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________________ १२० ] सिद्धान्तसार दीपक द्विकोशदीर्घता युक्ता द्वि कोशस्थूलता युता । प्रणालीयोजनः षड्भि क्रोशानं विस्तरान्विता ॥१४॥ नित्यात जलाधा मिहना तिलिसिक जेयास्या दीर्घ विस्तारः सभासिन्धुप्रणालिका ॥१५॥ शेषाः प्रणालिका व्यासाय विदेहान्त मजसा । द्विगुणाद्विगुणाः स्युश्च तथालध्यास्ततोऽपराः ॥१६॥ अर्थः-[ हिमवान् पर्वत के तट पर स्थित वह ] जिबिका नाम को प्रणालिका ( नाली) दो कोस लम्बी, दो कोस मोटो और ६ योजन एक कोश अर्थात् ६३ योजन चौड़ी है । यह प्रणालिका शाश्वत और जल से अभेद्य अर्थात् नष्ट भ्रष्ट होने के स्वभाव से रहित है । इसकी मुखाकृति गाय के सहश है । किन्तु इसके कान सिंह के कान सदृश हैं । [ गंगा नदी इसो नाली में जाकर हिमवान् पर्वत से नीचे गिरती है । ] सिन्धु नदी को प्रणालिका की लम्बाई चौड़ाई भी इसी के समान है। इसके बाद विदेह पर्यन्त की शेष प्रणालिकाओं का व्यास आदि उत्तरोत्तर दूना दूना और उसके आगे क्रमशः होन हीन होता गया है ।।१४-१६॥ गिरती हुई गंगा नदी के विस्तार आदि का वर्णन :-- काहलाकारमाश्रित्य पतिता भरतावनौ । दशयोजनविस्तीर्णा धारा तस्या अखण्डिता ।।१७॥ धारापर्वतयोमध्ये ह्यन्तरं पञ्चविंशतिः । योजनानि ततोऽन्येषां द्वि गुणविगुणं क्रमात् ॥१८॥ धाराया उन्नतिश्चात्र शतकयोजनप्रमा। द्विगुणा द्विगुणान्याद्रिद्वयेऽर्धाऽर्धाऽचलत्रये ॥१९॥ अर्थ:-( हिमवान् पर्वत को छोड़कर ) काहला (एक प्रकार के बाजा ) के आकार को घारण करने वाली, दश योजन विस्तार वाली तथा प्रखण्ड धारा से युक्त गंगा नदी भरत भूमि पर गिरती है । जहाँ धारा गिरती है उस स्थान के और पर्वत के मध्य में पच्चीस योजनों का अन्तराल है। अर्थात् गंगा नदी हिमवान् पर्वत से पच्चीस योजन दूरी पर गिरती है। विदेह पर्यन्त यह अन्तर क्रमशः दूना और उससे पागे क्रमशः हीन होता गया है । इस स्थान पर गंगा की धारा की ऊँचाई सी योजन प्रमाण है। विदेह पर्यन्त धारा की ऊँचाई क्रम से दूनी दूनो प्राप्त होती है और उसके आगे तीन कुलाचलों पर यह ऊंचाई क्रमशः अर्ध अर्ध प्राप्त होती है ।।१७-१६॥
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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