पृथ्वीभेवेषु नान्यथा ॥३८॥ एतान् पृथ्वीमयान् जीवान पृथ्वीकायाश्रितान बहून् । सम्यग्ज्ञात्वा प्रयत्नेन रक्षन्तु साधवोऽनिशम् ।।३६॥ प्रर्श:-रत्नप्रभा आदि सातों पृथिवियाँ, सम्पुर्ण चैत्यवृक्ष, मेरु प्रादि सर्व पर्वत, वेदिकाएँ एवं तोरण आदि, त्रैलोक्य स्थित विमान, जम्बू आदि समस्त वृक्ष, मनुष्यों, विद्याधरों और देवों के प्रासाद, पन यादि सरोवरों में स्थित कमल, स्तूप और रत्नाकर आदि ये सब पृथ्वीकायमय है, और इन सबका अन्तर्भाव पृथ्वीकाय के भेदों में ही होता है, अन्य में नहीं। पृथ्वीकाय के आश्रित रहने वाले इन सत्र पृथ्वीमय जीवों को भली प्रकार जान कर सज्जन पुरुषों को अहर्निश इनको रक्षा प्रयत्नपूर्वक करना चाहिए ।।३६-३६॥ अब जलकायिक जीवों के भेदों का प्रतिपादन करते हैं :-- प्रवश्यायजलं रात्रिपश्चिमाहरोब्भयम् । हिमाख्यं जलकायं च जतबन्धनसम्भवम् ।।४०॥
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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