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________________ ५८ । सिद्धान्तसार दीपक दुःखों के निवारण ( विनाश ) हेतु पोर मोक्ष सुख की प्राप्ति हेतु दुःखों से भयभीत भव्यजन कुगति को माश करने वाले रत्नत्रय स्वरूप धर्म का प्राचरण करें॥१२४।। अधिकारान्त मङ्गल । धर्मः स्वर्गगहाङ्गणः सुखनिधि-'धर्मोथकर्मोघहा, धर्मः श्वभ्र निवारकोऽसुखहरो, धर्मोगुणकाणंवः । धर्मोमुक्ति निबम्पनो निरुपमः, सर्वार्थसिद्धिप्रदो, यः सोऽत्राचरितो मया सुचरण-मेंऽस्तु स्तुतः सिद्धये ॥१२॥ इति श्री सिद्धान्तसारदीपके महाग्रन्थे भट्टारक श्री सकलकीति विरचिते अधोलोके श्वभ्रस्वरूप वर्णनोनाम द्वितीयोधिकारः॥२॥ अर्थः-सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र है लक्षण जिसका ऐसा धर्म स्वर्गरूप मृह का प्रांगन है, सुख का खजानारे कर्म समूह को जमा करनाला है, नरकों का निवारक है। ऐसा धर्म ही गुणों का अद्वितीय समुद्र है, मुक्ति का निबन्धक है, उपमातीत है, सर्व अर्थों (प्रयोजनों) की सिद्धि करने वाला है, तथा जो चारित्रवानों के द्वारा प्राचरित और मेरे द्वारा स्तुत्य है ऐसा वह रत्नत्रय धर्म मेरी सिद्धि अर्थात् मोक्ष प्राप्ति के लिये हो ॥१२।। __इस प्रकार भट्टारक सकलकीति द्वारा रचित सिद्धान्तसार दीपक नाम महाग्रन्थ के अन्तर्गत अधोलोक में श्वभ्रस्वरूप का वर्णन करने वाला दूसरा अधिकार समाप्त हुआ। 1. मबस प्रती धर्मोघहन्तामहान् ।
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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